________________
संख्या १]
पुजारी
कहीं लाल रंगवाली बड़ी ऊख देख पाये। उसे लाकर उन्होंने पाँच बिस्वा खेत में बो दिया। गाँव और घरवाले पुजारी की सुनहरे बालोंवाली गोरी गोरी एक मात्र कहते ही रह गये, यह ऊख क्या कोल्हू में जाने पायेगी, कन्या मा की मृत्यु के एकाध ही वर्ष बाद मर गई । पुत्रों इसे तो लोग दाँतों से ही साफ़ कर डालेंगे। ऊख की में बड़ा ननिहाल में पढ़ता था, बाकी तीन को गाँव से फ़सल अच्छी हुई, साथ ही लोगों की बात भी बहुत-कुछ तीन मील दूर के मदरसे में पढ़ने के लिए बैठा दिया था। सच निकली, और नरम तथा मोटी ऊख पर छिप छिपकर पुजारी अभी भविष्य का सुख-स्वप्न देख रहे थे। इसी बहुतों ने दाँत साफ़ किये। किन्तु उससे यह फ़ायदा हुया समय एक घटना घटी, जिसने उस स्वप्न को चूर चूर कर कि दूसरे साल गाँव में कई और आदमियों ने उसी गन्ने दिया। उनका बड़ा लड़का अब अपने पिता के गाँव की खेती की। तीसरे साल तो पुजारी ने डेढ़ दो एकड़ अधिक आने-जाने लगा था। पिता और उनके मित्रों बोया। ऊख इतनी ज़बर्दस्त हुई कि घरवाले चिन्ता करने की देखादेखी वह भी परमहंस बाबा की कुटिया में पहुँचने लगे, यह ऊख तो साझेवाले पत्थर के कोल्हू में अाषाढ़ लगा, और परमहंस जी के एक शिष्य लगे उसके कान में तक भी खत्म न होगी। पुजारी ने पहले आस-पास से वेदान्त और वैराग्य का मन्त्र फूंकने । वैराग्यशतक और पत्थर का कोल्हू खरीदना चाहा । न मिलने पर बनारस विचारसागर के साथ देश देश के नदी-पर्वत, नगरके पास तक की हवा खा आये। पुजारी किसी बात का अरण्य के मनोरम चित्र उसके सामने खींचे जाने लगे। फैसला तुरन्त न कर डालते थे, उन्हें सोचने में देर उनका असर पड़ना ज़रूरी था । आखिर पुत्र ने भी लगती थी। इसी लिए उन्हें अनेक बार मीठी-कड़वी भी पिता की भाँति पूजा-पाठ शुरू कर दिया । त्रिकाल संध्यासुननी पड़ती थीं। उनके एक सम्बन्धी तो उन्हें 'जड़वा- स्नान और एकाहार प्रारम्भ किया। पुजारी को तो इससे रोग' (ठंडक का रोग) कहा करते थे । दो-तीन बार खाली अधिक चिन्ता न हुई, किन्तु घर के सारे लोग सोलह हाथ लौटने तथा काम के डेढ़-दो मास निकल जाने पर वर्ष के लड़के के इस रंग-ढंग को देखकर आशंकित घरवाले और नाराज़ हुए। अन्त में हफ़्ते भर गुम रहने होने लगे। के बाद एक दिन पुजारी बैल पर लोहे का कोल्हू लदाये एक दिन (१९१० ईसवी में) अचानक वह ग़ायब हो पहुँच ही गये। गाँव में, और शायद उस देहात में भी, गया। यद्यपि दो बार पहले भी वह भागकर कुछ महीने वही पहला लोहे का कोल्हू था। लोग डर रहे थे, कल कलकत्ता रह पाया था। किन्तु उस समय वैराग्य का तो अक्सर बिगड़ जाया करती है। बिगड़ जाने पर कौन भूत सिर पर सवार न होने से उतना डर न था, इसी लिए मरम्मत करेगा ? किन्तु पुजारी बेफ़िक थे । संयोग से उस समय इतनी चिन्ता न हुई थी। पुजारी की चिन्ता कोल्हू बहुत अच्छा निकला । उसी साल उसका दाम सध तब दूर हुई जब उन्होंने सुना, लड़का घूम फिर कर गया । तीन-चार साल काम लेकर पौन दाम पर उन्होंने बनारस लौट आया है, और वहाँ संस्कृत पढ़ रहा है। उसे बेच भी डाला।
पुजारी ने खुशी से संस्कृत पढ़ने की अनुमति दे दी, और पुजारी सादगी के पुजारी थे । वे एक नम्बरवाली उन्हें आशा हो चली कि अब वह हाथ से न जायगा। मार्कीन को बहुत पसन्द करते थे। कहा करते थे, यह दो वर्ष बीतते बीतते उन्होंने सुना-लड़का बनारस बहुत मज़बूत होती है, जाड़ा-गर्मी दोनों में काम आ से कहीं चला गया है । कुछ महीनों बाद जब उन्हें मालूम सकती है । इसको पहननेवाला न शौकीन ही कहा जायगा हुआ कि वह दूसरे प्रान्त के एक मठ में साधु हो गया है और न दरिद्र ही । खद्दर के युग से कुछ दिन पूर्व ही वे तब वे अपने बहनोई .....पंडित को लेकर वहाँ पहुँचे । इस संसार से चल दिये। नहीं तो पुजारी उसके अनन्य उन्होंने लड़के की अनुपस्थिति में समझा-बुझाकर महन्त जी भक्त होते।
को इस बात पर राजी कर लिया कि वे घरवालों को दर्शन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com