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संख्या २]
नई पुस्तकें
इस पुस्तक का अपना निजी मूल्य है । साधारण जीवनियों में लिए वह परमोपयोगी एवं वाञ्छनीय है।" सांसारिक ऐसे प्रभावोत्पादक स्पष्ट चित्रण कम मिलते हैं । यह जीवन के साथ अर्थात् हमारे दैनिक कार्य-कलापों के साथ 'चरितावली' इसी कारण हिन्दी में अपना एक विशेष वेदान्त के अध्यात्म-ज्ञान का सामंजस्य किस प्रकार हो स्थान रखती है । श्री तिवारी जी के स्वर में स्वर मिला कर सकता है, इस बात को गीता के आधार पर लेखक महोयह कहना अत्युक्ति न माना जायगा कि "चारुचरितावली दय ने प्रतिपादित किया है। पुस्तक का यह प्रथम भाग के चित्रण श्रद्धांजलियाँ हैं, जो श्रद्धा, स्नेह और सहानुभूति है और इसमें गीता के चार अध्यायों की विस्तृत व्याख्या के रंगबिरंगे फूलों से सजाई गई थीं। उनमें वीर-पूजा की है । गीता के श्लोकों की व्याख्या के अतिरिक्त लेखक भावना प्रधान है।"
महोदय ने उनका 'स्पष्टीकरण' किया है और उनको यथा__यों यह पुस्तक सभी हिन्दी-प्रेमियों को रुचिकर प्रतीत स्थान व्यवहारोपयोगी सिद्ध किया है। होगी, परन्तु 'चरित-ग्रन्थों' के पाठकों को तो इसका प्रारम्भ में १६२ पृष्ठों की एक विस्तृत भूमिका है । अवलोकन अवश्य ही करना चाहिए ।
'उपोद्घात' एवं 'गीता का व्यवहार-दर्शन' नामक दो ___ -भगवानदास अवस्थी भागों में यह विभक्त है, जिनमें बड़ी छानबीन के साथ ५.--गीता का व्यवहारदर्शन-लेखक, श्रीयुत सेठ अनेक दार्शनिक विषयों का विवेचन किया गया है और रामगोपाल जी मोहता, प्रकाशक, चाँद-प्रेस, लिमिटेड, वेदान्त की अनेक बातें स्पष्ट रूप से समझाई गई हैं। चन्द्रलोक, इलाहाबाद । पृष्ठ-संख्या ३८३ तथा मूल्य लेखक महोदय जगत् और उसके व्यवहार को अविद्या
का ही कार्य नहीं मानते और इस प्रकार जगत् के मिथ्यात्व यह श्रीमद्भगवद्गीता की एक नई व्याख्या है। को भी प्रचलित अर्थों में स्वीकार नहीं करते । वेदान्त के
नेक टीकायें, भाष्य तथा विवृत्तियाँ प्रकाशित सिद्धान्त के अनुसार सृष्टिकर्ता ईश्वर और ब्रह्म दोनों एक हो चुकी हैं और आज भी अनेक मनीषी विद्वान इस पर ही पदार्थ नहीं हैं। ईश्वर को माया-विशिष्ट मानकर ही अपने अपने दृष्टिकोण से अपने अपने भाष्य तथा उसमें सृष्टि का कर्त्तत्व, प.लदातृत्व आदि सिद्ध हो सकते व्याख्या ये प्रकाशित करते जा रहे हैं। भारतीय दर्शन-शास्त्र हैं, अन्यथा नहीं। के क्षेत्र में ज्ञान, कर्म तथा 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय'---इन तीन लेखक महोदय ने भूमिका में जहाँ अात्मा को जगत् विचारधारात्रों की त्रिवेणी प्राचीन काल से ही बहती चली का अभिन्न निमित्तोपादान कारण माना है (पृ० ६६), वहाँ
आई है । भगवान् शंकर ने गीता में ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपा- यह स्पष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया है कि जब 'श्रात्मा दित करके उसे निवृत्ति-मार्ग की ओर ले चलनेवाली सिद्ध स्वयं जगदाकार होता है' तब यह परिवर्तन क्या परिणामकिया है। संसार के व्यवहारों से उदासीन जनता को वाद के सिद्धान्त पर होता है या विवर्त्तवाद के सिद्धान्त के कर्मयोग का उपदेश देने के लिए लोकमान्य तिलक ने अनुसार । इसका स्पष्टीकरण होने से सृष्टिकर्ता और शुद्ध एक बार फिर गीता को 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय' का प्रति- ब्रह्म का भेद स्पष्ट हो जाने से मायाविशिष्ट ईश्वर किस पादक सिद्ध किया । लेखक महोदय के शब्दों में उनकी प्रकार मायाविशिष्ट होता हुआ भी 'अज्ञानी' अथवा इस गीता-व्याख्या की कथा इस प्रकार है-“लोकमान्य अविद्याग्रस्त नहीं हो सकता, यह शंका स्वयं निर्मूल तिलक महाराज रचित 'गीतारहस्य' को भी मैंने एकाग्र हो जाती। चित्त से पढ़ा और स्वामी श्री रामतीर्थ जी महाराज के पुस्तक की भाषा सरल है। आज-कल के समय में व्याख्यानामृतों का भी अच्छी तरह अध्ययन किया, जिससे हमें ऐसी ही व्याख्यानों की तथा ऐसे ही दार्शनिक ग्रन्थों - यह निश्चय हो गया कि वेदान्त-शास्त्र केवल निवृत्ति-मार्ग की आवश्यकता है जो जनता को मिथ्या निवृत्तिपरायणता का ही प्रतिपादक नहीं है, किन्तु संसार के व्यवहारों के के ढकोसले से हटाकर कर्मशील बनावें और आध्यात्मिक
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