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संख्या २]
रूप
मेरा अनुमान ठीक ही था। उन लेखों में एक बार मृदु और दारुण” (विश्व-कोष) इन सबको उन्हें भी दर्शन-शास्त्र का नाम नहीं आया था और न समझाना जिनकी खोज इस ओर कुछ भी नहीं है, उस दृष्टि से वे लेख लिखे ही गये थे। उन्हीं लेखों कठिन नहीं बरन असम्भव है। विश्व-कोष में यह के आधार पर मैंने 'गन्ध' नामक लेख लिखा था, जो भी लिखा है कि “पदार्थों में एक शक्ति रहती है जिससे सितम्बर १९३३ की सरस्वती में प्रकाशित हुआ है। उनका तेज इस प्रकार विकृत होता है कि जब यदि ध्यान-पर्वक देखा जाय तो उसमें केवल भिन्न वह आँखों पर लगता है तब देखनेवालों को उस भिन्न देशों के मनुष्यों की शारीरिक गन्ध का वर्णन पदार्थ की आकृति, वर्ण आदि का ज्ञान होता है। है, और इसका भी वर्णन है कि किस गन्ध का इस शक्ति को भी रूप ही कहते हैं। इन सबकी 'रूप' कामोद्दीपन पर प्रभाव पड़ता है। अब जब 'स्पर्श' संज्ञा हमारे शास्त्र जाननेवालों ने बड़ी खोज के विषय के लेख देखे तब उनमें भी वही रङ्ग और बाद की होगी। अभी स्पेकट्रास्कोप-यंत्र का आविवही दृष्टिकोण पाया। मेरा 'स्पश' शीर्षक लेख कार हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं, जिसके द्वा
आक्टोबर १९३४ की सरस्वती में प्रकाशित हुआ है। के उस पर्दे के नीचे का प्रकाश तुलसीदास जी ने लिखा है-“जाकी रही भावना जिसे अँगरेज़ी में 'स्पेकट्रम' कहते हैं। यह वही पर्दा जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।" जिस दृष्टि से जो है जिस पर प्रकाश प्रतिबिंबित होता है और जिस दुनिया को देखेगा, वैसे ही उसके विचार होंगे, पर प्रकाश-द्वारा प्रतिमायें बन जाती हैं। 'स्पेकट्रम'और जैसे विचार होंगे, वैसा ही उनके प्रकट करने शब्द लेटिन-भाषा का है, जिसका अर्थ उस भाषा में का ढङ्ग होगा। इस जीवन के परे जीवन पर आकार या प्रतिमा है। जो अब खोज करके जाना हिन्दओं की सदैव दृष्टि रहती है और अन्य देश- गया है या जाना जा रहा है वह हमारे विद्वान बहत वासियों की निगाह क़ब्र के उस ओर पहुँचती ही पहले से जानते थे। यदि न जानते होते तो 'रूप' नहीं है। कदाचित् इस पर हमारे विचार करने का शब्द के अर्थ आकार या चिह्न के न होते। आँख यह समुचित स्थान नहीं है कि जो भारतवासी उसी को तो देख सकेगी जिसका कुछ आकार मानते हैं वह ठीक है या जो और देशवाले मानते होगा, और आकार ही का तो नाम रूप है। हैं वह ठीक है। इसका वाद-विवाद निर्धारित पथ 'रूप' के देवता अग्नि हैं । इस पर भी हम लोगों से हमें बहुत दूर हटा ले जायगा।
पर बड़े आक्षेप होते हैं और कहा जाता है कि हम सब लोग जानते हैं कि तन्मात्राओं में 'रूप' हिन्दुओं को हर चीज़ का एक देवता होता है। एक का तृतीय स्थान है, और यह भी हम सब लोगों को विद्वान् का कथन है कि किसी पर आक्षेप करना मालूम है कि यह नेत्र ज्ञानेन्द्रिय का विषय है। नेत्र- सहज है, पर उसके गुण परखना कठिन है। द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे 'रूप' कहते हैं । 'रूप' बात है तो ठीक । किसी पर मिथ्या दोषारोपण शब्द के अर्थ आकार और चिह्न इत्यादि हैं। करने के लिए योग्यता की आवश्यकता नहीं होती, "दर्शन-शास्त्र में रूप को चक्षु इन्द्रिय का विषय माना परन्तु गुणों के परखने के लिए पूर्ण पाण्डित्य की है। सांख्य ने इसे पञ्चतन्मात्राओं में एक माना है। जरूरत होती है। भावों को प्रकट करने के लिए बौद्ध-दर्शन में इसे पाँच स्कन्धों में पहला स्कन्ध कहा केवल शब्द का व्यवहार पर्याप्त नहीं है। हमें अपने है। महाभारत में सोलह प्रकार के रूप माने गये हैं- मुख की आकृति से, आँखों से, और हाथों से काम जैसे, ह्रस्व, दीर्घ, स्थूल, चतुरस्र, वृत्त, शुक्ल, कृष्ण, लेना पड़ता है और जब-तब लक्षणा, अलङ्कार, संकेत नीलारुण, रक्त, पीत,कठिन,चिक्करण, श्लक्षण,पिच्छिल, इत्यादि की भी सहायता आवश्यक होती है। लाक्षणिक
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