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सरस्वती
सचित्र मासिक पत्रिका
अगस्त १६३५ }
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
भाग ३६, खंड २ संख्या २, पूर्ण संख्या ४२८
ग्राकांक्षा
लेखक, श्रीयुत सुमित्रानन्दन पंत
मैं
भर पड़ता जीवन- डाली से पतझड़ का-सा जीर्ण-पात ! - केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात !
मधु का प्रभात ! - लद-लद जातीं वैभव से जग की डाल-डाल, कलि-कलि, किसलय में जल उठती सुन्दरता को स्वर्गीय ज्वाल ! नव मधुप्रभात ! — गूंजते मधुर उर-उर में फिर आशाऽभिलाष, सुख-सौरभ, जीवन कलरव से भर जाता सूना महाकाश !
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{ श्रावण १६६२
: मधु-प्रभात ! जग के तम में भरती चेतना अमर प्रकाश, मुरझाये मानस-मुकुलों में पाती नव मानवता विकास !
मधु- प्रात! - मुक्त नभ में सस्मित नाचती धरित्री मुक्त पाश, रवि-शशि केवल साक्षी होते अविराम प्रेम करता प्रकाश !
मैं भरता जीवन- डाली से साह्लाद, शिशिर का शीर्ण-पात, फिर से जगती के कानन में आ जाता नव मधु का प्रभात !
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