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सरस्वती
[भाग ३६
व्यक्ति थे। दीना से प्रायः कहा करते थे—दीनू, जब दिन दीना को बुला कर कहा-दीनू, तुम्हारे ऊपर मेरा तक मैं हूँ, मेरे ही यहाँ बने रहो। वह भी कह देता, जो रुपया आता है उसे अब दे न दो । आख़िर देना आपको छोड़ कर कहाँ जाऊंगा। वह बड़ा स्वामि-भक्त ही तो है। दीना ने कहा-पंडित जी, इस समय मेरे था, किन्तु अकारण किसी की डाँट-डपट सुनने का पास रुपया नहीं है। पर अब मैं उसे अदा करके ही अभ्यस्त नहीं था। पंडित जी की सहधर्मिणी का स्वभाव रूखातथा कठोर था। इससे उनके यहाँ कोई टिकता नहीं था। दीना यद्यपि सहनशील था, तो भी उसकी भी सीमा थी।
आख़िर उसको भी एक दिन पंडित जी के चरण छूकर अपने घर की राह लेनी पड़ी। पंडित जी को परिस्थिति का ज्ञान था ही, अतः कुछ न कह सके । वे दीना के सरल एवं निश्छल व्यवहार से यद्यपि
उन्होंने पत्नी से
कहासन्तुष्ट थे, और
"अाज से तुम इच्छा भी हुई कि कुछ कहें, पर कहते कहते
इसकी माता और रुक गये। किसी ने
यह तुम्हारा पुत्र" कान से लग कर कहा, 'दरिद्र दीना को मनाकर रखने की क्या आवश्यकता है।'
(२) इस घटना के दो महीने बाद पंडित जी ने एक
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