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संख्या २]
नई पुस्तकें
१६५
पुरुष पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । छपाई साधारण ११-- 'शाईने अकबरी'-- इसके अनुवाद के सम्बन्ध है । मूल्य ||) है।
में हम सरस्वती के किसी अंक में एक नोट छाप चुके हैं । उपर्यक्त पुस्तकों के मिलने का पता-श्री सीताराम- प्रसन्नता की बात है कि यह छप कर खण्डशः निकलने भी संकीर्तन-सदन, स्वर्गद्वार, अयोध्या (फ़ैज़ाबाद)।
लगा है। इसका प्रत्येक अंक प्रति तीसरे महीने निकलता ९--भाग्य-निर्माण--अनुवादक, ठाकुर कल्याण सिंह
है। इसका प्रत्येक अंक ६४ पृष्ठ का होगा । इसका आकार बी० ए०, प्रकाशक, छात्र-हितकारी-पुस्तकमाला, दारागंज,
रायल अाठ पेजी और काग़ज़ तथा छपाई भी साफ़ सुथरी प्रयाग हैं । मूल्य १m) है।
है। स्थायी ग्राहकों से इसका वार्षिक मूल्य ४॥) है। एक
अंक का मूल्य ११) है। इसका प्रकाशन इसके अनुवादक यह पुस्तक श्रो. एम० मार्डन की 'श्रा/टेक्ट्स
को ही करना पड़ा है। क्या ही अच्छा होता यदि यह अाफ़ फ़ेट' नामक अँगरेज़ी पुस्तक के अाधार पर लिखी।
काम किसी साहित्यिक संस्था के द्वारा होता। कदाचित् गई है। अनुवाद की भाषा सरल और जोरदार है। .
। पाण्डेय जी की उन संस्थानों तक पहुँच नहीं हो सकी, आज-कल हमारे शिक्षित नवयुवक बेकारी की भीषण ।
___ अतएव उन्हें अब प्रकाशन का भी भार अपने ऊपर लेना समस्या के शिकार हो रहे हैं । इस पुस्तक से उन्हें इस
पड़ा है । हिन्दी के साहित्यकारों को ऐसी ही असुविधाओं का अवस्था में बड़ा सहारा मिलेगा। अनुवादक महोदय ने
सामना करना पड़ता है। हमें आशा है, पाण्डेय जी इस अपने निजी अनुभवों के साथ साथ अनेक भारतीयों के
असुविधा को झेल ले जायँगे और इस व्यवस्था से 'आईने ऐसे उदाहरण नवयुवकों के सामने रक्खे हैं जिन्होंने अपने
अकबरी' हिन्दी में हो ही न जायगी, किन्तु उन साहित्यअध्यवसाय, धैर्य और साहस से अपने भाग्य का निर्माण
अपन भाग्य का निमाण प्रेमियों को भी सुलभ हो जायगी जो इतनी बड़ी पुस्तक किया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक नवयुवकों के काम की
का मूल्य एक बार में देने में समर्थ नहीं हैं । इसके दो अंक है। पुस्तक की छपाई तथा 'गेट-अप' अच्छा है।
अब तक निकल चुके हैं। इनको देखने से जान पड़ता है १०--मधुवन--(कविता) लेखक, श्रीयुत आनन्द- कि पाण्डेय जी ने 'आईन अकबरी' का कोरा कोरा अनुकुमार, प्रकाशक, गंगा-ग्रन्थागार, लखनऊ हैं । मूल्य बाद ही नहीं किया है, किन्तु उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के स्थल
स्थल पर उपयुक्त टिप्पणियाँ लगाकर उसे और भी अधिक इसमें लेखक महोदय की खड़ी बोली और व्रजभाषा उपयोगी बना दिया है। यही नहीं, उन्होंने अपनी टिप्पकी २४ कविताओं का संग्रह है। पहले एक कविता खड़ी णियों को आवश्यक नकशों तथा चित्रों से अलंकृत करके बोली की तब दूसरी व्रजभाषा की छापी गई है । सारी पुस्तक सारे विषय को भले प्रकार बोधगम्य बना दिया है। इसमें में यही क्रम है। कविताओं के विषय सभी तरह के हैं। सन्देह नहीं कि इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अपने अनुवाद को गान्धी, जवाहर, दयानन्द, ऋतुराज, व्रज, केश आदि तादृश महत्त्वपूर्ण बनाने में पाण्डेय जी ने अपने भरसक विषयों के साथ साथ ऐसी कवितायें भी इस पुस्तक में हैं कुछ बाक़ी नहीं रक्खा और इसके इस तरह तैयार करने के जिनमें रहस्यवाद की झलक मिलती है। हमारी सम्मति में लिए वे धन्यवाद के ही नहीं पात्र हैं, किन्तु इसके साथ व्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली में कविता लिखने में यह भी आवश्यक है कि साहित्य-प्रेमी अधिक संख्या में लेखक महोदय को अधिक सफलता मिली है।
इसके ग्राहक बनकर इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहायक कविताओं की भाषा प्रसादगुणयुक्त है।
बनें । इस सम्बन्ध में विद्या-मन्दिर, कानपुर के पते पर -- कैलासचन्द्र शास्त्री, एम० ए० प्रकाशन महोदय से पत्र-व्यवहार हो सकता है ।
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