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संख्या २]
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में मांस की कमी न हो, चर्म मुलायम और पतला दिखाई दे । यहाँ 'दुर के बोल सुहावन' वाला सिद्धान्त हो (कदापि उसका कृष्णवर्ण न हो), आँखें सुन्दर नहीं है । तुलसीदास जी की हथौटी में जितनी कविता
और चमकीली हां, इत्यादि इत्यादि । अब यह सिद्ध थी वह सब उन्होंने खर्च कर दी। वे कहते हैंहोता है कि सब जगह सौंदर्य का एक ही आदर्श "सब उपमा कवि रहे जुठारी, नहीं है और इस कारण सब जगह इसका एक ही
केहि पटतरिय विदेहकुमारी।" भाव और दर नहीं है। प्रत्येक अङ्ग का वर्णन न उपमा का काम प्रभाव को द्विगुणित कर देने का है, करके सौन्दर्य के समूह का वर्णन हिन्दी-कविता में पर ऐसे अवसर भी होते हैं जब उपमा प्रभाव को बहुत उत्तम है । एक कवि कहता है
घटा देती है। उसी से बचने के लिए गोस्वामी जी “विहँसै दुति दामिनि-सी दरसै
ने यह लिखा कि उपमायें सब जूठी हो गई हैं और तन जोति जोन्हाई उई-सी परै। उनसे विदेह-कुमारी का सौन्दर्य कहीं अधिक है । तब लखि पायन की अरुनाई अनूप
कौन-सी अनूठी उपमा का प्रयोग किया जाय ? धन्य ललाई जपा की जुई-सी परै।
तुलसीदास जी ! कविता इसे कहते हैं, कुछ नहीं । निकरै-मी निकाई निहारे नई
कहा और सब कुछ कह गये। __रति रूप लोभाई तुई-सी परे।
__अब यह पाठकों पर प्रकट हो गया होगा कि सुकुमारता मंजु मनोहरता मुख,
'रूप' को और देशवाले 'दृष्टि' समझते हैं और उनके __ चारुता चारु चुई-सी परै'।
मतानुसार संसार में केवल स्त्री ही एक देखने की मतिराम ने और भी कमाल कर दिया है। उन्होंने वस्तु है । 'दृष्टि' स्त्री में क्या देखती है, इस पर जो कहा है-"ज्यों ज्यों निहारिये नेरे कै नैनन त्यों कुछ लिखा गया है उसका कोई भी अंश उद्धृत त्यों खरी निकरै सी निकाई।" कितनी बड़ी प्रशंसा करना उचित नहीं प्रतीत हुआ। यही उनका दर्शनकी हैयह नहीं कि दूर से ही देखने में सुन्दरता शास्त्र है और यही उनका सांख्य-शास्त्र है।
प्रोढ़नी
लेखक, श्रीयुत उमेश
ओढ़ने को दी तमोगुण की मुझे क्यों ओढ़नी ? घिर गई मेरे हृदय में सघन घन की कालिमा। शून्य-जीवन में मचा दुख-वात का उत्पात-सा, छिप गई वह कनक-किरणों की प्रभामय लालिमा, हिल रहा है गात मेरा पीत पीपल पात-सा, चन्द्र-तारक-रहि न नभ की यामिनी-सी मैं बनी। मूक-प्राणों में सिमट कर सो रही पीड़ा घनी ।
दीप-लौ-सी थी कभी जो लालसा सोल्लास में, रात्रि के मरु-विजन-पथ-सी अंधतम आगार में, - धूम बन मँडरा रही है अब वही श्लथ-श्वास में, मैं युगों से हूँ पड़ी इस रेणुमय संसार में, __ सजल-स्मृतियों की हगों पर स्वप्न जाली-सी तनी। प्रिय ! मुझे दोगे न क्या तुम एक भी द्युति की कनी ?
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