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संख्या १]
दीनानाथ
रहूँगा। पंडित जी ने वात्सल्य-पर्ण दृष्टि से दीना की
ओर देखकर कहा—इसका क्या अर्थ है ? दीनू , मैं तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहता। अभी सुभीता न हो तो फिर दे देना। मैंने तो याद दिलाने के लिए तुम्हें बुलाया था। दीना ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, यह आपका तकाजा नहीं है, घटघटवासी भगवान का आदेश है। जिन्दगी का क्या भरोसा है ? आज हूँ, कल न रहूँ ! तब यह ऋण कोन चुकायेगा ? पंडित जी थोड़ी देर चुप रह कर बाल-तब क्या करना चाहते हो?
दीना ने नम्र स्वर से उत्तर दिया-मेरे पास एक भैंस है। वह अभी दूध दे रही है। उसे लेकर मुझे उद्धार कर दीजिए।
दीनानाथ का हृदय दयार्द्र हो उठा। उन्होंने कहा-देखो दीनू, इस समय वह भैस तुम्हारा प्रतिपालन कर रही है। उसे अपने ही पास रहने दो। मैं अब कभी तुमसे रुपया न माँगूंगा। जब सुभीता हो, दे जाना।
दीना ने कृतज्ञता-भरे भाव से पंडित जी की ओर देखकर कहा-ऐसी आज्ञा न हो अन्नदाता । मेरा अब निस्तार ही कर दीजिए। यह आधार भी यदि हाथ से निकल जायगा तो मैं फिर ऋण न चुका सकूँगा। मैं मजदूरी करके अपना पेट पाल लूँगा और आपका गुण गाऊँगा। मुझे कोई कष्ट न होगा।
दीनानाथ ने कुछ तेज़ स्वर में कहा-तुम्हारी यही इच्छा है, तो ले आओ। पीछे देखा जायगा।
दीना ने भैंस लाकर दरवाजे पर बाँध दी और पैरों पर गिरकर रुद्ध कंठ से कहा-मैं दीन और
आप दीनानाथ हैं। मुझे इस ऋण से उद्धार कर दीजिए।
पंडित जी का कोमल हृदय विचलित हो उठा। उन्होंने चाहा कि दीना को भैंस ले जाने की आज्ञा दे दें। किन्तु स्वार्थ-बुद्धि ने ऐसा न कहने दिया। उन्होंने सोचा कि आई हुई लक्ष्मी को कौन छोड़ता है ! फिर जब दीना उसे अपनी इच्छा से दे रहा है