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सरस्वती
[भाग ३६
इस काम पर काफी धन व्यय करना चाहिए--बहु- मक रोग है और इससे सारा जीवन दूभर बन जाता मूल्य गहने और वस्त्र बनवाने चाहिए।
है । कठोर वचन हड्डियाँ तो नहीं तोड़ते, परन्तु छठा उपदेश
उनके कारण जो चोट पड़ती है वह अपरिमित होती "कटुभाषिणी मत बनो।" यह तीन शब्दों का है, और वह कहीं अधिक हानिकर सिद्ध होती है। उपदेश अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। पर इसका पालन इससे मानव-हृदय दूक दूक हो जाता है। और अभागे करना भी स्त्रियों के लिए उतना ही कठिन है । जबान पति को कर्कश नारी के वज्रतुल्य कठोर वचन के को काबू में रखने के वजाय आप उनसे चाहे जो कहिए आघात की असह्य पीड़ा सहन करनी ही पड़ती है। वे शायद मान लेंगी। अधिकांश स्त्रियाँ पति को कई यह घाव प्राय: जीवन सर हरा रहता है। पर कभी प्रकार का उपदेश झाड़ना अपना जन्मसिद्ध अधि- कभी तो पत्नी का कोप और उसको कठोर वावर्षा कार समझती हैं। वे पति को ऐसा झिड़कती और आनन्ददायक भी होती है। हर समय शान्त रहना बुरा-भला कहा करती हैं, मानो किसी दुष्ट, शरारती अस्वाभाविक है। कभी कभी की छेड़-छाड़ दुखादायी बालक को झिड़क रही हो । एक लोकोक्ति है कि यदि नही होती। पर हर समय की छेड़-छाड़ जीवन को जबान चलाओगी तो पति को गवाँ बैठोगी । प्रायः दूभर बना देती है। आखिर हर बात को कोई हद स्त्री का वाक्य कोड़े की तरह लगता है और यदि होती है। हर घड़ी का अपमान आदमी को उदंड आदमी गृह-कलह के दुखदायी दृश्य से बचना बना देता है। यदि स्त्रियाँ अपने पतियों को अपने चाहता हो तो उसे येन केन प्रकारेण सब का घुट प्रेम-बन्धन में रखना चाहती हैं तो उन्हें कर्कश पीना पड़ता है। स्त्रियाँ भूल जाती हैं कि यह संक्रा- स्वभाव छोड़ देना चाहिए।
मेरे मृदु सन्तापों को,
है चिर-संगिनि मेरी यह, रहती है निशि-दिन गिनती।
मेरे इस सूनेपन में । तुमसे भी अधिक मुझे प्रिय,
लेखक,
भरती सामर्थ्य सदा जो, तसवीर तुम्हारी लगती ॥ कुवर सामेश्वरासह, वी० ए० मेरे मृद उन्मन मन में।
सुनती सप्रेम हे अवि वल, अनिमेष हगों से प्रतिपल, सब कुछ जो जो कहता हूँ। है मुझे देखती रहती । इसके समीप रोने में, मेरी स्वप्निल इच्छा का,
संकोच नहीं करता हूँ ॥ उपहास नहीं है करती ॥ नीरव अस्फुट अधरों से,
कल्पना मृदुल मेरी जब, वेदना टपकती रहती ।
इसको सजीव कर देती। निस्पन्द सरस नयनों से,
मेरे जर्जर जीवन में, सान्त्वना बरसती रहती ।।
यह नव जीवन भर देती। इसमें कितनी करुणा है, पीड़ा इसको मेरी जब, इसमें कितनी आशा है। लेती है लगा हृदय से । साकार हृदय की इसमें, रो उठती है यह भी उस, मेरी मृदु अभिलाषा है । निष्फलता के अभिनय से ।।
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