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सरस्वती
द्वारा ही बालक जगन्नाथ के हृदय में भारतीय कला के गहरे संस्कार प्रविष्ट हुए। पढ़ने लायक उम्र होने पर ये पाठशाला में भेजे गये। वहाँ इन्होंने गुजराती की तीन कक्षायें पूरी की। यहीं से इनका अध्ययन समाप्त हुआ । चित्रकारी का शौक तो ताज़ा ही था । सात वर्ष तक इन्होंने भावसिंह- हाईस्कूल के चित्रकला - शिक्षक श्री मालदेव भाई राणा से चित्रकला का शिक्षण प्राप्त किया। धीरे धीरे श्री मालदेव भाई की तालीम ने इनको बम्बई की कलाशाला के द्वार तक पहुँचा दिया ।
अहिवासी जी बम्बई की कलाशाला में प्रविष्ट हो जाते हैं। इनकी प्रतिभा दिनों दिन विकसित होती जाती है । प्रतिवर्ष अपनी कक्षा में प्रथम नम्बर पर पास होकर ये अध्यापकों के स्नेहभाजन बन जाते हैं। इसी समय गांधी-युग का पहला अवतरण होता है। कलाशाला के आचार्य-पद पर श्री महादेव वामन धुरंधर आसीन होते हैं। अधिकार के आसन पर आसीन होकर धुरंधर महोदय कहते हैं- "तुम्हें खादी पहननी है तो कलाशाला छोड़नी पड़ेगी ।" श्री अहिवासी आर्ट स्कूल को नमस्कार करते हैं और पोरबंदर आकर पिता जी के कीर्तनकार के स्थान को स्वीकार करते हैं ।
परदेशी होते हुए भी भारतीय कला के परम प्रेमी श्री ग्लैडस्टन सालोमन महोदय कलाशाला के आचार्य नियुक्त होते हैं । ये महोदय आते ही पुरानी शिक्षणप्रणालिका को बदलना आरम्भ करते हैं। स्वतंत्र सर्जन तथा सर्जनात्मक वृत्ति को विकसित करने के प्राथमिक परन्तु मुख्य सिद्धान्त को आर्ट स्कूल के अध्ययन क्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है । दूसरी ओर कलाशाला को छोड़कर कीर्तन के भावनाप्रधान गीतों को गाते हुए अहिवासी जी छात्रवृत्ति ढूँढ़ते फिरते हैं । "दो वर्ष और निकाल लो। आज तक के वर्ष कैसे चलाये हैं ? " - इस प्रकार के उत्तर अनेक स्थानों से मिलते हैं। श्री अहिवासी विफल हो जाते हैं, पर निराश नहीं। श्री मालदेव भाई पीठ
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[ भाग ३६
ठोकते हैं और धीरज देते हैं। पुरुषार्थी के लिए सिद्धि का द्वार खुलता है ।
श्री अहिवासी को ज्ञात होता है कि बम्बई में ठाकुर जी के दो-तीन मंदिरों में कुछ विद्यार्थियों को रहने के लिए स्थान दिया जाता है । कीर्तन -द्वारा प्राप्त की हुई अपनी थोड़ी-सी पूँजी लेकर वे बम्बई जाते हैं । वहाँ मंदिर में रहने का प्रबन्ध हो जाता है । वे शाला में प्रविष्ट हो जाते हैं और जे० जे० स्कूल ऑफ आर्ट्स तथा केलकर-कला-मंदिर में तालीम प्राप्त करना शुरू करते हैं। प्रिन्सिपल सालोमन देखते हैं कि पतली देहयष्टी और लम्बी ग्रीवावाले इस विद्यार्थी के हृदय में कला के लिए नैसर्गिक शक्ति निहित है। सालोमन साहब उनको सम्मान - पूर्वक कलाशाला में प्रविष्ट करते हैं और इस कलाविद् आचार्य के सहवास में रह कर वे एक अच्छे कलाकार बन जाते हैं ।
श्री अहिवासी को अपनी कला-साधना में आचार्य सालोमन की सहायता तथा प्रेरणा प्राप्त हुई है । इसके लिए वे उनके बहुत कृतज्ञ हैं तथा उनके लिए बहुत सम्मान का भाव रखते हैं। अहिवासी जी की कलाकृतियाँ वेम्ब्ली की विश्वप्रदर्शनी, वाइसराय के राजप्रासाद और लंदन की पिकाडिली प्रदर्शिनी तक पहुँच चुकी हैं। हाल में ही उनके कुछ कलापूर्ण चित्र लंदन की कला प्रदर्शिनी में भेजे गये हैं ।
सन १९९४ की गर्मी की छुट्टियों में अहिवासी जी अपने कुछ छात्रों के साथ अजन्ता और एलोरा की यात्रा करने गये थे । तीन दिन के निवास के उपरान्त उन कलाधामों को छोड़ते हुए उनका हृदय रोता हुआ प्रतीत होता था । उनके मुख से अजन्ता के गुहाचित्रों की प्रशस्ति सुनने में बहुत आनन्द आता है । कलाशाला के उपहार गृह में बैठे हुए एक दिन वे अपनी यात्रा का वृत्तांत सुना रहे थे। एक अन्तेवासी ने पूछा - "अजन्ता की कला के विषय में आपका क्या विचार है ?" अहिवासी जी ने कहा--- "अजन्ता
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