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संख्या २]
अोझा
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लगे। पर मैं इन सब बातों में अनभिज्ञ होने से कुछ ठोक जमाई तब उस औरत पर भवानी चढ़ बैठीं। मार से
सका । मैंने समझा कि पंडित जी अपने ऊपर बचने के लिए उसने भी औरों की तरह माथा पीटना धार चढ़ाने को कहते हैं। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि और अभुनाना शुरू किया। यह कृत्य थोड़ी देर तक होता घार देने के माने देवी को धार चढ़ाना है । मैं झट मन्दिर रहा और सब भूतों को ठीक करके पंडित जी ने सबको से धार का घड़ा उठा लाया और एक-दम पंडित जी के सिर बिदा किया । मैं भी जाने ही वाला था कि पंडित जी ने पर उड़ेल दिया। बड़ा तहलका मचा औरतें हाथ चमका मुझे रोककर कहा-ठहरिए बाबू साहब, मैं भी चलता चमका कर मुझे गालियाँ देने लगी निगोड़े को देखो, हूँ | अभी जल्दी क्या है ? रास्ते में वे मुझसे अपनी बातें देवी-देवतायों से भी दिल्लगी। माई कच्चा ही खा जायँगी करते रहे । उन्होंने कहा- जैसा मैंने आपसे कहा था, मैं इत्यादि । पंडित जी लथपथ हो गये और भयंकर दृष्टि से बनारस में चन्द्र ग्रहण तक ही रहनेवाला था। पर जिस मेरी ओर देखकर चुनिन्दे शब्दों में मुझे गालियाँ दी। महल्ले में मैं टिका हूँ वहाँ के वासियों को मेरे गुण से बड़ा पर न जाने क्या सोचकर फिर चुप हो रहे । सोचा होगा लाभ पहुँचा है । कितनों का रोग अच्छा हो गया। भूतकि आदमी कठिन है, कहीं ग्राफ़त न मचावे। देवी के पिशाच तो अब उस महल्ले के नज़दीक तक नहीं पाते। सिर पर से उतरते ही पंडित जी पूर्ववत् हो गये। लोग वहाँ से अब मैं भागना चाहता हूँ, पर वहाँ के लोग मुझको मुझे वहाँ से निकाल बाहर कर देना चाहते थे, पर पंडित जाने नहीं देते । मेरे बहुत-से मंत्र अभी सिद्ध नहीं हुए हैं । जी ने सबको ऐसा करने से मना किया और मेरी अज्ञानता क्या करें ? समय ही नहीं मिलता। खैर, इस शरीर से जो की कठोर शब्दों में विवेचना करते हुए बोले- अापने कुछ लोगों को लाभ पहुँच जाय वही ठीक है । इस समय गज़ब ही कर डाला था। मैंने देवी को बहुत सँभाला, धूप अधिक हो गई थी। थोड़ी-थोड़ी लू भी चलने लगी नहीं तो अापकी लाश तड़फती नज़र आती । बिना समझे- थी। घर में लोग रसोई का इन्तज़ार कर रहे होंगे। यह बूझे काम करना आप ऐसे पढ़े-लिखे मनुष्यों को उचित सोचते ही झट मैं पंडित जी को नमस्कार करके डग बढ़ाता नहीं है । भविष्य में इसका ध्यान रखिएगा।
हा घर की ओर चल खड़ा हुआ। __पंडित जी की ये बातें मुझे ज़रा बुरी तो लगीं, पर मन मार कर रह गया । इस समय वाद-विवाद करना अपनी इस घटना को बीते भी कई महीने हो गये। पंडित फजीहत आप बुलानी थी। एक तो आगे की कार्रवाई जी के उस रोज़ के रंग-ढंग से मेरी उन पर अश्रद्धा हो रुक जाती, दूसरे अगर पंडित जी चाहते तो मुझे अर्धचन्द्र गई थी। मैंने समझ लिया कि वे बेवक़फ़ों को ठगने के दिलवा सकते थे। अपने भक्तों को शान्त करके पंडित जी लिए ही यहाँ आये हैं। पहले तो मैंने सोचा कि उनकी अब दूसरों के सिर देवी बुलाने को उठ खड़े हुए। पोल पत्रों में खोल दूँ, पर फिर सोचा कि जब लोग जानदर्शनियों में अधिकतर स्त्रियाँ थीं। जो खेली-खाली थीं बूझ कर भी अपने को ठगवाना चाहते हैं तब उसमें वे तो पंडित जी के पास जाते ही अभुपाने लगी और मेरा क्या । मैं क्यों उस ब्राह्मण की जीविका छीनूँ ? अपने अपने भूत कबूलने लगीं। पर उनमें एक नई बरसात शुरू होते ही मेरा कच्चे महल्लों में घूमना भी मी थी। पंडित जी ने उस पर भी देवी की लकड़ी बन्द हो गया । बरसात के कीचड़ तथा नलों की बदबू ने घुमाई । पर वह सिर नीचा किये रह गई। देवी को उस पर मेरा हौसला पस्त कर दिया। इन दिनों मेरी बैठक एक कृपा न करते देख पंडित जी ने उसको एक लकडी जमाई। मित्र के यहाँ हर शाम को होती थी। आपका मकान ठीक इस पर वह बोल उठी-'हे पंडित, हमके मारा मत। गंगा के किनारे था और उसके पुश्ते पर से एक तरफ़ अब ही तोहार देवी हमरे ऊपर नाहीं पायल बाँटी ।' मुझे रामनगर तक का और दूसरी ओर आदिकेशव तक के तो बड़ी हँसी आई, पर पंडित ने जब एक लकड़ी और दृश्य दिखलाई देते थे। बरसात की मनोरम घटा जो
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