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सरस्वती
[भाग ३६
के आकार की ईंटों का साँचा बनवाया। उनमें कुछ तो और अनाज बचने लगा। पुजारी ने उसे सूद और सवाई डेढ़ फुट तक लम्बी और ६-७ इंच चौड़ी थीं। अपने पर देना शुरू किया । सूद और मूल में गाँव के कुछ लोगों गाँव के बड़े पोखर की मौर्यकालीन ईंटों को देखकर के खेत भी अपने पास रेहन रख लिये। यद्यपि गाँव में शायद उनको इतनी लम्बी ईटों के बनवाने का साहस ट्रीनीडाड से लौटे एक दूसरे आदमी के पास सबसे अधिक हुआ था। उस काल की ही भाँति यदि ईधन की खेत थे, किन्तु अगहन बीतते बीतते वह घर अनाज से इफ़रात होती और लकड़ियाँ ठीक तरह लगाई जाती तो खाली हो जाता था, और उधार और खरीद की नौबत कदाचित् वे पक जातीं। किन्तु पुजारी का ध्यान इधर पाती थी; इसी लिए पुजारी गाँव में सबसे अधिक धनी न गया, और ईटें बहुत-सी अधपकी रहकर टूट गईं। समझे जाते थे। तो भी उनके काम भर के लिए ईंटें तैयार मिल सकी। पुजारी का जीवन अब सुख का जीवन था। यद्यपि पुजारी के बुलाने पर उनके ससुर कुआँ बँधवाने के लिए फाटके के रोज़गारियों और सौदागरों की भाँति तो नहीं, राज लिवाकर आये। ईंटों के विचित्र आकार को ही देख फिर भी पुजारी का धन प्रतिवर्ष बढ़ रहा था। उन्हें अभी कर ससुर और राज दोनों का माथा ठनका। उस पर तक कचहरियों से वास्ता न पड़ा था, किन्तु इसी समय पुजारी ने कुआँ बाँधने की अपनी स्कीम पेश की। राज पुजारी के गाँव में पैमाइश होने लगी। अभी तक खेत, चिल्ला उठा-अरे! यह क्या कर रहे हो ? यदि कुएँ का बाग़, परती सभी का हिसाब पटवारी के यहाँ रहता था; मुँह सिकोड़ दिया जायगा तो ईटे कुछ ही दिनों में आगे किन्तु अमीनों ने पैमाइश के साथ दखल-कब्ज़ा पूछना शुरू की ओर गिर जायँगी । पुजारी ने कहा-और मेहराब में किया । यही तो कमाने का समय होता है। यदि इधर की ऐसा क्यों नहीं होता ?
उधर और उधर की इधर न करें तो क्या खाक कोई अमीन खैर, पुजारी के अाग्रह को देखकर राज ने उसी को पूछेगा । हाँ, यह ऐसा भी समय है, जब पहले की पैमाप्रकार कुएँ को बाँधना शुरू किया। कुछ दूर बाँधने और इश की बेईमानियाँ भी प्रकट होने लगती हैं । हम कह मिट्टी निकालने पर कुआँ भीतर से बहुत बालू फेंकने लगा। चुके हैं, पुजारी बड़े मेधावी पुरुष थे। गाँव में प्राये राज ने सारा दोष कुएँ की नई चिनाई के मत्थे मढ़ा और हुए अमीन के पास जाकर वे काग़ज़-पत्र देखने लगे। फिर से उधेड़कर पुरानी चाल से बाँधने के लिए कहा। उन्हें मालूम हुआ कि पहले के कितने ही उनके खेत औरों किन्तु पुजारी कब माननेवाले थे। जब कुआँ सही-सला- के कब्जे में हैं। कुछ में इधर नये सिरे से गोल-माल मत बनकर तैयार हो गया तब ससुर जी कहने लगे-तैयार हुआ है । पुजारी उन आदमियों में से थे जिनका सिद्धान्त तो हो गया, किन्तु इसकी शकल तो कुइयाँ-सी है। पुराने होता है न अपना एक पैसा जाने देना और न दूसरों ढंग से बनवाने पर यह एक अच्छा खासा कुआँ मालूम का एक पैसा लेना। अब पुजारी के लिए बन्दोबस्त के होता।
डिप्टी के पड़ावों और ज़िला तथा तहसील की कचहरियों
पर धरना देना ज़रूरी हो गया। जिस पूजा के नियम पुजारी ने छोटे भाई को अपने बहनोई म०...... के कारण उनका नाम पुजारी पड़ा था वह छुटे कहाँ से ? पंडित के घर पढ़ने के लिए भेजा था, किन्तु उसने इतना उसमें तो कुछ वृद्धि भी हुई थी। यदि पहले एकादशी का ही पढ़ा-अोनामासिधम् । बाप पढ़े न हम् । दो चार बार ही व्रत होता था तो अब महीने के चार अलोने एतवार भाग आने पर पुजारी ने और ज़ोर देना छोड़ दिया। भी शामिल कर लिये गये थे। कचहरी का काम तो घर की दोनों बहनों और भाई की भी शादी कर दी। अब दोनों तरह अपने वश का नहीं, और बिना पूजा-स्नान के पुजारी भाई मिलकर खूब मेहनत करते थे। घर के प्रबन्ध में पानी भी नहीं पी सकते थे। फलतः कभी कभी सूर्यास्त मा बहुत दक्ष थीं। हर साल ही खर्च करने पर कुछ पैसा और पुजारी की स्नान-पूजा साथ साथ होती थी। उन्होंने
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