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सरस्वती
[भाग ३६
करती है तब सुन्दर कला-कृति का जन्म होता है।" इस प्रकार उत्तर देते हुए उनकी कल्पना शत-शत संवत्सर बीत जाने पर भी अमिट रहनेवाले अजन्ता के उन भित्ति-चित्रों का सूक्ष्म विवेचन करने लगती है और मानो हमको हठात वहीं ले जाकर खड़ा कर देती है । उनका प्रवचन अभी जारी है। वे कहते हैं"वायसरीगल लॉज में हमने भित्तिचित्र बनाये हैं, परन्तु वे सब कॅनवास पर बने हुए हैं, क्योंकि हमको विश्वास नहीं है कि वे चिरकाल तक दीवार पर अंकित रह सकेंगे। परन्तु यहाँ-अजन्ता के कलामंडपों में तो मिट्टी के रंगों से बनाई हुई कृतियाँ सदियाँ बीत जाने पर भी नित्य नूतन प्रतीत होती हैं। _एक दिन साँझ-समय श्री अहिवासी जी बम्बई के एक उपनगर की ओर भ्रमणार्थ गये। एक विशालकाय बँगले के पास से गुजरते हुए उन्होंने अपनी एक कृति खराब स्थिति में देखी। कलाकार के मन में अतिशय ग्लानि उत्पन्न होती है-“मेरी कला की यह दशा” ! मन-ही-मन अहिवासी जी बोल उठते हैं कि
खरीदने के लिए पैसे हों तो इस चित्र को मोल लेकर भिक्तिभेंट
अपने कुटीर में लगाऊँ। उनके हृदय में इसी प्रकार "बॉम्बे कानिकल" के "कांग्रेस अंक' के टाइटल
की कला-भक्ति है। इस घटना से यह स्पष्टतया प्रतीत पेज के लिए बनाया गया ।
होता है कि आधुनिक अर्थयुग में कला का व्यापार "इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दें? कलाकारों ने करनेवाले कलाकारों में उनकी गणना नहीं है। कलानिर्माण के लिए स्थान भी सौन्दर्य से भरपूर ही कवि-सार्वभौम श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शान्तिचुना है।” इतना कहते ही श्री अहिवासी की कल्पना निकेतन के कलामंदिर के अध्यक्ष अभिजात कलाकर उस स्थान का सौन्दर्य बताने के लिए सजीव-सी हो श्री नन्दलाल वसु श्री अहिवासी की कला पर मुग्ध गई। वे कहने लगे-"लोक-जीवन का श्वासोच्छ्वास है। उनका यह अभिप्राय है कि बंगाल-स्कूल के सामने उन चित्रों में भरा हुआ प्रतीत होता है. मानो कोई गुजरात में कोई भी यदि भारतीय कला की मशाल बौद्ध साधु हाल में ही आकर उन चित्रों का परिचय लेकर खड़ा रह सकता है तो वे हैं श्री अहिवासी। देने के लिए हमको वहाँ लिये जा रहा है।" नन्दलाल बाबू ने गुजरात छोड़कर बंगाल में आ जाने _एक सहृदय-व्यक्ति फिर प्रश्न करता है- "भार- के लिए उनको कई बार आमंत्रित किया है, परन्तु तीय कला की विशेषता क्या है "
बम्बई की कलाशाला के आचार्य और छात्रवृन्द उनको "अखंड बहती हुई चित्ररेखा ही हमारी कला छोड़नेवाले थोड़े हो हैं ! का विशिष्ट अंग है। पानी के अखंड प्रवाह की तरह श्री अहिवासी जी के मन में भी नन्दलाल बाबू एक परिपूर्ण रेखा प्रवाहित होकर जब चित्र-निर्माण के प्रति अपूर्व श्रद्धा है। इन पंक्तियों के लेखक को
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