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संख्या २]
रँगा सियार
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मुझे उसकी इस सरलता पर और भी हँसी मैंने उसे कुछ धमकाया, कुछ डराया, कुछ आई । मैंने कहा-"भाई साहब, आप निरे बूदम हैं दिलासा दिया कि सच सच हाल बता दे कि वह जो यह समझते हैं कि मुंशी की साजिश इसमें न मूर्ति पानी में फेंकी भी गई या कोई नजरबन्दी थी। थी। वह बिना उससे मिले आपको चरका नहीं दे अयोध्या ने कहा- "मूर्ति फेंकी अवश्य गई, किन्तु सकता था।
वह नहीं । पूजा करने के बहाने जब उसने मूर्ति ली ___ उसे कुछ शक होने लगा और हम दोनों इस तब वही मूर्ति सरकार को नहीं दी। एक दूसरी मामले की
पीतल की मूर्ति चद्दर के भीतर सीसा भरकर नाव उस कोठी के फाटक पर जो दो चमार रहते थे, पर रक्खी थी। वही फेंकी गई। उन्होंने बताया-मुंशी जी और शाह जी कई दफे साथ जिम सुनार ने वह दूसरी मूर्ति बनाई थी उसने साथ उस कोठी में गये थे। दो-चार दफ़ एक ठेला उसका बनाना स्वीकार किया, मगर यह भी कहा भी आता-जाता उन्होंने देखा था, मगर कोठरी में कि बनवाया था अयोध्याप्रसाद ने ही। कुछ खोदने या गाड़ने की उन्हें कोई खबर नहीं हुई। मुझे तो था ही नहीं, चिरंजीतसिंह को भी जिस रात को आँधी आई थी, शाह जी और मुंशी अयोध्याप्रसाद के दोषी होने में अब कोई सन्देह जी उस कोठरी से कोई चीज़ ले गये थे। ठेला साथ नहीं रहा और वे उसे पुलिस में देने को तैयार हो आया था।
गये। मगर मैंने ही इस ख़याल से पुलिस के सुपुर्द मुंशी पुराना आदमी था। इस शहादत के नहीं करने दिया कि मुफ्त मेरा मित्र बेवका बनेगा। आगे गर्दन झुकाये खड़ा रहा। आखिर में बोला- पीछे पता चला कि शाह साहब ने मुंशी को भी चरका "हुजूर, मै खतावार ज़रूर हूँ, मगर अपने बच्चों दिया। आधे का साझीदार उसे ठहराया था, मगर की क़सम खाता हूँ कि मुझ पर उसने बड़ा ही रोब आँधीवाली रात को ही वे गायब हो गये। अयोध्यागाँठा था। मैं बिलकुल अपने आपे में नहीं था। वह प्रसाद इसी से दूसरे दिन घबराया हुआ आया था। जो चाहता था मुझसे करा लेता था।"
उसकी वह घबराहट बनावटी न थी।
लेखक, श्रीयुत शैलेन्द्र आ सँग चल सखि ! सुरसरि-जीरे !
(२) डुबकी भर तन तपन मिटा दे।।
अमल प्रणय जलराशि बह रही, बस न रह गया मेरा मन पर,
उर की मेरे प्यास दह रही; चलती रग रग नव उछाह भर;
सुख-सँयोग अभिलाष बढ़ रही, क्षण में पाँव तीर त्यागें सखि !
भीजी पलकें अलकें बुड़कर । जल छूते हों सब तन सीरे।
उछलूँ नवजीवन ले धीरे।
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