Book Title: Vimalnath Puran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीपरमात्मने नमः - --.. विमलनाथपुराण भाषा भाषाकारका अंगलाचरण 大隋杰伦那晚他来将开办他心 - पचापपर -- - -- - वंदों विमल जिनेशपद शांतिसुधारसपान । हर्ता भवदुरखके विमल सुखमय मोक्षनिदान॥ १ ॥ प्रथकारका मंगलाचरण सर्वेशं शंकरं सिद्धं वृषीयांसं प्रजापति ! समीडकेऽहकं सिद्धथै लेखेशादीडितं जिनं ॥१॥ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) - - ४ “长长长长 Praka लाल शेषांस्तार्थकतो नोमि सादरं ज्ञानभास्करान् । कार्मारातीन् समुन्मूल्य शिवसाम्राज्यभूमिपान् ॥ २॥ विमलं विमलं स्वोमि विमलझानशालिनं । दुर्योधरजसाकीर्णभूतले पारिदायितं ॥ ३ ॥ परमेष्ठिगुणस्सिौमि पंचपकनिरासकान् । सज्ज्ञानादिगुण प्रातशक्तिजाभरणायितान् ॥ ४॥ भारती भाभरा भूत्यै स्वर्णामा विश्वमातरं ! मरालयाइनं चाये वृषभशास्यनिर्गतां ॥५॥ द्वादशांA जो आदीश्वर भगवान सर्वेश---संसारवती समस्त जीवों के स्वामी है। शंकर- समस्त संसारका कल्याण करनेवाले हैं। सिद्ध --ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मोंसे रहित सिद्ध परमात्मा हैं। प्रजापति युगकी आदिमें असि मषि कृषि आदिकी सृष्टिका विधान बतलाने के कारण ब्रह्मा स्वरूप हैं एवं जिनकी स्तुति बड़े बड़े देवोंके इंद्र भी करते हैं उन जिनेंद्र भगवान आदिनाथको मैं (ग्रंथकार) 18 इस यथकी आदिमें मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ॥ १॥ भगवान आदिनाथके सिवाय 12| अजितनाथ आदि अन्य तीर्थंकरोंको भी में सादर नमस्कार करता है जो कि ज्ञानके सूर्यस्वरूप II हैं एवं कर्मरूपी वैरियोंका सर्वथा नाशकर मोक्षरूपी साम्राज्यके स्वामी है ॥ २ ॥ तरहा तीर्थकर भगवान विमलनाथको भी मैं नमस्कार करता है जो विमलनाथभगवानसमस्त कमरूपी मलोंसे - रहित होनेके कारण विमल हैं। विमल ज्ञान- केवलज्ञानसे शोभायमान हैं एवं जिसप्रकार धूलिसे व्यात पृथ्वीतलको मेघ शांत कर देता है उसीप्रकार मिथ्याज्ञानसे परिपूर्ण समस्त जगतको शांति प्रदान करते हैं-समस्त जगतके मिथ्याज्ञानको नष्ट करनेवाले हैं ॥३॥ अहंत सिद्ध आचार्य आदि पांचों परमेष्ठियोंके गुणोंकी भी में स्तुति करता हैं क्योंकि ये पांचों परमेष्ठियोंके गुण अहिंसा 2] आदि पांचों पापोंके नाश करनेवाले हैं एवं सम्यग्ज्ञान आदि गुण स्वरूपमुक्तामयी भषण हैं अर्थात् जिसप्रकार सुंदर मोतियोंके बने भूषण शरीरकी शोभा बढ़ानेवाले होते हैं उसीप्रकार परमेटियोंके Kगुण भी आत्माको आदर्श बनानेवाले भूषण हैं ॥ ४॥ मैं उस सरस्वती देवीको भी अपने कल्याण की इच्छासे नमस्कार करता हु जो कि महा मनोज्ञ शोभासे परिपूर्ण है ।सुवर्ण के समान कांतिकी धारक है। समस्त जगतकी माता है । इसकी जिसकी सवारी है और भगवान ऋषभदेवके मुखसे sPRE Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाब्धिपारीणान् व्यानसंस्थान् शिवप्रदान । ननम्ये मामके चित्त भृशं भृशितमन्मथान् । ६। गुरसामर्थ्यसंतप्ततपसा व्योमगा. मिनः । गुरुन् गाम्भीर्यधैर्यादिवातिश्च विधि.18मलाइ महाविदा झा रामयशोधरन् । प्रात्रीभवन् यके नौमि शामिनरसिंहकाच तान् । ८ । चिकापुरहमस्येव पुराणं वैमल ध्रुव । यथा पूर्वमहामार्जिनसेनादिसूरिभिः। ६ । वेदं क्व मे जिसका उदय हुआ है ।। ५ ॥ जो महानुभाव आचारांग आदि बारह अंगोंके पारगामी हैं। ध्यानमें लीन हैं। मोक्षमार्ग प्रदान करने वाले हैं और समस्त संसारको अपने वशमें करनेवाले | दुष्ट कामदेवके जीतनेवाले हैं उनकी भी मैं अपने चित्तमें पूर्ण भक्ति रखता हूँ॥६॥ में विद्याधरोंके समान गुरुओंको भी नमस्कार करता हूँ क्योंकि जिसप्रकार विद्याधरगण आकाशमें गमन करनेवाले हैं उसीप्रकार गुरुगण भी विशिष्ट सामर्थ्यसे तपे गये तपके द्वारा आकाशगामिनो ऋद्धिको प्राप्तिसे आकाशमें गमन करनेवाले होते हैं । जिसप्रकार विद्याधरगण गंभीरता धीरता आदि गुणोंके धारक होते हैं उसप्रकार गुरुगण भी गंभीरता धीरता आदि गुणोंकी खान होते हैं । जिस प्रकार विद्याधरगण 'चित्विषः, । चित-विद्याओंसे देदीप्यमान रहते हैं। उसप्रकार गुरुगण भी ज्ञान आदि गुणोंसे जाज्वल्यमान रहते हैं। जिसप्रकार विद्याधरगण रामसेनान' सीताहरणके समय रावणसे युद्ध के समय रामचन्द्रकी सेनाखरूप हुए थे उसोप्रकार 'रमंते योगिनोऽस्मिन्निति रामः' अर्थात् जिनके ध्यानमें मुनिगम आनन्दका आस्वादन कर वेराम-सिद्धयरमेष्ठी कहे जाते हैं । उन | सिद्ध परमेष्ठीकी निम्रन्थ गुरुगण सेनास्वरूप हैं क्योंकि मुख्यरूपसे सिद्धपरमेष्ठीकोही उन्होंने अपना I/ पूर्णस्वामी समझ रक्खा है । जिसप्रकार विद्याधरगण महाविद्यान' अनेक महाविद्याओंके धारक या होते हैं उसीप्रकार गुरुगण भी महाज्ञानके धारक हैं । जिसप्रकार विद्याधरगण कीा रामयशोध-स रान्' कोर्तिके साथ रामचन्द्र के यशको सहन करने वाले थे अर्थात् समान जातीय और अपना स्वामी होने पर भी वे रावणके विजय होनेपर उसकी कीर्तिसे अपनी कीर्ति नहीं समझते थे क्योंकि उसने परस्त्रोहरणरूप पातक किया था किन्तु वे रामचन्द्र के विजय करनेपर जो उनकी कीर्ति संसार में फैली प्रयकरार КККККККККККЕКүкүкүрүлүке Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेमल KERY SEENE मतिः स्थरपा वध यस्तै च क्व । महायुद्धप मालालास गावगामटः । १०: स्वल्पीयायापि बुयाह बकरीमि मनोगतं । तिमिरारे: प्रवेशो न दीपस्य स्यान्न तत्र किं । १३ । यदकारि महोत्कृष्टः पूर्वप्रा रहे क्रमात् । कुंभोयेन क्षुद्र पा किं हि नामितोऽ. थी उससे अपनी कीर्ति समझते थे। उसीप्रकार गुरुगणभी सिद्धोंके यश-स्वरूपको कीर्ति पूर्वक धारण करनेवाले होते हैं अर्थात् उनके निष्कलंक स्वरूपका ध्यान करना ही अपना पूर्ण कर्तव्य समझते है हैं। इन विशिष्ट शक्तिके धारक गुरुओंके सिवाय और भी ज्ञानी पुरुषों में सिंहके समान पराक्रमी १. महात्मा विशेषरूपसे हुए हैं उन्हें भी मैं इस ग्रन्थके प्रारम्भमें भक्तिपूर्वक नमस्कार करता ह।७८ 1 महान बुद्धिकेधारकजिनसेन आदिपर्वआचार्योंने जिसरूपसे भगवान विमलनाथ चिरित्रका उल्लंख 9 किया है ठीक उसीके अनुसार में भगवान विमलनाचशेपुराण के कहने का इच्छुक है अर्थात् में जो इस पुराणको कह रहा हूं वह स्वतन्त्ररूपसे अपना मन गढन्त नहीं कह रहा हूँ किन्तु भगवान जिनसेन आदिके वचनों के अनुसार कह रहा हूँ। ! अन्धकार अपनी लघुता प्रगट करते हुए कहते हैं कि कहां तो यह भगवान विमलनाधका महागम्भीर पुराण और कहां मेरी अत्यन्त अल्पबुद्धि । तथा 15 कहां तो जिनसेन सरीखे पुराण पारीण कवि और कहां में अत्यन्त तुच्छ, तथापि महाबुद्धिरुपी IS तरंगोंकी मालासे व्याप्त शास्त्रपारंगत आचार्यरूपी समुद्रोंके सामने मैं गामट सरीखा है। अर्थात् गामठका अर्थ प्रकारणसे यहां पर खाई है तो जिसप्रकार खाईका जल खास समुद्रका ही | जल होता है परन्तु वह समुद्रस्वरूपसे नहीं होता उसीप्रकार में भगवान जिनसेन आदिक सामने र तुच्छ हूँ तथापि उनकी महाबुद्धि के द्वारा मुखसे निकले वचन मेरे हृदयमें भी विद्यमान है इस D लिये इस पुराणमें जिन वचनोंका मैंने उल्लेख किया है ये वचन भगवान जिनसन आदि के ही न Ka वचन मानकर प्रमाणीक समझना चाहिये। इसरूपसे यह बात ठीक है कि मैं भगवान जिनसेन १ 'नरसिंहकंच, यहां पर भो ग्रन्थकारने श्लेषालंकारका उपयोग किया है क्योंकि अन्ययम्मी हिंदूसंप्रदायमें नरसिंह नामका एक अवतार माना है। यहॉपर 'नरसिंहका, यह अर्थ न लेकर जो अर्थ लिखा गया है वही ठीक है। NERY HORORSEYYYYANEY KarkarRAEHEYPERTEREpkchi Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल० ५ KYK काय तयार बुधिः | १२ | सज्जना अपि नंदंतु दुर्जनाश्च विशेषतः । स्तुतिनिद्यकरा नू आदि के सामने तुच्छबुद्धिका धारक हूँ तथापि मेरे मनमें जो चरित्र विद्यमान है उसे मैं अपनी थोड़ीसी बुद्धिसे भी वर्णन करनेका विशेष आकांक्षी हूं' यहांपर यह कल्पना न कर बैठना चाहिये कि जब जिनसेन आदि सरीखे उद्भट विद्वान हैं तब तुम्हारो आवश्यकता क्या १ क्योंकि जहांपर सूर्य का प्रवेश नहीं होता वहां पर दीपक से भी काम चला लिया जाता है अर्थात् जो महानुभाव 1. जिनसेन आदि सरीखे उद्भट विद्वानों के गम्भीर वचनोंका तात्पर्य नहीं समझ सकते थे मेरे साधार वचनसे लाभ कर सकते हैं। इसलिये मेरे द्वारा किये गये पुराणका वर्णन व्यर्थ नहीं । १० | ११ | फिर भी यह बात है कि मैं अपनी बुद्धिको कल्पनासे कुछ कहू तो वह कल्पना भगवान जिनसेन आदिको कल्पनाके सामने फीकी मानी जा सकती है क्योंकि उनकी वृद्धि विशाल है और मेरी तुच्छ है परन्तु सो तो बात है नहीं किन्तु मुझसे महान और उत्कृष्ट पूर्व आचार्यों ने जो कहा है कमसे मैं उसोको कहता हूँ । यहां पर भी यह न समझ बैठना चाहिये कि जब तुम्हारी बुद्धि तुच्छ है तब विमलनाथ पुराण सरीखे विशाल कार्य में तुम्हारा प्रवृत्त होना व्यर्थ है लोकमें ऐसी कहावत है कि अगस्त नामका ऋषि मामूली था परन्तु वह सारे समुद्रको पी गया था इस लिये क्षुद्र भी अगस्त ऋपिने जब विशाल भी समुद्र पी डाला था तथा बुद्धिका धारक भी मैं विशाल पुराएका वर्गान कर सकता हूँ क्या आश्चर्य है ? ॥ १२ ॥ बहुत से लोग स्तुति करनेवालोंको अच्छा समझते हैं और निन्दा करनेवालोंको बुरा समझते हैं परन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बात मुझे पसंद नहीं मैं तो यह कहता हूँ कि स्तुति करनेवाले सज्जन भी संसार के अन्दर वृद्धिको प्राप्त हों और निन्दाके करनेवाले भी विशेषरूपसे वृद्धिको प्राप्त हों क्योंकि उनके भयसे कविकी विशुद्धता बढ़ती है। दुर्जन जितने जितने दोष निकालते जायेंगे कविता भी उतनी 静か 素 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAKE भूमिहास्यया । चेदुगुणः कजसोगाधिर्यातरिय सुदन्यते । १४ वृषभे रास्य पादाब्जे चंच होकत्वमेवे । विधीयतेऽस्म काभिश्च पुराण परमादरात् । १५ । बाहुना भन्यजीवानां कथाघो कथास्तथा । धर्मस्वयंभुषोः स्पातिरहनं समुद्रवत् । १६ । अथो असंख्यद्वोपानां मध्ये राजव गजते । कुलाचललसद्वादुभंगभूसुमरैः धितः । १७ । गगासिंवादिभामाभिः सेव्यमानो निरंतर । उतनी ही शुद्ध होती चली जायगी ॥१३॥ अथवा सज्जन और दुर्जनोंके सामने संसारमें हंसी कगनेवाली इस व्यर्थ प्रार्थनासे भी क्या प्रयोजन क्योंकि यदि करिके अन्दर गुण होगा तो जिसप्र-17 कार कमलकी सुगन्धि पवनके द्वारा चारो भोर फैल जाती है उसीप्रकार उस गुणके द्वारा कवि-13 वकी शक्तिकी प्रशंसा भी चारो ओर पल जायसी ॥१४॥ ययकार अपने पवित्र भाव झलकाते हुए कहते हैं कि-में भगवान ऋषभ देवके चरण कमलोंका भ्रमर वन इस भगवान विमलनाथके | पुराणको बड़े आदरसे कह रहा हूं यह पुराण मामली पुराण नहीं किन्तु इसके अन्दर बहुतसे भव्य जीवोंक कथा और उपकथाओंका वर्णन है। धर्म नामके क्लभद्र स्वयंभू नामके नारायणके - पवित्र चरित्रका कथन हैं इसलिये उनके निमित्तसे यह पुराण समुद्रके समान गम्भीर है अतः मनको स्थिरकरही हर एक विषयका पठन पाठन, हित करनेवाला होगा ॥१५॥१६॥ | मध्यलोकके असंख्याते द्वीपोंके मध्यभागमें एक जम्बद्वीप नामका प्रसिद्ध द्वीप है जो कि सानात् राजाके समान शोभनीक जान पड़ता है क्योंकि राजा जिसप्रकार विस्तीर्ण भुजाओंसे 4 शोभायमान रहता है उसोप्रकार यह जंबुद्वीप भी कुलाचल रूपी विस्तीर्ण भुजाओंसे शोभायमान । है। राजा जिसप्रकार अनेक सुभटोंसे ज्याप्त रहता है उसीप्रकार यह जंबद्वीप भी भोगभूमि रूपी सुभटोंसे व्याप्त है । जिसप्रकार राजा अनेक स्त्रियोंसे सेवित होता है उसीप्रकार जम्बूद्वीप भी गंगा सिन्धु आदि अनेक नदी रूपी स्त्रियोंसे सेवित है। राजा जिसप्रकार गर्जना परिपूर्ण किन्तु मधुर बोलनेवाला होता है। जम्बूद्वीप भी पद्म महापद्म श्रादि सरोवरोंके मनोज्ञ शब्दोंसे मधुर बोलनेवाला है। राजाके जिसप्रकार नेत्र होते हैं जम्बुद्वीपके भी सूर्य चन्द्रमा रूपी नेत्र विद्यमान हैं। W KKERAKAR ERFKV. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ЖКЕРЕКЕ eKEk पद्मद्रहादिनिादगर्जनामधुरंबदः । १८ ।' सूर्यावंदाक्षिकस्ताराभरणाभरविभूषितः । खगाव:महापादः पनरागादिकांतिभृत् । १६ । जंबूशाल्मलिसद्धे तिः क्षारोऽोध्यंशुकावृत: 1 नानापननमहारावधेमसिंगजध्वनिः । २० । अंबुद्धीपः (पं) पविः (4) सन् गाव (द) ससक पोहाविमा यिह दो यो हृदयं गतः । २१ । लौकयोजनो मेर्विमाति रंजिताशयः। विषष्टिषु सहस्राणां योजनानां विचित्रत्विट् । २२ । अवशिष्ट हि तन्मध्ये शातकुंभारमकोलक: नानाचेत्यालयाकोण चतुसराममंडितः । २३ । तस्य दक्षिण काष्ठायां भारत वर्तते स्फुट । खगाचलगणेनैव का कातिराजितं । २४ । तत्रैवार्यों महावंडो द्वात्रिंशविण्यभृतः । राजा जिसप्रकार आभरण-भषणोंसे शोभायमान रहता है उसीप्रकार जम्बद्वीप भी तारा रूपी भषणोंसे शोभायमान हैं। राजाके जिसप्रकार पैर होते हैं जम्बुद्वीपके भी खगाचल विजयाधपर्वत रूपी पैर मोजूद है। राजा जिसप्रकार पद्मराग आदि भूषणोंकी कांतिसे देदीप्यमान रहता 2 है जम्बूद्वीप भी खानियों में विद्यमान पद्मराग आदि मणियोंको कांतिसे व्याप्त है। राजा जिसप्रकार अस्त्रशस्त्रोंका धारक होता है जम्बद्वीपके भी जम्बवद और शाल्मालिवनरूपी शस्त्र विद्यमान । हैं। राजा जिसप्रकार वस्त्रोंसे वेष्टित रहता है जम्बद्वाप भी लवणोदधि समुद्रसे चारो ओरसे वेष्टित - *है। राजाके जिसप्रकार हाथियोंके चीत्कार होते रहते हैं उसीप्रकार जम्बद्वीपके भी अनेक पत्तनोमें - रहने वाले प्राणियों के कोलाहलों के वेग हो प्रशस्त गजों के चीत्कार हैं। तथा यह जम्बद्वोप पवित्र : एक लाख योजन चोड़ा है। विदेह क्षेत्र आदि क्षेत्र रूपी विशाल हृदयका धारक है एवं चित्तको । 2 अत्यंत आनन्द प्रदान करने वाला ॥१७ १८ ॥ इसी जवूद्वीपके ठोक मध्यभागमें एक सुमेरु | नामका पर्वत है जो कि एक लाख योजन प्रमाण ऊंचा है। अपनी शोभासे कपने समीपवर्ती | स्थानको शोभायमान करनेवाला है। त्रेसठ हजार योजनोंके इर्द गिर्द में विद्यमान है । विचित्र कांतिका धारक है। सुवर्णमयो खोल स्वरूप है। अनेक चैत्यालयोंसे घ्याप्त है एवं नन्दनवन सौमनस - आदि वनोंसे रमणीक है ॥२२ २३॥ मेरुपर्वतको दक्षिण दिशामें भरत क्षेत्र है जो कि खगाचलों (पर्वतों)के समहसे धनुषके समान आकारवाला शोभायमान जान पड़ता है ॥२४॥इस भरत क्षेत्रके Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समारत ले खानां च नानाश्चर्य मोनणां ॥ २५ ॥ नन्नये मगधो देशश्चितारत्ननिय ध्रुवरारक्ति निन हारमध्ये ये हीरको .04 यथा । २ । यो धापादे पद पैश्च कटेहता मानेन पूमिश्रितो घस्तु कुलः । २७ । यत्र नको विजेते सजला: पद्म मंडिताः । राजहंसचकोरा दिलारसमखरीकृताः |२४कुकटोत्पातसंलक्ष्या प्रामा यत्र पदे पदे 1 नागानि प्रपाः पांयसंसपिण्यो भुस्तरां ||२६|| सरलास्तरवो यत्र बलोवातसमाश्रिताः। ममद्धमरसंगबमंडिताः पिकपत्स्वनाः ॥३०॥ अनिता दानशोलाना धर्मान्याः सत्यभाषिणः। ध्यानाविता भयंत्येष मानिनो पत्र सच्छिये ||३१|| तब राजगृह नाम्ना पुर परमानन' । 'तता अन्दर एक आर्य नामका महाखण्ड है जो कि बत्तीस विशाल देशोंका धारक है देवेन्द्र और मनुव्योंको अनेकप्रकार के आश्चयों का करनेवाला है ॥२५॥ भरतक्षत्रके मध्यभागमें मगध नामका प्रसिद्ध देश हैं जो कि मनुष्योंकी अभिलाषा प्ररण करने के लिये चिन्तामणि पस्नके समान है एवं हारके मध्यभागमें जिलप्रकार हीरा रत्न मनुष्योंके चित्तको रंजायमान करनेवाला होता है उसी प्रकार भरतवत्र मध्यभागमें मगध देश भी मनुप्योंके चित्तको आनंद प्रदान करने वाला है ॥२६॥1 यह मगध देश घोष मटय काटोले अनेक प्रकारके वाहनोंसे बड़े बड़े गावोंसे और बड़े बड़े शहरों से व्याप्त है एवं अनेक प्रकारको मनोज २ चीजोंका खजाना है ॥२७॥ इस देश के अंदर बड़ी बड़ी विशाल नदियां हैं जो कि निर्मल जल और महा मनोहर कमलोंसे शोभायमान हैं एवं राजहंस चकोर और सारस (स्यास) आदि पक्षियों के मनोहर शब्दोंसे शब्दायमान हैं ॥२८॥ इसी देशमें एक गांवसे उड़कर कुक्कुट दूसरे गांवमें जा सकें इसरूपसे बिलकुल पास पास बसे हुये गांव हैं और उसके तालाव प्रपा (प्याऊ) पथिकोंके मनको सन्तुष्ट करने वाले महामनोहर जान पड़ते हैं ॥२८॥ इस मगध देशके अन्दर महामनोज्ञ सीधे वृक्षोंकी पंक्तियां विद्यमान हैं जो कि नानाप्रकारकी लताओंसे व्याप्त हैं। घुमते हुए भौरोंकी मधुर भुनभुनाहटसे चित्तको हरण करनेवाली हैं एवं कोकिलाओंको मीठी मीठी ध्वनियोंसे शोभायमान हैं ॥३०॥ इस देशके धनी मनुष्य स्वभावसे ही दानी हैं- आहार आदि किसी भी दानका अवसर देख कभी भी उससे मुह मोड़नेवाले नहीं । पक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प PARTrkaryal च शनस्य पत्तन देवपत्तन ॥३॥ यत्र धान्यादिसंयुक्ता नराः सममंडिताः। कलाविज्ञानपारीणाः परमोत्साहिनो वभुः ॥३३॥ 174 सुदर्यः कामदीप्तांगा मृगाक्ष्यः पिकसुस्वराः। उत्त गस्तनभारेण नम्रा ईषत्सुमंदगाः ॥ ३४॥ सशोला, मुखचन्द्रश्च भूपितांत:- स्वधामकाः। दानपूजादिसंसक्ता बताचारलसत्क्रियाः ॥३४॥ गतागतः स्तनाश्लेवसंघीश्च परस्पर । कामिनां हृदये दाह कुर्वत्य | इच वायभुः।।३६॥ तत्रोपोणिको राजा राजते रजनीशचत् । कुवलयानन्दको लोकचकोराहादकारकः ।।३७॥ वृषप्कंधः प्रतायो च अत्यंत धर्मात्मा हैं सदा सत्य बोलनेवाले हैं एवं मानलक्ष्मीकी अभिलाषासे सदा ध्यानी और ज्ञानी हैं।३१ ॥ इसी मगध देशके अन्दर एक राजगृह नामका नगर है जो कि परम पवित्र है उत्कृष्ट है, सदा अनेक प्रकारकी ध्वजारोसे शोभायमान रहता है अतएव अपनी दिव्य शोभासे यह इंद्रकी राजधानी स्वर्गलोककी उपमा धारण करता है ॥३२॥ उस समय यह नगर अनेक प्रकारके धान्योंसे | व्याप्त था। इसमें रहनं वाले मनुष्य परम धर्मात्मा थे। नाना प्रकारके कार्य और कौशलोंके पारगामी | थे एवं प्रत्येक काम करने में पड़े रसाही थे इसीलिये वे राजगृहपुरकी शोभा स्वरूप थं ॥ ३३ ॥ राजगृहपुरके अन्दर रहनेवाली सुंदरियां भी कामदेवसे देदीप्यमान अंगकी धारंक थीं। हरिणियोंके समान नेत्रोंवाली थीं। कोकिलाओंके समान सुरीली थीं। विशाल स्तनोंके भारसे आगेको कुछ झुकी हुई थीं। मंद मंद चलनेवाली थीं । अत्यंत शीलवती थीं। अपने कांति परिपूर्ण है। मुखरूपी चंद्रमाओंसे अपने महलोंको प्रकाशमान करती थीं। दान पूजा आदि जितने भी पवित्र | कार्य हैं उनमें लीन थीं । वे जितनी भी क्रियायें करती थीं व्रत और आचारके अनुकूल करती थीं इसलिये उनकी सारी क्रियायें निर्दोष होनेसे अत्यंत मनोहर होती थीं तथा राजगृहपुरमें नर | नारियोंका इतना जमघट था कि वहांकी नारियां आने जानेसे तथा स्तन और आलिंगनोंके संघर्षणोंसे कामियोंके हृदयों में काम जनित दाह उत्पन्न कर देती थीं। अतएव वे मनको हरण | 57 करनेवाली होती थीं ॥ ३४-३६ ॥ THANImfimmaaनाललTMmmtamitumtat h imitramatma Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ta हेलानिर्जितशात्रयः । महायाहुमहारूढ़ो मकरध्वज वापरः॥३८॥दानी धम्मी गुणी शानी महामानी महोद्धरः । पानग्रीवः कभूपाणिश्चक्रमत्स्यययांत्रिपः ॥ ३६॥ तस्येव हृदयानंदकारिणी मदनप्रियां बिडंबमाना सत्कातिश्च'छास्या च कुरंगदक ॥ ४० ॥ पट्ट. रानी महाप्रीत्या राक्षो जीवधिका प्रिया। स्म बोभवीति चेंद्राणी नाग्नेंद्रस्य प्रिया परा ॥४९॥ स्निाधरणी विराजेत सर्पिणी नु भत्किमु । मुखचंद्रसुधापानं कर्तृ' मस्तकमास्थिता ।। ४२॥ भालमाभाति यस्यान समर्धेदुरथो स्पितः। करंगधरो जंयूनदकुण्डल चक्रगः ॥ ४३ ।। पतया सह संभुजन भोगान् ऋतुसमुद्यात् । हास्यत्रीडाविनोदैश्च रूपरंजितमन्मथः ॥ ४४ । तयोः पुत्रोऽजनि प्राज्य इसप्रकारके महामनोहर राजगृह नगरका रक्षण करनेवाला राजा उपश्रुणिक था जो कि रजनीश--चंद्रमाके समान महा मनोहर था। चंद्रमा जिसप्रकार कुवलय--रात्रिविकासी कमलोंको आनंद प्रदान करनेवाला होता है उसीप्रकार वह राजा भी कु-वलय--पृथ्वीमंडलको आनंद प्रदान करनेवाला था। चंद्रमा जिसप्रकार चकोर जातिके पनियोंको आनंद प्रदान करता है उसीप्रकार वह राजा भी लोकरूपी चकोर पक्षियोंको आनंद प्रदान करनेवाला था।वह महानुभाव राजा यैलके समान है उन्नत स्कंधोंका धारक था । प्रतापी था। समस्त शत्रुओंका जीतना खेल समझता था। विशाल भुजाओंका धारक था । सुभट था। सुंदरतामें दूसरा कामदेव सरीखा था । दानो धर्मात्मा गुण वान और ज्ञानवान था। उत्तम क्रियाओंके करनेमें पूरा घमण्ड रखता था। महान धीर वीर था। kd फूली हुई गर्दनसे युक्त था । कमलोंके समान शोभायमान हाथ तथा चक्र मच्छी और जोके चिन्होंसे शोभायमान परोंका धारक था ॥ ३७--३६ ।। महातेजस्वी राजा उपश्रेणिककी पटरानीका नाम इंद्राणी था जो कि महाराजके हृदयको अत्यन्त आनंद प्रदान करनेवाली थी। कामदेवकी प्रिया तिको भी अपनी शोभासे नीचा दिखाने व वाली थी । चंद्रमाके समान मुखसे शोभायमान थी । हरिणीके समान विशाल नेत्रवाली थी। राजाको अपने जीवसे भी अधिक प्यारी थी एवं अपनी अनुपम सुदरतासे इ'द्रकी प्यारी दूसग इंद्राणी सरीखी थी। उस महाराणी इंद्राणीकी काली लंबी चिकनी वेणी (चोटी ) काली नागिन arakERY Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यलक्षणलक्षितःणिकाख्यो वरीयांश्च रूप जितमन्मथः ॥ ४५ ॥ अन्ये पंचशतान्येष पुमा आसन् सुभूपतेः । तैः साकं विधिमला धान् भोगान् भुजन् स सुखतः स्पितः ।। ४६ ॥ अथ चंद्रपुराधीश: सोमशर्मातिविश्रुतः । मनुते नैव भूपस्य शासन शुभशासन ॥ १७ ॥ तोपत्रंणिको राजाऽलीलिखत्महलं घरं । दरवा दूतकर शंघषयामास तं प्रति ॥ ४८ ॥ मतिसागराभिधो दूतो गत्वा दरघा न्य. सरीखी थी और वह मुखरूपी चंद्रमासे अमृतपीनेकी अभिलाषासे उसकेमस्तकपर विद्यमान थी ऐसी जान पड़ती थी। उस महाराणीका ललाट भाग आधे चंद्रमाके समान शोभायमान था क्योंकि चंद्रमा जिसप्रकार हिरणके चिहका धारक माना जाता है, लालाट भी नेत्ररूपी हिरणोंका धारक था। चंद्रमा जिसप्रकार मंडल के कैचमें (पारसे में ) रहता है ललाट भी सुवर्ग:मयी कुडलरूपी चक्र के अर्ध भागमें था। इसप्रकार अपने मनोहर रूपसे कामदेवके समान वह राजा प्रीतिपूर्वक kdi उस रानी इंद्राणीके साथ जुदी जुदी कातुओंके नानाप्रकारके भोग भोगता था एवं हास्य नाना प्रकारकी कीड़ा और विनोदासे वह भोगोंकी सुंदरताका अनुभव करता था ॥ ४०-४४॥ __महाराज उपश्रेणिकके महाराणी इद्राणीसे उत्पन्न पुत्र श्रेणिक था। वह कुमार श्रेणिक उत्तमोत्तम राजलक्षणोंसे मंडित था । उत्कृष्ट था और अपने मनोहर रूपसे कामदेवकी तुलना करता ॥ ४५ ॥ कुमार श्रेणिकके सिवाय राजा उपश्रेणिकके और भी पांचसौ पुत्र थेजिनके साथ 2 अनेक प्रकारके भोगोंको भोगता हुआ वह राजा सुखपूर्वक काल व्यतीत करता था ॥ ४६॥ इसी पृथ्वीपर एक चंद्रपुर नामका नगर है। चंद्रपुर नगरका स्वामी उस समय राजा सोमशर्मा था जो कि अत्यंत पराक्रमी और प्रसिद्ध था। राजा उपश्रेणिककी आज्ञा यद्यपि शुभ थी तथापि वह सोमशर्मा उनकी आज्ञा मानना नहीं चाहता था ॥ ४७ ॥ राजा उपणिकको यह बात पसंद न थी इसलिये शीघ्र ही उन्होंने एक आज्ञापत्र लिखवाया। दूत बुलाकर उसे लोंपा एवं शीघ्र ही उसे राजा सोमशर्माके पास भेज दिया ॥४८॥दूतका नाम मतिसागर था । राजाकी यहपहपकरमरपाका PLEASEKCKEKEY । मान Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEER पyaraVV m DIEबीविशत् । पत्रं नत्वैव परछ सोमशर्माभिधश्चत ॥ ४ ॥ कस्येदं दूत सत्पत्रं प्रोवाच मतिसागर । राजगृहपुराधीशा राज्ञोपणि. | केन च ॥ ५० ॥ प्रेषितं भो नराधीश! श्रुत्वा पत्र लुलोक सः । स्वस्तियोदं निपत्याशु मारुदेवं मनोहरं ॥ ५१ ॥ राजग्रहात्पुरात् श्रीमान् महाराजोपय णिकः प्रणिगदति शुभाय वै चंद्रपुर्या' च तत्पतेः (तिः) ।। ५२ ॥ सर्वे सामंतभूपाश्च शासनं पालयंति मे ! क्ष :स्त्वं च कथं सेवां नाकरोषि स्वगर्वतः ॥ १३ ॥ यदि राज्ये भवेदाशा हागंतव्यं स्वया तदा । श्रुत्थेति पत्रसद्धाबं पतिपद्य ससर्ज तं ॥ ५४॥ चिसयामास चिरी स्वे सोमशर्माभिधो नपः। येनोपायेन पंचत्वं प्राप्नोति तं करोम्यहं॥ ५५॥ ध्यायेत्थं विद्यया कृत्या घोटकं S: दुर्धरं द्रढं । मुक्ताफलाविस स्तुभाभृतं पाहिशासकं ॥ २६ ॥ तदापनगिको दृष्ट्वा मुमोद मानसे स्वके । परीक्षायै चटित्वासौ | आज्ञासे वह चंद्रपुरकी ओर चल दिया। सभामें पहुंचकर राजाको नमस्कारकर और पत्र देकर | अपने योग्य स्थानपर बैठ गया। पत्र पाकर राजा सोमशर्माने कहा-अरे दूत ! कहांस तू आया - और किसका यह पत्र लाया है ? उत्तर में दूतने कहा--राजन् ! राजगृहके स्वामी प्रसिद्ध राजा उप श्रेणिक हैं उन्होंने ही यह पत्र आपके लिये भेजा है । दूतके मुखसे यह वचन सुन राजा सोमब/ शर्माने पत्र हाथमें ले लिया और उसे अपने मंत्रीको वांचने दे दिया वह भी स्वस्ति और लक्ष्मी 27 को प्रदान करनेवाले महा मनोहर सिरनामेंपर लिग्ने हुये भगवान ऋषभदेवके वाचक शब्दोंको अर्थात् सिरनामेको छोड़कर जो कुछ मी उसमें आज्ञा लिखी थी इसप्रकार उस यांचने लगा--- | चंद्रपुरीमें उसके स्वामी राजा सीमशमाके कल्याणकी अभिलाषासे राजगृहपुरसे श्रीमान् महाराजा उपश्रोणिक यह आक्षा प्रदान करते हैं कि समस्त बड़े बड़े सामंत और राजा विनय| पूर्वक मेरी आज्ञाका पालन करते हैं उनके सामने तुम बहुत क्षुद्र राजा हो परंतु अहंकारके पुतले होकर मेरी आज्ञा स्वीकार नहीं करते, यह सर्वथा अनुचित है। आजतक जो हुआ सो हुआ परंतु अबसे तुम्हारे लिये मेरी यह आज्ञा है कि यदि तुम्हें राज करनेकी इच्छा है तो तुम यहांपर आओ और मेग सवा करो। बस पत्रके लेखको इसप्रकार सुनकर और उसका भीतरी तात्पर्य EN समझकर दूतको तो बिडा कर दिया एवं “राजा उपश्रेणिक जिस उपायसे प्राण रहित हो जायं Y PATREYAFFAYE KKREERY Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल० ३ KKKKK 大和やかに मोड़ वनं ययौ ॥ ५७ ॥ दुर्मुखो दुष्चको नोवाकः प्रतं । अबोक्षिद्र क्वापि दुर्निरीक्ष्यं हि देवतं ॥ ५८ ॥ अहो | लुलोकयामासुः श्रोणिकायाः सुताः परे क्वापि दृष्टो न भूतलो व्याघ्रश्य समनि स्थिताः ॥ ५६ ॥ अथ इंद्राणिका राशो बिल्लापापतहुवि। गाढं वद हाराद्यत्रोटयद्वेणिकां त्वां ॥ ६० ॥ हा हा नाथ ! मतोऽसि का मांस्था एवं दुराशयां हा प्राणनाथ ! वह उपाय मुझे करना चाहिये” ऐसा अपने चित्तमें विचार करने लगा। थोड़ी देर विचार करने के बाद उसने एक मायामयी घोड़ा तयार किया जो कि अशिक्षित और दुष्ट था एवं उस घोड़ाको तथा और भी मुक्ताफल आदि मनोहर चीजोंको राजा उपश्रेणिककी सेवामें भेंट स्वरूप भेज दिया ॥ ४६ - ५६ ॥ राजा सोमशर्मा की भेजी हुई भेंट जिससमय महाराज उपश्रेणिकने देखी वे अपने मनमें अत्यन्त प्रसन्न हुए। भेटकी चीजोंमें सबसे उत्तम घोड़ा उन्हें जुना पड़ा इसलिये उसके अच्छे रेकी परीक्षा करने के लिये वे शीघ्र ही उसपर सवार हो लिये और उत्तम क्रीड़ाके स्थान वनकी ओर चल दिये । वह दुष्ट घोड़ा सर्वथा अशिक्षित था चित्तमें दुष्ट अभिप्राय धारण किये था। बस जिस समय वह बनके अन्दर पहुंचा शीघ्र ही उसने किसी भयंकर गढ़में महाराज उप किको डाल दिया और तत्काल कहीं चला गया ठीक ही है भाग्यकी महिमा दुर्निरीच्य है- क्या से क्या होगा, यह सूझ नहीं पड़ता ॥ ५६५८ ॥ महाराज उप किके इसप्रकार लापता हो जानेपर उनके कि आदि पुत्रोंको बड़ा दुःख हुआ । अपने पूज्य पिताको वे इधर उधर खोजने लगे जब कहीं भी उनका पता न लगा तो समस्त पुत्र लौटकर अपने राजमहल चले ये ॥ ५६ ॥ अचानक ही महराजके लापता हो जानेपर महाराणी इंद्राणी विलाप करती करती जमीनपर गिर गई। दयाजनक रोने लगी। हार आदि भूषण तोड़कर फेंक दिये । चोटी के बाल बिखर गये एवं इसप्रकार कहने लगी- हा स्वामी ! मुझ अभागिनीको छोड़कर आप कहां चले गये । हा प्राणप्यारे देव ! मैंने ऐसा कौनसा घोर पाप किया था जिसका फल यह हुआ कि मुझे A 読者をお Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमल. हा देव ! हा हा किं दुष्टतं कृतं ॥ ६१ ॥ मुनोना निइया करमूलातिनां सुभागात । धर्म वाक्योपवातान्मे पातक समुपस्थितं ।। ६२ ।। दुर्गधे नरकात्तत्र चकाण व्यथितो नपः । जपन् जाप स्थितो यावत्तावदन्यकांतरं ॥ ३ ॥ अथ वैवच्छवासाख्यपल्यामनिधया , al यमः । स जात्या क्षत्रियो राजा भिल्लानां विद्यते भृशं ॥ ६४ ॥ विद्युन्मालो प्रिया तस्य पुज्यस्ति तिलका तयोः । कीड़ाय वागतः । - सोऽपि ददर्श पतितं नृपं ॥६५॥ ध्यौ तदा यमः प्रायः क्यायं राजगृहाधिपः। घायस्थेयं विचित्येत्थमटिनो राजसन्निधौ ॥ ६ ॥ है आपसे जुदा होना पड़ा ॥ ६०-६१ ॥ हाय क्या मैंने मुनियोंकी निंदा की थी वा कंद मूल Kआदिका भक्षण किया था अथवा धर्मवाक्योंका उल्लंघन किया था जिससे तीन पापका बंध होकर मुझे यह दुःख भोगना पड़ा ॥ ६२ ॥ राजा उपश्रेणिकके कुटुंबी जन तो इधर इसप्रकार दुःख व मना रहे थे उधर जिस गढ़ेमें घोड़ाने उन्हें ले जाकर डाला था वह गढ़ा नरकसे भी अधिक दुर्ग धमय था इसलिये उन्हें बड़ी व्यथा होने लगी । उन्हें उस समय सिवाय परमात्माके शरणके AS अन्य किसीका भी शरण न सूझ पड़ा इसलिये वे उन्हीके नामका जप वहां बैठकर करने लगे ॥६॥ IPE जिस बनके गढमें महाराज उपश्रेणिक पडे थे उसी बनमें एक वैवच्छ (स्थ)वास नामकी भीलोंकी पल्ली थी। उस पल्लीका स्वामी यम ( यमदंड) नामका भीलोंका राजा था जो कि क्षत्रिय जातिका था और सदा वहींपर रहता था। राजा यमदंडकी स्त्रीका नाम विद्युन्माली था । उससे उत्पन्न एक परम सुंदरी कन्या थी जिसका शुभ नाम तिलका (तिलकवती) था। क्रीडाका प्रेमी वह भिल्लराज यमइंड उस गढेके पास आ निकला और गढेमें शोचनीय अवस्थामें पड़े राजा उपश्रेणिकको - - उसने देखा । प्रसिद्ध महाराजको इसप्रकार बुरी हालत देख वह विचारने लगा कि-देखो कर्मकी विचित्रता, कहां तो यह राजगृहपुरका स्वामी उपश्रेणिक और कहां इसकी यह दुःखमय शोच/ नीय अवस्था ! बस वह शीघ्र ही राजाके बिलकुल पास पहुंच गया एवं मनोहर शरीरका धारक वह मीठे प्यारे शब्दोंमें कुशल पूछने लगा। महाराज उपश्रेणिकने भी जो बात जिसतरह वोती IS थी सारी कह सुनाई । रंचमात्र भी न छिपाई क्योंकि कर्मोकी गति बड़ी विचित्र है--किस समय VERYTIMETRY KAY KALYAN TRYSTAYEY Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Int विमल M १५ 將許作許陀飞腾評語院喉部病情太 पप्रच्छ परमानंदवाक्लेलितविग्रहः रामा प्रोक्त च तद्वतं विचित्रा कर्मणां गतिः ॥ ६॥ पाहोगिको घोमान् कोऽसि त्वं वससि क्व च । स्वोयराज्यप्रणाशत्वादत्रा वसतिर्मन ।। ६८ 1 एहि राजन् ! ममागरे देह पीड़ासुशांतये । गत्वाचारं समालोक्य | प्रोवाच क्वनं क्षितीट् ॥ ६॥ नो भुतियागार स्यात्रारपरिवजिते । तदाह यमदंडाख्यः अणताइचनं मम । तिलकादिवती पुत्रो सामुद्रलक्षांकिता। पथ्यं विधाय सदस्या भोजयिष्यति भूपते ॥ १ ॥रंज भूपतिर्भस्या तस्या रूपेण मोहितः । ययाचे तां यमं भूपं द्विजश्रीराजितोत्सभः (य.)॥ १२॥ तदापासोद्यमो प्रोल्पा भूपाल पालितजं । तव सुदरोग्रातो विद्यतऽयंतरू रवान् । नीचसे ऊंचापन और ऊंचेसे नीचापन होगा किसोको जान नहीं पड़ता। अंतमें महाराज उपश्रे-: णिकने कहा प्रिय महानुभाव ! तुम कौन हो और तुम्हारा निशसस्थान कहां है ? उत्तरमें भिल्लराज चमइंडने कहा—राजन् ! जिस समय मेरा राज्य मेरे हाथसे चला गया और मैं राज्यरहित हो गया। तबसे में इसी बनमें आ गया है और यहींपर रहने लगा हूँ । भयंकर गढ़ेमें गिरनेसे आपका । शरीर पीडायुक्त हो गया है कृपाकर इस पीड़ाकी निवृत्तिके लिये आप मेरे घरपर चलें। भिल्लराजकी प्रार्थना राजा उपश्रेणिकने मंजूर करली । वे उसके साथ चले आये । घरमें आकर जिस | समय उन्होंने यमदंडका आचार भीलों सरीखा देखा उन्हें वह सहन न हो सका इसलिये शीघ्र ।। ही उन्होंने यमदंडसे कहा-भाई यमदंड! तुम्हारा घर स्वाचार-श्रावककी क्रियायोस रहित है में । तुम्हारे घरमें भोजन नहीं कर सकता। उत्तरमें यमदंडने कहा—यानाथ ! यदि यही वात है तो। 7. आप मेरी बात सुने- । मेरे एक तिलकवती नामकी पुत्री है। सामुद्रिक शास्त्रमें कहे गये शुभ : लक्षणोंसे युक्त है। श्रावकोंके घरमें जैसी भोजन क्रिया प्रचलित है वैसा ही भोजन बना सकती। है इसलिये भक्तिपूर्वक वह आपके अनुकूल भोजन बनाकर आपको जिमा सकती है। महाराज उपश्रेणिकने यमदंडकी यह प्रार्थना स्वीकार करली एवं थे उसके हाथका बना महामिण्ट भोजन । करने लगे ॥ ६४–७१॥ वह कन्या तिलकवती परम सुंदरी थी । उसका सौंदर्य और गुण देख। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७३ ॥ अत: पुरयाः सुखं न स्यात् पुरो भावी न वा प्रम! भविश्यत्यय या पुरः सेवया जीवित वृथा ॥ ७४ ॥ मत्पुत्रौजाय राज्य | चद्ददासि त्वं यदा तदा । ददामि पुत्रिका तुभ्यं प्रतिपन्नं तथैव तत् ॥ १॥ उपयम्य सुतां तस्य यस्य सैन्यविराजितः । जंगम्यते स्म | राज्ये स्वे विवेश नगर निजं ॥७६॥ उलाकं पुरं कृत्वा तोरणास्ति । सर्वसामसमस्याद्या विदधुमंगलकियां ॥ ७ ॥ हावभाववि कर महाराज उपश्रेणिकका चित्त ठिकाने न रहा। वे हृदयसे मोहित हो गये एवं अपने मनोहर , दांतोंकी प्रभासे विशाल सभाको शोभायमान करनेवाले वे महाराज उपश्रयिक भिल्लराज यमईडसे कन्या तिलकवतीकी याचना कर बैठे ॥ ७२ ॥ राजा यमदंडने महाराज उपवेगिककी जिस समय यह याचना सुनी तो वह उनको प्रार्थना नामंजर तो न कर सका क्योंकि महाराज उपवे. |णिक नीतिपूर्वक प्रजाके पालन करनेवाले एक महान् राजा थे परंतु वह अपनी पुत्रीको कल्याणकी बच्छासे इसप्रकार कहने लगा2 कृपानाथ ! आप इसतमय एक प्रधान राजा माने जाते हैं और आपके रणवासमें अमित सुंदरियां मोज द हैं जो कि सुदरतामें एकसे एक बड़ी चढ़ी हैं, संभव है उनको मोजुदगीमें मेरी पुत्री तिलकवतीको सुख चैन न मिले । अथवा पुत्रकी उत्पत्तिसे स्त्रियां विशेष सुख अनुभव करती है संभव है इसके पुत्र न हो जिससे भी इसे कष्ट भोगना पड़े। अथवा शुभ भाग्यसे उसके पुत्र भी हो जाय परन्तु अन्य पुत्रोंके विद्यमान रहते वह राजा न बन सके उनका सेवक ही बना रहे ऐसो । दशामें भी मेरी पुत्रीको सुख मिलना कठिन है क्योंकि सेवासे जोवनका विताना निरर्थक समझा जाता है इसलिये पुत्रीके सुखको अभिलाषासे मेरी यह प्रार्थना है कि यदि आप यह बात स्वीकार करें कि इस पुत्रीसे जो पुत्र हो वही राज्यका अधिकारी समझा जाय उसके रहते अन्य कोई पुत्र राजा न बनाया जाय तो मुझे आपको पुत्री देने में कोई उजनहीं-मैं सहर्ष उसे आपको प्रदान कर सकता हूँ। महाराजा उपश्रेणिक तो उसप्तमय कामांध थे। योग्य अयोग्यका कुछ भी विचार । KARE Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लासश्च चुंबनरभणस्तथा। रेभे राजा रतिक्रीडापर्धते स्वक्ने गृहे । ७८॥ पुत्रो जातस्तयोः कोडाशक्तयोर्लक्षणान्वितः । चलातीत्यभिधो वालो वध वालचंद्रवत् ॥ ७६) यौवनान्यो यहा जातश्चितयामास भूपतिः । राज्यं हि धेणिकायव वरो दत्तोऽस्मकै मया ॥८॥ संत्रित्येत्यं निमित्तज्ञ समाहृय जगावित । भो भो निमित्तसंशानिन् कलाविज्ञानपारग ! ॥ ८१ ॥ एतेषां मम पुत्राणां राज्यभाक बन कर राजा यमदण्डकी बात उन्होंने स्वीकार कर लो। सुन्दरी तिलकवतीके साथ उनका विवाह ! हो गया। राजा यमदण्डकी सेनासे वेष्टित हो बड़े ठाट वाटसे वे अपने राजधानीकी ओर चल दिये एवं अपने नगरमें प्रवेश कर गये ॥७३-७६५ अपने महाराजकी फिरसे प्राप्ति दुर्लभ जान नगर निवासियोंको बड़ा आनन्द हुआ। महाराजकी प्राप्तिकी स्तुशीमें राजगृह नगर ध्वजा पताका ) तोरण आदिसे सजा दिया गया एवं समस्त सामंत मन्त्री आदिने भगवानकी पूजा अभिषेक आदि मंगलीक कार्य किये ॥७॥ राजमहल में प्रवेश कर राजा उपश्रेणिक रतिकीडाले योन्य पर्वत वगीचे और महलोंमें रमणी तिलकवतीके स सानन्द भोग भोगने लगे। कभी तो महाराज उपश्रेणिकने नानाप्रकारके हाव भाव और विलासोंके साथ भोगोंके सुखोंका अनुभव किया एवं कभी कभी वे चुम्बन और आलिंगनोंसे भोगोंका रस आस्वाटने लगे ॥७७-७८॥ लानाप्रकारकी जा IN क्रीडाओंमें आसक्त उन दोनोंके भोगोंका फलस्वरूप एक पुत्र हुअा जो कि राजलजसे युक्त याना PM'चलाती, इस शुभ नामका धारक था एवं वह पुत्र वाल चन्द्रमाके समान दिन दिन बढ़ने लगा। ७६॥कामांध महागज उपश्रेणिक चिलाती पुत्रको राज्य देनेका वायदा कर चुके थे इसलिये K/ जिस समय कुमार चिलाती युवा हो गया महाराज उपश्रेणिकको चिन्ताने अपना स्थान बना 12 लिया। वे मन ही मन सोचने लगे कि सब पुत्रोंमें कुमार श्रेणिक राज्य के योग्य है इसलिये हक प्रांत तो राज्य श्रेणिकका ही है परन्तु मैं चिलाती पुनको उसे देनेका वायदा कर चुका है ऐसी दशामें क्या करू? बहुत कुछ सोच विचारके वाद महागज उपश्रेणिकने ज्योतिषी बुलाया और उससे इस प्रकार कहने लगे--- КүржүKYKYKYkfkeykkerke HEREKksiaaaharash Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. को भविष्यति । लग्नं विचित्य च ' स्वामिदृष्ट' शुभाश्रितं ॥४२॥ योगाधियोगिकः प्राणु सामंतनायक शर्कराकुमको देयः प्रत्येक विमलया Pा सर्वसत्तुजा ॥ ८३ ॥ कुभमन्येन गोधन य: सम्म प्रति नेष्यति । राज्यमा विजानीयाः प्रांशुलं गलविविध ॥ ८४ ॥ओसजेः सलिलैः कृत्वा भृत्वा कुभ समेष्यति । राज्यमा विज्ञानीयास्तृतीयांक निगद्यते ॥ ८५॥ नानाव्यंजनसरोज्यं पूपापायससंयुतं । कारयित्वा सुतान सन्नेिकपंकी निवेशय ८६ ॥ शुनकान् मोचयः पश्चात्तानिवार्य भुनक्ति यः! राज्याधिपं त्वकं विद्या रूपनिर्जितमन्मथं ॥८॥ दहामाने पुरै यस्तु छत्रचामरविष्टरं । नीत्वा प्रयाति राजा सपंचमार्कसमुच्यते ॥८८ स्वज्जलालुकपर्याप्सान करण्डात् संविधायचा कौर. प्रिय ज्योतिषी । तुम अनेक प्रकारकी कला और कौशलोंके पारगामी हो कृपाकर बताओ तो कि मेरे इन समस्त पुत्रोंमें राज्य प्राप्त करने वाला कौन पुत्र होगा ? क्योंकि जो बात लग्न विचारकर देखी जाती है और जो स्वामी भगवान केवली द्वारा देखी जाती है वह शुभजनक | अर्थात् ठीक ही निकलती हैं ।।८०--८२॥ वह ज्योतिषी समस्त ज्योतिषियोंमें मुख्य था। महाराज। उपश्रेणिकके वैसे वचन सुनकर वह कहने लगा-हे अनेक सामन्तोंके स्वामी राजा ! मैं राज्यकी , प्राप्तिके कुछ निमित्तोंका वर्णन करता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो महाराज । राज्यकी प्राप्तिका सबसे पहिला निमित्त यह है कि आप अपने सब पुत्रोंको बुलाइये और उन्हें अपने अपने घर ले जाने के लिये एक एक घड़ा दीजिये जो प्रतापी पुत्र उस घड़े | को अपने शीशपर न रखकर किसी अन्य मनुष्य (चाकर) के शिरपर रखवाकर अपने घर ले जाय, 5 समझ लो राज्यका प्राप्त करने वाला वही है और वही बलवान और शत्रुओंका वश करनेवाला है ! अन्य नहीं ॥८३-८४॥ दूसरा, राज्यकी प्राप्तिका निमित्त यह है कि आप अपने समस्त पुत्रोंको । बुलाकर प्रत्येकको एक एक कोरी पड़ा दीजिये और यह आज्ञा कीजिये कि हर एक कुमारको ओसके । जलसे भरकर घड़ा लाना होगा जो प्रतापी कुमार घडाको ओससे भरकर ले आवे समझ लो वही । राज्यको धुरा धारण कर सकता है अन्य नहीं। राज्यकी प्राप्तिका तीसरा निमित्त यह है कि पूआ | खीर आदि नाना प्रकारके व्यंजनोंसे महा मिष्ट भोजन आप तयार कराइये। जिस समय भोजन || pradesYAYarkarsh Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापनका TREMEY TRE REAP Aakaraka Yaa कुंभान जलैःपूर्णान् समुद्रान वनसंस्कृतान ८॥ कृत्वा मीत्र सुतेभ्य एसीया जलागि तिमोगम! अनुद्घाट्य सुभुजत ॥ ॥ तथा करिष्यति है राजन्नाधिपत्याधिपो हि सः । एवं पंचनिमित्तांकानिगध विरराम सः ॥११॥ तथाकान्निराधोशो लक्षणश्च -परीक्षण। श्रोणिक राज्यनाथ हि मत्वा चित्तेऽन्वचिंतयत् ॥ १२ ॥ अहो चलातिपुत्राय दत्तं राज्यं मया पुरा । लक्षण : सन्नयं राजा कि तयार हो जाय समस्त पुत्रोंको बुलाकर एक पंक्तिमें जीमनेके लिये विठा दीजिये और पीछ ल से उनपर भयंकर कुत्तोंको छोड़ दीजिये जो प्रतापी पुत्र अपनी उग्र शक्तिसे उन कुत्तोंको हटाकर 2 सानन्द भोजन करता रहेगा समझ लीजिये महाराज ! वही अपने मनोहर रूपसे कामदेवको भी जीतने वाला कुमार राजा बनेगा अन्य नहीं । राज्य प्राप्तिका चौथा निमित्त यह है कि नगमरमें आग लगानेपर जो पुत्र राज्यके मुख्य चिन्ह छत्र चमर और सिंहासनको लेकर भागे बस वही 12 राजा बननेका अधिकारी है अन्य नहीं । तथा राज्यप्राप्तिका पांचवा निमित्त यह है कि आप खाजे १ और लाडुओंसे भरवाकर पिटारोंको रखवा दीजिये और जलसे परिपूर्ण कोरे घड़े जिनपर कि मोहर लगी हो और जिनका मुख वस्त्रसे ढांका हुआ हो रखवा दीजिये जिस समय यह कार्य हो चुके उस समय आप समस्त पुत्रोंको बुलाइये। उन्हें एक एक पिटारा और एक एक जलसे भरा घड़ा दीजिये और यह आज्ञा कर दीजिये कि वे पिटारे और घड़ोंका मुख खोले बिनाही खाजे आदि पदार्थ खावें और पानी पीवें । समस्त पुत्रोंमें जो प्रतापी पुत्र यह कार्य करेगा बस वही राजा बनेगा अन्य राज्यका भार नहीं सह सकता। बस राज्यकी प्राप्तिके पांच निमित्त यतलाकर वह 24 ज्योतिषी चुप रहगया ॥८५-६१॥ ज्योतिषीके कहे अनुसार महाराज उपश्रेणिकने भी पूर्वोक्त निमित्तोसे राज्यकी प्राप्तिके योग्य पुत्रकी परीक्षा करनी प्रारम्भ कर दी । समस्तपरीक्षाओं में पास १ कुमार श्रेणिक ओसके जलसे पूर्ण घास पर कपड़ा बिछाकर और उसे नीचोड़कर धड़ा भर लिया था और किसी पुत्रको यह अकाल नहीं सूझी थी । २ कुमार श्रीणिक ने पिटारा हिला २ कर चूर कर सब माल खा लियाथा। घड़ाटेढ़ाकर पानी पी लिया था। ЖҮЖҮЖҮЖҮЖүкккккккккккк Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । करोमि गुणप्रियः ॥१३॥ नार्पयानि यदा राज्य चलातिसूनवे भृशं 1 याति वाक्यं मदीयं वै चैयर्थ्य जीवितं तदा ॥१४॥ वचनं हारितं येन तेन पुण्यादि हारितं एवं तं चिंतया प्रस्तं दृष्ट्वामात्यो जगाद भो । सुरत्याख्यो गुणाम्बोधिः सभ्यश्चितानिवर्तकः ।। राजेस्तेऽस्ति च का चिंता गर्जति गजराजयः ।मदोन्मत्तामहातुगा पुष्करोगनस्पृशः ॥६॥ जधिनस्ताण्डवारंभकुशला जवशालिनः। * याहुति सुभटाग्रण्यो योद्धारश्च रणाजिरे ॥ १७॥ मृगीदशो महाप्रीत्या सेचते त्वां विवेकतः । चित्तस्तेयास्तनोदारनमिता रात्रिपाननाः कुमार श्रेणिकको ही पाया इस लिये बड़ी भारी चिन्ता उनके हृदयमे प्रविष्ट होगई एवं वे मन ही यही मन दुःखित हो इस प्रकार विचारने लगे___में चिलाती पुत्रको राज्य देनेका पहिले संकल्प कर चुका हूँ परन्तु ज्योतिषी द्वारा बतलायेd गये निमित्तोसे राज्यका अधिकारी गुणोंका प्रेमी कुमार श्रेणक ही सिद्ध होता है ऐसी हालतमें 3 क्या करूं। यदि मैं चलाती पुत्रको राज्य म देकर कुमार श्रेणिकमो देता हूं तो मैं पहिले जो वचन दे चुका है वह व्यर्थ होता है एवं वचनके व्यर्थ होनेपर मेरे जीवनका कोई मूल्य नहीं होता क्योंकि न संसार में यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो वचन हार हो गया वह पुण्य आदि सब ही उत्तम गुणोंका हारनेवाला हो गया-बचन हारनेवालेकी आत्मामें पुण्य आदि कभी स्थान नहीं पा सकते । इसलिये मुझे क्या करना चाहिये कुछ सूझ नहीं पड़ता ? महाराज उपश्रेणिकके प्रधान जी मंत्रीका नाम सुमति था । वह मंत्री सुमति गुणोंका समुद्र था। अत्यंत लभ्य था एवं चिंताको दूर करनेवाला था। अंतरंग चिंतासे ग्रस्त महाराज उपश्रेणिकको उसने ताड़ लिया और शांति जनक | मीठे शब्दोंमें वह उनसे यह कहने लगा .. ___महाराज ! आपके हाधियोंके समूहके समूह विद्यमान हैं । जो कि मदोन्मत्त हैं । खूब ऊंचे l ऊंच हैं एवं अपनी सूढ़से आकाशको स्पर्श करनेवाले हैं । ६२–१६ ॥ आपके बहुतसे घोड़े हाँस लगाते है जो कि अपनी चालसे तांडव नाच नाचते हैं और पवनके समान शीघ्रगामी हैं। बडे बडे सुभट और योद्धा भी आपके यहां मोजूद हैं जो कि रणके मैदानमें गर्जनेवाले हैं । आपके रण प्रापysways Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त० २१ ANKUKYA | १८ || देशाधीशा जिताः सर्वे नमति त्वां नराधिपं । किन्तूनं विद्यते स्वामिनित्युक्त्या योषमाश्रितः ॥ ६६ ॥ त्वाहासौ नराधीशः सुमतें ! श्रूयतां वचः । राज्यं चलातिपुत्राय पुरा दत्तं मया मुदा ॥ १०० ॥ निमित्तज्ञानतो नूनमाधिपत्यं महर्द्धिकं । अधिश्रेणिकमस्त्ये चितायाः कारणं त्विदं ॥ १०१ ॥ जगी मंत्री सदा सुशः सुखं तिष्ठु नराधिप । श्र णिकं देशतो नूनं निर्गमयामि सांप्रतं ॥ १०२ ॥ समें बहुतली रानियां हैं जो कि हरिगियों के समान सुंदर नेत्रवाली हैं। बुद्धिपूर्वक बड़े प्रेमसे आपकी सेवा करनेवाली हैं। अपनी सुंदरतासे चित्त चुरानेवाली हैं। स्तनों के भारोंसे आगेको कुछ झुकी हुई हैं एवं चंद्रमा समान मनोहर मुखों की धारण करनेवाली हैं ॥ २७-६८ ॥ देशों क | स्वामी जितने राजा थे वे समस्त छापने जीत लिये जिससे वे आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं इस रूपसे जब आपके कोई बातकी कमी नहीं दीख पड़ती फिर नहीं मालूम होता आप किस चिंतामें भीतर ही भीतर घुले जाते हैं-कौन चिंता आपके पीछे लगी हुई है। बस इतना कहकर जब मंत्री सुमति चुप रह गया तब उत्तरमें महाराज उपश्रेणिकने कहा प्रियमंत्री सुमति ! तुमने जो कुछ भी कहा है सब ठीक है परंतु मेरी बात सुनो- मैं पहिले प्रसन्नता पूर्वक चलाती पुत्रको राज्य देनेका वायदा कर चुका है परंतु ज्योतिषीने अपने निमित्त ज्ञानसे राज्यप्रासिके जो भी निमित्त बतलाये हैं उनसे इस विशाल राज्यका अधिकारी श्रेणिक ही सिद्ध होता है बस मेरी सारी चिंताका कारण यही है क्योंकि ऐसा होनेसे में वचन हार होता हूँ ॥६- १०१ ॥ मंत्री सुमति बुद्धिमान था। महाराज उपश्रेणिक की यह प्रात्म कहानी सुन उसने कहा- महाराज आप सुखपूर्वक रहें, कुमार श्रेणिकको मैं अभी देश से बाहिर किये देता हूँ। श्रेणिकके चलेजाने पर आप चलाती पुत्रको राज्य देकर अपने वचन की रक्षा कर सकते हैं। वस इसप्रकार राजाको प्रसन्न कर मंत्री सुमति कुमार श्रेणिकके पास गया । पहिले तो मीठे २ वचनोंमें बात चीत की पीछे कुछ चेहरेपर गौरव लाकर गंभीर वचन बोलने लगा PRE Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAS. KARYANVI राजा 'सुखिनं कृत्वा गतः श्रोणिकसनेयौ। समाभाष्प शुभै|क्याजहार गिरं गुह॥ १०३ ॥ नो पुत्र ! स्थोयतामय महान् कोपोस्ति भूपतेः कुनो में प्रस्त्वक नहि ? कुमार! श्रु यतां वचः ॥ १०४ ।। कस्माश्चित्पुरुषात् राज्ञा श्रुतं निंद्य कदर्यमा । पुसनि: तरां भुक्त' तडक श्रेणिकेन च ॥ १०५॥ इति राको महाद्वयो बभूव तवकोपरि । तस्मात्क्षण विलंब्यो न राज्ञः कोपो हि दुर्गमः। १०६॥ विद्याविभववाणिज्यं व्यसनं वै विचित्रता । वादो घाणीविलासश्च भ्रश्यते राजकोपतः ॥ १०७॥ इति श्रुत्वा कुमारोऽसौ ka व्याजहार परं वचः । योज्यं न रक्ष्येत राज्य रक्ष्येत तैः कथं ॥ १०८ ॥ वदिष्यतीति लोकौघाश्चातुर्याभोजि मे लतः । विधीयते । कुमार ! राजगृह नगरमें इस समय तुम्हारा रहना उचित नहीं क्योंकि महराज तुम्हारे ऊपर इस समय अत्यंत कुपित हैं। मंत्रोको यह आश्चर्य भरी बात सुन कुमारने पूछा-महाराजका कोप मेरे ऊपर क्यों है ? मंत्रीने उत्तर दिया-महाराज उपश्रेणिकने किसी पुरुषके मुखसे यह निंदित और क्षुद्र बात सुनी है कि कुमार श्रेणिकने कुत्तोंका झठा खाया है, जीमते समय कुत्तोंके आजापर जिसप्रकार और कुमार उठकर खड़े हो गये वह नहीं उठा था-जीमता ही रहा था, वर तुम्हारे ऊपर यही राजाके कोपका कारण है। तुम्हे अब क्षण भर भी यहां नहीं रहना चाहिये क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध है कि ' राजाका क्रोध महा दुर्गम भयंकर होता है। राजाके क्रोधके सामने विद्या ऐश्वर्य व्यापार विशिष्ट भोजन चातुर्य वाद करना और सरस्वतीका विलास, सबके सब एक ओर किनारा कर जाते हैं रंचमात्र भी किसीका आदर नहीं होता। मंत्रीकी यह विचित्र वात सुन कुमारने मनोहर वचनोंमें यह उत्तर दिया- . भाई मंत्री : तुम्हारी बात मुझे युक्ति पूर्ण नहीं जचती। आश्चर्यकी बात है कि जो अपने भोजनकी रक्षा नहीं कर सकते वे राज्यकी रक्षा करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? भाई ! सारासंसार यह कह रहा है कि मैंने बड़ी चतुरता और वीरतासे भोजन किया है और वास्तवमें मेरा उसी तरह भोजन करना उपयुक्त था परंतु वल्लभ--अपने प्रिय पुत्रके प्राणोंका हरण करनेवाला महाराजका यह कोप क्यों? कुमारका यह युक्तिपूर्ण उत्तर सुन विज्ञ भी मंत्रीसे कुछ भी जबाव न Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 KAYAK SYKYK राः कोप प्राणहृत् ॥ १०६ ॥ तदा जगाद मंत्रोशो राज्यं नूनं तचैव भो। परंतु शासना राशः पालनीया प्रयत्नतः ॥ ११० ॥ freeसार कुमारोऽसौ श्रुत्वा दुर्वचनं हि तत् । भटैः पंचायुतं गुप्त मृग्यमाणो विषण्णः ॥ १११ ॥ अथ माता तदा श्रुत्वा चक्रदेति मनोभव ! दादा पुत्र ! सुवर्णाभ ? शोभाभृत् सांध्यरागजित् ॥ ११२ ॥ मार्गे गच्छन् ददर्शासौ कुमारो मारविग्रहः । नंदिश्रामं गुणारामं दृष्ट्वा कृती न्यवीविशत् ॥ ११३॥ सभामंडपमासाद्य यावत्पश्यति कौतुकं । तावद स्थितो दृष्ट (द्रदत्तो वरार्थिकः ॥ १९४॥ रहि चना, . केवल वह इसप्रकार चापलूसी करने लगा कुमार ! यह तुम निश्चय समझो कि राज्य तुम्हारा ही है- तुम्हारे प्रताप के सामने अन्य पुत्र राज्यका अधिकारी नहीं बन सकता परंतु महाराजकी आज्ञा इस समय ऐसी ही है, वह तुम्हे निःसंकोच भाव से इस समय अवश्य पालन करनी चाहिये इसीमें कुशल है ॥ १०२ ११० ॥ वलवान के सामने कुछ वश चल नहीं सकता। मंत्रीके उसप्रकारके दुर्वचन सुन कुमार श्रेणिकको बड़ा खेद हुआ एवं वे महाराज उपश्रेणिक द्वारा नियुक्त पांच (?) जासूस सुभटोंकी देख रेख में खिन्न चित्त नगरसे निकल दिये ॥ १११ ॥ माताका प्रेम विलक्षण होता है कुमारको ऐसी हालत से चले जानेपर उनकी मा इंद्राणीको बड़ा दुःख हुआ। वह माता हा कामदेव ! हा पुत्र ! हा सुवर्णके समान देदीप्यमान कांतिके धारक । एवं हा संध्याकालकी ललोईको फीकी करनेवाले कुमार ! तू कहां गया ? इसप्रकार करुणाजनक खरसे रोने लगी ॥ ११२ ॥ कामदेव के समान सुंदर शरीरके धारक कुमार श्रेणिकने मार्गमें जाते जाते एक नंदिग्राम नामका गांव देखा जो कि गुणोंका साक्षात् बगीचा स्वरूप था । वह पुण्यवान कुमार उसमें प्रवेश कर गया। गांव के मध्यभागमें राज्यकी ओर से बने सभा मंडप के पास पहुंचकर कुमार चकित दृष्टिसे | उसे देख ही रहे थे कि सामने एक इंद्रदत्त नामका वैश्य दीख पड़ा। अपने समान उसे भी पथिक जान उसे मामा बनाया और उससे इसप्रकार कहने लगे – राज्यकी ओरसे यहांपर एक दानशाला खुली हुई है उसका स्वामी एक विप्र है । आओ अपन दोनों उसके पास चलें और उससे त्रिपत्र Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TTYIYhya Kahakar मामक ? यावो वां द्विजाने भोजनायवे।गतो निर्घाटिती विजाः पश्चिमबुद्धयः ।। ११५॥ जठराग्निमठं प्राप्य स्थितस्तेन समं मुश। कुमार श्रेणिकं मत्वा भोजनादिपुरस्कृतः ।। ११६ ॥ ततोऽवादीसरा बौद्धःणिक! ऋण मद्वचः। यौद्ध धर्म गृहाण त्वं येन राज्य भविष्यति ॥ १७॥ विपदः संपदायते कष्ट' याति विरागवत् । बौद्धधर्मात्परो धर्मो नोऽमव भविष्यति ॥ ११८ ॥ प्रतिपद्य तदा गंतुमुत्तुकोऽ कुशाग्रधीः । तेनासाविद्रदत्तेन मार्गे कौतुक.कृद्धठात् ॥ ११ ॥ उवाच श्रेणिको धीमान भो भो मातुल ! शन-स मोजनके लिये कहें । बस दोनों के दोनों विपके पास गये परंतु उसने इनकी एक भी न सुनी। विनोंने उन्हें सूखा ही टाल दिया । ठीक ही है विप्रगण विचित्र बुद्धि के धारक होते हैं अपने धमंडके सामने किसीको भी नहीं सुनते ॥ ११३.–११५ ॥ उसो गांवके अंदर एक बौद्धोंका भी PARठ था। कुमार श्रेणिक विनों के उत्तरसे हताश हो मामा इद्रदत्त के साथ उसी मठमें जाकर र जवेश कर गये और आनन्दवार्ता करने लगे। वहांपर एक बौद्ध सन्यासी जो कि कुमार श्रेणिकको पहिचानता था, रहता था। कुमार श्रेणिकको पहिचानकर उसने कुमारका भोजन आदिसे पूरा आदर सत्कार किया एवं अंतमें कुमारके संतुष्ट हो जानेपर वह इप्रकार कहने लगा- . प्रिय कुमार ! मालूम होता है तुम राज्य प्राप्तिकी कोई आशा न रख यहां वहां मारे फिर रहे हो और अत्यंत दुःखका अनुभव कर रहे हो । तुम बौद्धधर्मको धारण कर लो। इस बौद्ध धर्मकी तपासे नियमसे तुम्हे राज्य मिलेगा क्योंकि इसी बौद्ध धर्मकी कृपासे जो घोर विपत्तियां है ये संपत्तियां हो जाती है एवं जिसप्रकार विरागी पुरुष धन धान्य आदिको छोड़ देता है उसीप्रकार | बौद्ध धर्मके सेवन करनेवालेको कष्ट छोड़कर भाग जाता है उसे किसी प्रकारका कष्ट भोगना नहीं व पड़ता विशेष क्या यह वौद्धधर्म इतना उत्तम धर्म है कि न तो इससं उत्कृष्ट धर्म संसारके अन्दर हुआ न होगा ॥ ११७-११८ ॥ कुशाग्रबुद्धि कुमार श्रेणिकने बौद्धसाधुके कहे अनुसार बौद्ध धर्म - खीकार कर लिया। सेठ इंद्रदत्त के साथ ये नंदिग्रामसे आगेको चल दिये एवं कौतूहली और Hal बुद्धिसान वह कुमार श्रेणिक मार्गमें इसप्रकार वार्तालाप करता करता चलने लगा Tarary Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लक जिहारथं समारय आयां यावः प्रमोदतः ॥२०॥ तदा श्रेष्ठी विचित्येत्यं गर्गोय गुणवर्जितः । जिह्वामारुह्य वेगेन क जंगम्यते स्फुट। १२१॥ कियन्मार्ग पुनः प्राप्त निर्मले सजलाशये। पादत्राणं पदे कृत्या निर्गतः कौतुकान्वितः ॥ १२२ ॥ व्यतकंयसदा श्रेष्ठो मूखॉयं मन सिस्बके । अप्रमार्गे पुनर्गत्वा जगाद मधुरं प्रियं ॥१२३॥ भो मातुला तिष्ठायो वृक्ष परिविराजिते । श्रुत्वा वाक्यं स्थितः $ठो सोऽपि पर्णमयं महत् । आतपत्रं विधायाशु मस्तके धृतवान् खलु ॥१२४ ॥ षट्पदी) इभ्योऽसौ तर्कयामास तापरुट्सत्तरोरधः । मूर्ख गर्ग वि काहायान्यः कः छत्र मस्तके धरेत् ॥ १२५ ॥ अग्रे प्राम विलोक्यासावप्राक्षादिंद्रदत्तक । भो भो मामोइसो प्रामो बसते वा बद स्वकर __मामा! आओ जिह्वारूपी रथपर सवार होकर अपन दोनों आनंदपूर्वक शीघ्र चलें । कुमारकी। यह चतुरताको भी बात न समझकर सेट इन्द्रदत्त कहने लगा--यह बालक तो मूर्ख जान पड़ता है, भला जिह्वारूपी स्थपर बैठकर भी कभी जल्दी जाया जा सकता है ? ॥ ११६–१२१ ॥मार्गमें र कुछ दूर आगे जाकर एक नदी पड़ी । कौतृहली कुमार श्रेणिक जूता पहिन कर ही उस नदीके जलमें | चलने लगा। उसकी यह चष्टा देख फिर इन्द्रदत्त अपने मनमें विचार करने लगा कि यह बालक अवश्य मूर्ख है। आगे मार्गमें अनेक प्रकारके पक्षियोंसे व्याप्त एक विशाल वृक्ष पड़ा उसे देखकर sil कुमारने मीठे स्वर में कहा--मामा ! आओ थोड़ी देर इस वृक्षके नीचे आराम करलें । कुमारके कहने kd से सेठ इन्द्रदत्त ठहर गया। कुमारने वृक्षके पत्तोंकी उसी समय एक छत्रो बनाई और मस्तकपर | छत्री तानकर वह बैठा | कुमारकी यह चेष्टा देख इंद्रदत्त विचार करने लगा। धूपके संतापको दूर करनेके लिये मस्तकपर छत्री तानी जाती है। यह उत्तम वृक्ष धूपका संताप दूर करनेवाला है छत्री तानकर बैठनेकी कोई आवश्यकता नहीं परंतु यह बालक इस वृक्षके नीचे भी मस्तकपर छत्री तान-- - कर बैठा है इसलिये यह बड़ा हठी और मूर्ख हैं ॥ १२२---१२५ ॥ मार्गमें आगे चलकर एक गांव पड़ा उसे देख कुमारने इंद्रदत्तसे पूछा-मामा ! कृपाकर यह बताओ तो यह गांव उजड़ा हुआ है या जवसा हुआ है ? कुमारकी यह बात सुन और उसका असली तात्पर्य न समझ इंद्रदत्तने अपने 5 मनमें विचार किया कि यह बालक पक्का मुर्ख है क्योंकि यह गांव अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम पदा रुपाकर पERY . ... .- -....-.-.--. -- -- -.. - -. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ल० みず 素でお米あた ॥ १२६ ॥ यास निश्चिनोतिस्म गर्गीय संभ्रमी शठः । नानाधस्तुसमाकीर्णं पुरं पृच्छति वार्तकं ॥ १२७ ॥ केनचित्ताड्यमानां हि हृष्ट्या रामां जगाद तं । भो माम! ताज्यते यद्धा मुक्का वा कधय द्रुतं ॥ १२८ ॥ पूर्ववचितयन् श्रष्ठी तावद्दष्ट्वा शवं जगी । भो माम ! द्राबू मृतं किंवा सांप्रतोदं मृतं वद ॥ १२६ ॥ तथाकर्ण्य पुनश्चित्ते चिंतयामास पूर्ववत् । पुरस्ताच्छालिकेदारं दृष्ट्वा प्रोवाच तं प्रति ॥ १३० ॥ माम ! भोक्ष्येत किं क्षेत्र भुक्तं वा त्वं निरूपय समाषार्ण्य तदा श्रं ष्टीदमीयं कीषितं च धिक् ॥ १३१ ॥ लांगलं च से व्याप्त है तो भी व्यर्थ पूछता है कि यह उजड़ा हुआ है या बसा हुआ ? ॥ १२६ – १२७ ।। आगे चलकर क्या देखा कि एक स्त्रीको बाँधकर कोई पुरुष मार रहा है । उसे देख कुमार ने सेठस े पूछा मामा ! कृपाकर जल्दी बताओ तो कि जिस स्त्रीको यह पुरुष मार रहा है यह बंधी हुई है वा मुक्त छूटी हुई है । कुमारकी बतिका तात्पर्य न समझकर फिर भी वह सेठ विचारने fit कि यह बालक तो बजू मूर्ख हैं। सबको दीखती है कि यह स्त्री बंधी हुई हैं तो भी यह झूठा जवाब सवाल करता है। आगे चलकर एक मुर्दा पड़ा उसे देखकर कुमारने पूछा-मामा ! कृपा कर कहो कि यह मुर्दा पहिले ही मर चुका है कि अभी मरा है ? सेठ इन्द्रदत्त कुमारके इन बच नका भी तात्पर्य न समझ सका इसलिये पहिले के समान वह पुनः भी यही मनमें कहने लगा कि यह बालक भारी मूर्ख है । अभीके मरे मुर्देको भी नहीं जान सकता। आगे चलकर एक शालि धान्यका क्षेत्र पड़ा उसे देखकर कुमारने फिर इन्द्रदत्त से पूछा- बताओ मामा ! इस खेत के | मालिकने इस खेत के फलोंको पहिले खा लिया है कि अब खायगा ? कुमारके वचनोंका तनिक भी तात्पर्य न समझ अबके तो इंद्रदत्त कुलकुला उठे क्योंकि वे समझते थे कि जब धान कटे ही नहीं तब पहिले कैसे खाये जा सकते हैं ? कुमारने खेतको देखकर जो प्रश्न किया है वह वज्र मूर्खताका है इसलिये वे यही कहने लगे कि ऐसे मूर्खता परिपूर्ण जीवन के लिये धिक्कार है ।। १२८- - - १३१ ॥ आगे चलकर एक हल दीख पड़ा। उसे देखकर कुमारने इ' द्रदत्तसे पूछा- बताओ मामा मा ! इस Ekekek Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल 9 PRERYK REKYLERY पुरोष्ट्वा ह्यन्वयु केति तं प्रति । भो मामक ! हलीपेशा विद्यते कतिका इमे ॥ १३२ ॥ समाकर्ण्य तथा प्रोक्त' पुनः प्रोवाच तं प्रति दर्याः कंटका माम ! कति संत्येव निश्चितं ॥ १३३ ॥ चिंशयामास मूर्खोऽयं श्रष्ठी चिंतापरायण: 1. एवं प्रश्नवितकेंषु सत्सु तौ जग्मतुस्तरां ॥ १५४ ॥ घेारामेहिन एवं समान्य ल. जो तं भूपजं प्राह कुत्र यासि त्वकं वद ॥ १३५ ॥ तदा कुमार आहेत विद्यामि सरसस्स | इंद्रदत्तो वणिक् प्राह विनाशां नैव गम्यतां ॥ १३६ ॥ इत्युक्त्वा स्वगृहे यात इंद्रदत्तो वणिग्वरः । श्र णिकश्चि तयामास धिश्रीं वाणिजामिति ॥ १३७ ॥ वेश्यमै श्रीमहिकीड़ां द्यूतकर्म विपादनं । योषिद्धमं त्यजेद्विद्वान् मुदाकांक्षी कुसंगतां ॥ १३८ ॥ पितरं श्रमसंयुक्त' ष्ट्योवाच सुता मुदा । नंदश्रीर्नागकन्येव रूपरंजितरंभिका ॥ १३६ ॥ हे तात! सह फेनैव चागतस्त्वं वद हमें कितनी शाखायें ( हिस्से ) हैं । कुमारके ये वचन सुनकर भी सेठ इंद्रदत्त उसे मूर्ख समझ चुप रहगये। आगे चलकर एक वदरीवृत पड़ा उसे देख कुमार श्रेणिकने पूछा- बताइये मामा ! इस वृत्रमें कितने कांटे हैं । कुमारका यह प्रश्न सुन इंद्रदत्तके मनमें पूरा विश्वास हो गया कि यह वालक अवश्य पूरा पागल है। बस इसप्रकार प्रश्न और वितर्क करते करते वे दोनों मार्गमें सानंद गमन करते जाते थे । १३२ – १३४ ॥ सेट इंद्रदत्तकी जन्मभूमि वेगातड़ाग नामका नगर था । मार्ग में चलते चलते जिस समय वेगातड़ाग आया सेठ इंद्रदत्त वहीं ठहर गया एवं कुमारसे यह कहने लगा कि भाई मेरा घर तो आ गया, में अव अपने घर जाता हूँ, तुम अब यहां से कहां जाओगे . कहो ? उत्तर में कुमार ने कहा- इससमय तो में इसी तालावके किनारे ठहरू गा । कुमारकी यह बात सुनकर इन्द्रदत्तने कहा-अच्छा ठीक है परंतु मेरी आज्ञाके बिना आगे मत जाना। बस ऐसा कह कर सेठ अपने घर चला गया। सेठ इन्द्रदत्तके ऐसे सूखे व्यवहार से कुमार श्रेणिकको कुछ कष्ट हुआ। वे मन ही मन यही विचारने लगे कि वणिकोंके साथ की गई मित्रता के लिये धिक्कार है । जो विद्वान कल्याणके इच्छुक हैं उन्हें वणिकोंके साथ मित्रता, सर्पोंके साथ क्रीड़ा जा खेलना विष खाना स्त्रियोंकी संगति और खोटी संगतिका करना सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ १३५ - १३८ ॥ सेठ इन्द्रदत्तकी एक नंदश्री नामकी कन्या थी जो कि अपने मनोहर रूपसे अप्सराकी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल २८ ЖЕЖЕЖекетке қарай भूशं । तवा वभाण हे पुत्रि ! मूणामा समागतः ॥ १४० ॥ कध झातस्त्वया मूर्खः, गणु पुत्रि ! निगद्यते । जिहारधादिसंप्रोक्त श्रुत्या हर्षमुपागता ॥ १४१ ॥ उक्त च---. . जिहारथः पावसुरक्षणं च छत्र तथा प्रामयिनिश्चयश्च । नारी शर्व शालिवनं च ड़ा (हा) ले काटक्यवार्तेति च फलप्यतेस्म ॥ १४२ ॥ नंदश्रीः पित प्राह नासौ मूर्खः स्पानिधे ! द्वात्रिशलक्षपयुक्तो वर्तते कुत्र हे पितः १ ॥ १४३ ॥ दत्तस्तदा प्राह सरस्तीरे स्थितो. ताऽस्ति सः । श्रुत्या सा चिंतयामास परीक्षयेऽहं शुभं गरं ॥ १४४ ॥ तदा विपुलमत्याच्या सीमाकार्य वेगतः । प्राहेति धचन रम्यं कुरु * कार्यमिवं स्वकः॥ १४५ ॥ नखेन तैलमादाय याहि त्वं सरसस्तटे । तत्रस्थितस्य गोधस्य देहि स्नानार्थमंजसा ।। १४६ ।। प्रतिपद्य गताउपमा धारण करती थी। जिस समय सेठ इंद्रदत्त घर पहुंचे उन्हें अत्यंत थका हुवा जान नंदश्री ताड़ गई कि इनके साथ कोई न कोई अन्य मनुष्य भी आया है क्योंकि अकेला चलनेवाला मनुष्य अपने खायानुकूल अति बलता है इसलिये विशेष नहीं थक सकता किंतु साथमें अन्य मनुष्य के रहते दोड़ा दोड़ी चलना पड़ता है इसलिये विशेष थकावट हो जाती है, इसलिये उसने शीघ्र ही । पछा-पिताजी ! तुम किसी न किसीके साथ आये जान पड़ते हो कृपाकर कहिये आपके साथमें 2 जो आया है सो कौन है ? उत्तरमें इन्द्रदत्तने कहा-पुत्री ! में अवश्य किसी अन्य पुरुषक साथ आया हूँ परंतु मेरे साथ आनेवाला वज मूर्ख है। पिताके ऐसे वचन सुन नंदश्रीने फिर पूछा--- पूज्य पिता ! आपने यह कैसे जाना कि आपके साथ आनेवाला पुरुष मूर्ख है ? उत्तरमें सेठ इन्द्र- : दत्तने जिह्वारूपी रथपर सवार होकर चलना, जूता पहिने ही नदीमें प्रवेश कर जाना, वृक्षके नीचे छत्री लगाकर बैठना, गांधको उजड़ा बसा कहना, स्त्रीको बांधी छटी कहना, यह मुर्दा आज मरा है - वा पहिले, धान्यके खेतके फल खा लिये वा खाये जायेंगे हल और वदरीके कांटोंके विषयमें जो भी बात चीत हुई थी सारी कह सुनाई। जिस समय कन्या नंदश्रीने सारी बातें सुनी उसे बड़ा हर्ष हुआ। शीघ्र ही उसने अपने पितासे कहा—कृपानाथ ! ऊपर कही हुई बातोंसे जो आपने उसे | प्रय Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 김 - २६ फातयतयता मूर्ख समझा है सो वह मूर्ख नहीं बड़ा भारी बुद्धिमान है । कुमारने जो जो बातें कही थीं उनका खुलासा इसप्रकार है उस कुमारने जो आपको मामा कहकर पुकारा था उसका मतलब यह था कि संसार में भानजा अत्यंत माननीय और प्रिय होता है इसलिये मामा कहकर कुमारने आपके विशिष्ट प्रेम की आकांक्षा की थी। जिह्वारथका अर्थ कथा कौतुहल है। कुमारने जो जिह्वा रथ कहा था वह भी उसका कहना बहुत उत्तम था क्योंकि जिससमय सज्जनपुरुष मार्गमें थक जाते हैं उस समय वे उस थकावटको अनेक प्रकारके कथा कौतुहलोंसे दूर करते हैं । कुमारका लक्ष्य भी उससमय थकावट दूर करने का ही था । कुमार जो नदीके जलमें जूता पहिनकर घुसा था वह कार्य भी उसका एक बड़ो बुद्धिमानीका था क्योंकि जलके अन्दर बहुतसे कंकड़ पत्थर और सर्प आदि जीव रहते हैं जो कि सूझ नहीं पड़ते, यदि जूता पहिनकर जलमें प्रवेश न किया जाय तो कंकर पत्थरों के लगजानेका और सांप आदि के काटनेका भय रहता है इसलिये कुमारका जलमें जूता पहिनकर प्रवेश करना मूर्खताका कार्य न था । कुमार वृक्षके नीचे जो छत्री तानकर बैठा था वह भी उसका कार्य बुद्धिमानीका था क्योंकि वृतके ऊपरसे पक्षियोंकी वीट आदिका गिरना संभव है। छत्रीसे बचाव हो सकता है। नगरको देखकर कुमारने जो यह प्रश्न किया था कि यह बसा हुआ है वा उजडा हुआ है वह प्रश्न भी कुमारकी वडी बुद्धिमत्ताका था क्योंकि जिस नगरमें धर्मात्मा मनुष्य और धर्म के आयतन विद्यमान हों वह नगर बसा हुआ माना जाता है और जिसमें ये बातें न हों वह उजड़ा समझा जाता है कुमारका तात्पर्य इसी बात को लेकर था। स्त्रीको बाँधकर मारते देख जो कुमारने यह पूछा था कि यह स्त्री बंधी हुई है वा छूटी हुई है ? यह प्रश्न भी. कुमारका बडी चतुरताका था. क्योंकि बंधी हुईका अर्थ विवाहित है और छूटी हुई का अर्थ अविवाहित है । कुमारका यस्य पुर Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मला खास तात्पर्य उस समय यही था कि यह पुरुष जो इस स्त्रीको मार रहा है यह स्त्री इसकी व्या हिता है वा भगाई हुई है। मरे मनुष्यको देखकर जो कुमारने यह प्रश्न किया था कि 'यह मुर्दा आजको मरा है वा पहिले हो मर चुका है ' ? यह भी उनका प्रश्न बडी निपुणताका था क्योंकि जो मनुष्य धर्मात्मा दानी तेजस्वी आदि उत्तम गुणोंका भंडार होता है और वह मर जाता है | उसको तो आजका मरा हुमा कहते हैं और जो दुर्गुणोंका खानि होता है वह भले ही आज ही Iमरा हो तो भी वह पहिलेका मरा हुआ ही माना जाता है । कुमारका आशय भी उस समय यही था। धान्यके खेतको देखकर जो कुमारने यह पूछा था इस खेतके स्वामीने इस खेतका उपभोग कर लिया है वा करेगा ? यह प्रश्न भी कुमारका बड़ी बुद्धिमानीका था क्योंकि जो खेत कर्ज लेकर | बोया जाता है उसके धान्यका तो पहिले ही उपभोग कर लिया जाता है और जो कर्ज न लेकर वोया जाता है उस खेतके धान्यको उसका स्वामी भोगेगा, ऐसा कहा जाता है। कुमारका प्रश्न भी उस समय इसी आशयको लेकर था। कुमारने जो यह प्रश्न किया था कि इस हलमें | कितनी शाखा हैं ? यह प्रश्न भी कुमारका बडा मार्केका था क्योंकि उस समय कुमारका यह आशय था कि इस हलके स्वामी कितने किसान हैं ? इसलिये यह प्रश्न भी कुमारका मूर्खता परि-2 पूर्ण न था । तथा इस बदरी वृक्षपर कितने कांटे हैं ? यह जो कुमारने पूछा था वह पूछना भी उनका बड़ी कुशलतासे था क्योंकि कांटे दो प्रकारके होते हैं एक सीधे दूसरे टेढ़े। दुर्ज नोंके वचन । भी सीधे टेड़े दोनों प्रकारके होते हैं कुमारका पूछना भी इसी आशयको लेकर था" इसलिये हे पूज्यपिता : जिस कुमारको आपने मुर्ख समझ रक्खा है वह बत्तीस शुभ लक्षणोंका धारक | अत्यंत बुद्धिमान है कृपाकर अब शीघ्र बताइये कि वह चतुर कुमार इससमय कहां है ? उत्तरमें इंद्रदत्तने कहा kesekkЖүрекрутер प्रापYESKAR Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . REKKREY लि RELArkehchIRYKESTRATKI तत्र वृत्तांतं प्रतिपादितं । तैलेन मननं कृत्वा गतभ्यं मम सदुगृहे श्रुत्थाथ चिंतयित्वासौ तोये तैलं क्षिपाहतं ॥ १५७॥ (घट्पदी) Me किमर्थं सा जगौ रम्या येन साधं समागतः । तस्यास्ति रूपसद्धारभूषिताकन्यका शुभा ॥ १४८ ॥ तया नंदश्रिया त्वं भो आकारित इव भू च। तदा प्राह कुमारोऽसौ कुत्रास्ते सदनं तब ॥ १४६ ॥ दर्शयित्वा तदा कर्णताल सैव ययौ गृहं । स्नात्वा विज्ञानतो याचदाः । ___ वह कुमार इससमय तालावके किनारे बैठा है । मैं उससे यह कहकर आया हूं कि मेरी आज्ञाके | विना तुम कहीं भी मत जाना इसलिये जबतक मेरी आज्ञा उसके पास न पहुंचेगी वह कहीं जा नहीं सकता। अपने पिताके ये मनोहर वचन सुन कुमारी नंदश्री विचारने लगी यद्यपि वह कुमार | संसारमें एक बुद्धिमान पुरुष रत्न है तथापि और भी उसकी परीक्षा करलेना परमावश्यक है इस लिये शीघ्र ही उसने अपनी विपुलमती नामकी प्रियसखो बुलवाई और प्रेममय वचनोंसे ko उससे यह कहा कि मैं जिस कार्यके करनेकी तुमसे प्रेरणा कर रही हूं उसे शीघ करो। देखो तालावके किनारे कोई अन्य देशका पुरुष बैठा है। नखमें तेल भरकर तुम शीघ्र उसके पास जाओ और उससे कहो कि आप यह तेल लेकर शीघ्र स्नान करिये ॥ १३६--१५६ ।। कुमारी नंदश्रीके वचन सुन सखी विपुलमती शीघ्र ही तालावके किनारे जा पहुंची।नंदश्रीने जो कहा था सारा समाबोर कुमारसे कह सुनाया एवं तेल लगाकर स्नानकर आप मेरे घर चलें, यह निवेदन भी कर दिया। विपुलमतीके वचनोंपर थोड़ी देर तक कुमारने विचार किया एवं इस तेलको इस जलमें डाल दो, ऐसा कहकर उससे यह पूछा| तुम्हारे घर मुझे क्यों चलना चाहिये ? उत्तरमें मनोहरांगी विपुलमतीने कहा--प्रिय महानुभाव जिस महापुरुषके साथ तुम आये हो उसके एक नंदश्री नामकी पुत्री है जो कि दिव्य सौंदर्यके भारसे शोभायमान है और शुभ है उसी कुमारीने आपको बुलाया है आप किसी प्रकारका संदेह न करें। विपुलमतीकी यह बात सुन कुमारने पूछा तुम्हारा घर कहां है ? इसके उत्तरमें विपुलमती । ने कुछ भी नहीं कहा उसके कानमें जो तालवृत्तके पत्तेकाबनाभूषण था उसे धीरेसे दिखाकर वह चुप पह - - - ----- . . .----- -..... Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याति सदन प्रति ॥ १५०॥ तावन्नंदश्रिया द्वारं कारित कदमाकुलं । जानुषंगं दृषट्सग स्थिता पश्यति कौतुकं ।। १५१३ ताइचिन का मत्वा स द्वारे समागतस्तदा । दृष्ट्या कदमसंतानं चितयामास मानसे ॥ ३.५२ ।। पुरमध्ये पुराभ्यणे प्रतोल्यो प्रतिसम्म च नो दरी चाप अपने घरको चली गई। बुद्धिमान कुमारने अपनी चतुरतासे उसका इशारा समझ लिया 2 9 एवं जिस घरमें तालवृक्ष हो वही कुमारी नंदश्रीका घर है ऐसा विचारकर वह कुमार स्नानकर उसी | घरकी ओर सीधा रवाना हो गया ॥ १४७--१५० ॥ विपुलमतीके मुखसे कुमारका आना सुन नंद-12 श्रीने अपने दरवाजे के सामने घोंट पर्यंत कीचड़ भरवा दी। ठीक दरवाज के सामने पत्थर रखवा दिये जिससे यह जान पड़े क भीतर जानेका रास्ता इन पत्थरोंके टुकड़ोंके ऊपरसे है एवं कुमारका A कौतुहल देखने के लिये वह सामने खिड़कीमें बैठ गई ॥ १५१ ॥ नंदी के घरमें ताड़का वृक्ष था ताड़के चिह्नसे उसी घरको नंदश्रीका घर जान कुमार उसके दरवाजे पर आ गये एवं दरवाजे के मागेका भाग कीचड़से भरा हुआ देख वे इसप्रकार मन ही मन विचाने लगे-- न तो नगरके मध्यभागमें कीचड़ दीख पडती है न नगरके पास कहीं कोचड दीख पडती है। किसी गली वा किसी मकानमें भी कीचड़ नहीं दीख पड़ती परंतु इस मकान के सामने कीचड़ दीख पड़ती है इसलिये इस कीचड़के होने में अवश्य कोई न कोई रहस्य छिपा हुअा है—क्या वात है सो कुछ जान नहीं पड़ती घरके भीतर जाने के लिये जो यह पत्थरके टुकड़ोंका मार्ग बनाया गया है जान पड़ता है मेरी बुद्धिको परीक्षाके लये यह धोखावाजी की गई है यदि मैं इस पत्थर के टुकड़ोंके बने मार्गसे घरके भीतर जाऊंगा तो अवश्य नीचे कीचड़में गिर जाऊंगा तो सारा लोक मेरी हँसी करेगा इसलिये मुझे कीचड़ में होकर हो जाना चाहिये बस इसप्रकार विचारकर के कीचड़के भीतरसे जाकर नंदश्रीके दरवाजेपर पहुंच गये। कुमारके इस तीत्र कौशलको देखकर नंदश्रीने मन ही मन उनके कौशलकी सराहना की एवं दिल्लगीसे फिर भी कुमारकी बुद्धिको परी meHITHA Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | दिश्यते पंकः समस्याब कर्य ननु ॥ १५३॥ यामि प्रस्तरपंक्त्याऽई पतिष्यामि यदा तदा । हसिष्यंत्यषिला लोका अतः पंके प्रयाम्यहं ।। चित्त्यं गतवान् सद्मद्वारे नंदश्रिया तदा । कौशल चिंतयामासे (स)सन्नरस्य सकौतुक ।। १५५॥ सख्या संप्रेषयामास पादक्षा. लनहेतये 1 अंजलिप्रमित तोयं दृष्ट्यासौ तस्यचितयत् ॥ १५६ ॥ इयं धूर्ता समीक्ष्त्येत कौतुकं यत्करोत्यदः । वेणुचीर्यातदुत्तार्य | क्षालयामास पत्कर्ज १५७१ नंदश्रीश्च तदा स्वोते धतुरंतव्यचिंतयत् । मुई गत्वालिका प्राहाकारयेति सुभोजने ॥ १५८॥ आकारितस्तदा तत्र रम्यांगो राजलक्षपाः । आगतो लीलया युक्तः प्रापूर्णक इव स्थितः ॥ १५६ ।। आगतस्वागतं कृत्वा नंदधीर्घवनं जगौ । तिष्ठ तिष्ठासने साधो! कुरु भोज्यं मनीप्सितं ॥१६०॥ तदाकर्ण्य कुमारोऽसावत्रवोत्तां शुभाशयां। श्रयसे चतुरा लोके त्वं ललामि! चकोरटूक् ॥ १६१ ॥ प्रतिक्षाय कृता वाले ! मया विज्ञानशालिना । द्वाविशतंदुला रम्या विद्यते मम पार्द के ॥ १६२॥ तेषां चेन चाके लिये नंदश्रीने अंजुलीप्रमाण जल उनके पैर धोनेके लिये सखीके हाथ भेजा।कुमार उस थोड़े से जलको देखकर मन ही मन विचारने लगे कि मेरे साथमें जो दिल्लगी हो रही है वह इसी धूर्त नंदश्री द्वारा की जा रही है खैर, उन्होंने वांसकी फच्चट लेकर शीघ्र ही सारी कीचड़ उतार डाली और उस थोड़ेसे जलसे अपने पैर धो डाले । कुमारकी इसप्रकार बुद्धिमानी देख नंदश्रीने मन ही मन उन्हें अत्यंत चतुर समझ लिया । बडी खुश हुई एवं अपनी सखीसे यह कहा कि कुमारको 9 भोजनके लिये लिवा लाओ। नंदश्रीके कहे अनुसार सखीने कुमारको भोजनके लिये बुलाया। मनोहर अंगके धारक एवं राजलक्षणोंसे शोभायमान वह कुमार भी क्रीडापूर्वक नंदश्रीके पास आ गया एवं जिसप्रकार अतिथि आकर बैठ जाता है उसप्रकार आकर बैठ गया ॥ १५२-१५६ ॥ अतिथिका जिसरूपसे स्वागत करना चाहिये नंदश्रीने बड़े उत्साहके साथ उनका स्वागत किया एवं मनोहर वचनोंमें वह इसप्रकार कहने लगी... IS महानुभाव ! आइये इस आसनपर विगजिये और इच्छानुसार भोजन कीजिये ॥ १६० ॥ शुद्ध हृदयवाली नंदश्रीके ये मनोहर वचन सुन कुमारने कहा-चकोरके समान नेत्रवाली मनोह पपपपपपपपपपलचस्पर पपपपपपपपपर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स विता भोज्यं सर्षिःशाकादिधरित । तदा भुमि गौरागि ! तप्तजांधूनदरमे ॥ १६३॥ भर्तस्त्रलितया घाण्या श्रुत्या तद्वांछितं सका अबोचद्दे हि तान् रम्यान कुर्वेऽहं भोजन वरं ॥ १६॥ आदाय चूर्णकं कृत्वा पूपं कृत्वा ददौ करे । आलिकायास्तदा साएि नोत्वा घू तगृहं ययौ ॥ १६५ ॥ भाजन द्यूतकारश्च पट्टकूलं प्रसारितं । विलोक्य जगदे साहि श्रूयतां सदनो मन ।। १६६ ॥ देवत्ताधिप्ठितं पूर्व यो गृह्णाति धराक्षिकः लाभ मनीप्सितं सोऽपि लभेतालं न संशयः ॥ १७ ॥ अत्याग्रह विधायाशु दत्त्वा द्रव्यं धनं धनी। नाम्ना जग्राह पूपं तं धनं नीत्वा गृहं ययौ ।। १६८ ॥ स्वामिन्या तेन द्रव्येण पूपापायसव्यंजनं । निर्माप्य भोजयामास तांन्यूलं च रांगी ! संसारमें तुम बडी चतुर सुनी जाती हो में भी कुछ चतुरताका अभ्यास रखता हूँ मैंने आज Lal यह प्रतिज्ञा की है कि मेरे पास वत्तीस चावल है यदि केवल उन्हीसे धी और शाक आदिसे परिपूर्ण मेरे लिये भोजन तयार किया जायगा तो मैं उसे खाऊंगा बीच नहीं खा सकता। सुवर्णके समान , प्रभावाली गौरांगी ! यदि तुम इसरूपसे भोजन तयार कर सको तो में खा सकता है। कुमार श्रेणिक जिससमय यह कह रहे थे विशिष्ट आनंदसे उनकी वाणी कुछ कुछ स्खलित निकलती थी। चतुर नंदश्री स्खलितवाणीसे उनके मनका अभिप्राय समझ कहने लगी--कृपाकर उन बत्तीस चाव लोंको दीजिये मैं अभी आपके लिये मिष्ट और मनोहर भोजन तयार करती हूँ॥ १६१-१६५॥ IT कुमारने उसी समय बत्तीस चावल दे दिये । कुमारी नंदीने शीघ्र उन्हें पीसकर पूर्व बनाये। सखीको बुलाकर उन्हें वजार वेचनेके लिये भेज दिया । वह सखी भी बडी चतुर थी जहां ज्यारियों IS का अड्डा था वहां पहुंची। ज्वारी लोग कपडा विछाकर जिससमय जू आ खेलना प्रारंभ करने लगे उस समय उस सखीने इसप्रकार मनोहर वचनोंमें कहा___देखो भाइयो । ये पूर्व जो में लाई है देवमयी हैं । जो महानुभाव इन पूवोंको खावेगा वही | उत्तम ज्वारी इच्छानुसार घन उपार्जन करेगा इसमें किसी बातका संदेह नहीं। बारियोंको कल कहां? बड़े आग्रहसे शीघ्र ही उन्होंने पूर्व खरीद लिये ।मुहमागा धन दिया एवं उस धनको लेकर वह 1 सखी शीघ्र ही अपने घर आ गई ॥१६६–१६८ ॥ कुमारी नंदनीने उस द्रव्यसे पूवा खीर आदि VERaksaekasa Күкккккккккккккккккккккке Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 तदुत्तरं ॥१६॥ नंदश्रीरंजिता तेन गत्यावाचा स्मरक्षण: । ददर्श ठयाकुली भूत्वा कामयाणादि ताहि ।।१७०१ स्वांग सा दर्शयत्येच कपोलौ दर्पणाविव । ईपद्धास्येन दंताश्च मुक्ताप्रणिचयानि च ॥ १७१ ॥ अन्योन्य तौ च कामांगों परं प्रेम प्रजग्मतुः । इंद्रदत्तोऽनु. IR रक्तां तां ज्ञात्वा तस्मै ददौ मुदा ॥ १७२ ।। श्रेणिकोऽपि तया सार्क रमे राजमुखः सुखं । रोहिण्या सीतया नाग्या चंद्रामधरेशवत् । शीघ्र ही उत्तम व्यंजन तयार कर दिये । कुमारको उनकी इच्छानुसार भोजन करा दिया एवं भोजनके बाद तांबुल देकर उन्हें संतुष्ट कर दिया ॥ १६६ ॥ कुमार श्रेणिकने अपनी मनोहर गतिसे मिष्ट वचनोंसे और तिरछी चितवनसे कुमारी नंदश्रीको अपने में अनुरक्त कर लिया। कामवाणों से व्याकुल हो वह उनकी ओर लालसा दृष्टिसे देखने लगी। कामके बशी भूत वह कुमारी कभी NI 4 अपना मनोहर अंग कुमारको दिखाने लगी कमी दर्पण के समान अपने कपोलोंको ती कभी कभी मंद मंद मुसकानेसे मोतियोंके समान अपने दातोंके दिखलानेकी चेष्टा करने लगी।१७०-.१७॥ से अपने आपसी व्यवहारसे वे दोनों कुमार कुमारी कामवाणोंसे पीड़ित हो अपना अपना प्रेम व्यक्त करने लगे । सेठ इंद्रदत्तको भी कुमारमें कन्याके अनुरागका पता लग गया, उन्होंने बड़ी खुशीसे 17 दोनोंका आपसमें विवाह कर दिया ॥ १७२ ॥ युवा कुमार श्रेणिक भी जिसप्रकार चन्द्रमा रोहिराणोके साथ रमण करता है रामचन्द्र सीताके साथ रमते थे और नागेन्द्र नागकुमारीके साथ रमण क्रियासे उपयुक्त रहता है उसप्रकार रमणी नंदश्रीके साथ रमण क्रीडा करने लगे ॥ १७३ ॥ कुछ कालके बाद रमण क्रीडा करते करते कुमारी नंदश्रीके गर्भ रह गया उस समय उसके एक दोहला भी हुआ जिसकी सिद्धि कठिन जान वह दिनों दिन कृश होने लगी। किसी दिन का एकांतमें आलिंगन चुम्बनके बाद बड़े प्रेमसे कुमारने नन्दश्रीसे यह पूछा—प्रिये ! मैं देखता हू दिनों दिन तुम कृश होती चली जाती हो । नहीं जान पडता तुम्हारी कृशताकी कारण कौंन चिंता है ? तुम्हें उसे प्रगट करना चाहिये । कुमारका इसप्रकार विशेष आग्रह देख नंदश्रीने कहा-कृपा TRYAYKEMAKERSY REAKANTARY КүKrkerkekerkeкүкүрекке Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sam गर्भ वभार सा वाला कियत्काले गते सति । दोहदेन रुशोभूता दृष्ट्या श्रीश्रेणिकेन च ॥ १७४ ॥ पप्रच्छालिंग्य संचुध्य रह. स्ये रतिकिहलां । कृशत्वकारणं कांतः साग्रहादगदीदिति ॥ १७५ ॥ ऋणु नाथ ! कपाधार! प्राणजीवन ! मवचः । सप्तवासरपयेतं देशेऽस्पिस्नभयं यदा ॥ १७६ ॥ भवेन्नने सदा सौख्यं श्रुत्वासौ दुष्करं वचः । समाश्चात्य सि रामानंद्यास्तीरं गतस्तदा ॥. १७७ ॥ उपाय चिंतयन यावत्ताबदत्यकथांतरं । बसुपालनरेंदस्य कृत्या चालानभजन ॥ १०८ ॥ पुरमाकुलयन् लोकालाम गृद्दीष्यन्निध तिग्मांशु पातयिष्यन् धरातलं ॥१७६ ॥ गमिपन्निव चाकाशे निर्ययो मनोद्धरः। अन्याय तं गज दृष्ट्वा चिंतया. मास श्रेणिकः ॥ १८० ॥ अयं दुष्यो गजः केन वशीक हि शाते । इति मत्वोत्थितः कोपाजघानेनं प्रमुष्टिभिः ॥१.८१॥ निर्मबं गलिबधार ! प्राणजीवन प्राणनाथ ! सुनिये मुझे यह दोहला हुआ है कि इस देशमें सर्वत्र सात दिन PA तक अभयदानकी प्रवृत्ति हो, कोई भी जीव किसीको न सतावे । यदि मेरा यह दोहला पूर्ण हो । IN जाय तब मुझसुख मिले इसका पूर्ण होना कठिन जान पड़ता है इसीलिये मैं सदा कृश होती चली || जाती हूँ मेरी कृशताका अन्य कोई कारण नहीं। प्राणप्यारी नंदश्रीका यह दोहला सुन कुमार श्रेणिकको भी उसकी सिद्धि में कठिनता सझने लगी परंतु अपनी निर्वलता न प्रगट कर अपने धीर वीर खभावसे उन्होंने उसे समझा दिया एवं कुछ उपाय खोजनेके लिये वे नदीके तटकी ओर चल | दिये ॥ १७४–१७७ ॥ नदीके किनारे बैठकर कुमार दोहलेकी सिद्धिका उपाय सोच ही रहे थे कि उस समय एक नवीन ही घटना उपस्थित हो गई। उसी नगरका स्वामी एक वसुपाल नामका राजा था उसके किसी मदोन्मत्त हाथीने पालान ---अपने बंधनेका खुटा तोड़ डाला। वह दुष्ट गज समस्त लोगोंको व्याकुल करता, हथिनियोंको त्रास देता, अपनी उछल कूदसे सर्यको ग्रहण करता, समस्त पृथ्वीतलको कपाता एवं अपनी ऊंचाईसे आकाशमें चलता हुआ जिस जगह कुमार बैठे थे उसी जगह आया उस दुष्ट गजको अपने पास आता देख कुमार श्रेणिक मन ही मन सोचने लगे—यह गज बड़ा दुष्ट मालूम पड़ता है। इसे वश करनेकी किसीकी हिम्मत नहीं जान पड़ती इसे अवश्य वश पपपपपपपत КАК ЖҮЖҮЖҮЖҮkgkkkkkke Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल० ७ संक्षामं संविधाय करोहसः । द्रष्ट्वा लोकास्तथाभूतं संसयामासुरेव तं ॥ १८२ ॥ वसुपालोऽवदद्वाक्यं प्रार्थय त्वं मनोगतं । सप्तवासरपर्यतं देहि देशेऽभयं ब्रतं ॥ १८३ ॥ प्रतिपच तथा राजा तस्थौ राज्ये सुखान्वितः । शुभे लग्ने महायोगेऽजीजनन्दनं च सा ॥ १८४ ॥ दोहदाकांक्षया नाम्ना चक्र ऽभवकुमारकं । अनुक्रमेण संप्राप्तो यौवनं विद्ययान्वितः ॥ १८५ ॥ नंदश्रिया समं क्रीडन, णिकातुरां गफः । कर्म्मपंकज संसक्तो गतं कालं न वेश्यसौ ॥ ९८६ ॥ यथोप णिको राजा क्षयं ज्ञात्वायुषों ध्रुवं । सर्व सामंतसामक्ष्यं ददौ राज्यं करना चाहिये बस चित्तमें क्रोधकर तत्काल उठ बैठे और मुष्टियोंके प्रहारोंसे उस मदोन्मत्त भी हाथीको देखते देखते वश कर डाला ॥ १७८- १८१ ॥ हाथी जिससमय मदरहित शांत और सीधा हो गया कुमार उसके ऊपर चढ़ लिये उनका यह लोकोत्तर प्रभाव देख सारा लोक उनकी प्रशंसा करने लगा ।। १८२ ॥ राजा वसुपालके कानतक भी यह समाचार पहुंचा वह | आकर कुमारसे मिला और कहने लगा-कुमार ! तुमने बड़े साहसका कार्य किया है मैं तुमसे प्रसन्न हूँ जो तुम्हें मांगना हो सानंद मांग सकते हो। कुमार श्रेणिक सातदिन तक अभय दानकी चिंता में थे इसलिये राजासे उन्होंने यही कहा कि कृपाकर आप सात दिनतक अपने देशमें अभय दानकी घोषणा कर दें। राजा वसुपालने कुमारकी बात स्वीकार कर ली और वह सुख | पूर्वक अपना राज्य करने लगा। शुभ लग्न और शुभ योगमें रमणी नंदभीके पुत्र हुआ। दोहले के अनुसार उसका अभय कुमार नाम रखा गया । क्रमसे वह युवा हो गया एवं अनेक विद्याओंका भंडार बन गया । १८२ - १८५ ॥ चतुर अंगके धारक कुमार श्रेणिक रमणी नंदश्री के साथ सानंद क्रीड़ा करने लगे एवं रतिक्रीड़ारूपी कमलमें इतने आसक्त हो गये कि जाता हुआ काल भी । उन्हें नहीं जान पड़ने लगा ॥ १५६ ॥ कुमार श्रेणिक तो उधर इन्द्रदत्तके घर रहने लगे इधर महाराज उपश्रेणिकको जब यह मालूम हो गया कि मेरी आयु बिलकुल समीप है तो उन्होंने समस्त सामन्तोंको इकट्ठा किया और सर्वोके Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल चलातिने ॥ १८७ ॥ मृते राशि स्वयं राजा भूत्वा पाया मजाः : oriमुसाको पुरवठी कौरषत् ॥१८८॥ दुष्टान् संस्था | पयामास शिष्टान्नाशयतिस्म सः । तदा संचिंत्य मंत्रीशो गूढपत्रमलीलिखत् ॥ १८६ ॥ दया दूतकर पत्रं प्राहिणोत् श्रेणिकं प्रति। गत्वा दत्तं शुभं पत्रं वाचयित्वा शमाप सः॥ १९ ॥ आशां श्रीदत्तस्य नीत्वा मुक्त्या प्रिया सुतं । गूः पंचसहस्राश्च सुभटः सदितो ययौ॥ १६॥ ससैन्य श्रेणिक मत्या नीत्वा द्रव्याज भयात् । निःसृत्य नगरात्सोऽपि पल्लीनाथितास्तदा ॥ १२॥ गजारूढ़ो महाराजा वृषस्कंधः प्रतापवान् । छत्रचामरसंयुक्तो विवेश निजपत्तनं ॥१९३॥ शुभयोगेऽधितस्थौ यो विष्टरं राजलक्षणः । साधयित्या असमक्षमें चलोती पुत्रको राज्य प्रदान कर दिया ॥ १८७॥ आयुके अन्तमें महाराज उपश्रेणिकका मरण हो गया । वह राजा होकर प्रजाका पालन करने लगा। उसके राज्यकालमें इंद्राणी आदिक जो रानियां थी वे चोरोंके समान बड़े दुःखसे रहने लगी । राजा चलाती तनिक भी उनके दुःख सुखपर ध्यान नहीं देता था ॥ १८८ ॥ वह दुष्ट राजा अपने राज्यमें दुष्टोंकी बढ़वारी करता था और शिष्ट-भले आदमियोंका विनाश करता था। समस्त प्रजा उसके शासनसे दुःखित थी। मंत्री मतिसागरको बड़ी चिंता हुई। अच्छी तरह विचारकर उसने कुमार श्रेणिकको एक गूढ़ पत्र लिखा एवं दूतके हाथमें देकर उसे कुमार श्रेणिकके पास भेज दिया। जहांपर कुमार श्रेणिक रहते थे दूत सीधा वहां पहुंचा है कुमारके हाथमें पत्र दे दिया, जिसे वांचकर कुमारके चित्तको बड़ी भारी शांति मिली ॥ १८-१६० ।। उन्होंने शीघ्र ही अपने श्वसुर इन्द्रदत्तसे राजगृह नगर जानेकी आज्ञा मागी। प्रियतमा नंदश्री और पुत्र अभयकुमारको वहीं छोड़ा एवं पांच हजार गूढ़ वेषधारी सुभटोंके साथ शीघ्र ही राजगृह नगरकी ओर प्रस्थान कर दिया ॥ १६१ ॥ राजा चलातीने जिस kd समय कुमार श्रेणिकको सैन्यसे मंडित आया सुना साथमें बहुतसा द्रव्य लेकर वह शीघ्र ही नगर से वाहिर निकल गया एवं अपने नानाके पास जाकर भीलोंकी पल्ली में रहने लगा ॥१६२ ॥ कुमार से श्रेणिक उसी समय राजगृह नगरके महाराज बन गये एवं बैलके समान पुष्ट स्कंधोंके धारक महा प्रतापी एवं छत्र और चमरोंसे शोभायमान वे महाराज श्रेणिक विशाल हाथीपर सवार हो अपनी रजपपपपपपपययययर a rak YERYkarket Ta Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिलान् देशान् सुर्ख राज्यं भुनक्ति सः।। १६४॥ अथकदा सभामध्ये समागत्यकखेचरनाम्नाऽऽकाशगतिनत्वा राजानं च व्यजि-! विमलापत् ॥ १९५॥ हे राजन् विजयाल्य दक्षिण णिका मता। तत्रैव केरला पूध तत्र राजा मृगांककः ॥ १६ ॥ तस्य राजी गुणागार मदगिनी मालतीलक्षा। पिलासवतिका पुत्रो रूपरभा सयौवना ॥ १७॥ मृगांकोऽपि तथाभूतां सुतां दृष्ट्वा पप्रच्छ सः। मुनि सुमतिनामानमत्याः को भषिता. पति: ॥ १९८ ॥ श्रीणिकोऽस्या भवो राजन् ! भविता भूरिधिकमः । शुत्वैवं निश्चयं कृत्वा स्थितः श्रीकेरलापतिः ॥ १६॥ तदा मरालोपस्य रहनचूड़ो नराधिपः । इप्ट्वा तां रतिमा भूरिसवर्णी याचते रूम सः॥ २०॥ नो हौ तस्मकै राजा रत्नचूड़ाख्यापतिः । तदागत्य पुरं क्रोधाद्वेष्टयित्वा स्थितो हि सः ॥२०१॥ तवाम्यणे समायातोऽहं कथनाय वेगत: 1 राजधानी राजगृह नगरमें प्रविष्ट हो गये ॥ १६३ ॥ राजलक्षणोंसे मंडित महाराज श्रेणिकने राजसिंहासन अलंकृत किया एवं समस्त देशोंको जीतकर वे सुखपूर्वक राज्य भोगने लगे ॥ १९४॥ महाराज शेशिक पाकद सिंहासन पर विराजमान थे कि उससमय एक आकाशगति नामका / विद्याधर राजसभामें आया और राजाको नमस्कार कर यह संदेशा कहने लगा—विजयाध पर्वत, | की दक्षिण श्रेणिमें एक केरला नामकी नगरी है। उसका स्वामी राजा मृगांक है । राजा मृगांककी पटरानीका नाम मालतीलता है जो कि अनेक गुणोंकी मंदिर है और नातेमें मेरी भगिनो लगतो है एवं उन दोनोंके विलासवती नामकी अत्यंत सुन्दरी और यौवनसे मंडित पुत्री है ॥१६५-१६७|| विवाह योग्य अपनी युवति पुत्रीको देखकर राजो मृगांकने सुमति नामके मुनिराजसे पूछा था कि | भगवन् ! मेरी पुत्रीका पति कौन होगा ? उत्तरमें मुनिराजने कहा था कि राजगृह नगरके स्वामी । | राजा श्रेणिक इसके पति होंगे जो कि संसारमें एक प्रवल पराकमी राजा हैं । मुनिराजके ऐसे । वचन सुन राजा मृगांक पुत्रोकी ओरसे निश्चिन्त हो रहने लगे। किसी समय मराल द्वोपके स्वामी , राजा रत्नचूड़ने रतिके समान सुन्दरी और कमनीय वर्णसे शोभित वह पुत्री देख ली और उसे । मांग बैठा परंतु मुनिवचनके गाढ़ श्रद्धानी राजा मृगांकने रत्नचूड़को पुत्री नहीं दी। रत्नचूड़को। यह बात सहन न हो सकी और उसने जलकर अपने सैन्यमंडलसे केरला नगरी घेर ली। मैं यह चपकायापा MR.. . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० यथा ये रोचते तुभ्यं कर्तव्यं च तथा त्वया ॥ २०२ ॥ श्रुत्वा स्थितो महाराजा श्रेणिकः कोपमानसः । भूमिमानां गतिर्नास्ति त गंतु तो ॥ २०३ ॥ तदा विप्रपन्नः स तूष्णीभावमुपागतः । जंबूर्नत्वा गतस्तेन सार्धं विद्याधरेण वे ॥ २०४ ॥ गवा व्याजी स ेन रत्नसून पापिना | साहसिकान् पार्थस्तस्यामीमरदुत्कटान् ॥ २०५ ॥ बधयित्वा द्विपं दुष्टं मृगांकण समं सुखं । कृत्वा कन्यां समादाय याचेदायाति तेः सह ॥ २०६ ॥ तावद्राजगृहाधीशं विध्याटव्यां हि केरले । पर्वते संस्थितं मत्वा तेननाम महायशाः ॥ २०७ ॥ उपयस्य तयो विधारा त्रिशपति दिपक तथा साकं सुख ं स्थितः ॥ २०८ ॥ समाचार कहने के लिये आपके पास आया हू' अथ जैसा आप उचित समझें शीघ्र करें ॥ १६८ - २०२॥ विद्याधर आकाशगतिकी यह बात सुन महाराज श्रेणिक बड़े कुपित हुए परंतु " वहां पर भूमि गोरियों की गति नहीं इसलिये जा नहीं सकते” ऐसा विचारकर वे सचिंत हो चुप रह गये महाराजको इसप्रकार सचिंत देख एक जंबूकुमार नामके व्यक्तिने महाराजको नमस्कार किया और वह विद्याधर आकाशगतिके साथ शीघ्र केरला नगरीको चल दिया ॥२०३ – २०४ || केरला नगरी में जाकर पापी रत्नचूड़के साथ उसने झगड़ा करना प्रारंभ कर दिया । उसके महा उत्कट आठ हजार योधाओं को मार भगाया। दुष्ट रत्नचूड़की बांध लिया। उसे, मृगांकको और उसकी कन्याको साथ ले राजगृह नगरकी ओर चल दिया । जिससमय जंबूकुमार केरला नगरीकी ओर गया था महाराज श्रेणिकने भी अपने जानेकी तयारी कर ली थी और वे चलते चलते विंध्याचलकी बनी में केरल नामके पवतपर जाकर ठहर गये थे । यशस्वी जंबूकुमार सर्वोको साथ ले जिस समय विंध्याचल पर्वतके पास आया उसे मालूम पड़ गया कि महाराज श्रेणिक यहीं ठहरें हैं। वह | शीघ्र उनके पास गया और उन्हें नमस्कार किया । कन्या विलासवतीके साथ महाराज श्रेणिकका विवाह हो गया । मृगांक आदिके साथ उन्होंने बहुत स्नेह जनया । वहांसे अपनी राजधानी राजगृह नगर लौट आये और रमणी विलासवती के साथ सुखपूर्वक रहने लगे ॥ २०५ - २०८ ॥ PKPKKY PAPK Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थकदाधिशांनायो दुष्टतां चिरय मानसे |दिग्रामद्विजानां हिलंटितु योजयन्नरान् ॥ २०॥ प्रकृतिस्तं तदागत्य विना छिद्रन युज्यते । विद्यमाने तनौ छिन्यायश्च नाथो भवेत् । २१० ।। साध साधु तथा कृत्वा मेषं च प्राहिणोश्चरः।नो पुष्टो दुर्वलो नेष फर्तव्यो मम मेषकः ।। २१९ ।। अन्यथा निगम नीत्या निर्गमयामि देशतः ॥ २१२॥ (षट्पदी) इति श्रुत्वा द्विजाः सर्वे व्याकुलीभूतमानसाः । प्रदत्तस्तदायातो नैदिन्यामाभयेन च ।। २१३ ॥ पद्दलितं नृपं मत्वा मिलनाय विशेषतः ॥ २१४ ॥ (षट्पदो) तदाभयः | महाराज श्रेणिक सानंद राज्य भोग कर रहे थे कि उन्हें नंदिग्रामके विप्रोंकी दुष्टताका स्मरण -उठ आया और उन्हें लुटवानेके लिये कुछ मनुष्योंका शीघ्र ही वे प्रबंध करने लगे ॥२०६॥ मंत्री आदिने आकर महाराजकोसमझायाराजन् । नंदिग्रामके विनोंका छिद्र-दोष, विना प्रगट किये आपका | यह कार्य अच्छा नहीं माना जा सकता इसलिये आप पहिले उनका कोई दोष प्रगट करिये, पीछे IA उन्हें दंडित कीजिये क्योंकि यह कहावत है कि जब अपने शरीरमें छिद्र होता है अर्थात् दंड देने-12 IN वाला स्वयं दोषी ठहरता है तब न्याय नहीं माना जाता-सब लोग उसे अन्याय कहते हैं ॥ २१ ॥ ठीक, ठीक कहकर महाराजने मंत्री आदिकी बात मान ली । शीघ्र हो एक बकरा मंगाकर सेवकों-18 1 के साथ उसे नंदिग्राम भेज दिया और यह आज्ञा कर दी कि नंदिमामके विष इसे खूब खिलावेंE7 पिलावे परंतु यह ध्यान रखें कि न तो यह बकरा पुष्ट हो और न कृश हो । यदि मेरी इस आज्ञा-3 का पालन नहीं किया गया तो मैं तुम्हारा सर्वस्व लुटवा लूगा और देशसे वाहिर निकलवा दूंगा ॥ २११–२१२ ॥ महाराजकी यह घोषणा सुन नदिनामके समस्त ब्राह्मण भयसे कप गये, महाराजकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करें यह कुछ भी उन्हें न सूझ पड़ा। ... वेणातट नगरके निवासी सेठ इन्द्रदत्तने जब यह सुना कि श्रेणिक राजगृह नगरके राजा बन X गये हैं तो वह अपनी पुत्री नंदश्री और अभयकुमारको साथ ले उनसे विशेष रूपसे मिलने आया | और नंदिग्राममें ही दैवयोगसे आकर ठहर गया ॥ २१३-२१४ ॥ नंदिग्रामके समस्त ब्राह्मणोंको Күкүкүкү КүжүүЕКүкүкKrk KARYKYONTENT Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारो हि दृष्ट्या वाकुलवाडवान् । जगादेव वधस्तध्यं कुतो विग्रहवेतसः ॥ २१५ ॥ तैश्च प्रोक्त समाकार्य प्रोवाच वचनं सुधीः । | माकुला भवतो यूयं गृणुतोपायमित्यलं ॥ २१६ ॥ व्याघ्रपोरंतरे स्वाप्यो मेषो मिष्टामभक्षणः । भयाइर्बलता चैव पुएतां नैव यास्यति । | २१७ ॥ तथाकृतद्विजस्तूर्णं मासार्धे प्रेषितो हि सः। दृष्ट्वा राजा तथाभूतं चित्रतां चिंतयन् हदि ॥२१८॥ इत्यादि दश संप्रश्नाः कृता राझा विवेकिना । नैदिप्रामोणकैविनैः प्रोक्तास्त्वभययोगतः ॥ २१६॥ . . मेषध पापी फरिकातलं क्षीराण्ड घालुकषेष्टनं च। घटस्थकूष्माण्डकर शिशनां दिवानिशावर्जसमागमश्च ॥ २२० । अत्यंत चिंतित और दुःखित देख कुमार अभयने पूछा--भाई । तुम लोग चित्तमें इतने दुःखित क्यों हो ! उत्तरमें विप्रोंने महाराज श्रेणिककी सारी आज्ञा कह सुनाई । सुनकर कुमारने धीरज IRE/ बंधाते हुए मिष्ट वचनोंमें इसप्रकार उनसे कहा--व्याकुल होनेकी कोई बात नहीं है मैं तुम्हे एकदा उपाय बतलाता हूँ- . दो वाघोंके वीचमें बकराको बांध दो और खूब उसे मिष्टान्न भोजन खायो । मिष्टान्नोंके खानेसे न तो वह पतला होगा और न मोटा होगा । कुमारकी आज्ञानुसार विनोंने वैसा ही किया | अर्धमास-पन्द्रह दिन रखकर उसे महाराजके पास भेज दिया। जैसा बकरा भेजा था वैसा ही IM, देख.महाराज श्रेणिक चकित रह गये एवं नंदिग्रामके विनोंकी चतुरताकी मन ही मन सराहना करने लगे ॥ २१५–२१८ ॥ इसीतरह महाराज श्रेणिकने नंदिग्रामके विप्रोंसे राजगृह नगरमें वावड़ी मगानेकी कही । हाथीका वजन मांगा, काठका नीच ऊपरका भाग पूछा, तिलके बराबर तेल मांगा, गाय भैंस आदिके दूधसे अन्य दूध मंगाया, एक ही मुर्गा लड़ानेको कहा, बाल की बनी IK रस्सी मांगी, घड़ामें भीतर ही भीतर बढ़ा हुआ कूष्मांडफल मांगा शिशुओंकी बुद्धि परीक्षा की और रात दिन आदिके विभागको छोड़कर बुद्धिमान मनुष्यको राजगृह नगर बुलाया वह सब कुमार अभ पारवहन . . ..... ....। । । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KPRK एष प्रश्नः कृतो राशा दिवारात्रं विवर्त्य भो । मार्गे नैव कुमार्गे च समागतव्यमेव च ॥ २२१ ॥ अभयास्योपदेशेन शकटाक्षेषु यंत्रण वध्वा तत्र स्थिताः सर्वे आई चाणकारकाः ॥ २२२ ॥ अभयेन समं सर्वे गतास्ते राजसन्निधौ । ननाम स्वसुतस्तस्य चरणौ वाडवैः सह ॥ २२३ ॥ समालिंग्य निजं पुत्रं समयं प्राशशंस सः । मोचनं ब्राह्मणानां हि कृत्वा तत्र सुखं स्थितः ॥ २२४ ॥ पट्टे नंदश्रियं कृत्वा यौवराज्येऽभयं बुधः 1 तथा मंत्रिपदं दत्वा गतं कालं न वैश्यसौ ॥ २२५ ॥ बौद्धधर्ममयं राज्यं कुर्वन् संतिष्ठते सदा । इभ्यः सागरयकी कृपासे पूरा किया गया ? | अंतिम प्रश्नका खुलासा यह है कि महाराज उपश्रेणिकने नंदि| ग्रामके विप्रोंके पास यह संदेशा भेजा कि सत्रोंमें बुद्धिमान मनुष्य मय अन्य ब्राह्मणों के राजगृह नगरमें आवे | उसके लिये यह कड़ी आज्ञा है कि न तो वह रातमें आवे न दिनमें आवे । न मार्गसे | आवेन कुमार्गसे आवे भूखे भी न यावे अफरे भी न आवे। किसी सवारीमें भी न आवे और न पैदल ही वे परन्तु राजगृह नगर वे अवश्य । महाराजका यह कठिन संदेशा सुन कुमार अभ| यने गाढ़ियोंके अन्दर छींके बंधवा दिये । सब लोग उनमें बैठ गये. चनाका भोजन किया जिससे न पेट भरा ही माना जा सकता है और न खाली ही । गाढ़ियोंका एक पहिया लीखपर चलाया गया और एक वे लोखपर चलाया गया बस अभयकुमारके साथ वे सबके सब राजा के समीप पहुचे एवं कुमार अभयने अपने पिता के चरणोंको साथमें गये विप्रों के साथ भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । ॥ २१६ – २२३ ॥ विनयशील पुत्र अभयकुमारको देख महाराज श्रेणिकको परमानंद हुआ। स्नेह से गद गद हो उसे छाती से लगा लिया। उसके बुद्धिबलकी बड़ी भारी प्रशंसा की । कुमारने ब्राह्मणोंको क्षमा करा दिया एवं वह सुखपूर्वक राजसभा में बैठ गया || २२४ ॥ महाराज श्रेणिकने अपनी प्यारी रानी नंदश्रीको पटरानीका पद प्रदान किया। कुमार अभवको युवराज बनाया और मंत्री पद भी प्रदान किया जिससे उन्हें गया हुआ काल जरा भी न जान पड़ा ||२२५ ॥ इसप्रकार वे महाराज श्रेणिक बौद्धधर्मके परम भक्त बन सानंद राज्य करने लगे । १ श्रेणिक चरित्र १०६ पृष्टसे यह वर्णन विस्तारसे लिखा है प्र'थके विस्तार भयसे यहां उसे उद्धृत नहीं किया गया है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल दत्तोऽत्र वसत्येव गुणालयः ॥ २२६ ॥ तस्यास्ति भामिनीयुग्मं रैमित्रायां सुतोऽजनि । कदाफाले मृतः श्रेष्ठी तयोर्जातोऽतिविड्वरः ॥२२७॥(२२८)अछिदचा वदत्येवं पुत्रोऽयं मामको भृशं । यसुमित्रा तथाऽवादीत् खलेयं मामकः सुतः ॥२२६॥ वियदत्यौ तदा ते द्वेगते श्रेणिकसन्निधौ । न्यायं कर्तमशनत्याउभयाय समर्पिते ॥ २३०॥ अमयोऽपि चिरं ध्यात्वा शिशु भूमौ निक्षिप्तवान् । स नीत्वाछुरिका IN/ माह वर्धमधं प्रगृह्यतां ॥ २३१ ॥ वसुमित्रा तथा दृष्ट्या दयाः समुवाच तं । एतस्मे देहि पुर्ष भो न मे पुत्रः कदाचन ॥ २३२ ॥ राजगृह नगरमें उससमय एक सागरदत्त नामका वैश्य रहता था । अत्यंत धनाढ्य और अनेक गुणोंका मंदिर था, उसकी दो स्त्रियां थीं, एक वसुमित्रा और दूसरी अछिदत्ता ( वसुदत्ता) उनमें वसुमित्राके एक पुत्र. श वसुदत्ताके कोई संतान न थी। किसी समय सेठ सागरदत्तका मरण हो La गया और उससमय उन दोनों स्त्रियोंमें रात दिन कलह होने लगी। वसुदत्ताका कहना था कि यह पुत्र मेरा है और वसुमित्रा यह कहती थी कि यह झटी है। यह पुत्र मेरा है । जब दोनोंका विवाद | इतना बढ़ गया कि वे आपसमें अपना निवटेरा न कर सकी तो वे महाराज श्रेणिकके समीप | राजसभामें अपना न्याय करानेके लिये गई । उनका विवाद सुन महाराज श्रेणिक भी अवाक रह गये--कुछ भी न्याय न कर सके इसलिये कुमार अभयको बुलाकर उन्हें न्याय करनेकी आज्ञा दं दी ।। २२५–२३०॥ अभयकुमार भी बहुत देर तक तो यह विचार करते रहे कि इसका निवटेरा किस प्रकार किया जाय अंतमें उन्हें एक बुद्धि सूझ गई । वालकको शीघ्र ही उन्होंने जमीनपर लिटालिया एवं हाथमें छुरी लेकर वे यह कहने लगे कि अच्छा भाई ! जब तुम दोनों ही इसे अपना अपना पुत्र बतलाती हो तो आधा आधा दोनों ले लो ॥ २३१॥ कुमारका यह न्याय देख पुत्रकी | असली माता वसुमित्रा एकदम कप गई एवं दयासे आई हो वह इसप्रकार नम्र वचनोंमें कहने | लगी--कुमार ! कृपाकर यह पुत्र वसुदत्ताको ही प्रदान करिये मेरे पुत्र कभी भी नहीं हुआ इस लिये मेरा पुत्र यह नहीं ॥ २३२ ॥ वसुदत्ताके अंदर किसी प्रकार दयाकी झलक न थी। कुमारने ЖАККА ЖЕКҰЖҮЖҮККЖЕ प्रकश्यपkrabY Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रा दयाभाषाच्छु तं तथा हात्वा तस्यै ददौ मुझ । परीक्ष्यान्यायकर्तार मत्वा न्याय ददौ तुजे ॥ २३३ । अधैकदामरावत्यां कुटुंबी बलभ वाक् । प्रिया तस्यास्ति भद्राख्या पीनस्थ लपयोधरा ॥ २३४ ॥ तत्र पुर्या वसत्येष अत्रियो हि वसंतकः । भद्रा हृष्ट्वैकदा कामवाण | ० घ्यामोहितोऽभवत् ॥ २३५ ॥ दूत्यानुरकता नीत्या रेमे साकं मुदा तया । एकदा सा वनं पाता तत्र दृष्टो मुनीश्वरः ॥ २३६ ॥ भद्राः | । उस बालकको दयालु बसुमित्राका ही पुत्र जान उसे हो सुपुर्द कर दिया और अन्याय करनेवाली Cl बसु दत्ताको अपराधके अनुकूल दंड दिया इसप्रकार पुत्रकेलिये जो झगड़ा था न्यायकर कुमारने उसका निबटेरा कर दिया ॥ २३३ ॥ मगध देशकी अमरावती नगरीमें एक बलभद्र नामका कुटुम्बी रहता था। उसकी स्त्रीका नाम भद्रा था जो कि बलभद्रको प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी और पीन किंतु स्थूल स्तनोंसे शोभायke मान थी। उसी नगरीमें एक वसंत नामका क्षत्रिय पुरुष भी रहता था एक दिन रमणी भद्रा उस के देखनेमें आगई जिससे वह उसके सौंदर्यपर मुग्ध हो कामबाणोंसे व्याकुल हो गया ।। २३४– १२३५ ॥ शीघ्र ही उसने भनाके पास अपनी दुती भेजी। भद्रा भी वसंत पर पूर्ण आसक्त हो गई जिससे वसंत मनमानी उसके साथ आनंद रमण क्रीडा करने लगा। एक दिन भद्राको वाहिर जंगलमें जानेका अवसर मिल गया वह वनमें गइ । दैवयोगसे एक मुनिराजसे उसकी भेंट हो गई । वे मुनिराज परम सुन्दर थे उन्हें देख भद्राका चित्त चलित हो गया एवं कामको सूचित करने वाले वाक्योंमें वह इसप्रकार मुनिराजसे कहने लगीतु प्रिय साधो ! तुम सौंदर्य और कलाओंके स्थान हो तुम्हें स्त्रियोंकी अभिलाषा पूरण करनी | चाहिये। तुम जो यह ध्यान व्रत आचरण कर रहे हो यह तुम्हारा व्यर्थ है इसमें कुछ भी आनंद |* - नहीं प्राप्त हो सकता तुम्हें विषय भोगोंको आस्वादना चाहिये । भद्राके ये कड़वे वचन सुन उत्तर में आत्मध्यानी मुनिराजने कहा अपचयपत्र КүкүKKKKKKKKKKKKKKKKKeker Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kar सुरूपिणं टूप्ट्वा कामयाक्यमुनि जगौ । भो मो.रूपकलागार ! स्त्रोग्रामाशां:प्रपूरय ॥२३॥ कि यानेन व्रतेनैव लेक्षि त्वं स्मरमदिरं ।। श्रुत्वैवं कटुकं वाक्यं षमाण मुनिरात्मवान् ॥ २३८ ॥ र र रण्डऽवल पाले ! कवं बाल दुवः । माग यलिनं मुक्त्वा रमसे त्व फर्थ परैः ॥ २३६ ॥ भोगः संभोगिमो नित्यदुःस्वदो रूपोंजकः । आद्रीयते कथं सद्भिः किण या पातपूरितः ॥ २४० ॥ शीलभंगाद्वये पापं तस्माच्च नरकं व्रजेत् । रौद्रदुःख हि तत्र स्यात्कविवाचामगोचरं ॥ २४१ ॥ अस्मत्यापोत्यवृत्तांतं कथं जानात्ययं मुनिः । इत्थं बिवार्य सततं गृहीत्वा स्वगृह ययौ ॥ २४२ ॥ पुनस्तेन तथा दूत्या द्रव्येण स्वस्य याचया । नागतां भद्रिका मत्या चिंतयामाल 4 अरी रांड मूर्ख अवला । ऐसे कड़वे वचन क्यों तु अपने मुखसे निकालती है। तुझ लज्जा नहीं आती कि शक्तिमान भी अपने स्वामोको छोड़कर तु दूसरों के साथ रमण किया करती फिरती है। देख ये दुष्ट भोग काले भुजंगके समान महा भयंकर हैं । सदा अनेक प्रकारके दुःखोंको देने | वाले हैं। सुन्दरताको नष्ट करने वाले हैं इसलिये न मालम बातसे परित तीव्रघारके समान इन सोगोंको लोग क्यों आदरकी दृष्टिस देखते हैं । अर्थात् बोतस पूर्ण घावमें विशेष खुजलो पड़ती है इसलिये उसके छेड़नेमें कुछ कुछ सुख जान पड़ता है परंतु खुजाते खुजाते घावके लोहू लुहान हो जानेसे अपरिमित दुःख भोगना पड़ता है उसी प्रकार भोगोंके छेड़े जाने पर प्रारंभमैं तो कुछ सुख जान पड़ता है परंतु परिपाकमें अपरिमित कष्ट भोगना पड़ता है इसलिये विषयभोगोंमें | लालसा रखना अपनेको दुःखमय गढेमें घटकना है । तथा और भी यह बात है कि संसारमें स्त्री Is पुरुषोंका शील ही भूषण है इस शीलके भंगसे. पापका बंध होता है। पापसे नरक जाना होता है | 2 k वहांपर महा भयंकर दुःख भोगना पड़ता है जिसे विद्वान् भी कवि अपनी वाणीसे वर्णन नहीं कर सकता ॥ २३६---२४१ ॥ मुनिराजको यह विचित्र बात सुन भद्रा अवाक रहगई वह मन ही मन | विचारने लगी कि यह मुनिहमारे पापकीवात कैसे जानता है ? बस उसी समय उसने शीलवत धारण कर लिया और अपने घर चली आई ॥ २४२ ॥ वसंत रोजकी तरह भद्राके घर गया परंतु उसने पपपपपपपपजबरजस्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसे ॥ १४३ ॥ एकदा तत्र दूष्यवेव सायात कालिन । लोकः सुपूजितं रुद्रस्यकामेन ननाम सः ॥ १४ ॥ नया नंतोषयन्ति त्यमोदनैव्यंजनै रसः । मोदयः जसको पूर्वमा निकाशित : २ ष्ट्रना संतुष्मान तं याचते स्वमनोप्सितं । बहुरूपि. णिकां विद्या यतो लब्धां व्यसाधयत् ।। २४६ ॥ एकदा गणरास वसंतः कामविह्वलः । हाम्रवत्यमादाय चुनागारसन्निधी ॥ २४७ ।। बलभद्रस्तदा प्रातात्वा क्षेत्र ययो यश चतुष्पाच्चारणार्थ वै तदूपं धृतवान् मथुः ॥ २५८ ॥ मध्ये सद्म नतो धृष्टो ज्ञातो गत्या विवेकतः । चुंधापातं चकाराशु भद्रा पीनपयोधरा ॥ २४६ ॥ बलभद्रः समायातश्चलंतो तो परस्परं । तुरगौ गतौ राजगृहे ЕРКЕКРkҮККЖүжү%EKeepsok Pyaar उसकी एक बात न सुनो। दूतो भेजी, द्रव्यका लालच दिखा स्वयं जाकर चाटु वचन कहे परंतु भद्रा उसके हाथ न आई इसलिये वह अपने मनमें बड़ी चिंता करने लगा ॥ २४३ ॥ एक दिन उस नगरी में एक कपाली—मंत्रवादी आया। उसके ढोंगका लोगोंपर प्रभाव पड़ । गया। सबके सब उसे पूजने लगे। बसंतने भी उसका आना सुना, वह शीघ्र ही उसके पास गया । अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये भक्तिपूर्वक उसे नमस्कार किया। प्रतिदिन भात नाना प्रकारके | व्यंजन रस लाडू खाजे और पूवोंका भोजन कराकर उसे संतुष्ट करने लगा ठीक ही है कार्यका KO. अर्थी स्वार्थी मनुष्य क्या नहीं करता ॥ २४४–२४५ ॥ वसंतकी सेवासे मन्त्रवादो संतुष्ट हो गया | अपने ऊपर मन्त्रवादीको संतुष्ट देख वसन्तने अपनी अभीष्ट सिद्धिको प्रार्थना की। मन्त्रवादीने उसे बहुरूपिणी विद्या प्रदानको जिसे बसन्तने बहुत जल्दी साध लिया ॥ २४६ ॥ एक दिन कामसे अत्यंत व्याकुल हो वसन्तने जब कि बहुत रात्रि थी, मुर्गाका रूप धारण किया स Sऔर बलभद्रके धरके पास कूजने लगा ॥ २४७ ॥ भद्राका स्वामी बलभद्र यह समझ कि सवेरा हो | ला गया, पशुओंके चराने के लिये अपने खेतपर चलागया और बसन्त बलभद्रका रूप धारण कर उसके भ घरके भीतर घुस गया। चतुर भद्राने चाल ढालसे निश्चय कर उस दुष्टको पहिचान लिया इस लिये उसने चिल्लाना प्रारंभ कर दिया। विशेष हुल्लड़ सुन बलभद्र वापिस लौट आया। दोनों ही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायार्थमंजसा ॥ २५० ॥ मन:प्रसखा स्वा सादामयहितः । खल्लालकस्य र यो योर्मध्ये मुनिःसरेत् ॥ २५१ ॥ स स्यादा | पति ने निर्गतं तं व्यताइयत् ।। २५२ ॥ (षट्पदी) पूर्वस्मै हलिने इत्या भद्रामभपपंडितः । सहिनादिसिद्धोऽभूत् न्यायी सप्रतिभः प्रदः ।। २५३ ॥धणिकोक्तं समाकये कूपातपतितां शुभां। निष्कास्य मुद्रिका बुनपा प्रसिद्धोऽभूद्विशेषतः ॥ २५४ ॥ अथैकदाऽमरा. पत्यां चित्रकदरताभिधः । पभावी महाविद्या साधयामास सबने । २५५ ।। प्रसिद्धीभूयमागत्य प्रायोचत्फणिशेखरा । याचस्व त्वं वर घत्स ! मनोऽभीष्टं यथावचि ।। २५६ ॥ भुत्वाऽ योचन्महामातहि मे चित्रशुद्धता । यया (4) शुद्धया भवेसिद्धिर दृष्टं लिख्यते समान रूपके धारक थे इसलिये दोनोंका आपसमें झगड़ा होने लगा इसलिये अपना न्याय कराने के लिये चलते चलते वे राजगृह नगर मा गये ॥ २४८ ।।-२५० ॥ सब झगड़ोंका निवटेरा प्रायः कुमार अभय ही करते थे जिससमय वे दोनों कुमारके पास आये, मनको प्रसन्नकर कुमारने कहा देखो भाई। तुम दोनोंमेंसे जो इस तूंवीके छेदमें होकर बाहर निकल जायगा वही भद्राका पति समझा जायगा। यह काम करना असली बलभद्र की शक्तिके तो बाहिर था कुमारकी बात सुनते ही नकली पलभद्र वसन्त देखते देखते छेदमें घुसकर बाहिर निकल गया वस कुमारने उसे ही अपराधी समझ पकड़ लिया और दण्ड दिया ॥ २५१–२५२ ॥ कुमार अभयने अपनी बुद्धिकी । | चतुरतासे असली बलभद्र को भद्रा देदी । इस न्यायके वाद कुमार अभय अत्यंत बुद्धिमान प्रसिद्ध ko | न्यायी माने गये ॥ २५३ ॥ किसी दिन जलरहित कूवमें एक अङ्गठी गिर गई महाराज श्रेणिकने । विना किसी लागके कुमारको निकालनेके लिये आज्ञा दी कुमारने अपनी बुद्धिमानीसे विना किसी लागके उसे बाहिर निकाल दिया इसलिये कुमारकी उस दिनसे और भी विशेष प्रसिद्धि हो गई।२५४॥ ज अमरावती में उस समय एक भरत नामका चित्रकार भी रहता था एक दिन जंगलमें जाकर | Id उसने महाविद्या सिद्ध करनेके लिये पद्मावती देवीकी आराधना की। जिससमय वह विद्या सिद्धल हो गई तो नागोंका मुकुट थारणकर वह प्रत्यक्ष हुई और स्नेहमय वचनोंमें इसप्रकार कहने लगी kese%%%%үжүү%E%%% पाय पपपपपपपपपप Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ТАКЖЕКРЕКЕТКЕКРКүкүкүKE%. प्रतः॥ २५७ ॥ मरतो देशमध्ये हि प्रसिद्धीभूयमागतः । चित्रसत्यलया लोकान् जयन् सदने स्थितः ॥ २५८ ॥ सद्युत सिंधुदेशे व विशाला नगरी मता। घटकाख्यः पतिस्तस्य सुभद्रा महिषी मता ॥५६॥ सस्थैव सप्तसत्पुल्यो वियोष्टयः स्मरवल्लभाः। यासा मध्ये मियादत्ता सिद्धार्थाय सुभभुजे ॥ २६ ॥ द्वितीया च पिनाकाय तृतीया दशरथाय च । प्रभावती चतुर्थी तु महानुदयिने तथा । २६१ ॥ कुमारिका हि विद्यते तिस्त्रः कायाः प्रभाभरा: । एकदा तन चायातचित्रदरताभिधः ॥ १६२ ।। रूपं यत्सप्तपुत्रीणां पट्ट फुत्वा प्रिय वत्स ! जिस वरके मागनेके लिये तुम्हारी रुचि हो उस वरको मागो मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। उत्तरमें भरतने कहा महामाता ! मुझे इसप्रकारकी चित्रशुद्धि प्रदान करिये जिस चित्रद्धिकी। -कृपासे विना देखे हुए पदार्थको भी पटपर अङ्कित कर सकू । तथास्तु, कह कर महाविद्या सिद्धि हो । गई। उस महाविद्याके प्रभावसे चित्रकार भरतकी सारे देशमें ख्याति हो गई एवं अपनो चित्रकलासे समस्त लोकको आनंदित करता हया वह सानंद अपने घर रहने लगा ॥ २५५–२५८ ॥ 6 अनेक सज्जनोंसे व्याप्त सिंधु देशमें एक विशाला नामकी नगरी है। उस समय उसका पालन करनेवाला राजा चेटक था और उसकी मुख्य पटरानी सुभद्रा थी। महाराणी सुभद्रासे उत्पन्न सात पुत्रियां थीं जो कि बिंबाफलके समान लाल ओठोंकी धारक थीं और कामदेवकी परम प्यारी, थीं। सबसे बड़ी पुत्रीका नाम प्रियादत्ता था और उसका कुण्डलपुरके स्वामी नाथबंशीय राजा सिद्धार्थके साथ विवाह हुआ था ॥ २५६-२६० ॥ दूसरी कन्या मृगावतीका विवाह वत्स देशके 2 rd कौशांबीपुरके स्वामी महाराज पिनाकके साथ हुआ था। तीसरी कन्या क्सुप्रभा थी और उसका विवाह दशार्ण देशके हेरकच्छपुरके स्वामी राजा दशरथके साथ हुआ था तथा चतुर्थ कन्या प्रभा-1 व का विवाह कच्छदेशक रोरुकपुरके स्वामी महाराज महानुदयीके साथ हआ था । वाकी ज्येष्ठाबादना और चेलना ये तीन कन्या अभीतक अविवाहित थीं। प्रसिद्ध चित्रकार भरत घूमता २ एक दिन विशाला नगरीमें आ पहुचा। एक पट्टपर उसने सातो कन्याओंकी तसवीर अंकित की। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 공 Phekek सुलक्षणं । दर्शयामास भूय दृष्ट्वा भूपो ननंद सत् ॥ २६३ ॥ अन्यदा कन्यकास्तिरुः संप्राप्य चित्रकारकं । विचित्रत्याद्विहस्यैव माहुरेवं चचोवरं ॥ २६४ ॥ भो भो त्वं चेलिनीरूपं नग्नं चित्रय शीघ्रतः । चित्रितं तेन सह पं गुह्यस्यैस्तिलकेयुतं ॥ २६५ ॥ कर्णे जपं केनापि प्रो' निधौ । देवानामपि दुर्लक्ष्यं गुप्तं जानात्ययं कुतः ॥ २६६ ॥ श्रुत्वा महेयया राजा चुकाप भ्रमसंगतः । तदा शशः प्रकोषेण नष्टोऽसौ चित्रद्वरात् ॥ २६७ ॥ गत्या राजगृहे रम्येऽदर्शयत् श्रेणिकाय तत् । दृष्ट्वा रूपं तदा राजा चित्रार्पित वा भवत् ॥ २६८ ॥ स्वस्थो भूत्वा पप्रच्छति कस्य रूपमिदं चण । अनुकूलं नृपं ज्ञात्वाऽचीकधत् शृणु वादरात् ॥ २६६ ॥ सिंधुदेश जो कि चित्रकला के गुणोंसे युक्त थी तथा महाराज चेटकको दिखाई जिसे देख राजा चेटक भरत की चित्रकला की बढ़ी प्रशंसा करने लगे । २६१ - २६३ ।। किसी दिन ज्येष्ठा आदि तीनों कन्य ये मिलकर चित्रकार भरतके पास गईं एवं एक विचित्रप्रकारकी हंसी हँसकर इसप्रकार उससे कहने लगीं चित्रकार ! हम जन तुम्हारी चित्रकलादिकी निपुणता समझें जब तुम कुमारी चलनीक नग्नरूप शीघ्र चित्रित कर दो। चित्रकार भरतको यह बात कोई कठिन न थी, देखते देखते उसने चित्र बनाकर तयार कर दिया एवं महाविद्याके प्रभावसे जो भी वलनीके गुप्तस्थानोंमें तिल आदि चिह्न थे सब उस चित्रमें अङ्कित करदिये ॥ २६४ -२६५ ॥ संसार में चुगल खोरोंकी कमी नहीं वेलनीका वह नग्नचित्र देखकर एक चुगलखोर शीघ्र राजा चेटकके पास पहुंचा और यह कहने लगा - राजन् ! च ेलनीके गुह्य स्थानोंके चिह्नोंको देव भी नहीं देख सकते उन्हें यह आपका चित्रकार कैसे जानता है ! यह बड़ी विचित्र बात है ॥ २६६ ॥ चुगुलखोरकी यह बात सुन राजा चेटकको भी भरतपर संदेह हो गया इसलिये वह विनाही विचारे प्रबल ईर्षासे कुपित हो गया । राजा hatar पता चित्रकार भरतको भी लग गया। मारे भयके वह एकदम कपगया और शीघ्र ही राजगृह नगरके लिये रवाना हो गया। राजगृहमें जाकर कन्या चेलिनीका चित्र महाराज श्रेणिक को दिखाया जिसे देख वे चित्राम सरीखे निश्चल हो गये ॥ २६७ - २६८ ॥ कुछ देर बाद स्वस्थ KATER FRER Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकप विशालायां चेटकस्य सुभद्रिका । तत्पुत्री चेलिनी नाम्ना निम्ननाभिः शोवरी। २७०। प्रौद्योलतनितंबा च बिम्यष्टो मार जिनी । विशालामा बनवती ॥इत्यादिवर्णनोपेतां श्रुत्वा श्रेणिक भूपतिः । चिंतकामास चित्तस्थे चित्रं शल्या यते नणां ।। २७२ ।। समायातस्तदा तत्र सभायामभयायः । हृष्ट्वा तातं सदु:खं च तकरूपय घेगतः ।। २७३ | मनोगतं तदा - राक्षा प्रोक्त च दुस्तर वचः । श्रुत्वाभयकुमारो वि प्राचोचनरनायक ॥ २६४ ॥ शृणु नाथ ! पाधार ! मा चित : कुरु सर्वथा । IPC होनेपर उन्होंने भरतसे पूछा-कहो भाई। चित्र में अक्षित यह मनोहर रूप किसका हैं ? महाराजPr को अपने अनुकूल समझ भरतने बड़े आदरसे कहा--राजन ! आप सुनिये में समस्त वृत्तांत कहता हूँ सिंधुदेशकी विशाला नगरीके स्वामी राजा चेटक हैं उनकी पटरानीका नाम सुभद्रा है उससे उत्पन्न एक चेलिनी नामकी कन्या है जो कि गंभीर नाभिकी धारक है । कृशोदरी है प्रौढ़ और | उन्नत नितंबवाली है। वियाफलके समान ओष्ठवाली, कामदेवके आनंदकी भूमि, विशाल हृदयको | धारण करनेवाली चन्द्रमुखी एवं साक्षात् सरस्वती सरीखी है उसीका चित्र यह आपके सामने विद्यमान है। चित्रकार भरतसे इस दिव्य वर्णन युक्त कन्याको सुनकर महाराज श्रेणिक मन ही मन गहरी चिंतामें लीन हो गये । ठीक ही है चित्र भी मनुष्योंको शल्य ( कील ) के समान दुःख देता ISहे अर्थात् कीलके गढ़ जानेपर जिसप्रकार गहरी वेदनाका अनुभव होता है उसीप्रकार चित्र भी हृदयमें चुभ जानेपर विशेष दुःख भुगाता है ॥ २६६-२७२ ॥ जिस समय महाराज चिंतामें लीन जिथे उसी समय कुमार अभय राज सभामें आये एवं अपने पूज्य पिता महाराजको दुःखित और 4 चिंतित देख जल्दी उस दुःख और चिंताका कारण पूछने लगे--महाराजके मनमें जो बात थी| उन्होंने कह दी एवं यह भी कहा कि यह बात होनी कठिन है। धीर वीर कुमार अभवने नरोत्तम महाराजको उत्तर दिया--दयालु पिता! तुम्हें तनिक भी चिंता न करनी चाहिये जो बात आपको. प्रापर रमपपपपर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलजपथा वे रोचते नुस्य करिष्यामि तथाह || म ॥ श्रुत्वाऽभययो राजा राणेति सुतं प्रति । हे सन् ! देहज ? सोऽप्यस्ति जैन२ :धर्मेण रेजितः ॥ २७६ ।। अतो दास्यति मो महा बौद्धधर्माय केवल । ततोऽब्रवीत्सुतो धीर: करिष्येऽहमुपायकं ॥ २७७ ॥ सार्थवाहा धियो भूत्वा जेनधर्मधुरंधरः। जनलोकः सम शुमो विशालायां ययौ मिषात् ॥ २७८ ॥ सरनं प्राभृतं नीत्वा मिलितं सेटफस्य स:। सामान्य चेटको भूपो व्याजहार गिरं बरं ॥२७॥. स्थीयतामत्र पुर्या' भो भवद्भिः परमार्थिभिः। अस्माकं बलभा जैना | मित्राणि धनवांधवाः ॥ २८० ॥ अत्याग्रह मपस्यैव मत्वा मंदिरसन्नधौ । गृहं संप्रार्थयामास तत्र संस्थितांस्तदा ॥ २८१ ॥ एकदा रुचेगी में उसे पूरी करदगा । कुमार अभयके ये वचन सुन पुनः महाराजने कहा-प्यारे पुत्र ! तुम 2 अवश्य बुद्धिमान हो और हरएक कार्य कर सकते हो परंतु तुम्हारे लिये यह कार्य करना कठिन होगा क्योंकि राजा चेटक जैनधर्मका भक्त है और में बौद्ध धर्मका सेवक हूँ इसलिये विधर्मी जान मुझे वह अपनी कन्या न दे सकेगा। धीर वीर कुमारने उत्तर दिया आप चिंता न कीजिये जिस रूपसे बनेगा में चलनीकी प्राप्तिका ठीक उपाय करूंगा ॥२७३--२७७॥ वस परम जिनधर्मी उस कुमारने क्या काम किया कि अनेक व्यापारियोंका स्वामी बन और कुछ जैनलोगोंको साथ लेकर छलसे विशाला पुरीमें जा पहं चा । रत्नमयी भैंट लेकर वह राजा चटकसे मिला। राजा चटकने भी कुमारका पूर्ण सन्मान किया एवं इसप्रकार मनोहर वचनोंमें बात चीत की___ आप महानुभाव मोक्षप्राप्तिके अभिलाषी धर्मात्मा है। मेरी इस पुरीमें आप ठहरें क्योंकि जो महानुभाव जैनी हैं। जैनधर्मका पालन करते हैं वे हमारे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। मित्र हैं| और धन एवं बांधव भी वे ही हैं। कुमार अभय अत्यंत चतुर व्यक्ति थे राजा चं टकका जब उन्होंने यह आग्रह देखा तो उन्होंने राजमहलके पासही ठहरनेके लिये मकान लेनेकी प्रार्थना की ।। राजा चटकने धर्मात्मा जान उनकी प्रार्थना स्वीकार करली एवं वे सानंद वहां ठहर गये॥२७८-२८१॥ Lid एक दिन कुमार अभय अपने साथियोंके साथ उत्साह पूर्वक बड़े उच्चस्तरसे भगवान जिनेंद्रकी पपपपपपपपपपपपर PHYYYorkhetkariThak Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० YAYAYA VYAVA पचितों कर्तुं पिस्तावद्विलोकने । तिनः कन्याः समायाताः पप्रच्छ स्तं विदांबरं ॥ २८२ ॥ भो मकरध्वजाकाराचागतिर्भवतां कुतः । राजगुरात्समायातास्तत्र श्रेणिकभूमिपः ॥ २८३ ॥ कीदृशो भूपतिः सोऽस्ति तदा पट्ट प्रसार्य सः अदर्शयत्तदा दृष्ट्वा कन्यकाः कीलिता इव ॥ २८४ ॥ प्रो जेद्धा क्षो दि वरः कुतः । तदीयमिंगितं मत्वा सुरंगायां मिषं व्यधात् ॥ २८९ ॥ हारमौद्रिक पेठा बंगला बेलनां स्वपुरं ययौ ॥ २८६ ॥ सम्मुनं क्षणिको भूपो गत्वा सामंतसंयुतः । पूजा कर रहे थे । राज महलके समीप होनेसे बराबर शब्द रावांस्तक पहुंचता था । पूजाकी ध्वनि सुन ज्येष्ठा चन्दना और चलनी तीन कन्यायें चलीं आई और कुमार अभय से इसप्रकार पूछने लगीं कामदेव के समान आकृति के धारक महानुभाव । आपका यहांपर आना किस देशले हुआ हैं ? उत्तर में कुमार ने कहा- हम लोग राजगृह नगरसे आये हुए हैं जहांपर कि महाराज श्रेणिक न्यायपूर्वक प्रजाका अच्छी तरह पालन करते हैं । कन्याओंने फिर पूछा- महाराज श्रेणिक कैसे राजा हैं? कुमार अभयने उनके सामने महाराज श्रेणिकका चित्रपट फैला दिया एवं स्पष्टरूपसे उनका स्वरूप दिखा दिया जिसे देख तीनों कन्यायें इसरूपसे निश्चल खड़ी रहगई मानों कील दी हैं एवं इसप्रकार खेद प्रगट करती बोलीं- हे परम जिनधर्मी महानुभाव ! हमें इसप्रकार के उत्तम वरकी प्राप्ति कहां हो सकती है । बुद्धिमान कुमार अभय उनके मनका भाव पहिचान गये एवं "मैं महाराज श्रेणिकसे मिल सकता हू" ऐसा वायदा कर पहिले ही से अपने मकानसे राज महलतक जो सुरंग खुदवा रक्खी थी उससे आनेका इशारा कर दिया। रूपकी लोलुपी वे कन्यायें सुरंगमें होकर अभय कुमारके मकान की ओर चलदों परंतु आते आते ज्येष्ठा और चन्दनाको कुछ संदेह होगया इसलिये ज्येष्ठा हार लेने के बहाने और चन्दना अपनी मुद्री लेने के बहानेसे पीछ े लोट गई । अकेली विचारी चलना रह गई । कुमार अभयने उसे अपनी ओर खींच लिया एवं उसे साथ लेकर राजगृह Vek Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमत्यमिधागारे थोपयम्य सुख लिनः२८७ ॥ अथकदा नपस्यैवं दृष्ट्वाऽवारविवर्जितं । धर्म बौद्धमय मिते सरोद गद्गदस्वरा adm२८८ ॥ पंडितैरमपनं घंचिता मारमदिता । किंकरोग्यधुना धर्माद्विना ध्यर्थ हि जीवितं ।। २८६॥ नो भुनक्ति न बक्ति सा कृशोभूयमलमुपागताधा पाना शकणाम्य दुर्वलासि भो ॥ २६७ ॥ चेलिनी प्राह हे नाथ ! कुस्त्याने पतिनास्यहं । जैनधर्म विहा. तान्यो धर्मो नेवास्ति भूतले ॥ २१ ॥ त्वदुगृहेऽहं समायाता गंगामश्च श्वचर्मणि । मूर्तिश्च वैधवी राहो पतन्द्र षु सुश्रुतिः ॥ २६२ ॥ पुरको ओर चल दिये ॥ २८२-२८६ ॥ चलिनीके साथ कुमार अभयका आना सुन महाराज श्रेणिक अनेक सामंतोंसे वेष्टित हो उनके सन्मुख आये । जिनमतो नाम के मंदिरमें च लिनोके - साथ उनका पाणिग्रहण हो गया जिससे वे सुख पूर्वक रहने लग ॥ २८७॥ ___ एक दिन महाराणी चोलिनी गृहस्थों के आचारसे रहित बौद्धधर्मको आचरण करते महाराज श्रेणिकको देखकर चित्तमें बड़ी दुःखित हुई एवं गदगद स्वरसे इसप्रकार रोने लगी-हा काम ! की व्यथासे पीडित मुझे चतुर अभय कुमारने ठग लिया । बातोंमें फुसलाकर विधर्मी राजा के साथ मेरा विवाह करा दिया । धर्मकी यहां कुछ भी मर्यादा नहीं सूझ पड़ती इसलिये मैं इस समय क्या करू? क्योंकि विना धर्म के जीवन विफल है ॥ २८८-२८६ ॥ बस अत्यंत दुःखित हो उसने खाना बोलना सब छोड़ दिया जिससे वह एकदम दुर्बल हो गई। उसको ऐसी दुःखदायी अवस्था देख महाराज श्रेणिकने पूछा-- प्रिये ! क्या कारण है जो तुम दिनों दिन दुर्वल होती चली जाती हो ? उत्तरमें चलनीने कहा—प्राणनाथ ! मेरा विवाह तोहुआ परंतु मैं निकृष्ट - स्थानमें लाकर डाल दी गई क्योंकि सिवाय जैनधर्मके संसारमें अन्य कोई भी धर्म नहीं सब धर्माभास हैं । राजन् ! जिसप्रकार महानिकृष्ट कुत्तके चमड़ेमें गंगाजल सरीखा पवित्र जल भर दिया जाता है,कौंन पदार्थ कैप्ता है ? तनिक भी विचार नहीं किया जाता उसोप्रकार कुत्ते के चाम के समान आपके घरमें में गंगाजल सरीखी आगई है तथा जिसप्रकार राहु के विद्यमान रहते भा WITYपपपपाय kamarthEKKERAY Or Karki Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Talatkar श्रुत्वा रराण राजेंद्रः शृणु रुवक्षि! महचः 1 बाठराग्निमाधौं यस्माद्राज्यं सुखं धनं ॥ २३ ॥ प्रोवाच चेलिनो दक्षा जिनः स्याद्वादनायकः । रागद्वेषविनिर्मुक्तो ध्यानलीनो निरंजनः ॥२६४॥ केवलमानसर्वज्ञः तत् तारयितु' क्षमः | तत्समो न भवेदन्यो देवः शौद्धोधनादिकः ॥ २५ ॥ निग्रंथगुरुभिस्तुल्या नापरे गुरखो मताः । संस्थाप्य सुमतं यौद्धमतं निर्भत्स्य सा स्थिता ॥ २८६ ।। प्रोपाच उसकी स्त्री रोहिणी विधवा ही मानी जाती है अर्थात् परमतमें राहुको केवल शिरस्वरूप न ही माना है इसलिये रोहिणीके लिये उसका रहना न रहना एकसा है उसोप्रकार विना धर्मके मेरा महाराणीपद भी व्यर्थ है। तथा जो शुद्र पतित हैं उनके लिये वेद पढ़ने का अधिकार नहीं र यदि वे पढ़ें तो उनका पढ़ना निकृष्ट माना जाता है उसीप्रकार में पवित्र बेदस्वरूप हूँ यह घर * पतित शूद्र स्वरूप है इसलिये मेरा यहां रहना अयुक्त है अतः राजगृहमें आना मेरा बड़ा दुःखHदायी हुआ। महाराणी चे लिनोके ऐसे वचन सुन उत्तरमें महाराजने कहा हिरणीके समान नेत्रवाली महाराणी। जिसतरह तुम जैनधर्मको ही धर्म समझ रहो हो उस Hi प्रकार मेरा भी यह दृढ़ सिद्धांत है कि संसारमें वौद्धधर्म ही महाधर्म है। उससे बढ़कर कोई धर्म न नहीं क्योंकि राज्य सुख धन जितने भी उत्तम पदार्थ हैं इस बौद्धधर्मकी ही कृपासे प्राप्त होते हैं । महाराणी चोलिनीको जैनधर्मका परिपूर्ण श्रद्धान था महाराजको बात उस सहन न हो सकी इस A लिये उसने शीघ ही उत्तर दिया-राजन् ! भगवान जिनेंद्र स्याद्वाद-अनेकांत बाद के स्वामी है। राग द्वेषसे रहित हैं। ध्यानमें लोन हैं । केवल ज्ञानसे युक्त होनेसे सर्वज्ञ हैं। स्वयं तरनेवाले और दसरोंको भी तारनेवाले हैं। भगवान जिनेंद्र के समान बौद्धधर्मके शौद्धोधन आदि देव नहीं हो - सकते ॥ २६०---२६५ ॥ तथा जैनधर्मके अन्दर परिग्रहरहित निथ गुरु माने जाते हैं। निग्रंथ गुरुओंके समान संसारमें अन्य गुरु नहीं हो सकते.बस इसप्रकार अपने मत-जैनमतका स्थापन कर और बौद्धमतका खंडनकर महराणी चलनी शांत रह गई ॥ २६६ ॥ महाराज श्रेणिकने भी Krkrkrkkkkkkkrke Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The भूगती राहि ! कुह पूजादिकं सदा । दुःला मुस्त्योन्मी भूत्वा कुरु धर्म यथात्रि ॥ २६ ॥ श्रेणिकाइसंबा दिया राया si ग्रहं तदा । प्रतियोधनहेतुत्वादामतो छिनीगृहे ॥ २८ ॥ प्रोवाच शृण मो बाले ! जैनाः कुगुरवो मताः । न नानाः पशयोऽपि स्यhd वयं ज्ञानाधिपारमः ॥ २९ ॥ तदा प्रमाण राक्षी तं तावको धर्म ईदृशः । चेसवेरोजयित्वाऽहं गृहोशामि न संशयः ॥१०॥ कुछ भी न कह कर यही कहा प्रियरानी ! तुम इच्छानुसार अपने देव जिनेंद्रकी पूजा आदि करो दुःख छोड़ो एवं जिसरूपसे तुम्हें रुच एकाग्रचित्त हो अपने धर्मका आराधन को ।। २६७ ॥ त राजा श्रेणिकसे वौद्धगुरुओंने सुना कि महाराणी चलनीको जैनधर्मके अन्दर बड़ा आग्रह है इस लिये वे चेलनीके महलमें उसे समझाने के लिये आये और अपनी गुरुता प्रगट करते हुए यह कहने लगे-- ___अरे मूर्ख लड़की ! तू जो जैन गुरुओंकी प्रशंसा करती है यह तेरा अज्ञान है । जैनियोंके गुरु कुगुरु हैं। यदि उन्हें नग्न मानकर ही गुरु माना जाय तो नग्न तो पश भी हैं उन्हें भी गुरु मानना चाहिये । देख हमलोग ज्ञानरूपी समुद्र की पारपर पहचे हुए हैं--परम ज्ञानी हैं इसलिये हमको ही तुझे गुरु समझना चाहिये । बौद्ध गुरुओंके वचन सुन बुद्धिमती रानी चे लनीने विशेष विवाद करना उचित नहीं समझा बस यही उत्तर दिया कि यदि आपका धर्म इतना उत्तम है तो | मैं आप लोगोंको भोजन कराकर आपका धर्म ग्रहण करूंगी इस बातमें जरा भी संदेह नहीं ॥ २६६-३०० ॥ दूसरे दिन रानीने बौद्धसाधुओंको निमन्त्रण दे भोजनके लिये बुलाया। उन्हें 2 भोजनके लिये विठा दिया। एक एक ज ता उनका उठवा मंगाया। खूब पीसकर उसे निकृष्ट छाछ में डाल मसाला मिला दियाभार थोड़ा थोड़ा कर सबोंको परोस दिया गया । वेभी कोई स्वादिष्ट तिचीज जान खा गये। जब बाहिर आकर अपने मठको जाने लगे तो ज ते खोजने लगे। गुरुओंके ज तोंकी चोरीका राजमहलमें हुल्लड़ मच गया। रानी चलनीने भी वह हुल्लड़ सुना । उसने यही ] ЕККЕЖүжүжүжүжүжrkekkkkkki Күкүкүкүлүкүрескеркекке Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तदा निमय बौद्धोघानुपा.योगा या पिता गीता व गत वसं इठादिति ॥ ३०१॥ बौद्धसंघात्ततः श्रुत्वा राज्ञोपालं. भिता च सा । शृणु राशि! महाधर्मादयो धर्मो न विद्यते ॥ ३०॥ सतो जगाद सा मामा परीक्ष्य ध्यानसंस्थितान् । क्षणिकत्वाद्गुरून बौद्धान् करिष्ये तावक वृष ॥ ३०३ ॥ अन्यदा सा गता तेषां ध्यानकाले कलाविता | सख्या संज्वालयामास तद्गृहं तैः पलायित । 14 कहा कि बौद्धगुरु तो सर्वज्ञ हैं वे अपने दिव्य ज्ञानसे समझें कि उनके जूते कहां है ? रानीके ये वचन सुन बौद्धगुरु अवाक रह गये। मक मार उन्हें यही कहना पड़ा कि हमारा ज्ञान ऐसा नहीं | जो यह बात जान सके। थोड़ी देर वाद निकृष्ट छाछ खानेके कारण उन्हें वमि हो गई । वमिमें जूतोंके छिलके निकले इसलिये वे बड़े लज्जित हुए और चुप चाप अपने मठोंको चले गय॥३०१॥ रानीने बौद्धगुरुओंका जो अपमान किया था सारा महाराजसे जाकर सुनाया गया। अपने गुरुओं A की यह अवज्ञा सुन उन्हें भी बड़ा क्रोध आया वे रानीके पास आये और उलहनोंके साथ उल्टी 9 सीधी सुना कर यही कहने लगे देखो रानी! बौद्धधर्मही महाधर्म है उससे भिन्न अन्य कोई भी का KI संसारके अन्दर उत्तम धर्म नहीं। तुम्हें उसकी इसरूपसे अवज्ञा नहीं करनी चाहिये । महा राजको कुपित देख रानी विशेष कुछ न कह कर यही कहने लगी-महाराज! यदि आप बौद्धधर्मको ही सर्व श्रेष्ठ धर्म मानते हैं तो अच्छी बात है 'चणिक धर्मके अनुयायी बौद्ध गुरु जिससमय ध्यानमें लीन होंगे उस समय मैं उनकी परीक्षाकर आपका धर्म धारण करूंगी आप | विश्वास रक्खें। A. एक दिन जब कि समस्त बौद्धसाधु ध्यानमें लीन थे उस समय रानी चलनी उनके मठमें 2 गई । पासमें खड़े रहने वाले किसी मनुष्यसे यह सुनकर कि “यद्यपि इन साधुओंके शरीर यहां पड़े। 8. दीखते हैं परंतु इनकी मात्मा ध्यानके योगसे इससमय सिद्धालयमें विराजमान है" उनकी असलो परीक्षा करनेके लिये रानीने सखीके हादसे मठमें भाग लगवादी । ढोंग कबतक चल सकता है ? РКЕКүKEYKYKE КАКАЗА: यरपरस्पयरूपयर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल ८. SPERSYAS AYAYAYA ३०४ ॥ राज्ञया कृतं नृपः श्रुत्वाद्वात्रिपनन । इदं कर्म न कर्तव्यं त्वया निद्य च दुःखदं ॥ ३०५ ॥ चेयं धर्मवती जैनी पापालनपंडिता: । ज्वालयेस्त्य' कथं जीवान करभो ! विधारय ॥ ३०६ ॥ तदा स्मित्याऽवददाशी शृणु गंभीरशासन ! मयेत्यवगतं मोक्षं गताः संति प्रबोधकाः ॥ ३०७ ॥ कलेवरान् यद्देष्यति तदा संसारवर्तिनः । संसारं वर्तते दुःखं यतो ज्वालयितं गृहं ॥ ३०८ ॥ ( युग्मं एतस्योपरि वृततिं गदामि शृणु भूपते ! वहस देशेऽस्ति विख्याता कौशांबी नगरी शुभा ॥ ३०६ ॥ वसुपालोऽस्ति तद्राजा भामिनी। rist देखते ही वे समस्त साधु मठ छोड़कर एकदम भाग गये। रानी चेलिनीके इस कृत्यका पता महाराज को लग गया वे शीघ्र रानीके पास आये और इसप्रकार उससे कहने लगे रानी ! साधु में जो तूज आग लगाई है यह बड़ा ही निंदनीक और दुःखदायी कार्य किया है ऐसा निंदनीक और दुःखदायी कार्य तुझे नहीं करना चाहिये । तुतो जैनधर्मकी पालन करने वाली और दया करनेमें पंडिता समझी जाती है जरा बता तो सही तुने मठको जलाकर जीवों विध्वंस करनेका कार्य कैसे कर डाला ? महाराजके ये वचन सुन मुस्कराकर रानीचे लिनी ने कहा नरनायक प्राणनाथ ! एक मनुष्यके कहे अनुसार मैंने यह समझा था कि ये समस्त साधुगण मोज में चले गए हैं। तथा यह निश्चित बात है कि जबतक शरीरोंके अन्दर लालसा रहती है तब तक संसारमें घूमना पड़ता है और संसार में अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं । उनका यह समस्त दुःख नष्ट हो जाय इस आशासे मैंने उनके मठमें आग लगवा दी थी। मैं इसो विषय को लेकर एक कथा सुनाती हूँ आप ध्यान पूर्वक सुनें- वत्सदेशमें एक कौशांबी नामकी नगरी है जो कि पृथिवीपर प्रसिद्ध और शुभ है। किसी समय उसका पालन करने वाला राजा वसुपाल था और उसकी रानीका नाम यशखिनी था जिस की कि कीर्त्ति अनुपम गुणोंसे सर्वत्र व्याप्त थी एवं वह संसार में प्रसिद्ध और हरिणीके समान मनोहर नेत्रवाली थी ॥ ३०२ - ३०६ ॥ उस नगरीमें एक सागरदत्त नामका सेठ भी रहता था अपपपप PYAAY Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च यशास्विनी । यशस्विनी सुविख्याता तस्याभून्मृगलोचना ॥ ३१ ॥ श्रेष्ठी सागरदत्तास्य आस्ते सगरबद्धनी | गंभीरो गुणवान् । वीयों राजमान्यो विदांवरः ।। ३१३ ॥ भार्या वसुमती तस्य तन्मन:पद्म द्रिका । चंद्रवपत्रा विचारशा तन्वंगी कठिनातनी ॥ ३२ ॥ तत्रैवास्ते धनी चान्यः श्रेष्ठी श्रेष्ठक्रियामणी । समुददत्त इत्याख्योः धर्मकार्यविदांचरः । अछिदत्ताभिधा रामा वर्तते बिमलानना ॥ ३१२॥ (पटपदी) ताभ्यामेपा कृता नूनं प्रतिक्षा मम चेत्सुतः । तचैव पुत्रिका भावी भाविनी या यदा तदा । तयोः पाणिग्रहो ननं भविता नात्र संशयः ॥ ३१३ । (षट्पदी) एवं गते कियरकाले सिंधुदत्तात्सुतोऽजनि । वसुमत्याः सुमित्राख्यः सर्परूपधरो हि सः॥ ३१४॥ सुता समुद्रदत्ताश्च तस्या नागार्पणाऽभवत् । सा च रूपकलारंभा तयोः पाणिग्रहः कृतः ॥३१५॥ एकदा मातरं दृष्ट्वा रूदतों पपपपपपपवरूप जो कि सागरके समान अपरिमित वलका वानीशा गंभीर था, पराक्रमी था एवं राज्यमान्य और विद्वानोंमें श्रेष्ठ था ॥ ३१० ॥ उसकी स्त्रीका नाम वसुमती था और वह सेठ सागरदत्तके मनरूपी ( रात्रिविकासी) कमलके प्रसन्न करनेमें चांदनी सरीखी थी। चन्द्रमाके समान मुख वाली थी। विचारशील तन्वंगी और कठिन स्तनोंसे शोभायमान थी ॥३११॥ उसी नगरी में एक Pा सुभद्रदत्त नामका और भी सेठ निवास करता था जो कि उत्तम क्रियाओंके करनेमें प्रधान था और धर्मकार्योंके करने में अत्यंत बुद्धिमान समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम अछिदत्ता था जोत कि निर्मल मुखसे शोभायमान थी ॥ ३१२ ॥ दोनों सेठोंने आपसमें प्रतिज्ञा करली थी कि यदि मेरे पुत्र होगा और तुम्हारे पुत्री होगीअथवा मेरे पुत्री होगी और तुम्हारे पुत्र होगा तो उन दोनों si का आपसमें विवाह कर दिया जायगा इसमें कोई संदेह नहीं । इस प्रतिज्ञाके बाद बहुत कालके | वीत जानेपर सेठ सागरदत्त के सेठानी सुमित्रासे एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुमित्र रक्खा गया और उसका स्वरूप सर्प सरीखा था। तथा सेट समुद्रदत्त सेठानीअछिदत्तासे उत्पन्न एक पुत्री हुई जो कि रूप और कलाकी खानि थी और नागदत्ता उसका नाम था। प्रतिज्ञाके अनुसार उन दोनोंका विवाह हो गया और वे अपने भाग्यानुसार रहने लगे ॥ ३१३-३१५ ॥ नागदत्ताकी मा Mया YERY Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामदत्तिका । पप्रच्छ कारणं मातः? कर्थ रोविधि संप्रति । ३१६ ॥ सुतामवीववन्माता त्वं मुगाक्षी घनस्तनी । भर्ता ते सर्परूपोऽतो रोमीति रात्रिपानने ! ॥३१७॥ सुसेत्यूचे च हे अंब ! मा तुम्नं कुरु सर्वथा । रात्रौ भूत्वा नरः सोऽपि मुक्त्वा सर्पकलेवरं ॥३१८॥ रम. | तेऽमा मया शुभ्र प्रात हाति तद्वपुः । एतच्छु त्याऽवदन्माता प्रेषितव्योऽस्तु पुद्गलः ॥ ३१६ ।। ( युग्मं ) एकदा समयं प्राप्य प्रषितः पुद्गलस्तया । अनन्या ज्यालितः सोऽपि नरो भूत्वा स्थितस्तदा ॥ ३२० ॥ एवं शात्वा महाराजन् ! मया च ज्वालितं गृहं । अखिदत्ता अपनी पुत्रीके दुःखका स्मरण कर रो रही थी कि उसपर नागदत्ताकी दृष्टि जा पड़ी एवं अपनी माताको रोती देखकर वह इसप्रकार कहने लगी___मा ! विना कारण तू इससमय क्यों रो रही है ? उत्तरमें अछिदत्ताने कहा-पुत्री ! तृ तोमृग - लोचनी और कठिन स्तनोंसे शोभायमान परम सुन्दरी है और तुझे पति सर्पके अकारका मिला है। प्रियपुत्री ! मैं इसी दुःखका स्मरण कर रो रही हूँ ॥३१६-३१७ ॥ माताके ये वचन सुन नागदत्ताने कहा-मा ! तू किसी प्रकारका दुःख मत कर, मेरा पति रातमें सर्पका शरीर छोड़कर मनुष्यका रूप धारण कर लेता है। समस्त रात्रि मनुष्य रूपसे ही मेरे साथ रमण क्रिया करता है IS कितु जब प्रातः काल होता है उस समय पुनः सर्पका शरीर धारण कर लेता है और सारे दिन - साकारसे रहता है । पुत्रीके ये वचन सुन अहिदत्ताने कहा यदि यह बात सत्य है तब वह सर्पका शरीर मेरे पास भेज देना जिससे मुझे भी निश्चय हो जाय । नागदत्ताने अपनी माकी बात मान लाली । अवसर पाकर एक दिन वह सर्पका शरीर उसने अपनी माके पास भेज दिया। उसकी माने 2 उसे अग्निमें जला दिया बस उस दिनसे वह नागदत्ताका पति मनुष्यरूपसे ही रह गया। प्रिय IA महाराज । यही समझ कर मैंने बौद्ध सन्यासियोंके मठमें आग लगवा दी थी क्योंकि मुझे निश्चय हो गया था कि समस्त बौद्ध साधु तो सिद्ध होकर मोक्षमें जा बिराजे हैं। ये जो इनके कलेवर रह गये हैं वे व्यर्थ पड़े हैं। इनका जला देना ही अच्छा अन्यथा फिर उन्हें आकर इन कलेवरों PrekNTERPRISEKLY YaskarsERTER Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ keykkkkkkkжүжүжүжүүжүKF% बौडाः सिद्धाः स्पिता भोक्षे किमेतक्ष कलेवरैः ॥ ३२१ ॥ श्रुत्वा राजा गतस्तस्या दातु प्रत्युसरं स वै । असक्तत्वान्मनोऽभीष्टं कुरु प्रोक्त्येति सद्वचः॥ ३२२ । अन्यदा मृगार्थ स गतो राजा वातरे। यशोधर मुनि दृष्ट्वा पप्रच्छति भटान्प्रति ।। ३२३ ।। कोऽयं नमो जटाधारी निश्चलो तेजसान्वितः। तेः प्रोकं च नराधोश!। चेलिनीगुरुरित्यलं ॥३२४ ।। तदा राजा महाकोपाच्चिंतयामास मानसे | रामया चोपद्रवं नीता गुरवो मम संपति ।। ३२५ । पृच्छामि गौरवं वैरं मत्चेति पापसंचयं ।। ३२६ ॥ (षट्पदी) कुकुरान जायमदंष्ट्राभान् शतपंचमितास्तदा । मुमोच योगिन गत्या नेमुस्तत्पादपंकजं ।। ३२७ ॥ कीलिताः शुनका नून मंत्रः पार्वडिनाऽमुना । को धारण करना पड़ेगा और दुःख सहना होगा ॥३१८--३२१ ॥ महाराणी चलनाके ये वचन सुन महाराज कुछ भी प्रत्युत्तर न दे सके किंतु असमर्थ हो यही कहने लगे बाबा ! तुझे सूझ सो कर. तुझसे कुछ कहना व्यर्थ है ।। ३२२ ॥ द एक दिन महाराज श्रेणिक अनेक स भटोंके साथ शिकारके लिये गये। वनके मध्यभागमें उन्हें यशोधर नामके मुनिराज दीख पड़े। उन्हें देख अपने साथी सुभटोंसे उन्होंने पछा-नम्न जटाधारी निश्चल और अपने शरीरकी प्रभामंडलसे व्याप्त यह कौन है ? उत्तरमें सुभटोंने कहा कुपानाथ ! यही तो महाराणी चलिनीका गुरु है । राजा श्रेणिक तो महाराणी चे लिनीसे अपने गुरुओंका बदला लेने के लिये लालायित थे ही । “यह चोलिनीका गुरु है" यह बात सुनते ही मारे क्रोधके उनकी आत्मा भबक उठो वे मन ही मन विचारने लगे-रानीने अनेक प्रकारके उपद्रव कर इससमय मेरे गुरु व्याकुल कर रक्खें हैं । इससमय रानीसे गुरुओंका बदला लेनेका मुझे अबसर मिला है वस इसप्रकार पापोंका संचय करनेवाला विचारकर यमराजके समान राजाश्रेणिकने दाढ़ोंके धारक शीघ्र ही पांचसो कुत्तं मुनिके ऊपर छोड़ दिये परंतु जैसे ही वे मुनिराजके पास पहुंचे उनके प्रभावसे कुत्तोंका क्रोध शांत हो गया एवं वे सरलस्वभावसे मुनिराजके चरणकमलों को नमस्कार करने लगे ॥ ३२३--३२७ ॥ कुत्तोंकी यह विचित्रदश देखकर राजा श्रेणिकका सकपक्ष Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपपपपकर तदोत्फणमहानागं मार्य कण्ठे ससर्ज सः ।। ३२८ ॥ चतुर्थदिवसे राज्ञा मध्यरात्र नियेदितं । चेलिन्याश्च तदा श्रुत्वा शोकं कृतवतो स सा 11 ३२६ ।। अघोचन्महिषी राजा मा त्वं दुःख र सुन्दर । मंत्रवादी च पाखंडीगतो नून भविष्यति ॥ ३३० ॥ राशी वाण राजेंद्र यद्ययं मम सदगुरुः। अमविष्यत्तदा नूनं नागमिष्यन्महायनी ॥ ३३१ ।। इत्युक्त्वा चेलिनी गझी नपेण सइसागता । ध्यानारद * मुनि दृष्ट्वा हाहेति वचनं जगौ ॥ ३२ ॥ पंन्या चोतार्य बेगेन पिपीलोश्च द्विजिनक । पश्चान्ननाम सततया धर्मध्यानस्थित मुनि म क्रोध और भी अधिक भबक गया वे कहने लगे इस दुष्ट पाखंडीने मन्त्रोंसे कुत्तोंको कील डाला ट बस स्वयं वह मूर्ख राजा मुनिराजको ओर झपटा और भयंकर महानागको मार कर उनके गलेमें | 5 छोड़ दिया ॥ ३२८ ॥ राजा श्रेणिक राजगृह नगर लोट आये। राजकाजको विशेष झझटसे | तीन दिन तक तो वे रानी च लिनोके महल में न जा सके। चौथे दिन वहां गये और ठोक आधी-| | रातके समय मुनिराजके साथ जो दुर्व्यवहार उन्होंने किया था सारा रानी चलनासे कह सुनाया धर्म भक्त रानी चलनाने जिससमय भयंकर समाचार सना वह एकदम कप गई और अनक प्रकारसे शोक करने लगी। उसकी यह दुःखित अवस्था देख महराज श्रेणिकका भी हृदय पती- | जने लगा वे बार बार महाराणीसे यही कहने लगे--सन्दरी ? तू रंचमात्र भी शोक न कर । वह मंत्रवादी पाखंडी साधु था। गलेसे सर्प फेंककर वह अवश्य कहीं चला गया होगा 1 महाराजके ये वचन सुन चेलिनीने कहा----राजन् ! यदि वह मेरा पवित्र गुरु होगा तो वह महामुनि वहांका वहीं विराजमान--होगा वहांसे कहीं भी न जा सकेगा। ऐसा कहकर वह रानी चे लिनी उसी समय d राजाके साथ मुनिराज यशोधरके स्थानपर पहच । मुनिराज एकदम ध्यानारूद थे--मुझे क्या कष्ट | दिया जा रहा है इस बातका उन्हें रंचमात्र भी विचार न था। मुनिराजकोध्यानारूढ़ देख धर्म* भक्त चलना हाय हाय कहने लगी । जल्दीसे पासमें जाकर सड़सीसे सर्प खींच कर नीचे डाल | दिया। चिउंटी भो पोंछकर साफ करदी। पीछे धर्मध्यांनमें स्थित उन मुनिको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया ॥ ३२६–३३३ ॥ वे मुनिराज परम वीतरागी थे। सदा शत्रु और मित्रोंमें समानताकी Күкүржүүүүүүүүжүүлж 'पप Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kaY घराचYREY ।। ३३३ ॥ द्वाभ्यामदायि सद्धर्मबृद्धिः श्रीमुनिनाऽमुना । तदा राजा निजे चित्ते दुःखं चके महोत्कटं ।। ३५४ ॥ अहो मया कृतं नूनं पार्य श्रीमुनिघातर्ज । सदाऽवोचदूषीराजन् ! मा दुःख कुरु चेतसि ॥ ३३५ ॥ आवश्यक हि भोकल्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ॥३३६॥ (षट्पदी) श्रुत्वा राजा तदाऽवोचत् चेलिनी प्राणवलगा हे गमेऽयं कथं वेद ममांतर्गतभाधनां ॥३३७॥ अबीमणत्तदा राशी का कथास्य लयस्य | भावना भाते रहते थे। जिससमय “तुम्हागे धर्मवृद्धिहो" यह मुनिराजने आशीर्वाद दिया-अपनी भक्त रानी और द्वषो राजामें कुछ भी भेदभाव न रख दोनोंको समान रूपसे समझा। | उससमय मुनिराजको यह लोकोत्तर क्षमा देखकर महाराज श्रेणिक बड़े लज्जित हुए एवं अपने | मनमें उग्र दुःख करने लगे। ३३४ ॥ मुनिराजके शिष्ट वर्तावसे वे मन ही मन यह विचारने लगे। हाय मैंने श्रीमुनिराजके मारनेका घोर पाप किया है, मुझे धिक्कार है। मुनिराज दिव्य ज्ञानी थे । NI अपने ज्ञानसे उन्होंने राजाके मनकी बात जान ली इसलिये वे यही कहने लगे कि--राजन् ! तुम्हें अपने चित्तमें किसी प्रकारका दुःख नहीं करना चाहिये जो शुभ और अशुभ कर्म किया गया है । उसका अच्छा बुरा फल अवश्य भोगना पड़ता है।॥ ३३६ ॥ मुनिराजके ये अचरजभरे वचन सुन । ka महाराज श्रेणिकने चलिनीसे कहा--प्रिये । मेरे मनके भीतरकी बातमुनिराजने कैसे पहिचान लो ? | उत्तरमें चोलिनीने कहा- प्राणनाथ। इस बात के लिये आप क्या अचरज कर रहे हैं मुनिराजने जो [आपके मनका भाव पहिचान लिया यह तो बहुत ही तुच्छ वात है यदि आप पूछना चाहें तो - अपने पूर्वभवोंका भी हाल पूछ सकते हैं । लिनीकी यह बात सुनकर महाराज श्रेणिकने अपने | | पूर्वभवोंकी पूंछने की मुनिराजसे, लालसा प्रगट की। मुनिराज भी अपनी गंभीर ध्वनिसे इस प्रकार कहने लगे ... ..... . ......... .. . .. ...... इसी ज़रद्वीपके भरतक्षत्र संबंधी आर्यखंडमें एक सरकांत नामका देश है । इस सरकांत देश में एक सूरपुर नामका नगर है उसका स्वामीराजा मित्र था। उसकी पटरानीका नाम भामिनी पहाणपY सहायक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपपपपपरयरचययख ri भो। पूछयत्व भवान रूबीयास्तामाशीतकान मुनि ॥ ३३ - ॥ तदा गंमीडयोषण मुनिराजो जगाइ त । भृगु राजन ! सम्वापा दीपेऽत्र भारते ॥ ३६॥ मार्य पूरकांतवेशे सरपुर पुरे। मित्रनामा महाराजा श्रीमती: तस्य भामिनी ॥ ३४ ॥ तयोः पुत्रः सुमिबत शल्यः प्रधानो मतिसागरः । तस्यैव रूपिणी कांता सुरेणस्तनुजोऽजनि ॥ ३४१ ॥ सुमित्रो मंत्रिपुत्रेण साय मोडति सर्वदा । संताजापति तं नित्य भयो पात्य व महिमिः ॥ ३४२ ॥ एकदा जलकेल्यर्थ दीर्घिकायां ममज्जतुः । प्रम दसमाकीणों निमग्नो जलमध्यतः ॥ ४३ ॥ सविधेको विशालाक्ष सुमित्रो गज्यमाप वै । मक्कयत्तदा स्थति सुषेणः संभ्रमादिदं ॥३४४ । कौमारत्वेऽप्य राजा मे. संतापितास्त । मुदिष्पत्यधिक भूने संप्रतीत्य विचित्य सः । मनि नया बने गत्वा प्रवनाज पपाद सः ॥ ३४५ ॥ ( षट्पदी) | था और उन दोनोंके सुमित्र नामका पुत्र था। राजा मित्रके प्रधान मंत्रीका नाम मतिसागर । था उसकी स्वीका नाम रूपिणी था और उससे सुषेण नामका पुत्र उत्पन्न था। राजपुत्र सुमित्र मंत्रिपुत्र सुषेणके साथ सदा क्रीडा करता था । सरलचित्त मंत्रिपुत्रको वह खेलते समय सदा | संताप दिया करता था एवं जमीन पर डालकर खूब मुक्कोंकी मार मारता था ॥ ३३७–३४२॥ एक दिन वे दोनों बाबड़ीपर जलक्रीड़ा करनेके लिये गये एवं कमलके पत्तोंसे मुंह ढांककर | जलके भीतर पेठ गये॥ ३४३ ॥ कदाचित् विवेकशाली और विशाल नेत्रोंके धारक राजपुत्र सुमित्रको राज्यकी प्राप्ति हो गई। उसे राजा जान मंत्रिपुत्र सुषेण मन ही मन भ्रमसे यह विचार D करने लगा | यह राजा सु मित्र जिससमय कुमार था उस समय भी मुझे मर्यादासे अधिक सन्ताप देता Hथा। अब यह राजा होगया है इसलिये यह अब और भी संताप देगा, बस ऐसामनमें पक्का विचार कर वह सीधा वनमें मुनिराज के पास चला गया। उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया दिगंबरीदोक्षा धारण कर ली एवं सिद्धांत ग्रन्थोंका अध्ययन करने लगा ॥ ३४४–२४५ ॥ सु मित्र खिलाड़ी स्वभावका मनुष्य था सुषणसे वह किसीप्रकारका द्वष नहीं रखता था किंतु उसे बड़े प्रेमसे देखता ЕКККККККККККККККККК Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० 1 जयजयजय मित्रां हि निजं मित्रमदृष्ट्वा तद्गृहं गतः । विलोकनाय श्रुत्वा तं दीक्षितं दुःखयानभूत् ॥ ३४६ ॥ एकदा स्वपने राजा समायातं मुनीश्वरं । श्रुत्वा जगाम संप्रीत्या वंदनाय बहुश्रुतं ॥ ३४७ ॥ दित्वा प्राह हे मित्र ! त्यहि सदनं प्रति । अर्धराज्यं ददामोति श्रुत्या प्राह मुनिः ॥ ३४८ ॥ तपसा प्राप्यते राज्यं स्वर्गे दिव्यं शिवं सुखं । रत्याभभामिनीवृदं दुष्प्राप्यं तेन किं भवेत् ॥ ३४६ ॥ श्रुत्वा मौनीयर वाक्यमवोचत्सादरादिदं । नागच्छसि ॥ ३५९ ॥ यदि मे मंदिरे नूनं भोजनाय सुखेन च था। दिगंबरी दीना ले लेने के कारण जब सुमित्रका सुषं से मिलाप न हो सका तो वह स्नेहसे प्रेरित हो सुप को देखने के लिये उसके घर गया परंतु वहां पर उसे मालम हुआ कि वह मुनि हो गया है इसलिये वह बहुत दुःख मानने लगा ॥ ३४६ ॥ एक दिन राजा सुमित्रने सुनी किसूरपुर के वन में मुनिराज सुषं पधारे हैं, वह बड़े प्रेमसे बहुश्रुतके जानकार मुनिराज सुषेणकी वंदना के लिये चल दिया ॥ ३४७ ॥ पास जाकर भक्तिपूर्वक मुनिराजको प्रणाम किया एवं स्नेहसे विह्वल हो इसप्रकार कहने लगा हे मित्र ! तुम घर चलो। मैं तुम्हें अपना आधा राज्य दूंगा -- किसी बातका तुम्हें क्लेश न होगा। उत्तर में मुनिराजने कहा- राजन् ! संसार में तप सर्वोत्तम पदार्थ है, इसीसे राज्य प्राप्त होता है इससे स्वर्ग इच्छानुसार द्रव्य मोन एवं संसार के अन्य सुख भी प्राप्त होते हैं । रतिके समान सुन्दरी स्त्रियां भी इससे प्राप्त होती हैं विशेष क्या. संसारमें कोई भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं जो तपसे न मिलती हो ॥ ३४८ ३४६ ॥ मुनिराज के ऐसे गंभीर वचन सुन राजा मित्र से अन्य उत्तर तो न बना किंतु वडे आदरसे वह यह कहने लगा- महाराज ! संसारको बढ़ाने वाले घरमें आनेकी यदि आपकी इच्छा नहीं है तो आप सुख पूर्वक भोजन के लिये मेरे | मंदिर में तो अवश्य पधारें इसका उत्तर भी मुनिराजने यह दिया- यदि मैं इसरूपसे भी तुम्हारे मंदिर में भोजन के लिये आऊंगा तो अनुमोदना दोष लगेगा क्योंकि करना कराना और अनु ह おかだかで赤に KYKYKYKY EKERPAPRY Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ҮkkkkkkkkkkkkkkkkkҮЖҮКТ ३५९ ।। मुनिराहेति राजानं यदेमि भोजनाय वै । अनुमोदनं तदा दोषोऽन्ततो जीवन च धिक् ॥ ३२॥ श्रुत्वा नत्वा ययौ राजार जयत्स्वप्रजाः प्रजाः । एकदा दायितस्तेन पटहो हि पुरेऽखिले ॥ ३५३ ॥ भो लोकाः ! योमिने यो हि दास्यत्याहारमात्रकं । राजप्रायो भवेत्तोऽपि भोजयिष्याम्यई खलु ॥ ३५४ ॥ एकदा मुनिराजोऽसावागतो भोजनकृते । मासोपवासिको ध्यानी नैब केनापि रशिन: राजद्वारे यदा यातो वैरिदूतस्तदागतः । मुनीराशा हि न झातो विग्रहत्वान्मुनिर्गतः ॥ ३५६ ॥ मासयोपवासी स पारणार्थ समाज मोदन करना ये प्रायः एक समान ही हैं तथा इस अनुमोदन दोषसे व्रत भंग होगा और इतके विन। संसारमें जीना व्यर्थ है । मुनिराजका यह उत्तर सुन राजा सु मित्र और अधिक कुछ न बोल सका बस मुनिराजके वचन सुन और उन्हें नमस्कार कर राजमहल लोट आया एवं अपने पुत्रके समान प्रजाको रंजन करने लगा । एकदिन बैट ही बैंट उसके मन में उचंग उठ खड़ी हुई। उसने समस्त नगरमें ड्योढी पिटवा दी और यह घोषणा कर दी समस्त प्रजाको सूचित किया जाता है कि मुनिराज सुषणको कोई भी आहार न दे। मेरी आज्ञा न मानकर जो उन्हें आहार देगा वह राजाको ओरसे दण्डित किया जायगा क्योंकि उन्हें आहार देनेका पूरा संकल्प मेंने कर लिया है। केबल में ही उन्हें आहार दूंगा ॥ ३५० ३५४ ॥ एक मासके उपवासके बाद ध्यान शील वे मुनिराज सुषेण एक दिन आहारकेलिये नगरमें आये kal मुनि चर्या के अनुकूल वे जहां तहां घरोंमें घमे परंतु राजाके भयसे किसीने भी उन्हें आहार दान न दिया ॥ ३५५ ॥ जिससमय वे राजमहलमें आहारकेलिये गये तो उस समय राजा सुमित्रके न किसी बैरीका दूत राजसभामें आ गया। उसकी गड़बड़में राजा उन्हें न देख सका। वे मुनिराज अंतराय कमका प्रबल उदय जान वनको चले गये ॥ ३५६ ॥ दो मासके उपवासके बाद व kd पुनः पारणाके लिये नगरमें आये । मुनिचर्यानुसार सर्वत्र घूमकर वे आहारके लिये राजमहल में गये। जिससमय मुनिराज राजमहल में प्रविष्ट हुए उसीसमय राजा सुमित्रके किसी दुष्ट | EKENPNEPPERak RAEE KERNERARE Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Errow गतः । पुनः राशो गजो दुष्टः स्तंभमुत्क्षप्य निर्ययो। ३५७ ॥ तदा सह निशांतेन राज्ञा नावगतो मुनिः। द्विपक्षांतं तपो नीत्वा पुनः कांतारमाप सः॥३५८ ॥ तृतीयपारणायां स क्षीणमात्रो इटान्वितः । राजधान्यां तदा दाहो बभूव लयकालबत ॥ ३५६ ।। तदा भूपा। दिभिर्नेव द्रुष्टः श्रीमुनिपुङ्गवः । प्रत्यू वै यदा कृत्वा याति लोकास्तदा जगुः ॥३६०॥ अयं राजा महापापी भोजनं नैव यच्छति । दाता' वारयत्येव थत्वा राशे चुकोप सः ॥ १६१॥ क्रोधस्खलितपाद्योगी पतद मौ निदानकः । अत्रोकरमहादुधं हन्मीक्षा भवाम्यहं ।। 5 ३६२ ॥ मृत्वा व्यंतरतां यातो धिनिदानमनर्थः। तमायेन मृत राजा तद्दुःखात्तापसोऽजनि ॥३६३॥ कुनपःस्पः पुरो जन ततश्च्यु गला पने संपलेका स्वकालोड़ा। सारे महल और नगरमें खलबली पड़ गई वस उसदिन भी मय अपने रणबासके राजा मुनिराजको न देख सका एवं दो पक्षोंका और भी आहारका नियम लेकर वे मुनिराज वनको चले गये ॥ ३५७--३५८ ।। तीन मासके उपवास के बाद वे पुनः पारणाके लिये नगरमें आये। आहारके बिना उस समय उनका शरीर एकदम नोण हो गया था of | और बड़ी बड़ी जटायें बढ़ गई थीं परंतु जिससमय मुनिराजने नगरमें प्रवेश किया उसो समय प्रलय कालके समान नगरमें आग लग गई इसलिये किसी राजाआदिको दृष्टि मुनिराजपर न पड़ी। वे अपना अंतराय समझ वनको लौट दिये। उनकी दुःखदायी क्षीण दशा देख कुछ लोग आपसमें कहने लगे___ यह राजा बड़ा भारो पापी है न तो स्वयं मुनिराजको भोजन देता है और यदि काई अन्य व दाता देता है तो उसे देने नहीं देता। बस पुरवासी लोगोंके ये शब्द सुन मुनिराज अशभ कम के उदयसे राजापर आग बबूला हो गये । चलते चलते तीव्र क्रोधसे उनके पैर लटपटाने लगे। असमर्थतासे जमीनपर गिर गये एवं तीव्र क्रोधसे अज्ञानी बन यह महादुष्ट निदान किया कि मैं आगे ऐसा हों जो इसदुष्टको मार सक॥ ३५१-३६२ ॥ निदानके तीन पापसे व व्यंतर जातिके देव हुए। हा इसप्रकारके अनर्थके कारण निदानके लिये धिक्कार है। राजा सुमित्र भी मुनि VERNKER पहल हपहपहपर Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमला (मा स्वा त्यभूत्वका रबद्वक्षोरुधिगकांक्षी लि.न्या उदरे हि सः॥ ३६५। सुपेणखरदेवोऽभूत् कुणिकाल्यो निदानतः । एतस्मान्वं निर्ज नाशजर विद्धि रिक्षयात् ॥३६५॥धुस्वा जातिस्मरोजी तदा श्रेणिकभूमिपः। जैनधर्म समाधाय श्रद्दधत् स्वगृह ययौ ॥३॥ जैनधर्मरतं मत्या नवबौद्धाः समागता:राजन् ! करोषि वैज्जैन धर्म कुर्याः परीक्ष्य भो॥३७॥ सममध्येऽपिसंतानं क्षिप्त्या राही। नृपो जगौ। भोजयेति मुनीन जैनान, भातवृत्तोन्नतस्वनी ॥ ३६८ ॥ एकदा श्रय भायाता मुनयो नपसन्मनि । तदांगुलीभिरित्येवं | राजका इसप्रकार मरण सुन बड़ा दुःखित हुआ एवं उसी दुःखमें राजकाज त्यागि वह मिथ्या तपस्वी हो गया । कुतपके प्रभावसे वह मिथ्यावृष्टि देव हुआ एवं वहांसे चयकर तुम राजा श्रेणिक हुए हो। तुम्हारे बक्षस्थलके रुधिरका आकांक्षी यह सुषेणका जीव देव अपने निंदित निदानसे रानी चेलिनीके गर्भ में अवतीर्ण हो गया है उसका नाम कुणिक होगा वह तुम्हें कठहरेके IT अन्दर वन्द रवखेगा एवं उसके निमित्तसे उस कटहरेके अन्दर ही नियमसे तुम्हारा मरण होगा P ॥३६३–३६५ ॥ मुनिराजके मुखसे अपने पूर्वभवका वृत्तांत सुन राजा श्रेणिकको भी अपने पूर्व भव का स्मरण ही गया एवं जैनधर्मका श्रद्धानी हो वह अपने राजमहल लौट आया ।। ३६६ ।। बौद्ध साधुओंने सुना कि राजाने बौद्धधर्मका आचरण छोड़ दिया है और वह जैनधर्मका सेवक बन गया है। वे सबके सब राजाके पास आये. बहुतसी तर्क वितर्क हुई। अन्तमें जब उनकी एक भी न चली तो उन्होंने यही कहा--राजन् ! तुम जैनधर्मको धारण तो करते हैं परंतु ठीक समझ सोचकर धारण करना जिससे पीछे पश्चाताप न करना पड़ ।। ३६७ ॥ वौद्धगुरुओंके वचनोंका राजा पर कुछ असर पड़ गया। जैनधर्मकी परीक्षाका कौतहल उसके शिरपर सवार हो गया। एक दिन उसने आहारके स्थानपर रानीसे छिपाकर कुछ हड्डी आदि अपवित्र पदार्थ गढ़वा दिये और रानीसे यह कह दिया कि तुम जैन मुनियोंको आहार दान दिया करो। रानी च लिनी बड़ी चतुर थी उसने राजाका अभिप्राय पहिचान लिया और वह चौकन्नी हो गई ॥ ३६८ ॥ एक दिन तीन मुनिराज मंदिरमें आहारके लिये आये । रानीने लीन अंगुली उठाकर यह भाव प्रगट haraPTERTREnts Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ६६ फाफा I समस्या विहिता तथा ॥ ३६६ ॥ त्रिपुत्रास्तु लेनार्थं मम मंदिरे | अंगुलिद्विषयं तेऽपि दर्शयित्वा वनं ययुः ॥ ३७० ॥ गुणसागरनामानं दृष्ट्वा यातं तथाऽकरोत् । प्रतिपद्य मुनिस्तस्थौ राजप्रक्षालितांधियः || ३७२ ॥ मध्ये गृहं यदा योगी गत्वा तिष्ठति भावतः । ज्ञात्वावचिचलाश्चर्मास्थ्यशुद्धिं गतवांस्तदा ॥ ३७२ ॥ अथाचख्यौ नृपो राहीं ते त्रयो हि कथं गताः । पार्थमागताः पूर्व हि त्वं तच्च कारणं ॥ ३७३॥ अत्रीवददा राही नो वेशांति नराधिप। आवां यावश्च पृच्छायो वाहनाज्जग्मतुर्वनं ॥ ३७४॥ धर्मघोषमुनिं किया कि मनोप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति तीनों गुप्तियोंके धारक मनिराज मेरे मंदिर में आहारके लिये ठहरे। तीनों मुनियोंमें तीनों गुतियोंका धारक एक भी मुनि न था इसलिये वे अपनी दो २ अङ्गलियां दिखा कर वनको चले गये । उनके बाद एक गुणसागर नामके मुनिराज आये। रानीने उनको भी तीन अङ्गली उठाकर अपने हृदयका भाव प्रकट किया, वे मुनि तीनों गुतियों के धारक थे एवं तीन गुप्तिका धारक नियमसे अवधिज्ञानी होता है इसलिये अज्ञानी भी थे बस रानीके बचनानुसार उन्होंने अपनेको उपर्युक्त समझा। वे खड़े रहग ये राजाने उनके चरणों का प्रचाल किया । घरके मध्यभागमें आहारके लिये वे भावपूर्वक जाकर स्थित ही हुए थे कि उन्होंने अवधिज्ञानकी ओर अपना उपयोग लगाया एवं अवधिज्ञान के बलसे चाम हड्डी आदि पवित्र पदार्थों को उन्होंने जान लिया । वे अपना अन्तराय समझ वनको ओर चले गये । गुणसागरके विषयमें तो राजाने कुछ भी नहीं कहा किंतु उनसे पहिले जो तीन मुनिराज आहार बिना ही लिये वन चले गए उनके विषयमें यह पूछा प्रिय रानी ! तीन मुनि जो आहार के लिए राजमंदिरमें आये थे वे बिना ही आहार के राज मंदिरसे क्यों लौट गए ? उत्तरमें रानीने कहा- प्राणनाथ ! मैं भी कुछ नहीं समझ सकी चली अपन दोनों उनके पास चलें और उनसे विना आहार लिए लौट आनेका कारण पूछें। बस दोनों ही सवारियोंपर चढ़कर वनकी ओर चल दिये || ३६६ -- ३७४ ॥ सबसे पहिले वे धर्मघोष KKYKYKY KRIPKK Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 공 • तपापपपप KPKVKK भूगुणि! इत्युक नापति नृपो ध्रुवं । चर्षाये मगृहे स्वामिनागतो निर्वृतः कथं ॥ ३७५ ॥ जगाद मुनि कांतास्माकं ये तु गुसित्रात्मकाः ॥ ३७६ ॥ निकंतु भोजनार्थं ते नापरे कराते भृशं ॥ ३७३ ॥ (यं नास्ति नास्माभिश्च स्थितं यतः । का गुप्तिर्नास्ति युष्माकं मानसीति कथं वद ॥ ३७८ ॥ धर्मघोषस्तदा प्राह युगु राजन्निगद्यते । कलिंग विषये पुरे राजा महान् ॥ ३७६ ॥ विहरन भोजनार्थं वे कौशाम्यामममं नृप । तत्र च गरुडामिको राजमंत्री प्रवर्तते ||३८|| नामक मुनिराजके पास गये । उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं राजाने इसप्रकार उनसे पुछा स्वामिन्! आहार के लिये आप राजमंदिर पधारे थे परंतु आहार बिना ही ग्रहण किये आप वापिस क्यों चले आये। उत्तरमें मुनिराजने कहा – सुनो राजा जिससमय हम राजमंदिरमें आहार के लिये गये थे उससमय रानी चेलिनीने तीन अली उठाकर यह प्रगट किया था कि तीन 'गुप्तियों के पालक मनिराज मेरे यहां आहारके लिये तिष्ठे । जिनके तीनों गुप्तियां न हों वे न तिष्टें । हमारे तीनों गुप्तियां थीं नहीं इसलिये हम वहां आहारके लिये नहीं ठहरें । न ठहरनेका अन्य कोई कारण न था । मुनिराज के ये वचन सुन राजा श्रेणिकने पूछा- महाराज ! तीनों गुप्तियों में आपके कौंनसी गुप्ति नहीं है ? मुनिराजने कहा- हमारे मनोगुप्ति नहीं है । राजाने फिर पूछा मह राज! आपके मनोगुप्ति क्यों नहीं है । उत्तरमें मुनिराजने अपने मनोति न होनेका कारण इस प्रकार खुलासारूपसे वर्णन किया कलिंगदेशमें एक दंतपुर नामका नगर है। मैं वहांका एक बहुत बड़ा राजा था। भोजनके लिये विहार करता करता में एक दिन कौशांबी नगरीमें जा निकला। वहां के राजा के मंत्रोका नाम गरुड्रदत्त था और उसकी स्त्री गरुड़दत्ता थी। गरुड़दत्ताने मुझे आहारके लिये ठहरा लिया और विधिपूर्वक वह मुझे आहार देने लगी । जिससमय वह केवल मुझे ही आहार दे रही थी प्रबल कर्मके उदयसे एक ग्रास मेरे हाथसे नीचे जमीन पर गिर गया। ग्रासके गिरते ही मेरीढ़ ष्टि | भी उस ग्रासपर पड़ी । रमणी गरुड़दत्ताका पैर का अंगूठा मुझे दीख पड़ा कर्मकी प्रबलतासे उस KPAPASYP Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल० ३१ ANAYAYA भार्या गाख्या तयाऽहं स्थापियोऽदने । यदेव दीयते लेयन स्पेरं ममेव हि ||३८६ ॥ तदा मत्करतः सिक्यं प्रति वीर वेगसः ति यदा सिक्थे तदंगुष्ठों विलोकितः ॥ ३८२॥ तदा सम्मार मन्नार्या अंगुल कर्मपाकतः । अतो में मानसी गुप्तिर्न स्थिता नर | नायक ! | ३८३ ॥ श्रुत्वोत्तस्थौ तदा राजा गत्वा नत्वा मुहुर्मुहुः । जिनपालं पप्रच्छेति ध्यायतं वृषभं प्रभु ॥ ३८४॥ मुने ! मनुगृ मागतो घर । वाग्गोपिनी नमास्ते नो अतो न स्थितवान् ! ॥ ३८५ ॥ कथं तदा मुनिः प्राह श्रृणु त्वं काश्यपोपते ! | ठेके देखनेसे मुझे अपनो स्त्रीके ठेका स्मरण उठ आया एवं सहसा मेरे मन में यह भावना हो कि यह ऐसा ही सुन्दर अङ्गठा मेरी रानीका था। बस राजन् ! उसदिन से आज तक मेरे मनोयुतिका उदय नहीं हुआ इसलिये तीनो गुप्तियों के न रहने के कारण मैं राज मंदिरमें आहारके लिये न ठहर सका ।। ३७५-३८३ ॥ मुनिराज धर्मघोषको कथा सुन राजा श्रेणिक उन्हें नमस्कार कर वहाँसे उठे। जिनपाल नामक मुनिराज के पास गये वे भगवान उस समय भगवान ऋषभदेवका ध्यानकर रहे थे राजाने पास जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और यह पूछा पूज्य मुनिराज ! आप मेरे राजमन्दिर में आहार के लिये गये थे परंतु आहार बिना ही लिये आप चले आये इसका कारण क्या? उत्तर में सुनिराजने कहा- राजन् मेरे काय गुप्ति न थी इसलिये मैं राजमंदिर में आहार के लिये नहीं ठहरा । राजाने पुनः पछा- महाराज ! आपके काय गुप्तिका उदय क्यों नहीं हुआ ? उत्तर में मुनिराज अपना सारा हाल खुलासारूपसे इसप्रकार कहने लगे । भूमितिलक पुरका स्वामी राजा प्रजापाल है। उसकी पटरानीका नाम धारिणो और उससे उत्पन्न एक मृगांका नामकी कन्या है । जो कि गोल और उन्नत नितंबोंसे शोभायमान है । सूक्ष्मकटिभागकी धारक है और उसका बक्षःस्थल विशाल है । अत्यंत रूपवती जान चंडप्रयोतन नामके राजाने उसे वसुपालसे सरलता पूर्वक मांगी थी परंतु अभिमानी वसुपालने उसे नहीं दी । FRERERY KAYKY Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विषयपत्र भूमितिलकपुरे राजा प्रजापालोऽस्ति धोधनः । ३८६ ॥ तस्यैव धारिणी जाया मृगांकाख्या सुताभवत् । वृत्तोन्नत नितंबा च मध्य झोमोरसि पृथः ।। ३८७१ प्रद्योतनो राजा ध्रुत्वा तामतिरूपिणी । ययाच सादर पित्रा नो दत्ता दर्पधारिणा ।।३८८५ चतुरंगवला. भीतो दुर्दमा बचाल सः । कमेण तत्पुरं प्राप्य वेष्ट बालानवलः । ३८सायन घने तयोर्जातोरणोरणविदोःपुनः॥३०॥(षट्पदी) कैततितमूनो योगुच्यते नरास्तदा । महारणसमुद्रस्मिन् पतद्दतिमहाशिले ॥ ३१॥ बहुयारक्ष युद्धे हारितः हि प्रतापपाक। ३६२॥(षट्पदी विषयणस्तिष्ठो यायत्तावन्मा च बनागतं । जिन बनपालाय श्रुत्वा चंदितुमाययौ ।३६३.। इत्यं जगाद नत्वा मां पाहि त्वं शरणागतं । सेवक,दुःखितं मत्वा ध्रुवंचितां निवारय ।। ३६४ ॥ तदाकागध्वनिहिं वनदेवतया कृतः । प्रजापाल ? भय मागाः चंडयोतन क्राधसे भबक गया । राजा वसुपालको वश करने के लिये वह चतुरंग सेनासे व्याप्त हो मितिलक पुरको ओर चलदिया एवं अपनी बलवान संनासे चारो ओरसे पुर धेरलिया ॥ ३८४३८६ ।। दोनों ही राजा रणकुशल थे। दोनोंका आपसमें प्रतिदिन युद्ध होने लगा। उस महारण | रूपो समुद्र में जिनके मस्तक भालोंसे कटे हुये हैं ऐसे पुरुष युद्ध करने लगे। शत्रोंके कठोर प्रहारों से बड़ी बड़ी हाथीरूपी महाशिलायें पड़ने लगीं। बहुतसे वीरोंका नय होने लगा ऐसे भयंकर संग्राममें राजा प्रजापालको हार खानी पड़ी ॥३६०-३१२॥ हारकर प्रजापाल खिन्न हो घरमें। ठा हो था कि बनपालकेमु बसे उसने मुझ जिनपालका वनमें आना सुना और मेरो वंदना के लिये चल दिया एवं मेरे पास आकर और नमस्कार कर वह इसप्रकार विनयपूर्वक कहने लगा- भगवन् ! मैं आपके शरणमें आया हुआ हूँ आप मेरी रक्षा कीजिये । सेवकको दुःखो जान - उसमी शोघ चिंता मेटिये में तो उससमय कुछ भी नहीं बोला परंतु वनदेवताकी ओरसे यह आकाश ध्वनि हुई कि--प्रजापाल ! तुम किसी प्रकारका भय मत करो विजय तुम्हारा ही होगा। राजाप्रजापालने वन देवताको इस ध्वनिको मुनिका वचन जानकर और यह पक्का श्रद्धान कर कि | मुनियोंका वचन सत्य होता है, वह अपने राजमहल लौट गया एवं नयारी कर KeekЖүжүжүжұkkkkke% Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प . प्रायपYahasy जयत्वं भाविता तब थनि मुनर्वचो मत्वा सत्यं मौनीश्वरं वचः। इति कटवा गतो गेहे रणरंगे समागतः || ३६६॥ चंडस्तदा समाकण्यं जयत्वं तस्य भूपतः । जेनं मत्वा यदायाति स्वगृहेषु रणान्वितः ॥ ३७॥ प्रजापालामियो राजा प्रेषयामास सदान् । ते गत्वा प्रोचरित्येवं कथं यासि रणाद्विना ॥ ३६. चंडयोसनोऽवादीचा त्या तेषां यचः स्फुट। जैना मे यांधचा मित्र कर्थ योयु. ध्यते मया ॥ ३६॥ गत्वान्यवेदयन्वीराथण्डप्रद्योतनोदितं। तथा श्रुत्वा ददौ प्रीत्या मृगाशी मारमंजरी ॥ ४०॥ एकदा तो व रेमाते तदा चंडो जगाद भो। कांते ! ते पितरं जैन मत्वा मुक्तो रणांगणे ॥ ४० ॥ श्रुत्वा मृगाक्षिका प्राह शृणु त्वं नाथ ! मद्वचः । रणभूमिमें आ धमका ॥ ३६३-६६६॥ राजा चंडप्रद्योतनको किसी कारणसे यह भ्यास गई कि राजा प्रजापालका ही विजय है इसलिये वह उसे जैनी मान अपने घर जाने लगा। रणके लिये सर्वथा तयार राजा प्रजापालने अपने कुछ सुभट राजा चंडप्रद्योतनके पास भेजे और वे कहने लगे | कि भाई रणको छोड़कर तुम क्यों जा रहे हो ? उत्तरमें राजा चंडप्रद्योतनने गंभोर वचनोंमें कहासमस्त जैनी मेरे बंधु हैं और मित्र हैं मुझे उनके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये । राजा प्रजापालके सुभटोंने चंडप्रद्योतनका संदेशा उससे जाकर कह दिया । चंडप्रद्योतनके ये वचन सुन राजा प्रजापाल प्रसन्न हो गया एवं कामकी मन्जरी स्वरूप अपनी मृगनयनी कन्याका उसके साथ विवाह कर दिया ॥ ३६७-४००॥ PA रमणी मृगांका और चंडप्रद्योतन एक दिन आपसमें रमण क्रीड़ा कर रहे थे उससमय चंड प्रद्योतनने कहा--प्रिये तुम्हारा पिता जैनी था इसलिये मैंने उसे रणसंग्राममें छोड़ दिया था यदि कोई दूसरा होता तो मैं उसे नहीं क्षमा करता । अपने स्वामीके ऐसे वचन सुन रमणी मृगांकाने - कहा--प्राणनाथ ! मुनिराज जिनपालने उन्हें अभय दान दिया था इसलिये वे आपसे नहीं जीते / जा सके। अपनी रानीके ऐसे बचन सुन चंडप्रद्योतनको बडा आश्चर्य हुआ वह कहने लगा--मुनियोंकी तो शत्रु मित्रमें समान वृत्ति रहती है इसलिये न तो वे किसीसे द्वेष कर सकते हैं और न ETEST पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO सहायक पपपपपर स्वामिना जिनपालेनाभयं दत्तं तवैव भो .२॥ चंडः प्राहेति है कांते! मुनीनां द्विषता कुतः। रागो हि विद्यते कुत्र साम्यत्वात त्यरूपता ४.३॥ यद्यवं विद्यते चिचे बहिनं गतौ तदा । जिनपं वीक्ष्य नत्वं पप्रच्छेति मनोगतं ॥ ४५ ॥ नाथ! योगिनां कस्याभयचिंतनमादरात् । कस्य चिन्नाशनत्वं हि युक्त प्रोक्त जिनागमे ॥ ४०॥ मुनियोपं समाश्रित्य स्थितो ध्याने यदा तदा । कांता प्राह न तयुक्त परंतु गगनध्वनिः॥४०६ ॥ भ्रांतिं चित्तस्थितां तो च विनाश्य सदने गती । अहं तवालये राजनागतो भोजनकृते ॥४०॥ सदोक्कमिति चेलिन्या त्रिगुप्तिर्भवतां यदि । तिष्ठतु चान्यथा नैव तदभावान्न स्थिता घयं ॥४०॥ त्रिगुप्तीनां मुनीनां हि भव. किसीसे राग कर सकते हैं। तुम जो कह रही हो यदि वह बात सत्य ही है तो चलो अपने मुनि राजके पास चलें और यथार्थ बात उनसे पूछ बस ये दोनों मुझ जिनपालको वंदने के लिये चल दिय । मुझे देख कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं अपने हृदयका भाव राजा चंदप्रद्योतन इस *प्रकार व्यक्त करने लगा भगवन् । योगी लोग किसीका तो अभय चितवन करें और किसीका नाश चितवन करें क्या यह वात जैनसिद्धांतमें ठोक मानी गई है ? मैंने इस बातका कोई उत्तर नहीं दिया। मौन धारण कर ध्यान करने लगा। रानी मृगांकाने कुछ भी उत्तर न देते जब मुझे ध्यान लीन देखा तो उसने राजा चंडप्रद्योतनसे कहा-नाथ ! मुनिराजने अभय दानका सूचक वचन नहीं कहा था किंतु उस प्रकारकी आकाश ध्वनि हुई थी। रमणी मृगांकाके ऐसे वचन सुन दोनोंकी भ्रांति मिट ई और वे दोनों अपने राजमहल लौट आये। मैं भी उस उपसगसे अपनेको मुक्त जान राज - मंदिग्में आहारके लिये गया। रानी चेलिनीने तीन अङ्ग ली उठाकर यह बात प्रगट की थी कि-- यदि आप तोन गुप्तियोंके धारक हों तो मेरे मन्दिरमें आहारके लिये ठहरे बीच नहीं। राजन् । ke हमारे तीन गुप्तियां थीं नहीं इसलिये हम राजमन्दिरमें आहारके लिये स्थित न हो सके क्योंकि यह नियम है जो मुनि तीन गुप्तियोंके धारक होते हैं वे नियमसे अवधिज्ञानी होते हैं और उससे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यधिलोचनं । तेनेष ज्ञायते सर्वमन्येषां तद्धिमो भवेत् ॥४०॥धुत्वा प्रशस्य धर्म व जनं सांतया सह |गत्वा पप्रच्छ वृत्तांतं नत्वा प्रोमणिमालिनं ॥ ४१०॥ मगृहात्त्य कर्यकार निःस्तो भोजनाते । मुमुक्षवनं प्राह राजानं राजराजितं ॥११॥ चेलिन्या विहितं मत्वा कायगुप्तिन मे यतः । अतः स्थित न राजेंद्र ! शृणु तद्व समादरात् ॥४२॥ मणिविषये रम्ये मणिवत्पत्तने त्वथा मणिमाल्यहक राजा गुणमाला प्रिया मम ।। ४१३ ॥ मणिशखरपुत्रोऽभूत् राजराज पापंणात् । एवं भोगान प्रभुजानो गतं कालं न वेदम्यहं ।। ४१४५ एकदा कांतया केशान् विरुलयत्या ममोवित । यमदुतः समायातः आगदात्महितं कुरु ॥ ४१५ ॥ तदा राज्ये नियोज्यान पुत्रं च मान | अवधिज्ञानके विषयभूत पदार्थोको जानते हैं किंतु जिनके तीन गुप्तियां नहीं होती उनके अवधि | ज्ञान भी नहीं होता ॥ ०१-४०६॥ मुनिराज जिनपालके ये बचन सुन महाराज श्रेणिकने जैन धर्मको बड़ो भारी प्रशंसा की। वे रानी चेलिनीके साथ वहांसे उठकर मुनिराज मणिमालीके पास से Sगये और उनसे इसप्रकार पूछने लगे-- पूज्य मुनिराज ! राजमन्दिरमें आप आहारके लिये पधारे थे परंतु आहार विना ही लिये आप म्यों चले आये ? उत्तरमें मुनिराज मणिमालिनीने कहा-- रानी चेलिनीने तीन अङ्गलियां उठा कर यह प्रकट किया था कि तीन गुप्तियोंके धारक मुनिराज मेरे मन्दिरमें आहारके लिए विगजें हीरे कायगुप्ति थी नहीं इसलिए हे राजेन्द्र ! में राजमन्दिरमें आहारके लिए न ठहर सका। मेरे हायगुप्ति क्यों नहीं थी इसका खुलासा इसप्रकार हैd इसी पृथिवीपर एक मणिवत नामका देश है। उसमें एक मणिवत ही नामका नगर है। महांका में मणिमाली नामका राजा था। मरी स्त्रीका नाम गुणमाला था और मेरे पुत्रका नाम मणिशेखर था जो कि कुवेरकी उपमा धारण करता था इसप्रकार में सुखपूर्वक भोगोंको भोगता *था और काल कहां चला जा रहा है ? यह म झे तनिक भी नहीं सूझ पड़ता था ॥४१०--४१४॥ मेस्त्री गुणमाला एक दिन मेरे केश संभाल रही थी। एक सफेद, केश देख कर उसने कहायमराजका दूत आ पहुंचा है अब शीघ्र आत्माका हित करना उचित होगा ॥ ४१५ ॥ अपनी रानी eЖүжүжүжұkrkұрсұktkyЖЕКүке. Vyaayata rance ___ - . . . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल Рkkerkekүү%EKYktkritkeы A सागर । अधिगम्य गुरु वेगाधु दिदीलाई नराधिप ! ५४१६॥ तपस्यन्नेकदा भूप! बोज्जयिन्याः श्मसानके। भ्यानसिद्धप स्थितस्ता वन्मंत्रसिद्धः समागतः ॥ ४१७ ॥ कौलिकोऽस्थिभराभूगनूषितो भूतसेषकः । बैतालीयमहाविद्या सिद्धयर्थ नग्नरूपकः ॥ ४१८ । (युग्म) | मह कुणपं मत्वा द्वितीय चौरमस्तक । आनीयायोजयत्पश्चान्मम मूनि पकौलिकः ॥४१॥ चुलही शीर्ष ममैव तां कृत्वैव रंधनाय च। पायसस्य ततो मंत्री संजज्याल धनंजय ॥४२॥ यथाग्निचलते तत्र शीर्य मे व्ययते तथा । तद्दाहं नारकोभूनदुःख संस्मृत्य ध्यानवान् ॥ ४२१॥ शिरासंकोचयोगेनोभीभूय च करौ मम । दंडवत्संस्थितौ मूर्ध्नि दुग्धपाते पलायितः ॥ ४२२ ॥ दिनरावोदये K के ऐसे वचन सुन मैंने ज्ञानके भंडार अपने पुत्रको शीघ्र राज्य प्रदान कर दिया । शीघ्र अपने गुरु के पास चला गया और मैंने दिगंबरो दीक्षा धारण करली ॥ ४१६ ॥ राजन् ! विहार करता करता में एक दिन उज्जयिनी नगरी जा पहुंचा और उसकी श्मसान भूमिमें ध्यानकी सिद्धिके लिये निश्चलरूपसे स्थिर हो गया। उसीसमय एक कौलिक ( कोरिया) मन्त्रवादी जो कि हडूडियोंके | La भूषणोंसे भूषित था। भूतोंका सेवक था और नग्नरूपका धारक था। महाचैतालीय विद्या सिद्ध करनेके लिये वहां आया। मेरे शरीरको उसने मुर्दे का शरीर समझा । कहींसे वह एक दूसरा मस्तक उठा लाया और उसने पीछेसे मेरे मस्तकके साथ जोड़ दिया। खीर पकाने के लिये उसने मेरे मस्तकको ही चूल बनाई और उसने अग्नि जलानी प्रारंभ कर दी॥ ४१७--४२० ॥ जैसी जैसी वह भयंकर अग्नि जलने लगी मेरे मस्तककी पीड़ा भी बढ़ती चली गई। वह सदाका दुःख मुझे नरकका दुःख जान पड़ने लगा इसलिये उसकी ओरसे हटकर मैंने अपने | चित्तको आरमखरूपके चिन्तवनमें लगाया ॥ ४२ ॥ अग्निके सम्बन्धसे नसोंके संकुचित हो जानेसे मेरे दोनों हाथ ऊपरको उठकर दंडाकार सीधे खडे हो गये । मेरे मस्तकपर जो रांधनेका पात्र रक्खा था नीचे गिर गया उसका दूध फैल गया, यह देख वह मंत्रवादी कौलिक भयसे भाग गया। ४२२ ॥ मेरा सारा मस्तक दग्ध हो चुका था। प्रातःकाल होते ही पहYLERYKURYAsi Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ७७ मालाद्विलोक्य च मामरं । कुग्भूर्धानमापत्स्थं जिनदतानचांकथत् ॥ ४२३ ॥ हाहा चक्रस्तदा सर्वे संभूयागत्य नभ्य च । उयुधृत्य मां करे: पुर्यामानयन् श्रायकाः शुभाः || ४२४ ॥ जिनदचालये भक्तया स्वापयामास मां नृप ! | जिनदशो भिषजं भव्यं पश्च्छौषधमादरात ॥ १२५ ॥ वैद्योप्यलीलपत्सत्यं लक्षमूलागते चरितु । तैलाच्छांतिभंषित्री न तत् क्वास्ते कथयेति मां ॥ ४२६ ॥ इति पृष्टः प्रागदधः सोमशर्मा गृहेऽस्ति तत् । तदा नेतुं गतस्तस्य गेहे गहनकार्यवित् ॥ ४२७ ॥ तद्भार्यामवीदेवं नाम्ना तु कारिकां प्रति । है स्वस उस वनके मालीने मुझे देखा मुझे महा दुःखित जान शीघ्रही उस नगर निवासी जैनियों के पास पहुचा और सारा हाल कह सुनाया । मेरी यह भयंकर अवस्था सुन ये सबके सब हा हा करने लगे । सबके सब मिलकर श्मसान भूमिमें आये । मुझे नमस्कार किया। अपने हाथोंसे उठाकर वे भव्य श्रावक मुझे उज्जयिनी ले आये। जिनदत्त नामक सेठके घर में मुझे लाकर रख दिया । जिनदत्तने एक वैद्यसे मेरी नीरोगताकी आशासे औषध पूछी। उत्तर में वैद्यने भी बड़े प्रेमसे यह कहा कि--- प्रिय वैश्य सरदार ! लाक्षामूल तेलके बिना इस दाहकी शांति नहीं हो सकती इसलिये तुम्हें लाक्षामूल तेल जाना चाहिये । वैद्यराजकी यह बात सुन जिनदत्तने कहा - लातामूल तेल तो यहां पर है नही कहिये कहां वह मिलेगा जिससे मैं उसे ले आऊं ? उत्तरमें वैद्यराजने कहा-यहां एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता है उसके घर में लातामूल तेल मिल सकता है । भव्य जिनदत्त लाचामूल तेलके विना दाहको आागका मिटना अति कठिन जान वह शीघ्र ही सोमशर्माके घर गया। उसकी स्त्रीका नाम तुकारी था उससे जाकर इसप्रकार कहने लगा- बहिन ! तुमने गुणोंकी भंडार और अनेक कला कौशलोंकी खजाना हो ? मुनिराजका सारा मस्तक किसो दुष्टने जला दिया है। दाहकी बड़ी भारी आग भैरा रही है । उसको नाश करने वाला तुम्हारे यहां लाक्षामूल तेल सुना है इसलिये कृपाकर जितना उसका मूल्य हो वह लेकर मुझे दे दो बड़ा उपकार होगा। उत्तरमें तु कारीने कहा--भाइ जिनदत्त ! मैं मूल्य नहीं ले सकती स्तनयत PAPREKEKK Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = КүЕКРЕКСЕРКЕКЕРКЕККЕ INस्त्वं गुणागारा कौशलान्वितधिप्रहा ।। ४२८ ॥. मुमुक्षयाघनासाथ देहि तेले सुमूल्यतः । तदा तु प्राह तुकारी मूल्यं गृहाम्यहे नहि ॥ ४२६ ॥ विद्यतेऽहालिकायां भी कांचकुभा ममेव हि । यावत्प्रयोजनं कुंभ गृहाण त्यं तद्तरात् ॥ ४३० ॥ गत्या गृहाति भन्नः स कांच |कुभो मनोहर: । तदागत्य भिया प्राह भगिनि ? भग्नो हि कुम्भकः ॥ ४३१ ॥ तदा सा प्राह है भ्रात हाण त्वं द्वितीयकं । यदा जिघृ. 1 क्षति नूनं तदा भन्नी द्वितीयकः ॥४३२॥ एवं कुभाश्च सप्तव भग्नास्तस्या न क्रुदभूत् । तदाश्चर्य समाथ्याशु तां पप्रच्छेति कारणं ॥४३३ हे मातरीदशी शांति, नाघपि न दृश्यते । सावीवददहं भ्रातरभोजं तत्फलं यतः ॥ ४३४ ॥ अशीशममतः कोथं प्राह सोऽपि कथं स्त्र मेरी अटारीमें बहुतसी तेलकी भरी शीशियां रक्खी हैं तुम्हें जितने तेलकी भावश्यकता हो उसके भीतरसे उठाकर ले जाओ ॥४२३--४२६ ॥ तुकारीका यह सजन स्वभाव जान जिनदत्त बड़ा l प्रसन्न हुआ। वह ऊपर अटारीमें बढ़ गया। ज्यों ही उसने एक शीशी तेलकीभरी उठाई दिनारी होने के कारण वह तत्काल टूट गई । शीशीको टुटी देख जिनदत्त भयसे कंपित होगया । डरता | वह तुकारीके पास आया और कहने लगा–बहिन ! वह शीशी तो फूट गई ? उत्तरमें तुकारी | ने कहा-भाई ! यदि वह फूट गई तो और दूसरी ले जाओ। जिनदत्तने दूसरी भी उठाई परंतु । वह भी फूट गई। जिनदत्तने फिर तुकारीसे उसके फूटनेका समाचार कहा । उत्तरमें तुकारीने फिर भी अपने सज्जन स्वभावसे यही कहा अच्छा भाई ! यदि वह दूसरी शीशी फूट गई तो तुम तीसरी ले जाओ। जिनदत्तने फिर भी तीसरी शीशी उठाई परंतु फिर भी वह फूट गई इसप्रकार बराबर सात शीशी तक फूटत चली गई एवं वह तुकारी बराबर दूसरी दूसरी प्रहण करनेकी । आज्ञा देती गई। उसे रंचमात्र भी क्रोध नहीं आया । तुकारीकी यह लोकोत्तर क्षमा देखकर सेठ जिनदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ इसलिये प्रेमसे गद्गद हो वह इसप्रकार कहने न लगा हे माता ! जैसी अद्वितीय क्षमा तुम्हारे अन्दर विद्यमान है वैसी किसी मुनिके अन्दर भी जल्दी नहीं दीख पड़ती। सात शीशियोंके फूटनेसे तुम्हारी बहुत हानि हुई है तथापि तुम्हें तनिक Жүкккккккккккккккккккккк Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल० ३६ AYAYE सः ॥ ४३५ ॥ ( षट्पदी ) शृण्वानन्दपुरे भ्रातः शिवशर्मा नृपो धनी । नाम्ना श्रेष्ठी वसत्यत्र कजधीस्तस्य भामिनी ॥ ४३६ ॥ तयोरष्टौ महापुत्रा यभूवुः सधनोन्मदाः । श्रहं भने ति नास्नी वै पुत्री जाता चिषक्षणा ।। ४३७ ॥ अथैकदा पिता भूपं विज्ञापयति सादरं । भवद्भिः स्मेति पौध मत्पुत्र्या वल्लभत्वतः । त्वंकारो नैय दातव्यः प्रमाणं कृतवान्तृपः ॥ ४३८ ॥ ( पटूपदी) नृपदेिशं समाप्याह मेयं प्राह समक्षकं । यो मां प्रति त्वकं दत्ते तस्यानर्थं करोम्यहं ॥ ४३६ ॥ तदाप्रभृति मन्नाम तुकारीति कृतं जनैः । इत्थं तातादिसन्मान्या स्थिता धाग्नि कोषिका ॥ ४४० गुणसागरं राजाद्या वंदित जग्मुस्तदेवाहं गता मुदा ॥ ४४२ ॥ यथायर्थ भी क्रोध नहीं आया । जिनदत्तके ये वचन सुन तुकारीने कहा- भाई! क्रोधका मैं भयंकर फल भोग चुकी हूँ इसलिये मैंने क्रोध एकदम करना छोड़ दिया है। तुकारीके ये वचन सुन जिनदत्तने कहा सो कैसे ? उत्तर में तुकारी इस प्रकार कहने लगी- AEK REK नन्दपुर नगर में एक शिवशर्मा नामका सेठ है जो कि धनमें राजाकी तुलना करता है । उसकी स्त्रीका नाम कमलश्री है। सेठ शिवशर्मा के आठ पुत्र हैं जो कि धनी और निर्भय हैं। मैं एक हुत्री हूं और मेरा नाम भहा है ॥ ४३० - ४३७॥ में इतनी घमंडिन थी कि मुझसे जो तू कह कर बोलता था वह मुझे विषसरीखा जान पड़ता था । मेरे पिताका मुझपर गाढ़ स्नेह था। वे मुझे सुख बनानेके लिये एक दिन राजाके पास गये और यह कहा- - मेरी महापुत्री मुझे अत्यंत प्यारी है और तुकारसे चिड़ती है इसलिये आप तथा कोई भी पुरवासी लोग उससे तू न कहें। राजाने भी सेठ शिवशर्माका वचन स्वीकार कर लिया ॥ ४३८ ॥ जव राजाकी वैसी आज्ञा मिल गई तब मेरा और भी अधिक माहस बढ़ गया और मैंने सर्वोोंके सामने खुले शब्दोंमें यह कह दिया कि जो कोई भी मुझसे तू कह कर बोलेगा मैं उसका अर्थ कर डालूंगी। बस लोगोंने उस नसे मेरा नाम तुकारी रख दिया । यद्यपि मेरे पिता आदि मेरा पूरा आदर करते थे तथापि । मैं सदा गुस्सा ही होकर घर में रहती थी । ४३६-४४० || आनन्दपुरमें एकदिन मुनिराज गुण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहीत तेवत संसारतारकं । मयापीया विना ब्रह्मचुतं नीतं मनोहरं ॥ ३४२ ॥ तद्दिनप्रभृति भ्रातः! भ्रातृभिः सह संस्थिता। मच्छोलंच परिक्षाय कोऽपि मां भो धोति न || ४४३ ॥ पितरावेकदा बोक्ष्य यौवनाड्यां लसनुद्य तिं । चिंतयामासश्चित्ते वरान्वेषणहेतवे ।। ४४४ ॥ एकदा सोमशर्माख्यो द्यूते दृष्य जहार च । दा तकारस्तदा वध्वा तायले मुष्टिभिस्तरां ॥४४५॥ तदैव मत्पिता गत्वा केतवं प्रत्ययोमणत् । घणुया यदि मे कन्यां तदा त्यो मोचयाम्यहं ।।४५६ ।। स्वीकृतं भूमिदेतेन तदा तातेन मोचितः । पश्चात यास्त्वंकारोनैव दीयतां ।। ४४७ ॥ उद्घाहिता सुखं प्राप्ता भोगजं च यदा तदा । एक्दा नाट्यशालायां लोकनार्थ स्थितः पतिः 12 सागर पधारे। राजा आदि सब लोग उनकी वंदनाके लिये गये। मैं भी गई । उपदेशके अन्तमें से सबोंने अपनी अपनी शक्तिके अनुसार संसारसे पार करनेवाले व्रत नियम लिये, मैंने भी शोला | ld का नियम लेलिया ॥४४१-४४२॥ भाई जिनदत्त ! मैं उस दिनसे लेकर भाइयों के साथ रहने लगी। मरे ऋर स्वभावको जानकर कोई भी मेरे साथ विवाह करनेको राजी नहीं होता था। एक दिन | मुझे पूर्ण युवती देख मेरे माता पिता मेरे योग्य वर ढूंढने के लियेोचिंता करने लगे। सोमशर्मा नाम IH का ब्राह्मण जो कि इससमय म रा स्वामी है ज्वारियोंके अड्डमें जुआ खेल रहा था। देवयोगसे वह अपने पासका सब धन हार गया जिससे अन्य ज्वारी उसे बांधकर मुक्कोंकी मार मारने लगे। मेरा पिता भो दैवयोगसे वहां आ निकला और वरके योग्य सुदर जान सोमशर्मासे यह कहने लगा यदि तुम मेरी कन्याके साथ विवाह करना पसंद करो तो मैं तुम्हे छुड़ा लू. परवश हो सोमKA शर्माको स्वीकार करना पड़ा एवं मरे पिताने उसे छुडाकर यह प्रतिज्ञा कराली कि मेरी पुत्रीसे तू कहकर न बोलना होगा।॥ ४४३----४४७॥ वस सोमशर्माने मोरे साथ विवाह कर लिया और समय समयपर भोगोंसे जायमान सुख भोगे । एक दिन मेरा स्वामी नाम्यशालामें नाटक देखने 18 के लिये गया। देखते देखते आधीरात हो गई इसलिये आधीरातपर वह अपने घर लौटा एवं | दरवाजेपर आकर इसप्रकार कहने लगा--- жүктеу kkkжrkers ЖЖЖЖҮКҮхжүүлүкккккккк Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४८॥ अतिक्रम्यारात्र स मंदिरं च समाययौ । द्वाराऽवीभपात्कांतां भो भो कमललोचने! ॥ ४४६ । उद्धाट्यत सवार यूयं मोद्घाटितं यदा।रै उद्धारय द्वारत्वं तदाई निर्गता गृहात १५०॥ सभूषां मांसमालोक्य चौरैनीत्वार्धरात्रके । भीमभिल्लाय दत्ता है स्वामिने परमादरात् ॥ ४५१ ।। तेन प्रोक्तं त्व वाले ! मे पत्नी भव निश्चित । मयेत्युक्त तदा भीम ! युक्त न कुत्टयोषितां ।। ४५२ । तदा कामाकुलो भूत्या समागत्य सुवलाति । वनदेव्या तदाताडि सेवका अपि ताडिता ।। ४५३ ॥ देवाः शीलं प्रशंसंति वालमत्र स्कु रत्यतः । चक्रवर्तित्वं स्वगत्वं शिवत्वं दुर्लभेन च ॥ ४५४ ॥ तदा कोपाकुलो भिल्ली मूल्यं लात्वा हि मां ददौ । सार्थवाहस्य दुष्टस्य A पापकनिमज्जिनः ॥ ४५५ ॥ सोऽपि मे भोजयत्येव मिष्ठान्न शर्करायुतं । पक्षे पक्षे शिरायाश्च मोचनं कुरुते मम ॥ ४५६ ॥ तच्छोः । प्रियकमलनयनी ! कृषाकर आप द्वार खोलें। परंतु मैंने दरबाजा नहीं खोला। मेरे खामीको क्रोध आगया इसलिये वे यह कहने लगे-मरी तू दरवजा खोल । बस मैं मारे क्रोधके भबक गई ।। और कुछ भी न बोलकर एकदम परसे बाहिर होगई ॥ ४४८-४५० ॥ यह समय टीक आधीरात II का था ओर मैं भूषण पहिने थी इसलिये चोरोंने मुझे देख लिया । मुझे पकड़कर वे अपने स्वामी भीम नामक भीलके पास ले गये और बड़े आदरसे भेंट कर दी॥ ४५१ ॥ मेरे सौंदर्यपर मुग्ध होकर भीमने कहा—वाले ? तू मेरी पत्नी हो। उत्तरमें मैंने कहा-भीम ! मैं कुल स्त्री हूँ कुलस्त्रियोंके | लिये यह कार्य करना युक्त नहीं । भीम कामसे अत्यंत व्याकुल था उसने मेरी नहीं सुनी । वह बल । नपूर्वक कामसेवन करनेके लिये मेरे पास आ गया और डाट डपट करने लगा। शीलके माहात्म्यसे वन देवता प्रगट हुई। उसने भीमको और उसके सेवकोंको फटकार डाला क्योंकि देवगण शीलको प्रशंसा करते हैं । इस संसारमें शीलसे बढ़प्पन होता है तथा इस शीलसे चक्रवर्तीपना वर्गपना मोक्षपना भी दुर्लभ नहीं ॥ ४५२-४५४ ॥ जब भील भीमकी कुछ भी नहीं चली तब वह बड़ा कोधित हुआ एवं एक ऐसे व्यापारीके साथ जो कि निरंतर पापरूपी कीचड़में फसा रहता था और अत्यंत दुष्ट था मुझे मूल्य लेकर बेच दिया ॥ ५५ ॥ वह दुष्ट प्रतिदिन मुझे शक्कर आदि मिष्टान्न Rahalसयपतपय керехкүKKKKKKKKKKKK Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ka चमखाणितेन पापोऽसौ कंवलानां हि रंजन । कुरुते कामसूत्रापां रंजन च विशेषतः ॥ ४५७ ॥ लक्ष्यमूल्याभिध तैलं कृत्वा मे देहजो व्यथां । २ निवारयत्यसौ दुःखात्तत्र तिष्ठामि भीयुता ॥ ४५८ ॥ तदैव चिंतितं स्वांते गृहे त्वं सोदुमक्षमा । एवं दुखं सहेबाहं विचित्रा कर्मणा गतिः॥४५॥ अथैव धनदेयाख्यो भ्रात,#षितः कृत। विशाल सतिना पारासुरभूपसमीपर्क ॥ ४६०॥ तदा मां वीक्ष्य नीत्वैध गृहमागत्य सत्वरं । पश्चान्मज्जनको भूगमदाछीसोमशर्मणे ॥ ४६१ ॥ एकदा मुनिमासाद्य गृहीतं कोपसद्वतं । भतः करोमि नो को । भूरिदुःखपुदायकः ॥ ४६२ ॥ तैलं नीत्वा गतो गेहे जिनदत्तो दयापरः । तैलाभ्यंगेन जातोऽह निध्याधिर्मगधाधिप ! ॥ ४६३।। तदा प्रावट नाखवाता था हर एक पक्ष में मेरी नसोंसे रक्त निकलता था। उस रक्तसे कंबलोंको रंगता था एवं विशेषकर रेशमको रंगता था। जिससमय नसोंसे रक्त निकलता था उस समय मुझे भयंकर कष्ट होता था उसके पास यही लानामूल नामका तेल था इसलिये मेरे शरीरके कष्टको वह दूर करता था। मैं भी परवश हो सदा भयभीत होकर उसके घर रहती थी। उससमय प्रतिक्षणा मुझे इस बातका विचार उठता था कि घरमें मैं "तु" शब्द भी नहीं सह सकती थी और यहां में यह भयंकर कष्ट भोग रही हूं। हा कर्मोंकी गति विचित्र है ॥ ४५६-४५६ ॥ sil मेरे भाईका नाम धनदेव है । विशालापुरीके खामीने किसी कार्यके लये उसे पारासर राजाके पास भेजा दैवयोगसे वहांपर में रहती थी उसी मार्गसे वह निकला । मैं उसे दीख पड़ी। मुझे वह घर ले आया और मेरे पिताने मेरे पति सोमशर्माको बुलाकर दे दी॥ ४६०। ४६१ ॥ एकदिन मुनिराजका पधारना यहां पर होगया और मैंने कोपके त्यागका व्रत ले लिया । भाई जिनदत्त ।। क्रोधको इसप्रकार दुःखदायी जान मैंने सर्वथा उसका त्याग कर दिया है ॥४६२॥ रमणी तुकारी - की यह बात सुन दयालु जिनदत्त तेल. लेकर अपने घर लौट आया और हे राजन् श्रेणिक । उस koतेलके लगानेसे मैं नीरोग हो गया ।। ४६३ ॥ उससमय वर्षाकाल चौमासा लग गया था। चौमासे 7 में मैं वहीं टहर गया। जिनदत्तका पुत्र पक्का ज्वारी था इसलिये एकदिन अच्छी तरह सोच विचार PRERE सपा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ СК%EkrEkstremЖү. समायाता-तवाई प्रावृधि खितः। एक्दा जिबदत्तोपि चिंतयित्वा स्वचेतसि ॥४६४ ॥ तरकस्य पुत्रस्य भयाद्रभृतं घट । समीपे र यमिनो भूमि खनिरया चाक्षिपत्तदा ॥ ४६५ ॥ (युग्मं) तं दृष्टयान पुत्रो निष्कास्यान्यत्र क्षिप्तवान् । मुनिदर्श तत्सर्वं विचित्र लोभसंभवं ॥ ४६६ ॥ चातुर्मासे गतं ध्यानी पिजदार महीतलं । पश्चात्स श्रष्टिना तान दृष्टो रजसद्धटः ॥४७॥ तदा विचारयामास मुनिश्वारोऽथ पाने च । तया त्या स्वभृत्यान से प्रेषयामास सर्वतः ॥ ४६८ ॥ एकमार्श्वगतः सोऽपि मां दृष्ट्वा हर्षतो भृशं । नीत्या गेहे समायातोऽलीलपन्मा पुतौति सः ॥ ४६६ ॥ कयामेकां शुभां नाथ ! कथय त्वं ममाप्रतः । भया हाताभिप्रायेण प्रत्यपा| कर जिनदत्तने मरे समीपमें जमीनके अन्दर एक गढ़ा खोदा एवं ज्वारी पुत्रके भयसे रत्नोंका भरा घड़ा उसने लाकर रख दिया ॥४६४-४६५॥ जिनदजिससमय यह घड़ा रख रहा था उसका viपुत्र देख रहा था। जिनदत्त जब चला गया उसके पुत्रने वह घड़ा वहांसे उखाड़ कर अन्यत्र गाढ़ दिया । मैं उस लोभसे जायमान समस्त विचित्र कार्यको चुप चाप देखता रहा था ॥ ४६६ ॥ चौमासेके समाप्त हो जानेपर में वहांसे चल दिया और पृथ्वीतलपर विहार करने लगा। मेरे पीछे सेठ जिनदत्तने जब जमीन खोदी और वह घड़ा न मिला तो वह विचारने लगा. मेरे रलोंके घटको चुराने वाले मुनि हैं या नहीं ? क्योंकि सिवा मुनिराजके अन्य किसीने से भी वह घड़ा नहीं देखा था खैर पता लगाकर उनसे पूछने में कोई हानि नहीं बस उसने चारो ओर मेरे खोजनेके लिये सेवक भेज निये । एक मार्गपर खयं भी मुझे खोजनेके लिये चल दिया।भाग्य bi से मैं मिल गया मुझे देखकर बह बड़ा प्रसन्न हुआ । भक्तिपूर्वक मुझ घर लेगया एवं मुझसे विनय ) पूर्वक इसप्रकार कहने लगा-स्वामिन् ! मेरे सामने कोई शुभ कथा कहिये । मैं उसका अभिप्राय | समझ गया था इसलिये मैंने गंभीरता पूर्वक यह कहा--भाई जिनदत्त ! तुम्हीं कोई कथा कहो! मैं आनंदपूर्वक उसे सुनगा मेरे ये वचन सुन अपने मनके भावोंको व्यक्त करता हुआ जिनदत्त कहने लगा--अच्छा भगवन् ! आप ने मेंसु कहता हूं REYaheपपपपका Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयता दीप्ति सवयः॥४७॥ त्वमेव कथया वात् शृणोमि जिनदत्तक! तदोवाय निजं भायं मृणु त्वं मुनिपावन ! ॥४७॥ वाराणस्यां नपो नाम्ना जितशत्रु र्जितारिकः । तयो धनदसाख्यस्तस्य भामा धनापणा ।। ४४२॥ राजदचा निजां वृत्ति भुनक्त्येव सुखं तयोः धनमित्रधनेन्दूद्वौ पुत्रौ स्तोऽपि जड़ो खितौ ॥ ४७३ ॥ कियत्काले मृतस्तातस्तदा वृत्ति नपोऽगृहीत् । अन्यवैद्याय तां वृत्ति ददौ शास्त्रविदे मुदा ।। ४७४ ॥ तदा तो भ्रातरी चपायां च गत्वा चिकित्सितं । पठित्वा शिवभूतेश्च पाये समागमोत्सुकौ ॥४७॥ आगच्छतोतदारण्ये व्याघ्रमेतौ विलोचनं घिलोक्य धनमित्राख्यःप्रोचाचेति लघु प्रति ॥ ४७६ ॥ भेषज्ञैरंध्रव्याघ्न मो करोमि निर्मलदृशं । निषिद्धोऽपि कमिष्ठेन भैषज कृतवास्तदा ॥ ४७७॥ गतपीडेन व्याघ्रय भक्षिती धनमित्रवाक । कृतम्ना नेष जानति ा पA किसी समय वनारसमें एक जितशत्रु नामका राजा था जो कि वैरियोंको जीतनेवाला था, उसका राजवैद्य धनदत्त था और उसकी स्त्री धनदत्ता थी। राज्यकी ओरसे जो उसे वृत्ति मिलती थी उससे बह सानंद भोग भोगता था। राजवैद्य धनदत्तके धनमित्र आर धनचंद्र नामके दो पुत्र थे, दोनों ही महामुर्ख थे और मस्त पड़े रहते थे। ४६६–४७३ ॥ कुछ कालके बाद वैद्य धनदत्तका IN अंतकाल हो गया। पुत्रोंको मुर्ख जान राजाने उनकी वृत्ति छीन ली एवं बैद्य शास्त्रके जानकार किसी अन्य वैद्यको दे दी। आजीविकाके छूट जानेसे दोनों भाइयोंको बड़ा दुःख हुआ।वे दोनों घरसे निकल दिये। चंपापुरीमें जाकर शिवभूति नामक प्रसिद्ध वैद्यके पास वैद्यशास्त्रका अभ्यास किया। वे पूर्ण विद्वान हो गये तब उन्होंने अपने घर आनेका विचार कर लिया। वहांसे चलकर वे एक जङ्गलसे होकर आ रहे थे कि मार्गमें उन्हें अधा बाघ दीख पड़ा । दयालु धनमित्रने उसे 21 दुःखी जान अपने छोटे भाई धनचन्द्रसे कहा भाई । यह अंधा बाघ बड़ा दुःख पाता है अपनीला दवासे मैं इसे सूझता बना दूं ऐसी इच्छा है। छोटे भाई धनचंद्रने मना की तो भी धनमित्रने नहीं माना और उसे अपनी औषधसे सूझता कर दिया । ४७४–४७७ ॥ जब वाघ सूझता हो गया । तो उस कृतघ्नी दुष्ट बाघने अपने उपकारी धनदत्तको खा डाला, ठीक ही है जो मनुष्य कृतघ्नी होते हैं उनके हजारों उपकार किये जाय तो भी वे उपकारोंको नहीं मानते-अपकार ही करते हैं। EKKEYPREVTarak Sपस Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 кеткеkkkkkkkkkkkkkжек कारसहस्रक ।। ४७८ ॥ एवं श्रुत्वा मुनिः प्राहोष्ठिन भ्रमिताशयं । विश्वासहेतवे नने श्रीतल्या फधिका त्वया ॥ ४७ ॥ हास्तिनागपुरे राजा विश्वसेनोऽस्य भामिनी | वसुकांता तयोः पुत्रो वसुदत्तो गुणप्रियः ॥8॥ एकदा फेन चिद्रा सार्थवाहेन प्राभृतं । रसालफलमाचके पृष्ट गाहा जति किं ॥५४॥ तदोवाच महीशं स आमप्रभृतिरोगहत् । सुधासमंफलं चैतत् नीत्वा राजा खिये ददौ ॥ ४८२ ॥ सा पुत्राय ददौ मोहात् पुरा ददौ नपः। बल्लभत्वात्फलं भेध मालिने अपने दो ॥ ४० ॥ उप्त' च मालिना बीजं तदा तरजायत । किद्विसरैः श्रेष्ठिन् ! प्रादुर्भूतफलं फ्रमात् ॥ ४८४ ॥ विचन इति पाठः लाख गृध्र सपमास्य व गृहीत्वा सति गच्छति । फलस्योपरि सद्विन्दु विषस्य पतितं तदा ॥४८५ ।। ( इति पाठः) विषौप्यपकलं जातं 172 सेट जिनदत्तकी यह बात सुनकर और उसे अपने भांत समझ कर विश्वास उपजानेके लिये मैंने कहा-मैं भी एक कथा कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो हस्तिनागपुरमें एक राजा विश्वसेन था। उसकी स्त्रीका नाम भामिनी था और उससे वसुदत्त | नामका पुत्र उत्पन्न था जो कि गुणोंमें प्रेम करने वाला था ॥४७८-४८० ॥ एकदिन किसी यात्रीने आकर राजाको भैंटमें आमका फल दिया । नवीन किंतु सुन्दर चीज जानकर राजाने |* यूछा-भाई यह क्या है ? उत्तरमें व्यपारीने कहा-राजन् ! यह आम आदि रोंगोंका हरने वाला अमृतके समान आमका फल है । राजाने उसे ग्रहण कर लिया और अपनी प्यारी स्त्रीको दे दिया ॥ ४८१-४८२ ॥ माताका पुत्रपर विशेष स्नेह होता है इसलिये राजरानीने वह अपने पुत्रको दे | दिया। पुत्र पिताको बहुत मानता था इसलिये उसने उठाकर राजाको दे दिया राजाने उसफल को चाकूसे बनाया खाया एवं उसे अत्यंत मनोज्ञ जान मालोको बुलाकर उसे बोनेके लिये दे दिया। मालीने वीज लेकर बगीचे में उसे बोदिया। कुछ दिन बाद वह वृत्त होगया और फल सभी लग आये। एक गीध पक्षी मुखमें सर्प लेकर आकाशमें जा रहा था देवयोगसे एक फलपर विषकी वूद पड़ गई। विषकी गरमीले फल पक गया। मालीने उसे पका जान राजाको आकर भेंट किया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसे धन देकर राजी कर दिया। पुत्रपर अत्यंत स्नेह न कवYavraparkasRY Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर फलं नीत्वा स मालिकः । भूपालं दसयांस्ताव पस्तस्मै ददौ धनं ॥ ४८६ ॥ पुत्राय मोहतो दत्तं तत्कर. तेन मक्षितं । विषेण पतितो मूमौ वृक्ष छेदयतिस्म सः ॥ ४८७॥ भिषगाकारितो राजा तेन ज्ञाता विषोद्भवा । विक्रिया तत्कलं नीत्वा तदा दर्श विर्ष गतं ॥४८॥ 14 तदा राजा महादुःखं चरीतिस्म मानसे । अहो वृक्षो विषन्नोऽयं व्यर्थ चेदपितो मया ॥४८६ ।। भविमृश्य न कर्तव्यमतो गुणिजनैः स्फुट । अपरीक्ष्य न वक्तव्यं विमृश्यकारिमिर्नरः ।। ४६० ॥ पुनः श्रोष्टी मुनि प्राइ कथामेको गु प्रभो ! गंगातरेऽतिविख्यातो विश्व | भूतोऽस्ति तापसः ॥ ४६१ ॥ तसटे कुजर दूष्टया वहतं लघुकं स छ । निष्कास्य मळमानीतो वर्धितस्तेन भावतः ।। ४६२ ।। राजा तं कर वह फल उसने अपने पुत्रको खानेके लिये दे दिया ज्यों ही उसने खाया तीव्र जहरके प्रभावसे वह मूर्छित हो जमीनपर गिर गया। राजाको बड़ा कष्ट हुआ शीघ्र ही उसने वृक्ष कटवाकर फिकवा दिया। पुत्रकी चिकित्सा लिये शीन हो वैद्य बुलवाया। उसने वह मूळ विषजन्य जानली । तत्काल उसी आमका फल मगाया और उससे विषकी वेदना दूर करदो ॥ ४८३-४८८ ॥ ओम फलका यह विचित्र प्रभाव जान राजाको बड़ा कष्ट हुआ एवं वह अपने मनमें इसप्रकार क्लेश IS करने लगा। हाय विषको दूर करने वाला वृक्ष मैंने वृथा खोद डाला।गुणोजनोंको विना विचारे कोई सभी कार्य नहीं करना चाहिये और जो मनुष्य विचार शील हैं उन्हें किसी बातको बिना जांच किये कुछ कहना भी नहीं चाहिये । ४८६-४६०॥ मुनिराजकी यह कथा सुन फिर भी सेठ जिनदत्तने यह कथा कहनी प्रारंभ कर दी · गंगा नदीके तटपर एक विश्वभूत नामका तपखी रहता था। एक दिन एक हाथीका बच्चा नदीमें बहता चला जाता था। दयालु तपसीने उसे निकाला और अपने मटमें लाकर प्रेमपूर्वक पालन पोषण कर बढ़ाया। जब वह बढ़कर सवारीके योग्य होगया तब उसे नगरका राजा ले आया 37 और उसे शिक्षित करनेके लियेअंकुशसे वश करने लगा। हाथीको यह बात दुःखदायी जान पड़ी। बह तत्काल भागकर गंगाके तटपर आ गया। तपस्वीने उसे वहां न रहने दिया। दुष्ट हाथीने क्रोध कर अपने पोपण करने वाले तपस्खीको मार डाला। भगवन् ! कृपाकर बताइये हाथीने जो तपसीके PerKrkekeKYKYKYKYKYKYKYKY.K Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 वेमल ЕКСКККККККККККККККККККЕ सिंधुरं मीत्वा सांकुशं तं यदाकरोत् । तदा पलाय्य मंगायातीरमागतवान् गजः ||४३ निवारितो यदा हस्ती तापसं तमसोमरत् । एतद्युक्तमयुक्तं वा भो मुने ! वद संप्रति ॥ ४६४ ॥ इत्यादिवादसंघातभावं पितुश्व स: । सात्वा कुवेदत्तो हि न्यक्षिपदग्रतो घटे ।। ४६५॥ धिग् द्रव्य पापद नीवं मुनिश्वोरायते यतः । विचार्य पितृपुत्राम्यामिति दीक्षा समाश्रितो ||४६हे श्रेणिक नराधीश ! | कायगुप्ति: स्थिता गमे । अतो व्याघट्य वगेहादागतोऽई बनांतरे ॥ ४१७॥ खेलिन्या सह भूपोऽपि ससम्यक्त्वो गृहागतः । जेनधर्म मयो भूत्वा भुमक्तिस्म सुख सुको ॥४८॥ बभूवः सप्तपुत्राश्च चेलिन्याचेंद्रसूनषः । कुणिको धारिषणश्च शिवहल्लो विहालकः ||४EE जितशत्रुः षष्ठमो जातः सप्तपरक मयते तो सामने आ एवं शो को शनि ॥ ५०० ॥ आरहा सिंधुरं मत्तं प्रावृषि च भ्रमा साथ बर्ताव किया वह युक्त था वा अयुक्त ? ॥ १६१।४६४॥ इत्यादि रूपसे जिससमय सेठ जिनदत्त और मुनिराजका आपसमें वाद विवाद हो रहा था जिनदत्तका पुत्र कुवेरदत्त भी वहां बैट था। मुनिराजके विषयमें अपने पिताके दुष्ट भाव जान शीघ्र ही उसने रत्नोंका घड़ा लाकर रख दिया एवं यह विचार कर कि-“यह द्रव्य पापोंका प्रदान करने वाला है महानीच है क्योंकि इसके संबंधसे मुनिराजको भी चोर होना पड़ता है इसलिये इसे धिक्कार है, दोनों पिता पुत्रोंको संसारसे वैराग्य हो गया एवं दोनोंने दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली। इसी कारण हे राजन् श्रेणिक मेरे कायगुप्ति न थी इसलिये मैं तुन्हारे मन्दिरमें आहार न लेकर सीधा बनको चला आया॥४६५. ४६७ ॥ तीनों मुनिराजोंके मुखसे ये वचन सुन महाराज श्रेणिकका सम्यक्त्व दृढ़ हो गया वे अपनी रामी चेलनाके साथ घर लौट आये एवं साक्षात् जैनधर्म स्वरूप होकर अनेक प्रकारके सुख भोगने लगे ॥ ४६८ ॥ महाराज श्रेणिकके रानी चोलिनीसे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे जोकि साक्षात् | इन्द्रके पुत्र समान थे उनमें पहिला पुत्र कुणिक था दूसरा वारिषेण तीसरा शिव चौथा हल्लक पांचवी विहरूलक और छठा जितशत्रु था। सातवां पुत्र मेघकुमार था और उसका वर्णन इस NET प्रकारहै Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापपपपपपपत्रकपरूखकर म्यहं। बुधरं तं परिक्षाय सचितोऽस्थानराधिपः॥५.१|| एकदा दुर्वला बीय योष' धृत्वा खितस्ततः॥५०२॥ कुस्थित बोक्ष्य | राजानमभयः पृष्टवाम्बिसः! | कुतो दुवैलता देहे त्वदीये स्वर्णसन्निभे ॥ ५०३ ।। तदा प्रोक्त समाफर्ण्य प्रागदीत्सरसं वरः । मा चितां कुछ हे सात ! करिष्येऽदोऽपिलगतः ॥५४॥पवमुक्त्वा गतो रात्रौ श्मसामेऽतिभयंकरे। विलोकमाप प्रेतस्प बङ्गहस्तो महाभुजः ॥ ५०५॥ फणिफूत्कारसंदग्ध अवक्ष परस्परे । ध्यंतरारधसंग्रामहकारावमहाकुले ॥५०६॥ युग्मे । भजनाभाइयो यत्र ददृश्यते दृढद्विजाः । व्याघ्रमल्लकवादिधृतमांसा विधगिताः ॥ ५०७ ।। ज्वल'तोऽनलसंघाता रारटन्त्येव व्यंतरा: । शाकिनी डाकिनी सिद्धो कि जिससमय कुमार मेघ रानी चेलिनीके गर्भमें था उससमय उसे यह दोहला हुआ कि “मैं dहाथीपर बैठकर वर्षा कालमें आकाशमें घं मू" एवं वह उस दोहलेकी चिंतासे दिनों दिन दुर्बल होती चली गई। तथा महाराज श्रेणिकके पूछे जानेपर उसने सारा दोहलेका समाचार कह सुनाया . जिससमय महाराज श्रेणिकने यह दोहला सुना उन्होंने उसकी पूर्ति अत्यंत कठिन समझी इसलिये उन्हें बड़ी चिंता हो गई वे चुप होकर घरमें रहने तो लगे परंतु उस तीव्र चिंतासे उनका शरीर से दिनों दिन कृश होता चला गया ॥ ४६६–५०२ ॥ महाराज श्रेणिकको अत्यंत दुःखित देख। कुमार अभयने पूछा-पूज्य पिता ? तुम्हारा शरीर सुवर्णके समान कांतिमान और पुष्ट था सो वह दुर्बल और फोका क्यों पड़ता चला जाता है । कुमारके ये वचन सुन उत्तरमें महाराज श्रेणिकने वसारा किस्सा कह सुनाया । कुमार अभय बड़े चतुर और गंभीर थे शीघ्र ही उन्होंने मनोहर वचनोंद में कहा-पिताजी! आप रंचमात्र भी चिंता न करें में बहुत जल्दी इस कामको करूगा बस ऐसा कह कर रातके समय वह विशाल भुजाओंका धारक कुमार हाथमें खड्ग लेकर प्रेतोंके देखनेके लिये उस श्मसान भूमिकी ओर चल दिया जो श्मसान भूमि सपोंके फूत्कारोंकी गर्मी से जले हुए वक्षोंकी धारक थी एवं आपसमें लड़नेवाले व्यंतरोंके महाभयंकर शब्दोंसेव्याप्त थी॥५०३-५०६॥ जिनके दांन 1 ढ़ थे जो अन्जन पर्वतके समान महाकाले थे बाघ भालू और गीध आदिको मासोंको ग्रहण जथे एवं फुगरते थे ऐसे महाभयंकर वहांपर सर्प थे॥ ५०७॥ जगह जगह वहां अग्निकी चितायें httpsrchvRNITIN Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ དྲ SAYAYAY प्रहर 'न्नरीकृतमस्वनाः || ५०८ ॥ तमिस्रा तामसी या स्वालोका प्रवर्तते। भक्षयित्वाखिलं विश्वं तारिकास्थिविभूषणा ।। ५०६ ॥ रात्रि धू कारसंरावा पर्वतस्तनमंडिता । ज्वथच्छदाना नूनं राक्षसीव विराजते ॥ ११० ॥ ( युग्मं ) ई कानने विद्वानभयो भीतिवर्जितः । दीपाकुले वटे वैकं विभीकं दृष्टवाक्षरं ॥ ५११ ॥ गत्वा पप्रच्छ कोऽसि त्वं कस्मात्त्वं च समादितः । मालया अपसि किं भो कि नाम दक्षु मे ॥ ५१ ॥ अरीरणइटस्थस्तं शृणु भ्रातर्निगद्यते । विजयार्धोत्तरध्रेण्यां गगनप्रियपत्तनं ॥ ५१३ ॥ तत्राहं वायुवेगारूपो राजे जलतीं थीं । व्यंतर जातिके भूत पिशाच आदि देव जोरसे कोलाहल करते थे शाकिनी डाकिनी भूतिनी और किन्नरियों के भयंकर शब्द होते थे । ५०८ ॥ उससमय उन श्मसान भूमिमें विपुल अन्धकारको धारण करनेवाली रात्रि सां सां शब्द कर रही थी। चांदनीका प्रकाश एकदम रुका हुआ था इसलिये वह रात्रि उससमय ऐसी जान पड़ती थी मानो इसने समस्त जगत्‌को भक्षण कर लिया है और यह तारा रूपी हड्डियोंके भ षणोंको धारण किए हैं। वह श्मसानभ मि साक्षात् राक्षसी थी क्योंकि राक्षसी जिसप्रकार धुकार शब्द करती है उसीप्रकार वह श्मसान भूमि भी धुंकार शब्दोंसे व्याप्त थी। राक्षसीके जिसप्रकार स्तन होते हैं। श्मसान भूमिके भी पर्वत रूपी स्तन विद्यमान थे । एवं राक्षसी जिसप्रकार मुर्दोंको खाने वाली होती है उसीप्रकार वह श्मसान भूमि भी मुर्दों को भस्म करनेवाली थी। इसप्रकारके भयंकर वनमें निर्भीक एवं चतुर कुमार अभय एक घट वृक्षकी ओर चला जिसपर कि एक दीपक टिमटिमा रहा था एवं वहां पर एक निर्भीक मनुष्य दीख पड़ा। कुमार अभय शीघ्र ही उसके पास पहुंचा एवं इसप्रकार बात चीत करने लगा। भाई ! तुम कौन हो ? कहांसे यहांपर आये हो ? यह जो हाथमें माला लिये बैठे हो इससे क्या अपना चाहते हो और तुम्हारा नाम क्या है ? मुझे शीघ्र कहो ।। ५०६ – ५०१२ | वटवृक्ष पर बैठा हुआ पुरुष कहने लगा- सुनो भाई ! मैं अपना सारा वृत्तांत सुनाता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो १२ यता Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमल० 8. ЖұқекеКүкүкүкееkеkЕКЕКТүү राजेष सद्धनः। एकदा मंदिरे नेतु गतश्चैत्यालयान् ध्रुवं ॥५१४॥ यदा विजयास्थिस्य वालकास्पस्य पुत्रिका | नाम्ना सुभ्रदिका दृष्टा सवाई विस्मयं गतः । ५१५ । कामशक्तिनाशुशवालयमारवासासह देष! मानुष्यं सफलीकृतं ॥ ५१६ ॥ खगचक्री हृता मात्वा तनूजां पूरयन्नभः । आजमाम महाक्रोधानानाविद्याविशारदः ॥ ५५७ ॥ सोऽपि मां संगरे जित्वा मम विद्या निहत्य च । नीत्वा सुतां गतो मेहे बभूषाई च भूचरः ॥ ५१८ ॥ द्वादशाब्दसुपर्यंतं मंत्रजाप्यं करोमि च । विद्यार्थ भो तथाप्यत्र सिद्धिर्नाभूद्गुणप्रिय ! ॥ ५१६ ॥ सांप्रतं तु गृहे गंतु कामोऽस्मि गृहमायया । भ्रुत्वा जगाद मंत्रीशस्तन्मत्रं मे समर्पय ॥ ५२० । विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें एक गगन प्रिय नामका नगर है मैं वहांका वायुवेग नामका विद्याधर राजा है। जो कि चन्द्रमाके समान शोभायमान और उत्तम धनसे मंडित हैं। में एक दिन (मेरुवा विजया) पर्वतके चैत्यालयोंकी बंदना करने गया था वहींपर विजयार्ध श्रेणिक स्वामी राजा वालककी सुभद्रा नामकी पुत्री भी आई थी जो कि परम सुन्दरीथी। उसे देखते ही मैं| चकित हो गया। कामवाण मुझे बुरी तरह वेधनेलगे इसलिये वह मैंने बलपूर्वक हरण कर ली। al अपनी प्राणप्यारी बनाई और उसके साथ मैंने अपना मनुष्यजन्म सफल बनाया ॥ ५१३-५१६॥ विद्याधरोंके स्वामी उसके पिता राजा बालकको यह पता लग गया कि में सुभद्राको हर लाया हूँ, वह मारे क्रोधके पजल गया और समस्त आकाशको आच्छादता हुआ मेरी नगरीकी ओर चल 4 ल दिया। वह अनेक विद्याओंका धनी था इसलिये मेरी और उसकी जिससमय मुट मेंट हुई। IS संग्राममें उसने मुझे जीत लिया। मेरी विद्याभोंको नष्ट कर दिया । अपनी पुत्री सुभद्राको घर ले dगया और मुझे विद्यारहित भूमिगोचरी बना दिया ॥ ५१७-५१८ ॥ गुणप्रिय कुमार! विद्यासिद्ध करनेके लिये बराबर वारह वर्षोंसे मंत्रोंकी जाप कर रहा है तो भी मुझे विद्यासिद्ध नहीं हुई है। बस अब में हताश होकर घरकी चिंतासे अपने घर जारहाहूं। वायुवेगकी यह बात सुनकर मंत्रोश अभयकुमारने कहा-भाई! यदि तुम जाते हो तो उस मंत्रको मुझे बता दो। वायुबेगने मन्त्र बता | पएekx Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल. ६१ पाव मोत्या मंत्र' अजापाशु ध्यानासनोदयात् । मभयस्य महाविद्या सिषेधाचिरकालतः ॥ ५२१ ।। तत्प्रभावात् खगस्यापि विद्यासिद्धि रमसरां । तयोस्तदा सुमित्रत्वाचान्योन्य नेमतुस्तरां ॥ ५२२ ।। मृगाक्षों-ज्यपुत्रादिविद्याराज्ययशांसि च । स्वर्गमोक्षसुखान्येव भवत्यदतपुण्यतः॥ ५२३ ॥ गत्वागारेऽभयो धीमांचक मेघ बलान्वितं । राश्याशां पूरयित्वा स घोजिड़न्मंदिरस्य तां ॥५४॥ कियत्यपि गते काले राशी पुत्रमजीजनत् । होइदकानुसारेण नाम्ना मेघकुमारकं ।। ५२५ । श्रेणिकस्य सुतो धीमानभयाख्यो विचक्षणः । बुद्धया गुरुरियो तो देघराजय लीलया ॥ ५२६ ॥ पूरमलापतिः कृष्ण इवाईवरणप्रियः । मंगलो बा महाप्राज्ञो धेर्यगांभीर्यगौरवः ।। | ५२७॥ पट्टराध्याः सुताः सप्त वभुवुः सप्त सागराः । गंभीरा इच सद्बुद्धिगरगाः परमोदयाः ॥५२८॥ एवं पुत्रादिसत्सौख्यलीलया देवरा दिया । दृढ ध्यान और दृढ आसन माढकर कुमार अभय बैठ गये और मन्त्र जपने लगे। पुण्यकी प्रबलतासे थोड़ी ही देरमें उन्हें महाविद्या सिद्ध हो गई। उनके प्रभावसे विद्याधर वायुवेगको भी विद्यासिद्ध हो गई। दोनों आपसमें मित्र हुए और प्रेमपूर्वक दोनोंने आपसमें नमस्कार किया। ठीक ही है पुण्यके उदयसे संसारमें स्त्री द्रव्य पुत्र विद्या राज्य यश स्वर्ग और मोक्षके सुख सभी कुछ प्राप्त होते हैं ॥ ५१६-५२३ ॥ मन्त्र सिद्धकर कुमार अभय घर लौट आये । विद्यारलसे kdमेधकी रचना की उसमें रानीको घुमाकर उसकी आशा पूरी की। एवं घुमा फिराकर उसे राजमन्दिर में लौटा लाये। कुछ दिनवाद रानी चेलिनीके पुत्र हुआ और दोहलेके अनुसार उसका नाम मेघ कुमार रक्खा गया ॥५२४-५२५॥ महाराज श्रेणिकका पुत्र कुमार अभय बड़ा भारी बुद्धिमान । और चतुर था। बुद्धि में वृहस्पतिके समान था और इन्द्रसरीखी लीला करनेवाला था ॥ ५२६।। तथा वह पूरमल्लाके खामीमुझकृष्णदासके समान भगवान अर्हतके चरणोंका प्रेमोथा।मेरे छटे भाइ मंगलदासवा मंगल ताराके समान महा विद्वान एवं धीरता गंभीरता और गौरवका खजाना था ॥५२७॥ महाराणी चेलिनीके सात पुत्र थे जो कि साक्षात् सात समुद्रथे।महागंभीर थे। उत्तम वुद्धिके पारगामी थे और परम उपमाके धारक थे। शेष नागके समान पराक्रमी राजा श्रेणिक उत्तम पुत्र दिव्य सुख | Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिव । गतं कालं न जानाति श्रेणिकः शेषविक्रमी ॥ ५२६ ॥ प्रतापजितमार्तंडो वक्त्रनिर्जितचंद्रमाः । बुद्धया चातिगुरु राजा राजते जितशात्रयः || ५३० || स्वाम्यमात्यसुहृत्कोपदेशदुर्गक्लाम्बितः । सप्तांगमिय सद्राज्यं भुनक्ति मगधाधिपः ॥ ५३१ ॥ स्वर्णसद्वर्ण काश्मीरललामललभालकः । स्वर्णानुविद्धमुक्काम हाराम्बितगलः फलः ॥ ५३२ ॥ स्वर्णाभः स्वर्णदो स्वर्णविभूषितगजाश्चकः । स्वर्णग्राह च शत्रुभ्यः स्वर्णकुंडलमंडितः || ५३३ || मुक्ताफलरदोन्मुतालीनोमुक्तानप्रभः । मुक्ताकांक्षी मुमुक्ष र्णा गुणग्राही सुद र्शनः ॥ १३४ ॥ दविर्द्दनं सुपात्रेभ्यः पतिर्धर्मामृतं परं । सज्जनौघान् समाजहिश्वविवाहितांडनां ॥ ५३५ ॥ सहसुद्वयभूपालकिरीटा और उत्तमोत्तम क्रीडाओंसे इन्द्रके समान थे और जाते हुए कालको तनिक भी नहीं जानते थे । महाराज श्रेणिकने अपने दीप्त प्रतापसे सूर्यको जीत लिया था । मुखकी सुंदरतासे चंद्रमा नीचा कर दिया था । बुद्धिसे इन्द्रके गुरु वृहस्पतिको हरा दिया था एवं समस्त वैरियोंको जीत लिया था इसलिये वे अत्यंत शोभायमान थे । तथा मगध देशके स्वामी वे महाराज श्रेणिक, राजा मन्त्री मित्र खजाना देश किला और सेना रूप राज्यके सात असे वष्टित हो उत्तम राज्यका इच्छानुसार भोग करते थे ।। ५२८ -- ५३१ ॥ वे महाराज श्रेणिक ललाटपर सुवर्णके समान उत्तम वर्णके काश्मीरी चंदनका तिलक लगाते थे । मलेमें सुवर्णके तार में पिरोए हुए मोतियोंका हार पहिने थे । मनोहर थे । सुवर्णके समान कांतिवाले थे । याचकोंको सुवर्णका दान देनेवाले थे । उनके हाथी और घोड़े सुवर्णके भूषणों से भूषित थे । शत्रुओं से वे न्यायानुकूल कारण लेते थे । सुवर्ण कुण्डलों से भूषित थे। उनके दांत मोती सरीखे थे। जिस चीजको छोड़ देते थे-दान कर देते थे फिर उसकी लालसा नहीं रखते थे । मोतियों के समान नखोंकी कांतिसे शोभायमान थे । मो की सदा अभिलाषा रखते थे । जो महानुभाव मोनाभिलाषी थे उनके गुणोंको ग्रहण करनेवाले थे सम्यग्दृष्टि थे। सुपात्रोंको अच्छी तरह दान देनेवाले थे । धर्मरूपी अमृतको सदा पीनेवाले थे । सज्जनोंको सदा प्रसन्न करने वाले थे। जो बात अहितकारी होती थी उसका सदा खंडन करते थे KYKKR Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रपत्र न्वितपादकः । एवं महाविभूत्या राज्यं शास्ति सुरेंद्रषत् ॥ ५३६ ॥ अथैकदा महावीरो विलाचलमस्त । अवफाण जगत्पूज्यः परमानंददायकः ॥ ५३७ ॥ लेोशानुगता श्रीसर्वातिरम विष्टरं । मस्वोइडसल्पी ं सुर्गति विराजितं ॥ ५३८ ॥ (युग्मं ) पंखसह्नित्तिकविंशतिपदाल । गणैर्द्वादशभिर्युकं मानस्तंभैरलंकृतं ( ५३६ ) सरांसि यत्र राजते पानि पराणि च । ससारसवाणि पद्मरागमयानि च ॥ ५३६ ॥ धेनुशार्थं रमतेऽत्र व्याघ्रशावा मदोत्कटाः । नकुलाः सकला नागेः रंरभ्यते स्वभावतः ॥ ५४० ॥ सुचने सर्वजंतूनां गतं कृतपरस्परं जन्मादिकं त्रिधा वैरं जगन्नाग्रप्रभावतः ॥ ५४१ ॥ नकुलाह्या दिजंतूनां गतं कृतपरस्परं । जम्मादिकं त्रिधा बेरं जगन्नाथ प्रभावतः ॥ ५४२ ॥ निर्जला वापिकाः सर्वा भत्यिंभो भारपूरिताः । ससारसचक्रांगपंकजाभरणायिताः ॥ ५४३ || शुष्कवृक्षा विराजते भ्रमद्मरसंकुलाः । लतांतकुसुमैर्ननाः फलैच एवं दो हजार मुकुटवद्धराजा उनके चरणोंकी सेवा करते थे इसप्रकार वे महाराज श्रेणिक देवोंके | इन्द्रके समान बड़ी बिभ तिसे राज्यका पालन करते थे । ५३२ - ५३६ ॥ I एक दिन विपुलाचल पर्वतके ऊपर समस्त जगतके पूजनीक और परमानंद प्रदान करनेवाले भगवान महावीरका शुभ आगमन हो गया । इंद्रकी आज्ञा से कुबेरने उनके समवसरण की रचना की और उस समवसरणकी भूमि नीलमणिकी बनाई जो कि चारों गतिके जीवोंसे शोभायमान थी ॥ ५३७५३८ ॥ वह समवसरण पांच विशाल उत्तमोत्तम भीतियोंसे शोभायमान था । वीस हजार पेंडियोंका धारक था। बारह कोठे और मानस्तंभोंसे शोभायमान था । उस समवसरण के अन्दर पद्मराग मणि के बने हुये सरोबर थे जो कि उत्तमोत्तम कमलोंसे व्याप्त थे और हंस एवं स्यास आदि पक्षियों के शब्दों से शोभायमान थे । ५३६ - ५४० ॥ उस समय वहां गायोंके बच्च मदसे मत्त भी सिंहों के बच्चोंके लाथ ओर नौले सर्पोंके साथ स्वभावसे ही सानंद कीड़ा करते थे पसमें कोई किसीसे | वैर नहीं निभाता था ॥ ५४१ ॥ तीन जगतके स्वामी भगवान जिनेंद्र के माहात्म्यसे संसारके समस्त जीवोंका वा नौला सर्प आदि समस्त जीवोंका जन्म आदि तीन प्रकारका आपसी वर नष्ट हो | गया था ॥ ५४२--५४३ ॥ जल रहित समस्त बावडिये जलसे भरी हुई थीं। हंस स्यास चकवा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिकराविणः ॥ ५४४॥ षट्ऋतूनां फलान्येव कुसुमानि विशेषतः। आजग्मुर्युगपत्काले पीतरागप्रभाषतः ॥ ५४५ ॥ राजत्यप्सरसो वृदं वृ'दारफसमाधितं । मतत्पयोधरामोग देखा हैमवीरुधां ॥ ५४६ । मालाकारः समायातो याटिकायां चिलोकयन् । तदा ददर्शसंभृतां सर्वशोभा फलान्यितां ॥ ५४॥ किमेतदिति चित्ते स स्वकालकुसुमादिक व्यतर्कयचिर प्रांत्या नु माया मृगतृणिका ॥ ॥५५८॥ कियदरं ततो गत्वा यावत्पश्यति कौतुक । दध्वान दुदुभीरावः पुरयन् गगनांग॥ ५४॥ कियत्यपि पुनर्गत्या मार्ग शोमा लुलोक सः । देवदेवता त्रिशत्सहसूध्वजराजिता ॥ ५५० ॥ जयारवैविमानस्थभवद्भिर्मकृतीकृतां । सुरांगनामुखोदुनधि कृतदिङ्मुखां ॥ ५५ ॥ युग्म । एवं दृष्ट्वा निवृत्या नीत्या कुसुमसत्फलं । गत्या राशः पुरस्तात्स मुक्त्वा चान्सुसंभव ॥ ५५२ ॥ और कमलरूपी भूषणोंसेभूषित थीं। जो वक्ष सूखे पड़े थे वे लतापर्यत फल और फलोंसे नम्रीभूत हो गये। भौरे घूम घूम कर गुंजार शब्द करने लगे और उनपर बैठकर कोकिला मनोहर और मधुर आलाप आलापने लगीं समस्त ऋतुओंके फल और फलोंसे समस्त वृक्ष लदवदा गये ॥५४४k५४६॥ देवोंसे व्याप्त जैसी अप्सरायें शोभित होती हैं उसीप्रकार कमलोंसे व्याप्त वहांकी सरोवरी अत्यंत शोभायमान थी तथा विशाल स्तनोंसे कंपित जैसा अप्सराओंका समूह अत्यंतशोभायमान दीख पड़ता है वैसा ही सुवर्णमयी लताओंका समूह भी अत्यंत शोभायमान था।माली जिस समय वनमें आया 2 समस्त शोभा और फलोंसे युक्त जिससमय उसने वहांको जमीन देखी वह मन ही मन विचार करने लगा कि यह समय तो फूल आदिके मानेका नहीं है फिर ये जो फल आदि दीख रहे हैं यह क्या है ? k क्या यह इन्द्रजाल है या मृगतृष्णा है ? तथा इसप्रकार तर्क वितर्क करता जिससमय वह थोड़ी दूर और आगे बढ़ा तो क्या देखता है कि दुदुभि बाजेका उन्नत शब्द हो रहा है जिसने कि अपनी 1 गुंजारले समस्त आकाशरूपी आंगन पूर रक्खा था ॥ ५४७–५५० ॥ उससे भी आगे जब कुछ बढा तो वह मार्गमें महामनोहर शोभा निरखने लगा जो शोभा देवोंके देव इन्द्रो द्वारा की गई। थी। तीस हजार ध्वजाओंसे युक्त थी। विमानमें बैठनेवाले और झंकार करनेवाले देवोंके झंकारों 2 से परिपूर्ण थी एवं देवांगनाओंके मुखोंसे जायमान जय जय शब्दोंसे समस्त दिशाओंको बधिर करने वाली थी ॥५५१-५५२॥ बस भगवान महावीरके प्रभावसे होनेवाले दृश्यको देखकर एवं कुछ हपहपएयहाणYERY Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ५. わわわ अहो नराधीश ? नन्द स्वं करुणालय ! महावीरागमेनैव चिरं जीव चिरं जयं ॥ ५५३ ॥ श्रुत्वोत्थितो महीपालो गत्वा सप्तपदानि व तां दिशं ननमीतिस्म परोक्षविनयान्वितः ॥ ५५४ ॥ हर्षितोऽदासदा राजा वस्त्रालंकारसद्धनं । मालाकाराय भावेन राजराज इवापरः ॥ ५५५ ॥ वेदितु ं गंतुकामः सन्तानंदाख्यं सुदुदुभिं । दापयामास सङ्घस्या पौरसन्नाहसंवृतः ॥ ५५६ ॥ सिंधुरांच मदोन्मत्तानंज नाभान् कियत्सतान् । विचित्रांयरितान्नानारंगराजिविचित्रितान् ॥ ५५७ ॥ दानतोय महावृष्टिपं काकुलितभूतलान् । स शृंगारितचान् राजा विद्युद्यमान् भृशं ॥ ५५८ ॥ षट्त्रिंशज्जातकानश्वान् खांभोभूमिगतीन् दृढान् । स्वपुढं गामिनो राजा भूवयामास सोऽरि | सुन्दर फूल और उत्तम फल लेकर वह महाराज श्रेणिकको राजसभामें गया । वनके अन्दर जो बेॠतु में शोभा हुई थी सारी कह सुनाई एवं गद्गद बाणीसे इसप्रकार कहने लगा- महाराज ! आपके उद्यानमें भगवान महावीर आकर विराजे है । उनके आगमन से आप नादो चिरकाल तक जीओ और चिरकाल तक जयवंते रहो ? वनपालकी यह आनंद प्रदान करनेवाली बात सुनकर महाराज श्रेणिक एकदम सिंहासन से उठे । जिस दिशा में भगवान महावीर स्वामी बिराजमान थे उस दिशामें सात पेड़ आगे बढे और बड़े विनयसे उस दिशाको परोक्ष नमस्कार किया। महाराज श्रेणिकके आनंदका उस समय ठिकाना न था इसलिये जिसप्रकार कुबेर निःसं कोचरूपसे दूसरेको धन प्रदान करता है उसप्रकार महाराज श्रेणिकने भी बड़े उत्साहसे मालीको उत्तम वस्त्र अलंकार और विपुल धन प्रदान किया ॥५५३ - - ५५६ ॥ भगवान जिनेन्द्रकी बंदनाकी अभिलाषा चित्तमें उछलने लगी इसलिये उन्होंने शीघ्र ही बंदनाकी घोषणा करनेके लिये नगर में आनंद भेरी दिवा दी एवं पुरवासी लोगों के साथ चलनेके लिये उद्यत हो गये। उससमय महाराज श्रेणिकने कईसौ हाथी सजवाये जो कि मदोन्मत्त थे अन्जन पर्वतके समान काले थे । अनेक प्रकारकी भूलोंसे शोभायमान थे । नाना प्रकारके रंगोंसे चित्र विचित्र थे एवं करते हुये मदरूपी जलकी महावृष्टिसे उन्होंने समस्त पृथिवीतल कीचमयकर दिया था इसीलिये वे हाथी आकाशमें FRE तपाय तय ययय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० इ ANYAYA करिता ॥ ५६० ॥ वयम् दिङ्मुखाश्व चामराजितः । निर्ययौ पटध्वानमंत्रितु संभूः । किमि रंजयन् लोकसंघकान् । जयान्तात् सपुलिस: ॥ ५६१ ॥ रंगवामा | सम्मति जिमं ॥ ५६२ ॥ मनस्तंभ विलोकशशु दूस्तो नरनायकः । गजानुत्तीर्थं भौतिeम साप्टांग छत्रवर्जितः ॥ ५६३ ॥ निःसहोति पठन् राजा विवेश समवसृतिं । सुगभिसोः समुल्लं पश्यन् शोभां गतोऽतरे ॥ ५६४ ॥ विष्टरस्य महाबोरं तेजसा व्याप्तदिक् । त्रिः प्रक्षिणिकां कृत्वा नमान काश्यपोप्रति ॥ ५६५॥ अयित्वाथ संस्तुत्वा निविष्टो नरकोष्ठ के । संदृष्ट्वा हि महीपालो जिनं विजलीसे युक्त काले काले मेघ सरीखे जान पड़ते थे । इसी प्रकारको जातिके घोड़े सजाये गये। जो कि अपनी कलाओंसे आकाश जल और स्थलपर चलनेवाले थे । दृढ थे और ओरेवी चाल चलनेवाले थे। महाराज श्रेणिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि थे इसलिये उन्होंने समवसरण की जमीनपर्यंत | रंग विरंगे कपड़ोंको बिछाकर चलनेका मार्ग सजाया था । ५५७-५६१ ॥ भगवान महावीर जिनेंद्र की वंदनाके लिये महाराज श्रेणिक चल दिये, जिससमय ये चले अपने वाजोंके शब्दोंसे समस्त दिशायें उन्होंने शब्दायमान कर दीं। जीओो नादो इत्यादि शब्दोंसे समस्त लोक उन्होंने आनंदित कर दिया। समस्त पुत्र और रानी वेलिनीको अपने साथमें ले लिया । चारो प्रकार की। सेना उनके साथ चलने लगी। उनके शिखर छत्र फिरता और चमर दुरते जाते थे एवं दुदुभि बाजे बजते जाते थे । बनमें पहुंचकर जिससमय राजा श्रेणिकको मान स्तंभ दीख पड़ा वे तत्काल हाथीसे उतर पड़े । छत्र चमर आदि विभूति छोड़ दी एवं दूरसे ही उसे साष्टांग नमस्कार किया || | ५६२--५६४ ॥ समवस्त्ररण के पास लाकर “निःसहि निःसहि निःसहि" इसप्रकार तीनबार निःसहि शब्दका उच्चारण करने लगे । समवसरण के भीतर प्रवेश किया एवं ऊंची ऊंची भीतोंको उलांघकर वे समवसरणकी शोभा निरखने लगे ।। ५६५ ॥ समवसरण के मध्यभागमें भगवान महावीर जिनेंद्र विराजमान थे जिनके कि प्रखंड लेजसे समस्त दिशायें जगमगा रहीं थीं । राजा श्रेणिकने उनकी जित् ।। ५५६ ॥ मासमग्रसतेः ASS पत्रक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शमप्रदं शिवं ।। ५६६॥ स्वभवाबलिको शुत्वा तूष्णीत्वं संस्थितो यहा । अभयाख्यो जिन नत्या पप्रच्छ स्वभयावलि'। ५६७ ॥ शृणु वत्स! मवान स्वीयानकथयामि समासतः । द्विज एको याति वेदाभ्यासार्थ श्रावण च ॥५.६८ कियन्मार्गे द्विजो गच्छन् दृष्ट्वा चाभिमुख यर्ट। परीत्य भावयुत्तः सन्नमाम विनयान्वितः । १६ ॥ श्रावको हि तदा स्मित्वा नीत्या पत्राण तत्तरोः । स्पादं च परिमृज्य क्षिप्तवान् काश्यपीतले ॥ ५.०॥ दृष्ट्वा द्विजो महाकोधावचीत् श्रावक प्रति । विकषि न जानासि चित्र हि कष्टद ॥ ५७१ ॥ श्राधफोऽपि द्विजं प्राह यदीय शुद्धदेयता । तर्हि मम बिनाशं च करप्यत्येव नान्यथा ॥ ५७२ ।। द्विजो विशं पुनः प्राहक तीन प्रदक्षिणा दीं। भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। पूजाकी। पूजाके अंतमें स्तुति की। लनु कोठेमें जाकर विराज गये। अनेक प्रकारसे कल्याणोंको प्रदान करनेवाले और साक्षात् नोच स्वरूप भगवान जिनेंद्रसे अपने पूर्वभव पर्छ । भगवान ने अपनी दिव्य नसे उनका वर्णन किया। सुनकर राजा श्रेणिक शांत होकर अपने स्थानपर स्थिर होकर बैट गये । राजा श्रेणिको लाल कुमार अभय भी गये थे उन्होंने भगवान जिनेद्रको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और विनयपूर्वक करने पूर्वभवोंको पूछा । भगवान जिनेंद्र भी यह कहकर कि-वत्स ! मैं संक्षेपसे तुम्हारे पूर्वमय कहता FE हं, । उसके पूर्वभव वर्णन करने लगे घेणातड़ागपुरका निवाली एक ब्रह्मण वेदाभ्यास करने के लिये चला। देवयोगसे उसके साथ साथ एक श्रावक भी चल दिया। चलते चलते कुछ दूर जब वह विप्र पहुँचा तो भाग उसे एक [] चड़का दक्ष दीख पड़ा । ब्राह्मणने भक्तिभावसे उसकी प्रदक्षिणा दी और मस्तक झुकाकर नमस्कार किया। ब्राह्मण के साथ में जो श्रावक गया था वह जैनधर्मका परम भक्त था। ब्राह्मण ने जो कार्य किया था उसे देख वह मुसकराने लगा। वृक्षके थोड़े पत्ते तोड़ लिये। उनसे पैर पोंछ और उन्हें जमीन पर डाल दिया ॥ ५६६-५७१ ॥ श्रावककी यह चेष्टा देख ब्राह्मण अपना क्रोध न संभाल सकार र शीघ्र ही उसने श्रावकसे कहा--अरे भाई! तुम क्या करते हो ? क्या तुम नहीं जानते कि देवकी ! अवज्ञा महा कष्ट प्रदान करने वाली है। उत्तर में श्रावकने ब्राह्मणसे कहा--भाई ! यदि तुम्हारा REFEYSERIYAY Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ वो भवतामिति । अनऽस्ति द्विज ! मे देवः किमर्थ पृच्छसि त्वकं ।। ५७३ ॥ वसित्वा वाङबोऽवोचत् परिभूमिपद गाय देवं नेप्या. म्यहं तद्वत परीक्षार्थ न शंसयः॥ ५७४॥ कियत्यपि ततो दुरे गत्वा स श्रावकोप्तमः। कपिकच्छलतांदू-ट्वा नत्वावप!ि ' ॥ ५७५ ॥ देयोऽयं सकलो विप्र! मदीयो भक्तिभिः सदा । इति श्रुत्या गृहीत्वा नत्पत्रादीनि विनादतः ।। ५३ ॥ मकाये परित्या चलत्येव यदा तदा । खर्जपीडाकुलो भूत्वा पपात धरणीतले । ५७७ ॥ तदासौ थावकं प्राहत व प्रत्यक्षदेवता । प्रतियधन बिनस्प देवमोय निराकरोत् ॥ ५७८ ॥ मार्गे गच्छस्ततः प्राप्त गंगातीर्थ ततो द्विजः । भागीरथी हरिविवाः इत्युक्त्वा पनितांतरे ।। १ । तोऽमानीत्पुनः श्राद्धो द्विजं मिथ्याशं भृशं । किमेतस्य महात्न्यं भो तीर्थस्यावगतं वद ॥ ५८० ॥ वभाण श्राबकं विप्राः पवित्रयति । यह देव पस्त्रि और शक्तिमान होगा तो मेरा विनाश करेगा और यदि यह कुछ न होगा तो कुछ नहीं कर सकता । श्रावककी यह बात सुन वह ब्राह्मण उत्तर तो न दे सका केवल यही उसने पछा* कि भाई : तुम्हारा देव कौन है ? उत्तरमें श्रावकने कहा- मेरा देव आगे है। तुम मेरे देवको क्यों पूछते हो ? हंसकर ब्राह्मणने उत्तर दिया जिसप्रकार तुमने मेरे देवका तिरस्कार कर उसकी परीक्षा की है उसप्रकार में भी तुम्हारे देवका तिरस्कार कर उसकी परीक्षा करुगा इसमें जरा भी संदेह मत समझो। कुछ दूर चलकर एक कपिकच्छ (खुजली करने वाले ) वृक्षकी वेल देखी । उसे देख कर श्राक्कने कहा प्रिय विप्र ! मेरा सबसे उत्कृष्ट देव यह है भक्तिपूर्वक सदा इसकी पूजा करनी चाहिये । सुनकर ब्राह्मणने हंसकर उसके पत्ते तोड़ लिये। उनसे अपना शरीर पोंछ नगला और जल्दी जल्दी आगे चल दिया बस आगे थोड़ी ही दूर पहुंचा था कि उसका सारा | शरीर खुजलीसे व्याकुल हो गया एवं वह दुखित हो जमीनपर गिर गया तथा श्रावकसे कहने , Kलगा भाई ! तुम्हारा देवता सञ्चा है इस प्रकार प्रतिबोध देकर श्रावकने विपके अंदर जा देव मूढ़ ताका भाव विद्यमान था वह दूर कर दिया और वे दोनों आगे चलने लगे ॥ ५७६० -५७६ ॥ आगे चलकर गंगा नदीका तीर्थ पड़ा। भागीरथी हरि और विप्र, ऐसा उच्चारण कर वह ब्राह्मण गंगामें कृढ पड़ा। मिथ्यात्वी ब्राह्मणकी यह चेष्टा देखकर श्रावकने पूछा-भाई ! इसती का वापर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रल. मादृशान् । पुनर्ददाति बैकुपंचहत्याविनाशक १८ ॥ श्रुत्यासी श्रावको भक्ति कामो हि तत्तटे स्थितः । भुक्त्वोच्छिर जमिहत्या | तहसमर्पितं .५८२॥ सदायचद्विजोहा हा भोजन में कार्य प्रायः प्राह है विप्रः कथं नाति जवादिति ॥ ५८२ | लदा भूदिवस ITह भोभुनम्मि कथं वद । त्वयोच्छिष्टं पदयं च साक्षाच्ण पापिना ॥५८ अब्रवीद्बामण सोऽपि यतावित्रिः ।। तज लैंमिश्रित धान्न भोक्तव्य कया ॥१५॥ इत्यादिहेनुभिः कृत्या प्रतियोधं गतो द्विजः । तं गुरु प्रतिपत्राशु जनतत्वं पपाठ सः । गतौ हि ततो मागभ्रांच्या भ्रष्टपश्चौ तदा । जातौ गतौ महादव्यां संभृताया कुजतुभिः ।। ५८७ ॥ तत्र सन्यम्य ME चणिजा सार्धं विधो मृतस्तदा । पूर्वस्वर्गे समुद्धतः सुरासुरनिषितः ।। ५८८ ॥ ततश्चयुत्यास्य राज्ञश्च पुत्रो जातोऽभयायकः। विपक RENERA Ke तुमने क्या गहरा माहात्म्य समझ रक्खा है उत्तरमें ब्राह्मणन कहा-- भाई श्रावक : यह तीर्थ मन सरीखे मनुष्योंको तारक है फिर बैकुण्ठको देता है जहांपर कि गो हत्या आदि फच हत्याओंसे । छटना होता है । ब्राह्मणकी यह बात सुन भोजन करनेकी इच्छासे श्रावक उसके तटपर बैठ गया। जब खा चुका और जो जटा बच रहा वह जलमें मिलाकर उसे समर्पण कर दिया अर्थात् गंगामें क्षपण कर दिया । श्रावककी यह चेष्टा देख ब्राह्मण कहने लगा हा हा तृने मेरा भोजन अप-10 वित्रकर दिया उत्तरमें श्रावकने कहा-भाई विप्र! तुम जल्दी क्यों नहीं खा लेते ? ब्राह्मणने कहाबता मैं खाऊं कैसे साक्षात् शद्र स्वरूप पापी तुने सबका सब जूठा और अपवित्र कर दिया उत्तरमें | श्रावकने कहा भाई ब्राह्मण जो जलस मिश्रितधान्य तुम्हें पवित्र बना सकता है उसे तुम खाते क्यों नहीं हो । मेरे जठं और अपवित्र करनेपर वह जूटा और अपवित्र नहीं माना जा सकता । इत्यादि बहुतसी युक्ति प्रयुक्तियोंसे श्रावकने ब्राह्मणका मिथ्यात्व भगा दिया। ब्राह्मणने भी उस श्रावकको ko अपना गुरु माना और उससे जैनधर्म पढ़ा। वहांसे आगे फिर भी वे दोनों चल दिये आगे जाकर वे रास्ता भूल गये और एक ऐसी महावनी में जा निकले जो क्रूर जीवोंसे भरी हुई थी। दोनोंने वहांपर सन्यास मरण किया। विप्र मर कर पहिले स्वर्ग में अनेक सुर असुरोंसे सेवित देव हो गया ayay Naya Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प 长製品版型<然后点点长需学会”、“25 अस्मिन् भवे सास्तप्त्वा यास्यसि परमं पदे ॥ ५८६॥ अथासौ श्रेणिको धमान् वर्धमान जिनं शिवं । नत्वाबोचत्तदा नूनं पुडुमली कृत्य हस्तयोः ॥ ५६० हे नाथ जगतां त्राताणाम्भोधे जगत्प्रभो! । सुरासुरनराशसंस्तुन ! शिवपद! ६ ॥ ज्ञानरूल! तमोहारिन मोहरे !, काम ! जिन ! हिच्छाग्यहं देव ! सादगदध्यवांछित ।। ५६२ ॥ श्रीमद्विमलनाथस्य पुराणं हृदयंगम । श्रेतुमच्छाम्य नाथ! च्याना एयनाशनं ।। ५३॥ तरसमये वला जातो धर्माख्यो धर्मतत्परः । स्वयंभूश्चापि संजातः शवोत्यंत विक्रमः ॥ ५४॥ प्रतिचक्री महान् जसं नाना मधुरिति स्मृतः । पतंग किंधलं श६ कथयात्र कृपामय || ५६५॥ संजयंत ध्यानं विश्नो ज्ञानस्य कारण । तद्गपो यामिनी जातो तेषां वृत्तं चद प्रभो ॥ ५६६।। मुनीना दानिन नाथ ! ध्यानिनां च भवाशां । प्रिय कुमार ! वहांसे चयकर तुम राजा श्रेणिकके अभयकुमार नामके पुत्र हुए हो और तुम इस भवसे तप तपकर नियमसे परम पद मोक्ष प्राप्त करोगे॥ ५८०-५६० ॥ जिससमय कुमार अभय 2 P: के पूर्वभवोंका वर्णन समाप्त हो चुका उससमय राजा श्रेणिकने साक्षात् कल्याण स्वरूप भगवान वर्द्धमानको नमस्कार किया एवं दोनों हाथोंको जोड़कर इसप्रकार भक्तिपूर्वक कहने लगे :ही स्वामिन् ! आप तीनों जगतके रक्षण करता हो । गुणोंके समुद्र हो। तीनों जगत के जालोर आपके चरण कमलोंकी बड़े २ सुर असुर और मनुष्यों के स्वामी स्तुति करते हैं । सेवकोंको मोन प्रदान करने वाले हो । ज्ञानस्वरूप हो । अज्ञान अंधकारको नाश करनेवाले हो । मोहरूपी राको हरानेवाले और कामदेवको भस्म करने वाले हो। भगवान् ! जिस वातके विनयपूर्वक जाननेकी 9 भव्योंको इच्छा है मैं उसे ही पूछना चाहता हूँ।प्रभो ! भगवान विमलनाथका पुराण अत्यंत मना हर है और भव्यजीवोंके पापोंका नाश करनेवाला है इसलिये मैं उसेही सुनना चाहता है। भगवान विमलनाथके समयमें धर्म नामका बलभद्र हुआ है। स्वयंभू नामका नारायण हुआ है और मधु नामका प्रतिनारायण हुआ है इनका कितना बल था कितनी शूरवीरता था, हे कृपानाथ ! आ कृपाकर कहें ॥ ५६१-५६६ ॥ मुनिराज संजयंतका तय ध्यान उनपर जो उपसर्ग पड़ा था वह पYahaERY Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - शुराणा शीलतानां चक्रिणां प्रतिक्रिणां ॥५६॥रांग मनोजाना कयां कात्याणभाजनं । श्रोतुमिच्छति ते नव्या रागद्वेषपरामुखाः ॥५६८ ॥ अतः पृच्छाम्यहं देव! नानार्य स्वस्थ मतः मासम्मनपोशाला मुसाविति ५६ || श्रेणिको याचयित्वेति तूष्पीत्वं स्थितास्तदा । सपुत्र जिनीयुक्तः क्षाग्रिकोत्पन्नभावतः ॥ ६००॥ सुरनरपतिपूज्यं वर्धमान जिनेश सकलकलजनानां पापहंतारमेव । कनकनिषलकांति विपर भासमानमिहरविवनिलांत अंणिकायं नमामि ॥१॥ Karyakradhar Ras और उनके ज्ञानका कारण कहें तथा मुनिराज संजयंतके गणमें उन्हींके समान जो दो मुनिराज | हुए हैं उनका भी वृत्तांत प्रतिपादन करें क्योंकि हे भगवान् ! जो महानुभाव मुनि हैं। दानो हैं| | आपके समान ध्यानी हैं शीलवान शूरवोर हैं । चक्री ( चक्रवर्ती और नारायण ) प्रतिनारायण - चरम शरीरी और कामदेव हैं उनकी कथा कल्याणोंकी करनेवाली है जो महानुभाव इनको कथाको सुनना चाहते हैं वे भव्यजीव हैं और रागद्वषसे विमुख हैं ॥ ५६७–५६६ ॥ इसलिये हे देव ! हे सर्व जिनेंद्र ! मैंने अपने ज्ञानको वृद्धि के लिये और जितने भी आसन्न भव्यजीव हैं उन्हें बंद उपजाने के लिये भगवान विमलनाथ आदिके चारित्र पूछनेकी इच्छा प्रगटकी है। अस इसप्रकार अपनी जिज्ञासा प्रगट कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि महाराज श्रेणिक अपने पुत्र और महारानी चेलिनी के साथ शांत होकर अपने स्थानपर बैठ गये ॥ ६००–६०१॥ या अन्धकार अंहसंगलकी कामना करते हुए कहते हैं कि जो बर्द्धमान भगवान सुरेंद्र और नरेंद्रों से पूजित है। कोंके जोतनेवाले महानुभायॉमें मुख्य हैं। समस्त प्राणिवोंके पापोंको नष्ट करने में पाले हे सुवर्ण सम्रान मनाहर प्रभा धारक है। सिंहासनपर देदीप्यमान है। अपनी उत्कट प्रभासे रविवनितासूर्यको प्रभाकी भी फीकी करनेवाले हैं और राजा श्रेणिककी प्रार्थनाको परो| करने वाले हैं उन श्रीबद्धमान खामाको मैं नमस्कार करता हूँ। YKY-RAKEY ARY Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्रीचिमलनाथपुराणे ब्राह्मष्णदासविरचितऽनुमान श्रीमंगलदास सारे सामान्य महाराजश्रीश्रेणिककृत प्रश्नो नाम प्रथमः सर्गः ॥१॥ इसप्रकार अपने छोटे भाई नलं श्रीमंगलदासको सहायतासे कृष्णदास द्वारा चिरचित श्रीविमलनाथ पुराणमें महाराज श्रेणिक द्वारा किये गये प्रश्नका वर्णन करनेवाला पहिला सर्ग समाप्त हुआ। दूसरा सर्ग। पुराया पुरुषो जीयाज़गच्छास्ता शिवप्रदः । मोहांधकार मार्तडः कोटिसूर्याधिक प्रभः ॥ १॥ अथैधं भगवान दिव्यध्वनिक्षीरार्णवस्तदा । जगर्ज भगवद्धतापूर्णरात्रीशवंदितः ॥ २ ॥ मुख्यमततरंगात्मा दर्शनशानसेतुयान् । चारित्रभो भव:भंसी महाधन इवापरः ॥ ३॥ तीनों लोकके शासन करने वाले. जीवोंको कल्याणके कर्ता मोहरूपी अन्धकारके लिये सूर्य स्वरूप एवं करोड़ों सूर्योकी प्रभासे भी अधिक प्रभा धारण करनेवाले पुराण पुरुष भगवान तीर्थ कर ॥ सदा जयवंते रहें ॥ १॥ जिसप्रकार चंद्रमाके संबंधसे समुद्र उबलता और गर्जना है उस प्रकार भगवानके मुखरूपी पूर्ण चंद्रमाके संबंधसे उनका दिव्य ध्वनिरूपी क्षीर समुद्र गज ने लगा ॥ २॥ वह दिव्य ध्वनि साचात् महामेघ सरीखी जान पड़ती थी क्यों कि जिसप्रकार मघ जलों I की नाना प्रकारको तरंग स्वरूप होता है उसीप्रकार वह दिव्य ध्वनि भी स्यादस्ति स्यान्नास्ति आडि सप्त अंग वरूप थी अर्थात दिव्य ध्वनिसे जो भी उपदेश होता था वह सप्तभंगो वाणीके 9 अनुसार ही होता था.। महामेघ जिसप्रकार सेतु (पुल) विशिष्ट होता है अर्थात् नदी आदि स्थानों को पार करने के लिये महामेघके समय खास कर पुलोंका उपयोग किया जाता है उसीप्रकार भगशन महावीरकी दिव्य ध्यान भी दर्शन ज्ञानरूपी सेतुसे युक्त थी अर्थात् सम्यग्दर्शन और सभ्य पाप Patra FRAPPERFkchrRETRY FARMER Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु पृष्ट त्वया भूप : सज्जनानां मुख्य प्रदं । यस्य श्रवणतो भध्या सव्रता यांति मोक्षतां ॥४॥ च्छोविमलनाथस्य पुराण विमल श्रवणोत्सुकः । तर्हि चंद्र चकोरो धा भूत्वा त्वं सादरं शृणु ॥ ५ ॥ अधैव धातकीखंडो वर्ततेऽनेकवस्तुभृत् । पनवेडूर्यनीलाभरन Ird स्वर्णादि स्थानिकः ॥ ६ ॥ चतुर्लक्षामयोजनकैर्विस्तारतां गतः । कुण्डलाकृति कालाब्धि बेष्टितोऽनेकचित्रधृतू ॥ ७ ॥ तम्य पश्चिनका ज्ञानके स्वरूपके वर्णनका उसमें विशेष संबंध था। महामेघमें जिसप्रकार जल रहता है भगवानकी दिव्यध्वनि भी चारित्ररूपी जलसे परिपर्ण थी अर्थात दिव्यध्वनि द्वारा वर्णन करनेका खास लक्ष्य सम्यकचारित्र था । एवं महामेघके समय जिसप्रकार संसार उलट पुलट हो जाता है उस प्रकार वह दिव्य ध्वनि भी संसारको उलट पुलट--विच्छेद करानेवाली थी उसके संबंधसे लोग संसार के नाश करने के लिये प्रवृत्त होते हैं ॥३॥ महाराज श्रेणिकके प्रश्नके उत्तरमें भगवान महावीरने अपनी दिव्य ध्वनिसे कहा हे राजन ! तुम सज्जन पुरुपोंको सुख प्रदान करनेवाले हो इसलिये तुमने जो प्रश्न किया है वह बहुत ही उत्तम किया है क्यों कि तुम्हारे प्रश्नके उत्तर में जो भी कहा जायगा उसके सुननेसे भव्य जीव समीचीन व्रतोंसे भूषित होंगे और उन व्रतोंके संबंधसे मोक्ष प्राप्त करेंगे ॥१॥ नरपाल ! यदि तुम्हें भगवान विमलनाथ के चारित्र सुननेकी विशेष उत्कंटा है तो चकोर पक्षी जिस प्रकार चंद्रमाकी ओर इकटक दृष्टि लगाता है उसी प्रकार तुम भी विमलनाथके चरित्रकी अोर दृष्टि | लगाकर उसे ध्यानपूर्वक सुनो मैं उसका वर्णन स्पष्टरूपसे करता हूं: इस पृथ्वीपर एक धातुकी खंड नामका द्वीप है जो कि अनेक मनोज्ञ यस्तु अांका का भंडार है । नीलकमल और बैडूर्य मणियोंकी प्रभाका धारक है । रस और सुवर्णकी PS अनेक ग्बानियोंसे शोभायमान है । चार लाख योजन प्रमाण चौड़ा है। कुण्डलके समान गोला-! कार है । कालोदधि समुद्र चारों ओरसे उसे घरे हैं एवं वह अनेक क्षेत्रोंका धारण करने वाला है। TYPEPPERKARYAYVAY Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्ठायां मेथूनद्धभः । चतुरशोतिसहसूश्च योजनेरुन्नतः स्फुटं ॥ ८ ॥ गगनं जिगमिषुः स्वर्ग' नु धरित्री स्ततोऽथवा । शांतकुम्भ | मयम्नमो गगनोद्वार हेतुतः । चतुर्वनात्मको लेख कदंबकश्षेिचित्तः । सुरस्त्रीणां कुचायात कठिनोकतसत्तटः ॥ १०॥ अपसरो रति सौगंन्युद्गारसंटीनपटादः। सुरजाते जिनेंद्राणां नादहश्चत्य मंडितः ॥२२॥ चतुर्भिकलापकां गस्य पश्चिम दिग्भागे नद्याः सदक्षिणे तटे । महापद्मास्यदेशस्य मध्ये सनीय खंडक: 221 साये मते टायो विषयो रम्यकावती । नानाशोमासरः पसांदृष्टयो मलामपि ॐ ॥ १३ ॥ गोपुरोधासिशालानि यत्र भांति पुराणिच स्वर्णहाणि प्रौढानि विद्वज्जन कुलानि च ॥ १३ । यव खेटा विराजते सरित्यIAS इलो धातकी खंडकी पश्चिम दिशामें मेरू पर्वत है जो कि सुवर्णके समान प्रभाका धारक और Ka चौराणी हजार योजन ऊंचा उठा हुआ है सो ऐसा जान पड़ता है मानो यह स्वर्ग जानेका इच्छुक है अथवा पृथियोरूपी स्त्रीका उन्नत कुच है वा निराधार आकाश नोचे गिर न पड़े इसलिये उसे | रोक कर रखनेवाला सुवर्णमयी स्तभ है। यह मेरु पर्वत नंदन वन आदि चारों वनस्वरूप है। देवों के समूहले समूह यहांपर विहार करते हैं । इसके तटभाग देवांगनाओं के घटनोंसे अत्यंत कठिन है। देवांगनाओंकी रतिसमयकी सुगंधिमें मत्त होकर सदा भोरें उसपर भुन भुनाट करते रहने है. 12 अनेक डेबॉसे नाना प्रकार पजनीक है और भगवान जिनेंद्रोंकी प्रतिमाओंसे मंडित हैं ॥ ५-११ ॥ उसो मेरु पर्वतकी पश्चिम दिशामें नदोके दक्षिण तटपर महापद्म देश के ठीक मध्यभागमें तीसरा खंड है उस तीसरे खंडके मध्यभागमें एक रम्यावती देश है जो कि महामनोहर हैं। अनेक प्रकार की शोभाओंका स्थान है एवं मनुष्य और देव सवोंके लिये एक दर्शनीय पदार्थ है ॥ १२–१३॥ इस रम्यकावती देशके गोपुर-सदर दरवाजोंसे चम चमाते हुए प्राकार और पुर अत्यंत शोभाय मान जान पड़ते हैं। धनिकोंके घर सुवर्णमयी बने हुए हैं और वहां के विद्वान लोग अनेक प्रकारकी विद्या और कलाओं में प्रौढ़ हैं ॥ १४ ॥ इस रम्यकावती देशके खेट चारों ओरसे नदी और पर्वतोंसे थेष्टित महामनोहर जान पड़ते हैं और कर्बट चारों ओरसे पर्वतोंसे अत्यंत रमणीक दीख 許雅新院将許許陀光新院资深院新店略 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचप पतवेष्टिताः । कर्वटानि विर्भात्येय परितः पर्वतरपि ॥ १५ ॥ वृत्यैव वेष्टिता यत्र ग्रामा भांति पदे पदे पर्वतोपरि संस्पानि बाह मानि विभांति च ॥ १६ ॥ यत्र राजतके द्रोणा धनद्रोणा इवापरे । पयोराशिधिता वाद चिडुमावलिरंजिता ॥१७॥ शुकचंचुहरित्यंग वशी ः कषुरितानि च । शालिवप्राणि राजते कामस्य सद्गृहा इव ॥ १८॥ इक्षुशोभा हि यत्रैध लोचन वासिनी परा । पदे पदे लस. त्येष स्यर्गिणामापि दुर्लभाः॥ १६ ॥ हंससारचक्रोणि मितानि सरीस च । स्वच्छतोयादि सोते नानावृक्षतटानि वै ॥ २० ॥ 9 पड़ते हैं ॥ १५॥ जिनके चारों ओर बाड़-परकोट खिचे हुए हैं ऐसे गांव जगह जगह वहांपर सुंदरतासे बसे हुए हैं जो कि नेत्रोंको अत्यंत प्यारे जान पड़ते हैं तथा पर्वतोंसे भी ऊंचे रथ आदि बाहन उस देशकी अत्यंत शोभा बढ़ाते हैं ॥ १६ ॥ उस देशके द्रोणा--जलके भरे तालाब धनके I खजाने सरीखे जान पड़ते थे क्योंकि जिसप्रकार तालाब “पयोराशिश्रिताः" पय--जलकी राशिसे । शोभायमान थे उसोप्रकार धनके खजाने भी पय -रत्न आदिकी राशिसे शोभायमान थे । जिस ! प्रकार बालाब 'विद्रुमावलिरंजिताः' विद्रुम--वृक्षोंकी पंक्तियोंसे शोभायमान थे उसीप्रकार धनके खजाने भो विद्रुम--मूगोंके समूहसे शोभायमान थे ॥ १७ ॥ उस देशके पके हुए धान्योंके खेतोंमें 2 शुक-तोते पड़ते थे इसलिये शुकोंके लालबर्ण और अपने हरे वर्णसे रंग विरंगे अत्यंत शोभाय | मान जान पड़ते थे अतएव लोग उन धान्योंके खेतोंको कामदेवके साक्षात् उत्तम घर समझते | थे ॥ १८ ॥ वहांपर जगह २ नेत्रोंको प्रफुल्लित करनेवाली ईखके वृक्षोंकी शोभा अत्यंत शोभायमान जान पड़ती थी जिस शोभाका निरखना देवोंको भी अत्यंत दुर्लभ था ॥१६॥ वहाँके तालावों पर हंस सारस और चकोर पक्षी विचरते फिरते थे निर्मल जलसे वे परिपूर्ण थे और उनके तट भागोंकी भांति भांतिके वृक्ष विचित्र शोभा बढ़ा रहे थे इसलिये वे तालाब नेत्रोंको परमानंद प्रदान करते थे ॥ २० ॥ वहांके आम वृक्षोंके बनामें जगह जगह भ्रमण करते हुए भौरोंके भुन भुनाट शब्द सुन पड़ते थे। कोकिल हंस और भोरोंके महा मनोहर शब्द होते थे इसलिये वहांकी Жүкүккккккккккккккккккккк च पहर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EAST Hola भ्रमन मरझंकारा; पिकहसशिखंजिनां । मारायाध तवृक्षेषु विराजते पदे पदे ॥ २१ ॥ गोपभामा विलोक्याशु पोनवक्षोजमंडिताः । Is स्वभामाः कोपयंत्येष स्थूलवक्षोत्रवल्लभाः ॥ २२ ॥ मकरंदरेणेव लसत्यंगकपोलकाः । अमराः सस्मिता यत्र चुंबनाश्लेपरागिणः ॥२३॥ यत्र नद्यो किराजन्ते कुटिला विभ्रमान्चिताः। दृदयाणा: सपनाच सर्वसेव्यपयोभराः ॥ २४ ॥ तटोन्नितंषधारिण्यः पक्षिशब्द । शोभा बड़ी ही मनको हरण करने वाली थी ॥ २१ ॥ वहांके ग्वालोंकी त्रियोंके स्तन स्वभावसे ही न स्थूल थे इसलिये स्थूल स्तनोंकी अभिलाषा रखने वाली अन्य स्त्रियां रात दिन इस बातका डाह कर कि हमारे ऐसे स्थूल स्तन क्यों नहीं ? क्रोधमें भभलती रहतीं थीं। वह देश सुगंधित पदार्थों की सुगंधिसे सदा महकता रहता था अतएव वहांपर भ्रमण करनेवाले देवोंकी देवांगनाओंके । शरीर और कपोल मो उस्कट सुगंधिसे सदा महकते रहते थे इसलिये देव गण वहांपर देवांगनाओं के कपोलोंके चुम्बन करने में और शरीरोंसे आलिंगन करनेमें ही सदा उत्सुक बने रहते थे ॥ २२ ॥ ॥ २३ ॥ वहांकी नदियां संभोगकालमें रसास्वादन करने वाली वेश्या सरीखी जान पड़ती थी क्योंकि जिसप्रकार बेश्या कुटिल होती हैं उनका चित्त कभी भी सीधा साधा सरल नहीं दीख पड़ता उसी प्रकार वहांकी नदियां भी कुटिल थीं उनका बहाव सीधा न होकर सदा चक्करदार होता था। जिस र प्रकार वेश्या "विभूमान्विताः" विलासप्रिय होती हैं नदियां भी अलके भूमरोंसे व्याप्त थीं । वेश्या by जिसप्रकार हृदयको गूढ़ होती हैं-कोई भी उनके मनका भाव नहीं पहिचान सकता उसप्रकार वे नदियां भी अपने हृदयभागमें अत्यंत गहरी थीं। वेश्या जिसप्रकार शरीरपर कमल धारण किये। रहती हैं उसप्रकार वे नदियां भी कमलोंसे अत्यंत शोभायमान थीं। जिसप्रकार वेश्याओंके पयो धर स्तनोंका हर एक उपभोग कर सकता है उसीप्रकार उन नदियोंके जलका भी हर एक उपयोग । ke करता था। जिसप्रकार वेश्या उन्नत नितंबोंको धारण करने वाली होती हैं उसीप्रकार वे नदियां Nउन्नत तटरूपी नितंबोंको धारण करनेवालीं थीं। वेश्या जिसप्रकार बोल चालमें बड़ी चतुर रहतीं | YSTERY SYKAVI Rewa EkeKEKEEEKEKe N I Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ryakal a विचक्षणः । निर्गमद्वाभगा रम्या वेश्या या रसरा जिताः॥२५॥ मुमुक्षवो विराजते ध्यानस्था वा सत्पधाः। शेलारण्यसरि. सानुनिवासाः साम्यधारिणः ॥२६॥ यत्र सिद्धान्तवाणीभिः पंडितं शक्रःसमं । महापुराभिधं सर्वेशोभाभारभूतं भूश ।। २७ ।। सप्तकविंशतिभूका रत्नसंरब्ध सत्पधा: । हेमस्तंभा बिराअंते गृहा यत्रैव चित्रिताः ।। २८ ।। उत्तुगतोरणोपेताःस्वर्ण सोपानसत्विषः । म. रत्नच त्याश्च यत्रैव प्रसादाः संति भूदिश: ।।२६।। वृत्तलं यत्र भातीय शिखरं रत्नगर्मितं । नु भानुश्चन्द्रमा किंतु कामायन शेषसन्मणिः है उसीमासार नदियां भी पहियोंके महामनोहर शब्दोंसे व्याप्त थीं । वेश्यायें जिसप्रकार आई मूत्र मार्गकी धारक होती हैं उसप्रकार उन नदियों में भी जल निकलनेके अनेक स्थान विद्यमान थे एवं वेश्या जिसप्रकार अत्यंत मनोहर जान पड़ती हैं उसीप्रकार वे नदियां भी अत्यंत मनोहर जान पड़ती थीं ॥ २४-२५ ॥ वहांपर मोक्षको इच्छा रखनेवालेमुनिगण सदा ध्यानमें लीन रहते थे। उत्तम मार्ग जैनमार्गके अनुगामी थे। पर्वत वन नदो और पहाड़ोंकी चोटियोंपर निवास करनेवाले थे 1] और परम समरसी भावके धारक थे इसलिये वे उस देशकी अनुपम शोभा स्वरूप थे॥२६॥ उस रम्यकावती देशके अंदर एक महापुर नामका नगर है जिसमें कि विद्वान् लोग सदा जैन सिद्धांतका प्रचार करते रहते हैं इसलिये वह साक्षात् पंडित स्वरूप है । शोभामें इन्द्रपुरीकी तुलना करता है एवं सदा अनेक प्रकारकी शोभाओंसे हरा भरा रहता है ।। २७ ॥ महापुर नगरके घर सत लखने वा इकवीस खने तकके बने हुए हैं। लोगोंके प्रवेश करनेके मार्ग रत्नमयी हैं। सुवर्णमयी तंभोंके धारक हैं एवं जगह जगह अनेक प्रकारके चित्रोंसे शोभायमान हैं ॥२८॥ महापुरके निवासी पनियोंके घर ऊंचे ऊंचे तोरणोंसे व्याप्त थे । सुवर्णमयी सोपान-झीनोंसे देदीप्यमान थे और न रलमयी स्तंभोंसे चम चमाने वाले थे ॥ २६ ॥ इन प्रासादोंकी गोलाकार और और रत्नोंकी बनीं | शिखरे अत्यंत शोभायमान थीं सो ऐसी जान पड़ती भीं मानो ये साक्षात् सूर्य हैं वा चंद्रमा है। थवा कामदेवके कमल हैं वा शेष नागके मस्तककी उत्तम मणि हैं ॥३०॥ उन प्रासादोंके ऊपर PROPa पाणपत्र __ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DI॥ ३० ॥ लसति वायुना यत्र पताका हदयंगमाः । आयंतीय भन्यानां सुराणां धर्महेतये ॥ ३१ ॥ यत्राभिषेकमहीभिः पटहैदु'दुभिः स्वनैः । गाननत्यः सुखालायर्योषितामुत्सयो महान् ।। ३२ ।। ललिता भोति यत्रैव कामलोलाः कजशः । कठिनोन्नत नितयाश्च पीनस्थूल पयोधराः ॥ ३३ ॥ गतागतस्तनोत्पीच ट्यत्कंचु कबंधनाः । हावभाषविलासश्च रंजयंति सुरानपि ॥ ३४॥ 5) पत्रैव दानिनो लोका वर्तते धनशालिनः । तपस्यति नराः पेचिद्धर्मार्थ शीलसंयुताः ।। ३५॥ तत्रैष निर्धना भूढा निर्विघेका गतपवनसे फर फराती गई महामनोहर पताकाएं अत्यत शोमा धारण करती हैं मानों भव्य देवोंको वे यह कह कर बुलाती हैं कि आओ भाई देवो। यहां आकर धर्म सेवन करो॥ ३१ ॥ इस महापुर|2 नगरमें सदा भगवान जिनेंद्रका अभिषेक हुआ करता है सदा पूजा हुआ करती है । पटह जाति । के बाजे और नगाड़े बजते रहते हैं । रमणियोंके गान नृत्य और प्रेमपूर्वक संभाषण होते रहते हैं इसलिये सदा अनेक प्रकारके उत्सवोंसे वह नगर जगमगाता बना रहता है ॥ ३२ ॥ महापुर का स्त्रियां उसकी विचित्र ही शोभा बढ़ाती हैं क्योंकि वे महा सुन्दरी होती हैं । अत्यंत कामिनी होती है । कमलके समान नेत्रवाली कठिन और उन्नत नितंबोंको धारक एवं पीन और स्थूल स्तनोंसे 2 शोभायमान रहती हैं। जिससमय बे आती जाती हैं उससमय आपसमें एक दूसरोंके स्तनोंके भिडावसे उनके चोलियोंके बंधन टूट जाते हैं एवं अपने हाव भाव और विलासोंसे देवोंक भी चित्तोंको हरण करती हैं ॥ ३३–३४ ॥ महापुर नगरके लोग धन पाकर उसे भोग विलासोंमें ही व्यय करने वाले नहीं हैं किंतु उत्तम आदि पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देनेवाले हैं इसलिये वहांके धनी परम दानी हैं तथा वहांक शीलवान भव्यजीव धर्मकी प्राप्तिकी अभिलाषासे सदा मुनिलिंग Kधारण कर उत्तम तप तपने वाले हैं ॥ ३५ ॥ उस नगरमें सब लोग धनी ही दीख पड़ते हैं कोई भी निर्धन नहीं दीख पड़ता। सब चतुर ही हैं मूढ नहीं। सब विवेकी ही हैं विवेक रहित नहीं । सब उद्योगी सजन और प्रशंसा करने वाले ही हैं आलसी दुष्ट और निंदा करनेवाले नहीं तथा सब पपपपपपपपलका Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल० १०६ क्रियाः। खला निवाकृतो रूपा विद्यन्ते नैव हस्वकाः ॥ ३६॥ तत्रैवास्ति महीपालो हेलानिर्जितशात्रवः । पद्मसेनामिधो धीमान् । प्रतापानान्तभूतल ॥ ३७॥ धीमो गंभीर सत्वसन् नागदो सिंहविक्रमी। कमलापीनसत्स्कन्धः शास्त्रवान् धर्मवत्सलः ॥ ३८॥ रणोरलाही मियस्त्राता सौम्यः ऋरो यथायथ । दाता प्रियंवदःकामकीडामः कमलेक्षणः ॥ ३६॥ पाति तत्परमानन्दी षड्यगों चन्द्रसघशाः। इन्द्रो वा नागदेवश्च स्वर्गलोकरसातलं ॥४०॥ धृषस्कन्धो रणोत्साहो गूढसत्वं महोदमः । फर- सौभ्ये च दातृत्वं महाराजस्य लक्षणं ॥४१॥ राज्यं पालयति यस्मिन् भयं नो विद्यते क्वचित् । डने कुप्रवादश्च दुःखं नैव परा ЖЕЖҮЖүжүжұКүүкүркірек शाही अमीर हैं कोई छोटा नहीं ॥ ३६ ॥ उस महापुर नगरका स्वामी राजा पद्मसेन था जिसके लिये बलवान भी शत्रुओंका जीतना खेल सरीखा था। जो अत्यंत बुद्धिमान था। अपने प्रचंड Kा पराक्रमसे समस्त पृथ्वीतलको बश करने वाला था। धीर गंभीर बलवान और सज्जन था। नागके । समान उसकी दोनों भुजायें थीं। सिंहके समान जो पराक्रमी था। लक्ष्मीके समान स्थूल स्कंधों । का धारक था। शास्त्रोंका ज्ञाता, युद्ध करनेके लिये सदा उत्साही भयसे रक्षा करने वाला सौम्य । A समयानुसार क्रूर दाता प्रियवादी काम क्रीडाका जानकार कमलके समान प्रफुल्लित नेत्रोंका धारण : करनेवाला षड्वर्गी अर्थात् समयानुसार काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्यरूप छह वर्गोका धारण KA करने वाला और चंद्रमाके समान निर्मल यशका धारण करनेवाला था। तथा जिसप्रकार इन्द्र स्वर्गलोकको रक्षा करता है और नागदेव अधोलोकका पालन करने वाला है उसीप्रकार वह राजा पद्मसेन महापुरकी रक्षाका करनेवाला था। ॥ ३७-४०॥ बैलके समान उन्नत स्कंधोंका होना । 2 रणमें उत्साह रखना गुप्तरूपसे बलका धारण करना महान उद्योगी रहना क्रूर और सौम्यपना एवं ES दातापना ये महाराजके लक्षण हैं राजा पद्मसेन इन समस्त लक्षणोंका धारक था ॥४१॥ राजा 1121 पद्मसेनके राज्य पालन करते समय न तो कहीं भी किसी प्रकारका प्रजाको भय था। न दंडकी शंका थी। न किसीकी निंदा सुन पड़ती थी। न किसी प्रकारका दुःख था और न कहीं किसीका Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० EXPETRYSTARTPHY भवः ४२॥ आक्रमति हि मोन्याय लोका धर्मपरायणाः । नाकामति च तान् भूपो नीतिशास्त्रार्थ दक्षिण ॥४३॥ धर्मार्थकामशास्त्रा णां वेतासौ काश्यपीपतिः । सर्वसामतसंसेव्यपादसत्कमला कलः ॥४४॥ तस्य राही महास्नेहा पद्मा पद्मविलोचना । बापामृदुकरा पनवक्षोजा पधिनीष नु॥ ४५ ललंती लीलया लोल लखनालालिता तनुः । इवोदपतिमो ज्योत्स्ना भोगांबोधिप्रवद्धिमी ६ मनया रमते राजा नामाकामकुमूहले। आश्लेष श्च धनरलेरासनेरौपरीपके ॥ ४॥ कामाकुला महादेवी सेवते तं निरंतिरस्कार ही सुन पड़ता था। यह नियम है कि जोलोग धर्मात्मा होते हैं वे न्याय मार्गका उल्लंसघन नहीं करते एवं जो मनुष्य नोति और शास्त्रमें कुशल होता है-धर्मात्मा होता है वह भी धर्मा-12 माओंको कभी पीड़ा नहीं देता। महापुर नगरमें राजा प्रजा दोनों धर्मात्मा थे इसलिये वहां कोई 1 उपद्रव न था ॥ ४२–४३ ॥ वह राजा पद्मसेन धर्म अर्थ और काम शास्त्रोंका परिपूर्ण जानकार था । समस्त सामंत गण उसके चरण कमलोंकी बड़े प्रेमसे सेवा करते थे और वह महा मनोज्ञ Nथा ॥ ४४ ॥ राजा पद्मसेनकी रानीका नाम पद्मा था। रानी पद्मा अत्यंत स्नेह करने वाली थी RN कमलके समान नेत्रोंवालों थी। उसके दोनों हाथ कमलके समान कोमल थे। स्तनोंका खिलाव | भी कमल सरीखा था इसलिये वह साक्षात् पद्मिनी सरीखी थी ॥४५॥ वह रानी लीलापूर्वक चलने वाली थी। चंचल नेत्रोंकी धारक थी। सारा शरीर उसका अच्छी तरह लालित था। दुःखरूपी अंधकारको नाश करने वाली ज्योत्स्ना-चांदनी थी अतएव भोगरूपी समुद्रको बढ़ानेवाली थी। ॥ ४५-४६ ॥ इस रानी पद्माके साथ वह राजा पद्मसेन मनमानी रतिक्रीड़ा करता था कभी | वह उस रानीके साथ अनेक प्रकारके काम जनित कौतुहलोंको करता था कभी आलिंगन करता था कभी चुंबन करता तो कभी हास्पमिश्रित वचनोंका उपभोग करता था तथा भोग विलास करते है समय कभी कभी अनेक आसनोंको काममें लाता था ॥४७॥ वह रानी पद्मा भी अत्यंत कामिनी थप इसलिये वह भी बेधड़क हो सदा राजाके साथ विषयभोग भोगती थी। राजा पद्मसेन भी इतना ЖҮЖұkykkkkkkkkkkkkkkkkkek Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ЖҮЖКү% तरं । हातस्यादोऽपि राजा तो सेवते मोहतो ध्रु॥४८॥ पूरमल्लेव श्रीकृष्ण कपीशमंगलाग्रज | श्रीकृष्णोपी दुषत्रां तामिव कृष्णध राधिका ॥४६ (युग्म)सा रामा हावभावश्च प्रोल्लासमोगकंपनैः । मपितः स्खलितहास्यश्च पनै रंजयेद्धवं ॥५०॥ स कागी अगसंस्पर्शपेश्मन बने । तमनन्तवासस्तां लिंगास्यादेस्त्वतोपयत् ॥५६॥ एवं विषयसयोगे तयोगसीत्सुत परः । 2 पमनाभाइयः सर्वलक्षणांकितविग्रहः ॥ १२॥ भुजानो विविधान् भोगान् निमग्नः सुग्णसागरे। मत कालं न जानाति स्त्रीवादी अधिक रानी पद्मापर स्नेह रखता था कि सदा उसके साथ वह विषय भोगोंमें मग्न बना रहता था । एक क्षणके लिये भो उससे विमुख नहीं होना चाहता था। अन्धकार श्रीब्रह्मकृष्णदास भी अपने नामकी छाप लगाते हुए कहते हैं कि जिसप्रकार पूरमल्ला मंगलदासके बड़े भाई श्रीकृष्णदासके साथ सदा विषय भोगती थी एवं चंद्र वदनी उस पूरमल्खाको कृष्णदास भी एक क्षणकेलिये भी 12 नहीं छोड़ना चाहते थे तथा जिसप्रकार नवमें नारायण कृष्णकी स्त्री राधिका सदा कृप्सके साथ विषय भोगती थीं एवं कृष्ण भी क्षणभरके लिये भी उससे विमुख नहीं होना चाहते थे उसीप्रकार राजा पद्मसेन और रानी पद्माकी दशा थी दोनोंमें अधिक प्रेम होनेसे एक दूसरेको छोड़ना नहीं चाहता था ॥ ४८-४६ ॥ वह रानी पद्मा हाव भाव चित्तके उल्लास भोग समयमें कंपना भूषणोंके | शब्द अर्ध स्खलित वचन हास्य और शरीरकी कांतिसे सदा राजा पद्मसेनको प्रसन्न रखती तथा / कामाकुल वह राजा भो मर्दन, चुम्बन, आलिंगन और दंतच्छेदन आदि रतिकालीन क्रियाओंसे 21 सदा उस रानीको संतुष्ट रखता था। इसप्रकार मनमानी भोगक्रीड़ा करते करते उन दोनों दंपती । के पद्मनाभ नामका पुत्र हुआ जो कि समस्त राज लक्षणोंसे युक्त शरीरका धारक था ॥ ५०-५२॥12 वह राजा इच्छानुसार विषय भोगोंको भोगता भोगता सदा सुख सागरमें मग्न रहता था। समय कहां चला जा रहा है इस बातका उसे पता तक नहीं लगता था। ठीक ही है जो लोग स्त्रियोंकार 12 रस चख चुके हैं उनसे वह स्यद जल्दी नहीं छूटता ॥ ५३॥ . . TKPKRIPATYory kxkYKYKYжүжүжилт चकर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAParbYISPoryYYYY स्त्यजो नणां ॥५३॥ प्रोतिकरमहारण्ये समायातोऽय केवलो । सर्वगुप्ताभिधः सर्पजतुरक्षतत्परः ॥५४॥ तत्प्रभावा महावृक्षाः कुसुमाया फलान्विताः । पैकापट्चरणारावै रेजुरुज्कीणछायकाः॥ ५५ ॥ तदा मालाकरो दृष्ट्वा छायां वृक्षसमुद्यां। व्यतीतर्कन्भिजे चिते किं स्वप्नः शंबरीनुषा ॥५६॥ त्रिचतुरेषु यदा पश्यन् पदेषु गतषांस्तदा । पर्यकासनमारद ध्याना स्तिमिता लोचनं निश्चल बम देनं ध्याय करुणानिधि । सौम्यं च का व्याघ्रादिसेज्यमानं शशिप्रभ ।। ५८ ॥ अद्राक्षीजसा पुज मिहिरं वा तयोनिधि । मोरार्णवे सुखासोनं हसं चंद्रससं नु या ॥ १६ ॥ (त्रिमिचिशेषक) हर्षकंचुकितांगा सन्जगाम नुपसन्निधौ। * महापुर नगरके समीपमें एक प्रीतिकर नामका महा बन था । एक दिन सर्वगुप्त नामके केवली जोकिसमस्त जीवोंकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहते थे आकर उसमें विराज गये।भगवान केवलीके! प्रभावसे प्रीतिंकर बनके समस्त बक्ष फूल और फलोंसे लदबदा गये । कोकिला अपनी मधुर ध्वनि । अलापने लगी और भोरे भुनभुनाट शब्द करने लगे इस लिये समस्त वन उस समय अत्यंत सोभायमान दीख पड़ने लगा ॥ ५४५५ ॥ बनकी इस प्रकार वृक्षोंसे जायमान विचित्र शोभा देखकर उस बनका रक्षक माली चकित रह गया और उसके मनमें यह विचार उठने लगा कि क्या यह स्वप्न है अथवा देव कृत माया जाल है ? तीन चार पैड़ आगे बढ़कर जब उसने देखा। & तो केवली भगवान सर्वगुप्त उसे दीख पड़े वे भगवान पर्यकास (पलौती ) से विराजमान थे। ब्यान करनेके कारण उनके नेत्र इकटक निश्चल थे। निश्चल रूपसे भगवन ऋषभदेवका वे ध्यान कर रहे थे। दयाके सागर थे। सौम्यमूर्तिके धारक थे। ऋर भी मृग व्याघ्र आदि उनको सेवा करते थे। चंद्रमाके समान उज्ज्वल प्रभाके धारक थे। कातिके पुजवरूप थे । जाज्वल्यमान । सूर्य के समान थे। तपके खजाने थे। एवं क्षीरोदधि समुद्रमें सुखसे बैठनेवाला जिसप्रकार हंस और चन्द्रमा दीख पड़ता है उसके समान विराजमान थे॥ ५६--५६ ॥ भगवान केवलीको देख कर वनपालका शरीर आनंदसे पुलकित हो गया वह शीघ्र ही राजा पद्मसेनके पास गया एवं छहों ऋतुओंके पुष्प और फल भेंटकर इसप्रकार निबेदन करने लगाः-- KhararhkarKYCLERY KAYEK HERE ARE Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EARTYSTERY मुक्त्वा पुष्पफलवात पुरस्तादधीदिति ॥६० ॥ प्रभो ! प्रीतिकरेऽरण्ये सर्वगुप्तास्यकेवली । समटितः प्रभोः पुण्याईवेन्द्रार्चितपत्कजः ॥ ६ ॥ एनसेनो नराधीशः श्रुत्या सामंतसंयुतः । चचाल बंदित भक्तया मुनि राशीसुतान्वितः ॥६२॥ अहंशरणयोर्येऽय चारपा रुचिचंचुराः। लयीमा समेत्यांशु कुधति साधुवंदना ॥६॥ गत्वा नत्वा प्रपूज्याशु स्वष्टद्रव्यमनोरमः । गद्यपधैः सुतं स्तुत्वा निविष्टः कलभासने ॥ ६॥ मुनिर्मत्वा नराधीशं भव्यं तं मृदुचेतसं। अचीकथत्पर धर्म तत्वगर्भ कृपामयं ॥५॥ राजन 12 भ्रमत्ययं जीवः संसार दुःखसंकट। अनादिनिधन केन कृतो नास्ते चिदात्मकः ॥६६॥ नरत्वं दुर्लभं लोके तत्रापि सत्कुलंपुनः। । स्वामिन ! आपके पुण्यके उदयसे प्रीतिकर वनमें सर्वगुप्त नामके केवली जिनके कि चरण कमलों - को बड़े बड़े इन्द्र आकर पूजते हैं, आकर विराजे हैं। वनपालकी यह आनंद प्रदान करने वाली बात सुन कर राजा पद्मसेन बड़ा प्रसन्न हुआ और भक्तिपूर्वक मुनिराजकी वंदनाके लिये अनेक सामंत महाराही और नोंके साथ शीर ही हल दिया ठीक भी है जो महानुभाव भगवान अरहंतके चरणों में पूर्णभक्ति रखनेवाले हैं वे अवसर प्राप्त होनेपर उसी भक्ति में लीन होकर भगवान | अहं तके मार्गके अनुगामी मुनिराजोंकी बंदनाके लिये प्रतिसमय तैयार रहते हैं । यह राजा पद्म| सेन मुनिराजके पास पहुंच कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । महामनोहर अष्ट द्रव्योंसे उनकी पूजा की। पूजाके अंतमें गद्य और पद्योंसे उनकी स्तुति की एवं अपने बैठने योग्य स्थान पर अपने योग्य आसनसे बैठ गया ॥ ६०-६४ ॥ पद्मसनकी इसप्रकार पवित्रभक्ति देखकर मुनि राजने अपने दिव्यज्ञानसे उसे भव्य और सरलस्वभावी समझा इसलिये वे तान्त्रिक और दयापूर्ण लाइसप्रकार धर्मोपदेश देने लगे : गजन् ! यह संसार नाना प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त है उसमें यह जीव सदा यहांसे वहां और |2| वहांसे यहां चक्कर लगाया करता है यह जीव अनादि निधन है-इसके आदि अन्तका कोई निश्चय नहीं। न इसे किसीने बनाया है तथा यह चैतन्य स्वरुप है ॥६५-६६ ॥ इस संसारमें तिथंच आदि पर्यायोंकी अपेक्षा मनुष्यपना अत्यंत दुर्लभ है। यदि दैवयोगसे मनुष्यपना Жүкүкккккккккккккккккккк Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कु दुर्लभो धर्मोदयादानप्रवर्धितः ॥ ६७ ॥ धर्मेण प्राप्यते राज्यं स्वर्गः सत्व' सुखंयमः । सुपुत्रा क्सु सद्बुद्धी राम्रा पीन| पयोधराः ॥ ६८ ॥ विद्वत्वं चक्रवर्तित्वमार्यत्वं सुरनाथता | कानत्व' रूपसंपन्नं तीर्थकृत्त्वं यतो भवेत् ॥ ६६ ॥ ये नरा धर्मरिकास्तु ते भवति विबुद्धयः । विपुत्रा निर्धना मूकाः पराशाः स्त्रीविवर्जिताः ॥ ७० ॥ विरूपास्तस्करा नीचाः किंकरा मारपीडिता: । आउन्मव्यथिकाः कांता धर्मदीना भवन्ति ते ॥ ७१ ॥ स ब धर्मो द्विधा प्रोक्तो मुनिधावक भेदतः । मुनिधर्माद्भवेन्मोक्षश्चान्यस्मात्संपदादिकं ॥ ७२ ॥ नक्तभोज्यं न कर्तव्यं मांसदोषकरं सतां । निशादने कृते नूनं युतभंगो हि जायते ॥ ७३ ॥ पूजा स्नानं च दानं वा तर्पणं प्राप्त भी हो जाय तो उत्तम कुलका मिलना कठिन है यदि प्रबलभावसे उत्तम कुल भी प्राप्त हो जाय तो जिसमें दया और दान प्रधान है ऐसा उत्तम धर्म प्राप्त नहीं होता । धर्म संसार में चिंतामणि रत्न है क्योंकि धर्मसे राज्य प्राप्त होता है एवं धर्मसे हो स्वर्ग, बल, सुख, यश, उत्तमपुत्र धन | उत्तम बुद्धि पीन स्तनवालीं स्त्रियां विद्वत्ता चक्रवर्तीपना आर्यपना देवेंद्रपना इच्छानुसार भोग उत्तम रूप और तीर्थ करना भी प्राप्त होता है ॥ ६१-६६ ॥ जो मनुष्य धर्मका सेवन करनेवाले नहींधर्मरहित हैं वे बुद्धि रहित मूर्ख होते हैं। पुत्रहीन होते हैं निर्धन गूंगे अभागे और स्त्रियोंसे रहित होते हैं तथा उस परम पावन धर्मसे रहित पुरुष विरूप बदसूरत होते हैं चोर होते हैं. नीच किंकर रात दिन भार लादनेवाले जन्मपर्यन्त दुखी और अपमानित होते हैं ।। ७०-७१ ॥ जिस धर्मका यह फल बतलाया गया है वह धर्म मुनि और श्रावकके भेदसे दो प्रकारका बतलाया गया है उनमें मुनिधर्मसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और श्रावक धर्मकी कृपासे संसारकी अनेक विभूतियां आकर मिलतीं हैं ॥ ७२ ॥ रात्रिमें भोजन करनेसे अनेक जीवों का कलेवर भक्षण करना पड़ता और व्रतों का भी भले प्रकार पालन नहीं होता इसलिये वृतियों को कभी रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रिमें किये जानेवाले पूजा स्नान दान और तर्पण आदि भी किसी प्रकार की शुद्धिप्रदान नहीं कर सकते । पक्षीगण जिनके कि अंदर किसी प्रकारका धर्मज्ञान नहीं होता जब वे भी रात्रिमें नहीं खाते तब चर्य है मनुष्य क्यों रात्रिमें स्नाते हैं ? जब दो घड़ी दिन बाकी रह जाय तब 瑞 AAY पत्र Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . नैव शुद्धयति । पश्चिणोऽपि न भक्षति कथं भुति मानवाः ॥ ७४ । घटीवये स्थिते शेष वासरेऽदंति मानुषः । अन्यथा राक्षला एव पलास्वादनतत्परः ॥ ७५ ॥ त्रिसंध्यं येतु भुजति निर्धना रोगिणो नराः । अल्पायुषो भवत्येव कालदंदा हताः खलु ॥ ७ ॥ महापार कलां सां निंदा नैव विधीयते । तया चैनांसि वध्यते परत्र दुर्गतिं व्रजेत् ।। ७७ ॥ निदाफारी वध्वंसी परछिद्रप्रकाशकः । निद्राछेद्य'तरापो व चाण्डालाः पंच भाषिताः ॥ ७८ । धर्मस्थाने नरा नायर्यों निंदा कुर्वति ये रसात् । वल्गुलीकमार्जारस्खलज्जिहा 1- भवति ते ॥ ६ ॥ असारे खलु संसारे कस्य विल्लभो न कः । स्वार्थ एव परः पुरेसा न रामास्वजनादिकं ॥ ८० । एक एव सुखी मनुष्योंको भोजन करना चाहिये क्योंकि यही आगममें विधान है किन्तु जो मनुष्य उसके बाद भी | भोजन करते हैं वे मनुष्य नहीं किंतु मांस खालेले लोलगी नाक्षात हैं विशेष क्या जो मनुष्य प्रातःka काल दुपहर और सायंकाल तीनोंकाल भोजन करनेवाले हैं वे मनुष्य निर्धन होते हैं रोगी थोड़ी आयुवाले और यमराजके मुखमें प्रवेश करनेवाले होते हैं ॥ ७३–७६ ॥ सज्जनपुरुषोंकी | तो बात ही क्या है किंतु जो पुरुष घोर पाप करनेवाले महापापी हैं उनकी भी निंदा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि उससे अनेक पाप कर्मोंका बंध होता है और पर भवमें दुर्गतिके अन्दर जाना पड़ता है ।। ७७ ॥ निंदा करनेवाले, व्रत ग्रहण कर उसे नष्ट करनेवाले, पराये दोषोंके प्रकाश करनेवाले, निद्रा छेदनेवाले और अंतराय (विघ्न ) पहचाने वाले ये पांच प्रकारके चांडाल माने जाते हैं ॥ ७८ ॥ जो मनुष्य वा स्त्रियां प्रेमपूर्वक धर्मके स्थानोंमें अर्थात् धर्मायतनोकी निंदा करनेवाले हैं-निंदा करनेमें आनंद माननेवाले हैं वे संसारमें उस निंदाके | - करनेसे वगली उल्लू और विल्ली होते हैं एवं उनकी जीभके खंड २ हो जाते हैं ॥ ७८-७६ ॥al C यह संसार असार है इसमें किसका कौन प्यारा नहीं है अर्थात् जो एक पुरुष किसीका द्वेषी होता | है वही दूसरेका प्यारा होता है वास्तवमें प्यारा स्वार्थ है जिसका जिससे स्वार्थ सटता है वही उस का प्यारा कहा जाता है स्त्री और कुटुम्ब आदि कोई किसीका प्यारा नहीं ॥८० ॥ इससंसारमें |* जो पुरुष पुण्य और पापका उपार्जन करने वाला है वही अकेला सुखी दुःखी और स्वर्गका सुख - Makar-KYThakra Ra Ratha Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P ITTYIYh1 दुःखी स्वर्गी भघति निश्चितं । पुण्ये पापे विभागोन रामादीनां कदाचन ॥ ८१ ॥ पंचधा नारकं दुःखं स्वयं तत्साहते स्फुटं । तत्रैव । सुखिनं कर्तुं क्षणं शक्नोति कोऽपिन ॥ ८॥ दर्शनशानचारित्रमावनाच बिचीयते । धिभावं जन्मपर्यंतं तपो भवति निष्फलं ॥ ८३ ।। अत्युग्रं जन्मपर्यंत तपोऽकारि च यत्न धा । भस्मसात्तवेद्वाजन् वाहिना हि यथा धनं ॥ ८॥ अनेन जंतुना राज्य भक्त जन्मधिवर्जितं । अनेकशस्तथाप्यस्य संतोषो नेघ जायते ॥ ४५ ॥ भोगाश्च दारुणाः सर्पवेहा इव मता जिनैः । नियंत्रस्त भयंत्येष ये रामाधनमो. भोगने वाला होता है। पुण्य और पापमें स्त्री पुत्र आदिका विभाग नहीं। अपने कियेका आप ही फल भोगना पड़ता है दूसरा स्त्रीपुत्र आदि उसमें हिस्सा नहीं घटा सकता ॥८१॥ यह जीव शरीर Kआदि संबंधी पांच प्रकारके दुःखको स्वयं अकेला ही सहता है नरकमें उसे क्षण भरके लिये भी सुखी करनेको कोई समर्थ नहीं ॥ २ ॥ जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं उनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी भावना नहीं बन सकती तथा उनका जन्मपर्यत भी तपा हुआ मिथ्याष्टि तप | निष्फल होता है ॥ ८३ ॥ जो तप क्रोधपूर्वक किया जाता है वह तप कैसा भी उत्कट क्यों न हो EN तथा जन्मपर्यंत भी क्यों न तपा गया हो परंतु वह जिसप्रकार दावाग्निसे क्षणभरमें वन भस्म हो जाता है उसीप्रकार उस क्रोधके द्वारा भस्म हो जाता है उसका कोई भी फल नहीं होता ॥८४ ॥ इस जीवने अनेक वार निष्कंटक राज्यका भोग किया है तब भी उस राज्यसे इसे संतोष नहीं हुआ है है ॥ ८५ ॥ जिसप्रकार सर्प अत्यंत भयंकर होते हैं उसीप्रकार भगवान जिनेंद्रने इन भोगोंको | कहा है इनके जालमें फंसकर प्राणिगण अपने स्वस्वरूपसे च्युत हो जाते है और संसारमें भमण A करते फिरते है तथा जो पुरुष स्त्री और धनमें मोह रखते हैं उन्हें ही अपने जीवनका सर्वख सम2 झते हैं वे तिर्यंच गतिके अन्दर उत्पन्न हो अनक क्लश भोगते हैं॥८६ ॥ स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियोंको सुख प्रदान करनेवाले बहुत प्रकारके भोगोंको चिरकाल भोगकर भी जो महानुभाव अंत |में धर्मका आचरण नहीं करते—उन भोगोंमें लिपटे रहते हैं वे संसारमें महामूर्ख माने जाते हैं खाण кектеркекккккккк Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ЖЕКЕркеккккккккккккккк हिनः ॥ ८६ ॥ चिरं भुक्त्वा वहून योगान् पंचेंद्रियसुखप्रदान् । त्यक्त्या प्रांते न ये धर्म कुर्वति ते महा जड़ाः ॥८७॥चक्रिणोऽपि गताः काले चलंति स्वर्गिणोऽपि च । मरणं विद्यतेऽवश्यमतो धर्मो विधीयते ॥ ८८॥ एष्यजन्मद्वये राजन् ! भावी त्वं देव पूजितः । तीर्थरु. द्विमलो नाम्ना मलमानलोचनः ।। ८८ ॥ श्रुत्वा केवलिनो बास जहर्ष मानसे निजे । तीर्थकृज्जात एवासो पद्मसेतो नराधिपः ॥ बांधवान् बंधनेस्तुल्यान् रामाः श्वम्रप्रतोलिकाः । स्वार्थं मुख्यं विचिंत्याशु नपो वैराग्यमाश्रितः॥१॥ सर्व सामंत सामध्यं दत्वा राज्यं स्वसूनवे । पमनाभाय सप्तांगं प्रश्नाज घराधिपः ॥ १२॥ पपाठैकादशांगानि तेषामर्थाविशेषतः । नानातपः प्रभेदेन विजहार महीतलं ॥ १३ ॥ षोड़शानां निजे विते भावनानां सुभावनं चकार सिंइवन्निीरसौ सारंग लोचनः || १४ ॥ सत्तालोचनमात्र ॥ ८७ ॥ संसारमें सबसे बढ़कर विभूतिका धारक चक्रवर्ती होता है और सवोंसे अधिक सुखी देव गिने जाते हैं परंतु आयुके अंतमें उन्हें भी मृत्युके अन्दर प्रवेश करना पड़ता है इसलिये धर्मास्माओंको अवश्य धर्मका आचरण करना चाहिये ॥८८ ॥ राजन् ! इससे आगेके दो भवोमें तुम्हारे बड़े २ ऋद्धिधारी देव भी पूजा भक्ति करेंगे एवं तुम निर्मल ज्ञानरूपी लोचनके धारक तेरखें तीर्थकर विमलनाथ होनेवाले हो ॥ ८ ॥ केवली सर्वगुप्तके इसप्रकार आनंद प्रदान करनेवाले वचन || A सुन राजा पद्मसेनको बड़ा आनंद हुआ एवं तीर्थंकर प्रकृतिसे जायमान सुखका उसोसमय अनु भव होने लगा। उनके हृदयमें उससमय बैराग्य भावनाका उदय हो गया वह अपने समस्त बांधवोंको साक्षात् बंधनके समान समझने लगे। स्त्रियोंको महादुःख देनेवालीं नरककी गलियां समझने लगे एवं अपने आत्मकल्याणका विचार कर वह समस्त विभतिसे एकदम विरक्त हो गये Anto-६१॥ राजा पद्मसेनके पुत्रका नाम पद्मनाभ था। समस्त साममंतोंके समक्षमें शीघ्र ही उनने अपने पुत्र पद्मनाभको सारा राज्य संभला दिया और दिगंबरी दीक्षा धारणकर ली ॥२॥ आचारांग आदि ग्यारह अंगोंका उनने अच्छी तरह अध्ययन किया। भलेप्रकार उसके अर्थका RI विचार किया एवं अनेक प्रकार तपोंका आचरण करने वाला वह निर्द्वन्द्व होकर पृथ्वीपर विहार करने लगा ॥ ६३ ॥ वे कमलोंके समान फूले हुए नेत्रोंके धारक मुनिराज एनसेन दर्शन विशुद्धि EMEERFMashke TRY R Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल० ११८ KREKER おみ दर्शनं गते । जीवोऽयं निश्वको मूर्तिवि पं वेति दर्शनं ॥ ६५ ॥ तस्यैव निरतो चारो विशुद्धिः सा मता जिनैः । मुनीनां देवशास्त्राणां विनयश्च विधीयते ॥ ६६ ॥ अष्टादशसहस्रेषु शीलभेदेषु प्रत्यहं । अतीवारं त्यजेयानी चेतोभाव प्रकल्पितं ॥ ६७ ॥ आत्मनि नित्यताज्ञानं श्रुतस्यचावगाहनं । शानोपयोग इत्युक्तः पूर्वेश्च पूर्वसूरिभिः ॥ ६८ ॥ रामाकांचन पुत्रेषु यौवने विषयेषु च । अधिपत्येत्व आदि सोलह भावनाओंको सिंहके समान निर्भीक हो अच्छी तरह मानने लगे। मुनिराज पद्मसेनने जिन सोलह भावनाओंको भाया था उनका संक्षेपमें स्वरूप इसप्रकार हैं १ भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट मोक्ष मार्गमें जो निर्मल रूचिका होना है उसका नाम दर्शन है निश्चल मूर्ति यह जीव उस चैतन्य स्वरूप दर्शनको जानने वाला है उसी दर्शनको जो अतिचार रहित विशुद्धि है उसे भगवान जिनेन्द्रने दर्शन विशुद्धि भावना मानी है। देव शास्त्र गुरुओमें विनय भावका रखना विनय सामनता नामकी भावना है । २ । शील के अठारह हजार भेद माने हैं उन शोलोंका जो चित्तकी भावनासे कल्पना किये तीचारोंसे रहित होकर पालन करना है वह शील व्रतेष्वनतिचार नामको भावना है । ३ । आत्मा नित्य है इस प्रकारका सदा विशुद्ध ज्ञान रखना श्रुतका अवगाहन करना वह पूर्व आचार्यों ने अभी एक ज्ञानोपयोग नामकी भावना बतलाई है । ४ । स्त्री सुवर्ण पुत्र यौवन विषय और स्वामीपनाको सदा अनित्य समझना - उनसे उदास रहना भगवान जिनेन्द्रने संवेग नामकी भावना कही है । ५ । जो धर्मात्मा पुरुष भावसे शक्ति पूर्वक दान देनेवाले हैं उनके शक्तितस्त्याग नामकी भावना होती है तथा वह दिया हुआ दान निरर्थक नहीं जाता किंतु उससे उत्तम बुद्धिकी प्राप्ती होती है उस उत्तम बुद्धिसे पुण्य और पश्चात् भी स्वसुख मिलता है । ६ । अपनी शक्ति के अनुसार मनुष्योंको सदा उत्तम तप आचरण करना चाहिये जो महानुभाव ऐसा करते हैं उनके शक्तितस्तप नामकी भावना होती है किन्तु जो ऐसा नहीं करते ध्यानसे व्यंतर जातिके नीच देव वा म्लेच्छ होते हैं और अनेक प्रकारके क्लेश भोगते हैं - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N नित्यत्वं संगो गद्यते जिनः || १६ ॥ यथाशक्ति ददत्येव दान धर्मचिदो नराः। भावतस्तेन सद्युद्धिस्तया पुण्यं ततः ॥ ॥१०॥ स्वसामर्थ्यानुसारेण विधेयं सुनरैस्तपः। अन्यथा व्यंतरा मा भवंति वार्तध्यानतः ॥ १०१॥ येन केनाप्युपाटन म ति लयं सतां । तदेव तप आचार्यराख्यातं मुक्तिसाथनं ।। १०२ ॥ अकृत्वा मनसो रोधं कुर्वत्युग्रं महत्तपः । देवावासाधिपत्यादि द्धिस्तपां यहि नो शिवः ॥ १०३ ॥ साधूनां सुख प्रश्नो य: स समाधिर्निरूप्यते । धर्मध्यानार्थसचिता स समाधिस्थोच्यते ॥ १०४ यावृत्या जिस उपायसे मनुष्योंका मन पदार्थोंसे हटकर आत्म स्वरुपमें लीन हो आचार्योंने उसी तपको उत्तम तप कहा है और वही तप मोक्षके प्राप्त करानेवाला है किन्तु जो महानुभाव मनका तो निरोध करते नहीं और तप उग्र और महान तपते ही हैं उन्हें उस तपकी फल स्वरूप राज्य आदि विभूतियां तो प्राप्त हो जाती हैं परन्तु वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। ७ । मुनियोंका सुख प्रश्न अर्थात् किसो कारणसे विघ्नके उपस्थित हो जानेपर उस विघ्नको नाशकर उनके तपकी रक्षा करना साधु समाधि है। अथवा धर्म ध्यानको प्राप्तिके लिये उत्तम चिन्ता आत्म स्वरुपका चिंत वन करना, साधु समाधि है। ८ । मुनि आदि गुणियोंके किसी कारण दुःख उपस्थित हो जानेपर | KI उत्तमउपायसे उसे दूर करना उनको सेवा चाकरी करना बैयावृत्त्य कहा जाता है वह वैयावृत्स्य आचार्य उपाध्याय आदि दशप्रकारके साधुओंके भेदसे दश प्रकारका है। इस वैयावृ त्त्यरूप भावनाके भानेसे जिसप्रकार खामीके न रहनेपर सैन्य तितर बितर कर नष्ट हो जाती है उसीप्रकार अधर्म | भी नष्ट हो जाता है । । । छियालिस गुण युक्त और ज्ञानसे सर्वत्र विद्यमान अर्थात् ज्ञानसे लोक और अलोकको जाननेवाले भगवान अहंतकी जो-स्तोत्र आदिसे भक्ति करना हैवह शास्त्रमें अर्ह- IS १ तत्वार्यराजवार्तिको जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्ये मोक्षवमनि रुचिः, निःशंकितत्वाद्यष्टांगा दर्शनविशुद्धिः अर्थात महन्त भगवान जिनेन्द्र द्वारा कहे गये निध स्वरूप मोक्षमार्गमें जो रुचि प्रीतिका होना है उसका नाम दर्शनविशुद्धि है और उसके नि:शंकितांग शिकांक्षि तांग आदि अएअंग है। उस दर्शनशी जो विद्धि है। हाल विशुद्धि है यही अर्थ माना है । ग्रन्थकारने यहापर दर्शनसे सत्तालोचन रूप दर्शन ग्रहण किया है वह ठीक नहीं जान पड़ता। पृ० सं० २६२ . arayaPETRY Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Padaki बुधैः प्रोक्त दशधा धर्मसाधन' यावृस्ये कतेऽधर्मो भ्रश्यते नाथसैन्यवत् ॥ १०५ ॥ महतो गुणमुक्तस्य ज्ञानसर्पगतस्य च । मक्तिः स्तोत्रादिभिर्या तु साईक्तिमता भ्रूते ॥ १०६ ॥ णमुशाय ध्यानि तानिधेः । भावतो भक्तिराख्याता सरिभक्तिर्जिना गमे ॥१०७॥ शास्त्राणां बहुसंख्यानां ज्ञातुःपूर्वांग धारिणः। भक्तिश्च नैगमें प्रोका भूरिसारंग भक्तिका ||१०८१ राज्ञांतस्य च यद्वाक्यं सत्यं मत्वार्चयेत्सुधीः । अकाले सन्न पश्येत ह्यभ्रांतं प्रस्रो मतं ॥ १०६ ।। पड़ावश्यकस्पाचारविधिने वोफ्लंक्येत् । आवश्यक | हि तत्प्रोक्तं कालनयनियोजितं ।।११०॥ जैनधर्मस्य माहात्म्य प्रकाशयति कोटिधा । मार्गमावना सैव प्रोका चिपचिंतिभिः ।। १११ धर्मिणां वृतिनां नूनं शीलयुक्त तपोभृतां । दानिना मृदुचितानां संशा वात्सल्य मुच्यते ॥ ११२।। तपस्वी पासेनाक्ष्य पताः सद्भावना: द्भक्ति कही गई है ॥ १०॥ छियालीस गुणोंके धारक तपकेभंडार और ध्यान करनेवाले आचार्यकी जो भावपूर्वक भक्ति करना है वह आगममें आचार्य भक्ति मानी गई है ॥ ११॥ बहुत शास्त्रोंके | जानकार, ग्यारह अंग चौदह पूर्वोके धारक महात्माकी जो भक्ति करना है वह बहुश्रुत भक्ति आगममें कही गई है ॥ १२॥ सिद्धांत बाक्योंको सर्वथा सत्यमान कर उनकी पूजा प्रतिष्ठा करना Wऔर आगमके पढ़नेका जो समय बताया गया है उसी समय उसे पढ़ना असमयमें न पढ़ना एवं किसी प्रकारका उसमें भम न रखना प्रवचन भक्ति है ॥ १३ ॥ सामायिक चतुर्वि तिस्तव बंदना । प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह प्रकारके आवश्यक माने हैं इन छह प्रकारके आचरणोंका उल्लंघन न करना एवं तोनों काल उनका यथायोग्य आचरण करना आवश्यकापरिहाणि नामकी भावना है। १४ । करोड़ों उपायोंसे जैनधर्मके माहात्म्यका जो चितवन करना है वह चैतन्य स्वरूपकी चिंता करनेवाले आचार्योंने मार्गप्रभावना नामकी भावना मानी है ॥ १५ ॥ जो मनुष्य Aधर्मात्मा हैं। व्रती हैं। शील और तपके भण्डार हैं। दानी हैं और कोमल चित्तके धारक साधर्मी हैं उनकी प्रशंसा करना प्रवचन वत्सलत नामकी भावना है॥ १६ ॥ ६५--११२ ॥ वे तपके भण्डार मुनिराज पद्मसेन समस्त प्रकारकी परिग्रहसे रहित हो दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंको TOPYYYYERHEAPERPERF Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराः | भावयामास चित्ते स्वे विधिना ग्रंथ वर्जितः ॥ ११॥ ततो प्रबंध तीर्धेशगोत्र संसारतारकं । मास द्वित्रिचतुःसंख्यपौषधक्षीण| सद्वपुः ।। ११४ ॥ सरित्तटेस हेमंते भ्रश्यद्रमकदंधके । देहदुःखाकरीभूते कायोत्सर्ग चकार घे ॥ ११५ ॥ ग्रीमे शैलतटेभोगी सूर्यस्या(भिमुखं स्थितः । मध्याहतापसंदग्ध कृष्णकायः परं जपन् ।। ११६॥ प्राबृषि चपलागर्जिखायां भूरुहस्तले । बल्लीपिहितगात्रः सन् विदधे सत्तपश्चिरं ॥ ११७ ॥ रागद्वेषाच्युतो मौनी निद्रालस्यविवर्जितः । चिद् पध्यान संसक्तो मेरुवा स्यैर्यमाश्रितः ।। ११८ ॥ तस्य सौर्य समालोक्य समतान्मृगराजयः । सेवतेस्म महाव्यान दंष्टि, पक्षि मतंगमाः ॥ ११६ ॥ कर्णयोर्नोडकारम्भः कृतो हारीन राशिभिः। जटाना अपने चित्तमें सदा भाते रहते थे ॥ ११३॥ सोलह भवनाओंके भानसे उन्होंने संसारसे पार करने Eगला तीर्थ कर गोत्रका बंध कर लिया। कभी एक मास तो कभी दो तीन चार मास पर्यत उप वास धारण करने के कारण उनका शरीर कृश होता गया ॥ ११४ ॥ जिसमें तीव्र हिमके कारण वृक्षोंके समूहके समूह खाख हो जाते हैं और जो शरीरको तीनसे तोत्र वेदना करने वाला है ऐसे शीत कालमें वे पूज्य मुनिराज नदीके तट पर बैठकर कायोत्स्नग मुद्रा धारण करते थे ॥ ११५ ॥ ग्रीष्मकालमें व योगिराज परमात्माके स्वरूपको ध्याते हुए सूर्यके सन्मुख मुखकर विराजमान होते थे एवं मध्याह्नकालके तापसे दम्ध होने के कारण उनका सारा शरीर काला पड़जाता था ॥ ११६ ।। विजलीकी तड़कनसे जो महाभयंकर जान पड़ता है ऐसे वर्षाकालमें वे मुनिराज वृक्षके तलमें बैट कर उत्तम तयका आचरण करते थे एवं लताओंके समूहसे सारा शरीर उनका ढक जाता था | ११७ ॥ वे मुनिराज राग और द्वेष से सर्वथा परांगमुख थे। मौनी थे निन्द्रा और आलस्य उनके | सपासतक नहीं फटकता था । सदा चैतन्य खरूपके ध्यानमें तत्पर रहते थे एवं जिसप्रकार मेरु पर्वत 2 स्थिर है उसीप्रकार वे भी ध्यानकालमें स्थिर रहते थे ॥ ११८॥ मुनिराज पद्मसेनकी अलौकिक समता देवकर मगगण उनके आस पास किलोल करते थे एवं सिंह बाघ पक्षी और हाथी सदा उनके पास निर्वै र रूपसे रहते थे ॥११६॥ मुनिराज पद्मसेनके कानोंको छोटे छोटे पक्षियोंने अपना Күкүкү%{%{{{ЖҮЖекелүү жүк Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचनव शरीरं नैव लक्ष्यते ॥ १२० । धन्यास्ते स्त्रीकुटुंबादि त्यक्त्वा संगपराङ्मुखा: । रामद्वेष विनिःक्रांता बैराग्येण वनं गताः॥ १२१ ॥ दुस्तरं सुतपस्तप्त्वा शेषपुण्येन धौधनः 1 उच्चैगोत्रशुभायु:सोना सुन्मुमोच सः ॥ १२२ ॥ सहस्त्रारे शुभे स्वर्गे गतो भावव शान्मुनिः । सहस्त्रारेंद्रनामा च बिभूवामर सेवितः॥ १२३ ।। अंतमुहर्तमात्रेण संपुटायशिलातलात् । उत्थितो यौवनाव्यः स रूपद्योति 4 तदिङ्मुखः ॥ १२४॥ उत्थितं तंसमालोक्य कलानिधिमुखं परं । रूपसीमानमित्याहु स्थूलस्तन सुरांगनाः ॥ १२५ ॥ अयि नाथत्वया । घोंसला बना लिया था एवं जटा उनकी कभी कभी ऐसी बढ़ जाती थी कि उनका सारा शरीर ढक जाता थादीख नहीं पड़ता था ॥ १२० ॥ ग्रन्धकार विरक्त महात्माओंकी प्रशंसा करते हुए र कहते हैं कि वे महानुभाव संसारके अंदर धन्य और भाग्यशाली हैं जो कि स्त्री और कुटुम्बन आदिसे मोह तोड़ कर परिग्रहसे विरक्त हो गये हैं। राग और द्वेष जिनके पास तक नहीं फटकने पाता एवं बैराग्य भावनाका सदा चितवन करते हुए जो सदा बनके अंदर निवास करने वाले हैं। ॥ १२१ ॥ दिव्यज्ञानी मुनिराज पद्मसेनने घोर तप तपा एवं पुण्यकी कृपासे उन्होंने उच्चगोत्र शुभ आयु और साता वेदनीय कर्मके साथ साथ उन्होंने शरीरका परित्याग कर दिया ॥ १२२ ॥ वे * मुनिराज विशुद्ध भावोंकी कृपासे सहसार नामक बारहवे स्वर्गमें सहसारेंद्र हुए एवं अनेक देवगण | उनकी सेवा करने लगे ॥ १२३ ॥ वह मुनिराज पद्मसेनका जीव सहसारेद्र अन्तर्मुहर्तमात्रमें ही से संपुट नामकी शिलासे उठकर पूर्ण युवा हो गया एवं अपने देदीप्यमान रूपसे समस्त दिशाओंको जगमगाने लगा ॥ १२४ ॥ चंद्रमाके समान मनोहर मुखसे शोभायमान और अत्यंत रूपवान in सहसारेंद्र देव ज्यों ही संपुट शिलासे उठकर खड़ा हुआ कि पीन स्तनोंकी धारक देवांगना उनके पास आई और इसप्रकार विनयपूर्वक निवेदन करने लगीं हे स्वामिन् । आपने ऐसा कौनसा बहुतसा दिव्य पुण्य उपार्जन किया जिससे आपका जन्म से यहां आकर हुआ क्योंकि यह नियम है कि सारी सिद्धियां पुण्यबलसे प्राप्त होती हैं विना पुण्यके | एक भी विभूति प्राप्त नहीं हो सकती ॥ १२५ । १२६ ॥ क्या आपने पहिले श्रीमान जिनेंद्र भगवान | Беккеркекккккккккккк Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्पयन रम्यं किं कृतं सुकृतं बहु । यदत्र त्वं समायातः पुण्यलब्धा हि सिद्धवः ।। १२६ । श्रीमत्पुरुजिनेंद्रस्यार्चितं चरणपंकजं । किंवा चिरं तपस्तप्तं षटकायावन पूर्वकं ॥ १२७ ॥ दानं चतुर्विधं दत्तं पांत्रेभ्यः परमादरात । त्रयोदशाविधं चारुचारित्रं पालित नुते ॥ १२८ ॥ स्तुस्वेति मधुरालापैननांग्यः संखिता यदा । तदा वितर्कयामास देवेंद्रो मानसे निजे ॥ १२६ ॥ मुक्ताकदंधकलनमाला मणिनियंत्रिताः । विमानाः सूक्ष्मसंदर्भसंयुक्काः किममी ननु ॥ १३० ॥ नानर्द्धि संभृत स्थानमेतत्कौतस्कुतं ध्रुवं । बुबंति मधुरालापाः का पता घनमी. रुभाः ॥ १३१ ॥ कोऽहं कस्मात्समायातः संशये चेति तस्य चै । तृतीयावगमः साक्षात्यादुरासीद्गतम्रमः ॥ १३२ ॥ संबंधं स्वस्य के चरण कमलोंकी पुजाकी थी वा चिरकाल तक घोर तप तपा था अथवा छह कायके जीवोंकी | प्रतिपालना की सीमा उत्ता लगन जघन्य तीनों प्रकारके पात्रोंको अत्यंत आदरसे आहार औषधि शास्त्र अभय ऐसा चार प्रकारका दान दिया था अथवा तेरह प्रकारके परमोत्तम चारित्रको धारण | किया था ? बस इसप्रकार मधुर वचनोंमें स्तुति कर देवांगना नम्रीभूत हो जब यथास्थान बैठगई। उससमय वह सहसारेंद्र देव भी सहस्रार स्वर्गकी दिव्य विभूति देख इसप्रकार अपने मनमें विचार करने लगा___मोतियोंकी लाखों मालायें और भांति भांतिकी मणियोंसे रचे गये एवं जिनकी रचना अत्यंत कारीगरीके लिये हुए हैं ऐसे ये विमान मुझे क्या दीख पड़ते हैं । नाना प्रकारकी अनेक ऋद्धियोंसे व्याप्त यह मनोज्ञ स्थान क्या है ? एवं विजलीके समान चमचमाती हुई प्रभाकी धारक एवं अत्यंत मधुर बोलने वाली ये देवांगनाएं कौन हैं । मैं कौन था और यहां कैसे आगया ? बस इस प्रकारका संशय हो ही रहा था कि उसीसमय उसे तीसरा ज्ञान–अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया जिससे उसका सारा भ म एक ओर किनारा कर गया ॥ १२७ । १३२ ॥ अवधिज्ञानकी ओर उपयोग लगा कर सहस्रारेंद्र देवने अपना सारा पूर्वभवका संबंध जान लिया एवं उसका हृदय आनंद से पुलकित हो गया। उसे उस प्रकार आनन्दायमान देखकर देवांगनाओंके हर्षका भी पारावार नहीं रहा। उनमें कोई देवांगना उसके मस्तक पर महामनोहर मुकुट लगाने लगी । कोई कोई सापाचार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल KYAYYFRICKMAYATRY TRY मानेन शात्वानंदमयोऽभवत्। तथाभूतं विलोक्याशु त्वलं चक्रुः सुरांगनाः॥१३३॥ काचिन्मुकुटसंदर्भ चर्करीतिरुम सादात् । सोमबासा सि काचिद्वा रोपयामास तत्तनौ ॥१४॥ आरुरोपांगदे काचित्काचिन्मुक्तागुणं गले । काचिद्विलेपनं चक चंदनम संभवं ॥१३५' माले विशेषकं काचित्पराग सुदनिगा रत्नलोहितमध्यांका चकार मेखलां कटौ॥३६॥ काचित्सुरावला:तस्य दर्पण चित्ततर्पणं । दर्शयामास कामाख्या सहासा परमिता ।। १५७ ॥ हामिदपूसाहामा वाजसन्निभं । चामरांदोलनेरुन्चे सुखयामास सादरं ।। |१३८॥ एवमादिक शृगारभूषितो देवराड बभौ । दृष्ट्या नाकसमुद्र ता मिंदिमित्यचिंतयस् ॥ १३६ ॥ इदं धर्मफलं नूर स्वर्गराज्य महा मनोहर सुगंधित वस्त्र उसे पहिनाने लगीं। किसीने उसे अङ्गद (बाजू बंध ) पहिलाया । कोई अगलेमें हार पहिनाने लगी। किसी किसीने मलयागिरि चन्दनसे उस देवके शरीरका उबटन किया कोई कोई ललाटपर तिलक लगाने लगी। किसी किसीने पद्मराग मणिकी बनी हुई एवं मध्यभागमें रत्नोंकी लालिमा ले अङ्कित करधनी उस देवके कटिभागमें पहिनाई। कोई कोई कामसे आकुलित और हंसने वाली देवांगना उस देवके दिव्य रूपपर मुग्ध हो चित्तको आनन्द प्रदान करनेवाला दर्पण दिखाने लगी तथा कोई कोई देवांगना जिसप्रकार मंगलदासके बड़े भाई कृष्णादासको पूरमल्ला नामकी स्त्री चमर ढार कर सुखी बनाती थी उसीप्रकार उस देवको भी चमर ढार ढार कर बड़े आदरसे सुखी बनाने लगी॥ १३३-१३८ ॥ इसप्रकार अनेक शृंगार जनक वस्तुओंसे सजा गया वह देवराज अत्यंत शोभायमान जान पड़ने लगा तथा सहसार स्वर्गमें होनेवाली दिव्य लक्ष्मीको देखकर वह देव इसप्रकार विचारने लगा6 अनेक देवोंसे सेवित यह स्वर्गका राज्य धर्मका फल है। यह दिव्य राज्य मुझं उत्तम पुण्यकी कपासे मिला है क्योंकि धर्मले संसारमें सब कुछ प्राप्त हो सकता है ऐसी कोई भी बस्तु नहीं जो ल/धर्मकी कृपासे न मिलती हो । बस इस प्रकार अपने मनमें विचार कर यह सहसार स्वर्गका स्वामी देव अनेक देवीं और देवोंसे वेष्ठित हो तीर्थ यात्राके लिये मेरु पर्वतपर गया नन्दीश्वर आदि द्वीप | में भी जिन चैत्यालयोंकी बंदनाके लिये भ्रमण करने लगा इस प्रकार असंख्याते द्वीप और समुद्रों पYYYY) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JaYTYNFPRE सुरार्चितं । प्राप्त मया सुपुण्येन धर्मातिक न भवेदिति ॥१४॥वितधर्य मानसे स्वीये देवीदेवसमन्वितः। मेरौ जगाम यात्रा तथा नंदीश्वरादिषु ॥ १४ ॥ असंख्यद्वीप वाराशोन् गत्या दृष्ट्वा समागतः । रेमे सुरांगनाभिध कीड़ा लेषु प्रत्यहं ॥ १५२ ।। दीधिका स्वच्छतोयेन पंकजावलिनालिना । चुंबितेन सुखं स्नात्वा पूजयामास श्रीजिनान् ॥ १४ ॥ शब्दसंभोग संजीनो देशी निकरमध्यमः । शाह हह कृत नाट्य पश्यतिम निकुशः ॥ २४ ॥ महादशसमुद्रायुरेक बापतमूच्छितिः । वर्तते देवनाथस्य बांकितकरस्य च ॥ १४५ ॥ द्रव्यभावप्रभेदेन शुक्लेश्या वयेन च । जघन्येन युनः पाठेश्योरकष्टनया पुनः ।। १४६ ॥ तृप्तो रूपरवाचार - बातुर्थ नरकाशि: में जाकर और उन्हें देखकर वह अपने स्थान लौट आया एवं प्रतिदिन अनेक देवांगनाओं - साथ साथ क्रीड़ा पर्वतोंमें अनेक प्रकारकी क्रीड़ायें करने लगा। वह पुण्यात्मा देवराज कमलोंकी | वेलोंसे व्याप्त एवं जिसका आखाद सुगन्धिसे मतवाले भोरे सदा लेते रहते थे ऐसे वावड़ियोंके - स्वच्छ जलमें वह स्नान कर, भगवान जिनेन्द्रोंकी पूजा करने लगा ॥१३६–१४३॥ सहसार नामक बारहवें स्वर्गमें देवांगनाओं के भूषणों के शब्द सुनने मात्रसे ही देवोंकी मैथुन अभिलाषी तृप्त हो । A जाती है इसलिये वह सहसारेंद्र सदा शब्द जनित भोगोंमें लीन रहता था । अनेक देवांगनाओंके । मध्यमें बैठकर आनन्द किलोल करता था एवं हा हा हूँ आदि शब्दोंसे जायमान नत्यको सदा निद्वंद्व हो देखता रहता था ॥ १४४ ॥ उस पुण्यारमा देवेंद्रकी अठारह सागर प्रमाण आयु थी। एक धनुष प्रमाण शरीरकी ऊंचाई थी और उसके हाथ वजूसे अंकित थे॥ ४५ ॥ सहलार स्वर्ग में पद्म और शुक्लके भेइसे दो लेश्यायें मानी हैं उनमें शक्ल लेश्या जघन्य रूपसे और पद्म लेश्या उत्कृष्ट रूपसे मानी है। वह देवेन्द्र द्रव्य और भाव स्वरूप जघन्य शुक्ल लेश्या और उत्कृष्ट पद्म लेश्या इस प्रकार दो लेश्याओंसे मीडित था ॥१४६॥ प्रवीचारका अर्थ मैथुनाभिलाष Kा है। वह देवेंद्र शब्द प्रवीचारसे तृप्त था। अपने अवधि ज्ञानसे चौथे नरक तकको बातें जान सकता या। अबधि ज्ञानका विषयभूत जितना क्षेत्र बतलाया गया है वहां पर्यत विक्रिया करनेकी वह सामर्थ रखता था और अणिमा महिमा आदि आठ प्रकारके ऐश्वयोंसे शोभायमान था ॥ १४७॥ AYYAAYAYAYAYAYANAYANAYA Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आक्षेत्र विक्रिया तेजा अणिमायाप्टमो समौ ॥ १७ ॥ अष्टादश सहस्राबैर्मनसाहारमाहरन् । गतेषु मघमासेषु निःश्वसंलखनावकः। 2 १४८ ॥ गीतादित्रनिषिर्या नाट्या सान्वितैः । रंभारुपावलोकेन युगांतः समयायते ॥ १६ ॥ सप्त धातुमिहीनांगः काममूर्तिः सुरा धिपः । असंख्यातसमुद्रषु डीपेषु कीलया स्थितः ॥ १५ ॥ धर्मात्स्वर्गीशलक्ष्मीमनुभवति सुरैः सेव्यमानां नितांत । मंगाकल्लोलमाला धवलफरिवरैर्भासमानां सरेनः । कीडाशैलर्षिमान मरकतमणिमिभितरम्यरूपा । धर्माहिक किं दुराप्यं भवति हि.भुषने भूरिधा म्नां नराणां ॥ १५१ ॥ रम्या भोकसुता सुराज्यविभव कीर्तिः कला कौशलं गांभीर्य वनिता विलोचनमुख रूपं च देवेंद्रता । धीधान्यं अठारह हजार वर्षों के बाद वह मनसे आहार ग्रहण करता था और नो महीनोंके बाद उश्वास लेता था ॥ १४८ ॥ सदा होने वाले गानोंसे वाजोंके शब्दोंसे नृत्यकलाके रसोंके अनुभवोंसे और 2 | देवांगनाओंके महा मनोहर रूपोंके देखनेसे सदा उसके लिये सतयुग विद्यमान रहता था ॥१४६॥ हड्डो मजा शक्र आदि सात धातुओंसे रहित उसका शरीर था । कामदेवके समान वह सुंदर था। समस्त देवोंका स्वामी था एवं असंख्याते द्वीप और समुद्रोंमें सदाक्रीड़ा करने वाला था॥१५०॥ A वह सहसार स्वर्गका स्वामी देवेंद्र जिसकी बड़े बड़े देव सेवा करने वाले हैं, जो गङ्गा नदीको | तरंगोंके समान सफेद हाथियोंसे शोभायमान हैं बड़े बड़े क्रीड़ा पर्वत, दिव्य विमान और मरकत मणियां जिसकी दिव्य शोभा बढ़ा रहे हैं ऐसी इन्द्र सम्बंधी सम्पदा सानंद भोग करने लगा। ठीक ही है जो मनुष्य भाग्यवान हैं उनके लिये ऐसी कोई भी चीजें नहीं जो धर्मसे प्राप्त न हो IS जाती हों ॥ १५१ ॥र्म संसारमें ऐसा अद्वितीय चिन्तामणि रत्न है कि उससे महा मनोज्ञ विभू लियाँ मिलती हैं सुन्दर राज्य, ऐश्वर्य, कीर्ति, कला, कौशल, गम्भीरता स्त्रियां नेत्रोंको आनन्द प्रदान करने वाला रूप, देवोंका स्वामीपना, उत्तम बुद्धि धान्य उत्कृष्ठ और विवेक परिपूर्ण बचन, चक्रवर्ती पना और तीर्थ करपना सब कुछ प्राप्त होते हैं। विशेष क्या संसारमें ऐसा कोई भी गुणोंका समूह | Dj नहीं जो कि धर्मकी कृपासे प्राप्त न हो ॥ १५२ ॥ प्रपत्रचारपसारस्यका Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमं विवेक वचन चक्रेश्वरत्वं वृषात् । श्रीतार्थ करता कमान गुणगणो न स्यादहो किं नणां ॥ १५२ ॥ ॥ इति श्रीविमलनाथपुराणे भट्टारकीरत्नभूषणाम्नायाल'कार ब्रह्मकृष्णदासविरचिते ब्रामंगलदाससाहाय्य सापक्षे पासेजचरसहस्रारेंद्रषिभूतिवर्णनोनाम द्वितीयः सर्गः समातः ॥२॥ इस प्रकार अपने छोटे भाई ब्रह्म मंगलदासकी सहायता पूर्वक भट्टारक रिलभूषणकी आम्नायके अलंकार स्वरूप ब्रह्म कृष्णदास द्वारा विचित श्रीविमलनाथ पुराणमें पद्मसेन राजाके जीय सहसारेद्रका विमति वर्णन करनेवाला दूसरा सर्गसनास हुआ।॥२॥ AAAAAAYफाफ । तीसरा सर्ग। चायेऽहं चर्चितं स्वस्थ काश्यपं मैरिकत्वियं । अटा स्वर्ण लतामामिस्तिरस्कारविप्रमं ॥ १ ॥ अथ जं)मति सोपे विख्यातेऽ नेकवस्तु IN भिः। समास्ति भारत वर्ष मेरोईक्षिणमामभाक् ॥ २॥ तत्रय कपिला नाम्ना विद्यते परमा पुरी । द्रोषमुका गुणैर्युक्ता धनाढ्या स्वर्ण 12 21 जो भगवान देवोंके द्वारा भलेप्रकार. पूजित हैं। काश्यप गोत्रके तिलक हैं। गरुआ रंगकी प्रभाके धारक हैं एवं जटाखरूप सुवर्ण की लताओंकी प्रभासे जिन्होंने सूर्यकी प्रभाको भी नीचा कर दिया है उन विमलनाथ भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ इसी संसारमें एक जंबूद्वीप है जो कि अनेक प्रसिद्ध २ चीजोंसे विख्यात है । जम्बूद्वीपके ठीक मध्यभागमें मेरु पर्वत है | KI और उसकी दक्षिणदिशामें प्रसिद्ध भरतक्षेत्र है ॥ २॥ भरतक्षेत्रके अन्दर एक कंपिला नामकी नगरी है जो कि अपनी शोभाले महा मनोहर है। समस्त प्रकारके दोषोंसे रहित है । नाना प्रकारके | लागुणोंसे अलंकृत है । धनसे व्याप्त और सुवर्णमयी महलोंकी शोभासे जाज्वल्यमान है ॥ ३॥ किसी समय उसका रक्षण करने वाला राजा कृतवर्मा था जो कि पुरुदेव वंशसे उत्पन्न था। राजा КҮүжүжүжүжүжүүлке Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगृहा ॥ ३ ॥ पुरुदेवान्वये राजा जातो राजमुखो यलो । कृतवर्माभिवस्तत्र प्रतापातिभूतलः ॥ ४॥ सर्वसामंत संसंव्यपादो रत्नरिपार्णवः । ऋरसौम्यगुणैर्भाति प्रभामार रविः प्रभः ॥ ५॥ सुदानाधिनिर्यातां भुवं संश्रित्य रोहति । ब्रह्मलोक समुल्लव्य स्वधुनीव शिवं नभः । ६ । निर्जरैरप्सरोभिश्च लोकिता सावरं सदा । यत्कीर्तिः कुदशोतांशु विशुभ्रामरजिताः ॥७॥ (पुग्न) चंद्रस्याचंद्रभा चांद्रोह समस्त राजाओंने प्रधान था । वलवान था एवं अपने प्रचंड प्रतापसे समस्त पृथ्वीनतको वश करने आला था ॥ ४॥ जिसप्रकार नाना प्रकार के रलोंसे समुद्र सेवित–व्याप्त रहता है उसोप्रकार यह समस्त सामंतोंसे सेवित था। समयानुसार क्रूरता और सौम्य गुणोंसे शोभायमान था एवं सूर्य के समान चमचमाती हुई प्रभाका धारक था ॥ ५ ॥ जिसप्रकार ब्रह्मलोकको उल्लंघनकर गंगानदीका प्रवाह बहता है एवं मोक्षको अतिक्रमण कर आकाश–अलोकाकाशकी विद्यमानता है उसीप्रकार के उत्तम दानरूपी समुद्रसे निकली हुई पृथ्वीको आश्चर्यकर वह उदयको प्राप्त थी अर्थात् इच्छानुसार दान देने कारण वह संसारमें सवोंमें चढ़बढ़ कर था-राजा कृतवर्मासे बढ़कर उससमय कोई श्री दानी नहीं था। वह राजा इतना सुंदर था कि देव और देवांगना उसे बड़ी आदरकी दृष्टि |से देखते थे । रसका यश कुन्द पुष्प और चंद्रमाके समान उज्वल थी और अत्यंत शोभायमान था ॥ ६-७॥ 12 राजा कृतवर्माकी महाराणोका नाम जयश्यामा था जो कि चंद्रमा के समान मुखसे सोभाय भान थी। चंद्रमाके समान कातिकी धारक थी। साक्षात् चंद्रमाकी कला जान पड़ती थी। मिष्ट | और मधुर बोलने वाली थी। राजहंसके समान मनोहर चाल चलने वाली थी। श्यमा श्री एवं कानोंतक विशाल नेत्रोंकी धारक थो लोग जिस समय उसे देखते थे उस समय वे यही समझो थे कि यह साक्षात् कामदेवकी स्त्री रति है कि लक्ष्मी है कि पद्मावती देवी है वा चन्द्रमाको बी रोहिणी वा सूर्यको स्त्री है ॥ ८॥ वह महाराणी जय श्यामा पीन स्थनोंसे शोभायमान थी उलका | КЕККЕКЕсүүкүKKEKYKKKKKK main HAJASuitmummmmun Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REFERaekFREERPRETRIE कलेव फलभाषिणी । राजहंसगतिः श्यामास्वाकर्णायतलोचना ॥ ८॥ राजतेस्म महादेवी जयश्यामाऽभिधा रतिः। पाश पावती रम्भा रोहणी चा रविप्रिया । पूरमल्लेव रूपेण पीनवक्षोजराजिता । करणायकरी स्थलनितंबपरिमंडला ॥१०॥ परस्परमहाप्रेम बद्धचित्तौ सुखं भृशं । रतिक्रीड़ासमुद्रत भोजयामासतुस्तदा ॥ ११॥ एकदा श्रीदमाहय शक इत्यगदीद्वचः । त्रयोदशमनोधैशः कापि सोऽवतरिष्यति ॥ १२ ॥ अतस्त्वया विधातव्या शोभा श्रीपसनस्य च । गृहांगणे महावृष्टी रत्नानां जिनभक्तितः ॥१३जिनाबतरणादर्वाक् षण्मासाबधि श्रीधनेट । वसुधारां पातयामास रंगराजिविराजितः ॥१४॥ एकदा मृदुसत्तल्पे हंसठूलान्विते युते । पुष्पवाते: | कटिभाग अत्यन्त पतला मष्टिग्राह्य था स्थल नितंबांसे युक्त यो एवं अत्यन्त रूपवती थो॥ १०॥ उन दिनों दंपतियों में बड़ा भारी ओपसमें प्रेम था इसलिये वे रतिक्रीड़ासे जायमान सुखका बड़े आनन्दसे अनुभव करते थे ॥ ११ ॥ भगवान विमलनाथकी उत्पत्तिका समय निकट जान एक दिन इन्द्रने कुवेरको अपने पास | बुलाया एवं यह कहा-तेरहवें तीर्थकर भगवान विमलनाथ कपिला नगरीमें माता जयश्या माके गर्भ; अवतरेंगे इसलिये तुम्हें कंपिला नगरीको हर एक प्रकारसे शोभायमान कर देना | चाहिये एवं भगवान जिनेन्द्र में प्रचण्ड भक्ति रखकर उनके महलके आंगनमें रत्नोंकी वर्षा करनी | चाहिये ॥ १२ ॥ बस इन्द्रको आज्ञासे भगवान जिनेंद्रकी उत्पत्तिके छह मास पहिले ही कुवेरने नानाप्रकारके रत्नोंकी वर्षा करनी प्रारम्भ कर दी॥ १३ ॥ एक दिन नितंबरूपी तहोंसे शोभायमान, कठिन और पीन स्तनोंकी धारक वह माता जयश्यामा गर्भ ग्रहके अन्दर नानाप्रकारके सुगन्धित पुष्पोंसे व्याप्त एवं हंसोंको पंखोंकी उनके समान अत्यंत कोमल शय्यापर सो रही थी कि अचानक ही उसे रात्रिके पिछले पहरमें सोलह स्वप्ने दीख पड़े जो कि भगवान जिनेन्द्र स्वरूप कल्याणके सूचन करनेवाले थे और महामनोहर थे सबसे पहले स्वप्नमें उसने हाथी देखा जो कि पूर्ण चन्द्रमाके समान शुभ्र था। कुभस्थलोंसे | पपपपपपर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 海 तकन पृथूरस्का सुप्ता गर्भगृहे मुदा ॥ १५ ॥ षोडशप्रमितान् स्वप्नान ददर्शेति धनस्तनी । कल्याणसूचकान् सौम्यान नितंयतरशोभिनी ॥ १६॥ सिंधुरं पूर्णचंद्रा लसत्कुभतरं वृतं । मदच्युतं महाशैलकैलाशमिवोन्नतं ॥ १७ ॥ वृषभं प्रांशुलकं हस्त्रप्रोध मृगदृशं । चपलं तारकाभ खस्त्रल्पोन्नतविषाणकं ॥ १८ ॥ कंठीर महाशुभ्र बलिनं भीधिवर्जितं । लसंतं सुंदराकारमूर्ध्वशुडं ततं ध्रुवं ॥ १६ ॥ पद्मासनस्थित हो सम्मुखीं । मुक्काकलापसमुद्रीवां रूपलोचनसौख्यां ॥ २० ॥ पुष्पदास्ती सुविन्यासे कुंदमंदागमिते । पारि जातकसंतानन मेकुसुमान् ॥ २१ ॥ चंद्र पूर्णकलं ध्वांतं क्षिपतं किरणाकुलं । विकलंकं मुखायंत तापनं लोचनप्रियं ॥ २२ ॥ | शोभायमान था। चौकोर सुन्दर था । करता हुआ मद उसकी अपूर्ण शोभा प्रगट कर रहा था एवं महा पर्वत कैलाश के समान ऊंचा था ॥ १४ – १६ ॥ दूसरे स्वप्न में बैल देखा जो कि उन्नत स्कन्धोंका धारक था। छोटी ग्रीवासे शोभायमान था । हिरणके समान विशाल नेत्रोंका धारक था। चंचल था । तारागणोंकी प्रभाके समान शुत्र था एवं उठते हुये छोटे छोटे सींगों से शोभायमान था तीसरे स्वप्न में सिंह देखा जो कि अत्यन्त सफेद था वलिष्ट निर्भय और महामनोहर था सुन्दर आकारका धारक था उसकी सटायें ऊपर थीं एवं वह विस्तृत रूप से खड़ा हुआ और निश्चल था ॥ १७–१८ ॥ चौथे स्वप्नमें लक्ष्मी देखी जो कि पद्मानरूपसे विद्य मान थी। उसके हाथ में कमल शोभायमान था । प्रसन्न मुखकी वह धारक थी उसका वक्षस्थल मोतियोंके हारसे जगमगाता था एवं अपने मनोज्ञ रूपसे वह नेत्रोंको आनन्द प्रदान करने वाली थी ॥ १६ ॥ पांचवें स्वप्न में दो मालायें देखीं जो बड़ी मनोहरतासे गुथी हुई थी । उनके बीचभागमें कुन्द और मन्दार जातिके पुष्प गुथे हुए थे एवं पारिजात संतान और नमेरू जातिके कल्पवृक्षोंके पुष्पोंसे वह बनी हुई थी ॥ २० ॥ छठें स्वप्न में चंद्रमा देखा जो कि समस्त कलाओंका धारक था धकारका नाश करने वाला था। किरणों के समूहसे व्याप्त था कलंक रहित था मुखके समान सुन्दर था संतापका नाशकर शीतल प्रदान करने वाला था और नेत्रोंको अत्यंत प्यारा था ॥ २१ ॥ सातवें स्वप्न में चमचमता हुआ सूर्य देखा जो कि अंधकार की जड़से दूर करनेवाला SHAYAR पुरा س Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातई तर्जितध्वांतं लोहितामं प्रतायिनं 1 मार्गामार्ग दिर्शतं वा सद्गुरु शामलोचनं ॥ २३ ॥ रमनुसन्मनोहारि तिमियुग्म तथाहि च । पंकजाच्छादितं पूर्ण पानोर्यघंटयुग्मकं ॥ २५ ॥ तडाग जलसांभीरं फुल्लतामस्सांचित । लोलकल्लोलमालाभिर्गर्जतं जलधि परं ॥ २५ ॥ रत्नस्वर्णात्मकं चित्रं विष्टर दैवतं पुनः ।व्योमयानं क्यणतं वे किंकिणीभिः समुद्रवत् ॥ २६ ॥ नागलोक महादीप्त भतां नागकुमार. | कैः । रत्नपुजं ज्वलंतं च निधू में ज्वलनं ततः ॥ २७ ॥ ददशैतान महास्वप्नान् प्रांते राशी मुखे गज । विशंतं पर्वतोत्तुर्ग यामे पाश्चात्यके Nथा। जलती हुई अग्निकी ज्वालाके समान ललोई का धारक था। एवं जिसप्रकार ज्ञानरूपी लोचन के धारक उत्तम गुरु यह उत्तम मार्ग हैं और यह कुमार्ग है इसप्रकारका उपदेश देनेवाले होते हैं उसीप्रकार वह सूर्य भी अच्छे और बुरे मार्गका बताने वाला था अर्थात् सूर्यके उदयकाल में ही यह ज्ञान होता है कि यह मार्ग जाने योग्य है और यह मार्ग नहीं जाने योग्य है । अंधकारमें अच्छे बुरे मार्गका ज्ञान नहीं होता । इसलिये अज्ञानतासे खड्डेमें भी गिर जाना पड़ता है A ॥ २३ ॥ आठवें रूप्नमें माताने मोनोंका युगल देखा जो कि जलमें किलोल करने वाला था संदर। था और अपनी चाल ढ़ालसे मनको हरण करता था नवमें स्वप्नमें सुवर्णमयी दो घड़े देखे जिनके मुख कमलोंसे ढके हुए थे और वे जलसे भरे हुए थे ॥२४॥ दशवे स्वप्नमें एक महामनोहर तालाब | देखा जो कि जलसे लबालब भरा था एवं फूले हुये कमलोंसे व्याप्त था। ग्यारहवें स्वप्नमें एक | विस्तीर्ण समुद्र देखा जो कि चंचल तरंगोंकी मालाओंसे गर्जता था। वारहवे स्वप्नमें एक महान मनोज्ञ सिंहासन देखा जो कि रत्न और सुवर्णोसे रचा हुआ था और देवमयी था । तेरहवें स्वप्न में विमान देखा जो कि छोटी छोटी घंटरियोंसे शब्दायमान था एवं शब्द करने और विस्ती तामें समुद्रकी उपमा धारण करता था ॥२५–२६ ॥ चौदहवेंस्वप्नमें नाग कुमारोंका भवन देखा जो कि अत्यंत देदीप्यमान था एवं नाग कुमार जातिके देवोंसे व्याप्त था । पंद्रहवें स्वप्नमें रतोंकी राशि देखी जो कि अत्यंत देदीप्यमान थी । एवं सोलहवें स्वप्नमें जलती हुई निर्धम ke अग्नि देखी ॥ २७ ॥ रात्रिके शुभ पश्चिम भागमें जिससमय माता जय श्यामा सोलह स्वप्न र पापहवामkumar Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FRYKK お寿局造者 शुभे ॥ २८ ॥ जगरामास सद्ध्यानलीना ललितलक्षणा । उत्थिता सल्पतो नूनं स्नात्वा सामायिकं व्यधात् ॥ २६ ॥ प्रातर्यादित्रनिर्घोष दिनां शुभसूचनैः । रंजिता गतवती भतुः समीपे प्रश्नहेतवे ॥ ३० ॥ शृंगारितलसदेहा स्थूलपीनपयोधरा । नांगी तप्तवर्णाभ पपातयोः पतेव ॥ ३१ ॥ तां चकोर दृष्ट्वा जगादेति विशांपतिः । प्रमाकृतो महादेवि ! यत्र त्वं समागता ॥ ३२ ॥ इत्यु कत्वावामके भागे स्थापयामास सादरात् । स्त्रकरेण समादाय जयश्यामां व कोविदां ॥ ३३ ॥ सापि भर्तुः परं मानं लब्ध्वा सुख देख चुकी उस समय सबसे अंत में अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ हाथी देखा जो कि सफेट रंगा और पर्वत समान उन्नत था ॥ २८ ॥ समीचीन ध्यानमें लीन एवं सुन्दर लक्षणों की धारण करने वाली वह माता जग गई । शीघ्र ही उसने शैय्या छोड़ दी एवं स्नानकर सामायिक करने बैठ गई। महाराज और महाराणीके जगानेके लिये प्रातःकाल में महा मनोहर बाजों के शब्द होते हैं एवं बंदीगण विरुद बखानते हैं। महारासीके जगते समय भी उत्तमोत्तम वाजोंके शब्द होने लगे एवं 'दीगण विरुद बखानने लगे इसलिये वह माता अत्यंत प्रसन्न थी । सामायिकके अंत में वह माता उठी और अपने स्वप्नोंका फल पूछने के लिये प्रसन्नचित्त हो अपने स्वामीके पास चल दी ॥ २६- ३० ॥ जिससमय माता जयश्यामा राजा कृतवमांके पास चली उससमय उसका सारा शरीर अनेक प्रकारके श्रृंगारोंसे देदीप्यमान था उसके कठिन और पीन दोनों स्तन विचित्र शोभा बढ़ा रहे थे । उसके शरीरसे तपे हुये सुबर्णको कांति फुट रही थी एवं उसका अंग नस्त्रीभृत था बस सभा में पहुंचते ही वह अपने स्वामीके चरण कमलोंमें जाकर गिर गई । अपनी महाराणी को इसप्रकार पूर्ण विनययुक्त देखकर राजा कृतवर्माको बड़ा आनंद हुआ एवं हर्षसे गदगद हो वह इसप्रकार अपना स्नेह व्यक्त करने लगा : हे महादेवि ! आप जो यहां पर पधारो हैं उससे मैं अत्यंत आभारी हूँ बस ऐसा कहकर आधा सिंहासन छोड़ दिया एवं अपने हाथसे माता जयश्यामाका हाथ पकड़कर उसे अपनी चई और बड़े आदर से बैठा लिया ॥ ३१-- ३३ ॥ माता जयश्यामा भी अपने स्वामी राजा कृतवर्मा से Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ३३ Ervas मिताली । त्रणां स्नेह विकासाथ भर्तु र्मान्यं भवेदिति ॥ ३४ ॥ व्यक्तीकृत्य परं प्रेम जगाद निजस्वामिनं । हे नाथ पश्चिमे यामे स्वप्ना दृष्टास्तु षोडश || ३५ || गजादिज्वलनां तान् प्रोक्त्वा प्रोवाच सदिगरे । एतेषां किं फल स्वामिन् ? बदत्यं करुणालय | ३६ | तां जगाद नराधीशः शृणु त्वं तत्फलं मुदा । अंभोजलोचने बाले नितंबभरमंधिरे ॥ ३७ ॥ दृष्टो गजो यतः शुभस्तव पुत्रो भविष्यति । कुलानंदकरो गौश्च सर्वभारधुरंधरः ॥ ३८ ॥ सिंहदर्शनतो नूनं विक्रमी व त्रिलोकजित् । रमादर्शनतो देवि त्रैलोक्परमाश्रितः ॥ ३६ ॥ | इस प्रकार सन्मान पाकर बड़ी खुश हुई और आनन्दका अनुभव करने लगी। बात भी ठीक है अपने स्वामी द्वारा किया गया सन्मान ही स्त्रियोंके लिये विशेष आनन्दका कारण होता है ॥ ३४ ॥ कुछ समय कानंदानुभव के बाद महारानी जयश्यामाने उत्कट स्नेह व्यक्तकर इसप्रकार अपने स्वामोसे कहा : वयस्क प्राणनाथ। रात्रि के पश्चिम भागमें मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं एवं पहिले स्वप्न हाथीसे लेकर अंतिम स्वप्न अग्निपर्यंत समस्त स्वप्न कह भी सुनाये एवं यह प्रार्थनाकी कि इन स्वप्नोंका फल क्या होना चाहिये ? हे कृपाके सागर स्वामी आप कृपाकर कहें ॥ ३५ --- ३६ ॥ रानी जयश्यामा सोलह स्वप्नोको सुनकर महाराज कृतवर्मा बड़े प्रसन्न हुए और वे यह कहने लगे - हे कमल नयनी और नितंबोंके भारसे मंद चाल से चलनेवाली प्रिये ! मैं अनुक्रमसे स्वप्नोंका फल कहता हू' तुम आनंदपूर्वक सुनो- तुमने जो स्वप्न में हाथी देखा है उसका फल यह है कि समस्त agart नंद प्रदान करनेवाला तुम्हारे पुत्र होगा। बैल जो द ेखा है उसका फल यह है कि वह समस्त भारको धारण करनेवाला होगा । स्वप्न में सिंहके देखनेका यह फल है कि वह सिंह समान पराक्रमी और तीनों लोकोंका विजय करनेवाला होगा । लक्ष्मीके दखनेका यह फल है कि वह तीनों लोककी लक्ष्मीका स्वामी होगा । पुष्पमालायें जो दो देखी हैं उनका फल यह है कि वह पुत्र शुक्ल लेश्याका धारक अत्यंत कोमल चितवाला होगा । चंद्रमाके देखनेका फल Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल० २३४ सतययय यय य पुष्पमविलोकांच्च शुक्लरेश्यो मृदुत्वतः । चंद्रान्वेषणतः कांते शांतः परमतत्त्ववित् ॥ ४ ॥ नभोमणिसमालोकात्प्रतापको चिष्टपः । मीनदर्शनतः प्राज्यराज्यभागो सुरार्चितः ॥ ४१ ॥ घटालोकतो मेरौ स्नानं लप्स्पति शकतः । तडाग. दर्शनाद्वामे सर्वलक्षणलक्षितः ॥ ४२ ॥ समुशलोकतो धीरध्वानो गंभीरशासनः । अगाधो भोगिदेवानामवाङ्मनसगोचरः ।। ४३ ।। सिंहासनसमालोकालोके समर्हितः । विमानदर्शनात्स्वर्गादागा मिष्यति है प्रिये ॥ ४५ ॥ फणींद्र सदनालोकान्नागलोक समर्हितः । रत्नपुंजस्मयह है कि वह चंद्रमा के समान लोगोंको आनंद प्रदान करनेवाली शांतिका धारक होगा और परमतत्त्वका जानकार होगा। सूर्यके देखनेका फल यह है कि वह पुत्र अपने प्रतापसे समस्तलोक को बश करेगा। मछलियोंके देखनेसे वह उत्तम राज्यका भोगनेवाला होगा और देवगण उसकी पूजा करेंगे। दो घड़ोंको जो स्वप्नमें देखा है उसका फल यह है कि उसेपुन्त्रका अभिषेक स्वयं इन्द्र मेरु पर्वतपर करेगा। तालाबके देखनेका यह फल है कि वह समस्त शुभलक्षणोंसे शोभायमान होगा समुद्र के देखनेसे वह पुत्र दिव्य ध्वनिका स्वामी होगा। उसकी आज्ञा गंभीर होगी योगो होगा और देवगण उसके गुणोका पता न पा सकेंगे एवं उसका चिदान दस्वरूप वचन और मनके अगोचर होगा अर्थात् न वचनसे कहा जायगा और न मनसे विचारा जा सकेगा। स्वप्नमें जो सिंहासन देखा है उसका फल यह है भूलोकमें सब लोग उसकी पूजा करेंगे। विमान देखनेका यह फल है। कि वह स्वर्गसे चयकर तुम्हारे गर्भमें आवेगा । नागकुमारोंका जो भवन देखा है उसका फल यह है कि समस्त नाग कुमारगण उसकी पूजा करेंगे। रत्नोंका पु ́ज देखनेसे वह करोड़ों सूर्योकी प्रभासे भी अधिक प्रभाका धारक होगा एवं स्वप्नमें जो सूर्य देखने में आया है उसका फल यह है कि वह तुम्हारा पुत्र समस्त कर्मोंका नाश करनेवाला होगा । चिदानंद चैतन्यस्वरूप होगा मोक्षलक्ष्मीका स्वामी होगा एवं अत्यंत बुद्धिमान होगा अपने स्वामी राजा कृतवर्मासे इसप्रकार स्वप्नों का फल सुनकर माता जयश्यामाका हृदय आनंदसे उछलने लगा । एवं उस समय पुत्रकी उत्पत्ति यतया Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N मिल न्धेषात्कोटिसूर्याधिकप्रमः॥४५॥ विभावसुसमालोकारकर्मध्वसी च चिन्मयः । मुक्तिसामाज्यो रहि ! भविता ते सुतः सुधीः ॥ १३५ P॥५६ ।। एव सुरवा महादेवा दयानरमाय सा । तुज लायसन्माना त्सानंदा संययो गृहं ॥४७॥ ज्येष्टे कृष्णदशम्यां च ऋझे भाद्रपदे ध्रुध । उत्तरादिमके स्वर्गासहस्रारेंच नाममा || ४८॥ च्युत्वावतरितो गर्भ राशया देवो विशोधित । देवाश्चतुर्णिकाया ज्ञात्वा स्यासनकंपनात्॥४६॥ गर्भायातं सुराधीशं गर्भ कल्याण मा दिण' चक्रानंदतः सर्वे सत्साहाः संप्युः पदं ।। ५०॥ पटपंचाशत् कुमार्यच सेवते शाक शासनात् । जिनांयां जगदानंद दायिनीं वै यथा ययं ॥ ५ ॥ काचित् गारयामास पट्टकूलादि वस्तु के समाचार सुनते ही उसे यह जान पड़ने लगा मानो साक्षात् पुत्र ही प्राप्त होगया है। वह बड़े आदरसे अपने मंदिरमें आ गई एवं अत्यंत आनन्दका अनुभव करने लगी॥ ३७–१७ ॥ कदाचित् जेठ कृष्णा दशमीके दिन जब कि उत्तर भाद्रपद:नामका शुभ ननत्र विद्यमान था 1. वह सहसारेंद्र नामका दव अपने निवासस्थान स्वर्गसे चला एवं दवांगनाओं द्वारा भलेप्रकार संशोधित माता जयश्यामाके गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गया । वह सहसारेंद्र भगवान विमलनाथ का जीव था इसलिये उसके गर्भमें आते ही चारों प्रकारके दवोंके आसन कंपायमान हो गये | जिससे उन्हें मालूम होगया कि भगवान विमलनाथ माता जयश्यामाके गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गये हैं इसलिये वे सानंद उनके गर्भकल्याणकका उत्सव मनाने के लिये चल दिये एवं आनंद | पूर्वक उत्सब मनाकर अपने अपने स्थान लौट गये ॥ ४५–५० ॥ सौधर्म इन्द्रही आज्ञासे, छप्पन कुमारियां तीनों लोकके जीवोंको आनन्द प्रदान करनेवाली माता जयश्यामाकी यथावसरभक्तिपूर्वक सेवा करने लगीं ॥५१॥ उनमें कोई कोई कुमारी नाना प्रकारके बस्त्र आदि पदार्थोंसे माताका शृंगार करने लगीं। कोई कोई कुमारी स्लान विलेपन आदिसे माताके शरीरको सुगंधित करने में लगीं। कोई कोई प्रतिसमय माताके पैर दवाने लगीं। कोई माताको हिडोलेमें बैठाकर मुलाने | लगीं। कोई नाना प्रकारके व्यंजनोंसे व्याप्त एबं रूप और लावण्यका बढ़ाने वाला महा स्वादिष्ट । ЖЖҮЖҮЖҮЖүкккккккккккккк Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ३६ おおおおお भिः काचित् स्नानादिना : गाये मातुः सौगंधिमातनोत् ॥ ५२ ॥ पादसंवाहनं काचित्करोतिस्म निरंतरं । काचिद्धं दोलिकारूद्रां रमयामास मातरं ॥ ५३ ॥ काचित्सद्भोजनं कृत्वा व्यंजनोकर संयुतं । भोजयामास सभक्तथारूपलावण्यवर्धकं ॥ ५४ ॥ काचिन्तानारसोपेतं नर्तन गार्भितं । करोतिस्म जिनांयाया सुखसंतान सिद्धये ॥ ५५ ॥ काचिद्र दर्पणं शुभ्र नरदन्तं च निर्मलं । दर्शयामास चातुर्यात्प्रश्न शालां पप्रच्छ का ॥ ५६ ॥ हे मातः ! किमुप्तदेयं संसारे दुःखदे नृणां । गुरूणां वचनं समे : उपादेयं लुकिः ॥ ५७ ॥ के गुरवो च भोजन तैयार कर माताको जिमाती थीं। कोई कोई माता जयश्यामा के सुखपूर्वक संतान हो इस अभिलाषासे उसके आगे नाना प्रकारके रसोंसे व्याप्त मनोहर गाने के साथ आनन्द नाच नाचने लगीं। किसी किसीने माताके सामने मनुष्य के शरीरके समान ऊंचा निर्मल और शुभदर्पण रक्खा और उसे दिखाने लगों एवं कोई कोई माता से इसप्रकार प्रश्न करने लगी अच्छा माता ! बतावो दुःखोंसे भरे हुए इस संसारमें मनुष्यों को ग्रहण करने योग्य पदार्थ क्या है ? माता उत्तर द ेतीं निर्मन्थ गुरुओंका वचन ही भक्तिपूर्वक संसार में ग्रहण करने योग्य है। प्रश्न- जिनका वचन ग्रहण करने योग्य होता है वे गुरु संसारमें कौन हैं ? उत्तर- जो तस्त्रों का स्वरूप भलेप्रकार जाननेवाले हैं और समस्त प्राणियोंको हित सुकाने वाले हैं। प्रश्न- माता सबसे जल्दी क्या काम संसारमें करना चाहिये। उत्तर-संसार बड़ा दुःख दायी है जहांतक बने तक सबसे पहले इसका छेदन करना चाहिये । प्रश्न- संसारमें मोक्षका कारण क्या पदार्थ है ? उत्तर -- -- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अर्थात् विना सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकती। प्रश्न-माता । संसारमें विद्वानों के लिये पथ्य – हितकारी, चीज क्या है ? उत्तर--स्वर्ग और मोक्षको प्रदान करने वाला धर्म । प्रश्न – संसार में पवित्रपुरुष कौन हैं ? उत्तर- जिसका मन शुद्ध है । प्रश्न- पंडित कौन है ? उत्तर— जो हित और अहितका विवेक रखता है। प्रश्न- विष किसको कहना चाहिये ? उत्तर— निर्मान्ध गुरुओंोंका सत्कार न करना उन्हें घृणा की दृष्टिसे देखना ही हला हल विष है क्योंकि वैसा करनेसे आत्मस्वरूपका तीव्ररूपसे घात 世炭素やわやわ A%A9% Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ नैयनयनय おれかでおでか肥系 KEREKEK तस्याः सर्वजंतुहितामताः । किं कर्तव्यं जयान्मातः संसृतेश्छेदनं ध्रुवं ॥ ५८ ॥ मोक्षभूरुहवीजं किं सम्यग्ज्ञानं च दर्शनं । किं पश्यं विदुषा मंत्र धर्मत्वं स्वर्गमोक्षदं ॥ ५६ ॥ कः शुचिर्मनसा शुद्धः पंडितः को विवेकवान् । किं विषं गुर्वसत्कारः किं सारं सुकुल मतं ॥ ६० ॥ मंदिरे किमस्त्यत्र स्नेहः के शत्रवोऽशुभाः । विषया दुर्जया लोके प्राणिनां घातिनो भृशं ॥ ६१ ॥ किं नियं याचनं लोके का मताविवरी । तृष्णा कस्माद्भयं मातमृत्युतः को विलोचनः ॥६२॥ रागी किं गहनं मातः ! स्त्रीचरित्र' सुदुस्तरं । कः शूरो ललना- होता है। प्रश्न – संसार में सार पदार्थ क्या है ? उत्तर-उत्तम कुलका पाना । प्रश्न- संसार में मदिरा किसे कहनी चाहिये ? उत्तर - श्री पुत्र आदि कुटुम्बके साथ मोह रखना ही मदिरा है। प्रश्नसंसार में बैरी कौन है ? उत्तर - अशुभ कर्म । प्रश्न- दुर्जय पदार्थ अर्थात् जिसका जीतना कठिन है ऐसा पदार्थ संसार में कौन है ? उत्तर:- इन्द्रियोंके विषय क्योंकि ये प्राणियोंके घात करनेवाले हैं। इनके फंदमें पड़कर प्राणी अपना हित नहीं पहिचान सकता ।। ५१- ६० ॥ प्रश्न--संसार में निंदित चीज क्या है ? उत्तर- किसी चीजका मागना मांगने के बराबर कोई भी निंदनीय चीज नहीं । प्रश्न – संसार में विषकी वेल क्या है ? उत्तर - तृष्णा । प्रश्न - संसार में डर किसका है ? उत्तर-- मृत्युका । सारा संसार मृत्युसे घबड़ाता है । प्रश्न--संसार में विलोचननेत्र हित कौन है ? उत्तर- जो पुरुष रागी है। प्रश्न- जिसका जल्दी पता नहीं पाया जा सकता ऐसा संसार में गहन पदार्थ क्या है ? उत्तर- स्त्रियोंका चरित्र अत्यन्त गहन है— विद्वानसे विद्वान भी उसका जल्दी पता नहीं पा सकता । प्रश्न – संसार में सबसे शूरबीर कौन है ! उत्तर - जो पुरुष स्त्रियोंका त्यागी है वही शरवीर है तथा जो क्रोधका त्यागी है और दानियों में प्रधान है वह भी शूरवीर है। प्रश्न- संसार में सबसे गौरव की बात क्या है ? उत्तर-- आनन्द प्रदान करनेवाली याचा अर्थात् किसी से कुछ न मांगना यही अत्यन्त आनन्दकी बात है । प्रश्न – संसार में दरिद्रता क्या कहलाती है। उत्तर- महा लोभपना जो पुरुष अत्यन्त लोभी है वही नितान्त दरिद्री १८ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपमहपरल त्यागी क्रोधजिहाननायकः ॥६॥ गुरुत्वं कि' मतं नणामयाचा परमोत्सवाक' दारिद्रय महालोभो जीधित' कि यशस्विता ॥१४॥ को जागर्ति पुरुध्यानी का निद्रा जड़ता मता | नलिनीस्थजले स्तुल्यं किं चलं योधनं धनं ।। ६५ ॥ शशलक्ष्मकराभाः के निंदारितास्तु स. Ko जनाः । किशुभ्र ध्यन्यते मातः पारवश्य सुखातिगं ॥६६॥ किं सुखं विद्यते चात्र सर्वसंगबिर्जितं । कोऽलकार: शुभं शील' मंडन । है। प्रश्न-संसारमें जीवन क्या है ? उत्तर-यशस्वीपना-मनुष्य अपने आयुके अन्तमें नियमसे मर से जाता है परन्तु उसका यश सदा काल ज्योंका त्यों बना रहता है। प्रश्न--संसारमें जागनेवाला 51 कौन कहा जाता है ? उत्तर जो महानुभाव परमध्यानी और संयमी हैं वहीं संसारमें जागनेवाला है। प्रश्न-संसारमें निद्रा क्या चीज है ? उत्तर-मूर्खता--मूर्ख सदा सोता ही रहता है। प्रश्न-कमल | HO के पत्र पर रक्खी हुई जलकी बंदके समान चंचल पदार्थ संसार में क्या है ? उत्तर-यौवन और धन प्रश्न-शशाके समान लक्षणोंके धारक और उसके समान छिपे हुए हाथोंसे युक्त संसारमें कौन है ?* - उत्तर-निन्दा रहित सज्जन अर्थात सज्जन पुरुष किसीकी भी निंदा नहीं करते और चुप रूपसे । दूसरेका उपकार करते हैं-हल्लाकर किसीका उपकार नहीं करते । प्रश्न-माता ! संसारमें साक्षात् नरक क्या माना जाता है ? उत्तर--परतन्त्रता जो कि स्वतंत्रता रूप सुखसे सर्वथा रहित हैं। प्रश्नसंसारमें सुख क्या चीज है। उत्तर-समस्त प्रकारके परिग्रहोंसे रहित रहना ही सुख है। प्रश्न-संसारमें भूषण क्या हैं ? उत्तर-शुभ शील और सत्यता ही निश्चल और अद्वितीय भूषण है । कड़ा कुण्डल आदि भूषण भूषण नहीं माना जा सकता। प्रश्न—संसारमें मित्र कौन है ? उत्तर-जो हितका शासन करनेवाला है। प्रश्न-कानोंसे रहितपना क्या है ? उत्तर-शास्त्र के सुननेका अभाव-अर्थात् | जो पुरुष आत्म हितकारी शास्त्र नहीं सुनता वह कानोंके रहते भी बधिर है। प्रश्न-संसारमें मरण क्या है ? उत्तर----नाना प्रकारसे चित्तको संताप देनेवाली मूर्खता ही संसारमें मरण है। प्रश्न-ki - संसारमें ध्यान करने योग्य पदार्थ क्या है ? उत्तर--समस्त जीवोंको आनन्द प्रदान करने वाले JAVAJAVAYAYAYAYAYVAYA U REET AY Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REERPRI Mपकमल सत्यता ध्रुवं ॥ १७॥ को मित्रं यो हित शास्ति कोऽकर्णो मरणं च किं । सारंगश्रवणाभावो मर्मता जन्मतापिनी ॥ ६८ ॥ को ध्येयो जगदानंदी जिद्र पो वृषभः प्रभुः । कि प्रधान दद्यादान यथाशक्तितपस्विता ।। ६६ ॥ एवमादिमहाप्रश्नमाला त्या पुनर्जगो। निगूढार्थ पद त्वं गोशिगंगा ॥ बारश्य त्वं फल मातः कि कायस्थाज्ञतां खलु। मामकीनं लसद्भधानं केवलझानसदगमं ॥ ७३॥( कियागुप्तमवः प्रश्नोत्तरजातिश्च ) सरातिसदोद्गारसहकसमप्रभः ! उग्रो भाति दुराचाराच तिमिरकतमोरिभः ।। ७२ ॥ | एवं चैतन्य स्वरूप भगवान ऋषभदेव । प्रश्न--संसारमें मुख्य चीज क्या है ? उत्तर- दया दान | और यथा शक्ति तपस्विता ।। ६१-६८ ॥ इत्यादि अनेक महागूढ़ प्रश्नोत्तर हो चुकते थे तब कोई कोई देवांगना मातासे यह कहती थीं कि हे माता ! तुम भगवान जिनेन्द्रकी माता हो और इस समय भगवान जिनेन्द्र आपके गर्भ में विद्यमान हैं इसलिये आप हमारी पहेलीका अर्थ बतलाइये। एकने कहा : हे माता। शरीरका फल क्या है और शरीरकी अज्ञानता बतलाने वाला कौन है ? आप ke कहें । उत्तर... केवल ज्ञानको उत्पन्न करानेवाला मेरा सुंदर ध्यान । अर्थात् उत्तम ध्यान करना ही शरीर धारण करने का फल है और उसीसे शरीरकी जड़ता जानी जाती है । ( इस श्लोकमें 'कथम कहैं' यह क्रिया गुप्त है और यह प्रश्न और उत्तर गर्भित है ) हे माता इस दुस्तर संसारसे रक्षा| करने वाला कौन है ? उत्तर-समस्त वैरियोंका सेनाके सहने में जो चक्रवर्तीके समान शोभायमान हैं। बलवान हैं। निंदित आचार रूपी अंधकारके नाश करने के लिये जो सूर्यके समान हैं (यह चौकोंण बंध श्लोक है ) जो सम चक्रवर्ती और असम-दरिद्रो दोनोंमें समान भावके रखनेवाले है | चन्द्रमाके समान मुख वाले हैं। जिनका ज्ञान चैयन्य रूपकी प्रशंसा करनेवाला है एवं न जो ira अनादरको मानने वाले हैं और न आदरकी पर्वा करने वाले हैं वे ही इस संसारसे प्राणियोंका। उद्धार कर सकते हैं अन्य नहीं। यह एक पाद कम यमकालङ्कार हैं। अर्थात् तीन पादोंमें यमक घडATRAPATAYERSyst Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल० ० प्रणय VERY (चतुरस्यं धोऽयं श्लोकः ) समासमसमः सौम्य सोमास्योऽसाम्यर्शसिमः । अमाननः सुमानतः कोऽयति दुस्तराङ्गवात् ॥ ७३ ॥ ( एकपादोनयमकालंकारः ) जिनगर्भप्रभावेन सर्वप्रश्नोत्तरं ददौ। सुशानमुनियन्माता देवोभिर्यादिता सती ॥ ८४ ॥ अपत्नीरूपसर्वाधि पाधिकवत् । यि शिवकर कि भो अलयि शुभ्रवं नृणां ॥ ७५ ॥ (अंतर्लापिका) गर्भभारवलीभङ्गो न जातो मातुरेव हि । गूढ गर्भस्थत बाधा नाजायत कदाचन ॥ ४६ ॥ सुखशय्यासनं पानं रूवं गतिमती सतः । सुविधा पुण्यगर्भ प्रसादतः ॥ हैं रक्त पादमें यमक नहीं ॥ ६६-७२ ॥ माता जयश्यामाके गर्भ में भगवान जिनेन्द्र थे इसलिये उनके प्रभाव से देवियोंने जो भी प्रश्न किये थे माताने उत्तम ज्ञानके धारक मुनिके समान समस्त प्रश्नोंका खुलासा रूपसे उत्तर दिया था ॥ ७३ ॥ गर्भ जैसा जैसा बढ़ता जाता है स्त्रियोंका उदर भी बढ़ता चला जाता है और उदर पर जो त्रिबली रहती है वह भी नष्ट हो जाती है परन्तु माता जयश्यामाका गर्भ यद्यपि दिनों दिन बढ़ता जाता था तथापि उनके उदरकी त्रिवली नष्ट नहीं हुई थी। उदर बेसाका वैसा ही विद्यमान था तथा माता जय श्यामाका गर्भ गुप्त था किसीको जान नहीं पड़ता था इसलिये गर्भ के समय जिस प्रकार अन्य स्त्रियों अनेक प्रकार की बाधायें होतीं है उस प्रकार माता जयश्यामाको किसी समय कैसी भी वाधा न थी ॥७४-७५॥ स्वयं भगवान जिनेन्द्र के अवतरणेके कारण माता जयश्यामा गर्भ पवित्र था इसलिये उस पवित्र गर्भ के प्रसादसे माता जयश्यामाको सोनेमें सुख मिलता था । रुचि पूर्वक वह भोजन और जल ग्रहण करती थीं उसकी मनोहर चाल थी । बुद्धि सदा निर्मल रहा करती थी एवं वह सुखनींद सोती थीं ॥ ७६ ॥ क्रमसे जब गर्भ के स पूरे हो गये उस समय माता जयश्यामाने माघ सुदि चौथ के दिन जब कि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र य सुख पूर्वक भगवान जिनेंद्र को जना | बालक रूप भगवान जिनेंद्र तेजके पुंज स्वरूप एवं आकाश में भगवान सूर्य थे । मति ज्ञान श्रुत ज्ञान और अवधिज्ञान रूप तीन ज्ञानके धारक थे। तीनों AVANANE Palak Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ४१ एKANAKYAKYA ७9 ॥ क्रमेण पूर्णमासतेिऽजीजनन्नन्दन ं सुखं । तेजः पुंजं नभोरत्न' कुलाकाश वा ॥ ७८ ॥ मात्रमासे सिते पक्षे चतुर्थ्यां गर्मजिम | त्रिबोधं त्रिजगन्नाथं जयश्यामा सुलक्षणं ॥ ७९ ॥ ( युग्मं ) स्वर्गे घंटारवो जातः सिंहनादश्च ज्योतिषि | व्यंतरेष्वारवो मे शंखशब्दो हि भावने ॥ ८० ॥ लक्षणलक्षितं जन्म विमलस्य सुरेश्वरः । यदा तदा सुराः सर्वेऽभिषेकार्थ समुत्सुकाः ॥ ८१ ॥ शा याधीश गर्ज चैरावताभित्रं लक्षक योजनप्राग्यं शतास्यं निर्ममे मुदा ॥ ८२ ॥ प्रत्यास्यं रहना अष्टौ प्रतितं सरोवरं । सरो वर' प्रति प्रोक्ता नलिन्या पंचविंशतिः ॥ ८३ ॥ प्रत्येकन लिनोवाद पंकजद्विशती मता । पंचविंशतिसंमिश्रा तत्प्रत्नं वल ॥ ८४ ॥ लोकके स्वामी थे और सुंदर लक्षणोंसे शोभायमान थे || ७७ ७८ ॥ जिस समय भगवान जिनेंद्र उत्पन्न हुए उस समय स्वर्ग में घंटानाद होने लगा । ज्योतिषियों के घरोंमें सिंहनाद होने लगा । ajain घरोंमें भेरी बजने लगी और भवनवासियों के घरों में शंखनाद होने लगा ॥ ७६ ॥ जिस समय घंटानाद आदि चिह्नोंसे देवोंके दंडोंको भगवान विमलनाथके जन्मका पता लगा उन्हें बड़ा आनन्द हुआ एवं उनके लिये उत्सुक होगये ॥ ८० ॥ उस समय कुबेरने अपने स्वामी इन्द्रकी आज्ञा से ऐरावत नामके हाथीका निर्माण किया जो हाथी एक लाख योजन का चौड़ा और सौ मुखोंसे शोभायमान रहता है ॥ ८१ ॥ हाथीके प्रत्येक मुखसे आठ आठ दांत रचे गये प्रत्येक दांत पर एक एक सरोवर रचा गया। हर एक सरोवर में पच्चीस पच्चीस कमलिनी ( कमलों को बेलें ) प्रत्येक कमलिनीमें दो सौ पच्चीस पच्चीस कमल और प्रत्येक कमलके सौ सौ दल (पत्ते) रचे गये एवं प्रत्येक फलपर एक एक देवांगना सानंद नत्य करती चली जाती थीं ऐसी रचना की गई। तथा ऐरावत हाथी के कुक्षिभागमें तेतीस सभाओंकी रचना की गई। जो कि महा मनोहर थी और हर एकमें तेतीस तेतीस करोड़ देव निवास करते थे । इस प्रकार अद्भुत रचना धारक ऐरावत हाथीपर प्रथम स्वर्ग सौधर्म इंद्र बड़े समारोहसे सवार हो लिया ॥८२॥८४॥ वह धर्मात्मा सौधर्म स्वर्गका इन्द्र अपनी प्यारी इंद्राणी और देवोंके साथ भक्ति भावसे स्वर्गसे कं तपनयनेप PAPAYAN Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल० ४२ एयतय नु दल प्रत्येकरंभा च ननृत्यति लयेमुदा । गजकुक्षिं प्रति प्रास्त्रयस्त्रिंशत्लभाः शुभाः ॥ ८५ ॥ तां प्रति समाख्याता स्वातोऽमर कोटयः । इत्यादिचनोपेत मारुरोह गर्ज सुरेंद्र ॥ ८६ ॥ सौधर्मेंद्रः शचीयुक्तो देव व्रातपुरस्कृतः । निर्ययौ स्वर्ग तो भावाद्भावो हि सज्ज नप्रियः ॥ ८७ ॥ अंतरिक्षे व्यवस्थाप्य सिधुरं तारकनं । अग्रवीद्मा मिनी मित्रश्चात्य त्वं गृदाज्जिनं ॥ ८८ ॥ अरिष्टांतर मागत्य तदा देवेशसुन्दरी । शंवरीममुचद्राशाः, नीत्वा वाल करेऽनमत् ॥ ८६ ॥ इन्द्रहस्ते शीघा गत्वा दत्तवती यदा सूर्य न तेजसां पु'जं पिलाकी ओर चल दिया। ठीक ही हैं जो सज्जन हैं-आत्माका वास्तविक स्वरूप समझते हैं उन्हे अपने उत्तम परिणाम ही प्यारे हैं वे धार्मिक कार्यको दिखावटी रूपसे नहीं करना चाहते ॥ ८५ ॥ सारा गणकी कांतिके समान सफेद उस ऐरावत हाथीको कपिला नगरीके ऊपरके श्राकाशमें टहरा दिया और भगवान जिनेंद्र को राज महलसे लाने के लिये अपनी प्यारी इंद्राणीको आज्ञा दी ॥८६॥ धर्मात्मा उस इंद्राणीने बड़े आनंदसे भगवान जिनेंद्र के गर्भ गृहमें प्रवेश किया । माया मयां निद्रासे माता जयश्यामाको निंद्रित कर दिया। बालक भगवान जिनेंद्र को उठाकर अपने हाथ में ले लिया । भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं अपने प्राणनाथ इद्रके हाथमें लाकर समर्पण कर दिया जिस समय इंद्राणीने भगवान जिनेंद्र को इंद्रके हाथमें समर्पण किया उनकी सर्वोच्च और अहिती कांति निहार कर वह विचारने लगा कि : यह साक्षात् सूर्यही मेरे हाथवर आकर रख गया है किंवा अनेक तेजोंका यह एक अद्वितीय 'ज है। बड़े आनंदसे उसने उस समय भगवान जिनेंद्रको, भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं जिनकी असंख्याते देव बड़ े प्रेमसे सेवा करने वाले थे ऐसे उन बालक भगवान जिनेंद्र को गोदी में विराजमान कर वह बड़े समारोह के साथ मेरु पर्वतकी ओर चल दिया । पर्वत पर सौमनस आदि चार बनोंमेंसे एक पांडुक नामका बन है जो कि नाना प्रकारकी चित्र विचित्र शोभासे व्याप्त हैं । उसी पांडुक बनके अन्दर एक पागडुक नामकी शिला है जो FRE PAPKPKPK JACKYAPAYAPAY Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ D चिंतयित्वा ननाम सः ।।नीत्वा जिनं गतो मेरावसंख्यसुरसेवितं । पाण्डुकाय वनं तत्र नानाशोभाभराचितं ॥२॥ पांडकाख्या शिला तत्र भाति मुक्तिरिवापरा । अर्धचंद्राकृतीरम्या दीर्घा सा शतयोजनैः ॥ १२ ॥ पंचाशद्योजनेदं वैबिस्तराव तथाष्टभिः । स्थूलयो जनस्तत्र सिंहासनत्रयं व्यभात ॥३॥ संस्थाप्य प्राङ्मुख देवं सौधर्मेद्रःस्थितस्ततः । क्ष.रवार्धिजल नेतु देवान् प्रेषयतिस्म सः ।। ४॥ अष्ट योजन गंभीरान् सहस्रप्रमितान् घटान् । अष्टाधिकान महारत्नविन्यासान् कनकात्मकान ।। ६५ ।। संयोज्य गगने देवा मुह कि दूसरी मोक्ष सरीखी शोभायमान जान पड़ती है। आधे चन्द्रमाके आकारको धारण करनेवाली है । अत्यंत मनोहर है। सौ योजन प्रमाण लंबी पचास योजन प्रमाण चौड़ी और आट योजन |प्रमाण मोटी है और उसके ठीक मध्यभागमें महामनोहर तीन सिंहासन विराजमान हैं। सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने पूर्व दिशाकी ओर मुखकर भगवान जिन्द्रको उस मनोहर सिंहासनपर विराजमान कर दिया और क्षीर समुद्रसे जल लाने के लिये देवोंको आज्ञा दी॥७॥ १२ ॥ अपने स्वामीको आज्ञानुसार देवोंने कलशे उठाये जो कि आठ योजन प्रमाण गहरे थे। संख्यामें एक हजार आठ थे। नाना प्रकार के देदीप्यमान रत्नोंसे खचित थे और सुवर्णमयी थे ।। ६३ ॥ हे भगवान जिनेंद्र ! आप चिरकाल जीओ इत्यादि जय जयकार करने वाले दव पंक्तिरूपसे आकाशमें खड़े हो गये । एवं जिनेंद्र की भक्तिसे प्रेरित हो तोर समुद्र के जलसे भरे हुये घड़े आने लगे ।। १४॥ भगवान जिनेंद्रकी भक्तिस हर्षायमान गुणरूप सौधर्मस्वर्गके इन्द्रने शीघ्र ही मायामयी हजार भुजाओं की रचना कर ली और उन भुजाओस सुवर्णमयी कुम्भोंको ले लेकर बड़े ओदरसे भगशन जिनेंद्रका अभिषेक करने लगा ।। ६५ ॥ जिससमय भगवान जिनेंद्रका अभिषेक होने लगा उस समय तरंगोंसे शोभायमान जल मेरुके चारों ओर पड़ने लगा। जलको वैसी दशा देख कर - देवोंको यह संदेह उत्पन्न होता था कि करोड़ों नदियां मेरु पर्वतसे निकल पड़ी हैं । नानाप्रकार के देदीप्यमान रत्नोंसे व्याप्त मेरु पर्वतपर फैला हुआ वह इरा नीला आदि पांचों वर्गोंको धारण MarkkhrsFkkr! herपर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Phekel KVK जयरवाकुलाः । आजग्मुः संघद्वास्तत्र जिनमक्किप्रणोदिताः ॥ ६६ ॥ शको बाहुसहस्त्रक चकार गुणगौरवः । धृत्वा कुमान् विभु शकः स्नपयामाससादरं ।। ६७ || अभितो मेहशैलेशं जलकल्लोलराजयः । अवातरश्च देवानां सरितः कोटिया किमु ॥ ३८ ॥ पंचव पर्यस्तत्र द्वश्यते मेरुत्त । कुत्रचित्त्रुटिता धारा लक्ष्यते रत्नदीतिभिः ॥ ६६॥ मयूरा युगपत्नत्र ( चु) कृजुर्घनसमागमं । जलराचमिति ज्ञात्वा ससारसमिश्रिताः ॥ १०० ॥ इतरेऽष्घः कृत्वा भावयतिस्म भावनां । ततः शकरिया चके प्रसाधनविधिं मुद्दा ।। ६०१ ॥ श्रवणो यस्य स्यातां वज्रशरीरतः । कर्णवेधोपचार वेश कारेंद्रस्यापि च ॥ १०२ ॥ किरोट कुण्डलैम्यैमेखला कटांगदैः करता था एवं कहीं कहीं पर रत्नोंकी कांतिस उसकी धारायें टूटी हुई नजर पड़ती थीं ॥ ६७ ॥ भगवान जिनेंद्रके मस्तक पर कुम्भ दारते समय जो जलका धधकार शब्द होता था उसे मौर हंस और स्याल नामके पक्षी मेघका शब्द मानकर एवं उस समयको वर्षा ऋतु समझकर अपने अपने मनोहर शब्दोंसे आकाशको व्याप्त करते थे ॥ ६८ ॥ एक हजार आठ कलसोमें से हजार कलसोंसे तो स्वयं इंद्र भगवान जिनेंद्रका अभिषेक करता था तथा शेष देवगण बाकी बचे आठ घड़ोंसे उस अभिषेक को करते और मनमें उनकी भावना भाते थे। जिस समय भगवान जिनन्द्रका अभिषेक समाप्त हो गया सौधर्म इद्रको इद्राणीने उबटन आदि कर भगवान जितेंद्र को जाना प्रारम्भ कर दिया ॥ ६६ ॥ भगवान के वज्रमयी शरीरमें पहिलेसे ही दोनों कान छिदे थे तथापि अन्य बालकों का कर्ण वेध [कानोंका छिदना ] संस्कार होता है इस लिये इंद्रने उपचार से | भगवान जिनेंद्र का बड़े ठाट वाटसे कर्णवेध उत्सव मनाया ॥ १०० ॥ महा मनोहर मुकूट ] कुण्डल करधनी कड़े और बाजूबंध भगवानको पहिनाये एवं स्वर्गीय होनेवाले नाना प्रकारके मनोज्ञ वस्त्र पहिनाकर भगवान जिनेन्द्रको शोभायमान कर दिया ॥ १०१ ॥ इन्द्रने भगवान जिनेन्द्र का मिलवाहन नाम रक्खा एवं उष्ट्रासन (ऊट जिस प्रकार बैठता है उस आसन से बैठकर ) | भक्तिसे गद्गद हो भगवान जिनेन्द्रकी इस प्रकार स्तुति करने लगा - LYRKER HIPKKKK Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. १५ णaradaayour नानास्वर्गसमुद्भूतः पट्टकू लैरभूषयत् ॥१.३॥ नाम्ना वजी चकारने जिन धिमलयाइन । उष्ट्रासन समासीनः स्तुति कर्तुं समुत्सुकः ॥१०॥ त्वं देव जगतां माथ स्त्वं ज्ञानी गुणसागरः । धर्ममूर्तिर्जितारिस्त्वं स्वं दाता शिवशर्मपाः ॥१०५॥ ज्योतीरूपः सदानंदी सना। तन महानिधिः । अज्ञानध्वांतमित्राभो मुक्तिश्रीवल्लभस्त्वकं ॥१०६ ॥ योगिनामप्यचिंत्यस्त्व मव्ययो भय बर्जिनः । एकानेकत्वमापन: स्याद्वादी सर्ववंदितः ॥ १०७ : त्रिभानी गर्भमास्धः सुरासुर नमस्कृतः । भन्यौषधिकलापस्त्वं ध्यानी दानी दयामयः ॥ १०८ ॥ क्रियते भगवन् ! आप तीनों लोकके स्वामी है। निर्मल ज्ञानके धारक हैं । उत्तमोत्तम गुणोंके समुद्र | हैं। धर्मकी साक्षात् मूर्ति हैं। राग द्वेष मादि समस्त वैरियोंके जीतने वाले हैं मोन रूपी सर्वोच्च कल्याणके दाता हैं परम कांतिके धारक हैं। सदाकाल आनन्दित रहने वाले हैं। सर्वदा रहनेवाली - ज्ञान आदि महानिधिक स्वामी हैं । अज्ञान रूपी अंधकारके नाश करनेके लिये सूर्यके समान हैं। मोक्ष रूपी लोकोलर सुन्दरी ग्यारे हैं। १९६॥ प्रभो ! आप इतने इतने अपरिमित और अगम्य गुणों के भण्डार हैं कि निरन्तर आत्माके स्वरूपके चितवन करने वाले योगी भी आप स्वरूपका विचार नहीं कर सकते। आप विनाश रहित अविनाशी हैं। किसीका भी आपको भार नहीं इसलिये आप भय रहित हैं । आप एक स्वरूप भी हैं और अनेक स्वरूप भी हैं। अर्थात् आत्म स्वरूपकी अपेक्षा एक रहने पर भी अनेक गुणोंकी अपेक्षा आप अनेक स्वरूप है। स्याहाद विद्या (अनेकांतवाद) के आप पारगामी हैं। समस्त जगत आपको पूजता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तोनों ज्ञानोंके धारक है । जिस समय आप गर्भक अन्दर विराजते थे उस समय भी सुर असुर आपको नमस्कार करते थे । भव्योंके लिये आप संसाररूपी रोगके नाश करनेके लिये पवित्र औषध स्वरूप हैं । ध्यानी हैं । दानी हैं और दया स्वरूप हैं। प्रभो ! समस्त आकाश तो कागज बनाया जाय। जलसे व्याप्त जितने भर समुद्र हैं उन सबके जलको स्याही बनाया जाय । मेरु पर्वतको कलम बनाया जाय और उच्च विद्याके विधान देवोंके इंद्र प Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर Dhum: कागर नाथ नमः सर्वेऽपि सागराः । मधीभूता जलाकीर्णा लेखिनी मेरुपयेतः ॥ १६ ॥ भारती कविदेद्रा लिखति त्वद्गुणान् सदा। न पारयति ते नूनं प्रांतपर्यंत तत्पराः॥ १०॥ अभिष्टुत्यैव सानंदो देवेंद्री अयमुच्यरन् गजारूढ़ जिनं कृत्वा पफाण पत्तन प्रति॥ १११ ॥ जयध्वानः सुरी समप्रांगणं व्यापितं भृशं । गर्जद्दु'दुभिनाकाशे प्रोच्यते किं यशोऽहतः ।। ११२॥ विष्टरेऽथ समारोप्य जिन तातं व मातरं । अभिषिच्य ददातिस्म बाल विमलयाहनं ॥ १॥३॥ शरण कुण्डलीभूताः कृता देवाप्सरोगणाः । सर्वतो ननृतंत्येव ल्यै Ke हर एक जगह बैठकर आपके गुणोंको लिखनेवाले बनाये जाय तो भी वे आपके गुणोंके लिखने में समर्थ नहीं हो सकते बस इस प्रकार सौधर्म स्वर्गके इंद्रने भगवान विमलनाथकी स्तुतिको एवं जय जयकार शब्द के साथ उन्मे ऐरावत हाथीपर सवार का बड़े समारोहसे कंपिला नगरीको और चल दियः ॥ १०७. -१११॥ कंक्लिा नगरीमें आकर राजा कृतवर्माका आंगन देवों के जय जयकार शब्द और बजते हुए नगाड़ों के शब्दांसे व्याप्त हो गया ठीक है त्रिलोकी भगवानकी प्रचण्ड कीर्तिके Me| विषयमें क्या कहा जा सकता हैं ॥ ११२ ॥ सौधर्म स्वर्गके इंद्रने आंगनके मध्य भागमें भगवान माता और पिताको एक मनोज्ञ सिंहासन पर विराजमान किया । सुगंधित जलसे उनका अभिषेक - किया और भगवान विमलनाथको उन्हे सौंप दिया ॥ ११३ ॥ इंद्रने अनेक देवांगनाओंको कुन्ड. लाकार खड़ा किया एवं वे विशेष भाव और लयों के साथ अनेक प्रकारके नृत्य करने लगी उस समय भगवानके जन्मोत्सबके उपलक्षमें ताल और स्वरों के साथ विशेष विशेष गाने होने लगे आनन्द मयी बाजे बजने लगे। जिसमें अनेक प्रकारकी ढारें दीख पड़ती हैं। मिलना विछुड़ना रूप हाव भाव दीख पड़ते थे। अनेक प्रकारके नाटकों के कार्य नजर पड़ते हैं। फिरना आदि दीख नहीं पड़ता रत्न जड़ित बांसरियोंके रस भरे राग युक्त होते हैं एवं मनको प्यारे महा रागोंकी जहां पर उत्पत्ति है ऐसे उस आनन्द नाटकको देवोंने किया ॥ ११४---११६ ॥ भगवान विमलनाथके माता पिताको देवोंने नाना प्रकारके भूषण और वस्त्रोंसे शोभायमान किया। आप पवित्र हैं बड़े -RE-REERake हिपहप प्रहस्प Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज० O 1 ५*५ र्भावे विशेषतः ॥ ११४॥ जन्मोत्सव महागानेस्तालैरानकवादनैः । ढालेर्मिलनकै दवे ननानाटक जातिभिः ॥ ११५ ॥ अष्टभ्रमणैर्भयो. रत्नवंशरसैः रसैः । अनुकूलैर्महाराश्चकुरानंदनाटकं ॥ ११६ ॥ ततौ भूषणसद्व भूषयित्वा प्रपूज्य च । धन्यौ पुण्याविति स्तुत्य पितरौ देवव्यर्थितौ ॥ ११७ ॥ वयो योग्य नियोज्यवियर्थः स्थानं पुरुहूतोऽगमत्तदा ॥ ११८ ॥ अथ राजा चकारोच्त्रैर्जेन्मजात महोत्सवं । पुरं शृंगारयामास पताका तोरणालिभिः ॥ ११६ ॥ ददौ राजा परं दानं हेमरत्न सुमिश्रितं । स्वयं जन्म शुभं मन्ये प्रदो हि सुतोत्सवः ॥ १२० ॥ दुदुभीरारटीतिरुम धेनुः स्वानकराशयः । वंदिनोऽधिरदायंत बभूवुः शंखद्रवा ॥ १२१ ॥ भाषणकलरिकारावा रेजुः पटहराजयः । ननृतंनिस्म नर्तक्यो मना किं वर्ण्यते मया ॥ १२२ ॥ एधतेस्म सुखं वालो द्वितीया बड़े देव आपकी पूजा करने वाले हैं इसलिये आप धन्य हैं इस प्रकार उनकी बड़े प्रमसे स्तुतिकी ॥११७॥ इंद्रने भगवानकी ही उम्र के देवोंकी उनके साथ खेलने के लिये योजना करदी । अनेक देवोंसे वेष्ठित वह अपने स्थान पर लौट गया एवं अन्य देव भी अपने अपने स्थानों पर चले गये ॥ ११८ इस प्रकार देवों के द्वारा जिनेन्द्र भगवान के जन्मोत्सव के किये जाने के बाद राजा कृतवर्माने भी उनका जन्म महोत्सव मनाया। पताका और तोरणों की पक्तियोंसे उसने सारा नगर सजवा दिया ॥ ११६ ॥ बहुतसे स्वर्ण और रत्न दानमें दिये और भगवान जिनेन्द्रकी उत्पत्तिसे अपने जन्मको धन्य समझा । ठीक ही है पुत्रको उत्पत्ति विशेष हर्षको करने वाली होती हैं ॥ १२० ॥ | उस समय भगवान जिनेन्द्र के जन्मोत्सव के उपलक्ष में दुन्दुभी बाजे बजने लगे । नगाड़ों के शब्द होने लगे। बंदीगण विरद बखानने लगे। शंखों के मनोहर शब्द होने लगे । झालरी और पटह जाति वाजों के मनोहर शब्द सुने जाने लगे एवं नाचनेवाली आनन्द नाच नाचने लगीं विशेष क्या | उस समयकी विभूतिका वर्णन करना शक्तिके बाहिर है ॥ १२१ ॥ १२२ ॥ जिस प्रकार द्वितीया का चन्द्रमा दिनों दिन बढ़ता चला जाता है । उसी प्रकार बालक रूप | भगवान विमलनाथ दिनों दिन सुख पूर्वक बढ़ने लगे एवं महा मनोहर भांति भांति के रूप धारण कर देवगण उन्हें हंसाने खिलाने लगे ॥ १२३ ॥ भगवान बासुपूज्यका तीस सागर प्रमाण तोर्थकाल पत्रपत्रक Preke Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हपकार सोमबत्तरां । रमयतिस्म देवौधा नानास्पैर्मनोहरः ॥ १२३ ॥ वासुपज्येशसंताने विश सागर संमिते । प्रांतपल्पोपामे धर्मध्वंसे दुगत जीवितः ॥ १२४ ।। तस्यायुः षष्टिलक्षणां वर्षाणां संबभूव च (६०००००० )ष्टिचापतनत्सेधस्तप्तजांबुनद प्रमः ।। १२५ ॥ खपंचके दियकाब्दकौमार धिरतो महान् । प्राप्तराज्याभिषेक ऽभूत्प्रतापानांतविष्टपः ॥ १२६ ॥ पझा सहचरी जाता सहोल्पना सरस्वती। प्रतापधीरवोरत्वं तस्याम त्पुण्यतोऽखिल ॥ १२॥ सत्यादयो गुणा यस्य चैधतांभोधिरंगवत् । योगिनामपि संश्लाया वीर्तिकाष्टांत गता॥ १२८॥ ये नमंति सुराः सर्वे नरेवाः खेचरास्तथा। धरैशा हरय स्तस्य ध्रुव का वर्णना परा ॥ १२६ ॥ शिल्लक्षप्रमाणानां समाना राज्यकालता । तस्याभूत् काश्यपीनाथैः पूज्यपादस्य सद्धियः ।। १३० ॥ नानाभोगान् भुनक्तिस्म घट्ऋतुसंभवान् परान ! जब बीत चुका था एवं एक पल्योपम काल पर्यन्त धर्मका ध्वंस हो चुका था। उस समय भगवान X विमलनाथका जन्म हुआ था। इन भगवान विमलनाथकी आयु साठलाख वर्ष प्रमाण थी। साठि धनुष प्रमाण शरीरकी उंचाई थी एवं उस शरीरकी प्रभा सोनेकी प्रभा जैसी थी ॥ १२४ । १२५ ॥ भगवान विमलनाथके कुमार कालके १५००००० पन्द्रह लाख वर्ष जब वीत गये उस समय उनका ! राज्याभिषेक हुआ एवं अपने अद्वितीय प्रतापसे उन्होंने समस्त जगतको वश कर डाला ॥ १२६ ॥ भगवान विमलनाथकी पटरानीका नाम पद्मा था एवं वह साथ उत्पन्न होने वाली सरस्वती देवी सरीखी जान पड़ती थी। भगवान विमलनाथको तीब्र पुण्यके उदयसे प्रतापसे एवं धीरवीरता सभी बाते प्राप्त थीं ॥ १२७ ॥ जिस प्रकार समुद्रकी तरंगे प्रति क्षण बढ़ती चली जाती हैं उसी प्रकार भगवान जिनेंद्र के अन्दर सप्त आदि गुण निरन्तर बढ़ते चले जाते थे। संसारकी समस्त बासनाओं से सर्वथा बहिर्भत बड़े बड़े योगी भी उनकी कीर्तिकी सराहना और प्रशंसा करते थे एवं समस्त दिशाओं में यह व्याप्त थी ॥ १२८ । विशेष क्या जिस भगवान विमलनायको बड़े बड़े देव राजा विद्याधर चक्रवर्ती और अर्ध चक्री भी मस्तक झुकाकर नमरकार करते हैं उनके विषय में जो भी वहन किया जाय थोड़ा है ॥ १२६ । १३० ॥ अनेक बड़े बड़े राजा जिनके चरण कमलोंकी सानन्द पूजा प.KI.यसकर प Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 影慧影奖名為整名 名 पाणां हावभावेश्च सार्थकान् चम्बनादिभिः ॥२३॥ भोगक्षीराधितिर्मन्नो गनं कालं न वेन्यौ। भूनि सौरये हि मानां यु ऽपि लवानि ।। १३२ । हरिकर भरशालिग्राज्यगय नोज्य - रायगनवदामाभोग मंदोददर्श । सकल मुन समुद्र पायालिंगितं । हाचि सुलोक लोकनायो दुना ॥ १३ ॥ काति५. कालामुनभाना-नाति हरिरामरता । भोजति रदं काम लभ भवति किं वृक्षतो न ।। १३४॥ इत्यापश्रीविमलनाथ पुराणे भट्टारकीरत्नभू पधाम्नायालंकारखाकष्णदास विरचिते मधोमंगलदाससाहा यसापेक्ष श्रीविमलनाथोत्पत्तिशक विहिताभिषेकानंदनाटकवर्णनोनाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ करते हैं और जो उत्तम ज्ञानके धारक हैं ऐसे झमबार विमरनाथला रावर काल तीस लाख वर्ष प्रमाण था ॥ १३१॥ वे भगवान विमलनाथ स्त्रियों के हाव भाव और चुम्बन आदिसे सार्थक छहो ऋतुओंमें होनेवाले नाना प्रकारके भोगोंका आनन्द भोगते थे। भोग रूपी क्षीर समुद्र में मग्न पावे भगवान विमलनाथ अपनी आयुके गए हुए विशाल भी कालको नहीं जानते थे ठीक ही है जय । मनुष्य विशेष सुखमें मग्न होजाते हैं उस समय उन्हें विशाल भी युगांतकाल लव-छोटेसे काल | IS के टुकड़के समान जान पड़ता है ॥ १३२----१३३॥ जिस प्रकार सदा लक्ष्मीसे आलिङ्गित कृष्ण | वर्ग लोकका सुख भोगते रहते हैं उसी प्रकार जो अनेक हाथी और घोड़ोंसे शोभायमान हैं। राजाओं के अभीष्ट हैं। पुण्यसे प्राप्त उत्तमोत्तम स्त्रियोंके भोगोंको प्रदान करने वाला है एवं समस्त | सुखका समुद्र है । ऐसे उस उत्तम राज्यको भगवान विमलनाथने सानन्द भोगा संसार मैं धर्म एक उत्तम पदार्थ है क्योंकि उसीकी कृपासे यश विशेष लक्ष्मी पुत्र सुन्दर स्त्रियां चकवतो एना अर्ध चक्रीपना बलभद्र पदवी भोग भूमि का सुख और स्वर्गोंका सुख सुलभ रूपसे प्राप्त होता 1 पाता है । धर्मकी कृपासे कोई भी बात दुर्लभ नहीं ॥ १३४॥ " इस प्रकार भट्टारक श्रीरत्नमपणकी आम्नायमें ब्रह्म मंगलदासकी सहायता पूर्वक वाष्णदास द्वारा विरचित पिम नाथ पुराणमें भगवान विमलनाथकी उत:ति इंद्र द्वारा उनका जन्म कल्याण और आनन्द नाटकको वर्णन करने वाला तीसरा सर्ग समात॥३॥ ladke Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARSEK चौथा सर्ग | युगादिभवमादीश शर्मणे शिवदं शिवं | वंदेहं कोटिराजाभं सोम्यत्वाज्जगतां पतिं || १|| अर्थकदा नराधीशो सैन्ययुक्तो वन गतः हिमंत रममाणः सन् कौतुकं दृष्टवानिति || २ || हिमानीं च महाशुभ्रां चंद्रकुदसमप्रभो । जलाशये दर्शासौ चित्रा सौख्याकर प्रदां || जो भगवान आदिनाथ युगको आदिमें होनेवाले हैं । मोक्ष कल्याणको प्रदान करनेवाले हैं । स्वयं कल्याण स्वरूप हैं । अत्यंत सौम्य होनेसे करोड़ों चन्द्रमाको कांतिको धारण करने वाले हैं और समस्त जगतके स्वामी हैं उन भगवान आदिनाथको मैं अपने कल्याणके निमित्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ एक दिनकी बात है कि शरद ऋतु के अन्दर वे नरनाथ भगवान विमलनाथ अपनी सेना से वेष्टित हो एक विशाल वनमें प्रवेश कर गये और वहां अनेक प्रकारकी क्रीड़ाये करने लगे । सामने एक तालाव में उन्हें हिमानी -- बरफका समूह दीख पड़ा जो कि देखते ही अत्यंत कौतूहलका करने वाला था सफेद था चंद्रमा और कुन्दपुष्पकी प्रभाका धारक था और चित्तको अत्यंत आनंद प्रदान करने वाला था ॥ २ ॥ ३ ॥ वे उसे बड़ी आनन्दमयी दृष्टिसे देख रहे थे कि वह देखते देखते पिघल गया बस उधर तो वह पिघला और इधर भगवान विमलनाथके चितमें एकदम ससार शरीर भोगोंसे बैराग्य हो गया वे अपने मनमें इसप्रकार वैराग्य भावना भाने लगे कि यस्य जयज जिसप्रकार यह वरफका समूह देखते देखते पिघल कर नष्ट हो गया है उसी प्रकार संसार की जितनी भी चीजें है अपना अपना काल पाकर सभी नष्ट होने वाली हैं यह जो मेरे साथ विशाल सेना है इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं । अनेक शुभलक्षणोंका धारक यह शरीर भी मेरा हितकारी VKYA Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाय र Жүкүкккккккккккккккккк ३॥ तदेव तां गता भंग दृष्ट्वा राजा स्थमानसे । चिंतयामास वैराम्प सर्व कालेन नश्यति ॥ ४॥ किं बलेनामुना भग्ना किं लक्ष्म्या अपुषा पे च । किं कुटुम्ब सुतसोभिः कृत्यं मम हि संप्रति ।। ५॥ विधुदुन्मेषसंकाशं यौवनं च धनं धपुः । विद्यते क्षणिकं सर्व हिमानीव न संशयः ॥६॥ पितृपा भुनक्येव सुपुत्रोऽपि न जातु चित् । पुत्रचन्तनसो भागी सावित्री जनकश्च न ॥ ७॥ स्वं स्वं कर्म कृतं गणो भुनक्ति श्वभु सागरे । संसारे दुःख सौख्यस्य विभागीको न विद्यते॥ ८॥ भागनयात्मकं चायुर्गतं मम निरर्थक चतुःपादिव सद्धर्माधिनादो जीवितेन कि ॥ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाश्च नासाधिषत यैरलं । ख्याति व्याप्ति प्रशंगश्च नाध्वंसि ते बृयाजनाः ॥ १० ॥ नहीं कुटम्म पुत्र स्त्री पदार्थ भी जो कि अत्यंत प्यारे माने जाते हैं उनसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं सर सकता क्योंकि काल पाकर ये सब नष्ट होने वाले हैं सदा काल मेरे साथ रहने वाला कोई नहीं ।। ४।५ ॥ ये यौवन धन और शरीर विजलीकी चमकके समान चञ्चल हैं एवं जिस प्रकार यह कठिन भी बरफका समूह देखते देखते पिघलकर नष्ट हो गया है उसीप्रकार ये भी जणभर में विनश जाने वाले हैं, यह बिलकुल निश्चित बात है ॥६॥ पिता संसारके अन्दर जो पाय करता है पुत्र उसका फल नहीं भोगता तथा पुत्र जो पाप उपार्जन करता है माता और पिता भी BAI उसके फलका भोग नहीं करते किन्तु दुःखके सागर रूप इस संसारमें अपने द्वारा किये गये कर्मका Ra फल आप ही भोगना पड़ता है। शुभ अशुभ कर्मसे जायमान दुःख और सुखका बटानेवाला कोई भी नहीं है ॥ ७ ॥ ८॥ पशुकी आयु जिस प्रकार निरर्थक बीतती है उस प्रकार मेरी आयुक चार भागोंमें तीन भाग तो निरर्थक चले गये रंचमात्र भी मैं धर्मका आराधन नहीं कर सका क्योदि धर्मके बिना जीना बिफल है ॥ ६ ॥ संसारमें जिन महानुभावोंने धर्म अर्थ काम और मोक्षका साधन नहीं किया और नाम एवं प्रसिद्धिकी अभिलाषा नहीं रोकी । पुरुष अधम हैं उन्होंने अपने 6] जीवनका कुछ भी मूल्य नहीं समझा ॥ १०॥ जिस मनुष्यका यह विचार है कि बृद्धावस्था आने पर हम विषयोंको जीत लेंगे और उत्तम तपको तप लेंगे वह मनुष्य भले ही चाहे समर्थ हो । पयार Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या YAS TT वृद्धत्वे विषयान् जेतु विधातु सत्तपो नरः । मेरोरारोहणे पंगुरायन इन यो विभुः ॥ ११ ॥ नरकस्य मत द्वार कामः क्रोधश्च लोभता । इति अयं परित्यज्य शमिनो याति चिन्प्रयं ।। १२ । गाईभ्ये धर्ममिच्छनि रामामा ममता हताः । खपुष्पैस्ने दुराचारा वा वंध्यासुन रोखर ॥ १३॥ अणोयस्येव संगेऽपि राग विठ्ठल मानसे | संभावनं शिवस्यैव प्रादुःखर विषाण वत् ॥१४॥ तदा प्रादुर्वभूवास्य PA अशिष्टं शानमंजसा । सारस्वताइयो देवा आगमन् प्रतियोधने ।। १५॥ विधात्यष्ट रातान्येव सहस्त्राणां च सप्तक। चतुल क्षणमा नूनं IS तथापि जिस प्रकार तुन्दित-बड़े पेटयाला मेरु पर्वत पर नहीं चढ़ सकता उसी प्रकार वह पुरुष भी वृद्धावस्थामें विषयोंपर विजय और उत्तम तपका आचरण नहीं कर सकता ॥ ११ ॥ काम क्रोध और लोभ ये तीनों नरकके द्वार माने जाते हैं-इन्हींको अपनानेसे नरकमें जाना पड़ता है इसलिये 7 व मुनिगण इन तीनोंका सर्वथा त्यागकर चिन्मय-मोक्षरूपी परम सुखका रसास्वादन करते है ॥ १२ ॥ जो महानुभाव स्त्री और लक्ष्मीकी ममतामें फंसकर गृहस्थ अवस्थामें भी धर्मकी | IN अभिलाषा रखते हैं वे महानुभाव बन्ध्या स्त्रीके पुत्र के शिरपर आकाशके फूलोंसे बने मुकुटको देखना चाहते हैं इसलिये वे दुराचारी हैं-सम्यक् चारित्रके पालन करने वाले नहीं हो सकते सार यह है कि आकाशके पुष्पोंसे गुथे हुए मुकुटसे युक्त बांझके पुत्रका होना जिस प्रकार असंभव है उसी प्रकार | क्षी धन आदि के मोहमें मुढ़ होकर धर्मका पालन करना भी असंभव है। स्त्री आदिके मोहमें ग्रस्त पुरुष कभी वास्तविक धर्म पालन नहीं कर सकता ॥ १३ ॥ यदि चित्तमें कणमात्र भी परिग्रहके का प्रन्टर राग बना रहे तो जिस प्रकार गधेके सीगोंका होना संसारमें असम्भव है उसी प्रकार मोक्ष IT को प्राप्ति असंभव है—रागकी विद्यमानतामें कभी मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकती ॥ १४ ॥ इस प्रकार Sवचार करते करते भगवान विमलनाथ के संसार, शरीर आदिसे उदासीनता रूप विशिष्ट ज्ञान हो | गया एवं उसी समय सारस्वत आदि लोकांतिक देव भगवानके प्रतियोधने के लिये यहां आकर उपस्थित होगये ॥१५॥ ये देव चार लाख सात हजार आठसौ बीस४०७८२० थे ओर ये सब एक भवातारी बाल ब्रह्मचारी होते हैं॥१६॥ वे भगवान विमलनायके सामने खड़े होकर इस प्रकार कहने लगे- 5 MaraYASTER PRITarkarKET Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' - . . . सम HTTEN तेऽमरा प्रचारिणः ॥ १६॥ (४०७८२०) एवमार्जिन देवा दोमुक्त गुणान्वितं । वैराग्यरससम्पूर्ण क्षतमायाधियर्जिनं ॥ १७॥ सद्विरङ्गीकृतं यश्च पालनोय प्रयक्षतः। अन्यथैव मनुष्याणां हास्यता भवति ध्रुवं ।।१८॥शरा विवेकिनः शताः दातारो गुणिनो विदः । प्रारम्च ये प्रकुर्वन्ति स एव भुवनोसमाः। १६ ॥ जोधेनानेको भुक्त रामाराज्यधनोहच। सुखं तृप्यति नो जीवो भोगा. दीना तथापि च ॥ २०॥ भष'शेऽभवन् मरिचक्रमाविक्रमाः क्रमात् । त एव निधनं याता निश्चलं किं हि गण्यते॥ २१॥ इन्द्रिया णि प्रणश्यति पापमायाति पृष्ठतः । तस्कृतं तेन बंधः स्यात् श्वनभाजी ततो भवेत् ॥ २५ ॥ सांनिध्याज्जायते सिद्धिश्चन्दनानां भवा PI भगवन् ! जो मार्ग दोषोंसे रहित है। अनेक गुणोंका भंडार है। वैराग्य रससे परिपूर्ण है । छल छिद्र कपटसे रहित है और सर्वोत्तम कल्याणके अभिलाषी सजन जिसे अपनाते हैं उसी मार्गको इस समय आपने स्वीकार किया है इसलिये आपको वह अवश्य प्रयत्न पूर्वक पालन करना Pal चाहिये। यदि आप उसे धारण कर छोड़ देंगे तो आप निश्चय समझिये सोरा संसार आपकी | हली करेगा ॥ १७ ॥ १८ ॥ जो महानुभाव किसी भी कार्यका आरम्भ कर उसे पूरा करते हैं वे ही | मनुष्य संसारमें शूरवीर समझे जाते हैं तथा वे ही विवेकी. समर्थ, दाता, गुणवान और विद्वान माने | जाते हैं एवं वे हो संसारके भूषण गिने जाते हैं॥६॥ इस जीवने संसारमें रहकर स्त्री राज्य और धनसे जायमान सुख अनेक बार भोगा है तथापि भोग आदिसे इसकी तृप्ति नहीं होती ॥ २० ॥ | भगवन् ! आपके इस पवित्र वंश, अतुल संपत्तिके स्वामी बड़े बड़े चक्रवर्ती और प्रतापी राजा होगये हैं और कम क्रमसे काल उन्हें अपना कवल बनाता चला गया है इसलिये संसारमें अविनाशी पदार्थ कोई जान नहीं पड़ता ॥ २१ ॥ इन विषय भोगोंमें लीन रहने पर इंद्रियां नष्ट होती | हैं। पापका आत्रव होता है। पापके आस्रवसे बन्ध होता है एवं उस बन्धकी कृपासे नियमसे इस PM जोवको नरकमें जाना पड़ता है ॥ २२ ॥ प्रभो। जिस प्रकार चंदन वृक्षके सम्बन्धसे आक धतूरे आदिके वृक्ष भी चन्दन स्वरूप होजाते हैं उसी प्रकार जब आप सरीखे महानुभावके संबंधसे KYAKChakke MeRKE KAHERS REKHERE Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ द्वशां परैषां भूरुां चैतत्स्वस्मात्स्वस्थ कथं न सा ॥ २३ ॥ एवमादि वचो देव निशम्य नितरां हृदि । जरणमिव त्याच पत्यं तदाऽमुना ॥ २४ ॥ अभिषिच्य ततो लेखाः पुरस्तात्संस्थिता यदा । देषदत्तां समारुह्य शित्रिकाममरामृतः ॥ २५ ॥ राजन्यैरुतः सप्त पदानि परमादरात् । षण्णवतिप्रमैः शक तो नृपसंयुतः ॥ २६ ॥ सहेतुकमलोद्याने स्थित्वा मणिशिळातले । तत्याज द्विविधं संग सहस्त्रनृपसेचितः ॥ २७ ॥ पर्यकः सनमारुदो ध्यानस्तिमितलोचनः। नमः सिद्धमिति प्रोक्त्वा प्रग्राज जगद्यशाः । शुक्ले मात्रे चतुर्थ्या व दिनांते जन्मभ जिनः ॥ २८ ॥ दीक्षाभ्युदयमान कुर्महन्नाथाः सुरान्विताः । स्तुत्वा मत्या जिनं भक्त्या जग्मुरानन्दतो अन्य मनुष्यों को मोन प्राप्त हो जाती हैं तब स्वयं आप तो उसे प्राप्त करेंगे ही मोच लक्ष्मीको हस्तगत करने का पूरा अधिकार आपको है इसलिये अब आप शीघ्र दिगम्बर दीक्षा धारण कर संसारका उद्धार कीजिये ॥ २३ ॥ बस लोकांतिक देवोंके इसप्रकार सार गर्भित वचन सुन भगवान विमलनाथने जीर्ण तु के समान समस्त राज्यका परित्याग कर दिया ॥ २४ ॥ दीक्षा कल्याणके उपलक्ष में देवोंने उनका अभिषेक किया । समस्त देव पालकी तयारकर भगवानके सामने खड़े होगये अनेक देवोंसे व्याप्त वे भगवान शीघ्र ही पालकी में सवार होगये। सात पेड़तक राजा लोग बड़े आदर से उनकी पालकी ले चले। उसके बाद इंद्रोंने उनक पालकी लेली छियानवे पेड़ प्रमाण इंद्रगण उसे जमीन पर ले चले, पीछे आकाश मार्गसे ले जाकर सहतुक नामके विशाल उद्यानमें इंद्रोंने उस पालकीको ले जाकर रख दिया। उद्यानकी मणिमयी शिलापर वे भगवान जिनेंद्र विराजमान होगये । बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका उन्होंने परित्याग कर दिया | हजार राजाओं के साथ दिगंबर दीक्षा धारण करली। पर्यंक आसन मांडू लिया | ध्यान मुद्रासे नेत्रोंको निश्चल कर लिया तथा समस्त जगतमें जिनकी कीर्ति व्याप्त है ऐसे उन भगवान विमलनाथने माघ सुदी चौथ के दिन जब कि जन्म नक्षत्र विद्यमान था 'सिद्धोंको नमस्कार हो' ऐसा कह कर दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली ॥ २८ ॥ अनेक देवोंसे व्याप्त इंद्रों 奇都育育作で初に耐でみた EKERPREKY व्यजय जय Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RKHER E ऽपिताः ॥ २६ । पोपयासमादार स्वास्थध्यानपरायणः । चतुयज्ञानसंयुक्तो वभूधाधु हि तत्क्षणे !!३. ॥ बर्वते नन्दनाभिल्यं पुर' परमपावनं । तत्राचनपतिधीमान् विजयाख्यो महर्द्धिकः ॥ ३१॥ पारणार्थं द्वितीयेऽकि समाट तह शिनः । स्वर्णाभस्तेजसा संघः कल्पद्रम इवापरः ।। ३२॥ दृष्ट्वा जिन समुसस्थे परीत्य प्रणनाम सः । इति स्तौतिस्म सदामात्यांजछिः वर्महानये ॥ ३३ ॥ भग्राहं सुकृतीभूतो जातस्तव समागमात् । मादृशां श्रुत्लोकानां कुतो लोकेश्वरागमः ॥ ३४ ॥ सन्ममृत्युजराबहितापातुरिठयक्षुषः । बने बड़े ठाट वाटसे भगवान विमलनाथ के दीक्षा कल्याणका उत्सव मनाया। भक्ति पूर्वक उनको स्तुति की। नमस्कार किया एवं सबके सब बड़े आनन्दसे अपने अपने स्थान चले गये ॥ २६ ॥ दीक्षा ग्रहण करते समय भगवानने षष्ठोपवास--बेला धारण किया आर वे अपनी आत्माके स्वरूपके र चिन्तवनमें लीन होगये जिससे उनके उसी क्षणमे मनःपयंय नामका चौथा ज्ञान प्रगट होगया ॥३०॥ इसी पृथ्वीपर एक नन्दन नामका महा मनोज्ञ पुर विद्यमान है उस समय उसका पालन करने का वाला राजा विजय था जो कि अत्यन्त बुद्धिमान था और विपुल सम्पत्तिका खामी था ॥३१॥ वेलाय | उपवासके समाप्त हो जाने पर दूसरे दिन वे भगवान विमलनाथ राजा विजयके घरपारणाके निमित्त आये । भगवान विमलनाथका शरीर सुवर्णमयी था और देहकी अद्वितीय प्रभासे व्याप्त था इस लिये वे चलते फिरते अनुपम कल्पवृक्ष सरीखे जान पड़ते थे ॥३२॥ भगवान जिनेन्द्रको आहारके लिये अपने घर आता देख राजा विजयको परमानन्द हुआ। भगवानको देखते ही वह शीघ्र | खड़ा हो गया। तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया एवं हाथ जोड़कर भावोंकी पवित्रतासे अपने | | कोंके नाश करनेके लिए वह इस प्रकार स्तुति करने लगा- . 15 भगवन् । आपके शुभ आगमनसे आज में पवित्र होगया क्योंकि आप तीन लोकके नाथ हैं | lar इस प्रकारके महान् पुरुषका मुझ सरीखे क्षुद्र पुरुषके घरमें आना बड़ी कठिनताका कार्य है ॥३३-- ३४॥ जन्म मरण और जरा रूपी तीनों प्रकारकी अग्नियोंके संतापसे संतप्त मेरे लिये हे भगवन् । KAYE KHEREYENESE HEEREY KAYERA KEFENSNEHA Ekkkkkkkkkkkkkkkkkkkk Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमश्चन्दन मे ते सुधा वापरसायनं ॥ ३५॥ अद्य कामबुधायाता कल्यागः परम पद वाकाले वृष्टिराकाशादु ग्यपेताम्राग्मम गृहे ॥ ३६॥दोदलासि मे देव! दृष्ट्वा त्वा धारिराशिना । पर्व ग्लार्य महाभव्ययकोराहाददायिनं ॥३७॥ स्तुत्वेति चरणोक्षाल्य नषधा १५६ पुण्यमर्जयत्। सप्त सद्गुणितं दानमयच्छत्रमस्मकै ॥३८॥ नपागारे तदा पंचाधाय' जातमिति स्फुट । दुन्दुमिरनसौगन्धिषा ताम्भोवृष्टिसोत्सवाः ॥ ३६॥ पात्रदानात्परं पुण्यं नाभून्नास्ति भविष्यति । यतो देवागमस्तस्मारिक दुराप्यं जगत्त्रये । ४. ॥ अपि आपका आना शीतल चन्दन अमृत वा रसायन सरीखा हुआ है क्योंकि चंदन आदिके संसर्गसे जिस प्रकार ताप मिट जाता है उसी प्रकार आपके समागमसे मेरा भी जन्म आदिका ताप मिट जायगा ॥ ३५ ॥ प्रभो ! आपके आनेसे आज मैं यह समझता हूं कि मेरे घरमें कामधेनु आ गई वा कल्प वृक्ष आगया किंवा आज मुझे परम पदकी प्राप्ति होगई अथवा वर्षाका समय न रहने पर भी मेरे घरमें आकाशसे वर्षा हो निकली ॥ ३६॥ जिस प्रकार चन्द्रमाको देखकर समुद्र लह लहा 4 उठता है उसी प्रकार हे देव ! आपको देखकर मेरा हृदयरूपी बिशाल समुद्र मारे आनन्दके उमड़ रहा है तथा चन्द्रमाको देखकर जिस प्रकार चकोर पक्षीको परम आनन्द होता है उसी प्रकार भगवन् ! आप भी महाभव्य रूपी चकोर पक्षियोंको आनन्द प्रदान करने वाले हैं ॥३७॥ बस इस | Calप्रकार भगवान विमलनाथकी स्तुतिकर राजा विजयने उनके चरणोंका प्रवाल किया। नवधा + | भक्तिसे जायमान पुण्यका उपार्जन किया एवं दाताके सात * गुणोंसे शोभायमान क्षीरका | आहार उन्हें दिया ॥ ३८ ॥ राजा विजयके घरमें भगवानके आहारसे जायमान पुण्यसे 2 ___+ प्रतिमाह-तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ, ऐस तोन बार कहकर खड़ा राखे।२ मुनिको उच्चस्यान देवे। मुनिके चरणोंको प्रमाणीक प्रासुक जलसे धोवे 1४ मुनिकी पूजा करें। ५मुनिको नमस्कार करें। ६ दाता अपना मन शुद्ध राख्। ६ दाता अपना वचन शुद्ध राखें । ८ दाता अपना शरीर शुद्ध राखें। दाता मुनिराजको शुद्ध भोजन दे। यह नौ प्रकारकी नवधा भक्ति कही जाती है। ** दाताके दान देनेमें धर्मका श्रद्धान हो। २ साधुके रत्नत्रय आदि गुणोंमें मनुराग और भक्ति हो । ३ दाता दयावान हो । ४ दाताको दानकी शुद्धता अशद्धताका ज्ञान हो । ५माता इसलोक परलोक संबन्धी मोगोंकी थमिलापासे रहित हो । ६ छाता क्षमाधान हो । तद दामदेनेकी सामर्थ्य रखता हो। faski/KPREMयस्य Kakkarakar kathaपर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना० -७ KY AKA स्तोक सुप्राभ्यो दस्त मेदसमं भवेत् । न्यग्रोधतत्वीजं हि विस्तारं कुरुते लघु ॥ ४१ ॥ सुपात्र' प्राप्य वेगेन इसी यास्तत्र सांगती वर्जिनाभ्यपदः प्रायः सुतेजाः स्वपदाधितः ॥ ४२ ॥ एवं बेशर्मनाशः स्यात् यथा कासीननाशतः । कौतस्कुतं सदा तचाप्यतो दानं न वार्यते ॥ ४३ ॥ दयाहेतोः वर्जितविषां सुपार्श्व प्राप्य भावेन विशेषात्सन्तेरपि ॥ ४४ ॥ समो लक्षतभो रस्या दत्तः पात्राय निश्चितं । व्यापोहति पर पाप भोगभूशं ददात्यले ॥ ४५ ॥ नोत्या हारं समैइन्ये पदे श्री जिननायकः । गीर्वाणावलिसंसेव्य इव मेरूरकम्पधीः ॥ ४६ ॥ सामायिक समादाय संयमं शुद्धचेतसा । वर्षतयं चकारो प्रदातव्यमं गिनां VKPKR NE दुन्दुभिका बजना रत्नोंका पड़ना सुगंधित पवनका वहना सुगंधित जलका बरसना और पुष्पका वरसना ये पांच प्रकारके आर्य हुये ॥ ३६ ॥ पात्रदानके विषयमें ग्रभ्यकार अपनी सम्मति देते हैं कि --- पात्रदानसे बढ़कर पुण्यका कार्य संसारमें न तो है और न होगा क्योंकि पात्रदानकी कृपासे देव सरीखे भी खिचे चले आते हैं फिर तीनों लोकमें दुर्लभ चीज रह ही क्या जाती है ? ॥ ४० ॥ जिसप्रकार वटवृत्तके बहुत छोटे भी बीजसे विशाल वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। उसीप्रकार सुपात्र केलिये सरसोंके बराबर थोड़ा दिया हुआ भी दान मेरुके समान फलता है ॥ ४१ ॥ उत्तम पात्र के मिलने पर जो उसे भक्तिपूर्वक आहार दिया जाता है वह सफल होता है तथा दान देनेवाला अन्य मामूली स्थानोंको न प्राप्त होकर मोक्षपदको प्राप्त करता है और परमतेजस्वी माना जाता है || ४२ ॥ यदि दान देना ही बन्द कर दिया जाय तो गृहस्थ वा मुनि धर्मका ही नाश हो जाय तथा धर्मके नष्ट हो जाने पर मोक्षपद भी नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि मोक्षपदकी प्राप्ति धर्म ही कारण है इसलिये दानका कभी भी निषेध नहीं किया जासकता ॥ ४३ ॥ जो पान लूले लंगड़े अपाज हैं कांति रहित हैं उन्हें करुणा बुद्धिसे दान देना चाहिये और उत्तम आदि पत्र मिल जाय तो उन्हें उत्तम बुद्धिसे भाव पूर्वक विशिष्ट दान देना चाहिये ॥ ४४ ॥ यह सर्वथा सुनिश्चित बात है कि पात्र केलिये भक्तिपूर्वक दिया हुआ एक रोटीका टुकड़ा भी लाख टुकड़ारूप फलता है तथा वह दिया हुआ टुकड़ा बलवान भी पापको नष्ट करता है और अनेक प्रकार के उत्त EXCRICK Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपपपYIRAMAYFRN |स्तपोऽरण्यांतरेषु च ॥४७॥ निजदीक्षाघने तस्य घातिकर्मक्षयात्परं । बडोपवासिनो माये षष्ठयां पले शिते भूश ॥४८॥ अपराई स्वदीक्षाया नक्षत्रे च शुभोदयात् । मूले जम्बुद्र मस्यैव प्रादुरासीच्च केवलं ॥ ४६॥ (युग्म)जानकल्याणक बकः सुमासीरादयो ऽमराः। समयमृतिसच्छाया पुनर्वाचामगोचरी ।।११।। योधयामास भन्यौघाम्भोरमा तमोरिषत्। नानाजनपदे देवो लेने शार्चितपस्कजः ।। ५१॥ पुरस्ताद्धर्मचक्र वैश्वान सयघोषण । यशमूर्धस्थित सानाधर्कविंधो धभौ यथा ॥ १२॥ गणानां मुने- Im मोत्तम भोगोंका प्रदान करने वाला माना जाता है॥ ४५ ॥ जिनोंमें श्रेष्ठ वे भगवान विमलनाथ राजा विजयके घरमें आहार लेकर वनको लौट गये। उनके शरीरकी कांति सुवर्णमयी थी और अनेक देव उनकी सेवा करते थे इसलिये वे अनेक देवोंसे वेष्टित सुवर्णमयी मेरुपर्वत सरीखे जान पड़ते थे॥ ४६॥ भगवान विमलनाथने अपने निर्मल चित्तसे सामायिक रूप संयमको धारण कर वनके मध्य में तीन वर्ष तक घोर तप तपा वाद उन्होंने उसी सहेतुक नामक अपने दीक्षावनमें बेलाकी प्रतिज्ञा कर तीन तपसे ज्ञानावरण आदि घातिया कर्मों को नष्ट किया जिससे माघ सुदी छठके दिन जब कि दुपहरका समय था और दोचा नक्षत्र वा जन्म नक्षत्र विद्यमान था जंबू | वृक्ष के नीचे शुभके उदयसे उनके केवल ज्ञान प्रगट हो गया ॥ १७-४६ ॥ भगवान विमलनाथको केवल ज्ञान होते ही उनके ज्ञान कल्याणका उत्सव मनाने के लिये शीघ्र ही इंद्र आदि देवगण उस सहेतुक वनमें आ गये । एवं जिसकी महिमा वर्णन नहीं की जा सकती ऐसा अत्यंत देदीप्यमान समवसरण रच दिया गया ॥५०॥ जिनके चरण कमलोंको बड़े बड़े इन्द्र आदि देव सेवा करते हैं ऐसे वे भगवान विमलनाथ अनेक देशोंमें विहार करने लगे एवं जिस प्रकार सूर्य कमलोंको खिशाता है उसीप्रकार सूर्यखरूप वे भगवान भव्यरूपी कमलोंको बोधने लगे-वास्तविक उपदेश देने लगे॥५१॥ जिस प्रकार पहाड़की शिखरपर विद्यमान सूर्य शोभित होता है उसीप्रकार यक्षों 51 के मस्तकॉपर विराजमान और "हे भगवान विमलनाथ आपकी जय हो" इत्यादि रूपसे जय २ | घोषणा करता हु धर्मचक्र उम्के आगे नागे चलने लगा ॥ ५२ ॥ जिसप्रकार सतर्षि आदि पहचपपपपपपपवर petimes Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना० ICC मुख्यानो नमोराजैव वैमलः । चित्रान्योतोऽतरीक्षस्थस्तारकाणां समांतर ।। ५३ ॥ अथ जम्बुमति दोपे भारत भारतभृता पखंडि विद्यते तत्र सौराष्ट्रो विषयः स्मृतः ।।५।। पुरी द्वारवती तत्र शोभाया परमोत्लया । स्वर्णरतमहावित्रयुतप्रासादमंजिना। ॥ ५५ ॥ कामरूपनराकीर्णदुर्गवैषम्यदुर्जया । उन्नितयकालापास्यपीनवक्षोनभामिनी ॥ ५६ ॥ सत्यधर्मदयादामसरोधापीगृहा. धिता। पर्ततेऽमरपूर्वा सा दीर्घा हिनषयोजनौः॥५४॥ त्रयोदशभिरेवेयं विस्तरा योजने । द्विसहस्रलघुद्धारमंडिता मगधा धिप ! ॥५८ ॥ ( चतुर्भिः कलापक धर्माख्यधलिसंयुक्तः स्वयमूर्भरतार्धवाक् । भूखेचरनराधीशसेव्यस्तो पाति शक्रवत् ॥ ५ ॥ तुतारा गणोंके मध्यमें आकाशके अंदर रहने वाला चंद्रमा चित्रा नक्षत्र के साथ शोभा धारण करता ई उसीप्रकार मुनि आदि गणोंके मध्यभागमें विराजमान आकाशमें अधर रहनेवाले वे भगवान ! H| विमलनाथ अत्यंत शोभित होते थे॥५३॥ .. ___ इसी जंबूद्वीपके अंदर अनेक भव्योंसे व्याप्त और छह खण्डोंका धारक एक भरतक्षेत्र नामका प्रसिद्ध क्षेत्र है। उस भरत क्षेत्र के अंदर एक सौराष्ट्र (सोरठ ) नामका देश विद्यमान है ॥ ५ ॥ सौराष्ट्र देशके अंदर द्वारिका नामकी नगरी है जो कि नाना प्रकारकी शोभानोंसे शोभायमान है। भांति भांतिके सदा उसमें अनेक उत्सव हुआ करते हैं एवं सुवर्ण और रत्नमयी अनेक उत्तमीत्तम प्रतिमाओंसे मंडित जिन मंदिरोंसे व्याप्त है ॥५५॥ वह द्वारिकापुरी उससमय विशाल नितम्ब लंबी चोटी मुख और स्थ ल स्तनोंसे शोभायमान स्त्री सरीखी जान पड़ती थी क्योंकि जिसप्रकार सुंदर श्री अनेक सुदर पुरुषोंसे व्याप्त रहती है उसीप्रकार वह नगरी भी महामनोहर पुरुषोंसे भरी हुई यी तथा सुंदर भी स्त्री जिसप्रकार विषम-कुटिलाईको लिये होती है उसीप्रकार वह पुरी भी अनेक विशाल विशाल किलोंसे विषम थी-शत्रुओंके अगभ्य थो॥ ५६ ॥ वह द्वारिकापुरी सत्य अहिंसा kधर्म दया दान सरोबर बावड़िये और घरोंसे व्याप्त थीं इसलिये वह स्वर्गपुरी सरीखी जान पड़ती थी और नौ योजन प्रमाण लम्बी थी। तेरह योजन प्रमाण चौड़ी एवं दो हजार छोटे २ दरवाजों से शोभायमान थी ॥५७ १५८॥ उस पुरीका रचक स्वयंभू नामका नारायण था जिसका बड़ा भाई । उपपपपपपपपपपयार स्वापार Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादाब्जे वाया: सिन्धुरा गाध : " भYANAVINAYANAYA हिरण्येऽनिलः सोमो गूढसत्वादकोपतः। प्रतापातिभूर्भानुः संतत्यमोजिनीषु यः॥६॥ (युग्म) खत्रयत्वेकसाहस्यसंख्या मुकुटपद्धकाः। सेवन्ते पत्यह तस्य पादाज चञ्चरीकषत् ॥६९ ॥ तापत्संख्या मृगाक्ष्योऽस्य सुखयन्तीव रभिकाः । नवकोरितुरङ्गाणा माला माति मनोहरा ।। ६२ ।। अपंचविचतुःसंख्या: सिन्धुरा दानवर्षिणः। मदोद्धराः सिता भौति नभोलिह यो म्नताः ।।१३।। शंखडगदाचापखड्चकसुशक्तिकाः। प्रत्येयं साप्त रखानि तस्य सन्ति च गागध : ॥ ६४ ॥ प्रामास्तस्याठचत्वा रिशत्कोटि प्रमिता मताः। गोकुलं सार्थकोट्य के वर्तते भूतयोऽपराः।।६५ ।। भुजन राज्य स्थितो धर्मरलिना मूशलं गवा। माला धर्म नामका बलभद्र था। स्वयं को तीन खण्डका स्वामी अयं चक्री था। भूमिगोचरी विद्याधर राजाओंसे सेवित था एवं इन्द्र जिसप्रकार स्वर्गपुरीकी रक्षा करता है उसप्रकार वह द्वारवतीपुरी की रक्षा करता था ॥५६॥ तथा वह नारायण स्वयंभू शत्रुरूपी वनकेलिये दावानल था। छिपे हुए पराक्रम का धारक और क्रोध रहित शांत होनेके कारण चंद्रमा सरीखा था। अपने पराक्रमसे समस्त पृथ्वी तलको वश करने वाला था और प्रजारूपी कमलिनियोंको प्रसन्न करनेवाला सूर्य था—उसके राज्यमें सारी प्रजा प्रसन्न और सुखी थी॥ ६ ॥जिसप्रकार भ्रमर कमलकी सेवा करते हैं उसी प्रकार सोलह हजार मुकुट वद्ध राजा उस नारायण स्वयंभके चरण कमलोंके सेवक थे ॥ ६१ ॥ जिसप्रकार देवांगना देवॉको सुखी बनाती हैं उसीप्रकार सोलह हजार मग लोचनी रानियां नारायण स्वयंभूकी सेवा करतीं और उसे सुखी बनाती थीं। उसके नौ करोड़ घोड़े थे जो कि तेज पानीके महामनोहर थे । ब्यालीस लाख हाथी थे जिनके कि गंडस्थलोंसे मद चता था। मदसे | उत्कट थे और इतने ऊंचे थे मानो आकाशको स्पर्श करते थे ॥ ६२ । ६३ ॥ उस राजा स्वयंभूके शंख, दण्ड, गदा, धनुष, खड्ग, चक्र और शक्ति ये सात रत्न थे। अड़ता. लीस करोड़ संख्याप्रमाण उसके ग्राम थे । डेढ़ करोड़ गायें थीं और अनेक प्रकारकी विपुल विभूति थी ॥६४-६५॥ मूसल, गदा, माला और शीर नामक शस्त्रोंके धारक, अत्यंत सामर्थ्यवान अपने बड़े ic भाई बलभद्रके साथ वह स्वयंभू नामका नारायण अपने राज्यका सुखपूर्वक भोग करता था ।।६६॥ कपपर seksukrКүкүккккк Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीरं विधात्वा च मात्रा बलविशालिना ॥६६॥ मदोद्ध रानपान जित्वा प्रजाः पालयति न तावन्नानामहादेशान् विहत्यागतवान् जिनः १६७ निलोभो निमलः शांतो रागद्वेषच्युनोऽच्युतः। तर्हि गत्यागतो तस्य प्रकाश्येते कथं परैः॥६॥ उदयाद्रादेत्येव प्रत्यहं मास्त मोहितः । नियोगोऽय तथा तस्य पाथातथ्यपबोधकः ॥ ६ ॥ तत्पुरोमदनोद्याने शकाज्ञाधारिणा मुदा । धनदेन विचित्राम विट' निर्ममे महत् ।। ७० ।। दुर्गभित्तमहापीठसापानानां विचित्रता। मानस्तंभतागानां सवारस्य सत्कवे । १।। प्रादुर्भवत लेग्ने. - शमायया समवतिः । स्थानांगीकारकास्य क्षप्पेन केवलक्षणे ॥७२ ॥ तन्मध्यस्थो जिनो-रोजे शानदृष्टजगत्त्रयः । सुरेशैः स्वर्गवा Ad अनेक मदोन्मत्त राजाओंको जीतकर वह नारायण स्वयंभ सानन्द प्रजाका पालन करता था कि उसी समय अनेक देशोंमें विहार कर भगवान विमलनाथ वहां पर आये । वे भगवान परम निर्लोभ, थे । समस्त दोपोंसे रहित निमल थे। शांत थे। राग और द्वषसे रहित एवं अविनाशी थे इस लिये यह बात हरेक मनुष्य जान ही नहीं सकता था कि कहां उनका जाना होता था और कहां | आना होता था। जिस तरह चंद्रमा प्रतिदिन उदयाचलपर उदित होकर अस्ता चल पर अस्त होता है यह उसका नियोग ही है उसीप्रकार गमन आगमन भी भगवानका नियोग स्वरूप ही था क्योंकि । वह गमन आगमन यथार्थ रूपसे पदार्थोंका प्रबोध करनेवाला था। जो पुरी नारायण स्वयंभ की। राजधानी था उसी पुरीके मदन नामक उद्यानमें भगवानविमलनाथके आजाने पर आनंदित हो कुवरने । इन्द्रकी आज्ञासे शीघ्र ही समवसरण रचना प्रारम्भ कर दिया जो कि विचित्र शोभाका धारक था, विशाल था । समवसरणके अंदर चित्र विचित्र प्राकार उनकी भीतियां, विशाल सिंहासन, स्टोड़ियां,मानस्तंभ और तालावोंकी जो रचना की गई थी उसका वर्णन धुरन्धर कवि भी नहीं। कर सकते थे । वस केवल ज्ञानसे विराजमान भगवान् विमलनाथके ठहरते ही इद्रकी मायासे शीघ्र ही समवसरण तैयार हो गया और वे भगवान् विमलनाथ जो कि अपने दिव्य ज्ञानसे तीनों में लोकोंके जाननेवाले थे एवं जिनके चरण कमलोंको जय जय शब्दोंके करनेवाले व्यंतर आदि देवेंद्र SHARAM ParkaY KEY २१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संश्च पूजितांर्जियारवैः ।। ७३ ॥ तत्प्रभावादन रम्यं वाटिका कुसमान्वितां । दुन्दुभिध्वानमाशम्प मालाकारोऽगमत्पुरं ॥४॥ नानापुष्पफलाको कर संविधाय च । नूपाक्षया पुरो गत्वा तत्करडं ममाच सः ॥ ७५ 11 अकालजनितां दृष्ट्वा स्वयंभूरितिमा. गया । चिरं स्यांते महाचिंताग्रस्तवेता व्यचिंतयत् । ७६ ॥ .अकालीनं यदा पुष्पमृतोः सद्भाषषावक । बिमहायुद्ध दृश्यते श्रूयते च पा ॥ ७ ॥ तदा राजाशुभनयं दुर्भिक्षं वा प्रजापतेः । देशभः समादिष्टः प्रधमैः पूर्वसूरिभिः ॥ ७८ ॥ 12 और स्वर्गोंके देव भक्ति पूर्वक पूजते थे, उस समवशरणके मध्य भागमें विराज गये ॥ ६७--७३ ।। | जिस वनमें भगवान विमलनाथ विराजे थे वह वन महा मनोहर दीख पड़ता था उसमें रहनेवाले वृक्ष, फल फूलोंसे व्यात थे और नौवत घुरती रहती थी। उस वनके रक्षक मालोने जब बनको यह ke विचत्र शोभा देखी और नौवतका शब्द सुना तो उसे बड़ा आनन्द हुआ।अनेक प्रकारके पुष्प और न कलोंसे उसने अपनी टोकनो भर ली। वह द्वारावतीकी ओर चल दिया,एवं राजाकी आज्ञासे राज|| सभामें प्रवेश कर उसने उस डालीको महाराज स्वयंभकी भेंट कर दी॥ ७४-७५ ॥ राजा स्वयं* भूने ज्योंही असमयमें होनेवाले फल पुष्प देखे त्योंही मालीसे तो उसने कुछ पूछा नहीं किंतु अपने * आप मारे चिंताके उसका मुख म्लान हो गया और मन ही मन वह इस प्रकार चिंता करने लगा असमयमें उत्पन्न होनेवाले ये फल फल ऋतु कालके वाधक हैं, जो वस्तु जिस समयमें होने वाली है उस समयमें न होकर यदि अन्य समयमें होगी तो उससे कभी भी ऋतुका निश्चय नहीं किया जा सकता। असमयमें होनेवाले जो ये कल फल दीख पड़ते हैं उनका फल यही जान पड़ता है कि या तो किसोके साथ महा भयंकर युद्ध करना होगा या कहींसे विशाल युद्धके समाचार | - सुनने में आवेंगे। प्राचीन आचार्योंने असमयमें जायमान पदार्थोंको देखनेका यह फल बतलाया - है कि या तो राजाका अशुभ होगा या अकाल पड़ेगा अथवा देशका भङ्ग होगा ।। ७६-७८ ॥ अपने * S भाई नारायण स्वयंभ को इस प्रकार चिन्ता और क्लेशसे क्लेशित देख उसके बड़े भाई बलभद्र kधर्मने कहा Radioपदा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** 4 AYANAYANAYAYYY इति चिन्ताध्यथापन्नं दृष्ट्वा श्रीनिजांधवं । अत्रवीनोलबासस्कः किं त्वं चिंतास प्रभो ! इस पृष्टो जुहावेति स्वयंभूरक्तलोचनः । श्रूयतां वचन भ्रातर्यथा दृष्ट प्रत्रक्ष्यते ॥ ८॥ किष्कि धापत्तने राजा महधि: मुन्दराभिधः । स्वप्रतापजिताशेषशयोऽभदुगुणाकरः ।। ८१ ॥ कमला सु'दरी तस्य सुता परमसुदरी । नाम्ना विज्ञानलावण्यरूपाभरणभूषिता ॥ ८२ । ईदृक्षा विद्यते नैय पामिनी काश्यपीत है 1 पृथस्थलनितंबाच्या हितावहसस्वरा भृशं ॥८३॥ सयेति विहिता भ्रातः! प्रतिज्ञा दुष्करा नणाम् । मंदाराणां महामाला यस्य कंठे प्रवर्तते ।। ८४ ॥ वृणेऽहं परप्रमम्गा सादर नापर. वरम् । इति श्रुत्वा पिता तस्याश्चिंतयामास मानसे ।। ८५ ।। भाई तुम इस डालीको देखकर क्या विचारने लग गये ? उस समय स्वयंभ चिंतासे अत्यन्त Ka व्यथित थे। मारे क्लेशसे उनके नेत्र म्लान हो रहे थे इसलिये दुःखित हो उन्होंने उत्तरमें अपने भाईसे यह कहा-असमयमें होनेवाले इन फल फूलोंको देखकर मैंने जो कल्पना की है। Me! मैं आपसे कहता हूँ आप ध्यान पूर्वक सनें। किष्किंधा नगरमें एक सुन्दर नामका राजा था जो कि विशाल सम्पत्तिका स्वामी था। अपने प्रचण्ड प्रतापसे समस्त शत्रुओका जीतनेवाला था एवं अनेक उत्तमोत्तम गुणोंका स्थान था ॥७९८१॥ राजा सुन्दरकी स्त्रीका नाम कमला था जो कि एक अलौकिक सुन्दरी थी और उससे उत्पन्न | परमसुन्दरी नामकी कन्या थी जो कि विज्ञान कला कौशल, लावण्य मनोज्ञ रूप रूपी भ षणोंसे भूषित थी ।८२॥ विशेष क्या विशाल और स्थल नितम्बोंसे शोभायमान हंसके समान मोठे वचन वोलनेवाली रमणी परम सुन्दरीके समान कोई कन्या न था ॥ ३ ॥ अत्यन्त मानिनी उस कन्याने यह प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जिस मनुष्यके गलेमे मन्दार जातिके कल्पवृक्ष पुष्पोंकी माला होगी उसी मनुष्यको प्रेमपूर्वक बड़े आदरसे में वरूगी। दूसरे कामदेवके समान भी वरको में न वरूगी। परम सुन्दरीके पिताने जव परम सुन्दरीकी यह प्रतिज्ञा सुनी तो उसे बड़ी घबड़ाहट हुई | hd एवं वह उसकी कठिन प्रतिज्ञासे मन ही मन विचारने लगा Maa Ka Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ६४ पत्रपत्रक प 濃焼器表 आहे ! अत्यंतमूढत्वं सुताया दुर्वचः किल । स्वर्गियांग्या कुतो लभ्या शुभ्रा मंदारमालिका ॥ ८६ ॥ आ एवं मन्यते चेत स्वयंबरविना | मनोगतो गरो नैव सॉलभो भुवनत्रये ॥ ८७ ॥ विदयित्वेति राजा स त्रकाराशु स्वयंवरम् । नविन्यासप्राकारनस्तमं सुतोरणम् ॥ ८२॥ ततो दल दलद्वर्णं प्राहिणोद्विषयेष्वसौ । राजागत्यर्थमेत्राशु मंजुल प्राज परम् ॥ ८६ ॥ तद्धि श्रुत्वा राजानस्तला जग्मुः शुभेच्छया । यथायथं स्थिताः सर्वे कन्यापितमानसाः ॥ ६० ॥ तमित्रां लंघयन् मानुरुदियायोदयाचले | राजन्यान् बीक्षितु' कि'या रक्त मूर्तिसन्निय ॥ ६१ ॥ कन्याप्रवारणार्थ वा मंदारकुंसमः कृतिं । उत्तरतत्वतों नूनं दर्शयन् ध्वंस कन्या परमसुन्दरीने जो वैसी प्रतिज्ञा की है वह उसकी बड़ी भारी मूढ़ता है। मंदार वृक्ष के सफेद पुष्पों की माला तो देव पहिनते हैं मनुष्योंको वह कैसे प्राप्त हो सकती है ? खैर, यदि इस कन्याका ऐसा हो वलवान आग्रह है तो विना स्वयंवरके किये तीनों लोकमें इसके लिये वेसा वर नहीं मिल सकता । स्वयंवर करनेसे ही कदाचित् प्राप्त हो सकता है इसलिये इसके वरके लिये स्वयं वरकी ही रचना करनी होगी, बस ऐसा विचार कर राजा सुन्दरने शीघ्र ही स्वयंवर मंडपके तैयार होने की आज्ञा देदी तथा वह मंडप भी रत्नोंके बने परकोटोंसे व्याप्त सुवर्णमयी स्तम्भोंसे शोभाय मान एवं लटकते हुए तोरणोंसे देदोप्यमान शीघ्र ही तैयार हो गया ॥ ८४-८८ ॥ स्वयंवर मंडप के तैयार हो जाने पर राजा सुन्दरने समस्त देशों के राजाओं के बुलाने के लिये पत्र भेजा जिसमें कि स्पष्ट रूप से स्वयंवर के समाचारको सूचित करनेवाले अक्षर अङ्कित थे एवं वह शुभ मनोहर प्रशस्तथा ॥ ८६ ॥ पत्रके पाते ही शुभ कन्याको प्राप्तिकी अभिलाषासे समस्त राजा किष्किं धापुर में आये, एवं कन्याकी प्राप्तिमें जिनका चित्त लीन है सबके सब यथायोग्य स्थानोंपर ठहर गये ॥ ६० ॥ रात्रिके बीत जानेपर पूर्व दिशा में उदयाचल पर सूर्यका उदय हुआ। वह सूर्य उदय| काल में रक्त का था इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो प्रसन्न हो वह राजाओं के देखने के लिये आया है किंवा राजाओंकी विषय जनित लालसा पर हंसी प्रगट कर रहा है । अथवा अपने गोल RPAPVERY SAPAPAY Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ६५ YAYAA 最幣局整備 स्तयः || १२ || (युग्मं)उदिते श्रदिवाना नाना गारकारिणः । आजग्मुर्मण्डपं सर्वे राजपुत्राः इवामराः ||१३|| केचिद्धसकरः केचि• च्छुकहरुता मोडुराः । भ्रमयतः क केनित्केचिच्च स्मितकारिणः ॥ ६४ ॥ धात्रीस्कंधकरा नानाकौतुका राजपुत्रिका द्रष्टु समाटिना तत्र राजन्यान् मंडपे त्वरा ॥ ६५ ॥ कंचुकी तो जगादेति पुलि ! शृणु बचो मम । एतेषां शुभतमं भूपं वृणीश्च त्वं समादरात् ॥ ६६ ॥ विलोक्य भूपतीन् सर्वान् सुदरानप्यभाचत । मंदारमालिकाभावानातानमत्पुरं ॥ ६७ ॥ षण्मासावरिथं स्थिता आकार और ललाईसे कन्या परम सुन्दरीके उगने के लिये मन्दार वृक्ष के पुष्पों की आकृति बतलाता हुआ अन्धकारको जड़ से भगा रहा है ॥ ६१-६२ ॥ इस प्रकार सूर्यदेव के उदय हो जाने पर समस्त राजकुमार अपनी अपनो शय्याओंसे उठ गये । प्रातः कालीन नित्य क्रियायें की । नाना प्रकार के श्रृंगार कर अपना शरीर सजाया एवं जिसप्रकार देव आते हैं उसप्रकार वे स्वयम्बर मंडपमें आकर अपने अपने स्थानोंपर बैठ गये ॥ ६३ ॥ उन राजकुमारोंमें कई एक राजकुमार हंसके समान हाथोंके धारक थे। कई एक शुक तोतों के समान लालिमा को लिये हुए हाथोंसे शोभायमान थे । अनेक मदोन्मत्त फूल हाथोंमें लेकर उसे घुमा रहे थे और बहुतसे मन्द मन्द मुसका रहे थे ॥ ६४ ॥ जिसका एक हाथ घायके कंधे पर रखा हुआ है और जो नानाप्रकारके कौतुहलोंसे शोभायमान है ऐसी वह कन्या समस्त राजाओं के देखनेके लिये शीघ्र ही उस स्वयम्बर मंडपमें आई एवं जिस समय वह वहां पर आकर खड़ी हुई तो कंचुकी उससे इस प्रकार कहने लगा प्रिय पुत्री ! मेरी बात सुनो । इस समय समस्त देशोंके राजा इस स्वयम्बर मंडपके अंदर विराजमान है इनमें से जो तुम्हें पसंद हो अच्छा लगता हो उसे ही आदर पूर्वक वर लो॥६५-६६ ॥ कन्या परम सुन्दरीने समस्त राजाओंकी ओर दृष्टि डाली परन्तु मन्दार पुष्पों की माला एक केभी गलेमें उसने नहीं देखो इसलिए अत्यन्त सुन्दर भी उन राजकुमारोंमें से एकको भी उसने नहीं वरा और वह सीधी अपने राजमहल लौट गई ॥६७॥ अनेक मानसिक कौतूहलोंसे परिपूर्ण वे समस्त 都でお蔵 絶対に使わ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल YYAYAYAY でわでわやか भूपाः सकौतुकाः । तन्मोहेनैव सत्यकथाद्याश्चिहार्पिता इव ॥ ६८ ॥ अन्यदा सर्वमपालसमे कन्याविराजिते । समागमन्महारौद्रः कापाली भस्मभूपितः ॥ ६६ ॥ पाष्पीकृतकपालः सम्नग्नरूपी जटाधरः । अस्थिसंघातमालालंकृतप्रोध कृपातिगः ॥ १०० ॥ नानाकौटिल्य विद्याभिर्मत्स्ययन कोपतो नरान् । शंखचकरहः कालः स्थितः पद्मासने इतरे ॥ १०१ ॥ अत्रांतरे नभोमारों गच्छन् देवः स्वकां तथा । नदीश्वरमहाद्वीपयालां कृत्वा सभोपारं ॥ १०२ ॥ आगतस्तर्हि रंभा तं मणिचूलसुराधिपं । रराण मधुराला पैरदः किं वर्तते विभा ! ।। १०३ ॥ चकार्णेति चकोराक्षि ! प्रारूध ऽस्मिन् स्वयंवरे । मंदारमालिकाभावाद्वर किंचिन्न मन्यते ॥ १०४ ॥ श्रुत्वैतत्कीराजकुमार कन्या परम सुन्दरीके मोहसे लालायित हो वरावर छह मासतक वहीं पड़े रहे। वे कन्या परम सुन्दरी पर इतने व्यामुग्ध थे कि अपने खाने पीनेकी भी उन्होंने पर्वाह न की थी इसलिये वे ऐसे जान पड़ते थे मानों किसी चतुर चित्रकारने उन्हें चित्रपट में अंकित कर दिया है ॥ ६८ ॥ एक दिनकी बात है कि समस्त राजा और कन्यासे मंडित सभा मंडप में एक कापाली आया जो कि महा भयङ्कर था। अंगमें भवति रमाये था। हाथमें कपाल था । नग्न दिगम्बर था । जटा धारी था। गलेमें हड्डियोंकी माला पहिने था । दया रहित था । अपनी कुटिल विद्याओंसे समस्त सभा के मनुष्यों को डरानेवाला था । शङ्ख और चक्रोंको धारण किये था इसलिये सान्तात् कालसरीखा जान पडता था तथा सभामण्डपमें आकर वह पालती मार कर वठ गया ।। ६६-१०१ ॥ उसी समय मणिचूल नामका देवोंका स्वामी नन्दीश्वर महा द्वीपकी यात्रा कर आकाशमै अपनीसाथ जा रहा था जिस समय वह स्वयम्बर मंडपकी भूमिपर आया उसकी स्त्रीने मधुर वचनों में यह पूछा, प्राणनाथ ! नोचे यह क्या दृश्य दीख रहा है ? उत्तरमें मणिचूलने कहाप्रिये ! कन्या परम सुन्दरीके निमित्त यह स्वयम्बर रचा गया है उसकी यह प्रतिज्ञा है कि जिस महानुभाव के गले में मंदार पुष्पों की माला होगी उसे ही मैं वरूंगी अन्यको नहीं परन्तु पुष्पों की माला किसी के गले में है नहीं इसलिये वह कन्या किसीको वर स्वीकार करना नहीं चाहती । 春に看看 पत्रप Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल HERAYERA ROKAR KadeleasEReaxeavy तुकं रमा हास्यहिताः पतेर्गलात् । नीत्वा मंदारसन्मालामक्षिपद्योगिनः पुस । १०५ ॥ यदा योगी गृहीत्वाथ मालां मौनाधितोऽभवत् सदा कन्या घर' मत्वा गूढवेष' समाटिता ॥१०६॥ पिता धाश्या नाला निषेध्य स्थापिता यदा । कापाली क्रोधसंपूर्णः प्रतारण्य' ययौ ध्रुवं ।। १०७॥ वित्तेऽसौ नितयामास चिर चेति विचक्षणा । मामागतवती कन्या वारित ते न पठात् ॥ १०८ ॥ कि करोमि महापापधारिणां दुम्सह त्वरा । एतेो दुधियां राक्षां ध्यात्वेति निशि तस्थिवान् ॥ ३० ॥ स्मशाने सर्पदुर्यभयूथवल्गनभोकरे । रुधिरोद्गारसंसिलभूतले कातराशिनि ॥ ११०॥ (युग्मं ) तत्र संसाधयामास विद्या अपने पति मणिचलकी यह वात सुन रम्भाको बड़ी हसी आई एवं हंसी करनेके लिये पतिके गलेसे उसने मंदार पुप्पोको माला निकाल कर पापाली योगीके सामने पटक दी ॥ १०२-१०५ ॥ योगीने शीघ्र ही माला उठाकर अपने गलेमें डाल ली और वह मौन धारण कर चुप चाप बैठ गया। कन्याको भी वह पता लग गया कि गढ़ वेषका धारक वर प्राप्त हो चुका है इसलिये वह शीघ्र ही योगोके पास आने लगी ॥ १०६॥ कन्या परमसुन्दरीकी यह दशो देख उनके पिता धाय और | राजाओंने उसे रोक दिया,कपालीके पास नहीं आने दिया यह देख कपाली एकदम क्रुद्ध हो गया। ka और वह शीघ्र ही प्रेतारण्य वनकी श्मशान भूमिके अन्दर चला गया ॥ १०७॥ वहां पहुंचकर वह योगो अपने मनमें यह विचार करने लगा कि-- देखो वह दिव्य मूर्ति चतुर कन्या अपनी प्रतिज्ञानुसार मुझ पर आसक्त हो मेरी ओर आती . * थी सो इन राजाओंने जवरन उसे आनेसे रोक दिया । ये राजा लोग महा पापी और दुर्बुद्धि हैं । मुझ इनके लिये कोई ऐसा दुःखजनक कार्य करना चाहिये जिससे ये कष्ट भोगे, वस ऐसा दृढ़ विचार कर वह योगी स्मशानभूमिके ऐसे प्रदेश में बैठ गया जो कि भयङ्कर सर्प और राक्षसोंके फत्कार और धत्कारोंसे भयङ्कर था। जिसका पृथ्वीतल रुधिरके फव्वारोंसे सदा तल वतल म्हता थो और कातर डरपोकोंको निगलनेवाला था ॥१०८-११०॥ वह योगी उस भयङ्कर स्मशानभू मिमें * किसी मृत मनुष्यके मस्तक पर आसन जमाकर बैठ गया और वज्र खलिका नामकी भयङ्कर Evesekasi ___. .. --. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल YHARELaskal योगी महामनाः । वज्रनलिका नाम्ना स्थित्या मांनुपमस्तके ॥१११ ॥ निशीथे दारयंती: सा पटिशवाहुरुन्नता । शैलन् किलकिलारावसपूरितनमस्तला ॥ ११२ ॥ बनविंशतिसंयुक्ता तत्रागत्यावीदिति । कोऽसि त्वं च कथंकार स्थितोऽस्यत्र महावनेः॥ ११३ ॥ इत्युक्त्वा भतम्ययंती तं चालय ती तदापि सः । न चचालासनाद्योगी प्रत्यक्षीभ यमागता ॥ ११४॥ वर' वणीश्य है बत्स ! पतित दुरासद'. तदा श्रुत्वा महादेच्या वचन' कौलिको जगी ॥ ११५ ।। दद्या| श्च त्वं वर मह्य तहि भाग्योदयो मम । सर्या विद्या प्रसन्नाश्च जयश्व पररवि ।। ११६ ॥ वर प्रामाण्यतो मालर्यक्षयोयो | विद्या सिद्ध करने लगा ॥ १११॥ वह क्ज,खलिका नामकी विद्या छत्तीस भ जाओंकी धारक थी | - अपने किल किल शब्दसे समस्त आकाश मण्डलको गुजानेवाली थी एवं चौवीस उसके मुख थे। | बस अपनी प्रचंडतासे अनेक दुधर पर्वतोंको डहाती हुई वह विद्या शोध्र ही कापालीके पास आई और रून शब्दोंमें इस प्रकार उसे धमकाने लगी___अरे तू कौन है और किस आशासे इस भयङ्कर महा वनके अंदर आकर बैठा है। इतना ही नहीं अनेक उपायोंसे उस योगीको ताड़ने लगी और आसनसे डिगाने लगी ... वह योगी अपने अटल सिद्धांत पर दृढ़ था इसलिये उस विद्या द्वारा अनेक प्रकारसे 2... भी वह रंच- पात्र भी अपने ध्यानसे न डिगा अचलरूपसे अपने आसन पर स्थिर रह .. अंतमें वह विद्या प्रत्यक्ष होकर सामने आकर खड़ी हो गई एवं उस कपालीसे प्रसन्न हो इसप्रकार कहने लगी वत्स ! मैं तुमसे राजी हुई,कठिनसे कठिन अपनी इच्छानुसार वर मागो में देनेको तयार हूं। kal क्स महा देवीके ऐसे प्रसन्न वचन सुन कापालीने कहा-मां ! यदि तुम मुझे वर देना चाहती हो तो मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूं आपके वर प्रदानसे में यह समझता हूं कि समस्त वद्याये मुझसे प्रसन्न हो चुकी और मैं अत्यन्त वलवान भी शत्रु ओंके लिये दुर्जय हो गया। माते. रवरी! मैं आपसे यह वर चाहता हूं कि आप रणके मैदानमें युद्ध करनेके लिये दो यक्षोंको दें RUrhaERSATIRERAKHAYE AYU Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल ३६ REKYLER PKPKVSY I घयेति भो ! | रंग कालाभयोः सर्वराजदन्त्रो पहतोः ॥ १२७ ॥ देवी तथास्त्विति प्रोक्त्वा जगाम स्वीयमंदरम् । प्रातर्जात महोरगे राजपुत्राः समाटिताः ॥ ११८ ॥ नानावादिनिर्घोष तंत्रीकंठसमुद्भव | रागं गीतं तदा श्रुत्वा कन्या धाक्षिकयागता ॥ ११६ ॥ यावत्यश्यति भूपालान् किरीदस्तव काबलोन् |] कंतु वैशसट गारान् तावद्योगी समाययौ ॥ १२० ॥ अंगभस्मजटाजूटदुर्निरीक्ष्योऽस्थिमालधृत् । करकंबुईसन्नीषनेत्रोऽथ दंतुरः ॥ १२१ ॥ आगत्य परिषन्मध्ये स्थितो वज्रासनालये । सुरुद्राक्षमहामालः स्थिरः कीनाशसंभवः ॥ १२२ ॥ अथो दृष्ट्वा तर्क कन्या हत्यापात योगिन । स्वीकर्तुं राजभिः जो यच कालके समान हो । समस्त राजाओंको नष्ट करनेवाले हो और पाषाण सरीखे दृढ़ हो । ॥ ११२-११७ ॥ देवीने 'तथास्तु कहकर अपने निवासस्थान की ओर प्रयाण किया। योगीको भी बड़ी हुई प्रातः काल होते ही समस्त राजकुमार स्वयंवर मंडप में आकर अपने अपने स्थानोंपर बैठ गये । अनेक प्रकारके वाजे वजने लगे। तंत्रियों के कंठों से जायमान भांति भांतिके राग और गीत छिड़ने लगे । कन्या परम सुन्दरीने भी वाजोंकी आवाज और गाने सुने और वह धायको लेकर स्वयंबर मण्डपमें आगई ॥ ११८ --- ११६ ॥ जिनके मस्तकोंपर भांति भांति के मुकुट शोभायमान हैं। जिनकी चेष्टा कामदेव सरीखी है और जो नाना प्रकारके श्रृंगारोंको किये हैं ऐसे उन राज कुमारोंको वह कन्या देख ही रही थी कि उसी समय वह योगी आया ॥ १२० ॥ वह साधु में भवति रमाये था। उसके जटाके बाल बिखरे थे इसलिये वह बड़ा भयंकर जान पड़ता था । तथा हाडोंकी माला लिये था उसके हाथमें शंख था। हंस रहा था। उसके नेत्र कुछ रक्त थे और बड़ े २ दांत बाहर निकले हुए थे । स्वयंवर मण्डपके मध्यभाग में आकर वह बचके समान दृढ़ आसन से बैठ गया। हाथमें रुद्राक्षकी माला धारण करली एवं साक्षात् यमराज सरीखा जान पड़ता था ॥ १२० – १२२ ॥ मन्दार पुष्पों की मालासे विराजमान योगीको देखकर कन्या परम सुन्दरी बड़ी खुशी हुई और उस योगीको वर बनानेके लिये उसकी ओर बढ़ने लगे २२ VPKPAYKP LAYAYAY Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •ELUATI -momments सेव निषिद्धोत्थाय कोपतः ।। १२३ ॥ हन्यता हन्यता दुष्टः झापाली करुणातिगः । अल्पस्येवं नपाः केचित्ताड्यति बचः शरैः ॥ १२५ ॥ चुकीपेभ्योऽगममा स मत्या प्रत्यूहमायतं । राजभ्यो राजवक्त्रेभ्योऽखिल्यालयो नु वा ।। १२५ ॥ यदो. त्थाय महाशवं धमतिस्माशु कोपतः । तदा देवीरिती यक्षो समागम्य विकलातुः ॥ १२६ ।। के हकार'प्रचक्राणौ स्फोटयतो नु पर्वतान् । उन्नताजनागौ नु दीर्घदंतौ महाभुजौ १२७ || ताभ्यां च नग्नरूपाय हताः पादप्रहारतः । सर्वे भूपालसाम'ar: पौरा किष्किंधपादयः ।। १२८ ।। अत्रांतरे नभोगामी गच्छन कश्चिन्न पात्मजः । जहार मनसा दुष्टा' किन्न कुर्वति विग्रह । १२६ ॥ द्विजिताः खरतराः सेा भविमृश्शाकरा नराः । कार कारमनर्थतेनिशं जीवति गृध्नयः ।। १३० ॥ असंभाव्यमतो परन्तु राजा लोगोंको यह बात पसन्द न आई उन्होंने शीघ्र ही उसे रोक दिया । राजाओंके द्वारा कन्या परम सुन्दरीको इसप्रकार रुकता देख योगीको बड़ा क्रोध आया वह क्रुद्ध हो एकदम अपने आसनसे उठ खड़ा हुआ। योगीकी यह चेष्टा देख स्वयंवर मण्डपमें विद्यमान समस्त राजाओंमें खल वली मच गई सबोंके मुखसे ये ही शब्द निकले कि यह योगी बड़ा दुष्ट और निर्दयी है इसे मारो मारो तथा बहुतसे राजा लोग उस योगीको कुबाक्यरूप वाणोंके प्रहारोंसे वेधने लगे ॥ १२३–१२४ ॥ वह सन्यासी समस्त राजाओं पर एकदम गुस्सा हो गया। राजा और राजा लोगोंकी मखोकी चेष्टाओंसे उसे यह जान पड़ने लगा कि साक्षात प्रलय काल उपस्थित हो गया है इसलिये अपने ऊपर एक वलवान विन्न उपस्थित होता देख जिस समय खड़े होकर उसने महा- 13 5 शंख बजाया उसीसमय देवीके द्वारा भेजे हुए दोयक्ष सामने आकर गर्जने लगे वे दोनों यक्ष केंकार | हुकार शब्दोंके करने वाले थे। पर्वतोंके फोड़ने वाले थे। अञ्जन पर्वतके समान ऊंचे थे। विशाल दन्त और विशाल भुजाओंकेधारक थे । नग्नरूपके धारक उन दोनों यक्षोंने अपने पादोंके प्रहारोंसे समस्त रोजा और किष्किंधा पुरीके राजा आदि समस्त पुर वासियोंको तितर बितर कर डाला || ॥ १२५–१२६ ॥ उसी समय एक विद्याधर आकाश मार्गसे जा रहा था। कन्या परम सुन्दरीको Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रातर्दृश्यते यदि धोधनं । अशुभ वा शुभ वेगात् ज्ञायते सुधिया तदा ॥ १३१ ।। अतोऽहं चिंतया यस्तो स्वामीति करंडकं । पाम तकैः पुष्पेभृतं दृष्ट्या विचारतः ॥ १३२ ॥ पुष्पमाली तथा मूत क्रूर वक्रविलोचन'। चक्रिण' भयतो दृष्ट्वा गणेति विचक्षणः ॥ १३३ ॥ हे नाथ ! मदनोद्याने तव पुण्यप्रभावतः । समायातः सुराधोशः स्तुतो बिमलयाहनः ।। १३४ ॥ तन्माहात्म्याइन देखते हो वह उसपर आसक्त हो गया और उसे तत्काल हर कर ले गया ठीक ही है जो मनुष्य । हृदयके दुष्ट होते हैं वे क्या क्या उपद्रव नहीं कर छोड़ते हैं जो द्विजिह्व-चुगलखोर होते हैं * खर-कठोर होते है। ईर्षा सहित होते हैं। विचार न कर कार्य करने वाले होते हैं वे लोलुपी अनेक प्रकारके अनर्थोको करते हुए भी सदा काल जीवित रहते हैं। नारायण स्वयंभ इसप्रकार | कह कर अन्तमें अपने भाई बलभद्रसे कहा__ भाई ! तुम अत्यंत बुद्धिमान हो जो वात असंभव दीख पड़े बुद्धिमानोंको चाहिये कि उसके | विषयमें शुभ अशुभका ज्ञान अच्छी तरह करले सार यह है कि असंभव मंदारपुष्पोंकी मालाका | हठ कर कन्या परम सुन्दरीने जिसप्रकार अपना सर्व नाश कर डाला था उसीप्रकार सामने रक्खी | डालीके अन्दर भी जो फल फूल दीख पड़ते हैं वे इस ऋतुके असंभव है इनके देखनसे भी मुझे यही प्रतीत होता है कि कहीं बखवान अनर्थका सामना न करना पड़े। इसलिये हे भाई ! समस्त ऋतुओंके फल फूलोंसे भरी हुई इस डालीको देख कर मुझे बड़ी भारी चिंता हो गई है एवं आगे कोई बलवान अनर्थ न आकर उपस्थित हो जाय इस विचारसे मेरा चित्त बड़ा उथल पुथल | हो रहा है । बस ऐसा कहते कहते नारायण स्वयंभू का मुख क्रूर हो गया नेत्र वक्र सूझ पड़ने लगे राजाकी यह दशा देख माली मारे भयके कप गया एवं अपनी चतुरतासे उनके हृदयका भाव समझ वह इसप्रकार विनय पूर्वक कहने लगा-- ___ कृपानाथ ! आपके अलौकिक पुण्यके प्रभावसे मदन नामके वनमें भगवान विमलनाथका समव| सरण आया है उन भगवानकी बड़े बड़े इन्द्र पूजा और स्तुति करते हैं। उन्हीं भगवानके पुण्यके KayakaraPakiYARI Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व भ्रमद्भ मरमरितं । पुष्पित फलितं चेति बिना काल नराधिप! ॥१३५॥ श्रुत्वा युत्थितश्चक्री परोक्षविनयान्यितः । ददी. तस्मै महादाम संतुष्टो रसदाटकं ॥ १३६दापयित्वो महानंददुदुर्मि पत्तने निजे । जनान् हापपतिस्माशु स्वयंभू र्षितोतरे ॥ १३७ ॥ समातुकः सपर्यायश्चचाल नागसम | बंदितु जगतां नार्थ नागमारुह्य मागधः ।। १३८ । घटोटक संघाताः प्रचेल विविधत्यिकः । सूर्यसतिसमाकाराः सुरैभिलाद्रिभूरुहाः ।। १३६ ॥ नागा नेदुः समुत्तुगाः पर्वता जंगमा नु घा। यार्दाप्रभावसे असमयमें भो वनके समस्त वृक्ष फल फलोंसे लवदा गये हैं और जहां तहां घूमते हुए भ्रमर गण उनपर गुजार शब्द कर रहे हैं। १३०-१३५ । मालीके मुखसे ये आनन्द प्रदान करनेवाले बचन सुन नारायण स्वंयभ एकदम सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये । परोक्ष विनय की। एवं शुभ समाचार सुनने के कारण संतुष्ट हो से रह सुवाका बहुतसा दान दिया ॥ १३६ ॥2 FI चित्तमें अत्यंत हर्षायमान राजा स्वयंभ ने शीघ्र ही समस्त नगरमें आनंद भेरी बजवा दी और * भगवान विमलनाथके समवसरणका आना समस्त पुर वासियोंको जना दिया । वह पुण्यवान स्वंरिलायंभ तीन लोकके नाथ भगवान विमलनाथकी वंदना करनेके लिये शीघ्र ही हाथीपर सवार हो गया। तथा भाई परिवार और पुरवासियोंके साथ शीघ्र ही वनकी ओर चल दिया ॥ १३७--१३८ ॥ रंग रिंगी कांतिसे शोभायमान हींस लगाते हुए अनेक घोड़े चलने लगे जो कि सूर्यके घोड़ोंके समान र 4 जान पड़ते थे और अपने खुरोंसे वृक्ष और पर्वतोंको ढाह देनेवाले थे । बड़े बड़े ऊंचे हाथी चलने लगे जो कि जंगम चलते फिरते पर्वत सरीखे जान पड़ते थे । तथा उनके गंडस्थलोंपर । सिंदूर लगा हुआ था और मद भी झरता था इसलिये वे हाथी ऐसे जान पड़ते थे मानो चमकती हुई विजलीसे शोभायमान ये मेघ ही हैं ॥ १३६–१४० ॥ उस समय हका, छका, हांको, हटायो इत्यादि शब्दोंसे समस्त माकाश मंडल व्याप्त था । अनेक प्रकारके वाजोंके शब्द हास्योंके शब्द 14 और आनंद पूर्वक वजाये गये तालोंके शब्द हो रहे थे इसलिये आपसमें एकको दूसरेका शब्द नहीं Page Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FarashtraRY अपलया युक्ता दानवबिरसान्विताः॥१४०॥४का छक्का रदैनं कर्णाभ्यां श्रूयते नहि । नाना तूर्यारव भूयो हास्येरानन्दतालमः॥१४॥ गजाश्यसरसंभूतरजीभिरमादितो र । यतेस्म Ani में से कोयते भृश ॥ १४२ ॥ एवं महा विभूत्या स गतवा कभृत्परः । दप्टेंबवे दूरतो वेगा-मानस्तंभ हिरण्मय' ।। १४३ ।। उत्सतार गजानव्यो विछत्रो हपरोमधुः । पश्यन् पश्यन् महाशोभी 2 मध्ये गत्वा जिनाधिपं ।।१४४ ॥ त्रिपरीत्य विधा भक्त्या स्तुत्वा गधादिभिः परः । ननाम शारिणा युक्तो मईयामास केशवः॥ सुनाई पड़ता था ॥ १४१॥ लामो और घोड़ोंकी टापोंसे उठी हुई धूलिसे सूर्य एक दम ढक गया Aथा दीख नहीं पड़ता था इसलिये दिनके अंदर भी रात जान पड़ती थी ॥ १४२ ॥ इसप्रकार IN/ विशाल विभातिसे मंडित वह अर्धचक्री स्वयंभ भगवान विमलनाथकी वंदनाके लिये चल दिया था बनमें पहुंचते ही दूरसे ही उसे सुवर्ण मयी मानस्तंभ दीख पड़ा भव्य जीव वह स्वयंभू शीघ्र ही हाथीले उतर पड़ा। छत्र चमर आदि विभू तिसे वहींपर छोड़ दी। मारे आनंदके उसका शरीर पुलकित हो गया। समवशरणकी जहां तहांकी शोभा निरखता हुआ उसने भीतर प्रवेश किया। भगवान जिनेन्द्रकी तीन प्रदक्षिणा की महामनोहर गयोंमें स्तुति की एवं अपने भाई धर्मनाथ | - वलभद्र के साथ भक्तिपूर्वक जल आदि अष्ट द्रव्योंसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ।। १४२-१४३॥ A सबसे पहिले चक्रवर्ती स्वयंभ ने भोरोंके समूहसे व्याप्त जो कमल उनकी प्रभासे जाज्वल्यमान सुवर्णमयी झाड़ियोंमें रवखे हुये जलकी धारासे भगवान जिनेंद्रकी पूजा की। अन्य सिद्धांतकारों से को शंका जव जलकी एक बदके अन्दर भी असंख्याते जीव हैं ऐसा भगवान महंतके मुखसे निकले का शास्त्रों में कथन है तब धर्मके लिये जलकी स्थूल धारासे भगवान जिनेंद्रकी पूजा पुण्य कार्य कैसे IA * समझा जा सकता है ? उत्तर, जिसप्रकार अग्निकी छोटीसी कणीसे भी बड़े २ काष्ठ भस्म हो जाते हैं उसीप्रकार भगवान महंतकी पूजासे जायमान पुण्यसे बलवान भी पापोंकी लड़ियां देखते है TEEYPREETMहर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ०४ VYAYAYA YAPKPYR ॥ १४५ ॥ भृगरा जिसमाश्वास पीताम्भोजोममा पूरितस्वर्णभृंगारप्रणालजलधारया ॥ १४६ ॥ ( युग्मं ) अहो एकस्मिन् पयोि दावसंख्याता जेतवः प्रण्यगदिवतागमैरह द्वषयसंभूतैश्च तर्हि धर्मार्थं स्थूलजखधारमा समर्पणं कथं संजाघटीत्याश' क्याहुर्निंगमाः ॥ १४७॥ गणास्तानि याहुः ईोतपुण्येन श्रोते पापराशयः । मशेनैकेन घहरच काण्डनीव महागमाः | १४८|| अहो प्राचीन इसि भूयस्यपि सति युमरसंख्यजंतुमयपयोधारोन्द्र साहोराशिनिरयाद्विनास्पदं न विदध्यादित्याहुराशक्य निगमाः ॥४६॥ गणास्तः नित्याहु:देखते नष्ट हो जाती हैं ऐसा शास्त्रका वचन है इसलिये जलकी धारासे भगवान जिनेंद्र की पूजा करना अनुचित नहीं । शंका आत्मा के साथ प्रथमसे ही अगणित पापका संबन्ध विद्यमान है यदि असंख्यात जीव स्वरूप जलकी धारासे भगवान जिनेंद्र की पूजा की जायगी तो उससे जायमान पापोंका समूह नियमसे नरक ले जायगा इसलिये जलकी धारा से पूजा करना ठीक नहीं है ? उत्तर, जिसप्रकार संपूर्ण चन्द्रमा में थोड़ीसी कलंककी रेखा कुछ भी हानि नहीं करती - चंद्रमा स्वरूप ही मानी जाती है उत्तोपकार जलकी धारासे भगवान जिनेंद्र की पूजा करनेपर अनंते पुण्य परमाणुओं का बन्ध होता है उनके सामने जलकी धारासे पूजन करनेपर जो पाप होता है वह नहीं सरीखा होता है। विशेष पुण्य परमाणुओं के सामने थोडीसी पाप परमाणु अपना बल नहीं दिखा सकती अर्थात् वे पुण्य स्वरूप ही परिणत हो जाती हैं ऐसा शास्त्रका उपदेश है इसलिये जलकी धारा से भगवान जिनेंद्रकी पूजा करना किसी प्रकारका अनर्थ नहीं कर सकता। फिर भी शंका afrat छोटी चिनगारी भी जिनकी डालियोंपर भांति २ के पुष्प खिल रहे हैं ऐसे महामनोहर हरे वृक्षोंसे मंडित वनको देखते देखते खाख कर डालती है उसीप्रकार जलकी धारासे पूजन करनेपर उससे जायमान थोड़ासा पाप भयंकर अनर्थ कर सकता है इसलिये पापको उत्पन्न - 都卵味剤で参 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ७५ PAPAYAYAYA अणात्पुण्यराशीनामानं त्यात्पलेशतः । कियति ग्लाचि संपूर्ण लक्ष्मलेश इवागमाः ॥ १५० ॥ अहो चित्रमानुलेशा चुद्गीर्णविकस्वर कुसुमचयहरित रुतंड मंडितं चन किं न प्रोत इत्याशंक्याहुर्निंगमाः ।। १५१ ।। किशलयागणास्ता नित्याहु: बावह्निना नूनं प्रौढजालेन धारिधिः | लोलत्फल्लोलगंभीरोऽपीति न कदा श्रुतं ॥ १५२ ॥ तथा स्वल्पाहसा पुण्यवारिधिनैव लभ्यते । अंतरंगविधिः प्रायो बहिरंगाइली मतः ॥ १५३ ॥ को गार्हस्थ्ययियोरपनाहः प्रण भगवत्पदाम्भोजाश्रयतः स्यात् । धर्मास्पदे यदकार्यस्तत्सल वज्रवज्रायते तदव्यपोहनं दुष्करमित्याश' मयाहुर्निगमा: करनेवाली जलकी धारासे भगवान जिनेंद्र की पूजा करना अनुचित है ? उत्तर, बड़वानल जातिकी अग्नि बड़ी प्रौढ़ और तीव्र होती है और वह समुद्र में उत्पन्न होती है ऐसी कवि समय प्रख्याति है वह तीन अग्नि भी समुद्रकी रंचमात्र भी हानि नहीं करती उसके विद्यमान रहते भी कक भकाती हुई तरंगों से सदा गम्भीर बना रहता है उसीप्रकार जलकी धारा से भगवान जिनेंद्र की पूजा किये जाने पर पुण्यका तो अधिक संचय होता है और पापका उपार्जन बहुत थोड़ा होता है इसलिये वह थोड़ासा पाप विशाल पुण्यरूपी समुद्रको लांघ नहीं सकता यह न्याय भी है कि अन्तरङ्गविधिसे बहिरङ्ग विधि बलवान होती है । पुण्य अन्तरङ्ग विधि है और पाप बहिरंग विधि हैं बहिरंग विभि स्वरूप पाप अन्तरन विधि स्वरूप पुण्यको बाधा नहीं पहुंचा सकता इसलिये जलकी धारा से भगवान जिनेंद्रकी प्रजाका निषेध नहीं किया जा सकता। फिर भी शंका गृहस्थाश्रम के कार्यों करनेसे जो पाप उत्पन्न होगा उसका विनाश भगवान जिनेंद्रके चरण कमलों की सेवासे हो सकता है परन्तु धर्मके स्थान में जो पातक किया जायगा वह वज्रसे भी safe कठिन होगा उसका नाश न हो सकेगा इसलिये जल धारासे पूजन करनेपर जो भी पाप उत्पन्न होगा वह भी मिल नहीं सकता इसलिये जलकी धारासे पूजा नहीं करनी चाहिये ? उत्तर, परधानतय AAPK Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ॥१५४ मतानित्यावर्गणा:-ऋाणां च मुनीनां च यतीनां च समर्हस्मृतिानमयो मावतिभंगवतो मत १५५ ॥ गाईस्थ्योल्पनपाएभ्य प्रणाशः पूजनादिभिः । अन्यथा वज्रलेपः स्यादतो मागों न प्यते ।। १५६ ॥ मही सांप्रतमगाखल IK भदभगवदनुचर्यच्च तदच्छमनुस्मृत्य :वयं भगवतुः सानन्दाः स्मोऽतोऽनुबादेन :रसा तमिति गृहिणामहण भगवान जिनेंद्रका सिद्धांत है कि ऋषी मुनि और यतियोंकी भलेप्रकार पूजन उनके गुणोंका स्म-17 बरण ध्यान आर उत्तम परिणामोंसे उन्हें नमस्कार करना चाहिये। इसी कारण जल धारासे भग वान जिनेंद्रकी पजा करना अनुचित नहीं ॥ १४४-१५६ ॥ पुनः शंकाPM बड़े ऋषि जो कि रात दिन घोर तपोंको तप पुण्य संचय किया करते हैं यदि वे जलसे भग वान जिनेंद्रकी पूजा करें तब तो यह मान लिया जा सकता है कि जलसे पूजन करने पर जो पाप | होगा उसे मुनि गण नष्ट कर सकते हैं परन्तु गृहस्थ जो कि रात दिन पापोंका संचय करते रहते है र्याद वे जलसे भगवान जिनेंद्रकी पूजा करेंगे तो और भी पापका बोझा उनपर लदेगा उनका पापोंका भार हलका नहीं हो सकता इसलिये हिंसा जन्म पातकके भयसे जब मुनिगण जलसे IN पूजा नहीं करते तब गृहस्थोंको तो जलसे पूजा करनी ही नहीं चाहिये इसलिये जलसे पूजाकी जो पुष्टि की गई है वह मिथ्या है ? उत्सर, मुनिगण समस्त प्रकारके आरम्भके त्यागी हैं इसलिये शास्त्र में भगवानकी पूजा लिये उन्हें आज्ञा नहीं किंतु गृहस्थ घरमें फसा रहने के कारण अनेक प्रकारके आरंभोंको करता रहता है और उन आरंभोंसे अनंते पापोंकी उत्पत्ति होती रहती है। उन पापोंका नाश भगवान जिनेंद्रकी पूजा आदिसे ही होता है इसलिये गृहस्थ अवस्थामें उत्पन्न | होने वाले पापोंकी शांतिके लिये भगवान जिनेंद्रकी पजा करना आवश्यक है। यदि पूजन आदि - उन पापोंकी शांति न की जायगी तो वह पाप बज पाप हो जायगा उसका नाश जल्दी नहीं हो १ । बहिरंगतोऽतरंगविधिलवान । KarkheTRYMYTREAKER सहपपपपपाच Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोपपनोपद्यते ॥ १५७ ।। इति दुय । १५८ | स्वच्छ पा धरया राजकल्य शान्तिः प्रजायते । हैवानिार्धाप्तिरतः स्पोक्रियतेऽर्थतः १५६ ।। ( संबंधगुप्तम ) अमुह,शसिद्धयर्थं वपुष केशवः शिवः। चंदनैश्चंदनरहमईयामास सा परिः ।। १६० ॥ ( समास गुप्तमदः ) अष्टमी चन्दसकाशै स्तंदुलैः सुद दैलन् । अपामर्हडिजनं चको भूरिभूत् च भक्तिनः ॥ १६१ ॥ मन्दारकुसुमत्रातैरिया । सकेगा इसलिये पूजा आदिका मार्ग जो शास्त्र के अंदर पुष्ट किया गया है उसको नलोपना चाहिये IN इसलिये जल आदिसे जो भगवान् जिनेंद्रको पूजा की जाती है वह पापोंको उत्पन्न नहीं करती किन्तु पुण्योत्पादक होती है । पुनः शंका भगवान् जिनेन्द्रके भक्तोंका यह कहना है कि हमें भगवान् जिनेंद्रका स्वरूप वा उनके गुणोंका IN/ स्मरण करनेसे ही आनन्द प्राप्त हो जाता है इसलिये इस विषय में हमार ( शंकाकारका ) यही खास लक्ष्य है कि जब गुणोंके स्मरण करनेसे हो आनन्द प्राप्त हो सकता है तब जल आदिसे । पूजाका करना व्यर्थ है इसलिये भगवान जिनेन्द्रको जा जलको धारासे पूजा को जाती है वह हिंसाको कारण होनेसे उपयुक्त सिद्ध नहीं हो सकती ? उत्तर-जलको स्वच्छ धारासे भगवान जिनेन्द्रका पूजन करने पर गज्यमें विघ्नोंकी शांति होती है तथा इसी लोकमें अभीष्ट अर्थको प्राप्ति होती है इसलिये जलको धारासे भगवान् जिनेंद्रकी पूजा की जाती है । इसप्रकार अर्धचको स्वयंभूने जलB को धारासे भगवान जिनेंद्रको पूजा को ॥ १५६-१५६ ॥ कल्याण स्वरूप अर्धचको उस स्वयंभने । इस लोक और परलोकमें शरोरके कल्याणकी सिद्धि के लिये शीतलता प्रदान करनेवाले चन्दन द्रव्यA से भगवान जिनेंद्रकी पूजा की ॥१६०॥ जो तंदुल अखण्ड थे और उज्ज्वलतामें अष्टमीके चंद्रमा की तुलना करते थे उन तंदुलोंसे स्वयंभ नारायणने विशाल वितिको प्राप्ति की अभिलाषासे भक्ति ज पूर्वक भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ॥१६१॥ समस्त प्रजाको रक्षा करनेकाले उस चक्रवर्तीने जिनका - रस झन्कार करते हुए भोरोंसे पीया गया है और जो अत्यन्त मनोहर हैं ऐसे मन्दार जातिके KYTarsekacKYAKAISKIP TRE hekharePRETTERRYPTOPlar c Ko Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nawariya जोनप जिन। गुजदल्या लसंपीतमकरदमनोरमै. ॥ १२ ॥ चभिचारधीधोरं घृतपूरादिजातिमिः । अपीपूमदसौ सर्वसाम्रा ज्यस्य विभूतये ।। १६३ ॥ ज्वलत मेप्रस्थं वा पतंग वा पुरोहतः। चर्करोतिस्म लोकावः केवलावगमाप्तये ॥१६५॥ चन्दनागुरुकपूर पूरधूपमनोक्षिपत् । कर्मणां हानये राजा गन्धपूरितादचयं ।। १५ ।। निकट शोऽसौ समुत्तार्य लोकेशस्य पुरः पतिः । फलानि श्रीकलादीन्यम्मुत्सल्फलातये ॥ १६६ ॥ जन्ममृत्युजरादानां दु:खामा हानिहतधे । स भाषो भवमाशाय महाघे प्रांजलिईदौ ।। १६७ ।। संपूज्य नगमाकोष्ठ भ्रातरौ तरूपतः शुभौ । धत्वा तत्वामृत सीरी पप्रच्छे नि जिन नमन् ॥१६८ ॥ हे नाथ ! जगतां बन्धो ! कमांद्रि PA कल्प वृक्षोंके पुष्पोंसे भगवान् जिनेंद्रकी पूजा की।१६श उत्तम बुद्धिकाधारक वह नारायण स्वयंभ समस्त IP साम्राज्य विभूतिकी प्राप्तिको अभिलाषासे उत्तमोत्तम नैवेद्योंसे पूजा करने लगा जो नैवेद्य क्षीर K और घृत आदि अतिशय उत्तम पदार्थोंसे तैयार किये गये थे ॥ १६३ ॥ अर्धचकी स्वयंभूने केवल ज्ञानकी प्राप्तिको अभिलाषासे दीपकसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की, जो दीपक ऐसा जान पड़ता था मानो सुवर्णमयी मेरु पर्वतका यह पत्थरका खण्ड है अथवा यह देदीप्यमान सूरज है ॥ १६॥ A जो धूप चन्दन अगुरु और कपूरसे तैयार को गई थी ऐसी धूपसे समस्त कर्मोके नाशकी अभि लाषासे राजा स्वयंभने भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा को उस धुपकी इतनी उस्कट सुगन्धि थो कि उससे - समस्त दिशाओंका मंडल महक उठा था ॥ १६५ ॥ अर्धचक्री स्वयंभूने उत्तम फल मोक्ष फलकी प्राप्तिकी अभिलाषासे श्रीफल आदि फलोंसे भरी रकेवीको तीन वार भगवान् जिनेन्द्र के सम्मुख | 5/ उतारी और उन उत्तम फलोंसे भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा की ॥ १६६ ॥ अन्तमें जन्म मरण आदि और वृद्धावस्था आदिदुःखोंकीशांतिको अभिलाषासे संसारके विनाशार्थ चक्रवर्ती स्वयंभने हाथ जोड़ भगवान् जिनेन्द्रको महार्घ दिया अर्थात् महाघसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ॥ १६७ ॥ वस इस प्रकार आठो द्रव्योंसे भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रको पूजा कर वे दोनों भाई धर्म और स्वयंभु समवसरणके नरकोठेके अन्दर बैठ गये । भगवान जिनेन्द्र जिस धर्मामृतका उपदेश दे रहे थे उसे | RESULYRI Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बज! काममुद। रुविनाशिन् कथ जीवो याति स्वर्ग सुखपदे ॥ १६ ।।दनादिमहादुःखसंकुले श्वनसागरे । पतत्वेव कथंका. वदत्वं शिवनायक! ॥ १७० । कुलतिर्यग्भवे जोवो मानुषत्वं श्रयेत्कर्थ । पुरुषत्वं च नारीत्वं जायते केन कर्मणा ॥ १७१ ।। अल्पाय नाय ! वायुः कथं जीव: प्रजायते । भोगहीनः कथं देव ! तत्संयुक्तः कथं बद ॥१७॥ सोभाग्य चाथ दीर्भाग्य कथ संपचते नणां | बुद्धिमान् चिबुद्धिः केन कर्मणा जायते नरः ॥ १७३ ॥ पंडितश महामूर्यो धीरश्री:: कातरस्तथा । लक्ष्मीयुक्तो विलक्ष्मीकः कथं भक्ति पूर्वक सुना एवं अन्तमें भगवान जिनेन्द्रको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर वलभद्र.धर्मने इसप्रकार । भगवान् जिनेन्द्रसे पूछा--- भगवन् । आप तोनों लोकके वधु हैं । कर्मरूपी पर्वतको छिन्न भिन्न करनेवाले वन हैं। कामदेवको नष्ट करनेवाले हैं। समस्त प्रकारके रोगोंके विनाशक हैं कृपाकर बताइये यह.. जीव :- कैसे तो अनेक सुखोंको प्रदान करनेवाले स्वर्गके अन्दर जन्म लेता है और कैसे छेदन भेदन आदि अनेक प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त नरक रूपी समुद्रमें गिरता है ? प्रभो! आप मोक्ष लक्ष्मांक स्वामी है इसलिये कृपाकर कहें ॥ १६८–१७० ॥ कृपानाथ ! कैसे तो यह जोव तियञ्च योनिके | अन्दर जन्म लेता है ? कैसे यह मनुष्य योनिके अन्दर जन्म लेता है ? मनुष्य योनिके अन्दर भी किन कर्मके उदयसे इसे मनुष्य होना पड़ता है और कैसे स्त्री हो जाता है । वहुत जीव थोड़ी आयुके धारक दीख पड़ते हैं और बहुतसे अधिक आयुवाले दीख पड़ते हैं इसलिये कृपया कहिये कि- कैसे तो थोडी आयुवाले जीव होते हैं और कैसे बहुत आयुवाले जीव होते हैं । संसारमें वहुतसे जीव ऐसे हैं जिन्हें कुछ भी भोग सामग्रो प्राप्त नहीं और बहुतसे ऐसे हैं जिन्हें नानाप्रकार के भोग प्राप्त हैं कृपाकर वतलाइये कि कैसे तो मनुष्य भोग रहित उत्पन्न होते हैं और कैसे भोग / ब सहित उत्पन्न होते हैं ? संसारमें किस कारणसे मनुष्योंका सौभाग्य होता है और किस कारणसे दुर्भाग होता है ? कैसे मनुष्य बुद्धिमान होते हैं और कैसे निर्वृद्धि होते हैं ? कैसे पण्डित और YOYKEMPEPARK RKKAISECRETREKKARE Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेत मानुषः ।। १७४ ।। जमन्यते शुभाः पुत्रा मे नियंते कथं विभो ! नेजोल्यन्ते गणाधीश ! धर्मणा केन सत्सुताः ॥ १७५ ॥ राश्यंधा बधिराः केन कर्मणा काय सर्वधित । मुकठोरादिमोरोग पीड़िताश्च कुतो पद ॥ १७६ ॥ परकृत्यारा जोवा दरिदा केन कर्मणा । नारोगा अतिरोगाश्व मुकास्तु पंगवः कथ।। १७७ ॥ भरिरूपा विरूपाश्च बेदनासहिताः कथं । निर्वेदाश्चापि भो । ईश! आयसे मानुषा बद ।। १७८ ॥ संवोभशीति पञ्चाश पकाक्षः फेन कर्मणा । फोष्ठयुक्का नरा नाथ! संपर्धते कथ' भवे ॥१७॥ अल्पसंसारका जीवा भूरिसंसारकास्तथा । शिवभाजो भवत्येव चद त्वं केन हेतुना ॥१८० बिगुल्योलकमार्जारा श्वानो ध्वां शाश्व गईभाः । चाण्डालाः केन जायते कर्मणा बद संप्रति ॥ १८१ ॥ अज्ञानतमसो भानो ! ज्ञानमूर्ते ! शिवप्रद ! भव्योधकुमुज्रोत चन्द्रम: ! कमलापते ॥ १८२॥ कथय त्वं मयो क्त' यदविल'ब' दयानिधे ! भव्याः शुश्रूषयः संति विपाक कर्मणां धनं । १८३|| व्याजहार IN मूर्ख, कैसे धोर बोर और डरपोक एवं कैंसे धनी और निर्धनी होते हैं ? । प्रभो । किस कारणसे तो संसारमें शुभ पुत्रोंकी प्राप्ति होती है किस कारणसे वे मर जाते हैं तथा जो श्रेष्ठ पुत्र जीते हैं वे किस कारणसे जीते हैं ? । भगवन ! आप यह भी कहें कि किस किस कर्मके उदयसे मनुष्य रतोंदवाले वधिर कंठ और उदर आदिके अनेक रोगोंसे पीड़ित परोपकारी और दरिद्रो, अत्यन्त रोगवाले और निरोग मूक (गूगे ) लंगड़े, अत्यन्त रूपवान और कुरूप, वेदनाओंके भोगनेवाले और वेदना रहित पंचेंन्द्रिय और एकेंद्री कोढ़ी थोड़े दिन संसारमें रहनेवाले और बहुत दिन पर्यन्त संसारमें रहनेवाले एवं मोक्ष प्राप्त करनेवाले होते हैं ? तथा बगुली, उल्ल, विल्ली, कुत्ता, काक, गधे चांडाल आदि जीव किस कर्मके उदयसे होते हैं ? । हे नाथ ! आप अज्ञानरूप अन्धकारके नाश करने के लिये साक्षात् सूर्य समान हैं। ज्ञानकी मूर्ति स्वरूप हैं । मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। भव्य रूपी रात्रिविकाली कमलोंके प्रकाश करने के लिये चन्द्रमा स्वरूप है । लक्ष्मीके स्वामी हैं । हे दया | निधि ! मैंने जो कुछ पछा है कृपाकर शीघ्र उसका उत्तर दीजिये उपस्थित ये समस्त भव्य जोव कमों के विचित्र विपाक फलके जानने के लिये लालायित हो रहे हैं ॥ १७१-१८३ ॥ वलभद्र धर्मका ЖҮККККККККККККККККК khatrkarRPATTER Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा देवो वापया गंभीरया बळ । गर्जघनरवाशंका दधत्या केकिमुहया ॥ १८४ ।। साधु पृष्ट त्वया वत्स! भब्यानां सुहितं मतं । । xणु दत्तावधानः सन् गिदाभि समासतः ॥ २८५ ॥ हिसाकरा असत्या ये परस्त्रीधनतस्कराःमायाहङ्कारसंयुक्ता सदा छिद्र । प्रकाशकाः ॥ १८६ ।। कृतघ्नाः पापिनः श्वभ्रं यांति दुलार्ण प्रति । दानिनो देवपूजास्तिापसाव जितेंद्रियाः ॥ १८७ ।। निर्मला मनसा . वत्स! मृदयो माधुरोरसाः । गुरुमक्ता नरा ये बै स्वर्ग योति शिवारूपदे ।। १८८ ॥ स्वकृत्यार्थ च PA कुति स्नेहं ये ऋ रदर्शनाः। अंतर्दशाशयाः सेा बहुमायायियताः ।। १८६ ॥ वहासिनो हि मूढाश्च बहुस्वप्ना ऐसा प्रश्न होनेपर भगवान जिनेंद्र गंभीर वाणीसे उसका उत्तर देने लगे। भगवान जिनेंद्रकी वाणी उस समय इतनी गंभोर थी कि वह गर्जते हुए मेघकी धनिकी शंका उत्पन्न करती थी और उसके सुनने मात्रसे मयूर गण अतिशय आनंदका अनुभव करते थे। भगवान जिनेंद्र कहने लगे प्रिय वत्स ! तुमने वहत ठीक पछा । इसप्रकारके उपदेशको सुनकर भव्य लोग अपना वास्तविक हित 2 संपादन कर सकते हैं, ध्यान लगाकर सुनो किस कर्मका क्या फल है मैं संक्षेपसे कहता हूं जो मनुष्य हिंसा करने वाले हैं । असत्य बोलने वाले हैं। पराई स्त्री और पराये धनके चुराने K वाले हैं। छल छिद्र कपट और अहंकारके पुञ्ज हैं। सदा पराये छिद्र प्रकाशने वाले हैं, कृतघ्न और पापी हैं वे दुःखोंके समुद्र स्वरूप नरकमें जाते हैं किन्तु जो मनुष्य दानी हैं । सदा भगवान जिनेंकी पूजा करनेवाले हैं। तपस्वी हैं इन्द्रियोंके जीतनेवाले हैं। निर्मल चित्तके धारक हैं। कोमल परिणामो और मधुर बोलने वाले हैं और निम्रन्थ गुरुओंके भक्त हैं वे मनुष्य अनेक कल्याणोंके 19 स्थान स्वर्गमें जाकर जन्म धारण करते हैं ॥ १८४-१८८ ॥ जो मिथ्यादृष्टि जीव अपने प्रयोजन - के लिये दूसरेके साथ स्नेह जनाते हैं। अन्तरंगका अभिप्राय जिनका दुष्ट रहता है । सदा ईर्षा करते रहते हैं । छल छिद्र कपटमें सदा रंगे रहते हैं । बहुत खानेवाले होते हैं तथा बहुत सोनेवाले और आलसी होते हैं वे मूढ़ पुरुष तिर्य च गतिमें जाकर जन्म धारण करते हैं जहाँपर कि उन्हें . बालक पाहYYYA TERRACKETERNETakat RESER antummitteemmm mm Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहायक WEEKE KEPharelu लसा मर्श । तियैवस्त भवत्येव नानावुःखसमन्विताः॥ १०॥ नातिलोमा विकाढ्या दयावानरता ध्रुवं । अन्यनिदान कुर्वति मामवास्ते भयंत्यहो ॥ ११॥ सत्यशोवती नारी कामसंतोषिणी शुभा। स्थिरांत:करणा धर्मबुद्धिः सा नरतां प्रजेत् ॥ १६२।। प्रायो रामासु संसक्तश्वपलः कामधेष्टया। धूर्तश्व लोसमन्धेषी स्त्रीत्वं स पुरुषो प्रजेत् ॥ १३ ॥ पशु नां नासिकाकर्ण च्छदको दुष्ट मानसः। संस्कारी याति पदत्यं विभोगत्वं नराधमः॥१६४॥ जीवन त्रासयत्येष नीद्वान् मज्यते च यः । विषघाती महासेनाः | स नरोऽल्पायुषी भवेत् ॥ १२५ ॥ जन्तुरक्षणसंलीनः सो पकृतिकारकः । यः परेषां शुभाकांक्षी पहायुधों भवीति सः ॥ १६६ अनेक प्रकारके मुःखोंका सामना करना पड़ता है। १८६-१६०॥ जो महानुभाव विशेष लोभी नहीं होते विवेकी दयावान और दानी होते हैं तथा किसीकी भी निन्दा नहीं करते वे महानुभाव मनुष्य योनिके अन्दर जन्म धारण करते हैं ॥ १६१ ॥ जो स्त्री सत्य बोलने वाली और शौच धर्मka का पालन करने वाली होती है । विशेष कामिनी न होकर संतोष रखनेवाली होती है। शुभ होती है - जिसका अन्तःकरण चल विचल न होकर स्थिर रहता है तथा सदा जिसकी बुद्धि धममें दृढ़ रहती है। है वह स्त्री अपने स्त्रीलिंगको छेदकर पुरुषलिंग धारण करती है ॥ १६२ ॥ जो पुरुष स्त्रियोंमें | विशेष आसक्ति रखता है। चंचल होता है सदा कामचेष्टाओंके करने में ही परम आनन्द मानता है। धूर्त होता है और स्त्रियोंकी सूध लगानेमें रहता है वह पुरुष नियमसे दूसरे भवमें स्त्री होता है॥ १६३ ॥ जो नीच पुरुष पशुओंके नाक कान आदि अङ्गोको छेदता है । सदा मनमें दुष्टभाव रखता है और निरन्तर अपने शरीरका संस्कार करता रहता है वह नीच पुरुष संसारमें नपुंसक होता है एवं नपुंसक होनेसे वह किसी भी प्रकारके भोगोंको नहीं भोग पाता ॥१९४॥ जो मनुष्य जीवोंको अनेक प्रकारके त्रास देता है । पक्षियोंके रहनेके घोसलोंको तोड़ता फोड़ता है एवं - विष खाकर प्राण तजता है वह अत्यंत पापी मनुष्य थोड़ी आयुका धारक होता है ॥ १६५ ॥ जो महापुरुष सदो जीवोंकी रक्षामें तत्पर रहता है। दूसरोंका सदा उपकार करता रहता है और दूसरे 7 जीवोंका शुभ हो विचारता रहता है वह मनुष्य विशेष आयुका धारक होता है ॥ १६६ ॥ धनके Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YREYA सति द्रव्ये ददाति नो चेददाति विचिंतयेत् । किं कृतं हि भया वेत्थ जानता बालबुद्धिना ॥ १७॥ ददतो पारयत्येव परेषां रतिनाशकत् । निभोंगः स दरिद्री चहारोगेण पीडित: ॥ १९८॥ विनयादयः सदा शांतो जिनामाप्रतिपालकः । कस्याप्यढःखदो यस्तु स यशस्वी मवेदिव ११६६ ॥ पाठयति पठति ये वाङ्मय द्वेषर्जिताः | उत्कोचादिन गृहति तेषां स्याद् विमला मतिः ॥२०॥ गुणिनं च तपोयुक्त विद्यावतं यशस्विनं । कुधाषगणयत्येव स नियुजि: प्रजायते ॥ २०१॥ भाक्तिको देवगुर्वाश्च पापपुण्यचिदः स्फुटं । जिनध्यानाशयो यस्तु भवेत्सोऽपि विदांचरः । २०२ ॥ यस्य चितऽस्ति नास्तिक्यं जीवधर्मादिभावना । मन्यते नैष मोधः स ke विद्यमान रहते भी जो पुरुष कोडी वराबर भी किसीको नहीं देता यदि किसीको कुछ देता भी। है तो "हाय सब कुछ जानकर मूह बन मैंने क्या कर डाला जो अपना धन देदिया ऐसा पश्चा| ताप करता है । जो महानुभाव धन देना चाहते हैं उन्हें भी दान देनेसे रोकता है वह मनुष्य संसारमें भोगरहित दरिद्री एवं हर्षा नामके विशेष रोग ( मृगी) से पीड़ित होता है। १९७-१९८॥ जो महानुभाव विनय शील होता है। सदा शांत रहता है । भगवान जिनेंद्रकी आज्ञाका पालन करने वाला होता है और किसीको भी दुःख देना नहीं चाहता वह संसारमें यशस्वी पुरुष माना जाता है। सारा संसार उसके यशका गान करता है ।। १६६ ॥ जो महानुभाव द्वेष रहित होकर जैन शास्त्रोंको पढ़ाते हैं और स्वयं भी पढ़ते है तथा पढ़ने पढ़ानेमें किसी प्रकारकी द्रव्यकी अभि| लाषा नहीं रखते वे मनुष्य निर्मल बुद्धि के धारक माने जाते हैं ॥ २००॥ जो पुरुष क्रोध कषायके आवेशमें आकर गुणी तपस्वी विद्यावान और यशस्वी मनुष्योंका अनादर करते हैं वे मनुष्य निचुद्धि पागल होते हैं ॥ २०१ ॥ जो महापुरुष देव और गुरुओंके भक्त रहते हैं। पाप और पुण्यका | स्वरूप जानते हैं एवं भगवान जिनेंद्रके गुग्गों के चितवनमें ही चित लगाते हैं वे मनुष्य संसारके kdi अंदर विद्वान् होते हैं । २०२ ॥ जो मनुष्य नास्तिक होता है जीव धर्म अधर्म आदि किसीको भी नहीं मानता वह पुरुष निन्दित हृदयका धारक मूर्ख माना जाता है ॥ २०३ ॥ जो निर्दयी । सकपक K Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल ८४ 作者やわやわんや स्याम्मूढः कुत्सिताशयः ॥ २०३ ॥ मृगहंसशुकादीनां ग्रहण कृत्वा सुपंजरे । रक्षति यस्तु पापीयान् कातरः स्याद्भवे भवे ॥ २२४ ॥ जीवानां पालने शक्तः परपीडाचिनाशकः । बुभुक्षितप्राध्वंसी भवेद्वीरः स पुण्यभाक् ॥ २०५ ॥ असहये मनो भावो ने संबो भचीति । ईषदानप्रभावेण लक्ष्मीषांश्च स जायते ॥ २०६ ॥ पूर्वं दत्वा मनस्तापं वितनोति यतस्ततः । लब्धपद्मा च वृद्धत् निर्धाऽभिभवेन्नरः ॥ २०७ ॥ पशूनां पक्षिणां चैत्र शाषकांस्त्रासयति पे । गृहति परविधं वा स्युः सुतास्तस्य देव च ॥ २०८ ॥ भवत्यथ विनश्यति ऋणशत्रु प्रभावतः । तदभावाद्भवत्येव पुत्राः परमसुन्दराः ॥ २०६ ॥ अश्रुतं कथयत्येव वधिरः स प्रजायते । मनुष्य मृग हंस तोता आदि दीन पक्षियोंको पकड़कर पींजरे में बंद रखते हैं उनको पालते पोषते हैं वे पापी भव भवमें डरपोक होते हैं ॥ २०४ ॥ जो पुण्यात्मा जीवोंकी रक्षा करनेमें दत्त चित्त रहता है। दूसरेका दुःख दूर करना अपना कर्तव्य समझता है । जो प्राणी तुधासे व्याकुल होते हैं उनकी चुधाको दूर करता है वह पुण्यवान पुरुष संसार में वीर होता है ॥ २०५ ॥ धनको अपवित्र पदार्थ मानकर जिस महानुभावका हृदय उसके दान करनेकेलिये लालायित रहता है वह महापुरुष थोड़े दान के प्रभाव से ही पूर्ण लक्ष्मीका पात्र वन जाता है ॥ २०६ ॥ जो मनुष्य पहिले तो किसी कारण से दान दे देता है किन्तु पीछेसे बड़ा दुःखी होता है पछितावा करता है। उस मनुष्यकी वृद्धावस्था में पास में रहनेवाली लक्ष्मी चली जाती है। वह निर्धन हो जाता है । अनेक प्रकारके उसे तिरस्कार सहने पड़ते हैं ॥ २२७ ॥ जो दुष्ट पुरुष पशु और पक्षियोंके बच्चोंको त्रास देते हैं और दूसरेके धनको हरण करते हैं उनके पुत्रोंकी प्राप्ति नहीं होती ॥ २०८ ॥ अथवा दूसरेका धन अपहरण कर जिन्होंने नहीं दिया वे मनुष्य ऋणी कहे जाते हैं उस शत्रुके प्रभाव कदाचित पुत्र हों भी तो वे मर जाते हैं किंतु जो मनुष्य दूसरोंके कारण नहीं होते और पशु पक्षियों बच्चों का त्रास देते हैं उन मनुष्योंके अत्यन्त रूपवान पुत्र होते हैं ॥ २०६ ॥ जो मनुष्य बिना ही सुने कुछका कुछ दूसरेका दोष बोल देता है वह वधिर - वहिरा होता है तथा जो बिना ही देखे यह कहता है कि मैंने अमुक अमुक दोष देखा है तथा रोकनेपर भी वह उस रूपी KPKVYAP KPAL Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पYKAYIKAYATRI KYER अदृष्ट' हि मया दृष्ट' पछिद्र' सुभाषते ॥ २१०॥ वार्यमाणोऽपि मूढः स जात्यंधो नियत भवेत् । उत्तमोऽपि सुरामांसभक्षण कुस्ते यकः ॥ २११॥ अजीर्णो दररोमो स नोचानां का पतिः परा । मुनि दृष्ट्वा मदेनांधो निष्टोवं कुरुते यकः ॥ २१३ ॥ रक्तपित्ती च कुण्ठो सजायते कर्मपाक्तः । जात्यहंकारसंशक्ताः कृतघ्नाः स्वामिद्रोहिणः ॥ २१३॥ परकार्यकरी निःस्वास्ते भवति भवे भवे। वि. श्वासघातिनो जोवा रोगाकांताश्च कुत्सिताः ॥ २१४ । कृपालीना मनःशुद्धाः परधाराधनादिषु । भैषज्यदायिनो जीवा नोरोगा योभवति ते ॥ २१५॥ सूक्ष्मभ दादिसिद्धांतं श्रुत्वा निदति मूढधीः। स स्यान्मूकोऽत संसार बिचित्रा कमणों गतिः । व शोल यमं नात्या मुंबंलि चिश्यादिशा। तेषां कंपादयो देहे सम्पयन्से न संशयः ॥ २१६॥ पक्षिपक्ष हि यो *दोषको प्रगट करता है वह मूढ मनुष्य नियमसे जन्मसे ही अन्धा होता है। जो मनुष्य उत्तम कुल में उत्पन्न होकर भी शराब मांस आदिका भक्षण करते हैं वे अजीर्ण रोगसे ग्रस्त उत्पन्न होते हैं। फिर जो नीच कुलमें उत्पन्न होनेवाले हैं और शराव मांस आदिका भक्षण करते हैं उनको तो वात ही क्या है उन्हें तो और भी अनेक रोग सताते हैं।जो पुरुष मुनिराजको देखकर मदोन्मत्त हो उन पर थूकते हैं वे उस निंद्य कर्मकी कृपासे खून फिसाद पीलिया और कोढसे ग्रस्त होते हैं। जो मनुष्य वृथा अपनी जातिका अहङ्कार करनेवाले हैं कृतघ्नी और स्वामीद्रोही हैं वे दास होते हैं और भवर में उन्हें दरिद्रताका दुःख भोगना पड़ता है। जो मनुष्य विश्वास घाती हैं वे मनुष्य अनेक रोगोंसे व्याप्त और निनि त होते हैं ।। २१०-२१४ ॥ किंतु जो मनुष्य दयालु होते हैं परस्त्री और पर धनके अन्दर चित्त शुद्ध रखते हैं एवं दूसरे रोगी जीवोंको औषध प्रदान करते हैं वे जीव संसारमें नीरोग होते हैं कोई भी रोग उन्हें नहीं सताता ॥ २१५ ॥ जो दुष्ट पुरुष अत्यंत गहन जैन सिद्धांतको श्रवण कर उसकी निन्दा करता है वह मूक-गूगा होता है क्योंकि कर्मोकी गति बड़ी विचित्र है हर एक मनुष्य कोकी गतिका ज्ञान नहीं कर सकता।।२१६॥(क)जो पुरुष व्रत शील यम आदिका | नियम आदि लेकर विषयोंके लोलुपी हो उन्हें छोड़ देते हैं यह निश्चय है उनके शरीरमें कम्प आदि रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २१६ ॥ (ख) जो दुष्ट पुरुष पक्षियोंके पंखोंको काटते हैं वे अज्ञानी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KRपहपकपए मूढः छिनत्यज्ञानलोचनः । पंगुः स्यादृष्टवेतस्कः पशुपादविनाशकः ॥ २१७ ॥ तपांसि दुस्कराणि ये वितन्यति सदा मुदा । तप: कृतां च शंसते सुरूपाः कामयतके ॥ २१८ ।। तपः कत्तु न शका ये तत्कृतां निंदयंति या । कुरूपा विकलांगाश्च कृशागास्ते भवंति च ॥ २२१अकामनिर्जरा कृत्या नियंते ये चक्रोधतः । वेदमासहिता जोपास्ते भवति भवे भवे ॥ २२० । मुनीनां धर्मलीनानां शुवर्षा कुमो हि यः। निर्वेदो बलवान् प्राशुभवावलियमः ॥ २२१ ॥ कंदमूलाशिनो जीवा कर्षिणः शन्यवादिनः । एकाक्षा: स्थावरा मृत्वा भवेति पंकपाकतः ॥ २२२ ।। पञ्चाक्ष बहवो भेशाः संति दुःखसुखत्वतः । बहन्नामलया पुण्यपाफ्लक्षणलक्षिणः ॥ २२३ ॥ धर्मभवाः सदाचाराः गुरो चिनयिनश्च थे । भल्पसंसारिणः स्युस्ते वियुक्ता विलक्षणाः ॥ दुष्ट चित्तके धारक एवं पशुओं के पैरोंको नष्ट करनेवाले संसारमें पंगु होते हैं ॥ २१७ ॥ जो महाAनुभाव आनन्दित हो घोर तपोंके तपनेवाले हैं और जो तप करनेवाले हैं उनकी प्रशंसा करते हैं वे कामदेवके समान रूपवान उत्पन्न होते हैं ।। २१८ ।। जो दुष्ट पुरुष तपोंके आचारण करनेमें असमर्थ हैं और जो तपोंको आचरण करनेवाले हैं उनकी निन्दा करते हैं वे मनुष्य संसारमें महाकुरूप एवं विकल और कृश अङ्गके धारक उत्पन्न होते हैं ॥ २१६ ॥ जो जीव अकाम निर्जरापूर्वक क्रोधसे - प्राणोंको छोड़ते हैं वे भव भवमें अनेक प्रकारकी वेदनाओंके धारक उत्पन्न होते हैं ॥ २२० ॥ जो महानुभाव सदा धर्ममें लीन मुनिराजोंकी सेवा सुश्रूषा करते हैं वे संसारमें किसी भी वेदनाका सा- IS 4 मना नहीं करते तथा वे भगवान वाहुवलीके समान महा वलवान और उच्च अवगाहनाके धारक होते हैं ॥ २२१ ॥ जो जीव कन्द मूल के भक्षण करनेवाले हैं । जमीन मादिको वृथा कुचेरनेवाले है। शन्यवादी हैं वे अपने कर्मके अनुसार मरकर एकेंद्री स्थावर होते हैं ॥ २२२ ॥ पचेन्द्री जीवोंके | PA बहुतसे भेद हैं वहुतसे उनमें दुःखी और सुखी हैं । भगवान अहंतके गुणोंमें मग्न हैं एवं पुण्य और पापोंसे युक्त हैं ॥ २२३ ॥ जो महानुभाव समीचीन धर्मके भक्त हैं । उत्तम आचारोंके आचरनेवाले 2 हैं एवं सदा निग्रंथ गुरुओमें विनय भाव रखनेवाले हैं वे महानुभाव अल्प संसारी होते हैं थोड़े ही पापा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २२४ ॥ दर्शनशान वारिवमृतस्ते शिवमाजिनः । भवति भावनात्रोता: शुक्लध्यानपरायगाः ॥ २२५ ॥ लजि काकर्मका ग्यश्चैत्य D निदकरा ध्रुवं । परेषां गुणलोपिन्य उपवादेषु तत्पराः ॥ २२६ ॥ भुजतं दृष्टिदायिन्यो मार्जायों वपत्रविष्टिकाः । शाकिन्यः IM स्युध्रुब रामा मध्यभावो हि सौख्यदः ॥ २२७ ॥ अन्तःकापट्यसंपन्ना दट वान्येषां शुभ धनं। क्रुध्यन्ति दण्डयेति या तेलुक दीनोंमें उन्हें मोक्ष सुखकी प्राप्ति हो जाती है किन्तु जो इन क्रियायोंसे रहित हैं अर्थात् न तो धर्म S के भक्त हैं। न उत्तम आचरणोंके आचरने वाले हैं और न गुलमोंमें निनग्रही रखते हैं वे दीर्घ २ संसारी होते हैं बहुत काल तक उन्हें संसारमें रुलना पड़ता है ॥ २२ ॥ जो महानुभाव सम्यग्द-15 शर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रके धारण करनेवाले हैं । निरन्तर अनित्य आदि भावनाओंको भाते हैं। और शुक्ल ध्यानमें तत्पर होते हैं वे महानुभाव अनुपम सुख मोन सुखके भागी होते हैं 12 ॥२२॥ जो स्त्रियां लज्जाके कारण निन्दित कार्य करनेवाली हैं। भगवान जिनेन्द्रकी प्रतिमाओंकी | निन्दा करनेवाली हैं। दूसरोंके गुणोंका लोप करनेवाली हैं। रात दिन उत्पात लड़ना झगड़ना ही जिनका काम है तथा जो मनुष्य भोजन कर रहा हो उसकी ओर विल्लीके समान टकटकी लगाकर ब/ देखनेवाली हैं एवं जिनकी दृष्टि वक्त्र है वे स्त्रिये मर कर नियमसे शाकिनी भ तिनी होती है किंत ! जिनका मध्यम भाव रहता है,लज्जाके कारण निंद्य कार्य आदि नहीं करतीं उन्हें कोई दुःख नहीं | उठाना पड़ता क्योंकि मध्यम भाव सदासुख देनेवाला होता है ॥२२६–२२७॥ जिन मब्रुष्योंके हृदयों - 15 में छल छिद्र कपट भरा रहता है। दूसरोंका धन देख कर जो रोष करते है और अपनेको दुःखित सवनाते हैं वे पुरुष मर कर उल्लू गधा और कुत्तेका जन्म धारण करते हैं। जो दुष्ट पुरुष गुरुओंकी 18 निन्दा करनेवाले हैं। व्यर्थ हो धर्मकी निन्दा करते हैं । हरएक को निन्दा करना ही जिनका मुख्य व कर्तव्य रहता है और जो देव द्रव्यसे जीनेवाले हैं अर्थात् निर्मल धन हजम कर लेते है वे पुरुष parsankrKYTETTER Palgharपापपरालक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TYPERTRIKAR गर्दमाः शुनाः ।। २२८ ॥ (क) गुरुनिया वृषा धर्म नंदकाः सर्वनिन्दकाः। देवद्रव्योपजीचा थे. ध्यांक्षनीचा भवति ते ॥२२८ ॥ (ख) स्वजातिगुणगत्व दधाति या धान्वितः। विभेति मृत्युतो लज्जाधर्मकारी स्वशासकः।। २२६ ।। वात्रमिष्टोऽत्तरे दुष्टः करतो म्रियते नरः । अन्यथा मध्यभाया ये सुखतस्त्वरया नराः ।। २२० ।। ये तु दुष्टकुले जाना मृदयः सद्धियो नराः । प-- हास्ते भयंत्यत्र भव्याः कुटिलतातिगाः ।। ५३१ ! मरा ये चुकुलोत्पन्नाः कुटिला भ्रांतिपूरिताः । सूबकास्ते भवत्यत्रामव्या वृक्षविपर्यया ।। २३२ ॥ स्मृतिध्यानात्समुत्याय दूष्ट ये यात कौतुर्क। से वृद्धत्वे भवत्यंधा विपुत्रा विनियो नराः ॥ २३३ ।। कलौ ये'लापमा भ्रांतिधर्मदानकरा नराः । कुलाचारद्विषो लोल्यान्मुद्गलास्ते भवत्यहो ॥ २३४ ॥ इत्यादिवश्नसमाला सात्तरा साँवभाय स: । मर कर महा नीच काक होते हैं ॥ २२८ ।। जो मूढ पुरुष अपनी जाति और अपने गुणका सदा घमण्ड करता है। सदा क्रोधसे जलता रहता है। मृत्युसे भयभीत रहता है जो कार्य लज्जाजनक व है उन्हें करता है। अपनी प्रशंसा करता रहता है । मीठे वचन बोलनेवाला होकर भी अन्तरङ्गमें दुष्ट रहता है वह मनुष्य बहुत दिनों में अनेक प्रकार के रोगोंके दुःख भोगकर मरता है किन्तु जो मनुष्य मध्यम भाव रखते हैं उपर्युक्त कोई भी दुर्गण जिनमें नहीं रहता उनकी मृत्यु बड़े सुखस बहुत जल्दी हो जाती ॥२२६-२३० ॥ जो मनुष्य दुष्ट कुलमें तो उत्पन्न हुए हैं परन्तु कोमल || परिणामोंके धारक हैं। उत्तम बुद्धिके स्थान हैं और धर्मके- उत्तम धर्मके जानकार हैं वे भव्य मनुष्य कुटिलतासे रहित सीधे साधे होते है ॥ २३१॥ जो मनुष्य उत्तम कुलमें तो उत्पन्न हुए हैं। दरन्तु परिणामोंमें किसी प्रकारकी सरलता न कर कुटिलता रखनेवाले हैं भ्रांतिसे परिपूरित हैंजिनेन्द्र भगवानके बचनोंके अन्दर सदा भ्रम करनेवाले हैं और चुगुल खोर हैं वे धर्मसे विपरीत श्रद्धान करनेवाले अभव्य होते हैं ॥२३२॥ इस कलिकालमें तपस्वी बन जो मनुष्य धर्म और दान5 को विपरीत रूपसे करनेवाले हैं और कुलाचारके विरोधी हैं वे मनुष्य मरकर चुगुल होते हैं (१२३३। न धर्म नामके बलभद्र द्वारा जितने भी प्रश्न किये थे उनका इस प्रकार उत्तर देकर भव्यरूपी कमलों Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " HERPRE १ Rekha जिद्रः संस्थितो भव्यपंकजालिक्विाकरः ॥ २३५ ॥ भव्याः श्रत्वा जिनेंद्रोक्त केचित्सम्यवत्वधारिणः । केचित्संसार निर्वेदाप्रतिको जशिरे मराः १.२३६ ॥ भ्रातरौ तौ जिनं नत्वः जग्मतुर्भिजपसनं । भोजयामासतुः सौम्यं विद्यावामगोचर ॥ २३० ॥ अथासौ श्रीणिको धीमानन्धयुक्त गणाधिपं । वकावं केशवत्वं च ताभ्यां प्राप्त कुतो यतः॥ १३८, सन्मतिः प्राह मो भूप! भव्यं पृष्टं त्वया धुना ! तीर्थ शकरामादिकथा पुण्यप्रदा भवेत् ।। २३६ ॥ अत्र जंवमति द्वीपे बिहे पश्चिमे पुरं | नाम्बा गंधसमृद्धाय समस्ति संपदा भृतं ॥ २४० ।। तने वाभूमहाराजो मित्रनंदोति मिनमः । प्रतापानांतद्विपुगः सर्वसामंतसेवित: ॥ २३१ ।। कृतकांक्षा द्विषो को सूर्य के समान वे भगवान जिनेन्द्र शांत हो गये ॥ २३४ ॥ धर्म और स्वयंभू दोनों भाइयोंने भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रको नमस्कार किया। अपनी राजधानी लोट गये और कवि भी जिस - सखका अपनी वाणीसे वर्णन नहीं कर सकते ऐसा अनुपम सुख भोगने लगे । २३४-२३७।। राजा श्रेणिकने भगवान गौतम गणधरसे प्रश्न किया कि भगवन् ! धर्म और स्वयंभू ने जो नारायण पदको प्राप्त किया वह किस कर्मके उदयसे कृपया कहिये ? उत्तरमें गणधर गौतमने haraj कहा कि राजन् ! इससमय तुमने बहुत ही उचित प्रश्न किया है क्योंकि तीर्थ कर चक्रवर्ती बलभद्र आदिकी कथायें पुण्य प्रदान करनेवाली हैं मैं संक्षेपमें कहता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो इसी जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेहन में एक गन्धसमृद्ध नामका नगर है जो कि संपदासे परिपूर्ण: न ॥२३८–२४०॥ उसका पालन करने वाला एक मित्रनंदी नामका राजा था जो कि सूर्यके समान देदीप्यमान था । अपने प्रतापसे समस्त शत्रुओंका वश करनेवाला था। समस्त सामंतोंसे सेवित था। तथा वह राजा दुरक्षरसदादस्य दुरन-अतींद्रिय सिद्धोंके रस में मग्न जो कोई भी भव्यजीव थे उनका ग्रहण करनेवाला था अर्थात् जो भव्य जीव मोक्षमार्गपर स्थित थे वह राजा मित्रनंदो उनका पूर्ण आदर करनेवाला था। सदादस्य–समीचीन मार्गका ग्रहण करने वाला था और दुरक्षर-दुष्ट लोग र'चमात्र भी उसका विगाड़ नहीं कर सकते थे इसलिये "कृतकांक्षाः तीक्षण शस्त्रोंके धारक P ARAYERATRVAYS Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAKKAK पति भूतले भिया । दुरक्षरसादस्य सदादस्य दुरक्षरः ॥ २४२ ॥ युग्मं ( अप्रतिलोमानुलोम ) स्वचक्रमिव तस्यासीत्पर चक्र च धीमतः । इयं चक्र मदीयं हि परकोयमदः स्फुटं ॥ २४३ ॥ इति वृद्धिविनाशेन गतं चक' स्वकीयकं ॥ भिन्नभावाद्विभिन्नत्वं जायते भरतेशवत् ॥ २४४ ॥ भोगवस्त्रांगरान्यादिसुखानां नृपतिस्तदा । अतृष्यद्वीरधीः सर्वशात्रवाश्लिष्टपत्कजः ॥ २४५ ॥ एक दाविष्टरासीन: पुपला बिमुखाजिनं । सुब्रताख्यं समायातं श्रुत्वासी वन्दितु यथौ ॥ २४६ ॥ त्रिः परीत्या सद्भक्त्या नत्वा स्तुत्वा भी उसके शत्रु पृथ्वीतलपर मारे भयके लड़ते पुड़ते थे— रंचमात्र भी अपना वल नहीं दिखा सकते थे ॥ २४१-२४२ ॥ महानुभाव उस राजा मित्रनन्दीका पर चक्र भी स्वचकके समान था अर्थात् शत्रु और मित्र दोनों ही उससे प्रसन्न थे क्योंकि यह चक्र-राज्य मेरा है और यह चक्र दूसरोंका है जहां पर यह बिभाग रहता है वहांपर तो स्वपरका भेद रहता है परन्तु उस राजाकी वैसी भेद बुद्धि थी नहीं इसलिये अपना और पराया दोनों प्रकारका राज्य उसका स्वराज्य ही था किन्तु जिससमय भरतचक्रवर्तीके समान अपने भी राज्य में भेदबुद्धि हो जाती है -- वह भी अपने निजस्वरूपसे भिन्न मान लिया जाता है, उसमय वह भी भिन्न ही रहना है और उसे छोड़ देना पड़ता है। भरत चक्रवर्तीको जिससमय छह खण्डकी विभ तिसे वैराग्य हो गया था उस समय समस्त राज्यका उन्होंने त्याग कर दिया था ॥२४३ - २४४ ॥ वह धीर वीर राजा भोग वस्त्र शरीर और राज्य आदिसे जायमान सुखसे सदा तृप्त रहता था भोर समस्त शत्रु, उसके चरणोंको नमस्कार करते थे ॥ २४५ ॥ एक दिनकी बात है कि वह राजा मित्रनन्दी सानन्द राज सिंहासनपर विराजमान था उसी समय एक माली राज सभामें आया नमस्कार कर 'भगवान मुनिसुव्रतनाथका समवसरण आया है' यह उसने समाचार कहा । मालीके मुख से वह उत्तम समाचार सुन राजा मित्रनन्दीको बड़ा आनन्द हुआ और वह भगवान मुनिसुव्रतनाथको बंदना करने चल दिया ॥ २४६ ॥ समवसरणमें BKPKAVRK PKKKK पुर Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ror परNAKAITRINTRY हेतषे ॥२५६ प्रश्रुत्वेति सुनतादौ विरागं प्राप भूपतिः। संसारदुःस्थिति मत्वा प्रवधाज स मागध! | २५७। तपस्यन् बहुधानंदी नन्दो नाम्ना मुनीश्वरः। विनिमासोपवासः सन् विविकांगनिवासकृत् ।। २५८॥ तपःप्रतापससे जाः स्वरूपाक्रांतभूधरः रेजे सहमधास्मेव स ऋषिकृतसंस्तुतिः ॥ २५६ ॥ ( अर्थद्वययाचो ) राजेब राजते राजा राजराजेतराजवत् । राजेष राजते राजाराज चित्तमें शांति रखकर ही शास्त्रानुसार वाह्य क्रियाओंका आचरण करना चाहिये ॥ २५६ ॥ इसप्रकार भगवान मुनिसुव्रतके मुखसे धर्मका उपदेश सुन राजा मित्रनन्दीको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य हो गया एवं संसारको अत्यन्त दुःखदायी जानकर वह उन्हीं भगवान मुनिसुव्रतके चरण कमलोंमें दिगम्बर दीपासे धीक्षित हो गया २५ ॥ । वे मानन्द स्वरूप मित्रनन्दी नामके मुनीश्वर बहुत प्रकार तप करने लगे। दो दो मास और तीन तीन मासोंके उपवासोंका नियम ग्रहण करने लगे एवं पर्वतकी गुफा आदि एकांत स्थान पर उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया ॥ २५८ ॥ जिसप्रकार सहस्रधात्मा सूर्य, तपःप्रतापसत्तेजाःसंताप प्रताप और उत्तम तेजका धारक होता है उसी प्रकार के मुनिराज मित्रनन्दीभी तपके प्रताप से प्राप्त जो उत्तम कांति थी उससे शोभायमान थे। जिसप्रकार सूर्य “स्वरूपाक्रांतभूधरः"अपने तेजसे पर्वतोंकी शिखर जगमगा देता है उसी प्रकार के मुनिराज भी अपनी कोर्तिसे समस्त पृथ्वी तलको ब्याप्त करनेवाले थे। जिसप्रकार सूर्य ' ऋषिकृतसंस्तुतिः' ऋषि नामके नक्षत्रोंसे स्तुति किया गया माना जाता है उसीप्रकार वे मुनिराज मित्रनन्दी भी अनेक ऋषियोंसे स्तुत थेवई २ ऋषिगण उनकी स्तुति करते थे ॥२५६॥ राजा वे मुनिराज मित्रनन्दी “राजेवराजते” राजा लक्ष्मीवान, इव कामदेव और राजत चांदी सोने आदि पदार्थोंके अन्दर राजराजतराजवत् राजशराज कुवेर और उससे भिन्न अज-स्वयंभू के समान थे अर्थात् जो मनुष्य उनके भक्त थे और जो КекүкүркүкүкүғRYkeketKYKEK Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनराजवत् ॥ २६०॥क्षामकायो वितंद्रात्मा ध्यानो मौनी समाधिना । प्रांत गमत्सुसंन्यस्य शमवर्णमनुत्तरं ।। २६१ ॥ लय स्त्र। विमल शत्सइस श्च वराहरतिस्म सः। तावत्पर्शः समुच्छ्वासं कुर्वन कर्पूरसन्निभं ॥२६२ ।। ईषदूनं सुखं तस्य मुक्ततोऽभून्मदोज्झितं M तत योजनान्येव द्वादशव स्यवं ॥ २६३ : अथ द्वारवतीपुर्या शोभितायां धनादिभिः । भद्रनामा महीपालो बभूवारिभयप्रदः ।। उनके भक्त नहीं थे उनमें वे समान बुद्धिके धारकथे-कुवेरके समान सबको अच्छा समझते थे अथवा स्वयंभ भगवानके समान किसोमें भी राग और द्वेष नहीं रखते थे तथा राजाराजनराजवत्' जो मनुष्य राजा थे और जो अराज अर्थात् जिनके राजाकी विभूति न थी ऐसे राजासे भिन्न थे। उनके आज समूहमें वे मुनिराज अपनी दृष्टि नराज तिरस्कार रूप रखते थे अर्थात् राजा और रंक, दोनों हीको वे समान मानते थें--कर्मजनित होनेसे दोनोंको ही कल्याण कारी नहीं समझते थे। 12॥१६॥वे मुनिराज कृश शरोरके धारक थे । आलस्यसे रहित थे। ध्यानो थे और मौनी थ,अन्त समय || उन्होंने समाधि पूर्वक सन्यासके द्वारा अपने प्राणोंका त्याग किया और वे सर्वार्थसिद्धि नामके | उत्तम विमानमें जाकर उत्पन्न हो गये। १६१ । वह मित्रनन्दी मुनिराजका जीव अहमिन्द्र तेतीस | हजार वर्षों के बीतजानेपर अत्यन्त सुगंधित बहुत थोड़ा आहार करता था एवं ततीस हजार पखवाड़ोंके बीत जानेपर उसास लेता था जो उसास कपूरके समान सुगन्धित होता था। १६१ । उस सर्वार्थसिद्धि विमानके अन्दर उस अहमिन्द्रको मोक्षके निराकुलता ओर निरहंकाररूप सुखसे कुछ - ही कम सुख था क्योंकि सर्वार्थसिद्धि विमानले मोक्षस्थान केवल वारह योजनोंको ही दूरो पर था। इसी पृथ्वोपर एक द्वारवती नामकी प्रसिद्ध नगरी है जो कि धन प्रादिसे अत्यंत शोभायमान है है। उसका पालन करनेवाला भद्रनामका राजा था जो कि शत्रु ओंको भय प्रदान करनेवाला था। 2 उसको स्त्रीका नाम सुभद्रा था जो कि उसे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी। उसे देखकर लोगोंको KHTTPyaavart Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BREAMMAREEREYE ॥ २६४ ।। सुभद्रा वल्लभा तस्य ब्राह्मी वा सुरसुन्दरी । कनत्कनकवर्णाभा बटूरूपा रतिप्रभा ॥ २६५ ॥ एकदा सा सुखं सुप्ता रम्यगर्भगृहे सती । आलुलोक शुभान स्वघ्नानिति कल्याणसूचकान् ॥ २६ ॥ उच्चकैः सिंधुरं दानयर्पिणं चन्द्रिकाप्रमं । रत्नाकर समद्धेलं. व्यक्तरत्नचर्य बलं ।। २६७ ।। पूर्ण णांक गतांक व सिंदं वक्तप्रवेशिनं । दृष्ट्वा तूर्यमहाध्यनिजगार तदा सतो ॥ २६८ ॥ प्रातरुत्थाय भर्तारं तत्कातिल मानिमित्तानो पालामाल नराधिपः ॥२६॥ जांय नामे ! कांते विचाम्भोजलोचने ! | वर्ष की धारक थी अत्यन्त रूपवतीथी एवं शोभाम कामदेवकी स्त्री रतिकी उपमा धारण करती थी । २६४-२६५ । एक दिन वह अपने मनोहर महलमें सानन्द सो रही थी कि रात्रिके पश्चिम । प्रहरमें उसे कल्याणकी सूचना देनेवाले कुछ शुभ स्वप्न दीख पड़े । २६६ । सबसे पहिला स्वप्न उसने हाथीका देखा जो कि अत्यन्त उन्नत था। उसके गडस्थलोंसे मद झरता था और चांदनीकी प्रभाके समान शुभ्र था। दूसरे स्वप्नमें उसने समुद्र देखा जिसकी चंचल तरंगे ऊपरको उठ रही थी। जिसके अंदर रहनेवाले रत्न स्पष्ट रूपसे दीख पड़ते थे एवं जो मनोहर था। तीसरे - स्वप्नमें अपने चिह्नसे शोभित पूर्ण चंद्रमा देखा एवं चौथे स्वप्नमें मुखमें प्रवेश करता सिंह देखा। जिस समय रानी शुभद्रा इन चारो स्वप्नोंको देख चुकी प्रातः कालमें वजनेवाले वाजोंके मनोहर | | शब्दोंसे उसकी नींद खुल गई। प्रातः कालकी नित्य क्रियाओंके समाप्त हो जानेके बाद अपने पति 2 राजा भद्रके पास आई और अपने स्वप्न कहकर उनका फल जाननेके लिये अपनी इच्छा प्रगट करने लगी। राजा भद्र निमित्त ज्ञानी थे इसलिये निमित्त ज्ञानके वलसे वह इसप्रकार उन प्रश्नोंका । उत्तर देने लगे-- ___तपे सुवर्णके समान कांतिके धारक प्रफुल्लित नेत्रवाली हे प्रिये ! तुम्हें जो स्वप्न दीख पडे हैं | - उन स्वप्नोंका फल यह है कि तुम्हारे शत्रुओंके मानका मर्दन करनेवाला और अत्यन्त बुद्धिमना ParkPatrahdhdschook meme KESH Kara n Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परास तब भाती सुत भोमारी विट्कदानिकारकः ॥ २०॥ गावंशसमुदर्ता सागराषुगुणसागरः । बहाव केवलज्ञानो सिंहान पिष्ठ | विकमो ॥ २५॥ युग्म त्वा राबी फलां जदयों चहुमुं। गता सम सुते ताबालिस्वचिंतामणि यथा ॥ २७२ । भयानुसरलाथोऽसौ ततश्च्युस्या सुपुण्यतः । गर्भे सुभद्रिकाया प्रषितोर्णः शमिममे ।। २५३ ।। पुण्यभ्रूणेन पोडांगो जानाति नुपव| सभा । कलाकातियशोयुक्ताभिविवादपद्यमी ॥ २७ ॥ पूर्णमासावधौ राशी बाल सासूत सुन्दर । धर्मा पालिनं तं वै विधि त्वं पुत्र होगा ॥२६७-२७० ॥ तुमने जो स्वप्नमें हाथीं देखा है उसका फल यह है कि तुम्हारा पुत्र वंशका उद्धार करनेवाला होगा। सागरके देखनेसे वह गुणोंका सागर होगा । चन्द्रमाके देखनेसे केवल ज्ञानका धारक और सिंहके देखनेसे वह सिंहके समान अत्यन्त पराक्रमी होगा ॥ २७१॥ राजा भद्रके मुखसे इस प्रकार खप्नोंका फल सुन रानी सुभद्राको अपार आनन्द हुआ। वह अपनेराज महल लोट आई एवं जिस प्रकार निर्धनको चिंतामणि रत्नकी प्राप्तिसे परमानन्द प्राप्त होता है उसी प्रकार भावी पुत्रकी प्राप्तिसे रानी सुभद्रा भी परम आनन्दका अनुभव करने लगी॥२७२॥ - मुनिराज मित्र नन्दीका जीव जो कि सर्वार्थसिद्धि विमानके अन्दर जाकर अहमिन्द्र हुआ था। अपनी आयुके अन्तमें वह वहांसे चया एवं तीत्र पुण्यके उदयसे बह चन्द्रमाके समान उज्ज्वल रानी सुभद्राके गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गया॥ २७३ ॥ क्योंकि रानी सुभद्राका गर्भ एक पुण्य गर्भ Aथा इसलिये उस पवित्र गर्भ के द्वारा उसे रंच मात्र भी पीड़ा न थी किन्तु कला कांति और यश-51 से व्याप्त वह प्रतिबिम्ब युक्त दर्पणके समान शोभायमान थी। अर्थात् वह सुभद्रा दर्पणके समान व उज्ज्वल थी और उसका गर्भ दर्पणमें पड़नेवाले प्रतिबिम्बके समान निर्मल था इसलिये उस गर्भ भसे उसे कुछ भी कष्ट न था॥ २७४ ॥ जब नौ मास पूरे होगये उस समय रानी सुभद्राने अत्यंत | सुन्दर वालकको जना और उसका नाम धर्म रक्खा गया जो कि बलभद्र पदका धारक था॥२७५।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगधप्रभो ! ॥ २७९ ॥ जम्बूद्रापत्र : विख्याते भारते चास्ति सत्पुरी । श्रावस्ती सुखमान्धोता पोरतीय प्रिया ॥ २७६ ॥ सुवेपयमिताप्रातमुखचंद्रां शुभंडिता: । सुवेश कामवेषातिशाथिनीरभरभृता ॥ २७७ ॥ तत्राभूपतिर्वाम्ना सुकेतुभगतत्परः । दाता पाता प्रजानां च हंता हर्ता रिदुःस्थितीः ॥ २७८ ॥ द्य तसंशक चेताः स रेमे द्यूतं निरंतरं । गुणाः सर्वेऽनुकूला हि नो भवति शरीरिणां ॥ २७६ ॥ अमात्यैः स्वहितैः प्राज्ञ निषिद्धों बहुशोऽपि सः । विरराम न तस्माच्च ज्ञातस्वादो हिदुस्त्यजः ॥ २८० ॥ एकदा शत्रु भूपेनादीदव्यत्कर्मनोदितः । निषिद्धपि हितैर्मूदो विनाशे विपरीतता ॥ २८९ ॥ चित देशं वल सर्व पहुंराक्षी क्रमा जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें एक स्रावस्ती नामकी उत्तम नगरी है जो कि अनेक सुखोंकी स्थान है। स्वर्गपुरी के समान नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाली है । उत्तमोत्तम वेषोंको धारक ि योके मुखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे शोभायमानं है । उत्तमोत्तम महलोंसे देदीप्यमान है एवं कामदेवके समान उज्ज्वल जलोंसे परिपूर्ण तालावों से व्याप्त है ॥। २७६-२७७ ॥ सावस्ती नगरीका स्वामी राजा सुकेतु था जो कि इच्छानुसार परिपूर्ण भोग भोगनेवाला था । दानी था । पूर्णरूपसे प्रजाकी रक्षा करनेवाला था । वैरियोंका नाश करनेवाला और प्रजाके कष्टोंका हरनेवाला था | अनेक गुणोंका भण्डार भी वह राजा जुआ खेलनेका अत्यन्त शौकीन था । जूम में दत्तचित्त हो कर वह सदा या खेलता रहता था ठीक ही है किसी भी संसारी जीवों सब गुण अनुकूल नहीं रहते । गुणोंके साथ में कोई न कोई वलवान दोष भी अवश्य रहता है ॥ २७६ ॥ राजा सुकेतुको | उसके हितैषी और विद्वान मंत्रियोंने कई वार जुआ खेलनेसे रोका था परन्तु उसने बन्द नहीं किया था ठीक ही है जिस मनुष्यको जिस बात का स्वाद पड़ जाता है वह जल्दी छूट | नहीं सकता ॥ २८०॥ राजा सुकेतुका एक वलवान शत्रु अन्य राजा था अशुभ कर्म के उदयसे राजा रोका सुकेतुने उसके साथ जुमा खेलना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि उसके हितैषी मंत्रियोंने वह बहुत जूमा खेलना RKI पुराण १६७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Park दति । हारित तेन सर्वस्व वस्त्रापि च पापतः ॥ २८२ ॥ वपुःशषस्यितो भूत्वा म्लानास्यो गतधिक्रमः । तदोषाचारिभूपालः सुकेतुमिति सद्धलः ॥ २८३ ॥ भो भो ये मानिनो गोधा गुणिनो वंशधारिणः । न्यभूमौ न तिन्ति श्रुतशास्त्रक्विक्षणा २८३ ॥ | त्वं तु मानी भनी छत्री दानी क्षमविभूषणः । मैं क्या हारितस्यां च वयं तिठसि मूषवत् ॥२८५॥ शत्रुलाययशर वातभिन्नांगो निर्ययो धनं । सर्वहान्या महाशोकविह्वलीभूतमानसः ॥ २८६ ॥ प्राप्य तत्रैव पुण्येन नाम्ना सूरि' सुदर्श । पन्दित्या श्रुततत्वः स प्रा| परन्तु वह मूर्ख न माना टीक ही है जब विनाश काल आकर उपस्थित हो जाता है तब वृद्धि भी न उसके अनुकूल विपरीत हो जाती है पाप कर्मके प्रवल उदयसे राजा सुकेतुने क्रम क्रम कर धन देश | सेना पटरानी सब हार दिया विशेष क्या जो उसके तन पर वस्त्र था जूभामें वह उसे भी हार चुका वस उसके पास केवल उसका शरीर रह गया उससे राजा सुकेतुका मुख फीका पड़ गया और वह सर्वथा पराक्रम रहित हो गया। जिस समय राजा सुकेतुकी यह हीन दशा हो गई उस समय | उसके वैरो राजाने सुकेतुसे इसप्रकार कहा-- __ जो पुरुष अपने मानकी रक्षा करनेवाले होते हैं । गुणी और उत्तम वंशके होते हैं तथा आगम 5 और शास्त्रोंके ज्ञाता होते है वे अपनी ही भ मिमें निवास करते हैं अन्यकी भ मिमें निवास नहीं करते। राजा सुकेतु ! तुम मानी धनी छत्रशाली और क्षात्रियोंके भूषण पुरुष रत्न माने जाते हो || जब जूआमें तुम पृथ्वीको हार चुके और वह दूसरेको हो चुकी तब गूगेके समान तुम इस पृथ्वी । दो पर क्यों रह रहे हो? तुम्हें अब इस पृथ्वी पर कदापि नहीं रहना चाहिये ॥ २८१-२८५ ॥ अपने शत्र राजाके ऐसे वचन राजा सुकेतुको वाणके समान चुभ गये। हाथसे सब चीजोंके चले जा- al नसे वह विक्षिप्त चित्त हो गया और शीघ्र ही वनकी ओर चल दिया ॥ २८६ ॥ वनके अन्दर उस | समय सुदर्शन नामके मुनिराज विराजमान थे। पुण्यके उदयसे राजा सुकेतुको उनका दर्शन हो Postale Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराग्य मंजसा ॥२८७॥ प्रव्रज्य दुष्कर भूरितपोभिः कृशतां गतः । देशद्रव्य महाशोकान्नात्य॑तमशुभाशयः ।।२८८॥ दीर्घकालमलं तप्त्या । - निदानमकरोदिति ! आयुःक्षये महामूदो विद्वानपि महाधनः । २८३॥ ममैव तपसतेन कलागुणविदग्धता । भूयाभू रिबलं चैव शत्रु पक्षा महाजय ॥ २६॥ प्रांते सन्यस्य योगी स लांतवं कल्पमास्थितः । चतुर्दशाब्धिमानायुस्तनाललन सत्सब २६१ ।। तत्र व जाम्य भर - प भूपस्य पृथिवीमती । आललोकैकदा स्वस्नान सुप्ता गर्भगृहे सतो ।। २६२ ॥ सूर्य चंद्रमसं पद्मां धिमानाश्विसुरध्वजं । सिंह चैतान् | गया। उनके मुखसे उसने शास्त्रका रहस्य समझा । उसके चित्तमें एकदम संसार शरीर भोगोंसे 4 | वैशम्य हो गया । शीघ्र ही उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। अनेक प्रकारके घोर तपोंके तप| मेके कारण उसका सारा शरीर कृश हो गया। देश और द्रव्य आदिके चले जानेसे उस समय यपि उसका चित्त सर्वथा मलिन न था बहुतसी मलिनता मिट चुकी थो तथापि विद्वान भी वह पापके तीन उदयसे आयुके अंत समयमें नितांत मूर्ख हो गया और बहुत काल पर्यंत तपके त । जाने पर भी उसने यह निन्दित निदान वाधा| मैं जो यह तप कर रहा हूं उसका फल मुझे यह मिलना चाहिये कि मैं पर जन्म में अनेक कला और गुणोंका भण्डार हो । मेरे बहुतसे सैन्यकी प्राप्ति हो और शत्रुओंका समुदाय मुझे जीत IS न सके । यस अन्त समयमें उस सुकेतु नामके मुनिने सन्यास पूर्वक अपने शरीरका त्याग किया| लांतव नामके स्वर्गमें जाकर देव हो गया। चौदह सागर प्रमाण उसने आयु पाई और नानाप्रकार के सुख वहां पर भोगने लगा। द्वारावतीके स्वामी राजा भद्रकी एक दूसरी रानी पृथिवीमती थी वह अपने गर्भ गृहमें सो रही थी कि एक दिन रात्रिके पिछले प्रहरमें उसे स्वप्न दीख पड़े । पहिले स्व- 7 नमें उस सूर्य दीख पड़ा । दूसरेमें चन्द्रमा तीसरेमें लक्ष्मी चौथेमें विमान पांचयेमें समुद्र छटमें * इन्द्रधनु और सातवेमें सिंह दीख पड़ा। सातो स्वप्नोंके देखनेके बाद उसकी नींद खुल गई। प्रातः VaFREKPATTERYTS BIYP ECAREE Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समायातान् विलोक्य नृपसन्निधौ । २३२ ॥ तवैव भविता पुत्रो भो कांतेऽभोजलोचने । इत्युबाघ नु पो भार्या श्रुत्वा तुष्टा गतायं २१३ (युग्म) प्रहारकत्रिखण्डविभूतिधरः परः । स्वर्गायातो गमीरो को भूरिविक्रमी ।।२६४ ॥ ततः सोऽप्यवतीयस्या गर्भेऽभूच्वंद्रमःप्रभे । स्वयंभूरिति विख्यातो नामनैव सुनुषु प्रियः ॥ २१५ ॥ रूपवान् कामवत्याही जीववशालचंद्रश्त् । पतेहम गुणागार लक्षणान्तविग्रहः || २१६ धर्मो यलः स्वयंभूश्व केशवस्तौ परस्पर' । अभूतां प्रेमसंपन्नौ धात्रा प्रेरणा कृताविश्व ॥ २९७ ॥ कालकी नित्य क्रियाओं को समाप्त कर वह अपने स्वामी राजा भद्रके पास आई और सारे स्वप्नों को निवेदन कर उनके फल जाननेकी अभिलाषा प्रगट करने लगी ॥ २८७ - २६२ ॥ उत्तर में राजा भद्रने कहा- हे कमलोंके समान नेत्रोंसे शोभायमान प्रिये ! तुमने जो स्वप्नमें सूर्य आदि देखे है उनका फल यह है कि तुम्हारे एक अद्वितीय पुत्र होगा जो कि संसार में अत्यन्त प्रतापी होगा । समस्त लोगोंके चित्तोंको आनन्दित करेगा। तीन खण्डकी विभूतिका धारक अर्धचक्री होगा । खर्ग से - | यकर वह तुम्हारे गर्भ में अवतरेगा । अत्यन्त धोर गम्भीर होगा एवं अत्यन्त पराक्रमी होगा । वस राजा भद्रके मुखसे ये आनन्द प्रदान करनेवाले वचन सुन रानी पृथिवीमतीको वड़ा आनंद हुआ और संतुष्ट हो वह अपने महलको लोट गई ॥ २६३-२६४ ॥ कुछ दिन बाद राजा सुकेतुका जीव वह देव भी रानी पृथिवीमतीके चन्द्रमाके समान निर्मल गर्भ में अवतीर्ण हो गया । संसारमें स्वयंभू नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई और अनेक पुत्रोंके रहते भी वही सर्वोको प्रिय लगने लगा | ६.५ वह कुमार स्वयंभू कामदेवके समान रूपवान था । जीव नामक विद्वानके समान बुद्धिमान था । दिनों दिन वाल चन्द्रमाके समान बढ़ता था। अनेक गुणोंका भण्डार था एवं उत्तमोत्तम लक्षणों से विभूषित शरीरका धारक था ॥ २६६ ॥ वह धर्म नामका वलभद्र और स्वयंभू नामका नारायण RKYKYAPKPK VAKYAP नयनयन Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाय c मोजमापासतराय लीलालहतविग्रहो । साचंद्रमसौ तौ वा सभ्यताराबिगावतो ॥२६८सुतुजातो घृतेन मिलिलिमा हठात् । स्वीकृत पेन तमाश्य सोऽभवानपुरे मधुः || २६ ॥ण्यसनां माय पान | मेजा मिश्चको प्रतिशत समन्यितः ।। ३०७ ॥ हेलया संदरनाथ,न् विद्विषो रणपर्वतान् । स्फोटको विश्वभूतानां हृदयेऽग्निरियोत्थितः ॥ ३०१ ॥ ( युग्म ) दोनों ही आपसमें अत्यन्त प्रेम रखनेवाले थे इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानों विधाताने इनकी रचना प्रेम स्वरूप हो की है ॥ २६७ ॥ अनेक प्रकारको लीलाओंसे शोभायमान शरीरोंके धारक व वलभद्र और नारायण सानंद राज्यका भोग भोगने लगे। वे अनेक सभ्य पुरुषोंसे सदा वेष्टित I रहते थे इसलिये ऐसे जान पड़ते थे मानों अनेक ताराओंसे व्याप्त ये साक्षात् सूर्य और चन्द्र यही हैं ॥ २६८ ॥ सुकेतुकी पर्यायमें जिस बली शत्रु राजाने ज्या में राजा सुवेतुका जबरन राज्य | नवीन लिया था वह रत्नपुरमें मधु नामका राजा हुआ था ॥२६६॥ वह राजा मधु प्रतिनारायण था | इसलिये तीन खण्डको संपदा पाकर वह सुख पूर्वक रहता था और शत्रु ओंका अगम्य था कोई भी शत्रु उसे जीत नहीं सकता था। वह राजा मधु रणमें पर्वत सरीखे उन्नत शत्र राजाओंको लीलामात्रमें नष्ट भ्रष्ट करनेवाला था एवं अग्नि जिस प्रकार बड़े बड़े पर्वतोंको ढाह देती है उसी प्रकार वह राजा मधु भी समस्त संसारके राजाओं के हृदयोंमें जाज्वल्यमान अग्नि के समान विद्यमान था अर्थात् समस्त राजा सदा उससे भयभीत रहते थे ॥ ३००-३०१॥ एक दिनकी बात है कि किसी मधुके आज्ञाकारी राजाने मधुके लिये घोड़ा रत्न आदि अनेक पदार्थों की भेंट भेजी थी। जो लोग भेट लेजाने वाले थे दैवयोगसे नारायण स्वयंभूको उनसे में? 1 हो गई। तेजस्वी और अभिमानो राजा स्वयंभ ने शीघ्र ही उन भेट लेजाने वालोंसे प्रश्न किया Twitchyawwपहपहपहर kYSKYTREFEATRE Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल २.२ KPKVY राप्रपा मत्रः । सतिनादिसंमिश्र बहुल भूरिचय ॥ १०२ ॥ तदा दृष्ट्वाध्यनिनान् प्राति तिः । स्वयंभूर्भूरिभो पानी कस्येदं घद्रत त्वरा ॥ ३०३ ॥ द्र बहु ॥ ३०४ ॥ महानद्रस्य शत्रु राजित्रिरिणः । अस्माभिनायते प्राज्यं द्रव्य तं मोधः पूर्ववैरानुबंधनः । तद्धनं हर्तुमाशको वभूवाभिः ॥ ३०६ ॥ क्रुधा स्वयंभू वा मुतो भणुः श्रूय परमादरात् । देवसेन नृपेणेव प्रान मधुभूपतिं ॥ ३०५ ॥ श्रुत्वा नाम गतप तु सायकः । महामृगं विश सततालानीभित् ॥ ३०७ ॥ इससाय को तरचेण शविता जनाः । कोलाहलो महान् अक्षं प्रलयाविस्विागतः ॥ ३०८ ॥ कहो भाई ! तुम जो भैंट लेजा रहे हो वह किसकी है । एवं किसके लिये और कहां लेजा रहे हो ? उत्तर में उन में टकी रक्षा करनेवालोंने कहा कृपा नाथ ! सुनिये हम बतलाते हैं। हमारे स्वामी राजा देवसेन हैं। शत्रुओंको विदारण करनेवाले महाराजा मधुके वे सेवक हैं उन्होंने राजा मधुके लिये यह उत्तम भेंट भेजी है। इसे इन राजा मधुकी सेवामें ले जा रहे हैं। वस, राजा मधुका नाम सुनते ही पूर्व वैर के संबन्ध से राजा भूकमा कोसे व्याकुल हो गई । वैरियों के मानको मर्दन करनेवाले नारायण स्वयं भूउस धनके हरण करने के लिये पक्का विचार कर लिया । शीघ्र ही उसने वारण तूणीरले बाहिर निकाल लिया और इस रूपसे चलाया कि हाथीको वेदकर सात ताल उसने भेद डाले । जिस धनुष बाण जुटा हुआ था उस समय उसका इतना घोर शब्द हुआ था कि समस्त लोग कंपित हो गये थे एवं ऐसा भयंकर कोलाहल हुआ था कि मनुष्यों को यह जान पड़ने लगा था वि प्रलय कालका समुद्र आकर प्राप्त हो गया है उसीका यह कोलाहन है ।। ३०२ -- ३०८ ॥ नाराय स्वयं की यह क्रोध परिपूर्ण चेष्टा देख यद्यपि वलभद्र धर्मने वैसा न करने के लिये बहुत प्रकार से रोका था परंतु जिस प्रकार सर्पको छ इनेसे वह और भी भयंकर हो जाता है उसी प्रकार महा APKE 新宿者がお味 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदा धौण हलना निषिद्धो बहुशोऽपि सः निषिद्ध उचाल पवाति पनगात्यतभीषणः ॥३०॥ अत्रीमणत्तदा शोरी प्रातार भ्राई भयः । लोलान्य चंचल चेत्यं श्रपा त्वं मन्नधारते ।। ३१०॥मो दुष्टा दुर्धरोऽशानी होनातिनराधमः । भत्स ऽपि कदाचित | रे हत्यारेन्ज गां ॥ ३१ ॥ विषयपि गताः संनः पापकर्म न कुर्वते । हेमा कुटवत्कटानति विक्ष धितो प्यकं ।। ११२ ॥ त्ग कमला प्रीत्या सेक्ते वकमत का । नान्यत्र परमात् त्वगुणश्यनुरागिणो|३९शात शूगस्ते विचारशा दानिनो धनि नश्च तं । मानिन रूपि गो धारा उल्लघी न ये का । ३१५॥ अञ्जनाभगजोणकुम्मथलपलप्रियः। गोम युपि मत्त कि रतं संहरेद्धरिः ॥ ३१५ ॥ 2 भयंकर सर्पके समान नारायण स्वयंभका क्रोध और भी उवल गया और उस भटकी रक्षा करने वाले मनुष्योंको मारने के लिये वह उद्यत हो गया अपने छोटे भाई स्वयंभू को इस प्रकार चंचल 16 और निंदित कार्य करते देख वलभद्र धमने कहाa कामदेवके समान रूपवान् भाई ! तुम मेरी बात सुनो- संसार में यह बात सर्व जन प्रसिद्ध है कि जो पुरुष दुष्ट होता है कर अज्ञानी हीनजाति और नीच होता है वह भी दूतको मारकर 5 ल इमीका हरण नहीं करता । तुम निश्चय समझो कि जिसप्रकार भूखसे अत्यंत व्याकुल भी A हंस कुक्कुट-मुके समान की डॉको नहीं खाता किंतु मोतियोंको ही खाता है उसीप्रकार जो पुरुष सज्जन हैं उनपर कितनी भी विपत्ति क्यों न आकर पड़ जाय वे कभी भी पापजनक कार्य | नहीं कर सकते ॥ ३०६-३१२ ॥ लक्ष्मीकी तुम्हारे ऊपर इतनी भारी कृपा है कि वह अकेले - तुम्हींको अपना स्वामी मानकर प्रेमपूर्वक तुम्हारी सेवा करती है तथा तुम्हारे गुणोंमें वह इतनी । - अनुरक्त है कि तुम्हें छोड़कर वह दूसरी जगह नहीं जाना चाहती। भाई । संसारमें वे ही तो शूर और और वे हो विचार शोज दानी धनी मानी रूपवान और धोर वीर हैं जो कि किसी भी मर्यादा D का उल्लघन नहीं करते ॥ ३१३--३१४ ॥ जो सिंह अंजन पर्वतके समान हाधियोंके मांसको न AS पूर्वक खानेवाला है अर्थात् मत्त हाथियोंका विदारण करनेवाला है क्या वह मत्त भी शृगालको | Rashekh arak Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरविणामागोमाघामाहोरपन्छिः । मावीर विगामापीमावामादीरकि ! ॥ १६ ॥ अपरभृति हे भ्रागर्न र्मानमहोद्धा हतो न भूपते दूतः फथ त्व इंतुमिच्छसि ।।१७। अयुबालोऽपि मामाकी चर' इंस्येव ज्ञातुमाश्रयता तत्कण भ्रातस्तव चित्त By साधिनो ॥ ३१८॥ (क) मत्र जम्यूपति द्वीप रजते रत्नखनिभिः । भारते चास्ति पाया पुरी शारल्सेविता ॥३१६ ॥ तत्र राजा | महासेनः कामामः कमलेक्षणः वनीता महादेव्या नाम्ना मदन वेगवा ।। ३१६ विशालायां नटण्यातो नाम्नाभूकत्रकर्मकः । दाता. र त नृपं मत्वा समाकदिनेऽध सः॥२२०॥नानानाट्यरसैर्भावल येस्तान मनारमैः । रजामास तं भूपचित्रकर्मा स सूत्रधृत।।३२२।। मारने का प्रयत्न करता है ? कभी नहीं ॥ ३१५ ॥ भाई जो राजा उत्कट मानी है-उत्तम मर्यादाके पक्षपाती हैं उनके द्वारा आजतक कभी भी दूतको मारा हुआ नहीं सुना। तुम भी उत्तम मर्यादाके पक्षपाती पुरुष हो तुम इस भेंटके रक्षक दूतके मारने के इच्छुक क्यों हो ! तुम्हें भी कभी भी इस दूतको नहीं मारना चाहिये । विशेष क्या जातुधान-राक्षस जो कि सदा मांसको खानेवाला है वह भी कभी दूतको नहीं मारता । में इसी संबंधकी तुम्हें एक कथा सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वक गे.कि भांति भांतिके रत्नोंकी खानियोंसे शोभायमान इसी जंबू द्वीपके भरत क्षेत्रमें एक चंपा नामकी विख्यात पुरी है जो कि दानियोंसे शोभायमान है । किसी समय उसका रक्षण करनेवाला राजा महासेन था जो कि सुंदरतामें कामदेवकी तुलना करता था। कमलके समान विशाल नेत्रोंका 15 धारक था उसकी पटरानीका नाम मदनवेगा था जो कि एक अद्वितीय संदरीथी और उसके संबंध से राजा महासेनकी भी अत्यंत शोभा थी ॥३१६---३१६ ॥ उसी समय विशाला पुरीमें एक चित्रकर्मा नामका नट रहता था उसने सुन रक्खा था कि रोजा महासेन बड़ा दानी है इसलिये एक दिन चंपापुरीमें वह राजा महासेनके पास आया और नाट्य कलाके अत्यंत विद्वान उस चित्रकर्मा नामके नटने भांति भांतिके नाट्य रसोंसे उत्तमोत्तम भाव लय और तानोंसे राजा महासेनको walakhelarlsharaa Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल २०५ PANAY गण्मासालिज' व्यं तस्मै तानि । दशै राजा धन किंविकारण्यात यावः ॥ ३२२|| निःस्वभूयं पण प्राप्तो नटोमानी तदा नृप । शिक्षां च यांस चुकता नृपः ॥ ३२३ ॥ हियतिकंबित होय होयतां हठात् । हन्यतां हन्यतां वेगा दुगाचेति जनान्नृपः || ३२४ । नासवेन सिकारि पुरात्रि। मुनिना मानलं दुःख जनकतया गया ॥ ३२० ॥ पद्मा लया फल वा स्वं स्त्री तनुचरा अदि सत्य मानोमास्तादल' मानिना। नरः || ३२६ ॥ ना नालसति मान ेन न्यनो नै प्रसन्न कर दिया ।। ३२० - ३२९ ॥ राजा महासेन अत्यंत कृपण और निर्दयी था । वह चित्रकमा | नामका नट वरावर छह मासतक चंपापुरीमें ठहरा रहा और अपनी ही ओरसे भोजन आदिका खर्च उठाता रहा। राजा ने कंजूसीके कारण एक पाई भर भी धन नहीं दिया ॥ ३२२ ॥ जब उस चित्रकर्मा नटके पास खाने पाने को कुछ भी न बच्चा तब उसने राजा महासेनको दानकी शिक्षा देनी प्रारंभ कर दी और कुछ धन प्राप्त करने के लिये प्रार्थना भी की । नटकी बात राजाको अच्छी नहीं लगी इसलिये वह एकदम उसपर कुपित हो गया । वस रोष में आकर शीघ्र ही उसने अपने सेवकोंको यह आज्ञा देदी इस नटके पास जो इसीका कुछ माल मसाला हो, सब जबरन छीन लो और दुष्टको मार भगाओ ॥ ३२३ - ३२४ ॥ राजाकी यह कठोर आज्ञा सुन यद्यपि सारी प्रजाको बहुत मानसिक दुःख हुआ था तथापि उस शांत परिणामी नटको शीघ्र ही नगर से वाहिर निकाल दिया ॥ ३२५ ॥ संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि जो पुरुष मानी हैं उनको लक्ष्मी कुटुंब धन स्त्री शरीर और पृथ्वी सब कुछ चला जाय उनके चले जानेसे मानियोंको विशेष कष्ट नहीं | होता परंतु उनका अपमान नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार प्राणों के बिना शरीर किसी कामका नहीं और भूषणोंके बिना बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा नहीं उसी प्रकार चाहे पुरुष कितना भी भूषण वस्त्रोंका धारक हो एक मान बिना उसकी शोभा नहीं मानी पुरुषका मान ही भूषण है KKKKK 居 मंड स Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर गपि । देवोऽमुना विना वासो भूपादिभिरिवान्वितः ।। ३२५ । मानभंगममुद्भ मदुःखदप कुलचेसा । कार रैयते मंपा चुनमंत्रो मुनेनं टः॥२८॥अब पुर्या धनेशाख्यो व्य म्हागे तस्य वा रतिः । मामा भूरिसमानांगो कमला पंकज क्षणा ॥३२६।। तयोःपुलोऽनि मृत्वा नटोऽसौ मृगकेतुः। सम्यांगो गातोरूपो शास्त्रशः प्राकृनायतम् ॥ ३३० ॥ अथान्योऽत्रास्ति मेघाख्यः श्रेष्ठी रायालयः प्रिया । कायां - को नाम तस्वस्य किन्नरो याहिर प्रिया ।। ३३१ ॥ विशालहृदयी फल्गुणेशलो रोजाडीं। ललदगतिं चकोराक्षी विकरियां त्वभूषण ॥ ३३२ ॥ एकदा तां सपालोक्य स्मरे पाहतमानसः । दथ्यो चित्त निजे चेनि :दुष्टमाओविधीयतः ॥ ३३३ ॥ संयोगमनया सक ॥३२६-३२७॥वस मानभंगसे जायमान दुखसे व्याकुल चित्तका धारक यह नट चंपापुरोस निकलकर - रेवतिक पर्वतपर पहुंच गया। किसी मुनिराजसे भेट हो गई। नटने उपदेश प्रात किया और वहीं से अपने प्राणोंका विसर्जन कर दिया ॥ ३२८ ॥ म चम्पापुरीमें ही एक धनेश नामका व्यापारी रहता था उसकी स्त्रीका नाम कमला था जो कि रतिके समान परम सुन्दरी थी। सुगठित शरीरके अवयवोंकी धारक थी और कमल के समान दिशाल नेत्रोंसे शोभायमान थी। वह नट मरकर इन्हींके मृगकेतु नामका पुत्र हुआ जो कि पूर्वपुण्यके उदयसे मनोहर अङ्गका धारक था । बड़ा अभिमानो अत्यन्त रूपवान और परम विद्वान था । ॥३२६-३३० ॥ उसी नगरीमें एक भेघ नामका भी अत्यन्त धनवान पुत्र रहता था उसकी स्त्रीका नाम कायांकी था जो कि अपनी अनुपम सुन्दरतासे ऐसी जान पड़तो थी मानो यह किन्नरी है ke वा नागकुमारी है। वह सेठानी कायांकी विशाल वक्षस्थलसे शोभायमान थी। महा मनोज्ञ स्तनोंक धारक थी । सुन्दरता पूर्वक गमन करनेवाली थी। चकोरके समान नेत्रोंकी धारक थी और पर युवावस्थाले शोभायमान थो॥ ३३१-३३२ ॥ व्यापारीपुत्र मृगकेतुको एक दिन कायांकी पर दृष्टि 15 पड़ गई उसे देखतेही मृगकेतुका चित्त कामसे पीड़ित होगया। निर्बुद्धि के चित्तमें सदा दुष्ट ही विचार हुआ करते हैं इसलिये वह अपने मनमें यह विचार करने लगा कि-यदि इस सुन्दरीके साथ YAYAAAAYAYAAAAYAya Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन वे जोषितं धनं । वैयथ्यं सानं सौख्यं कि दुशित्तेहि प्राम्यते ॥२३४ा इत्युक्त्वा सैकदा तेन मोः भोः पनायो रे ! । पहि मारानिद मां भुन्योरंतरे कुरु.॥ ३३५ ॥ तन्तु का कटक अत्यागता सदा प्रनोच्छया । उपम्या विहिताम्तेन भूग्योऽकरतानाः । १३६ । प्रागनुबंध दृते थेऽपि समोहतऽनुवन्धक । तेषां हि फलमेवार्निवनवै धिवक्षणाः ॥ ३३७ ॥ भसौ राजानमालाद्य गणेति बचः प्रियं । हे देव ! सिंहलद्वीप गांधिलो विद्यते वयः ॥३३८॥ श्रुत्वा परिवृतः प्राह किमर्थ तत्प्रयोज । अनमीत्त मदांधश्च शृणु र संयोग नहीं हुआ तो मेरा जीवन धन महल मकान और सुख सारे व्यर्थ हैं ठीक ही दुष्ट चित्तमें | प्रशंसानक विचार हो ही कमा सकते हैं ! वस एक दिन वह सेठानी कायांकाके पास पहुंचा और उससे इसप्रकार कहने लगा___सुन्दरी ! तुम विशाल स्तनोंसे शोभायमान परम सुन्दरी हो मेरा हृदय कामाग्निसे प्रचलित हो रहा हैं तुम्हें मेरे ऊपर प्रसन्न होना चाहिये ॥ ३३३-३३५ ॥ सेठानी कायांकीकी मृगकेतुरे । साथ दिलकुल रमण करनेकी इच्छा न थी इसलिये मृगकेतु के वचन उसे कड़वे जान पड़े वह चुप चाप अपने घर में घुस गई-मृगये तुकी वातका उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । यद्यपि भृगो तुने | उसके राजी करने के लिये बहुतसे उपाय किये परन्तु वे सब निष्फल ही हुए ॥३३६ ॥ ठीक ही हैं जो मूर्ख मनुष्य पूर्वभवके सम्बन्धके बिना ही जवरन किसीसे प्रेम करते हैं उन्हें उस प्रेमका. फल मृत्यु ही मिलता है ऐसा वई २ विद्वानोंका मत है ।। ३३७ ॥ जब मृगकेतुकी कुछ भी तोन पांच न चलो तो वह सीधा राजाके पास गया और उससे इसप्रकार प्रिय वचनोंमें कहने लगा महाराज. सिंहल द्वीपमें एक महा मनोज्ञ गंधिल नामका पक्षी रहता है वह यदि इस देशम आ जाय तो बहुत ही अच्छा हो। उत्तरमें राजाने कहा वह पक्षो यदि यहां आ जाय तो उससे क्या प्रयोजन सटेगा ? इसके उत्तर में मदांध मृगकेतुने कहा---प्रभो ! जिस राष्ट्र घर और राज्यमें वह Wwwkrte Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर प्रभा ! ॥ ३३६॥ यत्र राष्टे गृहे गज्ये वेद्भवेत् खेचरश्च सः। तदा मुमिक्षिता गज्येऽहितमको भवेदिति ॥ ३४० ॥ मृगकेतो! व कारं प्राप्यत दररथोदितः रिया तागिहें प्राह तं स कामी मदातुरः ॥४१॥ है विभो ! विद्यतेऽनापि मेघाख्यः स कलान्वितः स गंतु तब शक्रोति नापरे भून हे ऽहले ॥ ३४२ ॥ तमाकाय जबादाजा प्राक्षिणोवानहाशं । तस्मिन् गते मृगो गेह गतस्तस्य स्मर तुरः॥ ३४३॥ म.या मिति झाय स्यागतं प्रायशः कृतं । हया स्थापमन् ! कृपाकारि यदन त्वं समाटितः॥३४ा, इति कृत्या तया साध्व्य मी उत्तम पक्षी रहता है वहां कभी भी दुर्भिक्ष न होकर सदा सुभिक्ष रहता है और अहितका नाश होनः - है। मृगकेतुकी यह कौतुक भरी बात सुन राजाने कहा-भाई मगकेतु ! उस पक्षीकी प्राप्ति होगी | कसे ? वस कामी और काम पीड़ित मगवेतुने जब राजाकी यह लालसा देखी तो उसे बड़ा आनंद हुआ और वह इसप्रकार कहने लगा राजन् ! आपकी राजधानी में एक मेघ नामका सेठ रहता है जो कि एक उत्तम वंशका है । समस्त पृथ्वीके मनुष्योंमें वहीं सिंहल द्वीप जानेकी सामर्थ रखता है अन्य कोई नहीं आप उसे | अवश्य भेज दीजिये ॥ ३३८-३४२ ॥ राजाकी आज्ञा अनिवार्य होता है। मंगकेतुकी वातपर वि 12 Mश्वास कर राजाने शीवहीं मेघको राजसभामें बुलाया और आग्रह कर सिंहल द्वीप भेज दिया । जव श्रेष्ठी मेघ नगरसे प्रयाण कर गया तब काम पीड़ित मृगकेतु शीघ्र ही उसके घरकी ओर चरू दिया और निर्भय हो घरमें प्रवेश कर गया ॥३४३॥ सेठानी कायांकी पूर्ण पतिव्रता था इसलिस जा मृग केतुको देखकर अन्ता न तो उसका क्रोधसे भवल गया परन्तु उस समय क्रोध करनेमें चतुरत. न समझ ढंग बदल कर मृगवे तुका उसने स्वागत किया और ठंडे वचनोंसे इसप्रकार कहा स्वामिन् ! आइये आपने बड़ी कृपाकी जो मुझ अभागिनीके घर आप पधारे तथा ऐसा कह कर उसने शीघही एक गढ़ा विष्टासे भरवा दिया। रस्सीसे विना वुना एक पलङ्ग उस पर विश्वा दिय, प्रkिkchr Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च 神野市村橋 おおおく कृतोऽयं विधिनः । गर्यो परि पुरोषस्य धिरज संचकं ततः ॥ ३४५ | हत्वा रम्येण वस्तरेण पिधाय स्थापित यदा । तदाऽपनपुरीपाट गर्त भ्रमन्निभे || ३४६ || विधिज्ञा यं प्रकुर्वति स विधिनों प्रतीयते । गुरुणा रविणा जम्माराविनापि महोबा | ३०७ ॥ अं पर्गतगभीरा पामीति चावगम्यते । इति चक्रु' न शक्येत तिने पानगति शुन्योऽपि चपला त्व'चलः त्मिकाः । चर्कर्ति किमनर्थ नालनृणां पि सुन्दराः ॥ ३४६ ॥ अभिरूपाः सुराः सर्वे ऋषयोऽपि बनाश्रिताः । योषितां नैव जानंति चरित्र' स्वमनागतं ॥ ३५० ॥ तद्वासरतो दुःख' तत्राचतिष्ठते सकः । दीयमानं तथा धान्यं सुजानो ध्वांक्षयः ॥ ३५६ ॥ मनोहर वसे उसे ढकवा दिया और बढ़ चादरसे सेठानी कार्याांकीने उस पर बैठनेके लिये मृगकेतुसे कहा । कामान्ध मृगये तुको इस रहस्य के समझने की बुद्धि कहां थी वह शीघ्रही उस पलंग पर जा बैठा और नरकके समान दुःखदायी उस विष्टासे परिपूर्ण गढ़में जाकर पड़ गया । ३४४-३४६ । ठीक ही है चतुर लोग जिस चतुरताको करते हैं उस चतुरताका हर एकको जल्दी पता नहीं लग सकता विशेष क्या जिनके अन्तरङ्ग गम्भीर हैं वे जिस बातको करना चाहते हैं उसे और की तो क्या वात महान भी विद्वान बृहस्पति सूर्यदेव और इन्द्र भी नहीं जान सकते। ठीक ही हैं जल में रहनेवाली मछली कब और कैसे जल पीती हैं यह हर एक नहीं जान सकता । चञ्चल चमकीली और देखनेमे सुन्दर भी दिजली जिस प्रकार घोर अनर्थ कर डालती है उसी प्रकार ये स्त्रियां भी भड़कीली हंसी हंसने वाली चञ्चल और परम सुन्दरी दीख पड़ती हैं परन्तु चञ्चल चित्त पुरुषों का ये घोर अनर्थ कर डालती हैं । इन स्त्रियोंके चित्तोंमें क्या क्या चरित्र विद्यमान रहते हैं उन्हें औरकी तो क्या वात विद्वान देव और वनमें रहनेवाले ऋषि मुनि भी नहीं जान सकते। कामी मृगकेतु जिस दिनसे उस गढ में पड़ा अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता हुआ वह वहीं पर पड़ा रहा एवं जिस | प्रकार काकको टुकड़ा डाल देते हैं उसी प्रकार कार्यांांकी जो उस मूर्खको खानेको देती थी उसे ही वह खाता रहा और अपनी मृत्युके दिन व्यतीत करने लगा ॥ २४७-३५१ ॥ ૨૭ KeKkPaek पत्रपत्र Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरार ReKYCHYAYE T 41 अथैकता समायातो मेघास्यः सिंगलादतं । अलब्ध्वा पक्षिणं मासे षष्ठे मानधनो धनी ॥ ३५२ ॥ तद्वत्तमुदितं तस्य पुरस्ताद्भाय या खिलाश्रुत्वोत्थाय व्यधान्चित्रमिति श्रेष्टी विचारवित् ॥ ३५३ ॥ निष्कास्य सैनसं वाधे कृषीभूयासितं बल' । नानाहारीतपक्षश्च जिंतुरचितांग ॥ पालापर्ण निमुमोचेशानसन्निधौ । जगायिति ततोराजन्नानोतोऽय विचित्रविः ।। ३५५ ॥ तं ट्ना नागरा: सभ्या योषितश्च विनोदतः । अहासुस्नोलयंतिस्म राजामात्यादयोऽपि च ।। ३५६ ॥ धनेशस्य कुपुत्र तं मत्वा संज्ञा निभासतः । निःसारितः पुगई शाच्चादेवे कुतपोषिधिः ॥ ३५७ ॥ पूर्ववैरानुषंगत्वान्निदाननिधन' गतः । यातुधानो महदंष्ट्रो म राजाकी आज्ञासे श्रेष्ठी मेघको सिंहलद्वीप तो जाना पड़ा था परन्तु जब उसे वहाँ पर वह गंधिल पक्षी नहीं मिला तो वह छठे महिने शीघ्र ही वहांसे वापिस आ गया। जिस समय वह अपने घर आया तो सेठानी कायांकीने मृगकेतुका सारा वृत्तान्त अपने पति मेघसे कह सुनाया। वह सेठ एक विद्वान और विचार शील व्यक्ति था इसलिये उसने मृगकेतुको अपने कियेका फल चखाने - लिये यह आश्चर्यकारी उपाय रचा- गढ में पड़ा पड़ा पापी मृगकेतु चिंता और दुःखसे एकदम कृश और काला पड़ गया था। मेघने उसे बाहिर निकाला। हरे वर्णके पंखोंसे और सिन्दुरसे उसके शरीरको सजाकर उसे चितकवरा बना दिया। नगरके ईशान कोंनमें उसे छोड़ दिया एवं राजाके | समीप जाकर यह कहा-हे राजन् । मुझे जो गन्धिल पक्षीके लानेके लिये प्रोज्ञा दी गई थी वह | है गंधिल नामका विचित्र पक्षी मैंने ला दिया है और वह यह है ॥ ३५२–३५५ ॥ श्रेष्ठी मेघका की बात सुनकर और मृगकेतुको देखकर नगरवासी समस्त सभ्य लोग स्त्रियां राजा और मंत्री आदि Pr समस्त जन ताली पीट पीट कर हंसने लगे और खिल्ली उडाने लगे। व्यापारी धनेशके पुत्र मृगकेतु को कुपुत्र समझ कर राजाने उसे बहुत दण्डित किया और राजधानी एवं देशसे वाहिर निकाल दिया। ठाक ही है जिसका भाग्य अच्छा नहीं होता वह निन्दित कार्यका ही आचरण करता है। पूर्व वैरके सम्बन्धसे मृगकेतुने नगरके बिनाशका निदान बांध लिया जिससे मरकर वह राक्षस हो पका Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने श्जयः जज्ञेऽस्थ्युत्करहारभृत् ॥ ३५८ ॥ क्रोधारुणमुखो भीजंतूनां कृपयातिगः । दुर्गधा हावने स्थित्वा भक्षयामास मानवान् ।। ३५६ || तद्भिया व्याकुला लोका नावृत्ति शेरतं न च । नो निःस्सर ति कुत्रापि मृत्युभी: केन सह्यते ॥ २६० ॥ यदा सर्वजनांतोऽभूखदा राश ि तर्कसं । प्रत्यहं दीयते च को मानो मै पलादिने ॥ ३६१ ॥ यदा नो भक्षयेल्लोकान् तिष्ठ दुभूतवने तदा । एवं संचित्य दून' स प्रजिघायाशु तं प्रति ॥ ३६२ ॥ दृष्ट्वा दूत' समुत्तस्थौ चण्डोऽरुणनिरीक्षणः । वचोभिस्ताडयन्नत्त तदाहेति चरोमिया गया जो कि तीन डाढोंका धारक था । हड्डियोंका हार धारण करता था । सदा उसका मुख क्रोध से लाल रहता था । गोत्रोंको यमील करनेवाला था और निर्दयी था । वह दुष्ट राक्षस चम्पापुरीके बाह्य बनमें रहने लगा और नगरके समस्त लोगोंको खाने लगा । राक्षसकी यह निर्दयता परिपूर्ण चेष्टा देखकर नगर निवासी लोगों को बड़ी आकुलता हो गई। राचसके भय से न वे खाही सके न पीही सके और न कहीं वाहिर जाही सके। ठीक ही मृत्युका भय सहा नहीं जाता । मृत्यु का नाम सुनते ही हृदय थर थरा निकलता हैं ।। ३५६- ३६० ॥ राक्षसके द्वारा जब नगर निवासियों का क्षय होने लगा तब राजाको बड़ी चिन्ता हुई और अनेक तर्कवितर्कों के साथ उसने यह निश्चित कर दिया कि यदि वह राक्षस यह बात स्वीकार कर ले कि अपनी इच्छानुसार वह किसी भी मनुष्यको न मारे और नगर में आकर श्मसान भूमिमें ही पड़ा रहे तो हम उसको प्रति दिन एकर मनुष्य भेज सकते हैं। वस ऐसा विचार कर राजाने शीघ्रही दूत बुलाया और उसे राचसके पास भेज दिया ॥३६१-३६२॥ दूतको अपने पास आता देख राक्षस मारे क्रोधके भवल गया उसके दोनों नेत्र लाल हो गये । अनेक प्रकारके दुर्वाक्य कहने लगा और उठकर दूतको खानेके लिये तयार हो गया। राक्षसकी यह क्रूर चेष्टा देखकर दूतने कहा SAYAYK VER Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल २१३ || ३६३ ॥ श्रतो भो महादेस्य ! मां मा भक्षय दुःखिनं । राशो दूतोऽस्म्यहं ते ते विज्ञप्त्यै चागतो ध्रुवं ॥ ३६४ ॥ क्रव्यादोऽस तदास्यांने तर्कशमान सम्यवत् । हन्यते चेच्चरो नून' गुरुइत्या भवेदिति ॥ २६५ ॥ निश्चित्येत्थं जगौ दूत' याहि याहि ममाग्रतः वंदन्यश तेन तत्पुर' निर्जन कृतं ॥ २६६ ॥ अतो भूतो न हंतव्यस्त्वाद्वक्षेण यशस्वता । मानिना विक्रमादयेन गुणगांभीर्य शालि ना || ३६७ || निसर्गाध्वप्रयाता किं हरिणा ध्वस्तदन्तिना । क्रोष्टा प्रहियते क्वापि श्रुतं दृष्टं त्वया श्रुते ॥ ३६८ ॥ भ्रातृवाक्य दैत्यराज ! मैं महा दुःखी हू मुझ े मत खाइये मेरी बात सुन लीजिये 1 चम्पापुरीके राजाका दूत हूं। राजाकी बात: निवेदन करने के लिये आपके पास आया हूं । दूतकी यह बात सुन जिस प्रकार सभ्य किसी बातका सरलतासे विचार करता है उसी प्रकार वह राक्षस अपने मनमें यह विचार करने लगा । दूतको मारना न्याय विरुद्ध है यदि मैं इस दूतको मार डालूंगा तो मुझ गुरु हत्याका दोष लगेगा || ३६३ - ३६५ ॥ वस ऐसा पूर्ण विचार कर राक्षसने दूतसे कहा- भाई दूत ! तुम मेरे सामनेले जा सकते हो मैं तुम्हें नहीं मार सकता। इस प्रकार वलभद्र धर्मने दृष्टान्त देकर स्वयंभूको समझाया और यह कहा भाई ! पूर्व वैरके संवन्धसे राक्षसने उस पुरको जन शून्य बना दिया था इसलिये तुम्हारे प्रति मेरा यही कहना है कि तुम संसारमें एक यशस्त्री मानी पराक्रमी गुणी और गंभीर माने जाते हो तुम सरीखे महा पुरुषको राजा मधुके दूतोंको न मारना चाहिये। भाई ! विचारा दीन श्रृंगाल जो कि अपने मार्ग पर चल रहा है उसे बड़े २ हाथियों के | मदको चूर करनेवाले केहरीने मारा हो यह वात आजतक कही भी देखी सुनी नहीं गई है । तुम बड़े राजाओं के मानको मर्दन करनेवाले हो तुम्हें इन दीन दूतोंको कभी नहीं मारना चाहिये। कोधी स्वयंभू कब किसीकी बात सुननेवाला था । अपने बड़े भाई धर्मको बातका स्वयंभूने कुछ भी आदर नहीं किया। देखते देखते दोनों दूतोंको मार डाला और दोनोंसे जो कुछ भी उनके पास मधुके PRICE Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरस्कृत्य हतौ दुती स्वयंभुवा । उभयोः प्राभूत'नोत्वा किं न कुर्वति दुर्धराः ॥ ३६६ । थुतहा ये नरा लोके सत्त्वान्याः सजना अपि । विमृश्यकारिणोधीरा यन्दनीया ततस्तके ।। ३७० ॥ ततो नत्वा निजामार तस्थतूरामकेशी । भुजानी प्रोनितः सौख्य निमग्नौ रतिवारिधौ ।। ३७१।। अर्यकदा महाराजा मधुः परिषदावृतः । नपोदारसमे भान राजते वा नु रात्रिपः ।। ३७२ ।। अत्रांतरें ऽघरे व्योमयान विद्युत्प्रभ मधुः । ददर्श सुन्दराकार नानारत्नच याचित ॥ ३७३ ॥ अहामास स्वधित्तेऽसौ चपलामण्डलो नुवा । कलायो मिहिरो मेरोः प्रस्थं वैडूर्यरजित ।।३७४॥ तन्मध्यस्थ महाकाय लेखर्षि श्यामसुन्दरं । स्थर्णालीजटामालं दृष्ट्वात्तस्थौ सुचः । लिये भेट थी सब छीन ली। ठीक ही है मदोन्मत्त क्या क्या अनर्थ नहीं कर डालते ॥३६६-३६६ ।। संसारमें जो मनुष्य शास्त्रज्ञ हैं । वलशाली हैं। सज्जन हैं । विचार पूर्वक कार्य करनेवाले हैं और धीर वीर हैं वे समस्त लोकके आदरके पात्र होते हैं ॥ ३७० ॥ दूतोंके मारे जानेके वाद नारायण | स्वयंभूका क्रोध शांत हो गया। वे दोनों भाई वलभद्र और नारायण सानन्द अपने राज महलोंमें रहने लगे। प्रीति पूर्वक राज्य सुख भोगने लगे एवं भोग विलास रूपी समुद्रमें एकदम मग्न हो गये ॥ ३७१॥ एक दिनको बात है कि अर्धचक्री राजा मधु अनेक राजाओंसे परिपर्ण राजसभामें बैठे थे | 2 उस समयकी उनको लोकोत्तर शोभा थी। उन्हें देख लोगोंको यह जान पड़ता था कि यह साक्षात् तसूर्य हैं वा चन्द्रमा हें ॥ ३७२ ॥ राजा मधुको उस समय एक विमान दोख पड़ा जो कि विजलीके समान सुन्दर प्रभाका धारक था। मनोज्ञ आकारसे शोभायमान और नाना प्रकारके रत्नोंको किरणोंसे व्याप्त था। इसप्रकार अद्वितोय शोभासे शोभित विमानको देखकर राजा मधुके चित्तमें | सहसा यह विचार उदित हो गया कि यह विजलीका प्रतिबिंब है वा चन्द्रमा वा सूर्य है अथवा वैडूर्य मणिसे शोभायमान यह मेरु पर्वतका पाषाण है। उस विमानके मध्य भागमें नारद ऋषि 长长长长点名要他登后冠誉会长警发警长长学 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KY दितु ॥ ३७५ ॥ प्रायशः स्त्रागतं सार्थं संविधाय प्रमोदनः । विप्रे स्थापयामास सतां होति कुलक्रमः ॥ ३७३ ॥ अन्वयुक्त मुनि स्वस्थ राज्ये च क्षमतां तनौ । मुहुर्मुहुः क्षणं स्थित्वा व्याजहारेति कौतुकात् ॥ ३०७ ॥ मी मधो ! यः कृतस्तेन तव दुःखसमु करः । स्वयंभुवातिदुष्टेन प्रसाद भृगु । ३७८ ।। वार्यमाणोऽपि धर्मेण भ्रात्रा दूतद्वयं तव । इत्वा द्रव्यं जघानाशु स्वयं भू भीषणोऽवित् ॥ ३७६ ॥ लोलावानिद्रव द्विद्वान् गुरुप्रन्मेरभोऽचलः । प्रतापाक्रांतभूकः सन् तृणवत्यां न मन्यते ॥ ३८० ॥ न मन्यते दीख पड़े जो कि विशाल शरीरके धारक थं । देवताओंके ऋषि थे श्याम सुन्दर थे और सुवर्णमयी जटाओं से शोभायमान थे नारद मुनिको देखकर राजा मधु शीघ्रही सिंहासनसे उठ खडा हुआ । भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। बड़े आनन्दसे उनका स्वागत किया और भक्तिपूर्वक सिंहासन पर विठाया ठीक ही है जो सज्जन पुरुष हैं उनके कुलक्रमकी यही रीति है ॥ ३७३ – ३७६ ॥ उचित शुश्रूषा जब समाप्त हो गई उस समय ऋषि नारदने राजा मधुके राज्यकी और शरीरकी कुशल पूछी। कुछ देर तक शांत होकर वे बैठे रहे पीछे कौतूहलसे इस प्रकार कहने लगेप्रिय मधु ! अति दुष्ट स्वयंभूने सुनते ही दुःख उत्पन्न करनेवाला जो तुम्हारे साथ घमण्ड - पूर्वक कौतिक किया है उसे में सुनाता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो। तुम्हारे लिये भेंट लेकर दो दूत आ रहे थे । दैवयोगसे स्वयंभ से उनकी भेंट हो गई। उन्हें तुम्हारे दूत जान स्वयंभ के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा । वलभद्र धर्मने उसे बहुत रोका परन्तु उसने एक न सुनी तुम्हारे दोनों दूतोंको मार डाला एवं सर्पके समान महा भयङ्कर स्वयंभू ने उनका सारा धन छीन लिया । वह राजा स्वयंभ इन्द्र के समान क्रीडा प्रेमी है । बृहस्पतिके समान विद्वान है । मेरु पर्वत के समान चल है । समस्त पृथिवोको अपने प्रतापसे उसने वश कर रक्खा है तुम्हें तो वह तृणकी वरावर भी नहीं मानता ॥ ३७७ – ३८० ॥ क्रियाहीन भी नही मानता है अक्रियाहीन भी नहीं मानता है । अप्रा 1 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूपाचव यित्वा स दुन्दुभि मृत्युभीमद ।। ३८६ ॥ तरामात्याः सत्याशु रेणराजानमंजता। कराटोरसमुदादुप्रक्षुब्धांभोधिभोषणं ॥३८ । संजाघटीति नो झिन दुर्जय जयकांक्षिणं । उपक्रमो धराधीश ! निर्वाच्यतास्पद यशः ३८८|| अणाराशिगभीरा ये नीतिविक्रमभूपि ता: । विमृश्यकारिणः क्षुद्रान् वा फर्णति न दुर्जयान् ।। ३८६ || स्टमाने पि गोमायौ प्रभत्ते वेगवत्यहो । न प्रहार समाधत्ते पञ्चा, |सुन पहिले तो राजा मधुका शरीर कम्पायमान हो निकला पोछे हृदयको दृढ़कर वह मन ही मन यह कहने लगा कि वह स्वयं दुष्ट है मैं उसे अवश्य मारूंगा इसलिये शीघ हो उसके मारनेके | लिये सिंहासनसे उठ बैठा। राजा स्वयंभूको दुःखित बनाने के लिये उसने विशाल सेना तयार करा | ली एवं नगरमें भेरी दिवाकर राजा स्वयंभू के ऊपर चढ़ाई कर दी ॥३८३-२८६॥ राजा मधुकी यह चेष्टा देख अनेक मंत्रो उसके सामने आये और कपाटके समान विशाल वक्षस्थलके धारक | विशाल भुजा ओंसे शोभायमान एवं खलवलाते हुए समुद्र समान भयङ्कर राजा मधुसे विनय पूर्वक यह कहने लगे__ महाराज ! जो महानुभाव दुजय मनुष्यों के जयको आकांक्षा रखनेवाले हैं उनका कोई भी लजल्दी किया हुआ काय अच्छा नहीं होता क्योंकि जल्दी किये हुए कायसे संसारमें निन्दा ही होतो | है। प्रभो ! जो महानुभाव समुद्र के समान गंभीर हैं । नीति और पराक्रमसे शोभायमान है एवं हरएक कार्यको विचार पर्वक करनेवाले हैं वे क्षुद्र पुरुषों पर इसप्रकार कमर नहीं कसते और दुर्जदामोंको क्षमा भी नहीं करते ॥३८७-३८६ ॥ खामिन् । शृगाल चाहे कितना भी मदोन्मत्त चंचल ज और वड़बड़ करनेवाला हो परन्तु जो केहरी मदोन्मत्त हाथियोंका घमण्ड चूरनेवाला है वह दीन शृगाल पर प्रहार नहीं करता। जिस प्रकार शरद ऋतुमें होनेवाली फल प्राप्ति शरद ऋतुके शुभ ke कालकी आकांक्षा रखनेवालोंके ही होती है यदि वीचमें ही जल्दी कर दी जाय तो वह फल प्राप्ति ЕРКЕККЕ Kerkrkerkesekr. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियांहोनोऽक्रियाहीनो न मन्यते । अप्राम्धनो न मन्येत प्रारधनोनो न मन्यते ॥ ३८१॥ पुरानो जीयते स यदा विक्रमसत्पदं । ने। भ्यति त्वां तदायस्था दुबगोचरतामितां ॥ ३८२ ॥ ब्रह्मात्मभूवचः श्रत्वा जगजे गर्जनान्वितः! खेजगर्जसमाकर्ण्य कंठौरव दया परः॥ ३८३ ॥ इयाय गानं सोऽपि ब्रह्मचारी कलिप्रियः । अन्योन्य पमुत्पारय नारदो नारदोरदः ॥ ३८४ ॥ दूतनाशं समाकl सकृत्कॉपतविग्रहः । हन्म्यहं साइसं तूर्ण व्याहत्येति समुत्थितः ॥ ३८ ॥ वलेन महता सार्क सा तं कर्तुमुद्यतः ! चचाल दाप. | धन भी नहीं मानता है प्राग्धन भी नहीं मानता है ऐसा कहनेसे विरोध सरीखा जान पड़ता है इसलिये इसका तात्पर्य यह है कि जो पुरुष क्रिया हीन है अर्थात् निष्किय है-कृत कृत्य है उसे , किसीके माननेको आवश्यकता न होनेसे वह भी किसीको नहीं मानता तथा जो अक्रियाहीन है। * अर्थात् निन्दित क्रियाओंको प्राप्त है वह उद्दण्ड है वह भी किसीको नहीं मानता है। जो महानु भाव अप्राग्धन है अपूर्व संपत्तिका स्वामो है वह भी किसीको नहीं माना गोंकिकृतकृत्य होनेसे | उसे किसीके आदरको आवश्यकता नहीं रहती तथा जो प्राग्धन है जिसको कुछ धन प्राप्त हो | - चुका है वह भी घमण्डमें आकर किसोको कुछ नहीं पछता इसलिये वह भी किसीको मानना नहीं ka चाहता। यह तुम निश्चय समझो वह तुम्हारे सामने टिक नहीं सकता क्योंकि तुम संसारमें एक प्रवल पराकमी हो जिस समय वह तुम्हारा सामना करेगा उस समय वह दुःखदायी अवस्थाको [22 | ही प्राप्त होगा ॥ ३८१-३८२ ॥ नारद मुनिसे ये अपने अपमान सूचक वचन सुनकर राजा मधु Irel का हृदय क्रोधसे पजल गया एवं जिसप्रकार आकाशकी गर्जना सुन केहरी गर्ज निकलता है उसी प्रकार राजा मधु भी वेहद गर्जने लगा । इस प्रकार जिसको कलह ही प्यारी है और आपसमें 2 द्वष कराकर जो मनुष्योंका संहार करानेवाले हैं ऐसे नारद मुनि स्वयंभू और मधु दोनोंमें द्वेषका र अकूर वोकर आकाशमार्गसे प्रयाण कर गये । अपने दूतोंका इसप्रकार आश्चर्य कारी मरण 代代木那两所院於許許許許許% Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन इभेशमित ।। ३० ॥ शनकैः शनके कार्यसिद्धिः पुस प्रजायते । शारदो व फलप्राप्तिः शुभकालानुरागिणः। ॥ ३६१. निराम्येति मदोत्त इन्धराधरतस्थितः । उवाच पर्वतस्फोटकठिन कठिनं मधुः ।। ३६२ ।। दुर्जया व्याधयो दुष्टा इंतव्या अविलम्वतः अन्यथायतिविध्वंसासुप्रणाशकरा बलात् । ३६३॥ स्फदशौ तमभानो चक्र संयोजयत्यपि । कोशिकाश्व प्रणश्यन्ति रणे रणविदि सामादित्रयमुलु'ध्य विद्वत्सु बलिभिनरः । योज्यते निग्रहोपायो नान्या शर प्रतिक्रिया ॥ ३९५ ॥ निमितर्यमाणो - नहीं हो सकती उसी प्रकार समय देखकर धीरे धीरे ही पुरुषोंको कार्य सिद्धि होती है जल्दी करE नेसे कोई भी कार्य सिद्धि नहीं हो सकतो । राजन् ! आप जो शत्र के साथ युद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं वह विचार कर ही आपको करना चाहिये ।। ३६७-३८१ ॥ राजा मधु तो उस समय अहं. K कार रूपी उत्तुङ्ग पर्वतको चोटो पर चढा हुआ था वह मन्त्रियोंकी उचित भी बात कब माननेवाला था उसके चित्त पर मन्त्रियोंके वचनोंका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा प्रत्युत पर्वतको टूक २ करने वाले वज्रके समान इस प्रकार वह वचन कहने लगा- जो व्याधियां दुष्ट और दुर्जय हैं जल्दी जीतीं नहीं जा सकतीं उन्हें जहां तक वने बहुत शीघ्र नष्ट कर देना चाहिये यदि इनके नाशका शीघ्र उपाय नहीं किया जायगा तो आगामी कालमें ये अनेक प्रकारकी हानियां करनेवालों होंगी और प्राणोंकी नाशक बनेंगी। जिसका प्रकाश चारो ओर - फैल रहा है ऐसा सूर्य जिस समय उदित हो जाता है उस समय जिस प्रकार उलक पक्षी छिपd जाते हैं-सूर्यका सामना नहीं करते उसी प्रकार संग्रामके अन्दर रणकला वेत्ता जिस समय में IS चक्र लेकर खड़ा हो जाता हूं उस समय शत्रुओंका पता तक नहीं चलता। जो पुरुष वलवान हैं वे शत्रु ओंके लिये साम दण्ड और भेद इन तीन प्रकारकी नीतियोंका उल्लंघन कर केवल दाम नीति का आश्रय करते हैं-शत्र ओंके निग्रहका ही उपाय सोचते हैं क्योंकि विना निग्रहके उपायके KYThadai Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल २१८ KPKKN सः । ऽपि पफॉण फणिराडिव 1 त्यक्त्वा भुवं नमः श्रित्य भानुमांस्त' मधुर्द्विषं ॥ ३६६ ॥ केश: पोल्कद'वानि दानवर्षाणि सर्वशः गर्जन्ति चपला मेघाः सिंदूराभरणानि वा ॥ ३३७ ॥ हे पानीता विचित्रांगा आश्वीयाः क्षुण्णभूधराः । प्रचेलुश्चरणन्यासविषरी कृतसिंघवः || ३६८ ।। आयुधीया भटा भूमविक्रमा विक्रमक्रमाः । स्थपुटोन्नतभुवं चेलुः कृतांतहरयो नु वा ॥ ३६६ ॥ स राजाजिर मध्यस्थो मधुर्मधुरिवापरः । किन्नरोद्गीतकीर्तिश्च प्रळयांभोधिभीषणः ।। ५०० || अभिवेष्ट्य पुर' तस्य स्थितः और शत्रु के लिये कोई प्रतीकार नहीं ॥ ३६२ -- ३६५ ॥ जिस समय राजा मधु स्वयंभू से युद्ध करने के लिये गया था उस समय उसे बहुतसे अपशकुन हुए थे उन अपशकुनोंसे उसे रुक जाना था परन्तु वह बिलकुल नहीं रुका किन्तु सर्पके समान उसका और भी रोष बढ़ता ही चला गया एवं जिस प्रकार सूर्य आकाशमें चलता है उसी प्रकार राजा मधु भी वैरी स्वयंभ की ओर पृथ्वीको छोड़कर आकाश मार्ग से चल दिया || ३६६ ॥ उस समय जिनके गण्डस्थलों से मद चूता था ऐसे हाथियों के समूह के समूह चीत्कार करते थे और सिंदूर के श्राभरणों से शोभायमान थे सो ऐसे जान पड़ते थे मानों विजली युक्त मेघ ही गरज रहे हैं ॥ ३६७॥ घोड़ोंका समूह चलने लगा जो कि पढ़ पद पर हींसता जाता था । चित्र विचित्र अङ्गका धारक था। अपनी टापोंसे पर्वतोंको चूरनेवाला था और अपने खुरोंके न्याससे समुद्र सरीखे गढ़े करनेवाला था । बहुतसे पैदल योधा चलने लगे जो कि अनेक प्रकार के आयुधों के धारक थे। अत्यन्त पराक्रमी थे। विक्रमक्रमा-पक्षियोंके गमन के समान शीघ्र गमन करनेवाले थे । चलते समय वे नीची ऊंची जमीनका कुछ भी विचार नहीं करते थे इस लिये वे साक्षात् यमराजके घोड़ोंके सरीखे जान पड़ते थे। जिसकी कीर्तिका गान बड़े २ किन्नर करते थे एवं जो प्रलय कालके समुद्र के समान अत्यन्त भयङ्कर था ऐसा वह राजा मधु, राक्षस मधु के समान सेनाके मध्यभागमें स्थित हो गया तथा सांकलोंसे जिसकी भुजायें शोभायमान हैं एवं AKKEKA 橘希希空 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ のお弁 PKVKREK भूचरेभूरिदानधै तत्पत्कजः ॥ ४०२ ॥ अटित त' समाकर्ण्य स्वयंभूर्निर्ययौ पुरः । अभिमुख्यमितस्तस्य बलिनामा महामनाः ॥ ४०२ ॥ ध्वनयन् जन्यवादित त्रासयन् विद्विषां व्रजे । तर्कयन्नथ गंधर्वान् त' प्रादेति चलानुजः ||४०३ || युद्धार्थमानता ये तु ते किं. तिष्ठन्ति भूतले । अयुध्य स्थीयते स्वैरं कथं कार त्वया ! || ४०४ || निशम्य वचनं तस्य मधुरानोत्थितोऽग्निवत् । तमाषव्या नश क्षिप्रं घाणपूर क्षिपन्नलं ॥ ४०५ ॥ चापादिनीसमुद्र तध्वानेन ध्वनिता नगाः । जुश्च केकिनो प्रांत्या जोमृतस्य प्रवर्षिणः ॥ विद्याधर भूमिगोचरी और राक्षस सभी जिसके चरण कमलोंको नमस्कार करते हैं ऐसे राजा मधुने नारायण स्वयंभू का सारा नगर घेर लिया ॥३६८ -- ४०१ ॥ जिस समय राजा स्वयम्भ ने अपने ऊपर चढकर मधुको आता सुना वह शीघ्रही नगरसे बाहिर निकल पड़ा एवं अपने भाई बलभद्र के साथ शीही मधुका सामना कर डाला | ॥ ४०२ ॥ संग्रामके वाजोंको वजाता हुआ शत्रु को भयभीत करता हुआ और गन्धर्वो को अनेक प्रकार के तर्क वित्तकोंमें उलझाता हुआ नारायण स्वयम्भू जिसमय प्रति नारायण मधुके सामने आकर खड़ा हुआ उस समय उसने मधुसे इस प्रकार कठिन वचन कहे जो पुरुष यहां पर युद्धके लिये आये हैं वे पृथ्वीतल पर विद्यमान है वा नहीं हैं ? रे अधम मधु ! यदि तू यहां युद्ध करनेके लिये आया है तो तू युद्ध कर । विना युद्ध के वृथा तू क्यों यहां पर पड़ा हुआ है ! | राजा मधु तो पहिले से ही आग बबूला था जिस समय उसने स्वयम्भू के इस प्रकार कठिन वचन सुनें वह और भी क्रोधसे पजल गया वह अग्निके समान जाज्वल्यमान होकर शीघ्र ही उठ खड़ा हुआ एवं वाणोंसे अच्छादित कर समस्त जगतको अन्धकार मय बना दिया ॥ ४०४ ॥ ४०५॥ उस समय तोपोंके शब्दोंसे समस्त पर्वत शब्दायमान हो गये थे एवं उस शब्दको वर्षने वाले मेघोंके शब्द समझकर मयूरगण शोर मचाते थे ॥ ४०६ ॥ उस समय संग्राम भूमिमें हाथी 特に空間を作 શ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष २२० MarAYEKIKARAN ४०६॥सिंधुर: सिंधुरा लग्नाः स्पंदनैः स्यन्दना सम। सप्तिमिः सप्तयो गाद सादिनः सारिभिः सह ॥ १०७॥ कुन्ताकुरित महाजन्यं बगामगि गदागदि । कशाकशि तदा जज्ञे वाणावाणि कराकरि ॥४०८॥ शांडाशांडि तयोर्याद सौरासोरि पदापदि । उपलोपमित भीरूणां प्राणहृत् सुभटोत्सव ॥ ४०६ ॥ (युग्म ) स्वायंभु तदा सैन्य भेजे काष्ठास्टपरा भिया। माघवीयास्त्र भिन्नं सत् का भोर्मर णतो भुवि ।। ४१ ॥ निजं बलं गतच्छाय दृष्ट चा नारायणोऽमितः । प्रलम्बम्नेन सर्घि वा समुत्तस्यौ हगिरेः ।। ४११ ॥ करेणून 7 पातयामास भूधरानिय गोत्रभित् । इयत्करर्दिधानाथः फालाभारतमांसि धा ॥ १२॥ उकारच्युतकोपमा । मुख्यांगे भग्नतां याते व शहाथियोंसे भिड़ गये थे,रथ रथोंसे घोडे घोडोंसे घुडसवार घुडसवारोंसे भालेवाले भालेबालोंसे खग वाले खड्गबालोंसे गदावाले गदावालोंसे कोडावाले कोडावालोंसे वाणवाले बाणवालोंसे लड़ने लगे। बहुतसे सुभट हाथों हाथ युद्ध करने लगे तथा सड़ासीवाले सडासीवालोंसे और इलमूसल वाले व शाहलमूसलवालोंसे युद्ध करने लगे । बहुतसे सुभट आपसमें परोसे युद्ध करने लगे एवं बहुतसे आपस l में पत्थर लेकर युद्ध करने लगे इस प्रकार डरपोकोंको प्राणोंका नाश करनेवाला घोर संग्राम होने । लगा ॥ ४०७-४०६ ॥ राजा मधुके तीक्ष्ण अस्त्रोंसे छिन्न भिन्न हो नारायण स्वयम्भ की सेना | मारे भयके जहां तहां दिशाओंमें भाग गई ठीक ही है मरणसे अधिक संसारमें कोई भय नहीं । ॥ ४१०॥ जिस समय नारायण स्वयम्भ ने अपनी सेनाको हतप्रभ और जहां तहां भागता देखा उस समय उसको आत्मा क्रोधसे भवल गई एवं जिस प्रकार पर्वतसे केहरी उठता है उसी प्रकार है वह भी वलभद्र के साथ शीघ ही युद्धके लिये उठकर तयार हो गया ॥४११॥ जिस प्रकार इन्द्र बड़े । वड़े पर्वतोंको ढाह देता है और सूर्य कज्जलके समान काले अन्धकारको तितर बितर कर देता है उसीप्रकार नारायण स्वयंभ ने वाणोंके समूहले मदोन्मत्त हाथियोंको धराशायी बना दिया ॥१२॥ सेनाके मुख्य अङ्ग हाथियोंको इस प्रकार भग्न होता देख राजा मधुका चित्त हिलने लगा एवं वह मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगा कि यह स्वयंभू वड़ा दुर्धर शत्रु है सामान्य नहीं । किस AAYaayayAYAVAAYA Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AYANAN कंपेति ॥ दुरायोऽयजीयने केन हेतुना ॥ ४१३ || विचिंत्य बहुशः स्वांते शख्यवाणं मुमोच ॥ सैनिका 'येन शतांश्च कीलिता अमवन्निव ॥ ४४ ॥ संमोहन द्वितीय' च तामसास्त्र' तृतीयकं । युगपद्ध्यानशे मुक्त स्वयंभूसंग राज्ञि ॥ ४१५ ॥ मूच्र्छता अपतन्वोरा रावीरा रुधिरारुणाः । गजोपांत स्थिताः सायंरागा इव तमोन्विताः ॥ ४१६ ॥ तमोभिरखिलं सैन्य व्याप्त ं गतमिवाभवत् । प्रलम्बध्न तदा प्राह स्वयं भूर्भूरिविक्रमः ॥ ४१७ ॥ आवाभ्यां किं विधातव्यं भ्रातरद्य वद त्वरा । दुर्जयो कारणसे इसे जीतना चाहिये ? इस प्रकार बहुत समय तक मन ही मन विचार कर राजा | मधुने नारायण स्वयंभू की सेनामें शल्यवाण छोड़ा जिससे उसकी सेनाके समस्त सुभट कीलित हो ज्योंके त्यों रह गये ॥ ४१३ -- ४१४ ॥ मधुने दूसरा संमोहन नामका वाण छोड़ा जिससे समस्त सुभट मूर्छित हो गये। तीसरा तामसा छोड़ा जिससे सर्वत्र अन्धकार हो गया इस प्रकार राजा मधुके द्वारा एक साथ छोड़ े हुए इन तीन वाणोंसे नारायण स्वयंभूका सेना क्षेत्र एक साथ व्याप्त हो गया। उस समय नारायण स्वयंभू के सुभट हा २ शब्द करते हुए पृथ्वी पर गिर गये उनका समस्त अङ्ग लोहू लुहान था और काले हाथियोंके समीप वे पडे थे इसलिये वे अन्धकार से परिपूर्ण सायं कालकी लालामी के समान जान पड़ते थे । ४१५ - ४१६ ॥ अन्धकार से व्याप्त समस्त सैन्य ऐसा जान पडता था मानों यह नष्ट ही हो गया है अपने सैन्य मंडलकी यह शोचनीय दशा देख कर पराक्रमशाली स्वयम्भू ने अपने भाई वलभद्रसे कहा प्रिय भाई ! शीघ्र कहो अब हम दोनोंको क्या कार्य करना चाहिये क्योंकि यह राजा मधु दुर्जय और वलवान शत्रु है एवं मेरु पर्वत के समान निश्चल है यह नियमसे हमें जीत लेगा। देखो तो इस दुष्ट शत्रुने हमारा समस्त सैन्य व्यामुग्ध कर दिया है और जबरन अपने तीक्ष्ण वाणोंसे नष्ट भ्रष्ट कर डाला है। नीति यह सूचित करती है कि जिसप्रकार विष बृक्षकी लता प्राणोंको 寿春 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यं महाशल मेंरुसंस्थोऽनुजेष्यति ॥ ४१८॥ आत्मीय संगर' सर्व पीतं पास लमें रितं । ध्वंसितवानु वाणेन प्रसह्यानेन विद्विषः ॥४४१६॥ व्याधिः शत्रु शत्र हंतव्यो विषवल्लीच वेगतः । अतो हि महोपाय येनादिनियते शमं ॥ ४२० ॥ लांगलीत्यवदद्वंत श्रूयतां रणराजि हत् । विद्याधराचलादर्द्धाक् वर्ततेऽलकपत्तनं ॥ ४२१ ॥ तदधीशो महाचूलो मित्रमस्त्यावयोः परः । तमानयाधिवंभो शत्रु विद्या निराकृतौ ॥४२२|| अवीवदन्निशम्यादो बचो भ्रात्रा समोरित । गतव्य' ते त्वरा देव नास्त्यच विचारणा ॥ ४२३ ॥ सीरी विद्याधरणामा व्योमयानमधिष्ठितः । यात्यवरे यदा सायो विद्विषा किंकृत सदा ॥ ४२४|| नारदोक्त्या धा रक्ष्यंस्त्य वरादिकर्शदया ! हरण करनेवाली होती है इसलिये लोग उसे शीघ्र ही छेद डालते हैं उसी प्रकार व्याधि वा शत्रु | भी प्राणोंका नाशक होता है इसलिये जहां तक बने उसे बहुत जल्दी नष्ट कर डालना चाहिये । भाई ! तुम अब शीघ्र इस शत्रु के नाशका कोई पुष्ट उपाय बताओ जिससे यह शत्रु शीघ्र शांत हो जाय ॥ ४१७ - ४२० ॥ नारायण की यह बोडा जनक बात सुन कर उत्तर में वलभद्रने कहा -- रण विजयी भाई स्वयम्भ ! मैं तुम्हें एक उपाय बतलाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनोविद्याधर पर्वत विजयार्धकी उत्तर श्रेणी में एक अलक पत्तन नामका नगर है उसका स्वामी विद्याधर राजा महाचूल है जो कि हम दोनोंका परम मित्र है । वह मधुकी समस्त विद्याओंके नाश करनेमें समर्थ है इसलिये उसे किसी उपायसे यहां बुलाना चाहिये । बलभद्र धर्मके इस प्रकारके वचन सुनकर नारायण स्वयम्भ को कुछ सन्तोष हुआ और यह कहा भाई ! आप शीघ्र वहां पर चले जाइये अब इस विषयमें विशेष विचार करने के लिये समय नहीं है । वस वलभद्र धर्म किसी विद्याधरके साथ शीघ्र ही विमान पर सवार हो लिये । इस प्रकार वलभद्र धर्म तो आकाशमार्ग से विद्याधर लोककी ओर जा रहे थे इधर राजा नधुने क्या काम किया कि नारदसे यह सुनकर कि वलभद्र, विद्याधर लोकको जा रहा है शीघ्र ही विद्यावल से समस्त आकाश सुरक्षित कर दिया एवं विशाल शत्रु रूपी नागके लिये गरुड़ स्वरूप उस मधुने पुरान KKKK Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मधुनारिवितानाहिधितानगर न हि ॥ ४२५ ॥ पृष्ठतो भ्रामरी विद्या मुक्ता तन्नाशाहेतवे । तयागात्य समादाय क्षिप्तोऽखधौ लांगली महान् ॥ २६ ॥ तन्नपांशुलोजापमक्षावितयात्मक । सस्मार घेमतो गाढमन्खराजमनादिकं ॥ ४२७ ॥ तोथराशिस्थदेवरूप मणिचूलस्य कापतात् । विष्ट(स्य समेत्याशु तव्यबा दधार तथा अयित्वा मणिं दवा तरे मुक्तो गुणात्मकः । तया पुण्य घशारात्र यावदास्ते खग स्मरन् ।। ४२६ ।। तावत्पश्यन समायातः खेवरः खेचरन् द्रुतं । विमाने स्थापयित्या त जगामाशु यथारुचि बलभद्रके नाशके लिये पोछसे भ्रामरी नामकी विद्या छुटकादी। उसने वलभद्रको जिकड़कर || पकड़ लिया और विशाल समुद्र के अंदर धर फेंका ॥ ४२१----४२६ ॥ बलभद्र धर्म जिस समय समुद्रमें पड़ गये वहांपर वे निस्सहाय हो गये एवं अनादि सिद्ध और दो अक्षरस्वरूप 'अहं' इस मंत्र राजको वे जपने लगे। उस समुद्रका स्वामी एक मणिचल नामका देव था।मत्रके प्रभावसे उसका आसन कपा और उसकी अंवा नामकी देवीने ऊपर निकाल लिया। महापुरुष जान प्रेमपूर्वक बलभद्रकी पूजा को । भैंटमे मणि प्रदान की । एवं अनेक गुणों के भंडार स्वरूप उसे RE) तटपर आकर छोड दिया ॥ ४२७–४२६ ॥ वलभद्र धर्म तटपर आकर देखते क्या है कि जिसके विमानमें चढकर आये थे वह विद्याधर जहां तहां आकाशमें घूमता हुआ वहां पर आगया है उसे देख वलभद्रको बड़ा हर्ष हुआ विद्याधरने उन्हे विमानमें चढ़ा लिया और जहां उन्हें पहुंचना था , वहां वे दोनोंके दोनों चल दिये ॥ ४३० ॥ मधुद्वारा छुटकाई हुई भ्रामरी विद्याने फिर भी वलभद्र ! का पीछा न छोड़ो। उसने भेरुण्ड पक्षीका रूप धारण कर लिया और वल्लभद्रको निगल गई। वलशाली बलभद्रने नख और दातोंसे उसे विदार डाला । मुष्टियोंके तीव्र घातोंसे उसका पेट फाड़- 5 कर बाहर निकल गये और पर्वतके ऊपर गिरने लगे, इतनेही में लाघवी नामकी महा विद्यासे उस विद्याधरने वलभद्रको डाट लिया। विमानमें सवार कर लिया और दोनोंके दोनो गङ्गा सरोवर पर Varakalakar एलबमानहर %DBABI Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAPAKAK 199AAY सामारी दुष्टां नखरे र खरः ॥ ४३१ ॥ बलभद्र बलोद्राहुर्मुष्ट्या स्फोटयित्योदर तस्या निःसृत्यासौ पतन् गिरौ ॥ ४३२ ॥ लाघव्या विद्या तेन दूध गगनगामिना । व्योभयानमधि तं मङ्गामा सः ॥ ४३३ ॥ पार्थ पार्य जलं तत्र फार कार' प्रवृत्तिको स्थायं स्थायं स्थिरो गन्तुमिच्छतः स्म तदा त ॥ ४३४ ॥ गत्य बलं नोत्वा गत्वा श्रीखे बराचले सिंहभूत्वारुणाशी सा खादितु तं समागता || ४३५ ॥ तदा शीरी महामन्त स्मृत्वा तां दृढमुष्टिभिः । जघान चरणन्यासकं पिसांगोऽशनिः । ४२६ । दुर्जय तं समावेद्य व्यालवदुर्धर तु सा । गृहीत्वा द्व जाकर पहुंच गये । ४३१ - ४३३ ॥ गङ्गा सरोवर पर पहुचकर उसका जलपान किया। अनेक प्रकारकी चेष्टा कीं एवं कुछ देर विश्राम कर जिस समय आगेको चलनेके लिये उद्यत हुए कि इतनेही में वह भ्रामरी विद्या बलभद्रको विजयार्घ पर्वत पर उठाकर ले गई एवं सिंहका रूप रखकर उसे पानेके लिये तयार हो गई । बलभद्रसे उस समय और कोई उपाय नहीं वना । ग़मोकार मंत्र का स्मरण कर वे वज्रके समान कठोर होकर कठोर मुष्टियोंसे उसे मारने लगे । वलभद्र, जिस समय उसे मार रहे थे पैरोंके जहां तहां पड़नेसे उसका शरीर चल विचल होता था । जब भ्रामरी for यह सोचा कि यह जल्दी जीता नहीं जाता और सपके समान महा भयङ्कर है तो प्रवल पराक्रमी उस बलभद्रको मजवृत्ती से पकड़ लिया और एक विशाल शिलाके नीचे जाकर दवा दिया वस देवी तो वलभद्रको दवाकर किनारे हो गई इतनेही में अपनी स्त्रीके साथ उस पर्वत पर क्रीड़ा करने के लिये विद्याधर महाचूल भी आ गया। जिस शिलाके नीचे वलभद्र धर्म दबे पड़े थे उस शिला पर महा चूलकी दृष्टि पड़ गई । वलभद्रके हलन चलनसे वह शिला हलती चलती थी शिलाको देखते ही विद्याधर महा चूलने समझ लिया कि इसके नीचे कोई व्यक्ति है और यह मंत्र | से कीली हई है बस चकोर पक्षीके समान चञ्चल नेत्रोंसे शोभायमान और विशाल भुजाओं के धारक विद्याधर महाचुलने शीघ्र ही शिलाको उखाड़ डाला। शिलाके नीचेसे वलभद्र धर्म वाहिर ॥ ४३२ ॥ मेोरूपमादाय घात KYKkvk 香剤 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल Күжүүкккккккккккккккках मध्ये चिक्षेपायामशालिनः॥ ४३७॥ शिप्स्वाटिता यदा देवो दवायान् खगः । महाकामियः प्राशः क्रोजितु रामया सह ॥४३८॥ उन्छसंती' शिलां दृष्ट्वा विद्यया कोलितांच सः । उत्तर महाबाहुश्चारुचञ्चश्वकोपदक ५३९ ॥ ततो निःसृत्य वेगेन मुसली खगमीक्ष्य त । आलिलिंग गुणाम्भोधि कृतवान् माषणे मुहुः ॥४४॥ संगरोद्भ तवृत्तांतमयस्वा नीत्या वगं वलो । सोहवालोलया याति तावदन्यकथाऽभवत् ॥ ४४१॥ मधुमुक्ता भ्रामरी सापि दृष्ट्वा तं खगघुग । तन्मुनि पयामास शेलं गोवर्धनाभिध ४४२ खगेनावगता विद्या भ्रामरी भोप्रदा नृणः । ननखलया धाढ़ तां वर्षध तदा खगः ॥४४३५ अन्वयुक्त ति कासि त्वं रण्डे ! दुष्कर्मनिकल आये। अनेक गुणोंके भण्डार विद्याधर महाचूलको देखकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। एकदम मिलने के लिये उससे लिपट गये और वार वार वात चीत करने लगे॥ ४३४---४४० ॥ संग्राममें | जो कुछ भी बात हुई थी सारी वलभद्रने कह सुनाई। विद्याधर महाचूलको अपने साथ ले लिया । एवं वे दोनों आपसमें मैत्रीभाव रख लीलापूर्वक द्वारावतीकी ओर चले ही आ रहे थे कि यह P/ घटना उपस्थित हो गई राजा मधु द्वारा भेजी हुई भ्रामरी विद्याने जिस समय विद्याधरोंमें श्रेष्ट राजा महाचुलको - देखा शीघ्र ही उसने मारने के लिये उस पर गोवधन नामका पर्वत गिरा दिया॥ ४४१-४४२ ॥ भ्रामरी विद्याकी यह कर चोष्टा देखकर विद्याधर महाचलने समझ लिया कि मनुष्योंको भय 2 उत्पन्न करनेवाली यह भ्रामरो नामकी विद्याकी करतूत है । मारे क्रोधसे उसका हृदय प्रज्वलित | हो गया । हाथमें वज शृङ्खला लेली और उसे जिकड कर बांध कर इस प्रकार कहने लगी-अरी | दुष्ट कार्यको करनेवाली राड़ तू कौन है ? जल्दी वता नहीं तो अभी मैं तेरा नाश किये देता हूं। विद्याधर महाचूल की यह बात सुनकर विद्या भ्रामरी एकदम कप गई एवं भयभीत हो वह इसप्र| कार कहने लगी KEYWwwपहर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिमल २२६ I कारिणि । वदान्यथा करिष्यामि विग्रहं निग्रह तब ॥ ४४४ ॥ तोषावेत्य राज्ञा मधुना में बिता सती । दंतुमिच्छामि शास्त्र किलास्मिन् विक्रम नमे ||४४५॥ मुच मुञ्च महाबाहो ! बंधनान्मां प्रथाम्यहं । रवींदुपाने शक्तिः सापकर्तुं न मे त ||४४६ || मुक्त्वाऽऽ काशगामी सशीरिणा सहितोऽगमत् । यत्रास्ते माघको घोरः संगरीरंगल गरे । ४४७ || नत्वा कुशलमापृन्द्र्य बलदेवानुज' विभु जगाद जनितानदो रीतियुक्तमिति स्फुटं ॥ ४४८ ॥ शत्रु मुक्त महाविद्यालय केनापि लध्यते । नैवातो यामि येगेन विद्यासाधनतये ॥ ४४६ ॥ हे मित्रागम्यतां तूर्णं स्वयं भूरगदीदिति । वर चेति गतः शैळे होमन्ते खेचरो महान् ॥ ४५० ॥ नग्नीभूत्वा गलेधृत्वा फणि राजा मधुन वलभद्र धर्मके मारने के लिये मुझे यहां भेजा था परन्तु इसकी अलौकिक शक्ति देख कर मुझे यह विश्वास हो गया है कि मुझमें इसके मारनेकी सामर्थ्य नहीं । प्रिय विद्याधरोंके इंद्र ! कृपाकर तुम मुझे छोड़ दो मैं चली जाती हूँ । यद्यपि मैं सूर्य चन्द्रमाके गिराने की सामर्थ्य रखती हुं परन्तु मैं तुम्हारा किसी प्रकारका अपकार नहीं कर सकती ॥ ४४३ - ४४८ ॥ भ्रामरी विद्याकी यह प्रार्थना सुनकर विद्याधर महाचूलने उसे छोड़ दिया एवं जहां पर संग्राम भूमिके अन्दर राजा मधुकी सेना पडी थी वहां शीघ्र ही वलभद्र धर्मके साथ जाकर पहुंच गया || ४४६ ॥ विद्याधर महा | चूलने बलभद्र के छोटे भाई नारायण स्वयम्भू को प्रणाम किया । नारायण से मिलकर उसे बड़ा आनन्द हुआ एवं नीति परिपूर्ण स्पष्टरूपसे उसने यह कहा - राजा मधुने जो शल्यवाण आदि तीनों महाविद्याओं का प्रयोग किया है। उन तीनोंका हटाना महा कठिन है इसलिये मैं इन तीनों विद्याओंको नाश करनेवाली विद्या सिद्ध करने जा रहा हूं । आप लोग धैर्य रखें। विद्याधर महाचलकी यह बात सुन नारायण स्वयम्भू ने कहा- मित्र ! तुम्हें बहुत जल्दी लौट आना चाहिये ऐसा न हो कि तुम वहां किसी प्रकार से विव | कर लो। उत्तरमें विद्याधर महाचूल यह कह कर कि मैं शीघ्र आऊंगा तत्काल ड्रीमन्त पर्वत पर चला गया। वहां पर उसने समस्त वस्त्र छोड़कर नग्न अवस्था धारण कर ली । गलेमें लाल २ नेत्रों 1 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपएपyakraYERY नं रतलोचन 1 मस्तकेऽस्थिकिरीटं च भूतारण्ये स्थितो निशि ।। ४५१ रुण्डमाला समादाय पदिवशवाहुखेचरी मानसीमाशु ध्या नेन ससाधासौखगाधिपः॥ ४५२।। साधयित्या महाविद्यां शैलोन्नतपयोधरी । दुःसाध्यामागतस्तत्र किं न स्यात्मुक्तोदयात् ।।४५३॥ तत्त्रयो ध्वंसिता तेन विद्यया रविणा यथा। प्रभया तामसं नैश्य हरिणा सिधुरोत्करः ॥ ४५४|| स्पष्ट सैन्यं सदा दृष्ट्वा स्वय'भूः शेर विक्रमः । जघान घनघालेश्ध माधवीय बल बलात् ॥ ४५५ ।। वुर्जय ते समालोक्य मधुः क्रोधाग्निदीपितः । तस्याभिमुखमासाद्य का धारक सपं डाल लिया । मस्तक पर हड्डियोंका मुकुट बांध लिया और रात्रिके समय उस पर्व2 तके भतारण्य नामक वनमें स्थिर होकर बैठ गया। विद्याधरोंके स्वामी राजा महाच लने हाथ में वरुण्डोंकी माला लेकर छत्तीस भुजाओंकी धारक मानसी नामकी विद्याको साधा ॥ ४५०–४५३ ॥ जिसके स्तन पर्वतके समान विशाल हैं और जिसका साधना हर एकके लिये दुःसाध्य है ऐसी उस FEE महा विद्याको विद्याधर महा चलने शीघ्र ही साध लिया। ठीक ही है पुण्यके वलसे क्या बात दुर्लभ रह जाती है ॥ ४५ ॥ उस महा विद्याको सिद्धकर विद्याधर महाच ल शीघ्र ही लौट आया जिस प्रकार सूर्यको प्रभासे रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है। केहरी हाथियोंके झुण्डके झण्डको । अस्त व्यस्त कर डालता है उसी प्रकार उस विद्याके द्वारा विद्याधर महाचुलने शीघ ही राजा मधुकी तीनों विद्याओंको नष्ट कर डाला। शेष नागके समान पराक्रमी नारायण स्वयम्भ ने जिस समय अपनी सेनाको मूळ रहित देखा तो उसे बड़ा आनन्द हुआ एवं अनेक प्रकारके तीन घातों। से उसने राजा मधुके सारे सैन्यको अस्त व्यस्त कर डाला ॥४५४-४५५॥ स्वयम्भू की यह लोकोसत्तर वीरता जिस समय राजा मधुन देखी तो मारे क्रोधसे उसका हृदय प्रज्वलित हो गया। एवं अनेक प्रकारके शस्त्रोस सुसज्जित हो वह शीघ्र ही नारायण स्वयम्भ के सामने आकर डट el गया। नारायण स्वयम्भ के ऊपर उसने अग्नि वाण जलवाण पर्वत वाण और नाग वाण आदि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAPKPATR नानाशास्त्रविशारदः || ४५६ ॥ वहितोयागनागादिवाणान् चिप तं प्रति । हरिस्तोयेन बालेन वज्रवीद्भ्यामशीशमत् ॥ ४५७ ॥ ( क ) विलक्षोऽभून्मधूराजा दृष्ट्वा वाणप्रखण्डनां । विघर्त्याशु तदा चक्र मुमोच मगधाधिप ! || ४५७ ॥ ( ख ) गत्वा कादो समेत्याशु परी स्य दक्षिणे भुजे । स्थितं स्वयं भुवो नूतं पुण्यात्किं न समाप्यते ॥ ४५८ ॥ चक्रे गते जगर्जाथ मधुः परुपया गिरा । मेरोः कोः ब्रख्य 'वारुफोटो जग गघनस्य वा ॥ ४५६ ॥ स्वयंभूः क्षत्रकार रे चेदास्ते शक्तिरुद्धता | मुंच शार परिभ्रम्य त्वरणाकर समां । बहुतसे वाण छोड़ े परन्तु नारायण खयम्भ भी कम न था । उसने अग्निवासको जल वाणसे नष्ट किया। जल वाणको पवन वाणसे हटाया। पर्वत वारणको बज्रवारासे छेदा एवं नाग वाणका नाश गरुड वाणसे किया । नारायण स्वयंभूका यह विचित्र रण कौशल देख एवं अपने बाणोंको छिन्न | भिन्न देख महा अभिमानी राजा मधु लज्जित हो गया और तो उससे कुछ न बन सका क्रोधसे अन्धा हो शीघ्र ही उसने नारायण स्वयंभ के ऊपर चक्र चला दिया। राजा मधु द्वारा छोड़ा हुआ वह चक्र पहिले तो आकाशमें गया पीछे नारायण स्वयम्भ के पास आकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दो और दाहिने हाथ पर आकर बिराज गया ठीक हो है पुण्यके वलसे ऐसी कौनसी दुर्लभ चीजें हैं जिनकी प्राप्ति जीवों को नहीं हो जाती ।। ४५६ – ४५८ ॥ चक्र जाकर जब स्वयंभुके दाहिने हाथ जा धरा तो प्रतिनारायण राजा मधुको नितान्त दुःख हुआ एवं वह इस प्रकार अत्यन्त कठिन वाणी बोलने लगा। राजा मधु की उस समय की ध्वनि इतने जोरसे थी कि लोगोंको यह मालूम | पड़ा था कि यह मेरु पर्वत के गिरानेका वा पृथ्वीके फटने का वी आकाशकी गर्जनाका शब्द है अथवा प्रलयकालमें समस्त जगतको भङ्ग करनेवाले मेघकी गर्जना है ॥ ४५६ ॥ रे अधम क्षत्री स्वयम्भ ू ! चकको पाकर शांत क्यों खडा हैं ? यदि तेरे अन्दर अदभुत शक्ति है तो तू चक्रको भ्रमाकर मेरी ओर छोड़। तू निश्चय समझ यह चक नियमसे तेरे प्राणोंका नाशक होगा। उत्तरमें स्वयम्भू ने कहा SVKVYAPAK NAYAYAYA Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पYAYAWAVA ४६० ॥ स्वयं भूख्याच-महीयासं प्रवृद्ध' च पृथक कातर स्त्रिय' । निरागसंघ शराणामसिन प्रसरेत्कदा ॥४६१ ।। मधुश्वाचIC बिमयोऽसि समुदतु येऽरितामसमित्रभाः । भूभर मलति शषः कूपशायौ व दर्दुः ।। ४६२ ।। स्वयंभूरुयाच- जगदोपि तमःसंघ' नयंत समतां जगत् ॥ चक्रऽभियोगमुष्णां शुः छेत्तुं नो विवरस्थितं ॥ ४६३॥ मधुरुवाच-पंगोर्जिगिमिपा र गतिन स्यात्प्रसारिणो। जो बड़े हैं। वृद्ध हैं । वालक और भयभीत हैं। स्त्रियां हैं और निरपराध हैं उनपर वीर लोग - अपनी तलवार नहीं छोड़ते। मधु ने उत्तर दिया जो महानुभाव शत्रुरूपी अन्धकार के लिये सूर्य समान हैं वे ही खगको धारण कर सकते हैं डरपोक नहीं । लोकमें यह किंवदन्ती है कि पृथ्वीके भारको शेष नाग ही धारण कर सकता है कूपमें रहकर टर टर करनेवाला मैढक नहीं। उत्तरमें नारायण खयम्भ ने कहाkal जो सूर्य समस्त जगतके अन्धकारका नाश करनेवाला है वह विलमें रहनेवाले अन्धकारके नाश करनेके लिये किसी प्रकारका उद्योग नहीं करता क्योंकि उस अन्धकारके नाश न करनेसे उसको महत्तामें किसी प्रकार की कमी नहीं मानी जाती । नारायण स्वयम्भ की यह बात सुनकर मधुने कहीं ___पंगु पुरुष यदि.यह चाहे कि मै मेरु पर्वत पर चढ जाऊ तो वह चढ़ नहीं सकता तथा क्षुद्र | पुरुष यदि यह चाहै कि मैं छोटीसी नावसे विशाल समुद्रको तर जाऊं तो वह तर नहीं सकता। रे | स्वयंभ ! तुझ सरीखा क्षुद्र पुरुष मेरा क्या कर सकता है। उत्तरमें स्वयंभूने कहाkal केही अञ्जन पर्वतके समान विशाल हाथियोंका ही मांस खाता है यदि वह उसे न मिले और उसके प्राण भी चले जाय तो वह शृगालका मांस नहीं खा सकता और न तण ही भक्षण कर सकता है। मधुन उत्तर दिया KATREET Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयपप मन उडुपेन मझाम्भोधित क्ष द्रो न शक यात् ।। ४६४ । स्थय भूरुवाच...अंजनोगनागानां पलमत्ति मृगाहितः । गोमाय न प्राणांते । तृणं वा रक्तकेसः ॥५६५ मधुरुधाच-जन्तयोऽपि बलाक्रांतभूमला भूतलातलाः । क्षिपनि ना तथा नन' कीनाशस्य मुखे कर ॥ ४६६ ॥ लाजकापुत्र ! रे नीचोत्सहसे किमु सांप्रतं । लब्ध्वा चक्र' न शक्तिश्चेवन्यथा क्षिपताजवात् ।। ४६७ ।। स्वयंभुवा तदा । मुक्त' चक्र मधुनराधिप द्विधा चऽथ कालस्य नियोगः केन नंध्यते । ४६८ ॥ रुदध्यानत्वतो मृत्वा गतः श्वदं तमस्तमः । मधु सनी कृतं पापं भोक्तु धा रमन्नतः ॥ ४६६ ॥ अाशा ध्यानशे मस्र केशवस्य गगापुरः । वर्षाध' साधयित्या स बलेनामा I जो पुरुष अपने दिव्य बलसे समस्त पृथ्वीतलको व्याप्त करने वाले हैं और भूतलातलाःसमस्त पृथ्वोतलको पीडित करनेकी सामर्थ्य रखते हैं वे भी यमराजके मुखमें हाथ नहीं डालना चाहतेयमराजसे वे भी डरते हैं। रे दासी पुत्र ! यदि तेरे अन्दर किसी प्रकारका सामर्थ्य नहीं है तो तू चक्रको पाकर अब क्या विचार कर रहा है। यदि कुछ भी सामर्थ रखता है तो शीघ्र उसे मेरे ऊपर चला ॥ ४६०-४६७॥ प्रति नारायण मधुकी इतनी कड़ी बात नारायण स्वयंमूको कब सहन होने वाली थी बस उसनें शीघ्र ही राजा मधुके ऊपर चक्र चला दिया जिससे तत्काल उसके शरीरके दो खंड हो गये.ठीक ही है जिस मनुष्यका जिसरूपसे मरण होना होता है नियमसे उसका | | उसी रूपसे होता हैं-कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। महा अभिमानी राजा मधुके परि-2 णाम मरते समय रौद्र ध्यान रूप थे इसलिये वह मरकर सातये नरक गया वैरसे जो पाप किया | IS जाता है वह नियमसे भोगना होता है ॥ ४६८--४३६ ॥ प्रति नारायण मधुके मरजाने पर अनेक || गुणोंके समुद्र नारायण स्वयम्भकी आज्ञा सर्वत्र फैल गई। भरत क्षेत्रके तीन खण्डोंको उसने सिद्ध कर लिया और वलभद्र धर्मके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। वह पुण्यात्मा स्वयम्भ इन्द्रके समान | निर्विघ्न रूपसे नाना प्रकारके भोग भोगने लगा अपने तीव्र प्रतापसे उसने समस्त शत्र ओंको kel जीतकर उनकी स्त्रियोंको दुःखी बना डाला। वह राजा स्वयम्भू शिष्ट पुरुषोंका अच्छी तरह पालन प्रयकराव पवार पपपप Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखं स्थितः ॥ ४७७ ॥ भुजानो विविधान् भोगान् निर्विघ्नं देवनाथवत् । प्रतापेन जितारीणां नारीणां लोचनांयुकृत् ॥ ४७२ सुशिष्टान् पालयामास दुष्टनाशं चकार सः । अप्सरोरुपरामाणां वक्षोजाम्भोजपट्पदः ॥ ४३२ ॥ राज्ञामाय द्भवानां स सहस्राष्टक से वितः । मंडलीकेतराणां च तावन्मार्थितः पुनः ॥ ४७३ ॥ कियत्यथ गते काले स्वयंभूराये नैधनं । वेवोत्थपापेन पाताल' सप्तमं गतः || ४७४ || श्वभ्रतं तयोदुखः कविवाचामगोचरं । तीर्थकृद्भिर्धिना तद्धि वर्ण्यते नापरं जडः ॥ ४७५ ॥ स्वयभूशोकस रातो इलो गर्गत्यमावान् । आषण्मासाघवेंः काललब्ध्या वैराग्यमाप सः ॥४७॥ गत्वा नत्वा तथा स्तुत्वा जिनं विमलवादन | दीक्षां जग्राह भावेन भावो हि सर्वतोऽधिकः || ४७३ || दुष्करं तपसो सत्रं विधाय ध्यानतत्परः । केबलोत्पादनं कृत्वा जगाम शिवमन्दिरं । करता था और दुष्टों का निग्रह करता था एवं देवांगनाओंके समान महा मनोहरांगी स्त्रियों के साथ भोग विलास करनेवाला थां ॥ ४७० - ४७५ ॥ राजा वयम्भू के आठ हजार तो आर्य राजा सेवक थे और आठ ही हजार म्लेच्छ राजा उसको सेवा करते थे। इस प्रकार बहुत काल राज्य सुख | भोगते २ राजा स्वयम्भ का अन्तकाल हो गया एवं तीव्र वैरके कारण वे भी सातवे नरकमें जाकर उत्पन्न हो गये। नरककी वेदना इतनी भयङ्कर है कि विद्वान भो कवि उसका वर्णन नहीं कर सकते। नारायण स्वयम्भू के मर जाने पर वलभद्र धर्मको सीमान्त दुःख हुआ था। शोक संतप्त बलभद्र छह महीना तक स्वयम्भू का शरीर धारण करते फिरे अन्त काल लब्धिकी कृपासे उन्हें यथार्थ मार्गका ज्ञान हुआ इसलिये तत्काल उन्हें संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया। वे बलभद्र धर्म शीघ्र ही भगवान विमलनाथ के समवसरण में गये । नमस्कार कर भगवान विमलनाथ की स्तुति की एवं भावपूर्वक दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली। ठीक ही है सब कार्योंमें भावोंकी ही प्रधानता मानी जाती है ॥ ४७३ - ४७७ ॥ वलभद्र धर्मने तीव्र तप तपा। शुभ ध्यानका आचरण किया जिससे उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हो गई और वे मोक्ष मन्दिरमें जाकर विराज गये । ग्रन्थकार तपकी महिमा वर्णन करते हुए कहते हैं कि घर के आंगन में ही स्वर्ग, राज्य धन सुन्दर रूप यशस्वीपना Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 奇奇観察研 Yaya ४७८१ सांगणं राज्यं धनं रूप यशस्विता । चत्विं वासयत्वं च तपसा किं न साध्यते ॥ निर्जरा यस्मान्नांशे गित्वं मये भये । लेखाः किकरता यांति तत्तपः शस्यते न कि ॥ ४८० ॥ सौभाग्यादिगुणा ये तु तेन कामसुतोत्राः । भवंति रतिभा राम: किन स्यात्सगरादिवत् ॥ ४८१ ॥ अतो द्यूतादिकं कर्म कुत्सितं निदित सतां । परित्यज्य विधातव्यं धर्मपुण्यादिसाधन धर्मात्पुत्राः पवित्राः परमनिधिपतिः किन्तु रूप दुराप्य' सौभाग्य तोर्थकृतचं गजयगणतान्वोतधात्रीश्वरत्वं । चक्रवती और इन्द्रपना ये सारी बातें तपके द्वारा प्राप्त हो जाती हैं ऐसी तीन लोककी कोई चीज नहीं जो तपसे न प्राप्त हो जाती हो। जिसकी कृपाले कर्मों की निर्जरा होती है । भव भव में निरोगताका लाभ होता है और देवगण आज्ञाकारी सेवक बन जाते हैं वही तप संसार में प्रशंसनीय माना जाता है | इसकी कृपा से संसार में सौभाग्य आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है । उसीसे कामदेव के समान सुन्दर पुत्र उत्पन्न होते हैं। तथा रतिके समान परम सुन्दरी स्त्रियोंकी भी प्राप्ति होती है विशेष क्या सगर चक्रवर्ती आदिकी विभूतिके समान विभूतियां इस तपके द्वारा प्राप्त होती हैं इसलिये जो महानुभाव मोक्ष यदि विभूतियोंके इच्छुक हैं उन्हें चाहिये कि जच्चा आदि निन्दित, परिणाम में दुःखदायी समस्त कार्योंका सर्वथा परित्याग कर धर्म और पुण्य आदि के साधन करनेवाले ही कार्योंको करें निन्दित कार्योंकी ओर रंचमात्र भी दृष्टि न डालें ||४७८-४८३ ॥ अन्तमें आचार्य धर्मकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि धर्मके द्वारा ही पवित्र पुत्रोंकी प्राप्ति होती है । उत्तम निधिका स्वामीपना प्राप्त होता है । महा मनोज्ञ रूप सौभाग्य तीर्थकरपना हाथी घोडासे शोभायमान पृथ्वीका ईश्वरपना अप्सराओंके समान स्त्रियोंका मिलना । प्रवल शक्ति जिससे कि शत्रुओंका विध्वन्स किया जाता है प्राप्त होते हैं विशेष क्या स्वर्ग और मोकी प्राप्ति भी धर्म से होती है इसलिये हे विद्वान पुरुषो यदि तुम्हें पुत्र आदि विभूतियोंकी अभिलाषा है तो AYAYA SAVRY Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल YAYAYAYAYAY VAK रामा समोपमाश्च प्रयलबलब्रजध्वस्त शत्रू त्करत वं' । यस्मात्स्वर्गश्व मुक्तिः सकलबुधजनास्त' भजध्वं मज ॥ ४८४ । कृष्णदाससुखदं वृशमेशं लेखनाथनर नाधनता च ध्यः यताशु सुजना नितरां तं श्वेतभूचरसटे शिवमेधः ॥ ४८५ ॥ इत्यार्षे श्रीवृद्विमलनाथपुराणं भट्टारक श्रीरत्नभूषणाम्नायालङ्कारविजन चातुरीसमुद्र चंद्राचाभयभाषा तिवारिका तनूजा कृष्णदासविरचिते ब्रह्ममङ्गलास साहाय्यसापेक्षे श्रीविमलवाहन दोक्षाज्ञानमधुस्वयं नूबलभद्रसमृद्धिवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥ तुम्हें पवित्र धमका अवश्य आराधन करना चाहिये- - भरके लिये भी धर्मसे मुख मोड़ना न चाहिये ॥ ४८४ ॥ हे सज्जनो ! तुम भगवान ऋषभ देवका ध्यान करो जो ऋषभदेव भगवान, ग्रन्थकर्त्ता कृष्णदासके सुखके देनेवाले हैं । जिनके चरण कमलोंकी व २ देवेंद्र और नरेंद्र सेवा करते हैं और जिन्होंने कैलास पर्वतसे मोक्षको पाया है ॥ ४८५ ॥ इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषण की आम्नायके अलङ्कार स्वरूप विद्वानोंकी विचारूपी समुद्रके लिये चन्द्रमा स्वरूप उमय भाषा वीरका पुत्र अपसे छोटे भाई ब्रह्ममंगलदासकी सहायता से ब्रह्मकृष्णदास विरचित वृहद विमलनाथ पुराण में भगair foretreat far fवधान और मधु स्वयंभू और बलभद्र धर्मका समृद्धिका वर्णन करनेवाला चाया सर्व समाप्त हुआ || ४ || 01-4 ३० पांचवां सर्ग । --- Be प्रजापतिं जनं नौमि सादर शर्मसिद्धये । स्याद्रादायक कंप्रगीत सुरयोषितां ॥ १॥ कदा देवमभ्रांतिवर्जितः । जो भगवान जिनेन्द्र प्रजापति आदि ब्रह्मा हैं | कमोंके नाश करनेवाले हैं । स्याद्वाद विद्या के नायक हैं एवं देवांगना अपने कण्ठसे जिनके यशका गान करती हैं उन भगवान जिनेन्द्रको YAYAYAYA 初対 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YANAYANAYANAY भारतेऽत्र महाद्वापे मथुरामुत्तरां ययौ ॥ तत्राकाषोन्महाशमा विष्टरस्य धनाधिपः । गव्यतिद्वादशानां च विशालस्य महास्विरः । ३ ॥ मांगतमा बिमारी चत्वारा तिताः । कासाराणि ततो हंसचक्रक्रीड़ान्वितानि च ॥ ४॥ पंचवर्णमहारत्नपूर्णसंदर्भितो व्यभात् धूलीसाराभिवः शालो लवणोदधिरिवापरः ॥ ५॥ सजलाः सजलास्तत्र खातिकाः पङ्कजांचिताः । विराजते सरोत्रातः कोठालोलतरी कृताः॥६॥ पुष्पाणां वाटिका नानायुपराजिविराजिताः । भांति शृगारसंयुक्ताः स्त्रियो वा हासहर्षिताः ॥ ७ ॥ हैप: प्राकार आका शद्धिधाकारीच सन्दरः । नाट्यशाला विराजते किन्ननिर्तनोत्सः। ८॥ घल्लोनो भूमयो भांति चान्यदुनानसद्वनं । नामाशःखिस अपने कल्याणकी सिद्धिके लिये मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥ १॥ समस्त प्रकारकी भ्रांतिसे । रहित वे भगवान विमलनाथ समस्त पृथ्वीपर विहार करते २ एक दिन भरत क्षेत्रके जम्बूद्वीपको - मथुरा पुरीमें जा पहुचे। कुवेरने अत्यन्त शोभायमान समवसरण रच दिया जो कि बारह गव्यति । प्रमाण था विशाल था और महा कांतिसे देदीप्यमान था ॥२-३॥ समवसरणके अन्दर चार मानस्तम्भ विद्यमान थे जो कि नाना प्रकारके रत्नोंसे व्यात थे। उनसे आगे तलाव शोभायमान थे। जो कि हंस और चकवा पक्षियोंकी क्रीड़ाओंसे व्याप्त थे ॥ ४ ॥धलीशाल नामका शाल वहांपर । अत्यन्त शोभायमान था जो कि पांच वर्णके रलोंके चर्णसे व्याप्त था और मनुष्योंको यह जान || पड़ता था मानो यह लवणोदधि समुद्र है ॥ ५ ॥ धलीशालके चारो ओर विशाल खाइयां शोभायमान थीं जो कि जलसे परिपूर्ण थीं । उनका जल सुगन्धित और उत्तम था। कमलोंसे व्याप्त था। और सरोवरों के सम्बन्धसे उनका जल हिलता डोलता था इसलिये वे ऐसी जान पड़ता थी मानी ! ये अपनी चञ्चल क्रीड़ाओंमें मस्त हैं । खिले हुए मांति भांतिके वहां पर युप्पोंसे व्याप्त वाटिका अत्यन्त शोभायमान थीं जो कि भांति भांतिके पुष्यों के शृङ्गारते शोभायमान और हंसती हुई नियां | सरोखी जान पड़ती थीं ॥ ६-७ ॥भीतर एक सुवर्णमयो प्राकार शोभायमान था जो कि प्रत्यक, सुन्दर था और ऊंचाईसे ऐसा जान पड़ता था मानो यह आकाशके दो खण्ड कर रहा है। उसके । A NA Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । म कीर्ण भमङ्गमरमंडिस ।। ॥ वेदिका रत्वसंदर्भ गर्मिताः स्वनिण मताः । ध्वजदण्द्धा विराजते त्रिशल्सहलसंरण्यकाः ॥ १० ॥ प्राकारो राजते भूयस्तारकालिलसद्यतिः । कला गानां धनं सम्यग्भूरिदानां च सर्वतः ॥११॥ नानामणिसमुश्बद्धर्भाितका हर्यसंचया । दुगोऽय स्फाटिका प्रोः पुरस्तारसंति सत्सभाः ॥ १२॥ निन्धानां समा मस्या कल्पयोपिलभापग । ब्रतिकानां ततः प्रोक्ता ज्योतिःस्त्रीणां समा पुनः ॥ १३ ॥ व्यन्तरस्त्रीसभा नागरामाणां परिपततः । भावनव्यन्तरापर्ण क्रमादुगणत्रयोरिताः ॥ १४ ॥ ऊपर नाट्यशाला विराजमान थीं जो कि किन्नरी जातिकी देवियों के नृत्योंसे अत्यन्त शोभायमान थीं - वहां पर लताओंकी क्यारियां अत्यन्त शोभायमान थी तथा वगोचे और विशाल वन भी अत्यन्त kal शोभा बढ़ा रहे थे जो कि भांति भांतिके वृक्षोंसे व्याप्त थे और चलते फिरते भ्रमरोंसे शोभायमान ॥ ६ ॥ जिनके अन्दर अनेक प्रकारक रत्नोंकी रचना थी और जो अपनी शोभासे देवोक भी चित्त चुरानेवालों थीं ऐसी वहां पर विशाल वेदियां शोभायमान थीं। तीस हजार संख्या प्रमाण kaवजाओंके दण्ड शोभायमान थे ८-१०॥ दूसरा प्रकार चादीका शोभायमान था जिसकी कान्ति तारागणोंसे और भी अधिक शोभायमान थी तथा उसके चारो ओर कल्पवृक्षोंका वन था जो कि IS लोगोंको इच्छाओंका बहुत प्रकारसे पूरण करनेवाला था। जिनको भीत नाना प्रकारको मणियोंसे ka रची थीं ऐसे उत्तमोत्तम महल वहां पर शोभायमान थे। एक स्फटिक पाषाणका बना हुआ किला शोभायमान था और उसके सामने सुन्दर सभायें विद्यमान थीं ॥ ११ ॥ पहिली सभामें निम्रन्य विद्यमान थे। दूसरो सभामें कल्पवासो देवोंकी स्त्रियां थीं। तीसरी सभामें आर्यिकाये थी चौथी | ke सभामें ज्योतिषी देवोंको स्त्रियां थीं। पांचवी सभामें व्यन्तरोंकी स्त्रियां थीं । छठी सभा भवन वासो देवोंके स्त्रियां थी। सातवी सभामें भवनवासी देव थे।आठवीं सभामें व्यन्तर देव थ । नवमी सभामें ज्योतिसी देव थे। दशवीं सभामें कल्पवासी देव थे । ग्यारहवीं सभामें मनुष्य थे और बार HEREIPTREKKRIYARAMRACHNA Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानुष णां पशमा सना शोमापरावहा । तन्मध्यस्थमहापीठ सिंहकूमो दयभिध ॥१५॥ तन्मध्ये एहज हममष्टायुतदलदलत् श्रीमद् विमलनाथोऽसौ व्यभात्तदुपरि स्थितः ॥ १६ ॥ बिंशतीनां सहस्राण सोपानानां व्यभादरः । चतुःप्राकारका भूयो भित्तयः पञ्चराजिताः ।। १७॥ षनिशत्पतोल्पश्च जयध्यानाः सुकृताः । अप्सरोरिक्तकण्टश्च कतराना मनोहराः ॥ १८॥ जिनागोत्सेधत: प्रोचयाकारमितयः । दुवादशगुणा भाति मानस्तंभाश्च चित्विषः ॥ १६॥ चतुर्गुणा विशालाश्च चदयो राजिरेऽलकं । पद्मराग परागादिनानारत्नत्रयांशयः ॥ २० ॥ भूमेः पञ्चसहस्त्राणि धनुषां यादवम॑नि । गत्या विलोकनोयाऽथ शोभा श्रीविष्टरस्य च ॥ २१ ॥ हवीं सभा पशु विद्यमान थे इस प्रकार ये वारह सभायें थीं । सभाओंके मध्यभागमें एक सिंहकूर्म नामका सिंहासन था और उसके मध्यभागमें सुवर्णमयी कमल था जो कि एक हजार आठ पत्तोंसे शोभायमान था उसके ऊपर भगवान विमलनाथ विराजमान थे । वह समवसरण बोस हजार सीढियोंसे शोभायमान था। उसमें चार प्राकार थे और महा मनोज्ञ पांच भीतिये थीं । उनके भीतर छत्तीस गलियां थीं जिनमें कि देव गण जय जय शब्द करते थे। अप्सराओंके सुरोले कंठोसे रागोंकी छटा छटक रही थी जिससे वे अत्यंत मनोहर जान पड़ते थे। to भगवान जिनेंद्रके शरीरकी अवगाहनासे प्राकार और भित्तिओंको उचाई बारह गुणी अधिक kal थी इसी तरह भांति २ की कांतियोंसे व्याप्त मानस्तंभ भी विद्यमान थे चेदियां (मंडपशालायें ) भगवान जिनेन्द्रकी अवगाहनासे चौगुनी और विशाल थीं तथा पद्मराग आदि नाना प्रकारके - रनोंकी किरणोंसे व्याप्त थीं ॥ १२-२०॥ पृथ्वीसे पांच हजार धनुष आकाशमें जानेपर ली. समवसरणकी शोभा देखी जा सकती थी । वहांपर साढ़े बारह करोड़ बाजोंके घोर शब्द ILE होते थे इसप्रकार वहांपर समवसरणकी शोभा लोकोत्तर थी। तथा भगवान जिनेंद्रके माहात्म्यसे छहो ऋतुओंके फल फूलोंसे बृन्न लद बदा गये थे । इसप्रकार समवसरणकी शोभा और छहों . ऋतुओं के फल फूलोंकी अपूर्व शोभा देखकर और कुछ फल एवं फूलोंको राजाकी अटके लिये achhkkkkarki Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल ३७ KKAVARKE साधं द्वादशकोटोनां वादिवाणां महारथाः । एवमादिमहाशोनां वा नकर्मी ||२२|| दृष्ट्वा मालाकरोनीत्वा फलानि कुसुमानि | मेरुमन्दरयो मुमोचेति वदन् भृशं ॥ २३ ॥ देवः श्री किन्नरो ने समायातोऽस्ति श्रजिनः । तत्प्रभावान्नगा वंध्या जज्ञिरे फल संयुक्ताः || २४ || शोभा सर्वद्वनात संभूयेव विलोकितुं । प्रादुरासीत्सुकारितारापुष्पविलोचना ॥ २९ ॥ श्रुत्वा तन्मुखतोऽदायि तस्मै ताभ्यां धनं ॥ पुण्याटित जगन्नाथं जिनं श्रीमद राजपुत्र सुका मारो वदितु जग्मतुः पुरात् ॥ २७ ॥ महासेनासमुङ्गारसागरोत्तरपक्षभौ । अराविध्यसको सर्वसामंताविराजिती ॥ २८ ॥ ( युग्मं ) लेकर मालकार शीघ्र हो मथुरा नगरीकी ओर चल दिया उस समय मथुरापुरी के स्वामी राजा मेरु र मंदिर दोनों भाई थे । मालीने राजसभा में पहुंच कर उनके सामने फल फूलों की भेंट रखदी और इसप्रकार आनंदमयी बात सुनाने लगा स्वामिन् ! किन्नर नामके उद्यानमें भगवान विमलनाथका समवसरण आया है। भगवान विमलनाथके माहात्म्यसे जो वृक्ष बांझ थे कभी भी जिनपर फल फूल नहीं लगते थे वे इससमय फल और फूलोंसे व्याप्त हो गये हैं ॥ २० - २४ ॥ समस्त ऋतुओं में होनेवाले फल और फूलोंसे वृचों के लदपदा जानेसे यह जान पड़ता है कि नाना प्रकारके पुष्पों की लालसा से परिपूर्ण और ताराओंके समान पुष्परूपी नेत्रोंकी धारक समस्त ऋतुओं में होनेवाली शोभा ही मिलकर भग| वान जिनेन्द्रको देखने के लिये आकर प्राप्त हो गई हैं ||२५|| माली के मुखसे इस प्रकार के हर्ष समाचार सुत राजपुत्र मेरु और मन्दिरको बड़ा आनन्द हुआ । भगवान जिनेन्द्रके अन्दर अपनी भक्ति प्रगट करनेके लिये उन्होंने विशाल धन वस्त्र और अलङ्कार मालीको प्रदान किये । कामदेवके समान सुन्दर राजपुत्र मेरु और मन्दिरने यह समझकर कि भगवान जिनेन्द्रका पधारना बड़े पुण्य से हुआ है शीघ्र ही उनकी वंदनाके लिये वे नगरसे चल दिये। उस समय वे दोनों राजपुत्र विशाल お花が宿る おお Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल २३८ KEK महाभूत्या जि पूज्य स्तुत्या गंधादिभिः पुनः । नयेादशमे कोष्ठ तस्यतुः साक्षर तकौ ॥ २६ ॥ एश्योरा शिध्वनिर्दिव्यशयोवाच जिनाधिपः । महानदिशत्तस्याधरवंशे न दृश्यते ।। ३० ।। गृहस्थयमिनां धमें प्रोक्वा पूर्व सतः परं । तद्रव्यपदार्थादिधर्म गदित सर्वकाल पुरा वान्! ॥ ३१ ॥ अनादिनिधनो धो विद्यते संगुनी भ्रमात् । कर्मयंलकृतः फेन नास्ति रलत्रयात्मकः ॥ ३२ ॥ प्राणी जति भेाः । कदाचित्स्तन्न स जीवों गद्यते जिनैः ॥ ३३ ॥ दिवषभेदोपयोगात्मा कर्ता व्यवहारतः खलु । अमृ सेनाके भारसे विशाल समुद्रको तरनेको सामर्थ्य रखते थे। वैरियोंका ध्वंस करनेवाले थे एवं समस्त सामन्तों से शोभायमान थे || २६ -- २८ ॥ समवसरण में प्रवेशकर मेरु और मन्दिरने बड़े ठाट वाटसे भगवान जिनेन्द्रकी जल चन्दन आदि अष्ट द्रव्योंसे पूजा की। मनोहर पद्योंमें स्तुति की एवं भक्ति-पूर्वक नमस्कार कर बड़े आदरसे मनुष्य कोटमें जाकर बैठ गये ॥ २६ ॥ समुद्र के समान गम्भीर ध्वनिके धारक भगवान जिनेन्द्र अपनी दिव्य ध्वनि से धर्मका स्वरूप वर्णन करने लगे । बोलते समय अन्य मनुष्यों के तो होठ चलते हैं परन्तु भगवान जिनेन्द्रके अन्दर यह महान् अतिशय था कि उनके होठ किसी प्रकार हिलते डुलते न थे ॥ ३० ॥ भगवान जिनेन्द्र ने सबसे पहिले हस्थ और सुनियोंके धर्मका वर्णन किया पीछे सात तत्व पांच द्रव्य और नव पदार्थों का स्वरूप निरूपण किया ॥ ३१ ॥ वह इसप्रकार हैं इस जीवकी न तो आदि है और न अन्त है । यह अनादि निधन है और कर्मरूपी के में पड़कर यह बरावर संसार में घूमता रहता है। यह किसीका बनाया हुआ नहीं है और सम्यग्दशेन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रयका स्वामी हैं ॥ ३२ ॥ यह जीव अपने जीवत्व रूपसे सदा काल जीता है कभी भी इसका प्रलय नहीं होता इसलिये जो अपने जीवत्वरूपसे सदा फाल जीवे और जिसका कभी भी प्रलय न हो वह भगवान जिनेन्द्रने जीव द्रव्य कहा है ॥ ३३॥ यह जीव आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारका दर्शन इसप्रकार वारह प्रकारके उपयोग स्वरूप हैं । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल २३६ YRKK पितं स्थायी भोक्ता भवस्थितः ॥ ३४ ॥ कालत्रये सर्वस्यस्य प्राणाश्चत्वार एव च । सत्तासौख्य महाबोधचेतना गदिता इति ॥ ३५ || व्यवहार तथा ख्याता दश प्रामा जिनागमे । मनोवाक्कायश्वासायुः पंच खार्ना च पच हि ॥ ३६ ॥ उपयोगो द्विधा ख्यातो दर्शनज्ञानभेदतः । चक्षुरक्ष, रवधिदर्शन केवलं मतं ॥ ३७ ॥ ज्ञानं चाष्टविध प्रोक' मतिः श्रोतावत्रीतः तद्ज्ञानवयं प्रोक्त मन:पर्यय चले ॥ ३८ ॥ प्रमाणाभ्यां नितिं ज्ञामा सामान्यापेक्षया भूमं लक्षण देहिनां ॥ १६ ॥ नित्यं शुद्ध' समाख्यातं ज्ञानदर्शनयोर्द्वयं । ज्ञानं राज्ञायते येन त्रलोक्यं सचराचर ॥ ४० ॥ दृश्यते येन सूक्ष्मादि शोक्यार्था यथास्थिताः । भूताश्च वर्त भाविनो दर्शन हि तत् ॥ ४१ ॥ वर्णाः पचति रक्तश्च कृष्णश्वती पिशङ्गकः । हरितो देहिनः प्रोक्ताः सामात्यान्तै निश्वव्यवहार नयसे अपने कर्मोंका कर्ता है। अमूर्तिक है। जब तक इसका शरीर के साथ सम्बन्ध है तब तक संसारमें रहनेवाला है ॥ ३४ ॥ तोनों काल इसके चार प्राण सदा देदीप्यमान रहते हैं और वे चार प्राण सत्ता सौख्य ज्ञान और चेतना ये हैं || ३५ ॥ व्यवहार नयको अपेक्षा जीवके मन वचन काय श्वासोच्छ्वास आयु और स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियां ये दश प्राण हैं ॥ ३६ ॥ दर्शन और ज्ञान के भेद से उपयोग दोप्रकारका माना है। चतुदर्शन अचक्षु दर्शन अवधि दर्शन और केवल दर्शन के भेद से दर्शन चार प्रकारका है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान कुमति कुश्रुत और अवधि, मन:पर्यय और केवल इस प्रकार ज्ञान आठ प्रकारका माना है। ये जो मतिज्ञान आदि आठ भेद माने हैं वे प्रमाणके भेद प्रत्यक्ष और परोक्षसे युक्त हैं अर्थात् अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं और बाकीके परोच हैं। जीवका यह उपयोग ही सामान्य लक्षण है ॥ ३७-३६ ॥ ज्ञान और दर्शन यह दोनों प्रकारका उपयोग नित्य है कभी भी इसका विनाश नहीं होता और शुद्ध है। जिसके द्वारा तीन लोक सम्बन्धी चराचर पदार्थ जाने जायें वह ज्ञान कहा जाता है । तथा तीन लोक सम्बन्धी और भूत भविष्यत वर्तमान तीन काल संबंधी पदार्थ यथावस्थित रूपसे जिसके द्वारा दीखें बह दर्शन नामका उपयोग है ॥ ४०-४१ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saksakska skskska यात् ॥४२॥ पुद्गलात्कर्मको जीयः सौख्यदुःखादिधाधनं । व्यवहारा निश्चयात्सिदः कर्माभावान्निर जनः ।। ३ ।। बड़सा मिष्टतो गौच करायकटकावणे पाठिक चेति सामान्यात्पञ्च वा तीक्षणक्षारता ४४|| गंध: स्वादि बधो ननं सुगंधेतरभेदतः। अनी । स्पर्शाश्च सामान्यात् स्निग्धलक्षौ लघुर्गरः॥ १५ ।। उष्णशीतौ दृढो भयः कोमलचति वस्तुत: । निर्वन्धो ज्ञानवान् शुद्ध) ज्योतीरूसे ऽको ध्रुवं ॥ ४६॥ यावह स्थिती देही यावाश्च लधुको गुरुः । उपसंहारावसंहारभेदाभ्यां च जिनागमें ॥ १७॥ निश्चयादिना ना स्त कषायो विक्रियाऽथवा। भारणांतिकतजस्काहारा जीषस्य चिदतः ॥ १८॥ समुद्याता इति प्रोक्ताः सप्तमः केवला भिधः । आत्मा निश्चय नयसे न मान कर सामान्यरूपसे लाल काला सफेद पीला और हरा यह पांच प्रकारका वर्ण माना है। व्यवहार नयकी अपेक्षा यह जीवात्मा पुदगलीक कर्मको कृपासे सुखी दुःखी होता है किंतु निश्चय नयकी अपेक्षा यह समस्त प्रकार के कर्मोंसे रहित है और कर्म कालिमासे रहित होने के कारण निरंजन है ॥ ४२-४३॥ मीठो तीखा कषैला कड़वा नुनखरा और खट्टा विशेष रूपसे ये छह रस | PSI माने है किंतु सामान्यसे तीखापन खारापनको एक मानकर पांच ही रस माने गये हैं। सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे गंध दो प्रकारका माना है। चिकना रूखा हलका भारी गरम ठण्डा और कठोर कोमल, सामान्य रूपसे यह आठ प्रकारका स्पर्श माना है। यह जीव इन वर्ण रस गन्ध और स्पका शीसे रहित है । बन्धहीन है। ज्ञानवान शुद्ध ज्योतिरूप सुख स्वरूप और अविनाशी है ॥ ४३.४६५ * जब तक यह जीव देहके अन्दर विद्यमान रहता है तब तक देही कहा जाता है एवं संकोच और बिकास शक्तिका धारक होनेसे यह अपने शरीरके प्रमाण कभी लघु गुरु भी है । वेदना स. ! AS मुद्धात १ कषायसमुद्धात २ विक्रिया समुद्धात ३ मारणांतिकसमुद्रात • तेजससमुद्घात ५ आ* हारकसमुद्घात ६ और केवल समुदघात ७ ये सात प्रकारके समुद्घात माने है । निश्चय नयसेर यह आत्मा सातो प्रकारके समुदघातोंसे रहित है और लोक जिसप्रकार असंख्यात प्रदेशी माना है उसीप्रकार यह असंख्यात प्रदेशी है ४७-४६ ॥ स्थावरोंके व्यालीस भेद माने हैं । तथा देव Karkariwar RTHREEREYSERVIE r ls Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TV हत्यपहचापपपपपपाखर संक्यप्रदेशश्व लोकवस्तुतो यतः ॥ ४ ॥ स्थावराणां विचधारिशङ्गेशश्व विरायुगां । सुररणां नारकाणां व द्वौ भे ही श्रीजिनागने और नारिकियोंके दो दो भेद हैं तिर्यंचोंक चोतोस मनुष्योंक नौ और विकलेन्द्रिय दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय इस प्रकार विकलेन्द्रियोंके नौ मिजकर जीवों के सव भेद ६८ हैं । खुलासा इस प्रकार है-- | पृथिवी जल तेज वायु नित्य निगोद और इतर निगोद इन सातोंको सूक्ष्म और वादरसे व गुणा करनेपर चौदह भेद हो जाते हैं तथा उन चौदह भेदोंको पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त| ले गुणा करने पर व्यालोस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार स्थावरोंके व्यालीस भेद हैं । पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे मनुष्य भी दो प्रकारके हैं और नारकी भी दो प्रकारके हैं । जलचर थल चर और नभचर इन तीनोंको संज्ञो और असंज्ञीसे गुणने पर छह भेद हो जाते हैं । भोगभूमिमें 5 उत्पन्न होनेवाले गर्भज जीव थलचर और नभचरके भेदसे दो प्रकारके हैं। इव दो को पहिले छहों के साथ जोड़ने पर पाठ भेद हो जाते हैं। इन आठोंको पर्याप्त और अपर्याप्तसे गुणने पर * सोलह भेद होते हैं । जिन जलचर थलचर और नभचर जीवोंको संज्ञी असंज्ञीके भेदसे दो प्रकार कह आये हैं उन्हें सम्मूछन मानकर पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तसे गुणा करने पर अठारह भेद हो जाते हैं। अठारह और सोलहको आपसमें जोड़ने पर चौंतीस भेद हो जाते हैं इसप्रकार तियंचोंके चौंतीस भेद हैं। आर्य मनुष्य म्लेच्छमनुष्य भोग भूमिज मनुष्य और कुभोग भूमिज | मनुष्य इन चारोंको पर्याप्त अपर्याप्तसे गुणने पर आठ भेद हो जाते हैं। इन आठोंमें संमूर्छन मनुष्य नामका भेद जोड़ देने पर नो भेद हो जाते हैं ये नौ भेद मनुष्योंके हैं । दोइन्द्रिय तेइ krkkkkakkavo Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५॥ चतुनिशत्प्रमाष्टमेदास्तिरश्चांच नपा नव । नव विकलेन्द्राणामित्यष्टानवतिमाः ॥५६॥ मार्गपोर्गुणश्चैव चतुर्वश मिरात्मनः । संसारित्वं च सामान्यात्सिद्धत्व निश्वयाग्मतं ॥५२॥ जीवास्तु द्विविधाः प्रोक्ता मुक्ताः संसारिणोऽपरे । जीवास्तु विविधाः प्रोक्ता भल्याभव्यत्वभेदतः ॥५३॥ समनस्कामनस्काश्व ते भूयो विधिधा मताः । प्रणीताः सरिभिर्भूयः स्थाचा जङ्गमा इति ।। ५४ ॥ साकोराश्य निराकाराः सिद्धा मेयात्मवातवतो मेव एकोऽस्ति सिद्धानां नापर कचित् ॥५५॥ कर्माष्टकाचिनि:फ्रांता गुणाष्टकनिधीश्वराः । किंचितूनाः स्वदेहान्य सिद्धा लोकाप्रयासिनः ॥ ५६ ॥ चतुर्धा बन्धनिर्मुक्का ऊध्र्य यांति ततोऽपरे। न्द्रिय चौइन्द्रिय इन तीनोंको पर्याप्त अपर्याप्त और लम्यपर्याप्त से गगानेपर नौ भेद हो जाते हैं इस प्रकार कुल जीवोंके मिलाकर अठानवे भेद हैं ॥ ५०–५१॥ गति इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणार Ka और मिथ्यात्व सासादन आदि चौदह गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीव चौदह प्रकार माने हैं। व्यवहार नयसे आत्मा संसारी और निश्चय नयले सिद्ध माना जाता है। सामान्यसे संसारो और मुक्तके भेदसे जोव दो प्रकारके हैं । भव्य और अभब्यके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके है । समनस्क | और अमनस्कके भेदसे भी संसारी जीव दो प्रकारके हैं । जो मनसहित हों वे समनस्क और जो मन रहित हों वे अमनस्क कहे जाते हैं। इस प्रकार स्थावर और उसके भेदसे संसारीजीवोंका यह संक्षेप स्वरूप है ॥ ५२-५४॥ साकार और निराकारके भेदसे सिद्ध दो प्रकारके हैं । ये दो भेद । ked ब्यवहार नयसे हैं निश्चय नयसे तो सिद्धोंका एक ही भेद हैं । दूसरा कोई भेद नहीं। ये सिद्ध पर मेष्ठी आठ कमों से रहित हैं। सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंके स्वामी है। चरम शरीरके आकारसे कुछ ऊन आकारके धारक हैं और लोकके अग्रभागमें विराजमान हैं ॥५५.--.५६॥ प्रकृतिबन्ध स्थि-- तिबन्ध अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध इन चारों प्रकारके बन्धोंसे रहित महा पुरुषों को केवल ऊर्ध्व IS गति ही होती है। निश्चयरूपसे विदिशा आदिमें गमन नहीं होता । अभव्य भी जीव तपश्चरण कर धेयक पर्यन्त चले जाते हैं। निगोद जीवपांच प्रकारके हैं और भेद उनके अनन्तानन्त माने घपला PANEYAyAYANAYANAYA Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिमल २४३ विदिशा दिविधि' कृत्वा गतिं योति न संशयः ॥ ५७ ॥ अनन्योऽपि तपस्या यात्या नेप भृशं । निगोशः पञ्चधा प्रोक्तास्तेऽतानंतभेदकाः॥५८॥ अनन्तानंतगुणितान् निगोदान् सिद्धतोऽवदन् । अनन्तानन्तकालेषु राजांत श्रीजिनेश्वराः || ५१|| शुक्तिका कमिशङ्काथा जलका बालकस्तथा । कपी चेति यक्षाः स्युर्जिन देवागमेऽगमे ॥ ६० ॥ मत्कुणाः कुन्यवो यूकाः प्रपेल्युई हिफाः पुनः । गोभ्यादशेऽ परे जोवास्थ्यक्षाः श्रीजिनभाषिताः ॥ ६१ ॥ पटा मशका देशा मक्षिकाः शलभास्तथा | पतंगाद्याः समाख्यातास्तुर्थक्षा: पूर्व सूरिभिः || ६२ ॥ तिर्य'वो नरदेवाश्व नारकाः खमचारिणः । जलस्थलनता जीवाः पञ्चाक्षाः संमता मतः ॥ ६३ ॥ एकद्रयक्षादिजीवानां हैं। जैन सिद्धान्तके अन्दर यह बात बतलाई गई हैं अनंतानंत कालोंमें निगोदराशि सिद्धराशिसे अनंतानंत गुणी अधिक है ।।५७-५८ ॥ सीप मकोड़े शंख आदि जोंक ये जीव तथा बालक जातिके और कपर्दी जातिके जीव दो इन्द्रिय माने हैं। खटमल कुन्थुनामके जीव यूक और गोह आदिक जीव तेइन्द्रिय हैं। मच्छर डांस माखी शलभ और पतङ्ग आदि जीव चौइन्द्रिय है । तियंच मनुष्य देश | नारकी नभचर जलचर और पलवर जीव केंद्रिय हैं । एकेंद्रिय दोइन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति करनेवाला मन ही है क्योंकि मनरूपी वीज ही वंधरूपी वृक्षका उत्पन्न करनेवाला है और बन्धका कारण होने से मोक्ष की प्राप्तिका बाधक है । ५६-६३॥ यदि मनको वश कर लिया जाय तो सिद्धपने की प्राप्ति दूर नहीं है और यदि मन चंचल बना रहे तो संसार दूर नहीं है अर्थात् मनको बस कर से मोकी प्राप्ति होती है और मनके वश न करनेसे संसार में रुलना पड़ता है । ज्ञानावरण आदि मुख्य कर्मोंके जीतनेमें उपवास आदि तप वाह्य कारण हैं वास्तवमें महा बलवान मनका जीतना हो मुख्य कर्मका जीतना है। जो महानुभाव परमात्मपदको अभिलाषा रखनेवाले हैं वे करोड़ों प्रकार के वाह्य तप तपें तो वा क्षण भरके लिये मन वश करें तो दोनोंका फल उनके लिये समान ही है । | अर्थात् वे करोडों प्रकारके बाह्य तपोंके आचरणसे जितने कर्मोंको खिपा सकते हैं उतने ही दण भरके लिये मनको रोकने से भी खिपा सकते हैं ॥ ६४-६६ ॥ जिन महानुभावोंने आत्माको पहि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल YAYAYAY पत्रपत्रपत्र प्रदेषः संयुपचिकारकं । मन ए कई कर्मबन्धमोक्षाकर' यतः ॥ ६४ ॥ स्वायते मनसि नून सिद्धत्वं नैव दूरतः । चंचले मनसि नृणां संसारत्वं न दूरतः ॥ ६५ ॥ उपोषकादितपसः कर्तव्यं वाह्यमुख्यते । उप्रोप्रमनसो नूनं नेतृत्वं मुख्यकर्मणां ॥ ६६ ॥ समाकोटिसमु तमाम तपसा फलं । क्षणाचन्मनसो रोधात्परमात्मावलंवितः ॥ ६६ ॥ आत्माध्यवगतो येन तेन लब्धं पर महः । तपोऽप्यकारि लहानमदायि खापछि श्रुतं ॥ ६७ ॥ पार्थ तपोभिर्दह्यते तनुः ॥ ६८ ॥ जीवतस्त्वं समाख्यायाजीवतत्त्वं निगद्यते । पुलावा धर्माधर्मावाकाशमेव च ॥ ६६ ॥ कालस्तेषां समाख्यातः पुद्गको मूर्तिमान् गुणैः पूरण गलनार्थी व पुद्गगलो ध्वन्यते जिनैः ॥ ७० ॥ शब्दो बन्धोऽथ संस्थानं समरच्छायातपा मताः । उद्योतः पुत्रस्यैष पर्याया मदागमे चान लिया है उन्होंने हो संसारमें सर्वोच्च तेजकी प्राप्ति करली है ऐसा समझ लेना चाहिये तथा उन्होंने उत्तम तप तपा है। उन्होंने उत्तम दान दिया है और उन्होंने सिद्धांतको पढ़ा है ऐसा भी समझ लेना चाहिये ॥ ६७ ॥ जो पुरुष आत्मा के स्वरूपको न समझकर बाहिर बाहिर घूमनेवाले हैं वे संसारके सुखको ही परम सुख मानकर उसकी प्राप्ति के लिये पूर्ण प्रयत्न करते रहते हैं और वे जो भी तप तपते हैं वे केवल शरीरको ही उससे जलाते हैं। इस प्रकार जीवतत्त्वका वर्णन कर दिया गया जीवतका वर्णन इसप्रकार है पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल के भेदसे जीव तत्त्व पांच प्रकारका माना है । उनमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिमान है क्योंकि वह रूप आदि मूर्तिक गुण स्वरूप हैं। जो पूरा जा सके और जो गल सके वह पुद्गल द्रव्य है ऐसा भगवान जिनेन्द्रने पुद्गल क्रयका स्वरूप वतलाया है । शब्द बंध सूक्ष्मता स्थूलता प्रकार अंधकार छाया आतप -सूर्यका प्रकाश, उद्योत चंद्रमाका प्रकाशये सव पुदगल द्रव्यकी ही पर्यायें हैं ॥ ६७-७० ॥ जिस प्रकार मछलियोंके गमनमें सहायता पहुंचानेवाला जल माना गया है- बिना जलके मछलियां नहीं चल सकती उसीप्रकार जीव और पुनलोंके गमनमे सहकारी कारण धर्म द्रव्य है । CREKR Pseene Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .r७१॥चतिष जीवानां धोऽयं साधकम्मतः । पुतलानां य मत्याना बारिखद्गणनाथ: ।। ७२ ॥ जोवाना पुद्गलानां च स्थान' दातु हि शक्तिमान् । अधर्मः पथिकानां पा छाया नैसर्गतो भृशं ।।७३ ॥ अवकाश विद्यते योग्य जीवादीनां विशेषतः । तल्लोकाकाश मास्यातमलोकस्तत्परो यतः ॥ ७॥नवजीर्षकरः कालो ध्यपहारस्तत: परः । एकरूपतया ख्यातो निश्चयो रत्नराशिवत् ॥ ७५॥ काल स्य प्रदेशत्वादकायो मधते मतैः। जीवाजीवोऽथ धर्मश्चाध संख्यप्रदेशवान् ॥ ७६ ॥ आकाशप्रोच्यते पूर्व प्रदेशोऽनन्तबदुवं । A जहां तक धर्म द्रव्यका संबंध रहता है वहीं तक जीव और पुद्गलोंकी गति होती है आगे नहीं होतो Lal जिस प्रकार छाया पथिक जनोंको ठहरानेवाली होती हैं-धूपके तापसे संतप्त पथिक जिस समय S/ किसी वृक्षको शीतलछाया देख लेता है तो कुछ विश्रामकी अभिलाषासे उसके नीचं ठहर जाता RA है। यदि वृक्षकी छाया न हो तो वह ठहर नहीं सकता उसीप्रकार जीव पुद्गलोंकी स्थितिमे कारण 25 अधर्म द्रव्य है । अधर्म द्रव्यकी सहायतासे ही जीव और पुद्गलोंकी स्थिति होती है ॥ ७१–७२॥ आकाशके लोकाकाश और अलोकाकाशके भेदसे दो भेद माने हैं जीव आदि द्रव्योंको जो विशेष ME रूपसे अवकाश दान दे वह लोकाकाश है और उसके आगे अलोकाकाश है । व्यवहार और निश्चयके भेदसे काल द्रव्यके भो दो भेद माने हैं । द्रव्योंकी जो नई पुरानी आदि पर्यायोंके कराIS नेमें कारण है वह व्यवहार काल है और जो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक IM एक रूपसे स्थित है । रत्नोंको राशिके समान जिसके अणू जुदे जुदे हैं वह निश्चय काल द्रव्य है | ॥७३-७४ ॥ जिसके प्रदेश आपसमें मिल सकें वह काय कहलाता है काल द्रव्यके प्रदेशोंका - मिलना नहीं होता और न उनमें मिलनेकी शक्ति ही है इसलिये काल द्रव्यको अकाय माना है। Fel जीव काल धर्म और अधर्म द्रव्य इनमें प्रत्येकके असंख्याते असंख्याते प्रदेश हैं। आकाशके प्रदेश 21 अनंत हैं तथा पुद्गलके संख्यात भी प्रदेश हैं असंख्यात भी प्रदेश हैं और अनन्त भी प्रदेश हैं । PrakashNEPersial ЕКүжүжұkektKKekkkkkkҮК Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KI TOTO .प | त्रिविधः पुद्गलोऽनन्तसंण्यासासंख्ययानिति ॥७७ अकालास्ते समात्यासाः कायाः पञ्चास्तिसंशफाः । जीवाजोवानवा बन्धसम्बरौ मिर्ज राशिौं ॥ ७॥ तत्त्वान्येतानि पुण्यनोभ्यामाख्याताः पदार्थकाः । आफ्नयो विवियो भाषद्रव्यभेदात्मकीर्तितः ॥ ७६ ॥ ॥ समायात्या. ॥ ७५-७६ ॥ जीव पुद्गल धर्म अधर्म ओर आकाश इन पांच द्रव्योंको अस्तिकाय कहते हैं। काल द्रव्यकी अस्तिकाय संज्ञा नहीं। जीव अजीव पासव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात | लातत्त्व है। इन्हीं में पुण्य पाप जोड देनेपर नव पदार्थ हो जाते हैं । जीव और अजीव तत्वका वर्णन 2 कर दिया गया। अब आसूव आदि तत्त्वोंका वर्णन किया जाता है भावासव और द्रव्यासक्के भेदसे आलवके दो भेद हैं। तन्दुल मत्स्यके समान आत्माके क्रोध आदि भावोंसे जो कर्म आवे उन भावोका नाम ही भावात्रव है । अर्थात् स्वयम्भरमण नामके अ-10 शान्तिम समुद्रमें एक महामत्स्य नामका मत्स्य रहता है । जिस समय वह अपने विशाल मुखको फाड कर सोता है उस समय उसके मुखमें अगणित जलचर जीव आते जाते रहते हैं। उन महामत्स्य | व के कानमें एक तंदुल नामका मस्य रहता है । महामत्स्यके मुखमें इसप्रकार जीवोंको आता जाता। 2 देख वह सदा यह विचार करता रहता है कि देखो यह महामत्स्य वड़ा मूर्ख है । इसके मुखमें इतने जीव अपने आप आते जाते हैं तब भी यह निकल जाने देता है यदि यह मुह वन्द कर लेवे तो सबके सब इसके पेट में जा सकते हैं परन्तु यह ऐसा नहीं करता यदि में ऐसा होता तो सवोंको । पेटमें रख लेता। यद्यपि वह तंदुल मत्स्य किसी जीवको सताता नहीं तथापि वह इसप्रकारके निदित विचार करता रहता है इसलिये उन निंदित विचारोंसे सदा उसके कर्मोंका आस्रव होता रहता। है उसी प्रकार चाहै हिंसादि पांच पाप किये जाय या न किये जाय श्रात्माके अन्दर जो क्रोध 2] आदि भावोंकी उत्पत्ति होता है उन क्रोध आदि भावोंका ही नाम भावासब है ठीक ही है जो Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर | स्मनो भाषैः कर्म संदुलमत्स्यवत् । भाषास्त्रयो दि स प्रोपतो भाववद्धं ढ़ायते ॥मिथ्यात्वापिरतियोगकरप्रमादैः प्रवध्यते । वत्कार जा सूरिभिः एयाटः स ध्यानच एव च ॥ ८१ ।। शानादरणादिस्योगात्कन्निवति संहत व्यानवस्य भेदोऽयं प्रोक्तेऽन्यः पूर्वसूरे भिः॥ ८२ ।। बन्धोऽथ द्विविधः प्रोक्तो भाषद्रव्यानुसारतः । बुर्माचः कर्म यध्नाति भाववन्धोहि सोऽगदि ।। ८३ ॥ कर्मणामात्मन स्वैव प्रदेशानां परस्पर । एकल मिलन' यश्च द्रव्यबंधो मतो हि सः॥ ८४ | बंधश्चतुर्विधो भूयः प्रकृतिरनुभागकः। स्थितिः प्रदेश ला इत्युक्तो बन्धो हि दुस्त्यजो नृणां ॥ ८५ ॥ प्रवेशः प्रकृतियों गाइनुभागः स्थितिश्च धे । कषायेभ्योधि जायंते निर्णीत' केवलाधिपः॥ कार्य भावोंसे किया जाता है वह दृढ होता ही है यहां पर मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योगोंके द्वारा कर्मों का आना होता है इसलिये मिथ्यात्व आदि भावोंका ही नाम भावासव है तथा मिथ्यात्व अविरति योग कषाय और प्रमादके द्वारा जो द्रव्य कर्म आते हैं उन द्रव्य कमों का नाम द्रव्यासूच है । द्रव्यकर्म जिस समय आता है वह ज्ञानावरण आदि समूह स्वरूप आता है इसलिये ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तराय ये आठ द्रव्य कर्मके भेद हैं । ये आठ प्रकार के द्रव्य कर्म ही द्रव्यासूबके आठ भेद माने हैं ।। ८०-८१ ॥ द्रव्य बंध और I भाव बंधके भेदसे बंध भी दो प्रकारका माना है । जिन मिथ्यात्व अविरति मोदि दुर्भावोंके द्वारा कर्म बंधते हैं उन दुर्भावोंका नाम तो भावबंध है एवं कर्म और आत्माके प्रदेशीका जो एक क्षेत्र वगाहरूप आपसमें मिलना है वह द्रव्य वंध कहा गया है ! वह बंध तत्त्व चार प्रकारका माना है | प्रकृतिबंध अनुभागबंध स्थितिबंध और प्रदेशबंध । इस बंधका छूटनी बड़ी कठिनतासे होता है । व इन चारो प्रकारके कंधोंमें प्रदेशबंध और प्रकृतिबंध तो योगोंके द्वारा होते हैं और अनुभाग एवं | स्थितिबंध कषायोंके द्वारा होते हैं ऐसा भगवान जिनेंद्रने कहा है ॥८२-८५ ॥ द्रव्य संवर और भावसंवरके भेदसे संवर तत्त्व भी दो प्रकारका माना है। ब्रत गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा चारित्र aanyar REPREPARYAYVERY sakk Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RETRYPROYERANSFERENCY ८६ ॥ संवरो द्विविधः प्रोक्तो मावद्रव्यप्रमेवतः मात्मनो भावतः कर्मानवस्य यग्निरोधन । ८७ ।। उक्तोऽसौ शानिभिर्नावःसम्बरः संघरात्मकः । प्रतेध गुप्तिभिध मरनुप्रेक्षादिभिः पुनः ।। ८८ ॥ चारित्रंण क्ष धादोनां जेतृत्वेनागत' धन । द्रव्यास्रवेण यत्पा वार्यते द्रव्यसंवरात् ॥ ८६ ॥ निर्जरा द्विविधा ख्याता सषिपाकाविधाकतः । सर्वेषां सविपाका स्यादषिपाका हठादिप्ति || १० || भेदनमात्मको PO मोक्ष यात्मभावश्च कर्मणां । सर्वपां क्षयकारी यो भाषमोक्षोमुनीरितः॥ ११ ॥ ध्यान लथे महोत्रैश्च पृथाभावो हि कर्मणां । द्रव्य2 और परीषहजय रूप आत्माके भावोंसे जो आसूवके द्वारा आये हुए कमों का रुकना है उन व्रत गुप्ति आदि भावोंका नाम भावसंवर है। यह भाव संवर संवर स्वरूप है अर्थात् किवाड़ लगा देने FE पर जिसप्रकार भीतर महलमें प्रवेश नहीं किया जाता उसी प्रकार जिस समय यह आत्मा संवर खरूप परिणत हो जाता है उस समय आत्मारूपी महलके अंदर कमों का भी प्रवेश नहीं होता तथा द्रव्यास्त्रवसे जो द्रव्यरूप कर्म गाते हैं उन जय काका जन गुप्ति समिति आदिके द्वारा जो रुक HS जाना है वह द्रब्य संवर है अर्थात् व्रत गुप्ति आदिके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि भावोंका रुकना तो भाव संवर है और द्रव्यरूप कोका रुकना द्रव्य संवर है ॥ ८६-८८ ॥ सविपाक निर्जरा और अविक निर्जराके भेदसे निर्जरा भी दो प्रकारकी मानी है। अपने आप फल देकर कर्माका खिर जाना विपाक निर्जरा कहलाती है प्रत्येक संसारी जीवके कर्म प्रतिक्षण फल देदे कर खिPA रते रहते हैं इसलिये सविपाक निर्जरा तो संसारी जीवोंके प्रतिक्षण होती रहती है । तथा तप आदि के द्वारा जबरन कर्मोंका झडाना अविपाक निर्जरा हैं। यह तप आदिके आचरण करनेपर होती है | द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्षके भेदसे मोच तत्व भी दो प्रकारका माना है । गुप्ति आदि आत्माकेक PA भावोंके द्वारा समस्त कोका सर्वथा क्षय हो जाना भाव मोक्ष है तथा ध्यान अप मनका वश मक करना, और उप तपोंके द्वारा जो द्रव्य कर्मोकी आत्मासे जुदाई कर देना है वह द्रव्य मोक्ष है KापYAYणय Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमः पुण्यं पापं दुर्भाविचेतसाँ । सातासुखादिसन्नाम सगोत्राच मोक्षो जनाधीशः पुण्यतः | १३ | पापासद्विपरोतानि श्वभूतिर्यग्गतिः पुनः । द्रव्यतत्रत्वपदार्थाश्च भाषितास्तेन मागध ! ॥ ६४ ॥ अथ श्रीजिननाधोऽसौ मोक्षमोर्गमचोकयत् । ध्यानसाध्य' विना तेन मुक्त्यवाप्तिर्न जायते ॥ ६५ ॥ दर्शनशानचारित्र मन्येऽहं मोक्षकारणं । तन्मयो ही मायावसीदति ॥ ३६ ॥ ध्यानेन विना योगी न समर्थः कर्मनाशने । अष्ट: कुञ्जराणां वा व्यसने केसरी यथा ॥ ऐसा केवल ज्ञानी भगवान जिनेन्द्रका सिद्धांत है ॥ ८६ - ६१ ॥ जिन महानुभावों के परिणाम पवित्र रहते हैं उनके तो उत्तम पुण्यकी प्राप्ति होती है और जिनके निंदित परिणाम रहते हैं उनके पापों की उत्पत्ति होती है । साता रूप सुख उत्तम नाम उत्तम गोत्र और उत्तम आयु इनकी पुण्य से प्राप्ति होती है और पाप आसाता रूप दुःख निन्दित नाम गोत्र और आयुकी प्राप्ति होती है एवं पापके उदयसे नरकगतिमें जाना पड़ता है इस प्रकार भगवान विमलनाथने द्रव्य near पदार्थों का विस्तारसे उपदेश दिया ॥ ३२-६३ ॥ इसके बाद भगवान विमलनाथने मोक्ष मार्गका वर्णन किया जिसकी कि सिद्धि ध्यानसे है और उस ध्यानके विना मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं हो सकती । भगवान विमलनाथने कहा सम्यग्द र्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चोरित्र ये तीनों मिलकर मोक्षके कारण हैं जो आत्मा निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन आदि स्वरूप हो जाता है वह ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हो जाता है जिस प्रकार डाढोंसे रहित सिंह हाथियोंके विध्वंस करनेकी समर्थ्य नहीं रखता उसी प्रकार ध्यानके विना योगी भी कर्मो के नाकी सामर्थ्य नहीं रखता। कर्मों का नाश ध्यानके द्वारा ही हो सकता है ||४| ॥ ६६ ॥ आर्तध्यान रौद्र ध्यान धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यानके भेदसे ध्यानके चार भेद माने हैं । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं इसलिये ये छोड़ने योग्य है । धर्म्य और ये शुक्ल ३२ YAYAY Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल २५० Y PEK REFERI १५ आर्न गैरा धास्थाप्राह्य विधापर' । धयं शक्लं महाध्यान मुक्तिशर्मप्रदं हित ॥ १८॥ पुतीमा चिंतन धार्न मुच्यते । बन्धनादिसमुद्र नतिन रुद्रमीरित' ॥ ॥ सूत्रार्थश्रवण यच प्रतस्यादानभावना । दानस्य तपसश्चैव धर्म्यव्यान' हि सम्मत ॥ १०॥ सङ्कल्पाद्यतिम सात्वमात्मनश्चितनं पर शुक्लथ्यानं तदाख्यातं निःसङ्क: साध्यते हि तत ॥१०॥ ४] गिरौ दरीश्मसानेषु वियरेष शिलागले । मठमन्दिरशून्येषु ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥ १०२॥ पिण्डस्धं च पदस्थ' च रूपस्थ रूपवर दो ध्यान प्रशस्त ध्यान में एवं ये दोनों मुक्तिरूपी कल्याणके प्रदान करनेवाले और परम हितकारी | हैं ॥ १७ ॥ पुत्र स्त्री और भोजन आदिका चितवन करना अर्थात् ये मुझे कब मिलेंगे और कैसे मिलेंगे इस प्रकारका विचार करना आर्तध्यान कहा जाता है। दूसरे जीवोंके वांधने मारने आदि का विचार करना रौद्रध्यान कहा जाता है। सूत्रके अर्थका श्रवण करना, व्रतोंके ग्रहण करनेकी * a भावना भाना एवं दान तथा तपके आचणकी भावना भाना धर्म्यध्यान कहा जाता है। तथा जिस . ध्यानमें समस्त संकल्प विकलोंसे रहित और निर्मल आत्माके स्वरूपका चितवन किया जाता है। वह शुक्ल ध्यान है । समस्त परिग्रहोंसे रहित मुनिगण इस ध्यानका आचरण करते हैं ॥६७-६६॥ Ka पर्वत गुफा मरघट खोलार मठ मन्दिर और शन्य स्थानोंमें शिलाओंपर वैठनेसे ध्यानकी सिद्धि होती है। पिंडस्थ पदस्थ रूपस्थ और रूपातीतके भेदसे भी ध्यानके चार भेद माने हैं । ध्यानी - पुरुषको चाहिये कि वह समस्त आरंभोंसे रहित होकर और मनको स्थिर कर ध्यानको आराधना करै ॥ १००-१०१॥ जिसको कांतिको छटा चारो ओर छटक रही है और जो सूर्यके तेजके 5 समान देदीप्यमान है ऐसे अपने आत्मरूपका जो नाभि कमलके मध्यभागमें चिंतवन करना है वह पिण्डस्थ नामका ध्यान है । तथा भालके मध्यभागमें वा करोंके मध्यभागमें हृदयमें वा गले . kal के मध्यभागमें जो अपने आत्मस्वरूपका चितवन करना है वह भी पिण्डस्थ नामका ध्यान कहा प्रया प्रयाण Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F जितं । ध्यानस्थ यमना ध्यायेत् सर्यारम्भच्युतः पुमान् ॥१०३ ॥ नाभ्यभोजांतरे ध्येयमात्मरूपं स्फुरदद्युतिः । सूर्यतेजःसम तद्धि ण्डिस्थं |जनाचंतन ॥ १०४|| भालमध्ये करांतर्वा ददये वा गलांतरे । निजरूपं चिंतयेत्तश्च पिण्डस्थं मन्यते यतिः ॥१०५|| अहमित्यक्षरं -व्य योगी जायेग्निरतरं । परस्थ तन्मत ध्यानमेकवर्णादिक पुनः॥१०६ ॥ कर्माष्टकच्युतश्चाहन् प्रातिहादिसंयुनः ध्यायते शुक्ल वर्णः मन् सद्र पस्थ जिनागमे ॥ १७ ॥ कंदर्गदर्परागद्वेषमनोवाकायमत्सरममत्वतनुसंस्कारधनधान्यकषायादिव्यापारनिष्क्रांसो भूत्वा कस्याह न मे कश्चनेति निःसङ्गाशयत्यहंशब्दं सकारकलितादि तद् पातीतध्यानमिति ग॥ १०८॥ शिवं च शीतल ध्यान निश्चय' भ्रातियार्जित। सुधापानसमा ज्योत्स्ना शारदीव सुधावतः ॥१०६ ।। अकारवर्धमानाक्षरजातिः । अग्रजापयते येनाइंशब्दाजाता है ॥ १०२-१०३ ॥ जो योगी 'अहं' ऐसे पदका सदा ध्यान करते हैं उनका वह ध्यान पदस्थध्यान माना जाता है । अथवा 'ओं' इत्यादि एक अक्षर स्वरूप ध्यानका नाम भी पदस्थ ध्यान है ॥ १०४ ॥ जिस ध्यानमें आठ प्रातिहाय आदि महिमासे विराजनान शुक्ल वर्णके धारक और कर्मरहित भगवान अहंतके स्वरूपका चिंतवन किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान कहा जाता है।१०५॥ काम विकार राग द्वष मन वचन कायकी कुटिलता मत्सरता ममता शरीरका संस्कार धन धान्य और कषाय आदिके व्यापारसे रहित होकर एवं समस्त परिग्रहसे विमुख न मैं किसीका है और न कोई मेरा है ' ऐसा पूर्ण विचार कर जिस ध्यानके अन्दर 'सोऽहं, वह मैं हूं' ऐसा ध्यान किया जाता है वह रूपातीत नामका ध्यान है ॥ १०६ ॥ यह रूपातीत ध्यान अत्यन्त कल्याणकारी है । शांतिमय है। वास्तविक है । समस्त प्रकारकी भ्रांतिओंसे रहित है। अमृतपानके समान आनंददायी है और शरद कालकी चांदनीके समान शांति प्रदान करनेवाला है । जिसका चित्त अहं । शब्दसे व्याप्त है ऐसा जो योगी इस निश्चय ध्यानका आराधन करता है उसे संसारमें नहीं रूलना पड़ता वह मोक्ष सुख प्राप्त कर लेता है ॥ १०७-१०८ ॥ इन चारो प्रकारके ध्यानोंमेंसे आर्तध्यानसे तियंच गति मिलती हैं। रौद्र ध्यानसे नरक गतिमें जाना पड़ता है । धर्म्यध्यानसे स्वर्ग और शुक्ल ध्यानसे मोक्ष धाम प्राप्त होता है ॥ १०६ ॥ इस प्रकार धर्मोपदेशके वाद भगवान वि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्बीनचेतसा । योगिना निश्चय ध्यान तस्यास्ते का स ससृतिः ॥ ११ ॥ तियंग्गतिर्भवेदार्ताद्वात् श्वभ्रगतिभवेत् । धध्याना । सवेत्स्वर्गः शुक्लध्यानाछियास्पदः ॥ १६१ ॥ इत्यादिश्रद्धया राजन् ! सम्यक्त्वं निर्मलं भवेत् । तस्मिन् सति महाकर्मक्षगस्तस्मिन् न निरजनः ॥ ११२ ॥ तस्थानीना कथा कार्या ध्यान ध्येय मनोधिभिः । अन्तम हूत मध्यानात्कोटिकर्मक्षयो भवेत् ॥ ११३ ।। ।। श्रुत्वा नत्थामृरसमहा राजपुत्री सुभावात् देद्रायें जिनवर मुखाम्भोजजात प्रशस्तं । भव्यस्वाय सकलजनामा सिर :मी तो दूसरहदी नन्दयामासनुर्थे ॥ ११४ ।। ___जग्मतुर्थिनयमेरुमन्दिरों सझपङ्कजद्दशौ गुणान्वितो । INE मलनाथने कहा-इस प्रकारके तत्त्वोंके स्वरूप पर श्रद्धान करनेसे सम्यक्त्व निर्मल होता है । स-12 म्यक्त्वकी निर्मलतासे समस्त कमों का क्षय होता है एवं जिस समय समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं | उस समय यह आत्मा निरंजन-परमात्मा बन जाता है। जो पुरुष मनीषी- विद्वान हैं उन्हें अपने र आत्मकल्याणकी अभिलाषासे सदा तत्त्व आदिकी कथा करते रहना चाहिये क्योंकि यदि अंतर्मु- 2 नहुर्त पर्यत भी उत्तम ध्यान आचरण कर लिया जाता है तो उस ध्यानसे देखते २ करोड़ों कों - M का क्षय हो जाता है ॥ ११०-११२॥ ना इस प्रकार मेरु और मंदिर नामके राज पुत्रोंने उत्तम भावोंसे भगवान विमलनाथके समवस-koi शरणमें तत्त्वामृत रसको आस्वादन किया जिसकी कि लालसा बड़े २ देवोंके इन्द्र रखते हैं। जो भग वान जिनेन्द्र के मुखरूपी ममुद्रसे उत्पन्न है। जो प्रशस्त है। भव्य जीवोंके स्वादने योग्य है । । समस्त मनुष्योंको आनंद प्रदान करनेवाला है और दुर्गतियोंका नाशक है तथा कामदेवके समान सुन्दर और कोमल परिणामी वे दोनों राजपुत्र उस तत्वामृतरसके आस्वादनसे बड़े ही आनंदित ॥ हुए । तथा कमलके समान विशाल नेत्रोंके धारक अनेक गुणोंके भण्डार एवं धीर वीर चित्तके TrNYC Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हताप्तविमलेन भाषितं धार्य धीरमनसो मनोऽतरे ।। ११५॥ इत्या वृद्धिमलनाथपुराणे रलभूषणाम्नयालङ्कार वि० समवसतिसंवर्ममेकमन्दिा समतीविनाशाचागृतरसो नाम पञ्चमः सर्गः ॥ ५॥ धारक वे मेरु और मंदिर नामके राजकुमार भगवान विमलनाथके मुखसे जायमान धर्मका स्वरूप अपने चित्तमें अच्छी तरह धारण कर अपने अपने राजमहल लोट आये ॥ ११३-११४॥ ब्रह्मकृष्णदास विरचित वृहद्विमलनाथ पुराणमें समवसरणकी रचा मेरु और मंदिर नामके राजकुमारोंका आगमन और भगवान विमलनाथके गुखसे जायमान तत्वामत रसका उपदेश वर्णन करनेवाला पांचया सर्ग समाप्त हुआ।।५। छठा सर्ग । Mekeklपापणापासपkk श्रीमन्त काश्यय नौमि लसंत श्वेतभूधरे । कोटिभेशप्रम भव्यास्त' य दृष्ट्वा चकोरवत् ॥ १॥ अर्थतौ भ्रातरौ भथ्यो प्रातरु जो भगवान आदिनाथ वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारकी लक्ष्मीके स्वामी हैं। भरत क्षेत्रके आदि तीर्थङ्कर है । कैलाश पर्वतसे जिन्होंने मोक्षको पाया है। करोडों चन्द्रमाओंकी प्रभाके धारक A हैं एवं चकोर पक्षी जिस प्रकार चंद्रमाकी ओर टकटकी लगाये रहता है उसी प्रकार भव्य जीव जिनकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं ऐसे श्रीआदिनाथ भगवानको में भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ दूसरे दिन पुनः वे दोनों भाई मेरु और मन्दिर प्रातःकाल बहुत जल्दी सोकर उठ गये ए एवं बड़े ठाट वाट' और विभूतिके साथ भगवान जिनेंद्रकी वंदनाके लिये चल दिये । भगवान वि. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न उपपपपपYYYY स्थाय वेगतः। संरम्भण महाभूत्या अग्मतुर्वेदितु जिनं ॥ २॥ गत्वा रत्नासनासीम जिन बिमलवाइन। नत्वा पद्वारिज स्तुत्वा गद्यपधैः स्थिती सुख ॥३॥ सदावददाधीशो मेहतामरसा प्रभाभारभरि देवं निति सादरात् ॥ ४॥ कर्ममुण्महिमाकेवात पतिपरकज प्रभो ! थोतुमिच्छामि म्रातुमेंऽथ भवावलि ॥५॥ ज्योत्स्नोल्लासितदाराशिमहाघोषसमध्वनिः । मेरु' प्राति भव्यौ धाम्मोजभानुर्जिनो न ! ॥ ६ ॥ सम्यक् पृष्टं त्वयो यत्सासंख्यजीधसुखप्रद । त्वं च मैदरनामा च यास्यतोऽतः शिवालयं ॥ मलनाथ उस समय रत्नमयो सिंहासन पर विराजमान थे। दोनों भाइयोंने अनेक प्रकारके मनोहर गद्य पद्योंमें भगवान विमलनाथके चरण कमलोंकी स्तुति की एवं सुख पूर्वक मनुष्य कोठमेंजाकर बैठ गये ॥ २–३ ॥बे भगवान विमलनाथ उस समय महा मनोज्ञ कांतिसे शोभायमान थे और समस्त प्रकारके द्वदोंसे रहित हो । कमलकी सभा समान शोभायमान राजा मेरुने अवसर पाकर भगवान जिनेंद्रसे इसप्रकार बड़े आदरसे पूछा भगवन् ! आप समस्त प्रकारके कोके नाश करनेवाले हो । सवोंके स्वामी हो । वड़े बड़े इन्द्र | | भी आपके चरण कमलोंको पूजते हैं स्वामिन् ! में अपने भाई मंदिरका पूर्वभवका वृत्तांत सुनना | चाहता हूँ कृपाकर कहिये । वे भगवान जिनेंद्र चंद्रमाके संबंधसे लहलहाते हुए विशाल समुद्रके गंभीर शब्दके समान दिव्य ध्वनिके धारक थे और भव्यरूपी कमलोंके प्रकाशनेके लिये सूर्यस्वरूप थे। राजा मेरुका इस प्रकारका प्रश्न सुन उन्होंने उत्तरमें कहा---- राजन् ! इस समयका तुम्हारा |प्रश्न बहुत ही उत्तम है। असंख्य जीवोंको सुख प्रदान करनेवाला है । तुम निश्चय समझो तुम - और मंदिर दोनों इस भवसे मोक्ष पाओगे । मन्दिरके पूर्व भयके वृत्तांतको तुम आदर पूर्वक - सुनो क्योंकि तुम एक मनीषी पुरुष हो किन्तु जो पुरुष अन्तरङ्गमें सार रहित मनीषी नहीं होते NI उन्हें कितना भी उत्तम उपदेश क्यों न दिया जाय वह उनको वड़ा दुःखदायी जान पड़ता है क्यों ahbadFERY W Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापYTIMok ७॥ सावधानत्वमाश्रित्य तृणु स्वं सादर यतः । भन्तासारविहीनामा प्रतियोधोऽपि दुःखप्ति ॥ ८ ॥ अन्तःसारविहोनानां बुद्धिः कापि न जायते । मलयाचलसंसर्गात वेणुश्चन्दनायते ॥ ६ ॥ अधासंख्यमहाद्वीपमध्ये राजेब राजते। जम्बूभूरहचिहत्वाजम्बुद्वीपो भिधानतः ।। १० । तम्मध्ये मेकराभाति नानारत्नविचित्रत्विर । षोडशाहन्महागारसंदर्भीकृतसत्तरः ॥ ११ ॥ विर मन्ति यतः स्त्र स्था मेष लोकः श्रुतका । असर:सजलश्लेषर्विवितेलातलागिरेः ॥ १२ ॥ अस्येय पश्चिमे भागे विदेशोऽपरसंजिकः । सार्थकोऽतो निदेहत्वं तपसा प्राप्नुवत्यहो ॥ १३ ॥ सीतोदानामतः सिंधुस्ताम्तेऽगाधसन्नदा । शतोन्नतमहाचैत्योद्भासितोभार्यकाः ॥ Ke कि मलयागिरि चन्दनके सम्बन्धसे जिस प्रकार अन्य वृक्ष तो चन्दन स्वरूप हो जाते है परन्तु P2 वासका बृक्ष चंदन खरूप परिणत नहीं होता उसी प्रकार जो पुरुष अन्तः सार विहीन हैं कुछ भी मनीषिता नहीं रखते उनकी बुद्धिपर भी धर्मोपदेशका असर नहीं पड़ता ॥ ४-॥ व असंख्याते द्वोपोंके मध्यभागमें एक जंबद्वीप नामका विशाल द्वीप है जो कि समस्त द्वीपोंका राजा सरीखा जान पड़ता है तथा जम्बवृक्षके सम्बन्धसे ही उसको जंबूरोप यह प्रसिद्ध नाम है ।। जंबुद्वोपके ठोक मध्य भागमें मेरु नामका पर्वत है जो कि चित्र विचित्र रलोंकी प्रभासे देदोष्यमान है एवं उसका तट बड़े २ विशाल मंदिरोंसे व्याप्त हैं । मेरु पर्वतकी पृथ्वीपर देवांगनाओंके मन 2 संघटनोंको सदा प्रतिविंव पड़ती रहती हैं इसलिये जो पुरुष स्वस्थ है–विषय भोगोंसे रहित हैं ये भी उस पृथ्वीसे विरक्त नहीं होते उस पृथ्वीपर विहार करना आनंदप्रद समझते हैं यह बात लोक व प्रसिद्ध है ॥ १०-१२ ॥ मेरु पर्वतकी दक्षिण अणिमें विदेह नामका एक विशाल क्षेत्र है और से उसका नाम विदेह सार्थक है क्योंकि वहां तपोके द्वारा मनुष्य विदेह-देहरहित सिद्ध परमात्मा वन । जाते हैं। वहां पर शोतोदा नामकी विशाल नदी बहती है जिसका कि तलभाग अगाध है और । KI जिसके दोनों पसवाड़े विशाल सो मंदिरोंसे शोभायमान है । शीतोदा नदीके उत्तर तटपर, ER ......EENSTRATIM -.. - .-- Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APKPR 1 १४ ॥ तस्या उदकृतटे गंधमालिनी विषयो महान् । यातायातः सरामाणां सुराणां रम्यभूततः ॥ १५ ॥ भूरुहें यत्र विद्यते भूरिपुष्प फलांचिताः । कोकिलालिकलाप्यता दानच्युत्कुलिकंपिताः ॥ १६ ॥ निगमा यत्र राजते शालोक्ष क्षेत्र कोटिभिः । पदे परे तड़ागानि पङ्कजालयुतानि च ॥ १७ ॥ योगदर्षि पन्न्यासपवित्रतमहीधराः । लसंति लचलोबल्लोपुष्पसौगंधिवायवः || १८ || अन्नधान्य जबस्त्रा वा वासंती चलनालिट्ठक् । अणी वेपोर्मिवेषा च राजते हंसनूपरा ॥ १६ ॥ तत्रास्ते वीतशोकास्थं पसनमृद्धिसंकुल । गोपुरोद्भासि गंध मालिनी नामका एक विशाल देश है। वहां पर अपनी अपनी देवांगनाओं के साथ सदा देवोंका आना जाना वना रहता है इसलिये सदा उसकी पृथ्वी रमणीक वनी रहती है । गंधमालिनी | देशके वृक्ष सदा अनेक प्रकारके पुष्प और फलोंसे व्याप्त रहते हैं सदा उनपर कोयल भ्रमर और मयूरोंके महा मनोहर शब्द हुआ करते हैं और मदोन्मत्त हाथी सदा उन्हें कंपित करते रहते हैं । गंधमालिनी देशके गांव करोडो धान्य और ईखोके खेतोंसे व्याप्त रहते हैं तथा पदपद पर वहां पर विद्यमान हैं जो कि भ्रमरों से युक्त कमलोंसे व्याप्त रहते हैं ।। १३--१७ ॥ वहांके पर्वत व्यानारूढ मुनियोंके चरणोंसे सदा पवित्र वने रहते हैं और लबली नामकी लताओं के पुष्पोंकी सुगन्धिसे सदा वहांकी पवन सुगंधित बहती रहती है। वहां पर वसंत ऋतुकी शोभा मनोहर बीके समान अत्यन्त शोभायमान थी क्योंकि स्त्री जिसप्रकार वस्त्र पहिनती है उसीप्रकार वसंत ऋतुकी शोभा भी फूले हुए कमलरूपी वस्त्र पहिने थी। स्त्रीका मुख होता है उसीप्रकार वसंत ऋतुको शोभा भी कमलरूपी मुखों से शोभायमान थी । स्त्रीके नेत्र होते हैं उसी प्रकार चलते फिरते भोरेही उस वसंतको शोभा के नेत्र थे । स्त्री जिसप्रकार सुन्दर वेषसे शोभायमान रहती है उसी प्रकार वसंत ऋतु की शोभा भी जल वा तरङ्ग रूपी सुन्दर वेषसे शोभायमान थी ॥ १८-१६ ॥ REKERPAE REK धनपराय Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ PRरूर PAPAREKPKYKKNA गृह विराजन्ते प्रोश गगनसंस्पृशः । पताकायलिभिर्भव्यानायंति च वेगतः ॥ २१ ॥ धर्मairavati दानधीराः कृपायुक्तः । श्रमज्ञाः सुन्दराः शूरा बियंते सज्जना अपि ॥ २२ ॥ पुरे तव महेम्याठ्ये वैजयन्तो नराधिपः हातापाता श्रुतज्ञातार्तारिश्रियश्व वे ॥ २३ ॥ प्रतापकांतभूपालमंडलीकः कलानिधिः । क्रूर सोम्यगुणान्वीतो मोनरत्नीत्र वारिधिः ॥ २४ ॥ राजन्ते सिंधवो वामाः सुधाया इव सिंधवः 1 भूरयः कंबुगामिन्यः पुन्नागमतयो वलाः || २५ || सर्वथ्याख्या महादेवी तस्या गन्ध मालिनी देशके अंदर एक वीत शोक नामका नगर है जो कि अनेक प्रकारकी ऋद्धियों | से व्याप्त है। जिनके अन्दर बड़े २ गोपुर खास दरवाज शोभायमान हैं ऐसे विस्तीर्ण परकोटोंसे व्याप्त है अतएव वह स्वर्गपुरोके समान जान पड़ता है। वीत शोक नगरके विशाल जिनमंदिर जो कि अपनी ऊचाईसे आकाश मण्डलको स्पर्शते थे अत्यंत शोभायमान जान पड़ते थे तथा उनके | ऊपर पताकायें फर हराती रहतीं थीं इसलिये वे ऐसे जान पड़ते थे मानों भव्य जीवों को ये बुला रहे हैं। उस नगरके निवासी सज्जन धर्म कार्यों में पूर्ण धैर्य रखनेवाले थे । तपके आचरण में बड़े धीर वीर थे अत्यंत दानी कृपालु विद्वान सुन्दर और शूर वीर थे । २०-२२ ॥ अनेक धनिकों से व्याप्त उस वीत शोक नगरका स्वामी राजा वैजयंत था जो कि अत्यंत दानी था । प्रजाका न्याय |पूर्वक पालन करनेवाला था । शास्त्र के मर्मका पूर्णज्ञाता था एवं शत्रुओं की लक्ष्मीका हरण करने वाला था । अपने प्रतापसे उसने समस्त राजा लोग वश कर रक्खे थे । अनेक कलाओं का वह भंडार था एवं जिस प्रकार समुद्र मीन और रत्नोंका स्थान होता है उसी प्रकार वह राजा भी करता और सोमता रूपी गुणों का स्थान था । २३ - २४ ॥ राजा वैजयंतकी बहुत सी रानियां थीं जो कि परम सुन्दरी थीं। अमृतकी साचात्समुद्र थीं। गजगामिनी पवित्र बुद्धिकी धारक और विमल थीं। राजा वैजतकी पटरानीका नाम सर्वश्रीप्या जो कि साचात् लक्ष्मी वा सूर्यकी स्त्री प्रभा वा रम्भा I शालालिमंडित स्वर्गपूरिव ॥ २० ॥ PAYAN Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ९५८ Park रूपद्मिकेभाः । रवे रम्भा च दाक्षिण्यरूपलावण्यतोर्याधः ॥ २६ ॥ पीवरस्तनभारेण दग्नना कृशोदरी । स्थूलगौरनितम्बेन मन्थरा मृगलोचना ।। २७ ।। ( युग) : सुतौ रम्यौ कामाभौ कमलेक्षणौ ॥ २८ ॥ संज 'तामित्रः सर्वलक्षणांकित घिग्रहः । जयन्तारूपोऽपरः ख्यातः शुक्रो वांङमी च ताविव ॥ २६ ॥ प्रत्यहं यावचन्द्रबद्ध दितान्यौ यालत्वेऽभ्यस्तविद्यौ तौ बाहुनारोपती ततः ॥ ३० ॥ पुत्राभ्यां सहितो राजा येजयतोऽतिदुर्जयः । भुनकि स्माधिपत्यं प्रतापष्ण सरीखी जान पड़ती थी । एवं वह चतुरता रूप और लावण्यकी समुद्रखरूप थी । वह स्थूल स्तनोंके भारसे को कुछ को हुई थी, कृशोदरी थी । स्थूल और भारी नितम्बों के कारण धीरे २ चलने वाली थी एवं हरिणी के समान चंचल नेत्रोंसे शोभायमान थी । इन्द्र और इंद्राणीके समान इच्छा •नुसार सुख भोगनेवाले राजा वैजयन्त और रानी सर्वश्रीके दो पुत्र हुए जो कि अस्त्यन्त मनोहर थे कामदेव के समान सुन्दर थे। कमलके समान विशाल नेत्रोंके धारक थे । २५ - २८ ॥ प्रथम पुत्रका नाम संजयत था जो कि समस्त उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त शरीरका धारक था तथा दूसरा पुत्र जयंत था जो कि अपने गुणोंसे समस्त पृथ्वीतलपर प्रसिद्ध था । दोनों ही पुत्र विद्वत्ता में शुक्र और बृहस्पतिकी शोभा धारण करते थे। वे दोनों कुमार वाल चन्द्रमाके समान प्रतिदिन बढ़ते रहते थे । वाल अवस्थामें ही उन्होंने समस्त विद्याओं का अभ्यास कर लिया था एवं ये शस्त्र विद्यारूपी स्त्रीके पति थे - पूर्ण शस्त्र कलाके जानकार थे || २६ – ३०॥ प्रतापी दोनों पुत्रोंके साथ राजा वैजयंत दुर्जय शत्रुका अगम्य था एवं प्रतापी सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभाका धारक वह अपने राज्यका पूर्णरूप से भोग करता था ॥ ३९ ॥ वीतशोक नगर के समीप एक अशोक नामका विशाल उद्यान था जो कि भांति २ के वृक्षों से ज्याप्त था। अनेक देवोंके साथ जहां तहां विहार कर भगवान् विमलनाथ उस उद्यानमें आकर おおお Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kharkakkkkkkkkkk करप्रमः ॥३१॥ अर्धकदा समायातस्तत्पुरस्य बने जिनः संशोकाख्ये द्रमाकीर्णे स्वयभूनिर्जरात: ॥ ३२ ॥ बन्दितु जम्मतुस्तं तो सोद सोदराविव । महाभूत्या गजारूढ़ी छत्रछन्नार्कदोधिती !॥ ३३ ॥ दृष्ट्वा स्वयंभुवं दूगदुत्तीर्य गजराजतः । गत्वा भवत्या परी. मिल त्याशु नत्वा स्तुत्वा बसस्थतुः॥ ३४॥ जिनोक्त' दशधा धर्म संसारानियतां च तौ। धृत्वा वैराग्यमापन्नी कौशलं हि सतामिति ॥ I] ३५ ।। बैजयतोऽवनोनायो दृष्ट्वा पुनविरक्ततां । ततर्क मनसि स्वीये मोहशैथिल्यतो महान् ॥ ३६॥ युवानोऽपि तपस्यानि ते धन्या विराज गये । कुमार संजयत और जयंतको भगवान जिनेद्रके आनेका समाचार मिल गया। शीघ्र ही लक्ष्मीके समुद्र स्वरूप वे दोनों भाई हाथियोंपर सवार हो गये और बड़े टाट वाटके साथ भगवान जिनेंद्रकी वंदनाके लिये चल दिये। दोनों कुमारोंके ऊपर छत्र ढुलते जाते थे जो कि तो अपनी उग्र दीप्तिसे सूर्यकी दीप्तिको दवानेवाले थे ॥ ३२-३३ ॥ भगवान स्वयम्भ को दूरसे ही 5 देखकर वे दोनों राजकुमार हाथीसे उतर गये। पासमें जाकर भक्तिर्वक तीन प्रदक्षिणा दीं।। C नमस्कार किया। मनोहर गद्य पद्योमें स्तुति की और अपने योग्य स्थानपर जाकर बैठ गये ॥ ३४ ॥ भगवान जिनेंद्र उस समय उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोंका स्वरूप निरूपण कर रहे थे और संसारकी अनित्यताका उपदेश दे रहे थे जिसे सुनकर सञ्जयन्त और जयंत दोनो ही संसारसे विरक्त हो । गये ठोक ही है सज्जनोंकी कुशलता यही कहलाती है। राजा वैजयंतने जब अपने पुत्रोंको संसारसे विरक्त देखा तो उसका भी मोह संसारमें शिथिल पड़ गया और वह अपने मनमें इस प्रकार ज/ विचार करने लगा युवा होकर भी जो विषय भोगोंसे विरक्त हो तप आचरण करते हैं संसारमें वे ही धन्य है । मुझ सरीखे पापियोंके लिये धिक्कार है जो कि अपनी वृद्ध अवस्थाको युवावस्था मान रहे हैं। अर्थात् यह अवस्था धर्म साधनकी है उसे भोग विलासोंमें बिता रहे हैं। इन्द्रके पुत्रके समान और का- 11 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हायपर ANKULK सखि । मादक्षाणां महाघानां वृद्धत्वं तरुणायते ॥ ३८ ॥ तिष्टेयं किमहं राज्ये जराकांतो विदधीः । दोक्ष ते बेत्कुमारो द्व॥३७॥ पत्रमादि चिर चिंत्य जन निर्वेदमानसः । संजयंतस्य पुत्राय बैजय ताय धीमते || ३६ || त्वा राज्यं माया पुत्राभ्यां सहितो नृपः । दिदीक्षं सकलं गं त्या मगधनायक ॥ ४० ॥ वैजयंताख्ययोगोद्रः सममे निःप्रमादवान् । क्रियाकांड भृशं शुद्धि कर्तुं प्रोद्यमानभूत ॥ ४१ ॥ शदर्श चाकपायाख्ये क्षणाशेषकपयः । तीर्थ करत्वमश्वासौ वैजयतस्तपो * लात् ॥ ४२ ॥ तदानीमेव देवेंद्राः कतु तत्फलोत्सर्व समायाह, जयध्यानवादिनः परमभक्तिकाः ॥ ४३ ॥ तत्क्षणे तौ गुणाबोधी मके समान सुन्दर ये दोनों कुमार तो दिगंबरी दीक्षा धारण करें और में वृद्धावस्था में भी राज्य के फासे में फला रहुं मुझसे बढकर संसारमें कोई मूर्ख नहीं । वस इस प्रकार बहुत देरतक अपने मनमें विचार कर राजा वैजयंतका चित्त संसार से विरक्त हो गया । कुल परम्परासे प्राप्त राज्यको राजा वैजयन्तने अपने पोते कुमार संजयन्तके पुत्र वैजयन्तको प्रदान कर दिया और वह समस्त परिग्रह का सर्वथा त्यागकर दोनों पुत्रों के साथ शीघ्र ही दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित हो गया ॥ ३५-४०॥ मुनिराज वैजयन्तने अप्रमत्त नामक सातवे गुण स्थानमें प्राप्त होकर समस्त प्रमादोंका सर्वथा नाश कर दिया एवं अपने चारित्रको शुद्धिका वे विशेष रूपसे प्रयत्न करने लगे । क्षीण कषाय नामक बारहवं गुणस्थान में उन्होंने समस्त कषायों का सर्वथा नाश कर दिया। विशिष्ट तपके वलसे उन्हों ने तीर्थंकर गोत्रका बंध कर लिया और उन्हें अन्तमुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । मुनिराज | वैजयन्तको केबल ज्ञानकी प्राप्तिका ज्ञान होते ही उनके केवलज्ञानका उत्सव मनानेके लिये शीघ्र ही इन्द्र आ गये । उस समय समस्त इन्द्रोंके मुखोंसे जय जयकार शब्द निकलता था और सबके | सब प्रवलभक्तिके स्रोतमें मग्न थे । ४१ - ४३ ॥ गुणोंके समुद्र परम तपस्वी प्रवलकांतिके धारक वस्तु स्वरूपके जानकार क्षमारूपी भूषणसे शोभायमान एवं शास्त्ररूपी समुद्र के पारगामी उन संज 看看看 पत्रपत्र Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ おやおや 青調製され तपोमु संयंत तयाख्यातावस्य केवलं ॥ ४४॥ यन्दितु भूरितेजक तत्वज्ञी शांतिभूषणों समायाता स्तुवंती तौधिरी परौ । ४५ ॥ घद्रस्तदायासीदुत्सवार्थ जिनस्य । द्विसप्त कोटिम व रावृतः कन्प्रतावधि । ४६ ।। जय ताख्यो मुनस्तत्र दृष्ट्वा रूपं धरापतेः । विह्वलांगो वभूवाशु भोगोदयविधेर्वशात् ॥ ४७ ॥ तपो घोरतरं तप्त साशङ्क दरिकादिपु : सोऽकार्योन्नितरां प्रान्ते निदानमिति शल्यवत् ॥ ४८ ॥ फलं व सपसो मेऽल चिर' तप्तस्य सादात् । भूयान्मे नागनाथत्वमावश्यक महोदयं ॥ ४६ ॥ मृवा निदानतो जो घरणेंद्रः शुभाशयः । महद्धिं फणिमशेभार किरीटः पुष्पदन्तमः ॥ ५० ॥ तपसोग्रेण दुःप्रापये यंतऔर जयंत नामके मुनियोंने भी अपने पिताको केवलज्ञान हुआ सुना इसलिये वे भी तत्काल मुनिराज वैजयन्तकी वन्दनाके लिये आ गये। चौदह करोड़ देवोसे व्याप्त अतिशय मनोहर श रीरका धारक धरणेंद्र भी जिनराज वैजयंतके केवलज्ञान उत्सव में शामिल हुआ था। धरणेंद्र के मनो हर रूपको देखकर मुनिराज जयंत एकदम निर्बुद्धि हो गये। मोहनीय कर्मके तीव्र उदयसे उनकी स्त्री आदिमें लालसा फटकने लगी इसलिये तीव्र तपके तपने के बाद यह उन्होंने निदान नामकी शल्य बांध ली 'चिरकाल पर्यंत तपे गये तपका यदि आदरपूर्वक मुझे फल प्राप्त हो तो मैं महान अभ्युदय का स्वामी धरकेंद्र' बस आयुके अन्त में मरकर वे महान ऋद्धिके खामी और चित्तके शुभ धारक धरणेंद्र हुए। उनका मुकुट नागके भारसे शोभायमान था और सूर्य चन्द्रमाके समान उनको अद्वितीय प्रभा थी । ४४ -- ५० ॥ ग्रन्थकार निदान शल्यकी निंदा करते हुए कहते हैं कि जब उग्र तपके प्रभाव से मोक्ष तक प्राप्त हो जाती है तब उससे धरणेंद्र पदका मिलना कठिन नहीं क्योंकि यह संसार प्रसिद्ध बात है कि बहुमूल्यको वस्तुसे थोड़े मूल्यकी वस्तुका मिलना कठिन नहीं है । उमा तपना बहुमूल्य वस्तु है और धरणेंद्र पदकी प्राप्ति थोड़ मूल्यको वस्तु है । इसलिये मुनिराज जयन्तका उस प्रकारका निदान एक निंदित निदान था । 味 AM Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल २६२ AVANKAKK धरणत्वं कदापि न । अव बहुल विद्यते नतु ॥ ५१ ॥ अथासौ संजय ताख्यो योगींद्रो व्यवहरद्भुवि । तपस्यन् भूधरप्रस्थे मिसूर्य ब्रह्मसंजपन् ॥ ५२ ॥ त्रिधामङ्गादिनिर्मुको निश्चलो भेरुवत्परः । निःकियो ध्यानसंरुद्धचेताः परमतत्त्ववित् ॥ ५३ ॥ तखे ते नूनं संसृतिः कियनी द्यते । क्षणिकध्यानलेशेन वज्रवत्कर्म भूधराः ॥ ५४ ॥ अन्येद्युः पर्वता रूढो ध्यान | स्तमितलोचनः । ब्रह्मण्या स्मानमायोज्य स्थितो यावन्महीं मुनि १५५ | मनोहरपुराम्यर्णे भीमारण्यांतरे यतिं । प्रतिमायोगसंलीनं ध्यायतं परमं महः ॥ ५६ ॥ विष्द्रः खगो दृष्ट्वा तं मार्ग वेगतो व्रजन् । पूर्ववैरानुबन्धाजातिस्मरणथानभूत् ॥ ५७ ॥ महाक्रोधेन दुष्टात्मा ताडयामास प्रस्तः । मुष्टि। मर्लकुटैर्धार्तस्व' मुनिं ब्रह्मचिंतनं ॥ ५८ ॥ समुद्धत्य मुनिं वैरान्नीत्याकाशे जिघांसया । यायो विद्याबलेनाशु खगस्तं मुनिराज जयन्तकं धरणेंद्र हो जानेके बाद वे योगिराज संजयंत पृथ्वीमण्डल पर विहार करने लगे। सूर्य की ओर मुखकर परमात्मा के स्वरूपका ध्यान करते हुए पर्वतों की शिलाओंपर स्थिर हो कर घोर तप तपने लगे ।। ५१ – ५२ ॥ वे मुनिराज संजयंत चेतन अचेतन एवं चेतनाचेतन तीनों प्रकारकी परिग्रहसे रहित थे जिस समय वे ध्यानारूढ निश्चल होते थे उस समय वे निश्चल मेरु पर्वतके समान जान पड़ते थे । समस्त प्रकारकी वाह्य क्रियायोंसे रहित थे। वे सदा परमात्माका ध्यान करते रहते थे इसलिये उनके चित्तकी वृत्ति रुकी रहती थी और वे पदार्थों के वास्तविक स्वरूपके पूर्ण जानकार थे । यह निश्चय है कि जहांपर वस्तुके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान हो जाता है। वहां पर विशेष संसार में नहीं रुलना पड़ता किंतु जिस प्रकार वज्र से विशाल भी पर्वत चूर चूर हो जाता है उसीप्रकार शुक्ल ध्यानके द्वारा बलवान भो कर्मरूपी पर्वत खण्ड २ हो जाता है ॥५.३-५४ ॥ एक दिनकी बात है कि वे मुनिराज संजयंत पर्व तके अग्र भागपर विराजमान थे। ध्यानकी कृपासे उनके दोनों नेत्र निश्चल थे, चित्त में परमात्माका चितवन कर रहे थे । मनोहर पुरक उद्यान में एक भी मारण्य नामका वन था उसमें प्रतिमा योगसे वे ध्यानारूढ थे उसी समय एक विद्यु Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIYA K KARKariwarik मेरुनिभृतं ॥ ५९॥ अथ जम्बर्मात द्वीपे भारतं क्षेत्रमकम । विद्याधरावलस्तत्र राजतं राजतोपमः ॥ ६॥ तस्य पूर्वदिशायां च सरिस्पंचसमागमः | आद्या कुसुमयत्याख्या हरिवत्यभिधाऽपरा।।६१॥ सुवर्णगजवल्यी च चन्द्रवेगा च पञ्चमी । न्यक्षिासंगमे तासा मगाधे मलिले खलः ०६२ ॥ क्षिप्टवाय पुरमध्ये स समावातोऽपकारकः । पदहन खगान् सर्वान् पिएडोकत्य जगाविति ।। ६३ ।। अयं पापी महाकायो दानको मानवाशनः । सर्वान् विद्याधरानस्मान् पृथकृत्यात्तु मास्थितः ॥ ६४ याणखड्गादिशत्रौद्युनिष्कपं सर्वभक्षणं। | इंष्ट्र नामका विद्याधर विमानमें ओठकर उनके ऊपरसे निकला । मुनिराज संजयन्तक साथ उसका पूर्व भवका वैर था इसलिये पूर्व भवकं वैरक सम्बन्धसे उसे शीघ्र ही जाति स्मरण हो गया । पूर्व | भवके बैरसे मारे क्रोधके वह भवल गया एवं परम ध्यानी उन मुनिराजको वह पत्थर मुक्क लाठी। | और धक्कोंसे मारने लगा। मेरु पर्वत समान निश्चल उन मुनिराजको मारनेकरे इच्छासे दुष्ट विद्याधरने अपने विद्यावलसे आकाशमें उठा लिया और शीघ्र ही लेकर चल दिया। इप्ती जंवू द्विपके भरत क्षेत्रमें एक विजयाचं नामका विद्याधर पर्वत है जो कि चांदीके समान सफेद वर्णका है । विजयार्ध पर्वतकी पूर्व दिशामें कुसुमवती, हरिवती, सुवर्णवती, गजवती और न चंद्रवेगा नामकी पांच नदियोंका समागम है। दुष्ट विद्याधरने उन्हीं पांचों नदियोंके समागमके आगाथ जलमें परम पवित्र मुनिराज संजयंतको लेजाकर पटक दिया। वह निर्दयी मुनिराजको पटक कर अपने नगामें आ गया। भेरी बजाकर सयस्त विद्याधरोंको इकट्ठाकर लिया और उनसे इसप्रकार कहने लगा। विशाल शरीरका धारक मनुष्योंका खानेवाला राक्षस यह महा पापी है । हम सब विद्याधरों को एक एक कर खाने के लिये यहां पर स्थित है। निर्दयी सर्व भक्षी और हम सबोंको खानेकी अभिलाषा रखनेवाले इस दुष्टको वाण खग आदि शस्त्रोंसे हम सबोंको मिलकर मार डालना चा REERky.hak Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE वय सर्वेऽपि संभूय हनामोऽखिलघातिनं ॥ ६५ ।। माकुरतास्य विश्वासं मन्यव मद्रयो ध्रुवं । अय' रात्री स्त्रियो वालान् पान वा - भक्षयिष्यति ।।६६ नस्मात्स इचनं यूयं प्रतीत किमहं वृथा। मृपा भावे किमेतेन चरमसत्यत्र मे पृथक् ॥ ६॥ इति विद्याधराः सर्व मुग्धास्तेन प्रताग्निाः । सायुधा नियं युस्तूर्ण मृत्युभीत्रस्तमानसाः ॥ ६८ ॥ गत्वा ते शस्त्रयातस्तं युगपजघ्नुरादरात् । दृपदण्डकरा घातगगलान्मुनिपुङ्गवं ॥ ६६ ॥ रोहिणीभचतुर्दश्यां चतुर्दशमिते ध्रुवं । गुणस्योद्भावभाषायां श्रितानां भुवनेश्वरः ॥ ७० ॥ शमाल हिये । इसका तुम रश्चमात्र भी विश्वास मत करो में जो कह उसे ठीक समझो तुम निश्चय समझो रात्रिमें यह स्त्री वालक और पशुओंको नियमसे खा लेगा। मेरे हितकारी वचनों पर तुम सब लोगोंको पूर्ण विश्वास करना चाहिये में मिथ्या नहीं बोल सकता क्योंकि इसके साथ मेरा कोई खास बैर नहीं है ॥५५-६७॥ दुष्ट विद्युद्दष्ट्रके वचनोंका मूर्ख विद्याधरों पर प्रभाव पड़ गया मृत्युके भयसे जिनका चित्त चल विचल है ऐसे वे समस्त विद्याधर अपने २ शस्त्रोंको लेकर शीघ्र नगर से निकल दिये। वे दुष्ट पास जाकर मुनिराज संजयन्तको एक साथ बड़े उत्साहसे नीचेसे | Ma ऊपर तक पत्थर लाठी मुक्के और अनेक शास्त्रोंसे एक साथ मारने लगे ॥ ६८-६६ ॥ रोहिणी I (भाद्रपद मासकी ? ) कृष्ण चतुर्दशी जो कि अनेक गुणों के विकासका स्थान है और तीनों लोक IS के इन्द्र जिसकी पूजा करते हैं उस दिन मुनिराज संजयन्तने अपने परिणामोंमें उत्कृष्ट सीमाकी समता धारण कर ली एवं अनेक प्रकारके कष्टोंकी अनेक प्रकारका आनन्द मान व आनन्दमय | हो गये ठाक हा है जिन पुरुषोंका चित्त धीर वीर है उनके लिये घोर आपत्ति भी उत्सव स्वरूप हो । जाती है। परम पवित्र मुनिराज संजयन्तने जिसप्रकार काष्ठसे अग्नि जुदी कर दी जाती है कोप खोलसे तलवार और दूधसे घी पृथक कर दिया जाता है उस प्रकार अपनी आत्माको देहसे सर्वथा 12 जुदा समझ लिया। दुष्ट विद्युद्दष्ट्र द्वारा किये गये सारे उपसगको उन्होंने सह लिया। उपसर्गोके | PRESYKa YEKACKETERELYRIC प्रस TakKSHEREFERESKHEarkehelk E Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F नम्र व्य समुत्पस्थानकानन्दमयोऽभवत् । विघ्ना अयुत्सवार्यते सतां निभूतचेतसां ॥७१॥ पृथग्भून' चकाराशु स्वात्मानं देहत काष्ठादग्निमसि कोषादग्धारसपिरिवामलं ।। ७२ ॥ तत्कृतं स सहिष्णुः सन् धनदेहो नगाकृतिः । निश्चलो निति यातः शुक्लध्या नेन शुद्धाः ॥ १३ ॥ अतोद्रिय पद पाप मायाकाय विवर्जितं । धर्ममावादयोनित्य कर्मामावादगोचर ॥ ४॥ यत्रै कस्मिन्ननन्ताहि निष्ठति सिद्धराशयः। सूक्ष्मादिगु मधेदत्वात्सुन सुक्ष्मातिसूक्ष्मनः ॥ ७५ ॥ सध्यनन्तजीवाना फंदे स्थितिरुहता। तेऽनन्ता कानंतभेदेन यदा स्थूलीभवत्यहो ॥ ७६ ॥ पूरयित्वा तदा लोकाकाशं यांत्यप्रतो ध्रुवं । अतः सूक्ष्मातिसूक्ष्म च जोवतच्च निगद्यते ।। ७७ ॥ समय उन्होंने अपना शरीर वज के समान कठोर बना लिया। पर्वतके समान वे निश्चल बने रहे ! जिससे विशुद्ध बुद्धि के धारक व मुनिराज शुक्लध्यानके वलसे मोक्ष सुखके पात्र बन गये ।उन पूज्य * मुनिराजने ममता और शरोरसे रहित अतींद्रिय-मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। पवित्र धर्मकी कृपासे वे जन्म जरा मरण रहित हो गये एवं कर्मों के सर्वथा नष्ट होजानेसे वे तत्क्षण सिद्धालयमें जाकर विराज गये इसलिये सब लोगोंके नेत्रों के अगोचर हो गये ॥७०-७४ ॥ सिद्धगण सूक्ष्म अन्या IS वाध जो निजो गुण हैं उनके स्थान एवं सक्ष्म २ जो पुदगलोंको भेद होता है उससे भी अत्यन्त द सदम होते हैं इसलिये जहां पर एक सिद्ध आत्मा रहता है वहीं पर अनंतानंत सिद्ध रहते हैं । सुई। की अण्णोके समान कन्दमें अनन्तानन्त जीव रहते हैं ऐसा शास्त्रका उपदेश है। यदि वे अनन्ता नन्त जोष स्थूल शरीर धारण करलें तो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमें भी न समोकर वे अलोR काकाश तक चले जा सकते हैं इसलिये जीव तत्वको सूक्ष्मातिसूक्ष्म वतलाया गया है। यदि जीव | तत्त्वको सूक्ष्मातिसूक्ष्म न माना जायगा तब सिद्ध जोवोंको भी संख्यात मानना होगा । उससे मोक्ष स्थानके भर जाने से मोक्ष को ही समाप्ति हो जायगी—किसीकी भी मोक्ष न होगी एवं मोक्ष की कारण स्वरूप धार्मिक क्रियाओं का सर्वथा नाश हो जायगा इसलिये कर्मों के सर्वाथा नष्ट हो RKaKVKarly ३४ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KPAPER यथा तदा सिद्धा भवेयुः संख्यिता यतः स्वाग्रजांगे । तदा मुक्ति समाप्तिः स्यात्प्रांतोऽभूद्धर्मकर्मणोः ॥ ७८ ॥ अतः सूक्ष्मातिसूक्ष्मं च जीवतत्वं द्विधः । स्वभाषा समप्यशिय तु न जायते ॥ ७६ ॥ अधो निर्वाणकल्याणपूर्जा कर्तुं सुराधिराः । समदुषे गतः स्वस्थ मूर्तयः ॥ ८० ॥ चतुर्विधामरा नेदुर्गेयं गायंति सन्मुनेः । नमम्नागेट् सदा स्वस्य भ्रात्राकृतिप्रतियत् ॥ ८१ ॥ क्षणोद्र तृतीयागमः कुधा । अहींद्रो नागपाशेन ताम्बबन्धाखिलान् खगानू । ८२ । महाक्रोधःरुणीभूतलोचनो धरणो जगौ । तान् दुष्टानिति वाणोघेची भिस्तद्भयप्रदैः ॥ ८३ ॥ भो भो मतधियः खेदा युष्माभिर्मत्सहोदरः । निर्मदो निर्मलः शानो ध्यानस्थो हि कथं जानेसे स्वभावसे ही जीवतत्व सूक्ष्मातिसूक्ष्म है परन्तु मोक्ष स्थान छोटा नहीं हो सकता किंतु कितने भी मुक्त जीव क्यों न जाय उन सत्रोंका उसमें समावेश हो जाता है | ७५-७६ ॥ मुनिराज संजयन्तने घोर उपसर्ग सहकर जव मोक्ष प्राप्त कर ली उस समय अपने २ वाहनों पर चढ़कर शीघ्र ही समस्त देव उनके निर्वाण कल्याणकी पूजाके लिये आ गये। मुनिराज संजयन्तके निर्वाण कल्याणकी खुशी में चारो निकायोंके देव आनन्द नृत्य करने लगे । मुनिराज संजयन्तके गुणोंका गान करने लगे । मुनिराज सञ्जयन्तके निर्वाण उत्सव में उनके छोटे भाई मुनिराज जयंतका जीव नाग कुमारोंका इन्द्र भी आया था वह वार २ अपने बड़े भाईकी मूर्तिका स्मरण करने लगा । अवधि ज्ञानके वलसे उसे इस बातका भी पत्ता लग गया कि विद्युद्दष्ट्र आदि दुष्ट विद्याधने मुनिराज सञ्जयन्तको विशेष त्रास दिया है जिससे उसका हृदय मारे क्रोधके भवल गया । शीघ्र ही उसने नाग पाशसे समस्त विद्याधरोंको बांध लिया। प्रवल क्रोधसे उसके दोनों नेत्र लाल हो गये एवं महा भयप्रद वाण स्वरूप वचनों से समस्त विद्याधरोंको ताड़ता हुआ वह इस प्रकार कहने लगा रे दुष्ट विद्याधरो ! मेरे बड़ े भाई संजयन्त मुनि अहङ्कार रहित निर्मल शांत और दृढ ध्यानी थे तुम सबने मिलकर उन्हें क्यों मारा ! तुम लोग शीघ्र कहो तुम्हारा उन्होंने क्या अपराध किया 1 Ke Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAPKE 1. हतः ॥ ८४॥ कोऽपराधः कृतस्तेन युष्माकं वदत स्वरः । यूयं कृतापराधा मे रे रे विद्याधराः ॥८५॥ इदानीं मारयिष्यामि मत्सहोदरये घोतान् । सर्वान् वियदुगतोन् नागपाश वज्र प्रहारतः ॥ ८६ ॥ ध्यक्षहतुनरं व्वाक्षाश्चतुभिर्हेति फारवाः । प्रभवो मत्लमा ते तु सहते कथं द्विषः || ८७ ॥ वासयन् विषभृन्नाथस्तान् कुकर्मकरान् शठान्। ततकेति चिरं चित्ते शिपामि क्षारतोयधौ ॥। ८८|| पतानधो विभागे वा पर्वतस्य क्षियामि स्वित् । अमपुरीमाशु वज्रेण दिक्षु दद्यां बलिं बलात् lice||अन्यथा हि यथा भ्राता हतः शत्र दुरात्मभिः तथा शस्त्रजालेन खण्ड खण्डं करोम्यमीन् ॥ १० ॥ विवाङ्गास्तदा खेटा भवन् लेलिहानपं । स्वस्थोभूत्वा कृपानाथ ! शृणुतावृत्त KPkst था। दुष्टो ! तुम लोगोंने मेरे भाईको मारकर मेरा घोर अपराध किया है। तुम समस्त विद्याधर मेरे पूज्य भाई के मारनेवाले दुष्ट हो । तुम्हें नागपाशके वज्र प्रहारसे शीघ्र ही मारूंगा इसमें कोई संशय नहीं ॥ ८०-८६ ॥ एक काकको यदि कोई पुरुष मार देता है तो उस मारनेवालेको अन्य काक पूर्ण कोलाहल मचाकर अपनी चोचोंके घातोंसे जब मार डालते हैं तब जो पुरुष मेरे समानः समर्थ हैं वे कैसे वैरियोंको सह सकते हैं! वे तो कभी बैरियोंसे बदला चुकाये बिना मान नहीं सकते। बस इस प्रकार उन दुष्ट कार्यके करनेवाले समस्त विद्याधरोंको नाग कुमारोंके इन्द्रने वेहद डाटा एवं उन दुष्टोंके विषयमें वह इसप्रकार विचार करने लगा इन दुष्टोंने कारण मुनिराज संजयन्तको दुखाकर तीव्र अपराध किया है ऐसे दुष्टोंको क्षमा कर देना महा पाप है इसलिये उस अपराधके बदलेमें इन्हें क्या मैं किसी खारे समुद्र में जाकर फेंक दूं । वा वज्र शस्त्रसे चारो दिशाओं में इनकी वलि प्रदान कर दूं । अथवा इन दुष्टोंने जिसप्रकार मेरे भाईको शस्त्रोंसे मारा है मैं भी उसी प्रकार शस्त्रोंसे इनके खण्ड खण्ड कर दूं । नागेंद्र कुमारका यह प्रबल क्रोध देखकर समस्त अपराधी विद्याधर थर थर कांपने लगे एवं चाटुमय वचन में इसप्रकार उन्होंने नगेन्द्र कुमारसे कहा APK Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मादितः ॥ १ ॥ अयं दोषोऽस्ति नास्माकं मुनां धर्मशालिना । प्रसारिता पय माधा विद्यद्रीण पापिना ॥ १२॥ पुरस्तात्तव को ल || येतो वयं क्षुदाः खचारिणः । गणशला यया मेटो: पतंगस्योदुखत्मभी! ३ ॥ देवधिण्य विशार्ष वा विकदल्यथ वाटिका । कदली होना न भास्येष न्यायहीना नरस्तथा ॥ १४॥ मतो देव विचार्याशु न्यायमार्गेण धर्मवित् । सदोषो हन्यतां हन्त न्यायवन्तो हि पण्डिताः । ___ कृपानाथ ! आप शांत हुजिये और भादि अन्त तक सारा यथार्थ वृत्तांत सुन लीजिये ॥८-12 ॥ ६१॥ हम लोग धर्म मार्गके अनुयायी और कोमल परिणामी हैं। यह जो बलवान अनर्थ वन 12 पड़ा है इसमें हमारा कोई अपराध नहीं है। हम लोगो से एक विद्युदंष्ट्र नामका महा पापी विद्याधर है उसीकी यह करतूत है--उसीके बचनों पर विश्वास कर हमसे यह निंदित कार्य वन गपा है। स्वामिन् ! जिस प्रकार विशाल मेरु पर्वतके सामने गण्डशैल-स्थूल पत्थरों के धारक पर्वत - कोई चीज नहीं। तथा सर्य और चन्द्रमाके सामने नक्षत्र कोई चीज नहीं उसी प्रकार हम तुद्र विद्याधर आपके सामने क्या चीज हैं ? प्रभो । जिस प्रकार शिखरके विना मन्दिर शोभा नहीं पाता कदली ( केला ) के वृक्षोंसे रहित बगीचा जिस प्रकार कदली वृक्षोंके बिना शाभा नहीं धारण * करता उसी प्रकार जो मनुष्य न्यायहीन है-न्याय दर्वक कार्य नहीं करता वह भी शोभित नहीं होता। ॥६२-६४ ॥ अतएव हे देव ! अप धर्म मार्गके अनुयायी हैं आपको चाहिये कि आप न्याय| पूर्वक विचार कर जो दोषी हो उसे ही मारें और दण्ड दें क्योंकि आप पूर्ण विज्ञ हैं और विज्ञ पुरुष जितना भी कार्य करते हैं न्याय पूर्वक कार्य ही करते हैं। जो मनुष्य मदोन्मत्त हो अपनी ! इच्छानुसार न्यायमार्गके प्रतिकूल कार्य करते हैं संसारमें उनके विशिष्ट वलकी प्रशंसा नहीं होती 15/ ठीक हो है कर्मों को निर्जरा जो भी होती है वह निरंकुश होती है अर्थात् उत्तम वल प्राप्त कर जो न्याय पूवक कार्य करते हैं उन्हींको वलवान माना जाता है किंतु वलवान होकर भी अन्याय पर्वक AMEkkrkchrrhitrketCKE sekchrhar kiskcks Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल ह 宿 ॥ ६५ ॥ यथारुचिरतः प्रमादतः। नैवारय सद्दल' वात्र निर्जगदिनिर कुशः || १६ || तुष्टीभूयमिती नागराज्ञस्तेषां क्योरमः । सुनोच चरान्नान् विद्युद्द 'ट्रमबन्धयत् ॥ ६७ ॥ पुत्रख भ्र तृदायादसंयुतं तं पयोधरे । संक्षिप्ततोऽद्रस्तावदन्य कथांश ६८ ॥ आदि-यामः सुतः प्राहेति साविकं वचः । बनैनाकारि यो दोषः क्षम्यतामा ग्रहान्मम ॥ ६६ ॥ त्वादृशां महतां नागर क्षुद्र पापा न शस्थत | गामानु दन्त न क्रूरः कृतेर्ध्य चापि केसरी ॥ १०० ॥ पुरा पुरुजिनेंद्रस्य काले विद्याधरेशिनां । विद्या कार्य करनेवालोंको वलवान नहीं माना जाता ॥ ६५-६६ ॥ विद्याधरोंके इसप्रकार शांतिमय दीन वचन सुन नागेन्द्र कुमार क्रोधरहित संतुष्ट हो गया। जितने भी निरपराध आर्य विद्याधर थे नागेन्द्र कुमारने उन्हें क्षमा कर छोड़ दिया। अपराधी विद्युष्ट्को कसकर बांध लिया एवं पुत्र स्त्री भाई और कुटम्बियों के साथ उसे समुद्र में डालनेके लिये उद्यत हो गया । नागेन्द्रकुमार जिस समय यह कार्य करनेकी चष्टा कर रहा था उस समय आदित्याभ नामक नागकुमारको दया आगई और वह शांत वचनोंमें इसप्रकार कहने लगा यद्यपि इस विद दुइंष्ट्र विद्याधरने आपको घोर अपराध किया है तथापि मेरे आग्रह से तुम्हें इसे क्षमा कर देना चाहिये । प्रिय नागेंद्र ! आप एक महान पुरुष हो आप सरीखे महान पुरुषों को क्षुद्र पुरुषों पर कोप करना शोभा नहीं पाता यह तुम अच्छीतरह जानते हो कि क्षुद्र श्रृंगाल क्रूर के सरीसे कितनी भी ईर्षा क्यों न करे तो भी बह कर सिंह उसे कभी नहीं मारता । भाई ! भगवान ऋषभ देव के समय में तुम्हारे वंशजोंने विद्याधर राजाओं को अनेक प्रकारकी विद्यायें दीं थीं उसी समय विद्याधर वंश का संसार में उदय हुआ था । प्रिय नागेंद्र ! यह संसार प्रसिद्ध बात है कि जिस मनुष्य विषवृक्षका भी अच्छी तरह दूध से सींचकर बढाया है वह चाहें वज्र मूड भी हो तो भी उसे स्वयं नहीं छेद सकता तुम तो एक महान और विद्वान पुरुष हो तुम अपने वंशजों द्वारा नि KKKK 監糖果 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समा भववश्य वेशोऽस्य निर्भमे मुना ॥१०॥ पूर्व दुग्धैः प्रसिंख्येव सम्पध्य विषभूरूह' । उपक्रमेत को मूढः छेत्त भो लेलिहानप!॥ | विमल | ॥१२॥युक्तरोन नागेन्द्र प्रत्युवाच रविप्रम । पापीपसोऽस्य दुई त्वया पात न विद्यते ।। १०३ ॥ मदनज तपोभारभूषितांगं दयानिधि। अबिनम्परा, संजपतममीमरस् १०४ ॥ भदोऽयं मम ईतव्यो न नियोध्यं त्वयामर । मुमुक्षंद्वातहंतारं यः स स्यात्पाप माजमं ॥ १०५ ॥ आदित्याभस्सता प्राह वैययं याचितो मया याशाभंगे गतो मानो भानमङ्ग तृणं पुमान् ॥ १०६॥ मानहीना नरा लोके दिनीयाः पदे पदे । किश्चित्कर्तु'मायकवादलोकपुरुषोपमाः ॥ १० ॥ विमानमान पमा चिजहात्येष दूरतः । शांतार्मिषं प्रदीपं मापित वंशका कैसे संहार कर सकोगे ? सूर्यके समान देदीप्यमान आदित्याभ नामक नाग कुमार शकी यह बात सुनकर मुनिराज जयंतके जोव नागेंद्रने कला भाई ! तुम इस अतिशय पापी विद्युबष्ट्रका कर कर्म जानते नहीं हो इसलिये इसे दयाका पात्र 5 समझ रहे हो मेरे बड़े भाई संजयन्त परम तपस्वी थे और दयाके सागर निरपराध थे इस दुष्टने 1 बिना अपराध उन्हें मार डाला है इसलिये. अपना भाईका बदला चुकानेके लिये मुझे इसे मार डा.* लना ही ठीक होगा तुम्हें इस बातमें किसी प्रकारको वाधा नहीं डालना चाहिये क्योंकि यह नीति है कि जो अपने भाईके मारने वालेको क्षमा कर देता है---उससे वदला नहीं लेता वह संसारमें पापी माना जाता है ॥६७-१०५ ॥ जयंतके जीव नागेन्द्रकी यह बात सुन आदित्याभ नामका | नागकुमार अपने मनमें विचारने लगा मैंने जो विद्युदंष्ट्र विद्याधरकी रक्षाके लिये याचना की वह ठीक नहीं हुआ क्योंकि मुनिराज जयंतके जीव नागेंद्रने वह मेरी याचना स्वीकार नहीं की। यह नियम है जहांपर याचनाका भंग है । वहां पर सन्मानका भी भङ्ग है और जिस मनुष्यका सन्मान नहीं वह मनुष्य तृणके वरावर है। , संसारमें यह बात स्पष्ट रूपसे दीख पड़ती है कि जिन पुरुषोंका सन्मान नहीं होता वे पद २ पर KARTIKKIVIS Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TETW मला ११ AY KAYE KYAPAMSPAPER या प्रकाशोऽतितरां गुरुः॥१०८॥ अतिरेको हि वर्पस्य गतमा नर' त्यजेत् । प्रतिमेधाधिय' नागेट् धोश मडलदेवता । १०६ ॥ कृणते मानिनं मा च संभ्रमेण गुरु गुरु । सिनेयः कुनामा समिति गुर... ॥ पुरस्तात्तव नागें ! याचा गोऽपि मे सुखः। अधमे नाकामा नु वर शिष्टे विपर्ययः ॥ १११ ।। इति शालदाहपतिमाशु सुमाकरकातिनामकः । अम्वरगणिपयोः परमयिष्यति निंदा जन्य दुःख भोगते रहते हैं । वे संसार में कुछ महत्त्व पूर्ण कार्य भी नहीं कर सकते इसलिये वे मिट्टी आदिके क्ने पुरुषके समान गिने जाते हैं । जिस प्रकार लो रहित दीपकको प्रकाश छोड़ देता है उसी प्रकार जो पुरुष सन्मान रहित हैं लक्ष्मी उन्हें छोड़ देती है मानहीन पुरुषोंपर उसका प्रेम नहीं होता ॥ १०६-१०८ ॥ जिस. प्रकार निर्वद्धि पुरुषोंको प्रतिभा-उत्तम बुद्धि छोड़ देती है in a और भाग्यहीन पुरुषोंको मङ्गल देवता-लक्ष्मी आदि छोड़कर चली जाती हैं उसी प्रकार मानहीन पुरुषोंको अभिमान भो छोड़ देता है । क्रोधी भी सन्माननीय गुरुको जिस प्रकार शिष्य मानता है। In संमाननीय पतिको जिस प्रकार स्त्री मानती है उसी प्रकार सम्माननीय महत्त्वशाली पुरुषको लक्ष्मी करती है। चण एक इस प्रकार विचार कर आदित्याभ नामक कुमारने अपने स्वामी नागेंद्रसे कहा प्रिय नागेंद्र ! यद्यपि तुम्हारे सामने मेरी योचनाका भङ्ग हुआ है तथापि वह मेरे लिये सुखदायी है क्योंकि जो अधन पुरुष हैं उनमें यदि याचना परी भी हो जाय तब भी ठीक नहीं किन्तु : Prजो पुरुष महान हैं उनमें वह निष्फल भी चली जाय तब भी ठीक है आप एक उत्तम पुरुष हो मेरी | याचना आपने स्वीकार नहीं की तब भी वह मेरे लिये कल्याणकारी है।।१०८-११०॥इसप्रकार जिस 5 आदित्याभ नामके नागकुमारने जयन्तके जीव नागेन्द्रके वचनोंकी पुष्टिकी वहीं आदित्याभ नाग कुमार अपने उत्तम उपदेशसे विद्याधर विद्युदंष्ट्र और धरणेद्रके कल्याणोके करनेवाला होगा ।१११ Rkkkkk Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधाय शत्कर'॥ ११२ ॥ महातपा यः परमेण तेजसा । जगाम सिद्धिं सुकृतोदयाम्म निः। सुगद्राचितपरकाः सदा । स पातु मध्यान् जिनसेवितः ।। ११३ ॥ इत्या श्रीवृद्धिमलनापपुराणे म० रत्नभूषणाम्नायालङ्कारविजनचातुरीसमुश्चन्द्राक्षारोभयमाषाचक्रवहिर्ष वीरकातनजघहषाशसविरचित प्रगलदाससाक्षाय्यसाक्षे यैनर तसंजयन्तजस्तदीक्षाग्रहणसंजयंतो - पसर्गशिषप्राप्तिजयंतधरणत्वप्राप्तितदागमादित्याभदेवसमागमो नाम षष्ठः सर्गः ॥६॥ जो मुनिराज संजयन्त दिव्य तेजके धारक परम तपस्वी थे। तीब्र पुण्यके उदयसे जो मोक्ष लक्षमीके पात्र बने जिनके चरणोंको बड़े २ इन्द्र पूजते हैं और बड़े मुनि जिनकी आराधना करते हैं वे मुनिराज भव्य जीवोंकी रक्षा करें ॥ ११ ॥ इसप्रकार महारक रलभूषणकी आम्नायके अलंकार स्वरूप विद्वानों के विद्वत्तारूपी समुद्र के लिये चंद्रमा समान उभय भाषाके चक्रवर्ती हर्षवारिकाके पुत्र माई ब्रह्ममंगल दास की सहायता पूर्वक ब्रम कृष्णदास विरचित वृहत् विमलनाथ पुराणमें बैजयंत संजयंत और जयंतका दीक्षा ग्रहण संजयंतको घोर उपसर्ग और मोक्ष प्राप्ति जयंतका धरणेंद्र होना और आदित्याभ नाग कुमारका समागम वर्णन करनेवाला छठा सर्ग समाप्त हुआ ।। ६॥ KERAYERemedies सातवां सर्ग। श्री उ.गन्माप द शद । य स्तौतिस्म देवालि चाये परमेश्वर ॥ १॥ अधादित्यप्रभोऽहीशंप्रोवाचेति ___जो भगवान जिनेन्द्र जगतके नाथ हैं । लक्ष्मी प्रदान करनेवाले हैं। पापोंके नाशक और क ल्याणके देनेवाले हैं और जिनकी स्तुति बड़े २ इन्द्र करते हैं उन भगवान जिनेन्द्रको में नमस्कार IPE करता हूँ ॥१॥ महान ऋद्धिके धारक आदित्याभ नागकुमारने अपने मित्र नागेंद्रसे कहा TRUETRICSEE Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ お味 飛香絶者 महर्द्धिकं । शृणु नागाधिराज ! त्वं मचो शेतिस युतं ॥ २ ॥ किं करोषि वृथा वैरं शल्यषद्भवदुःखदं । तस्मान्नश्यन्ति जीवाश्च स्यति किं नो परस्परं ॥ ३ ॥ विद्युष्ट्रो हि ते भ्राता न जातः संसृतौ भ्रमन्। को बन्धुः को न वा बन्धुः को हितश्यादितो हि कः ॥ ७ ॥ क स्तातः को न जातात: सवित्री का मदा न का । कः स्वोयः को न वा स्वीयः जाती जाती वदाहिराट् ||५|| सर्वे परस्परं जीवाः सगोनाः सन्ति वस्तुतः। शत्रवोऽपि तथा सर्वे मातृपितृसहोदराः ॥ ६ ॥ पूर्वजन्मनि ते भ्राता संजय तो महामुनिः । मदण्डयन्महाक्रोधाद्विद्यु इन्द्र कृतागस' ॥ ७ ॥ ततो वैरादयं लेटो भूत्वा जातिस्मोऽधुना । महादुःख' चकारोच्चैः स जयंतस्य सन्मुनेः ॥ ८ ॥ भ्रातर ं तत्र प्रिय नागेंद्र ! तुम मेरे न्यायपूर्वक वचनोंको सुनो तुम जो विद्याधर विद्युष्ट्र के साथ वैर बांध रहे हो वह वृथा है क्योंकि वैर भव भवमें शल्यके समान दुःख देनेवाला है । इसी बैरके कारण जीव नष्ट होते रहते हैं और आपसमें एक दूसरेको छेदने के लिये उद्यत हो जाते हैं । संसारमें भ्रमण करता हुआ यह विद्युद्दष्ट्र क्या तुम्हारा भाई किसी भवमें नहीं हुआ ? अनेक बार हो चुका है, क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए इस जीवका जन्म जन्ममें कौन तो बंधु नहीं हुआ और कौन अबंधु, बैरीनहीं हुआ ! कौन हितकारी नहीं हुआ और कौन अहितकारी नहीं हुआ । कौन तात नहीं हुआ और कौन वेतात नहीं हुआ । कौन माता नहीं हुई और कौन श्रमाता स्त्री आदि नहीं हुई । एवं कौन अपना नहीं 'हुआ और कौन पराया नहीं हुआ ! | भाई नागेंद्र ! संसारमें भ्रमण करते 'हुए ये सब जीव नियमसे अपने सगे हो चुके हैं। तथा जो इस समय शत्रु दीख पड़ते हैं वे भी माता पिता और भाई हो चुके हैं ॥ २६ ॥ पूर्व जन्म में तुम्हारे भाई संजयन्त मुनिराजने अपराधी विद्युदंष्ट्रको क्रुद्ध हो दराड़ दिया था उसी वैरसे मरकर यह विद्युदंष्ट्र विद्याधर हुआ। मुनिराज सञ्जयन्तको देखकर इसे पूर्व जन्मका स्मरण हो गया उसीसे इसने मुनिराज सञ्जयन्तको विशेष कष्ट पहुंचाया ॥ ७-८ ॥ यह पापी विद्युद्दष्ट्र चार जन्मोंसे वार वार तुम्हारे भाईका वैरी चला आया है उसी ३५ 粘着 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमल २७४ bhabar पापोऽयं प्राक्तजन्मचतुथ्ये। महावैगनुबंधेन लोकांवरमजीगमत् ।। अस्मिन्भये शुभ मन्य विद्युबा यतः। सुपोहतकतं विश्न मुक्ति यातो महामनिः॥५०॥ केनचित्साहसापायोऽकारि तेन गुणोऽजनि । गुणं धीधनाः सन्तो मन्यते नापकारकं ।११। परि भूतिमितो धोमान् विकृति नैव गच्छति । परदनो वा भिदां प्राप्तश्वंदते पुरतः स्थितान् । १२ खलो विव्याध यं साधु जिह्मोभवति | सोऽपि न । दह्यमानोऽ गुरुः साधु प्रकाशति सद्गुण ।। १३ ॥ कोविदानां मतिर्जातु प्राणांते विचार न । इनिष्पीऽयमानोऽपि महा वैरके सम्बन्धसे इसने तुम्हारे भाईको मारा है ॥ ६ ॥ मैं तो इस भवमें विद्याधर विद्युद्दष्ट्रको मुनिराज सञ्जयन्तका परममित्र मानता हूं क्योंकि इसके द्वारा किये गये उपसर्गको सहकर मु. निराज सञ्जयन्तने मोक्ष स्थान प्राप्त कर लिया ॥ १०॥ जिस किसी भी पापीने किसीको कष्ट पचाया है वह कष्ट उसके लिये गुणस्वरूप ही हुआ है इसलिये विद्वान लोग उस कष्टको गुण हो । मानते हैं दुःख नहीं मानते ॥ ११ !! जो पुरुष विदान हैं संसारको वास्तविक स्थितिके जानकार हैं क उन्हें कितना भी कष्ट क्यों न पहुँचाया जाय वे उस कप्टसे कष्टायमान नहीं होते-विकृत न हो2) कर उनका स्वभाव ज्योंका त्यों बना रहता है। जिस तरह कि चंदनको कितना भी काटा छेदा है जाय तब भी वह अपना सुगन्धित स्वभाव नहीं छोड़ता-जैसा उसे छेदा जाता है वैसा ही वह पासमें खड़े रहनेवालोंके लिये महकता चला जाता है। सज्जनोंका स्वभावभी चन्दन सरीखा होता है ॥ १२ ॥ जिस प्रकार अगरको कितना भी जलाया जाय वह सुगन्धि ही छोड़ता जाता है उसी प्रकार दुष्ट पुरुष मुनियोंको भले ही मार डाले तथापि वे मारनेवाले पर क्रोध नहीं करते वे अपने परिणामोंमें समता भाव ही रखते हैं ॥ १३॥ जिस प्रकार ईखके पेडको जितनार पेरा जाता है वह मिठास ही छोड़ता चला जाता है उसमें कोई विकार नही उत्पन्न होता उसी प्रकार जो पुरुष विद्वान हैं दुष्टोंसे दुःखित होनेपर भी उनकी बुद्धिमें किसी प्रकारका विकार नहीं होता वे, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M a माधुर्य क्षरति ध्वं ॥ १४॥ अहो प्रास्तामतो नागेट वरेण गुणवारिध!। पूर्ववैरोत्थदुःवस्यबा के प्रतिकिया ।। १५॥ इत्याको रयाधीशः प्राहादित्यरमं सुरं। कथ्यतां सा कथा देव । वैरसबम्यराश्निो॥ १६॥ तदोवावेति सर्शमः ग त्वं फणिशेखर!। अमुष्मिन् वैरमुत्सृज्य तरप्रपंचं वदाम्यहं ।। १७ ॥ अप जंवमति छोपे विशाले लक्षयोजनेः। भारत वर्षमाभाति कामुकाकृतिमादधत् ॥१८॥ रारजीति पुर तत्र नानाशोभासमन्धितं । पद्मालयसुराधीशरिष्टं सिंहपुर पुरं । १६॥ सतभूनिगृहा यत्र सविलासाश्च | याषितः । रक्तोष्ठ्यः पोवरस्तन्यः सहासा मांति भूरिशः ।।२०।। यत्र दंडोऽस्ति चेत्येषु भ्रांतिरह प्रदिक्षणे । काठिन्य हृदये स्त्रोणां शांत ही बने रहते हैं ॥ १४ ॥ इसालय भाई नागेन्द्र ! तुम्हारे लिये मेरा यही हितकारी कहना है कि संसारमें तुम एक गुणशाली व्यक्ति कहे जाते हो । विद्याधर विद्युद्दष्ट के साथ तुम्हें वैर न बांधना चाहिये । भाई। तुम्हीं सोच लो पूर्व भवमे जो बैर बन्धहो चुका है उसका क्या प्रतीकार हो सकता है ? वह तो वध गया सो बंध ही गया ॥ १५ ॥ नागकुमार आदित्याभकी यह बात | सुन धरणेद्रका क्रोध कुछ शांत पड़ गया और विद्युइष्ट का मुनिराज सञ्जयंतके साथ कैसे वैर बंधा ! IN यह कथा जाननेको उसके मनमें लालसा होगई इसलिये वह आदित्याभसे इसप्रकार कहने लगा का मुनिराज सञ्जयन्त और विद्युइंष्ट्र के आपसो वैरसे संबन्ध रखनेवालो कथा कृपाकर कहिये। A उत्तरमें देव आदित्याभने कहा प्रिय नागराज ! मैं सारी कथा विस्तारपूर्वक कहता है। विद्याधर विद्युद्दष्ट्र के साथ वैर छोड़कर तुम आनन्द पूर्वक सुनो-- ___एक लाख योजनके चौड़े इसी जम्बू द्वोपमें एक भरत नामका क्षेत्र है जो कि धनुषकी आकृ- तिको धारण करने वाला महा शोभायमान जान पड़ता है। प्रसिद्ध भरतवंत्रो अन्दर एक सिंह पुर नामका नगर है जोकि अनेक प्रकारकी शोभाओंसे व्याप्त अत्यन्त शोभायमान है। लक्ष्मीके | स्थान बड़े २ देवेंद्रोंको प्यारा है और उत्तम है ॥१६-१६॥ सिंहपुर नगरके अन्दर उस समय सतखंडे yawatsAYTTA Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KEE शानं कर्मपंकजे ॥ २१ ॥ नास्तिभ्यं सोगतागारे विरोधोधरपल्लवे । जघने चापि दन्तेर्वाकरजैविद्यते कृतः ॥ २२ ॥ तब राजा बभू वारिमामालोचनतोयकृत् । सिंहसेनो महासैभ्यः सिंहभूरिपराक्रमः ॥ २३ ॥ चित्रभानुसुप्राभानुचन्द्रभानुप्रताधिकः । सासिय भोरवे नैव कातरः कढणालयः ॥ २४ ॥ युग्मं । अत्रोकर धमपूजज्जगगुरु । अदीदहविषां देशानर्थिभ्यो ददश ॥ २५ ॥ मकान शोभायमान थे एवं लाल२ओठों की धारक स्थूल स्तनोंसे व्याप्त सदा हंसनेवाली और विलासरस परिपूर्ण स्त्रियां थीं। सिंहपुर नगरमें सारी प्रजा सदाचारिणी थी इसलिये राजाकी ओर से किसी प्रकारके दण्डका विधान न था । यदि दण्ड था तो चैत्यालयोंके शिखिर भागोंपर था जिसपर कि ध्वजा फहरातीं थीं। वहांपर किसी बात में भ्रांति न थी - सब लोगोंको ठीकरूपसे पदार्थों का निश्चय था । यदि भ्रांति थी तो भगवानकी प्रदक्षिणाओंमें थी --- लोग घूम २ कर भगवान जिनेन्द्रकी प्रदक्षिणा करते थे | कठिनता वहांपर स्त्रियों के स्तनोंमें ही थी अन्य कहीं किसी मनुष्य के हृदय में कठिनता न थी -- सब लोग सरल परिणामी थे । कर्मपंकजके सिवाय वहांपर किसीको मारने पीटने की प्रथा न थी । उस सिंह पुरमें नास्तिकता बौद्धमन्दिरोंकी थी— कोई भी बौद्धधर्मका अनुयायी न होनेके कारण किसी भी बुद्ध मन्दिरकी वहां पर सत्ता न थी परन्तु वहांपर लोग नास्तिक न थे--- पर लोक आदि पदार्थों पर पूर्ण विश्वास रखनेवाले थे। बहांपर दांत वा नखोंका जघन और अधर math ही साथ विरोध था आपसमें किसीके साथ कोई विरोध नहीं रखता था ॥ २०-२२ ॥ सिंहपुरका रक्षण करने वाला राजा सिंहसेन था जो कि शत्रुओं की स्त्रियोंके नेत्रोंसे आंसू बहाने वाला | था । विशाल सेनाका स्वामी था और सिंहके समान प्रबल पराक्रमी था । वह राजा सिंहसेन चित्र भानु सुधा भानु ओर चन्द्रमाद्योंसे भी अधिक प्रभाका धारक था । संग्राम में शत्रुओं को पीठ न दिखाने के कारण वह वलवान खड्गधारी था। धर्मका आचरण करता था। तीन जगतके गुरु की पूजा KKAR Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अझ तस्य महादेवी रामदत्तति हिश्र तारा भोगप्रिया समांगत्वान्नानाभोगासनोस्सुकाः ।। २६ ।। सती प्रियानुकूलत्वात्कामिनीव मनो भुवः। रुपरंभोग्नतस्थुलवृतनतंयमंधरा | युग्मं । मंत्री तस्य गुणागारो घेदविदुब्राह्मणोत्तमः । श्रीभूतीत्यभिधो मान्यो लोकानां सत्यवारया ।। २८॥ अन्यदा सरकारमा प्रतिज्ञा कैतवादिध । अधक्ष्य वेदलीक तदकरिष्यं गलच्छिदां ॥२६॥ लोकेऽथाभूत्तदा| स्यातः पत्तने राजसंसदि । ठासिपुत्रको भूत्वा स्वल्पभाषी च तिष्ठति ॥३०॥ नामधेयं तदा दत्तं द्वितीय तस्य हर्षतः । सिंहसेनेन सेनेन rakshaskYEKAALCREENNE h yaMPETRY न करता था शत्रुओंके देशोंको राखमें मिलाता था और याचकोंको विशिष्ट धन प्रदान करता था ॥२३-२५ ॥ राजा सिंहसेनकी स्त्रीका नाम रामदत्ता था जो कि अपने गुणोंसे संसारमें प्रसिद्ध थी। भोगोंको प्यारा मानती थी और भोग भोगनेके जो भी आसन है उनमें सदा लालायित रहती थी । वह रानी रामदत्ता अपने पतिके अनु कूल चेष्टा करनेवाली थी इसलिये सती थी । सुन्दरतामें 2 कामदेवकी स्त्री रति थी। रूपसे रम्भाकी उपमा धारण करती थी एवं उन्नत स्थूल और गोलाकार नितम्बोंसे शोभायमान होनेके कारण मन्द मंदरूपसे गमन करने वाली थी॥ २६-२७ ॥ राजा सिंहसेनके मन्त्रीका नाम श्रीभ ति था जो कि अनेक गुणोंका भण्डार था। वेदोंका जानकार था। जातिका ब्राह्मण था और सत्य बोलनेके कारण समस्त लोकका आदरणीय था ॥ २८ ॥ एक दिन श्रीभूतिने छलसे यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं झूट बोलगा तो अपना गला छेद डालूगा ॥ २८२६ ॥ अपने सत्यवक्तापनेके कारण वह श्रीभ ति समस्तलोक नगर और राजसभामें प्रख्यात था एवं वह अपनी की हुई प्रतिज्ञाकी दृढ़ता बतलाकर बहुत थोड़ा बोलने वाला होकर रहने लगा ॥ ३०॥ श्रीभ तिकी यह कड़ी प्रतिज्ञा सुन राजा सिंहसेन बड़ा प्रसन्न हुआ और लक्ष्मीके भण्डार - राजा सिंहसेनने हर्ष पूर्वक मन्त्री श्रीभ तिका नाम सत्यघोष रखदिया ॥ ३१॥ Kas Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल पुत्रयथ お味調味剤味 दिया सत्यघोष इति ध्रुवं ॥३१॥ अधास्ते पापं पुरुपुरोपमं । पतनं तथनानंदि सदानन्द भरे तं ॥ ३२॥ तल्लोवास महाश्रेष्ठी सुदत्ता ख्येशुणाधिकः । धार्मिकाणां घुरि स्थायी विनेयानां यथा गुरुः ॥ ३३ ॥ सुमित्रा भामिनी तस्य भामिनीव मनोभुवः । भ्रूभङ्गकार्मुक दृष्टिवान् व्यधात् ॥ ३४ || भइ मिलस्त्रयोरासीत् सुतः शक्रसुतोपमः । अधीताखिलसद्वियों युवा भोगपुरन्दरः ॥ ३५ ॥ एकदा द्या तुमभ्यसुता ययुः । तदाली भद्रमिदारुयस्तरमा तद्वनं गतः ॥ ३६ ॥ समयं प्राप्य ते प्रोचुर्भद्रमित्रमिति स्फुटं । मिल ! यस्तु सायेन जीवति ॥ ३७ ॥ उपापेन बिनागारे कि तिष्ठसि सर्वदा । साकनमा यिरेाहि रत्नद्वोप || ३८ ॥ तेनर्जिता मिल ! पुत्र णार्थक्षयकृता । किं भवेन्मुनिना भूमपला सधेष च ॥ ३९ ॥ जद्दासोचैस्तदा इसी पृथ्वीपर एक पद्मखण्ड नामका नगर है जो कि अपनी शोभासे इन्द्रपुरीकी समता धारण करता है । सदा नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाला है और सदा नाना प्रकारके श्रानन्दों से व्याप्त रहता है । पद्मखण्ड नगरमें एक सुदत्त नामका सेठ रहता था जो कि विपुल संपत्तिका स्वामी था । अनेक गुणोंका भण्डार था । एवं जिसप्रकार शिष्यों के लिये शिक्षा देनेवाला गुरु होता है उसीप्रकार वह धर्मात्मा पुरुषोंका गुरु स्त्ररूप था ॥ ३२-३३ ॥ सेठ सुदत्तकी स्त्रीका नाम सुमित्रा था जोकि अपनी अद्वितीय सुन्दरता में कामदेवकी स्त्रो रतिके समान जान पड़ती थी और भृकुटीरूपी धनुष पर कटान रूपी बाण चढ़ाकर वह बड़े २ देवोंके चित्त व्यथित करनेवाली थी॥ ३४ ॥ सेठ सुदत्त के सेठानी सुमित्रा उत्पन्न पुत्र भद्रमित्र था जो कि सुन्दरता में इन्द्रपुत्रके समान जान पड़ता था, समस्त विद्या का पारगामी था । युवा और पूर्णरूप से भोग भोगने वाला था । एक दिनकी बात है कि नगर निवासी समस्त सेठोंके पुत्र सिंहपुर के उद्यानमें क्रीडा करने के लिये गये । कुमार भद्रमित्र भी उनके साथ कोड़ा करनेके लिये वनमें गया । अवसर पाकर अन्य सेठ पुत्रोंने भद्रमित्र से कहा-मित्र ! अपन बणिकपुत्र कहलाते हैं। बणिकपुत्रों का जीवन व्यवसायके आधीन है । व्यवसाय केलिये तुम कोई भी उपाय न कर निरर्थक घरमें रहते हो। हम लोग व्यवसाय के लिये रत्नद्वीप おおおおおお 家かで育 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प Taajavad भामित्रो दवा सुतालिकां। अहो मुनिः कथं तेन दक्षिणोपमीयते ॥४०॥ तदोचुस्तेऽथ मुन्मित कथ्यमानां कथां शृण । श्रुता मुनिभुखाभ्योजान्निश्चयोत्पादिनों सुहत् ॥ ४२ ॥ अथास्ति स्तवकग्लुछपननं सागतिके। हेमरूप्यायसां दुर्गेष्टितं त्रिभिरूमिगं । ५४२ ॥ रामाणां पुरुषाणां वा चातुर्याः सद्मनां पुरः । शोमायाः सरसः केन वय॑ते गुरुणापि न ॥४३॥ तत्र चैरावणो राजा राजजाना चाहते हैं तुम्हें भी चाहिये कि हमारे साथ तुम भी व्यापारके लिये रत्नद्वीप चलो । मित्र ! | जिसप्रकार प्रवल तप तपनेवाले क्रोधी मुनिका बिपुल भी तप निरर्थक माना जाता है उसीप्रकार | पुत्र भी उत्पन्न हो परन्तु वह धनका उपार्जन करने वाला न होकर उसका क्षय करने वाला हो तो उसका होना भी निरर्थक है। अन्य धनिक पुत्रोंकी यह बात सुन भद्रमित्र ताली देकर हंसने लगा और हंसते हंसते उसने यह कहा____ भाई ! तुमने जो मुनिके साथ दरिद्रकी तुलना की है वह बड़ी हास्य जनक है । उत्तम मुनिके साथ दरिद्रकी तुलना कैसी । भद्रमित्रकी यह बात सन सेठ पुत्रोंने कहा प्रिय भद्रमित्र। इसी विषयमें हमने मुनिराजके मुखसे कथा सुनी है जो कि सर्वथा निश्चय करने योग्य है हम वह कथा | तुम्हें सुनाते हैं तुम ध्यान पूर्वक सुनो। इसी पृत्वीपर एक स्तवकग्लुछ नामका नगर है जो कि सोना चांदी और लोहके वने तीन परकोटोंसे शोभायमान है इसी लिये तीन तरङ्गोंसे ब्याप्त वह समुद्र सरीखा जान पड़ता है । ३५-४१ ॥ वह स्तवकग्लुंछ नगर चतुरता और शोभाको स्थान स्वरूप स्त्री और पुरुषोंसे सरसरूप था इसलिये वह ब्रह्मा और वृहस्पतिकी भी बर्णनाके अगोचर था॥ ४२ स्तवकग्नुछ नगरका स्वामी राजा ऐरावण था जो कि कुवेरके समान दानी था। और चन्द्रमाके समान स्वच्छ यशका धारक था। शत्रु ओंके लिये शल्यवरूप था और समृद्ध था॥४३॥ उस समय राजाऐरावणके राज्यकालमें E YEYEKAKKARY Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल CO 御宿か PAPREPA राजघदूर्जितः । राजते रजनीशांशुरशाः शल्यं द्विषां महान् ॥ ४४ ॥ राजधान्यध पोलूनां वीराणामुग्रतेजसां । औरकट्य विद्यते भूमौ बाहुल्यादिषभृशं ॥ ४५ ॥ सहस्रप्रभा रामाः संति ग्लौमुखपंकजाः । पृथुस्तनतला मध्ये क्षामास्रस्य रतिप्रभाः || ४६ ॥ सुताः पंचशतान्यस्य वीरसेनादयो वभुः । मृगयासक्तचेतरूका योद्धारों रणकोविदाः || ४७ || प्रयाणसमये यस्य रारदन्ति महानकाः । एक लक्षप्रभा नूनं तावंतः पटहा हठात् ॥ ४८ ॥ विष्टरासीन माभाति धर्मतेजाः पुरन्दरः । शेषो या शैलराजः किं स राजा दुर्जयो प्रचण्ड तेजके धारक अगणित वीरोंकी राज धानियां बाहुबलि आदिको राजधानियोंके समान पृथ्वीपर विद्यमान थीं। राजा ऐरावण के छह हजार रानियां थीं जो कि चन्द्रमाके समान मुखकमल की धारक थीं विशाल स्तनोंसे शोभायमान कृशोदरी और रतिके समान परम सुन्दरी थीं ॥ ४४४५ ॥ राजा ऐरावणके वीर सेन आदि पांचसौ पुत्र थे जो कि शिकार खेलने के बड़े शौकीन थे योद्धा थे एव संग्राम सम्बन्धी अनेक कलाओं के जानकार थे ॥ ४६ ॥ जिससमय राजा ऐराaunt किसी शत्रु आदिके प्रति प्रयाण होता था उससमय उसके आगे आगे एक लाख नगाड़ बजते थे तथा जिसप्रकार एक लाख नगाड़ े बजते थे उसीप्रकार एक लाख ही पटह जातिके बाजे बजते थे। वह ऐरावण नामका राजा जिस समय सिंहानपर बैठता था उससमय ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य के समान तेजका धारक यह साचात् इन्द्र है वा शेषनाग और मेरुपर्वत है विशेष क्या वह राजा समस्त शत्रुओंके लिये दुर्जय था— कोई भी शत्रु उसे जीतनेके लिये समर्थ न था ॥। ४७४६ ॥ विजयार्द्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणि में एक अलकपुर नामका नगर विद्यमान है। इस नगर का रक्षण करने वाला राजा महाकच्छ था और उसकी पटरानीका नाम दामिनी था। राजा महाकच्छके रानी दामिनीसे उत्पन्न एक प्रियंगुश्री नामकी कन्या थी जो कि सुन्दर रूपकी सीमास्वरूप थी— उससे 看板 AYAYAYAYS Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विषां ॥ ४२ ॥ बिजयासर श्रेण्यामधामात्यलकं पुरं । तत्र राजा महाकच्छो भामिनी तस्य दामिनी ॥ ५० ॥ तयोः पुत्री प्रियंगुश्री रूपा वतरां । हष्ट्येकास वां राजा थौवनातिशैशवों ॥ ५१ ॥ इति वितं समादध्यौ कस्मा वा प्रदीयते । राज्ञे यो ग्याय रूपेण जिसचेतोजतेजसे ।। ५२ ।। नैमित्तिकार मध्या स्तवकग्लु'स्वामिनं । कन्याया मकरोविन्तां तदानयन एव सः ॥ ५३ ॥ मायाप्ति' पृयुग्मकं ह्रस्वकर्णं विधाय सः । जगाम स्तयकग्लुद्धे मुक्तास्तवकारयिते ॥ ५४ ॥ दुर्गं हि दूरतो दृष्ट्वा दुर्निरीक्ष्यं ततर्फ नु । श्वेतांगः शैलराजो नु हेमशैको नु देयपूः ॥ ५५ ॥ संभावयन्निति द्वार' सहस्रस्तमतोरणं । पूर्बकाप्टोऽयं योऽग्टलक्षा दश बढ़कर संसार में कोई भी रूपवती उससमय कन्या न थी जिससमय कन्या प्रियंगुलोको यौवनसे • मंडित देखा राजा महाकच्छके मनमें यह चिंता होने लगी अपने सुन्दर रूपसे कामदेवकी कांतिको फीके करनेवाले किस योग्य राजाके लिये यह कन्या प्रदान करनी चाहिये ? बस राजा महाकच्छने शोघ्र हो नैमित्तिकको बुलाया और उससे यह जानकर कि इस कन्याका स्वामी स्तबकग्लुछ नगरका राजा रावण होगा, शीघ्र ही वह उसको अपने नगर में ले आनेकी चिन्ता करने लगा ॥ ५०-५२ ॥ अच्छी तरह सोच विचार कर राजा : महाकच्छने शीघ्र ही विशाल वक्षस्थल और छोटे छोटे कानों से शोभायमान एक माया मयी घोड़ा बनाया एवं मुक्ताओंकी मालानोंसे शोभायमान स्तवकग्लु छ नगरकी ओर प्रयाण कर दिया। स्तवकग्लु छ नगरका किला एक विशाल किला था। राजा महाकच्छ उसे देखकर विश्वार करने लगा कि क्या यह कैलाश पर्वत है वा मेरुपर्वत वा अन्य सुवर्ण मयी पर्वत अथवा कोई देवनगर है ऐसा विचार करता २ राजा महाकच्छ किले के दरवाजेके पास पहुंच गया जो दरवाजा हजार स्तंभोपर लटकते हुए तोरणोंसे शोभायमान था । जिसका मुख पूर्वको खोर था एवं बीस लाख वीर योधाोंसे सदा रचित रहता था ।। ५३ – ५५ ॥ इसप्रकार किलेको देखकर वह विद्याधर EKERPREKERY Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षितं ।। १६ । घिलोक्य दुर्गम गत्वा धने व्याघुट्य वेगतः । अधिरुह्य हरि रेमे नानाकोतुककृत्वगः ॥ ५७ ।। राजपत्रास्तदा स्तु वीरसेनादयोऽखिकाः । आफेणुस्तदने दूष्ट्या पप्रच्छुस सकौतुकं ॥५८ कोसिस् कुत भायातः कस्यानोऽयं निरूप्यतां । मलका वागत:खेटोऽस्यहमेश्वोऽतिदुर्धरः ॥५६॥ घोटक दुर्धर घण्टामालारावचलीकृतं । देहि सत्पावं लोक्य मूल्यं दरका तंतः:, पर॥६०। गृण्वामीत्यगदीद्वीरसेनास्यस्तं च घर। आरुढ़ समावेध हरिवीरमपातयत् ॥ ६१ अश्वारोहण ते जाता नष्टपाद | फरास्तदा । महापूरकारमाकाकाणैरायणो नृपः ।। ६२ ।। घोटक' दुर्द्धर भस्या संस्थाप्योच्च सकघर' । भाइरोह महातेजास्तं नः राजा महाकच्छ शीघ्र ही वनको लोट आया और घोड़ेपर सवार हो अनेक प्रकार के कौतूहल करने | PK लगा । ५६ । राजा ऐरावणके वीरसेन आदि कुमार भी उसी वनमें कीड़ा करनेके लिये आये । घोड़े Da पर चढ़े विद्याधर महाकच्छको देख उन्हें बड़ा भाश्चर्य हुआ और वे इसप्रकार पूछने लगे भाई ! तुम कौन हो? कहांसे आये हो और जिस घोड़े पर तुम चढ़े हो वह किसका घोड़ा है ? उत्तरमें विद्याधर राजा महाकच्छने कहा-मैं अलकपुरसे यहां भाया हूं। मैं विद्याधर हूं और 12 यह बलवान घोड़ा मेरा है ।५७-५८। भाई ! घंटरियोके शब्दोंसे शोभयमान और चंचल तुम्हारा यह IS घोड़ा बड़ा दुर्घट जान पड़ता है । कृपाकर दीजिये हम इसकी चाल ढाल देखलें । यदि हमें जचत गया तो हम मूल्य देकर इसे खरीद लेंगे । जब ऐसा कुमार बीरसेनने कहा तो विद्याधर महाकच्छ ने उसे घोड़ा देदिया। बरिसेन घोड़ेपर चढ भी लिया ज्यों ही घोड़े ने उसे अपने ऊपर चढ़ा देखा IN देखते २ शीघ्र नीचे पटक दिया। ५६।६। और भी कुमार घोड़ पर चढ़ परन्तु घोड़े ने एककी भी सवारी नहीं झेली, क्रम क्रम कर सबोंको नीचे पटक दिया जिससे हाथ पैरोमें चोट आनेसे उन समस्त राजाकुमारोंमें हाहाकार मच गया। अपने पुत्रोका इसप्रकार हाहाकार सुन राजा ऐरावण शीव वहांपर आया एवं अपने तेजसे चन्द्रमाको फीका बनाने वाला महातेजस्वी वह राजा ऐरावण KЖҮЖЖЖЖЖЖЖЖЖЖҮЖ माया Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थगितबन्द्रमाः।। ६३ ।। साष्टांगाष्टसहनच नमस्कार पुरा पुरोः। पुरस्तात् श्वेतशैले स वर्करीतिस्म प्रत्यह ॥६४ ॥ तत्पुण्योदयतस्तस्य पद्भ्यामश्वो हि कोलितः! धोत्पाटयितु शक्तो न बभूव धरापति ॥६५॥ महौजसं न मत्वा महाकन्छः खाधियः मत्वा कन्योभर्धा वार्ता' चकार बिनयान्वितः॥६५॥ निशम्यरायणो राजा रराणेति खगेश्वर'। महं नैमि कचिस्ते चेदानय त्वं च पायकां ॥ ६६ ॥ इक्ष्वाक्वन्वयसंभूतनृपाणां स्यर्थमागमः | सजाघटीति मो जातु लंच्यते न कुलकमः ॥६॥ सांभ तं स || उत्तम गर्दनसे शोभायमान एवं अतिशय भयङ्कर उस घोड़े पर तत्काल सवार होलिया।६१६। वह राजा ऐरावण प्रति दिन कैलाश पर्वतके भागे उस घोड़े के साथ साष्टांग नमस्कार न करता था । राजा ऐरावण के पुण्यके उदयसे उसके पैरोंसे वह घोड़ा कीलित हो गया था। अत एव वह राजा ऐरावणको कभी भी डाल नहीं सका था। ६३-६४ । विद्याधर महाकच्छकी यह इच्छा थी कि मैं घोड़े के द्वारा राजा ऐरावणको अपनी राजधानी ले जाऊंगा और वहां ले जाकर अपनी कन्याके साथ उसका विवाह कर दूंगा परन्तु जब घोड़ा राजा ऐरावणके पैरोंसे कीलित हो गया , तब उसकी कुछ भी तीन पांच न चली इसलिये राजा ऐरावणको प्रबल पराक्रमी जान विद्याधर 4 महाकच्छने उसे नमस्कार किया एवं कन्या सम्बन्धी जो कुछ भी बात थी विनय पूर्वक सारी कह सुनाई ॥ ६५ ॥ विद्याधर महाकच्छकी यह बात सुन राजा ऐरावणने कहा में तुम्हारी राजधानी जाकर उस कन्याके साथ अपना विवाह नहीं कर सकता यदि मेरे साथ उस कन्याके विवाह करनेकी तुम्हारी इच्छा है तो तुम उस कन्याको यहां ला सकते हो। IN क्योंकि जो राजा इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए हैं स्त्रीके लिये वे कहीं भी नहीं जासकते, मैं भी तुम्हारे यहां जाकर अपनी कुज मर्यादाका लोप नहीं करना चाहता। ६६६७ । राजा ऐरावणके ऐसे वचन सुन विद्याधर महाकच्छ अपने घर लोट आया और राजा ऐरावणके कहे अनुसार वह कन्याको ले ही जारहा था कि उसी समय यह घटना आकर उपस्थित हो गई। РkЕРКЕКККККККККККККККК shrIVERNKYAYaraKISM Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAYEKAREET HI बबस्तस्य श्रुत्वा सदनमापयो । गौत्षा सुतां समायाति सावदायकवाऽभवत् ॥ ६॥ तत्रत्यो बज्रसेनाख्यः जगत्रकी निशम्य ता । रूपसीमानमायात आइतु पृष्ठतो पलो॥६॥ ऐशवणपुराभ्यणे रणव नियाम्य सः । ऐरावणोऽथ तं नित्या परिणीय सख ला स्थितः ॥ ७० ॥ विधीक्षे लज्जितो बनसेनाव्यस्तप आकरोत् । जाते वर्षसहस्र स स्तवकलं छमाययो । ७२ ॥ एकदा तं मुनि दृष्ट्वाल । विद्याधर नगर अलकपुरमें ही विद्याधरोंका चक्रवर्ती एक बसेन नामका भी राजा रहता था कन्या प्रियंगुश्रीको परम रूपवती देख वह उसपर आसक्त होगया एवं राजा महाकच्छ जैसे ही उसे राजा ऐरावणके साथ विवाह करनेके लिये ले जारहा था वैसे ही वह कन्या प्रियंगुश्रीको हरण करने के लिये राजा महा कच्छके पीछा दिया ॥६८-६६ ॥ राजा ऐरावणकी राजधानोके पास पहुंचते २ विद्याधर वजूसेन और महाकच्छकी मुठ भेंट होगई। दोनों सेनाओंमें रणवाजा वजने लगा और युद्ध होने लगा। रण वाजोंका शब्द राजा ऐरावणके कानतक भी पहुंच गया। वह शीघ्र ही रण क्षेत्रमें भा पहुंचा। विद्याधर वनसेनको जीतकर कन्या प्रियं1 गुभोको ब्याह लिया और विषय जनित सुखोंको भोगता हुआ सानन्द रहने लगा। अपमान बड़ा दुख दायो होता है। राजा ऐरावणसे जब विद्याधर वजूसेन हार गया तो उसे बड़ी लज्जा आई । लजित हो समस्त राज्यका उसने परित्याग कर दिया एवं दिगम्बरी दीक्षा धारण कर वे घोर तप तपने लगे। तप करते २ जब पूरे हजार वर्ष बीत गये तब बिहार करते २ Ke वे मुनिराज एक दिन राजा ऐरावणको राजधानी स्तवकग्लुछ नगरकी और आये और नगरके बाहिर किसी बगीचे में आकर विराज गये ॥ ७० । ७१ ॥ किसी दिन वे मुनिराज पूर्ण ध्यानमें लीन थे कि जहा तहां बनमें क्रीडा करने वाले राजा ऐरावणके पुत्रोंने उन्हें देखा और वे मूर्ख मुनिमुद्राका कुछ | भी महत्त्व न समझ हंसी उड़ाते हुये आपसमें इसप्रकार कहने लगे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ERYSEREYAY YTMENTappSANT ध्यानस्थं च बने सृताः। तत्रणस्य हास्येन भेरेवं परस्परं ॥ २॥ पराकोऽयं पुरा पिला लिनामाऽकरोवणं । का यात्यत्यभुनेश्यु. पत्या चषुस्तं तपोधनं ॥७३॥ मुनेः कर्मयशाब क्रोधः प्रलयकारकः । तेन क्रोधेन तामात्स्कंधादग्निहत्थितः ॥l| पुरं जयाल सत्र सलोक सन सखे! महापामरणाशु मुनिरकमाविशत् ।७५ अतो नर्जकगोधस्य सक्रोधस्य मुनेरपि | साम्य मुक्त मया मित्र ! तो स्यातामर्थहारिणौ १७६१ प्रतिपद्य तथागारमागत्य पितरं जगौ । प्रभोऽनु रत्नसद्वीपे यामि मित्र सम धने 199) मुदत्तस्तं तदेत्याह यह वही दुष्ट वनसेन नामका विद्याधर राजा है जिसने कि प्रियंगुश्रीके विवाहके समय अतिशय पराक्रमी भी हमारे पिताके साथ युद्ध किया था। रे दुष्ट ! अब तू कहाँ बचकर जायगा ऐसा कहकर उन तपस्वी मुनिराजको उन्होंने जकड़ कर पकड़ लिया और उन्हें मारने ताड़ने लगे। कर्मके प्रबल उदयसे मुनिराज बजसेनके प्रलय करनेवाला क्रोध उत्पन्न होगया। क्रोधके कारण उनकी बाई भुजा-- से अग्निका फलिंगा निकला जिससे मय प्रजा राजाके समस्त स्तवकग्लुछ नगर जलकर खाख हो गया एवं पापके तीव्रभारसे वह मुनि भी नरकमें गया । इसप्रकार क्रोधी मुनिराजकी कथा सुनाकर श्रेष्ठि पुत्र भद्रमित्रसे उसके मित्र अन्य श्रेष्ठिपुत्रोंने कहा-भाई भद्रमित्र ! इसीलिये हमने धन नहीं उपार्जन करनेवाले पुरुषकी और क्रोधी मुनिकी तुलनाकी थी क्योंकि धन न उपार्जन करने-न वाला पुरुष और क्रोधी मुनि दोनों ही सञ्चित धनके नाश करनेवाले हैं अर्थात् जो हजारो वर्ष तप कर क्रोध कर लेता है उसका समस्त तप व्यथं चला जाता है और जो पुरुष कुछ भी धन न कमा 22 कर संचित धनको बैठा २ खाता रहता है उसका भी धन समय आनेपर समस्त चला जाता है ॥ ---७६ ॥ अपने मित्रोंसे इसप्रकार धन न उपार्जन करने वालेकी निन्दा सुन भद्रमिन अपने घर C लोट आया और अपने पिता सेठ सुदत्तसे इसप्रकार कहने लगा-- पूज्य पिता ! मैं अपने मित्रोंके साथ धन कमानेके लिये रत्नद्वीप जा रहा हूं। अपने प्रिय पुत्र की यह बात सुन मोही सुदत्तने कहा—प्रियपुत्र ! हमारे बहुतसा धन विद्यमान है तुम क्यों धन कपY Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यं भूरितर सुत!वित समापनेताह किम कम्यता स्व ७८ सुतोऽस्माकं त्वं लघुललविग्रहः । षयित्वाथ तं। पश्चात् योगी भूत्वा भ्रमाम्यहं ।। ७६ ॥ तिरस्कृत्य पितुर्वावयमत्याग्रहत्या गतः परताद्वीपे समुत्तीर्य ललकल्लोलसागरं ॥ ८०॥ तत्र स्थित्वाऽगमसिंहपत्तने भद्रमित्रयाक् ।। ८१॥ सत्य सत्वोचण्य मन्त्रिण परमावरात् ।। प्राचुर्य प्राभृत मुक्त्या पप्रच्छेति वणिक् सुतः ॥ ८२ ॥ युष्मत्प्रेम भवेतहिं ममोपरि यदा विभो ! । निधासार्थ समापामि पसनेऽथ सुखाप्तये ॥ ८३ ॥ सत्यघोषेण सन्मान्य जगदे कमानेकी इच्छासे परदेश जा रहे हो । पुत्र ! तुम मेरे एक ही पुत्र हो तिसपर भी तुम सुन्दर शरीर के धारक छोटी उम्रके हो तुम्हें परदेश भेजकर क्या में योगी होकर पृथ्वीपर घमूगा? ॥ ७८-15 ७६ ॥ कुमार भद्रमित्रने अपने पिताके वचनोंपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया वह मोह तोड़ शीघ्र ही चल दिया एवं जिसमें प्रबल तरङ्ग उठ रही हैं ऐसे गम्भीर समुद्रको पारकर रत्नद्वीपमें जा पहुंचा। ॥८० ॥ वरावर बारहवर्ष तक रत्नद्वीपमें रहा । रत्न आदि बहुतसा धन उपार्जन किया और घूमता २. वह कुमार भद्रमित्र एक दिन सिंहपुर नामक नगरमें आ पहुंचा । सिंहपुर नामका नगर उस D समय अद्वितीय सुन्दरताका स्थान था और उसमें सत्यघोष नामका राजमंत्रो निवास करता था ।। | कुमार भद्रमित्र : आदर पूर्वक मन्त्री सत्यघोषसे मिला । बहुतसी उसे भेंट दी और उससे इस ka प्रकार पूछा स्वामिन् ! यदि आपका मेरे ऊपर प्रेम हो तो में सुख भोगनेकी आशासे इस महामनोज्ञ, नगरमें कुछ दिन निबास करू'! कुमार भद्रमित्रकी यह बात सुन मन्त्री सत्यघोष बड़ा प्रसन्न find हुआ । कुमारको उसने बड़े सन्मानको दृष्टिसे देखा और बडे आदरसे यह कहा भाई ! तुम्हारे यहां रहनेसे मैं बड़ा प्रसन्न हू । शीघ्र ही तुम अपने माता पिताको लेकर यहां IS आइये और रहिये । मन्त्री सत्यघोषकी बातसे कुमार भद्रमित्र बड़ा ही सन्तुष्ट हुआ। कुमार भद्र VkrRKEKTEKKKKKKKKKK Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यं चेति सादरात् । आनय त्वं द्रुतं बंधी ! मातृपितादिसत्कुलं ॥ ८४ ॥ मन्त्रिवाक्यात्तदा तुष्टः सप्तरत्नानि तत्करे । स्थापयित्वा गतः ॥ ८५ ॥ मातर पितर बन्धून पशूंश्चापि धनादिकं । मीतया समागतो भद्रमित्रः सिंहपुरे जात् ॥ ८६ ॥ सत्य घोष' समेत्याशु ययाचे रत्नसप्तकं । तदा क्रोधारुणो भूत्या प्रोवावेति घणिसुतं ॥ ८७ ॥ रे रे दुर्गत ! रत्नानि कदाऽदायिपत त्वया मस्ते हि पापीयान् नाशोऽय भविता तब ॥ ८८ ॥ भद्रमिलस्तदा प्राइ द्वीपे रत्नादिना ननि । गत्वा रत्नानि चानीय त्वत्करे स्थापि तामि भो ॥ ८१ ॥ तदा तत्सेपका भेर्वेषां याति धनं महत् । तदव प्रथिला नूनं भवेयुश्चितमत्र किं ॥ ६० ॥ अवन्द्र तश याणं मित्र के पास उस समय सात रत्न बहुमूल्य के थे। कुमारने उन्हें मन्त्री सत्यघोषको सौंप दिया और वह अपनी जन्मभूमि पद्मखण्ड नगरमें शीघ्र ही आगया । पद्मखण्ड नगर में खाकर भद्रमित्रने माता पिता : भाई पशुगण और धन आदिक सबको साथ ले लिया और शीघ्र ही सिंहपुर में आगया । ८१ - ८६ ॥ सिंहपुर में आकर कुमार भद्रमित्र मन्त्री सत्यघोष से मिला और जो सात रत्न उसे सोंपकर गया था वे उससे मांगे । बहुमूल्य सात रत्नों के मिलने से मन्त्री सत्यघोषकी नीयति पहिले ही से गिड़ चुकी थी । जिस समय कुमारने सात रत्न मागे मारे क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये एवं अनेक प्रकारकी ताड़ना करता हुआ वह भद्रमित्रको इसप्रकार दुर्वाक्य कहने लगा--- रे दरिद्री ! तू महापापी है। कह तो तूने मेरे हाथमें कव रत्न दिये थे ! याद रख इस प्रकार झूठ बोलने से तेरा काल तेरे शिरपर मडरा रहा है ॥ ८१-८८ ॥ उत्तर में भद्रमित्रने कहारत्नद्वीपमें जाकर में रत्न लाया था वे रत्न मैंने तुम्हें सोंपे थे तुम क्यों भूल रहे हो !! सत्यघोष और भद्रमित्रका यह आपसी झगड़ा देख सत्यघोष के सेवक कहने लगे- जिन मनुष्यांका त्रिपुल धन चला जाता है बे ही संसार में पागल सरीखे हो जाते हैं इसमें किसी वातका आश्चर्य नहीं । ॥ ८६ - ६० ॥ परदेशी भद्रमित्रकी दुष्ट मंत्रीने एक बात भी न सुनी। वुद्धिमान कुमार भद्रमित्रके AKAKAKABRER Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ramin SEEMOREners... कण्ठे दरखास्य धीमतः। मुष्टिघात साज्य स निष्कासित पवत: स्वव्यहरणोद्भ नशोकध्याकुलिताशयः । चकार पूरक । सिगाढे राजद्वारे पुरे खिले ॥१२॥ सत्यघोषोपि राना लोकाने सर्वतोपि वा एवं निरूपयामास नि:स्वारस्युग्रंथिला धू। ॥१३॥ चकार शपथ सैना: शुदग स्वस्य पधोः। नपस्याऽधमो गृघ्बरधीतोऽपि भृशं शठः || १४॥ भद्रमित्री निशाप्रांते रोरोत्या | I रुह्य भूम्ह । प्रत्यहं चेति पूकार कुर्वन् कातरचेतसा ॥ १५ ॥ द्विजेनाने न दुष्टेन वंचितोऽह विनागसा । किं करोमि क्र गच्छामि * गलेमें अर्ध चन्द्र-अर्ध चन्द्रमाके आकार वाण गिरवा दिया । और मुक्कोंकी मार मार कर उसे नगर । से बाहिर निकाल दिया ॥ ६१ ॥ अपने द्रव्यके इस प्रकार अपहरण हो जानेसे भद्रमित्रा चित्त भयँकर शोकसे व्याकुल हो गया। उससे और तो कुछ नहीं बना समस्न पुर और राजाकी व ड्योढी पर वह रोता चिल्लाता घमने लगा ॥११-१२ ॥ मन्त्री सत्यघोषने भी राजा और पुरवासियों के सामने सब जगह यही बात स्वीकार की कि जिन मनुष्योंका धन चला जाता है ये निश्चयरूप से पागल हो ही जाते हैं ।। ६३ ॥ दुष्ट बुद्धि सत्य घोषसे जब यह पूछा गया कि क्या तुमने इसके सरल लिये हैं ? तो समस्त शास्त्रोंको पढ़कर भी वज मूर्ख महा लालची और नीच उस दुष्टने अपनी शुद्धिके लिये राजाके भी आगे न लेनेकी कसम खाई ॥६४॥ जिसका धन चला जाता है उसका दुख वही जानता है विचारे भद्रमित्रको धनके चले जानेसे कल कहां थी उसने प्रति दिनका यह कार्य हाथमें ले लिया कि वह प्रति दिन प्रातः कालके समय वृक्ष पर चढ जाय और दीन चित्तसे इस ) प्रकार करुणा जनक चिल्लावे बिना अपराधके इस दुष्ट ब्राह्मण मन्त्रीने मेरे रत्न अपहरण कर मुझे ठग लिया है। मैं क्या ? करू कहां जाऊ और किसके सामने अपना रोना रोऊ ॥ ६५-६६ ॥रे मन्त्री । महाराज सिंहसेनकी प्रसन्नतासे तुम्हारे सब कुछ है । यह तुम निश्चय समझो छत्र और सिंहासनके बिना सारा राज्य REKPAYTIरपाया । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयपदयपहाणा कस्यानेच बदाम्यहं ॥१६॥ सिंहसेनमहाराजपसादेन तेऽस्ति कि। छत्रसिंहासने मुक्त्वा ध्रुवं राज्यमिदं तव ॥ १७॥ धमो यशो महास्व व यात्यपहावदोषतः। विवानपि महादोष करोशित्वं कथविante |॥ भवाम्यई न शन स्ते तथापि मम सदनं । अप इनुष कर्य मूढ! विमाचारपराङ्मुख ! | एकदा रात्रिपाश्चात्ययामे पूस्कृतिमाकरोत् । तदा राक्षी स्वके चिस ततति गुणोज्वला १० ॥ जानेऽह नायमुन्मत्तः सर्वशानुगतं वदन् । अतोऽहमस्य विन्यायं न्यायं पश्यामि निश्चितं ॥ १०१ ॥ इत्यमुक्ततो राशी तुम्हारा है-तुझे इस प्रकार पर धन नहीं अपहरण करना चाहिये ॥ १७ ॥ यह बात विलकुल Ka सत्य है कि जो मनुष्य किसीको कुछ वस्तु हरण कर लेता है उसके उस अपहरण करने रूप वल-17 वान दोषसे धर्म यश और उच्चपन सब गुण एक ओर किनारा कर जाते हैं अर्थात् अपहरण करने | बाला मनुष्य धर्मात्मा यशस्वी और महान् कुछ भी नहीं माना जाता । रे ब्राह्मण मन्त्री ! विद्वान - हो कर भी तू यह घोर पातक क्यों कर रहा है। भाई ! मैं तुम्हारा किसी प्रकारका शत्रु भी नहीं हूं तथापि न मालूम तुम मेरा क्यों इस क्रूरताके साथ धन अपहरण कर रहे हो । ब्राह्मणों का जो आचार विचार है नीच कर्मकर तुम क्यों उससे विमुख होते हो॥ ६-६॥ एकदिनकी बात है कि वह रात्रि के पिछले पहरमें प्रति दिनकी तरह वडे जोरसे रो रहा था । राजा | सिंहसेनको रानो जो कि अनेक गुणोंकी भण्डार थी उसके कानमें भद्रमित्रके रोनेकी भनक पड़ी. वह भद्रमित्रका इसप्रकार दुःख जनक रोना सन मन हो मन इस प्रकार विचार करने लगी___यह जो भद्रमित्र प्रतिदिन मन्त्रोको अपने धनका ठगोवाला कह कर रोता चिल्लाता रहता है इसे लोग पागल कहते हैं, किन्तु यह पागल नहीं कहा जा सकता। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि राज दरवार में जो कुछ भी न्याय किया गया है वह सर्वथा अन्याय है-मुख देखकर ही न्याय किया गया है ॥१००-१०१॥वस ऐसा अपने मनमें दृढ़ निश्चय कर रानीने राजा सिंहसेनसे यह कहा | nd Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APR राजा मो नराधिप ! त्वयाद्यतःपुरे स्थेयं करोम्येतत्परी ॥ १०२ ॥ प्रातरुत्थाय सा राशो विदग्धा संस्थिता रहा । तत्क्षणे स समायातः सस्यघोषों द्विजाश्रमः ॥ १०३ ॥ तव स्थापित राहया सम्माभ्यासनदानतः । ततो द्यूत समारने सार्क : तेन द्विजातिना ॥ १०४॥ पाहित्यमात्यमानन्दाद्रामंदत्वा द्विजोत्तम । मया त्वं जीयले खेतत् किं दद्यावद सांप्रत ॥ १०५ ॥ मधनं गज भूयो च स्वालङ्कारसंचयं । दधां च दारितस्तुभ्यं सत्यं जानीहि सर्वया ॥ १०६ ॥ श्रत्वाथ तद्ववो राशी रराणेति रतिप्रभा । तत्सर्व भक्ता प्रोक्त' समस्ति मम सौलप ॥ १०७ ॥ मुद्रिकां नामसंयुक्त संबद्छुरिकां पुनः । यज्ञोपवीतमस्मभ्यं देवं देव ! विदांवर ! ॥ १०८ ॥ राजन् ! परदेशी भद्रमित्रका जो न्याय हुआ है वह मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। आज आप र बासके अन्दर रहें, मैं स्वयं इस न्यायकी जांच करूंगी। दूसरे दिन प्रातः काल उठकर बुद्धिमती वह रानी एकांतमें बैठ गई। उसी समय ब्राह्मण मन्त्री सत्यघोष भी वहीं आ पहुंचा । भोजन आदि के द्वारा उसका रानीने भले प्रकार सन्मान किया। वहीं पर विठा लिया और उसके खेलना प्रारम्भ कर दिया ।। १०२ --- १०४ ॥ रानी रामदत्ता बडी हो चतुर थी उसने आनन्दमय मीठे वचनोंसे इसप्रकार सत्यघोष मन्त्रीसे कहा साथ ➖➖ हे विप्रोंके सरदार ! यदि इस जूझमें मैं तुम्हें जीत लुंगो तो कृपाकर कहिये तुम मुझे क्या दोगे ! शीघ्र कहो ! उत्तरमें मन्त्री सत्यघोषने कहा- यदि मैं आपके साथ हार गया तो आप निश्चय समझें मैं घोड़ा धन हाथी और नानाप्रकारके वस्त्र सभी कुछ आपको प्रदान कर दूंगा ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ मन्त्री सत्यघोषकी यह बात सुनकर रतिके समान सुन्दरी रानी रामदत्ताने कहा भद्र ! हारने पर जिन चीजोंके देनेका आपने वायदा किया 'सारी चीज मेरे यहां विद्य मान हैं। मैं इन चीजों की लालसा नहीं रखती मुझे कुछ अपूर्व ही चीज तुम्हें देनी होगी और वह यह है कि हारने पर आप मुझे अपने नामको मुद्रिका कटारी और यज्ञोपवीत प्रदान कर दें । — おお ただ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथेति प्रतिपद्याशु रेमे घुस निरंकुश । भाग्यवशतो मन्त्र निर्जितो समदराया ॥ २०॥ तदा तद्वितय नौस्वा सानन्दाभोशलोचना । दत्वा निपुणभस्याख्यधात्रोकरतले शनैः ॥ ११० ॥ अनवोदिति हे प्रात्रि! यादि शीघ विजगृहे । एतत्पत्स्य च दत्त्वैतद्भद्रमिनकरण्डक ॥ १११ ॥ यावयित्वा अबाइदि सागता प्रियभाषिणो। अभिज्ञानेन तत्रीत्वा रलसप्तकर डक ॥११२|| आगत्यैव ददौ राध्ये तदादा | नृपाय वा । सिंहसेनोऽपि तन्नीत्वा सभायामागतो ध्रुवं । ११३ ॥ किद्भिः स्वीथरत्नश्व मिश्रितानि विधाय सः । तानि माहेति हे येश्य ! गृहाणैतत्स्वकं धन ॥ ११४॥ भवमित्रः स्वरत्नानि अप्राह गणगौरतः । विहायान्यानि ग्लामि तदा राझ ति तति ॥ १५ ॥ KYPERATIVEYPREE ब्राह्मण सत्यघोषकी निर्मल भी बुद्धिपर उस समय वलवान मूढ़ताका आवरण पड़ा हुआ था। रानीP के कहे अनुसार उसने सब चीज देनी स्वीकार कर लीं। वह निरंकुश हो सानन्द जूना खेलने लगा। दुर्भाग्य वश उस मन्त्रोको अपनो चतुरतासे रानी रामदत्ताने जोत लिया । कमलनयनी रानी रामदत्ताने मुद्रिका और कटार दोनों चीजे लेकर धीरेसे निपुणमती नामकी धायके हाथमें दे दी और उससे यह कहा-- | तू शीघ्र हो ब्राह्मण सत्यघोषके घर जा । इसकी पत्नीसे सात रलोंवालो पिटारी मागला और 5/ मुझे जल्दी लाकर देदे। धात्रो निपुगमती बड़ी ही प्रियवादिनी थो वह शोघ्र ही मन्त्री सत्यघोष के घर चली गई । अपनी चतुरतासे उसने सात रत्नोंको पिटारी लेलो । लाकर रानी रामदत्ताको दे दी। गनीने राजाके हाथमें वह पिटोरी दे दी। राजा लेकर शीघ्र हो राज सभामें आ गया । वहां | आकर उसने कुछ अपने रत्नों के साथ मिलाकर वे सातो रत्ल रख दिये। वैश्यपुत्र कुमार भद्रमित्र को राज सभामें बुलाया और यह कहा। भाई ! तुम अपने रत्नोंको पहिचान कर लो ॥ १०७-११४ ॥ वैश्य पुत्र :भद्रमित्र एक ईमानदार व्यक्ति था । अनेक रत्नोंमेंसे उसने अपने सात रत्न चुनकर ले लिये एवं गुणशाली उस 略略略許院代院外特許伦称 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOVESYAPRINTara अहो मयं महान् कोऽपि सत्यवाक शुरुतो नरः । निलोंमा स्वकुलाचार विदग्धो पञ्चितोऽमुना ।। ११६ ।। सत्यघोषो महापापी स्वधः। माचारपूरगः । असत्योतिः कृपाहोमो दण्डनीयो महाशयः ॥११७॥ पाहत्याकार्य भूमीशः स्वीय त्यान् प्रति कुधा । विधा दण्डो विधा ! तव्या वावस्यास्य दुर्मतेः ॥ १५८ ॥ सर्वस्वहरणं पूर्व विधेयं पूर्वरीतिभिः । चपेटा वज्रमुष्ट्याख्यमलस्य त्रिशर्जिताः ॥ ११ ॥ कांस्यपात्रत्रयापूर्ण नवगोमयमाण । कारितव्यमिति धा दण्डोदेयोऽधिलग्यतः ॥ १२० ॥ तथाकारि भृशं भृत्यं यमसन्निभषिप्रहैः । - कुमारने अन्य रन वहींपर छोड़ दिये। वैश्यपुत्र भद्रमित्रकी यह लोकोत्तर निर्लोभता देख राजा सिंहसेन बड़ा ही प्रसन्न हुआ और मन ही मन इसप्रकार विचार करने लगा यह भद्रमित्र कोई सामान्य पुरुष नहीं किन्तु महान् सत्यवक्ता पुण्यवान निर्लोभ और कुलाचारमें चतुर पुरुष रल है अवश्य इस पापी सत्यघोषने इस महापुरुषको ठगा है । यह सत्यघोष । महापापी धर्माचारणोंसे विमुख झठा निर्दयी और वज़ मूर्ख है इसे अवश्य दण्ड देना उचित है। | ॥ ११५–११७ ॥ राजा सिंहसेनने शीघ्र ही मन्त्री सत्यघोषको राजसभा बुलाया और क्रोधसे । आगबबूला हो इसप्रकार सेवकोंको आज्ञा दी-- यह ब्राह्मण बड़ा भारी दुष्ट है इसके लिये तीन दण्ड में निश्चित करता हूं। प्रथम दण्ड यह ], है कि प्राचीन प्रथाके अनुसार इसका सारा धन हरण कर लिया जाय १। दूसरा यह है कि वन | al मुष्टि नामक मल्लके तीस मुक्र इस पर पड़ें एवं तीसरा दण्ड यह है कि कांसके तीन बर्तन ताजे गोबरसे। है भराये जांय और वह समस्त गोबर इसे खवाया जाय । इन तीन बातोंका प्रवन्ध बहुत शोघ्र कर || | देना चाहिये और इसे बहुत जल्दी दण्ड देना चाहिये ॥ ११८-११६ ॥ राजाकी आज्ञा पाते ही। यमराजसरीखे करभृत्योंने शोध ही अपना कार्य पूरा कर दिया । ठीक ही है जो भृत्य अपने स्वामी || | की आज्ञा मानने वाले हैं बहुत शोघ्र वे अपने पर सोंपे हुये कार्यको कर डालते हैं ॥ १२० ॥अप Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजाघटत्यही भृत्याः स्वना.क्तषिधायिनः ॥ १२१ ॥ नपे सम्बद्धवरः सन् मृत्वार्तध्यानषितः। विजिहोड गन्धनो नाम भांडागार ऽजनिष्ट सः ।। १२२ ॥ अतश्चौर्य न कर्तध्य तेन कीर्तिने जायते । अन्यायेनान्यवित्तस्य स्वीकारपचौर्यमुच्यते ॥ १२३ ॥ सौजन्य हन्यते दंशो विन'भस्य धनादिषु । विपत्तिः प्राण्पता मित्रववादिभिः सह ।। १२४॥ गुणप्रसवसंदब्धा कीर्तिरम्लानमालिका । लतेव दावसंप्लुष्टा सद्यश्चार्यण इन्यते ॥ १२५ ॥ इतीदं जानता सर्व सत्यघोषेण दुर्धिया । नैसर्गिकेण चौर्य ण तद्रत्नापतिः कृता ॥१२६॥ राधी सत्यघोपको जब राजाने यह दण्ड दिया तो उसकी आत्माको अपमान जनित नितांत कप्ट - पहा । परिणामोंकी ऋरतासे राजाके साथ उसने तीब्र वैर बांध लिया एवं आर्त ध्यानसे मर कर R वह राजाके भण्डार सहर्ष हो गया ।। २२१ ॥ यन्थकार उपदेश देते हैं कि सत्यघोषकी यह दुर्दशा देख कर किसी मनुष्यको चोरी पाप नहीं करना चाहिये क्योंकि चोरीका कार्य करनेसे संसारमें S किसी प्रकारकी कीति नहीं होती तथा अन्याय पूर्वक दूसरेका धन हरण कर लेना चोरी कहलाता है । HAL यह चोरी काम इतना निकृष्ट है कि इससे मनुष्योंकी सज्जनता नष्ट हो जाती है । धन आदिके सम्बन्धमें चोरी करनेवालेका विश्वास नष्ट हो जाता है। चोरी करनेवालेको जब तक वह जीता है । तब तक मित्र बन्धु आदिके साथ सदा उसे आपत्तिका सामना करना पड़ता है। जिस प्रकार सुन्दर फूलोंसे शोभायमान और विकसित लता अग्निसे झुलस जाने पर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार | चोरीका कार्य करनेसे अनेक गुणोंको उत्पन्न करने वाली निर्मल कीर्ति भी नष्ट हो जाती है । IS यह सब जानकर भी दुर्बुद्धि सत्यघोषने स्वभावसे ही चोरी कर भद्रमित्रके रत्नोंका अपहरण किया, था १२२-१२४। इस चोरी रूप पापके ही कारण उसे मंत्रिपदसे हाथ धोना पड़ा। उस प्रकारका तीब्र अपमान सहना पड़ा । १२५ । तथा राजा सिंहसेनने संतुष्ट होकर बुद्धिमान कुमार भद्रमित्रIS को राजसेठ पद प्रदान किया ठीक ही है जब शुभका उदय होता है तब कौन सी दुर्लभ भी बात पERTY KATARIYAR Nagarik AERAYRak Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल २६.४ A निहं तादृशं गतः । दुर्गति व पुनः प्राप्तो महापापानुबंधिनीं ॥ १२७ ॥ संतुष्य नृपतिस्तस्यै भद्रमित्राय सद्धिये ज्येष्ट माग्यात् ददौ किं न शुभोदयात् ॥ १२८ ॥ इयमात्यस्य दुर्वृ 'स' राजालानि व्यक्तियत् । धम्मिल्लाख्याथ विप्राय तत्साचि व्यपद' ददौ || १२ || अधासनादबी दुर्गा मृगजातिसमाकुला । नानादीदरोदुगच्छद कुरविरोधुः ॥ १३० ॥ तत्रास्ते विमला कि छोतार ं तारभूतलं । कांतार ं तत्र तन्नामा भूधरो विद्यते महान् ॥ १३१ ॥ वत्र कदा समायासीरम मुमुक्षुकः । वदितु तं नतो नहीं प्राप्त हो जाती । १२६ । राजा सिंहसेनने मंत्री सत्यघोषके दुश्चरित्रपर बहुत समय तक विचार किया एवं उसकी जगह धम्मिल्ल नामके विप्रको मंत्रिपद प्रदान कर दिया ॥ ९२७ ॥ इस पृथ्वीपर एक भयंकर आसनानामकी घटवी विद्यमान थी जोकि अनेक प्रकारके मृगोंसे व्याप्त थी एवं अनेक गुफाओं के दरवाजोंपर ऊगे हुए दर्भ के अंकूरों से शोभायमान थी। उस अट ath अंदर विमल कांतार नामका बन था जो कि विस्तीर्ण पृथ्वीतलसे शोभायमान था और कांतार नामका ही उसके अंदर एक विशाल पर्वत था। उसके अंदर एक बरधर्म नामके मुनिराज आये और उनका आगमन सुन भद्रमित्र नामका सेठ पुत्र उनकी बन्दनाके लिये गया । १२२ - १३१ । मुनिराज बरधर्मने धर्मका उपदेश दिया । बुद्धिमान कुमार भद्रमित्रने धनकी असारता जान बहुत सा दान करना प्रारम्भ कर दिया । पुत्रको इस प्रकार धारा प्रवाह दान देते देख उसकी माताको बड़ा क्रोध हुआ । यद्यपि उसने भद्रमित्रको बहुत रोका परंतु उस समय भद्रमित्रके चित्तमें दान देने का पूरा उत्साह था इसलिये उसने अपनी माकी एक नहीं सुनी । भद्रमित्रकी उस समयकी इस प्रकार दान परायणता देख भाट लोग इस प्रकार उसकी प्रशंसा करने लगे जो मनुष्य दानी है उसके लिये धन कोई चीज नहीं। जिनके चित्तमें राग भाव नहीं मोह उनका कुछभी नहीं कर सकता । जो श्रवीर हैं उनके लिये रंग क्या चीज हैं वे निर्भय Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल ६५ RA I भगवनामा वणिक्तः ॥ १३२॥ श्रुत्वा धर्मे ततः प्राज्यं ददों दानं स धोधनः । व्ययोकुर्व तमालोक्य तस्मै माता चुकोप च ॥ १३३॥ वित्या वार्यमाणोऽपि दानं दातु ं समुत्सुकः । वभूव च तदा कीर्ति चैतालिक मुखोद्गता ॥ १३४ ॥ दत्तिणां कोधनोऽ रागवित्तानां मोहवः शूराणां कातराणां व रणौत्सुक्यादनं च किं १३५ कोपादसहमाना सा तद्दानं दुर्मतिप्रिया । काले मृत्वासनायां व्याधी जम धधे शात् ॥ १३६ ॥ रौद्रध्यानाद्भवेऽजीवी व्याघ्रमारयोनिषु । प्रयातिपन्नगीभूय बुधोऽतस्तत्परित्यजेत् ॥ १३७॥ एकदा भद्रमि नाख्यः क्रीडार्थ' सङ्घनं गतः । दष्ट्रा तं सा महाकोपादादत्स्वसुत स्वरा ॥ १३८ ॥ यतः फोधो यतो माया यतो धर्मार्थनाशनं यतो बेर' यतो हिंसा धित' लोभं ध नाचरेत् ॥ १३६ ॥ स मृत्वा स्नेहतो भव्य रामदोदभवत् सिंदचन्द्रः सुतो धीमान, मोन 都商都響楽 जिस समय व्याघ्रीके खानेके बाद सेठ भद्रमित्रकी मृत्यु हुई वह पूर्व भवके स्नेहके संबंध से (५ होकर रामें जाकर युद्ध करते हैं । भद्रमित्रकी मां अत्यन्त दुर्बुद्धि थी भद्रमित्रके द्वारा दिये गये दानको मारेकोधके उसने अच्छा नहीं कहा मरकर बह कर्मके उदयसे उसी आसना नामकी अट में व्याधी हो गई । ठीक ही है रौद्रध्यान ऐसी बुरी चीज है कि उससे जीवको व्याघ्री और विल्ली आदी योनियों में जन्म धारण करना पड़ता है । सर्प हो जाना पड़ता है इसलिये जो बुद्धिमान हैं। उन्हें चाहिये कि वे रौद्र ध्यानका सर्वथा त्यागकर दें -- कभी उसके जालमें न फसें ॥१३२ - १३६॥ एक दिनकी बात है कि सेठ भद्रमित्र कीडार्थ बनमें गया। उसकी पूर्वभवकी मा व्याधीकी दृष्टि उसपर पड़ी और उसने पूर्वभव के बैरके कारण भद्रमित्रको खा डाला । यह निश्चय है कि इस दुष्ट लोभ ही कारण क्रोध, माया, धर्म और धनका नाश एवं वैर होता है इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं। कि ऐसे दुष्ट लोभके लिये धिक्कार है ॥१३७७१३८ || राजा सिंहसेनकी रानी रामदत्ताने भद्रमित्रकी पूर्ण प्रतिष्ठा रक्खी थी इसलिये भद्रमित्र रानी रामदत्तासे विशेष स्नेह रखते थे और उसे अपनी मासे भी अधिक मानते थे । SUSPIRE Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपyaKYAद्धा तुरिवापरः ॥ १४० ॥ पुत्रोऽनुजस्ततो अर्श पूणचन्दो विशालढक । सिंहसेनस्य भूपस्य सल्लभी तो वषतुः ॥ १४१ ॥ रामापुत्राधिपत्योत्थ मुखं राजा भोज सः । लोकोत्तर सुख प्राप्य के न स्युभदमथराः॥ १४२ ॥ भाण्डागाराषलोका मेकदा काश्यपीपतिः । गतो रत्नादिसवस्तु दृष्ट्या निर्यात्यसौ यदा ॥ १४३ ॥ दर्शातस्म तदा क्रोधाचक्षुः श्रुतिरगंधनः । धराधीशं महावैरादुत्कणोऽ रुणलोचनः ॥ १४४॥ पपात धरिणोनाथो भूतले पविताधितः । रानी रामदत्ताके गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गया। उत्पन्न होनेपर सिंहचन्द्र उसका नाम रक्खा गया जो कि एक उत्तम बुद्धिका धारक था। कुमार सिंह चन्द्रका छोटाभाई एक दूसरा कुमार था जिसका कि नाम पूर्णचन्द्र था एवं वह अपने विशाल नेत्रोंसे अत्यन्त शोभायमान था। सिंहचन्द्र और पूर्ण चन्द्र दोनों ही कुमार राजा सिंहसेनको बड़े ही प्यारे थे ॥ १३६–१४०॥ इस प्रकार आज्ञाकारी स्त्री और दोनों पुत्रोंको पाकर राजा सिंहसेन लोकोत्तर संसारीक सुखका अनुभव करते थे। ठीक ही है लोकमें अद्वितीय मुख पाकर सभी आनन्दमें मग्न हो जाते हैं ॥ १४१ ॥ एक दिन राजा सिंहसेन अपने भण्डारके देखनेके लिये गये। उसमें रहनेवाली रत्न आदि वस्तु देखकर वे लोटते ही थे कि मन्त्री सत्यघोषके पूर्व भवके जीव अगन्धन सर्पकी दृष्टि उनपर पड़ गई। पूर्व 22 वैरके सम्बन्धसे वह दुष्ट क्रोधसे आग बबूला हो गया। फणां उचेको कर लिया। क्रोधसे दोनों नेत्र लाल कर लिये और सिंहसेनको डस लिया ॥१४२--१४३॥ वह सर्प एक अत्यन्त विषमय सर्प था इसलिये जिस प्रकार वजूसे पर्वत नीचे गिर जाता है। पवनके तीव्र आघातसे वृक्ष उखड़ कर जमीन पर गिर पड़ता है उसी प्रकार राजा सिंहसेन भी सपके डसते ही नीचे जमीन पर गिर गये। महा राजकी यह दशा देखकर उसी समय अनेक वैद्य बुलाये गये और उनसे विषके नाश करनेके लिये कहा गया परन्तु उनमेंसे एक भी विषके नाश करनेके लिये समर्थ न होसका । अन्तमें गारुड़ YYYAAYAYAYAYANAYAYANAYANA Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kel उर्योधरोऽथ या वृक्षो वायुवेगाकुलोकतः ॥ १४ ॥ नानायेमाः समाहूसा विषनाशार्थ मजसा । ते सर्वे तविष हर्तुं शकुतिस्म नोल यदा ॥ १४६ ॥ तदा गारुढ़दण्डासयो विषधोऽहिमर्दकः । आईतो मन्त्रविमाशः पन्नाकर्षणोत्कटः ॥१४७॥ मन्त्र स्मृत्वा तदा तेन समाताश्च पन्नगाः। दिग्धिदिवसस्थिताः सर्वे समायाता भवार्दिताः॥१४८ ॥ उवाच विपवैद्यस्तान् दन्दशुकानिति स्फुटं । अग्नि कुडं प्रविश्याशु निदो पा यांतु शुद्धितां ॥ १४ ॥ अन्यथा निगृनाध्यामि तेनेत्युक्तास्तु पन्नगाः। जलाश्रवादिवाफ्लेशान्निर्या तिस्म | दंड नामके विष वैद्यको बुलाया गया जो कि सर्पोकेमानको मर्दन करने वाला था मंत्रोंका जानकर विद्वान और सोको अपने पास खींचलानेमें बड़ा चतुर था ॥१४४-१४६॥ वस वहां आकर उसने अपने मंत्रका स्मरण किया। जिससे भयसे व्याकुल हो दिशा बिदिशाओंमें रहनेवाले समस्त सर्प - उसने अपने पास बुला लिये और वे सबके सब आगये ॥ १४७॥ जिस समय वे समस्त सर्प आS C पहुंचे गारुड्दण्डने उनसे कहाम तुम लोग इस अग्निकुण्डमें प्रवेशकर शुद्ध हो और निर्दोष होकर अपने अपने स्थानोंपर । चले जाओ। यदि तुम लोग यह कार्य न करोगे तो याद रक्खो मैं तुम्हें कठोर दण्ड दूंगा। बस ना उस विषवैद्यके कहते हो चट पट समस्त सर्प अग्निकुण्डमें गिर गये एवं जिस प्रकार जलसे निकलकर बाहिर आजाते हैं और किसी प्रकारका कष्ट नहीं होता उसी प्रकार के समस्त सर्प अग्निसे निकल आये उन्हें किसी प्रकारका कष्ट नहीं हुआ! अगंधन नामका सर्प जो कि बिजलीके समान चंचल जीभका धारक था एवं क्रोधसे उसके दोनों नेत्र जाज्वल्यमान थे। ज्योका त्यों खड़ा रहा। उसने विषवैद्यकी कुछ भी नहीं सुनी। विधवैद्यको मालूम पड़ गया। कि यही अपराधी हैं इसलिये उसने इस प्रकार कदककर कहा या तो तू इस राजाका विष पीकर इसे उज्जोक्ति करदे यदि तुझे यह बात मंजूर न हो YAAAAAAAAYA AAYAT RESTER Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सकत हुताशनात् ॥ १५० ॥ अगंचन: स्थितस्तत्र विद्युजिहो: ग्निकुकुधा । तहां प्राहेति तं देयो सुचैनं बानलं विश ॥ १५१ ॥ महावैरोत्थ क्रोधेन स्मितोग्नावगंधनः । कोलकार बने जहं सलोमश्वमरोमृगः ।। १५२ ।। सिंहसेनो नरो मृत्वा कालेन सल्फोवने । स.मजोऽभून्महोम्मनोऽशनिघोषाभिचः परः ॥ १५३ ॥ तच्छोचनादिसंप्लुष्टवपुर्यष्टिर्विचक्षणा । रामचा महामोहाद्विललाप कृपारवैः ॥ १५४ ॥ कराघातश्च सा वक्षस्ताडयन्ती पुनः पुनः । पतंती भूतले भूषां विशेपाम्लानलोचना ।। १५५ ॥ हा नाथ ! मदनावास ! मम प्राणाधिकप्रिय ! शत्रुपूराग्निजोभूत! पूर्ण णांकस्य दीर्घद्वक् ॥ १५६ ॥ विलासिनोमुखाम्नाजपुष्प प्रिय ! रतिप्रिय ! | मुक्त्वकां मां महारा इस अग्निकुण्डमें प्रवेशकर । दोनों मार्गों में से एक मार्गका तुझे अनुसरण करना होगा । सर्व अiधनकी आत्मा पूर्वभव के महाबैरसे पजली हुई थी उसने राजा का विष पीना स्वीकार नहीं किया । वह अग्निकुण्डमें प्रवेश कर खाख होगया एवं वह लोभी मरकर कीलक वन में चमर नामका मृग हो गया । १४८ – १५१ । राजा सिंहसेन भी मरकर सल्लकीवनमें अशनिघोष नामका मदोमत हाथी हो गया ॥ १५२ ॥ राजा सिंहसेन के मरजाने से रानी रामदत्ताका शरीर शोकाग्निसे दग्ध होगया | वह करुणा जनक रोना रोने लगी । मारे शोकसे वह हाथोंसे वक्षःस्थल कूटने लगी । जमीनपर पड़ गई । समस्त भूषण बसन उतारकर उसने फेंक दिये । एवं रोते रोते उसके नेत्र फीके पड़ 'गये । वह इस प्रकार चिल्लाकर रोने लगीं कृपानाथ ? तुम कामदेव के समान सुन्दर थे । प्राणोंसे भी अधिक प्यारे थे। शत्रुरूपी अग्निके लिये मेघ थे । पूर्णमासोके चन्द्रमा के समान विशाल नेत्रोंके धारक थे। स्त्रियों के मुख रूपी कमलोके भ्रमर थे और रतिकला में प्रेम करने वाले थे। प्राण प्यारे । अभागिनी मुझ अकेलीको छोड़ कर आप कहां चले गये । १५३ – १५६ । मैं क्या करू कहां रहूं और तुम्हारे बिना प्राणोंको कैसे राखूं । नाथ | तुम्हारे बिना यह समस्त राज्य मुझे विषको ज्वालाके समान भयंकर, जान पड़ रहा KUKKA kekeke Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन् ! सांप्रतं क मतोऽसि हा ॥१५७ किं करोमि कतिष्ठामि कथं प्राणान् दधाम्यहं । विना स्वां भूतले राज्य विषज्यालोपमं मन ।१५८विद्यमाने धवे स्रोणां तन्नयह करवत । सदभावे हि राज्यादि पराधीनत्वतोऽरिषत् ।। १५६ ।। विलापं भूरि कृत्वैव विरराम नपप्रिया सदा तत्र समायाते वे आर्य प्रतिबोधने ।। १६० ।।पका दांतमती ख्याता हिरण्यादिमती परा । पताभ्यां रामदत्ता सा वोधिताख्याय सवृष ।। १६१ ।। द्रव्यक्षेत्रादिसद्भाव झात्वापणे तयोस्तदा । जग्राइ संयम शुद्धं रामदत्ता पवित्रधीः ।। १६२॥ सिंहचन्द्रोऽभव प्राजा सिंहोऽरातिगजोत्करे । पूर्णचन्दोलधुम्राता योवराज्ये बभूव च ॥ १६३ ॥ तयोर्भुजानयो राज्यमिवाभूवत्सरः क्षण। एकदा सिंहचन्द्रस्य पित्रोःचं वागत ।। १६३ ॥ तदानीमागतं श्रुत्वा पूर्णचन्द्राभिध मुनिं । गत्या नत्वा द्विधाधर्म श्रुत्वा वैराग्यमाप सः है। स्वामिन् ! पतिके विद्यमान रहते ही राज्य आदि समस्त पदार्थ सुखकर होते हैं किंतु - उसके मरते ही पराधीन हो जानेके कारण वे सब शत्रुके समान दुःखदायी हो जाते है ॥ १५७ ॥ १५८ । इस प्रकार वहुतसा बिलापकर बड़ी कठिनतासे रानी रामदत्ता शांत हो पाई थी कि उस | समय उसे प्रति बोध देने के लिये दो आर्यिकाये आई। दांतमती और हिरण्मती दोनों आदि काओंके ये दो नाम थे। रानी रामदत्ताको धर्मका उपदेश दे संबोधा । रानी रामदत्ता भी पूर्ण- पंडिता थी। द्रव्य क्षेत्र आदिका स्वरूप समझकर उसने उन्हीं दोनों आर्यिकाओंके समीपमें संयम IN धारण कर लिया ॥ १५६-१६१॥ राजा सिंहसेनके मर जाने पर कुमार सिंहचन्द्र राजा बने जो कि शत्रुरूप हाथियोंका मान मर्दन करने वाले थे एवं उनके छोटे भाई कुमार पूर्ण चन्द्रको युवराज पद प्रदान किया गया। १६२। राजा सिंहचन्द्रको राज्य करते करते एक हो वर्ष व्यतीतः हुआ था कि अकस्मात् उनके चित्तमें पिताका दुःख उत्पन्न हो गया। उसी समय एक पूर्णचन्द्र नामके - मुनिराज भी वहां पर पधारे थे। राजा सिंहसेन उनका आगमन सुन उनके पास गये । भक्तिप र्वक नमस्कार किया। मुनिराजके मुखसे यती और श्रावकका धर्म सुना जिससे उन्हे संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य हो गया ॥ १६३-१६४॥ राजा सिंहचन्द्रने कुल परंपरासें प्राप्त राज्य अपने छोटे NEKापYY पपपपYERAYElect YASIK Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल 18 FREK थपुषत्र ॥ १६५ ॥ लघवे पूर्ण चन्द्राय दावा राज्यं क्रमागतं। सिंहचन्द्रोहि तत्पार्श्वे गृहोतो मुनिः ॥ १६६ ॥ सिंहनादः सन्नममादगुणस्थितः । स तपोनानाविधं कुर्वन् खवारणपङ्कं समेत् ॥ १६७ ॥ तुर्याश्रमोत्कर्ष पुनः प्राप तपोबलात् । साधेोपसूक्ष्मादि पदार्थविषये मतः ।। १६८ ।। मनोहर वनोद्याने रामशेकश मुझ । सिंहच तपःसंख्य' दृष्ट्वा तं वदितु ं गता ॥ १६६ ॥ नत्वेति सं भाईको प्रदान किया एवं मुनिराज पूर्ण चन्द्रकेचरणकमलो में दिगम्बरी दीक्षा धारण करली २६५ मुनिराज सिंहचन्द्रने जिस समय विकथा काय आदि प्रमादों का नाश किया उससमय वे अप्र गुणस्थानके पात्र वनगये । वे अनेक प्रकारके तपोंका आचरण करने लगे जिससे तपोंके प्रभावसे उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त हो जाने के कारण वे चार ऋद्धिधारी मुनिराज बन गये । तपके बलसे उन्हें मनः पर्यय नामका चौथा ज्ञान प्राप्त हो गया जिससे ढाई द्वीपके अंदर रहनेवाले शुभ पदार्थों को वे अच्छी तरह जानने लगे । १६५ - १६७ आर्यिका रामदत्ताने मनोहर नामके वन में तप करते हुए मुनिराज सिंहचन्द्रको देखा इसलिये प्रेम पूर्वक बन्दना करनेके लिये वह उनके पास गई भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया मुनिराज सिंहचन्द्र आर्थिका रामदत्ता के उसीभव के बड़े पुत्र थे इसलिये उन्हें देख पुत्रस्नेहसे उसका हृदय उमड़ आया । एवं मोहसे गद्गद हो वह इसप्रकार स्तुति करने लगी मुने ! युवा अवस्थामें राज्यका त्याग कर आपने यह मुनि मुद्रा धारण की है इसलिये आपके लिये धन्यवाद है तुम राजा सिंहसेनके वश रूपी कमलके लिये सूर्य समान हो । विद्वान भव्यरूपी चकोर पक्षियोंके लिये चन्द्रमाके समान हो और संसारसे पार होने वाले महापुरुष हो । वस इस प्रकार स्तुतिकर आर्यिका रामदत्ता मुनिराज सिंहचन्द्र के समीप बैठ गई एवं बार बार आदर पूर्वक उनके तपकी कुशल पूछने लगी तथा उसने इसप्रकार मुनिराजसे कहा VAPAL Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ сұКЕККККККК. सुत' स्नेहाद्रामदत्ता नयत्स्तुति । धन्यस्त्वं यौधने साधो ! राज्य' त्यक्त्वा भवेद्यतिः ।।१७॥ सिंहसेनान्वयाम्भोजकर्मसाक्षी कला. निधिः । भव्यविश्वकोषु त्वं संसारतरस्तरां ॥ १०१॥ स्तुत्वा स्थित्वा तदभ्यण कुशलं तसपोविधौ । अन्धयुक्कादरा हि व्या राम दक्षा मुहुर्मुहुः ।। १७२ ॥ पप्रच्छे ति मुनि भूयः सा साधो ! तव यांधवः । पूर्णचन्द्राभिधो राज्यं धर्म त्यक्त्वा भुनत्त्या ॥ १७३ ॥ सुखाकांक्षी स किं धर्म गृहीष्यत्यथ वा नहि । व हि त्व' झानमार्गेण यायातथ्यं तपोनिधे ! ।। १७४ ॥ सिंहचन्द्रो मुनिः प्राह युष्मद्धर्म गृहीष्यति । रामदत्ता पुनः प्राप्त कथं साधो ! निगयतां ।२७५/मुनिः प्राह भवांस्तस्य श्रुत्वा तामनिकापतान् । तत्प्रे ज्ञानमार्गेण कथ ____ मुनिनाथ ! तुम्हारा बन्धु राजा पूर्णचन्द्र धर्मकी कुछ भी पर्वा न कर राज्य सुख भोग रहा है वह मुझ विषय सुखोका प्रेमी जान पड़ता है कृपाकर कहिये कि वह पवित्र धर्मको धारण करेगा | या नहीं क्योंकि तुम दिव्य ज्ञाननेत्रके धारक महापुरुष हो इसलिये अपने दिव्य ज्ञानके द्वारा यह बात मुझे समझा दीजिये ॥१६८-१७३॥ उत्तरमें मुनिराज सिंहचन्द्र ने कहा वह नियमसे जैनधर्मको धारण करेगा इस बात में कोई सन्देह नहीं । रामदत्ताने फिर पूछा-प्रभो। किस उपायसे वह जैनधर्म धारण करेगा कृपाकर कहिये । उत्तरमें पुनः मुनिराज सिंहचन्द्रने कहा मैं अपने अवधिज्ञानसे पूर्णचन्द्रके भवोंका वर्णन करता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो और पूर्ण चन्द्रको जाकर कह दो। तुम निश्चय समझो जिससमय वह अपने पूर्व भवोंको सुनेगा राज्यात सुखमें अतिशय मग्न रहने पर भी वह नियमसे संसारसे विरक्त हो जायगा और दिगंबरी दीक्षा धारण करेगा । मुनिराज सिंहचन्द्रसे यह राजा पूर्णचन्द्रके वैराग्यका उपाय सुन आर्यिका 5. रामदत्ता बड़ी प्रसन्न हुई और बड़े आदरसे उसने मुनिराजसे यह कहा-कृपाकर राजा पूर्णचन्द्र - के पूर्वभवोंको आप कहिये में सुनने के लिये तयार हूं । उत्तरमें मुनिराज सिंहचन्द्रने कहा-मैं खुला सा रूपसे राजा पूर्ण चन्द्रके पूर्वभषोंको कहता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो - - Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKVK स्वयत यन्तु सुभावतः । १९६|श्रु स्वयमन् निर्विषणो भवसागरे । अधिगम्याधिपत्ये स वैराग्यं प्रनजियति । १७७ व ध्वं तद्भवसंबंध शृणोमिनः । श प्राह ुनि सुष्ट, श्रृणुतास्य अवस्थिति' । १७८|अंधू द्वीपे विख्याते भारते विषयो महान् । कोशलः कुशलैलों केः संपूर्णः सम्प भूतः ॥ १७६ ॥ वृद्धः समाकीर्णो दृद्वप्रामो मनोहरः । मृगायणाभिधस्तत्र विद्यते घाड़वाप्रियः | १८० धर्मपत्नी च तस्यैव बभूव मधुर स्वर चम्पकर्णा भर्तुः स्वेच्छानुचारिणी ॥ १८९॥ बभूत्र वारुणीनास्ता तयोः पुत्री विशालधोः । मृगायणो इय कालांते मृषो मामप्रियो भूषं ॥ १८२ ॥ अथ प्राक् पुरुदेवस्य भक्तपे निर्मितामरैः । साकेता द्विरौ स्त्रियुक्त योजनैर्भाति भूतले ॥ २८३ ॥ तल राजासित मध्य सी सामन्यसेवितः । रराजातिवलो नाम्ना तिमीशवदनो महान् ॥ १८४ ॥ तस्य रामा रमेयासीत्सुम इसी जंबूद्वीप भर में एक कोन नामका महादेश है जो कि विद्वान लोगोंस परिपूर्ण है और संपदाका खजाना है । कोशल देशमें एक बृद्धग्राम नामका महामनोहर नगर है जो कि सब बातों में बृद्ध पुरवासी जनोंसे भरा था । बृद्धगाम नगर में एक मृगायण नामका ब्राह्मणोंका सरदार रहता था । उसको धर्मपत्नीका नाम मधुरा था जो कि सोना और चंपा के रङ्गके समान महामनोहर वर्णकी धारक थी और पतिकी अतिशय आज्ञाकारिणी थी ॥१७४ - १८० ॥ उन दोनों ब्राह्मण और ब्राह्मणी के एक वारुणी नामकी पुत्री थी जो कि अत्यन्त बुद्धिमती थी कदाचित् काल पाकर उसका पिता मृगाय मर गया ।। १८१ – १८२ ॥ इसी पृथ्वीपर एक साकेता नामकी नगरी है जिसका कि निर्माण भगवान ऋषभ देवके समय में उनकी भक्ति प्रगट करनेके लिये देवोंने किया था और जो बारह योजन पर्यन्त पृथ्वीपर विरती है | साकेता नगरीका स्वामी राजा अतिबल था जोकि अपने शत्रु राजाओंके बंशका नाश करनेवाला था। अनेक स.मंतोंसे सेवित था । चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान और महान था ॥ १८३ | १८४ ॥ राजा प्रतिलकी रानीका नाम सुमति था जो कि लक्ष्मी के समान परम सुन्दरी 武 湯器わわわ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J त्योख्या पिकस्वना श्यामा रकाधरा सगतिगंभीरगोर्वरं ।। १८५।। तयोहिरण्ययस्याख्या पुत्री जाता मृगायणः । भोगोश्यधिपाकेन खोल्य प्राप्नोति मानवः ।। १८६ ।। बिवादिनो वदंतीत्थं नास्तिकैकांतदष्टयः । गोधूमादिसुजातीनां प्रादुर्भावो हि नान्यथा! १८७ नात्वं स्त्रो नरः स्त्रीत्वं पशुत्व नरस्तथा। प्राप्नुयान्नविचारण क्षेत्रवान्यादिवद्गतिः ।।१८८ा यादिनो भो भवद्भिश्च यदुक्तं सत्यमेव तत् । यद्धान्यमुप्यते क्षेत्र तान्योत्पतिर व हि ॥ १८ || जैनाः कर्मप्रधानीयाः नानाकर्याणि संस्यहो। अभुक्त्वा तत्क्षयो नास्ति कलरकोटिशताधिकः १६० ॥ मार मक्षेत्र समाविष्ट तत्वज्ञानादसंशय । फर्मबीजोदयो यादक समुत्पत्तिस्तु तादृशी ॥ १९१ ॥ थी। कोकिलाके समान वचन बोलने वाली थी। श्यामा थी। लाल २ होंठोंकी धारक हंसके 4 समान मनोहर गतिसे चलनेवाली गम्भीर वचन वोलनेवाली और प्रशस्त थी ॥ १८५ ॥ मगायण | का जीव ब्राह्मण, रानी सुमतिके गर्भसे हिरणवती नामकी पुत्री हुआ ठीक ही है। अति रूपसे // भोग बिलास करनेवाला पुरुष भी स्त्री हो जाता है ॥ १८६ ॥ जो . पुरुष एकांत मिथ्यादृष्टि और नास्तिक है उनका कहना यह है कि गैह्र आदि पदार्थोंके समानही जीव पदार्थकी उत्पत्ति होती है, जीव पदार्थ अनादिनिधन नहीं क्योंकि वे यह मानते हैं कि क्षेत्रमें जिस प्रकार धान्यसे दूसरा धान्य kd उत्पन्न होता है उसी प्रकार स्त्रीसे पुरुष पुरुषसे स्त्री पशुसे पुरुष पुरुषले पशु स्वभावसेही उत्पन्न हो - जाता है ॥१८७--१८६॥ ग्रन्थकार इसका उत्तर देते हैं कि तुम्हारा एकान्त मिथ्यादृष्टि बादियोंका कहना कथंचित ठीक है क्योंकि क्षेत्रमें जो धान्य वोया जाता है उसी धान्यकी उत्पत्ति होती है जैन सिद्धांतके अनुयायी पुरुष कर्मको प्रधान मानते है । वे कर्म अनेक प्रकारके हैं । बिना उनका फल भोगे करोड़ों कल्पकाल क्यों न बीत जाय उनका क्षय नहीं हो सकता ॥१६०॥ यह निश्चय है तत्त्व ज्ञानियोंने अपने तत्व ज्ञानसे आत्माको क्षेत्र कहा है उसमें जैसा कर्म रूपी वीज पड़ता है वैसी ! ही उत्पत्ति होती है अर्थात् पुरुषपनेका कारण यदि कर्म उत्पन्न होगा तो पुरुष उत्पन्न होगा। AYAPEThkkkkkaTREATRE Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः कर्मविपावन नानायोनित्यमाश्रये । तत्सम्बन्धक्षये मोक्षो जीवास्यास्परम् महः ।। २.२ इत्थल कुविवादेन धर्मध्वंसो यतो भवेत सत्त्वशानधया ये तु बादं कुर्यति जातु न ॥ १६३ ॥ सत्यज्ञानं विधावे मो मानवानां भवत्यरं। तरक्षये झानसंसिद्धिविनिर्धूमप्रदीपवत् P ६४ ॥ सा कमायौयनं प्राप्ता ललितांगी ललद्गतिः । लोलगक् पीवरस्थूलनितम्बोद्भारमालिनी ॥ १६५ ॥ सुरम्यो विषयोऽथास्ति और स्त्री पनेका कारण कर्म होगा तो स्त्री होगी इसलिये यह बात निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो जाती है कि जब तक इस जीवके साथ कर्मका संबंध रहता है तब तक.यह अनेक प्रकारकी योनियोंमें | समता फिरता है किन्तु जिस समय उस कर्मके संबन्धका सर्वथा नाश हो जाता है उस समय जीवको मोक्षकी प्राप्ति होजाती है जो मोचा एक उत्कृष्ट तेज कहा जाता है ॥ १६१-१९२ ॥ बस IN विशेष कुविवादके करनेकी कोई आवश्यता नहीं क्योंकि खोटे विवादसे वास्तविक धर्सका लाश हो जाता है। जो पुरुष तत्त्व ज्ञानी हैं वे कभी भी किसी प्रकारका विबाद नहीं करते ॥ १९३॥ जिस प्रकार वाके रहते दीपकका प्रकाश भदमेला रहता है किन्तु जिस समय धूश्रा नष्ट हो जाता है उस समय दीपकका प्रकाश उज्ज्वल हो जाता है उसी प्रकार विवाद करनेसे मनुष्योंमें अज्ञानकी वृद्धि होती है और विवाद न करनेसे ज्ञानकी भले प्रकार सिद्धि होती है ॥ १६४ ॥ मृगायणका जीव कन्या हिरणवती क्रमसे युवति होगई। उसका समस्त अङ्ग सुडौल मनोहर था। वलीला पूर्वक वह गमन करने वाली थी। चंचल नेत्रोंकी धारक थी एवं स्थूल स्तन और नितंबोंके । भारसे शोभायमान थी ॥ १६५ ॥ इसी पृथ्वीपर एक सुरभ्य नामका देश है जो कि यथार्थ नामका धारक हैं । सुरम्य देशके अन्दर एक पोदन नामका नगर है जो कि अपनी सुन्दरतासे राजराजपुर-कुबेरपुरी अलकाकी शोभा धारण करता है ॥ १६५ ॥ पोदन पुरका स्वामी राजा पूर्ण चन्द्र था जो कि यशस्वी था । पूर्ण JAYANAYANAYAYANAYANAYANAYA ३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - A नामान्वर्थ समुद्रहन्। पोदनाव्य पुरता राजराजपुरोपौ ॥ १६ ॥ तव राजा यशःसंघः पूर्णचन्द्राभिधोऽसमि पूर्णचन्द्रमुखः पूर्ण रामाभोगपुर दरः ॥ १६॥ पदापतिवलो राजा पूर्णचन्दनाय तां। हिरण्यादिचतोमाशु पङ्कजारणपत्सलां ।। १६८ ॥ प्रगल्भका तया सार्क रेमे राजा चिरं सुख । भोगावनिमावेन कजमृद्धारवणेया॥ १६ भुजानयोस्तयोः सौख्यं सुता जाता विधर्वशात् । मधुरा ब्राह्मणी सैव रामदता त्यमुत्तमा ॥ २००५ भर्ता मातृत्वमायाति जाया पुरी भवेशहो । पुत्री पुत्रत्वमाप्नोति धिक् धिक् संसारचित्रता ॥ २०१॥ भनिनवणिक योऽई सिंहचन्द्राभिधस्ता । पुत्रो भूत्वातिमोहन मुछिपदमाश्रितः ।। २०२॥ तवैध प्रारमये या भूत पारणी पुत्रिका शुभासा मृत्वा पूर्णचन्द्राख्यो मेनुनोऽभूत्तबोदरे ॥ २०॥ स्वस्पिमता पूर्णचन्द्रो यः पोदनाधीश्चरो हि सः त्यक्त्वा चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान था ॥ २६६ ॥ राजा अतिवलने कमलके समान लाल २ चरणोंसे शोभायमान कन्या हिरणवतोका विवाह राजा पूर्णचन्द्रके साथ कर दिया ॥ २६७२६६ ॥ RC कन्या हिरणवती अपनो प्रौढ अवस्थासे शोभायमान थी। कमलके समान कोमल और सुन्दर वर्ण | की धारक थी इस लिये राजा पूर्णचन्द्रने चिर काल तक उसके साथ मनमाना सुख भोगा ॥२६॥ बहुत दिनतक भोग विलास करते २ उन दोनोंके एक पुत्री हुई जो कि मधुरा ब्राह्मणीका जीव था। वहो मधुरा ब्राह्मणीका जीव तू रामदत्ता है ॥ २० ॥ यह संसारकी बड़ी भारी विचित्रता है कि भइसमें जो अपना पति है वह तो माता हो जाता है। स्त्री पुत्रो हो जाती है और पुत्री पुत्र वन जाता है इसलिये ऐसे दुःखप्रद संसारके लिये सहल वार धिक्कार है ॥ २०१॥ मेरा तेरे ऊपर Id विशेष मोह था इसलिये भद्रमित्र नामका जो में सेठ पुत्र था वह तेरा सिंहचन्द्र नामका में पुत्र हुआ हूं जो कि मैं इस संसारसे विरक्त हो मुनि बन गया हूँ । २०२ ॥ पहिले भवमें जो तुम्हारे वारुणी नामकी कन्या थी वही मरकर तुम्हारे उदरसे उत्पन्न मेरा छोटा भाई पूर्णचन्द्र हुआ है। C॥ २०३ ॥ तुम्हारा पिता राजा पूर्णचन्द्र जो कि पोदन पुरका स्वामी था समस्त राजपाटको छोड़ AYAYAYAYAYAYAYAT AyAyaNAYAYANAYANA Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य प्रवयाज मत्रपासमोपके । २०५ श्योः स गुरु सवधिविलोचनः । आर्यिकादांतमत्यन्ते तब मातापि दीक्षिता ॥ २०५५ त्वत्पतिः सिंहसेनासयो मृत्वा दष्टोऽहिना नरः । करींद्रोऽशनिघोषाख्यः प्रौढो घन इवापरः ॥ २०६ ॥ भूत्वारण्ये भ्रमन, मत्तो मामालोक्य जिधासाधावतिरुम मयाकाशे स्थित्याऽ सौ प्रतियोषितः ॥२०७मयोतपूर्वसंबंध श्रुत्वा सम्यक प्रबुद्धवान् । संयमा संयम भव्यः कुम्भी सद्यः समग्रहीत् ॥२०॥ स्थिरचित्तः सनिगो झात्वा देहायतारतां । कृत्वा मासोपवासादीन शुष्कराणि भन्न यन् ॥ २०॥ ॥ कुर्वन्नेव महासत्वश्चिरं धोरतर तपः। कृशोऽभूच्छक्तिहीनत्वात्पयोधिरिव निर्जलः ॥ २११ ॥ अथो यः पूर्वहिट सों कर मुनिराज भद्रवाहुके समीप दिगम्बरो दीक्षासे दीक्षित होगया था वही अवधि ज्ञानसे शोभायमान हमारा गुरु हुआ है। तुम्हारी माताने भी आर्यिका दांत मतिके समीपमें आर्यिकाके व्रत धारण कर लिये हैं। तुम्हारा पति सिंहसेन जो कि सपने डस लिया था अशनिधोष नामका विशाल हाथी हुआ जो कि साक्षात् काला मेघ सरीखा जान पड़ता था । वह इसी वनमें एक दिन मदोन्मत्त हो घूम रहा था कि उसने मुझे देखा एवं एकदम वह मुझर मारने के लिये रूर पड़ा। मैं चारण ऋद्धिका धारक था इसलिये मैं आकाशमें अवर स्थित होगया एवं मैंने उसे रा, सुन्दर वाक्योंमे पूर्व जन्मका वृतान्त सुनाकर प्रतिबोध दिया। जिस समय उसने मुझसे अपने पूर्व भवका वृतान्त सुना तो बह एक दम प्रतिबुद्ध होगया और मेरे उपदेशानुसार उसने शोघही संयEN मासंयम-देश चरित्र धारण कर लिया ॥ २०४-२०८ ॥ वह अशनिघोष हाथी उस दिनसे स्थिर | व चित्त होगया। शरीर आदिको असार जानकर वह एक दम विरक्त होगया। एकमास तो कभी एक - पक्ष आदिका उपवास करने लगा। जीब हिंसाके भयले सूखे पत्ते खाने लगा इस प्रकार अत्यन्त 21 वलवान भी वह चिर काल तक घोर तप तपनेके कारण एकदम कृश होगया इसीलिये जिस प्रकार जल रहित समुद्र शोभा नहीं पाता उसी प्रकार शक्तिहीन वह हाथी भो शोभायमान नहीं जान पड़ता था ॥ २०६-२१०॥ KIपपपरयापक KPRIYNKTalayaMKVIRY Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्वाऽभूधारो मृगः । पुनीत्वा स संजो कुटाहिः ऋधान्वितः ॥ २११ ॥ अन्य स गजस्तोयं पातु मासोपचासवान् | यूपके सरिणी नाम सरितोय प्रविष्टवान् ॥ २१२३क्षामकायोऽस्तत्तत्र कामे कुञ्जराधिपः । सर्पस्तं पतितं दृष्ट्या पूर्ववैराच्चुकोप सः॥ २१३ ॥ आरुह्य मस्तकं तस्य पोलो: परमधर्मिणः । इन्दशीतिरुम स च्यालः साहास्तद्विजाहाति न ॥ २१४॥ सारङ्गस्तद्विषणेव समाधि l मरणादभूत । विमाने श्रीधरोदेवः सहस्रारे रविप्रभे ॥ २१५ ॥ सचिवः सिंहसेनस्य धम्मिल्लास्यश्व स मृतः। तत्रैव कानने सोऽभूत KYAPhysia ___ मन्त्री सत्यघोषकाजीव जो मर कर सर्प हुआ था और राजा सिंहसेनको काटनेसे वह उनका * वरी होचुका था अपनी सर्पको पर्यायसे मरकर वह चमर मृग हुआ था एवं पुनः वहांसे मरकर क्रोधके कारण वह कुर्कुट जातिका सर्प होगया ॥ २११॥ एक दिनकी बात है कि एक मासका उपवासी वह आशनिघोष हाथी यूपकेसरिणी नामक नदीके किनारे जल पीनेको अभिलापासे गया। वह एकदम कृशशरीरका धारक था इसलिये उसके Lal गाड़े कीचड़में फसकर गिर गया। उसके पूर्वभवका वैरी वह सर्प भी वहीं पर उत्पन्न हो गया बस हाथी अशनिघोषको देखते ही पूर्वभवके वैरसे उसका क्रोध उमड़ गया । परम धर्मात्मा उस IA) हाथीके मस्तकपर वह चढ़ गया एवं उसे डसलिया ठीक ही है जो पापी होते हैं वे - अपने पापकों को छोड़ते नहीं ॥ २१२-२१४ ॥ हाथो अशनिघोषने सरके तीब्र विषके कारण | समाधिमरण पूर्वक अपने प्राण छोड़े एवं वह सूर्यके समान देदीप्यमान सहस्त्रारविमानमें श्रीधर नामका देव हो गया ॥ २१५ ॥ राजा सिंहसेनका जो धम्मिल्ल नामका मन्त्री था वह मरकर उसी | वनमें जिसमें कि हाथी अशनिघोष उत्पन्न हुआ था बन्दर हो गया एवं हाथी और उसको आपस में गहरी मित्रता हो गई ॥२१६ ॥ जिलतमय बन्दरने अपने मित्र हाथीको सर्पसे डसा देखा मारे Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानरो राजसत्सखा ॥ २१६॥ हए या मित्र गज दष्टं तेनाहि नरेण सः।इतोऽगात्ततीये श्वन्ने कुफुट: पापमाजमं ॥ २१७ । अन्त मुहूर्तमात्रेण सुपादशिलातलात। समुत्थाय लुलोकासौ चिरं स्वाधियं सः ॥२१८॥ कौतस्कुल पसरपंनिर्षिमानाश्च कुशस्तसं भुकडागलीवालि श्यते शयरी नु वा । २१६ ।। देचं भ्रांतिगतं दृष्ट्वा समूचस्तं सुरांगनाः । भो भो नाय! बयरममाः समस्तवेद सुप पितः ।। २२० ।। भावतोऽयं सुरावासो यवनत्यं तवैव तत् । अतः कि तर्फयश्चित्ते मागास्स्व भ्रांतिमन्दिरं ॥ २२१ शु त्या देवांगना वायं स दध्याविति चासि । अम्र कृतं पुण्यं यद वागतोऽस्म्यहे ॥ २२२ ॥ एवं चितयनस्तस्य प्रादुरासोत्सृतीयस्क । तदेष ! क्रोधके उसका हृदय पजल गया। उसने अपने मित्रका बदला लेनेके लिये उस कुकुट सर्पको मार ला डाला जिससे वह पापी मर कर तीसरे नरकमें गया एवं राजा सिंहसेनका जोव श्रीधर देव अचरज | भरी दृष्टिसे स्वर्गको लक्ष्मीको देखकर मनही मन यह विचारने लगा कहांसे तो ये देवांगनाओंकी कतार आई। कहांसे ये विमान आये और अपनी ऊंचाईसे आकारको स्पर्शनेवाले ये बड़े २ महल कहांसे आये ? यह इन्द्रजालका खेल तो नहीं है। देव श्री धर को स्वर्गकी विभतिसे इसप्रकार आश्चर्यमय देखकर उसकी नियोगिनी देवियोंने कहा| प्राणनाथ ! हम जो देवांगना दीख रहीं हैं वे आपकी ही स्त्रियां हैं। यह महल आपका ही है तथा और भी जो चीजें आप देख रहे हैं सब आपकी ही हैं। आप यहांकी विभूति देख कर जो आश्चर्य कर रहे हैं वह व्यर्थ है। आपको इसविभ तिको देखकर किसी प्रकारका भ्रम नहीं करना चाहिये ॥ २१७-२२१ ॥ देवांगनाओंके इसप्रकार वचन सुन देव श्रीधरको बड़ा आश्चर्य हुमा एवं वह अपने मनमें इसप्रकार विचार करने लगा___मैंने ऐसा कौनसा ठोस पुण्य किया था जिसके कारण मैं यहां न्याकर उत्पन्न हुआ हूँ! 4 उसीसमय उसके अवधिज्ञान उदिल होगया एवं उसके द्वारा उसने समझ लिया कि मैं जो हाथी था वह कीचड़में फस जाने के कारण मरकर देव हुआ हूँ॥ २२२-२२३ ॥ बस वह अपने मनमें KEYPREETSPREETERIFFECRETRIEVERE P - ३५ - - - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Home पतितं नागं ददर्शावधिलोधनः ॥ २२३ ।। तदा संभावयामास चेतसीति मुहुर्मुः । धन्यं व्रतं यतोजीवस्तियंगपि गुगेभवेत् ॥ २२४॥ धन्यास्ते गुरबो भूमौ शानसारङ्गमध्यमाः। तरन्ति सारयंत्येव नौका इव व्रतं यतः ॥ २२५ ॥ आरभ्य तदनं देवो वभोज स्वासपद अस्पातसमुद्र द्वीप क्रीष्टयन् स्थितः ॥२२० । कोहाशैलेषु देवीमिः शब्दभोगो महद्धिकः । रेमे तपः समहतं फलं लश्या लसद्युति ॥ २२७ ।। चतुर्हस्तोन्नतांग स सप्तायुविवर्जितं । हैमगधिवमारेघ चन्द्रमं पुण्यसंचयं ॥ २२८ ।।अष्टादशसमुद्रायुमनसा हारमाहरन् । मष्टादशसहस्त्रश्च यत्सरैः पुण्यतोऽमरः ।। २२६ । तापत्यशः समुच्छ्यास सुगंधीकृतविश्वयं । कुर्वन् स्वर्गगपुष्पौध. वडा ही प्रसन्न हुआ और बार बार इसप्रकार विचारने लगा---व्रताचरणको धन्यवाद है जिसके कारण तिर्यंच भी जीव देव हो जाता है ॥ २२४ ॥ संसारमें वे गुरु धन्यवाद के पात्र हैं जो ज्ञानरूपो समुद्रके अन्दर विद्यमान हैं एवं नावके समान जीवोंको संसारसमुद्रसे पार करते हैं और स्वयं भी se Ma/पार होते हैं एवं जिनके द्वारा बतोंको प्राति होती है ॥ २२५ ॥ श्रीधर देवको जब अच्छी तरह ज्ञान होगया तब वह उसदिनसे वर्गकी सम्पदाको भोगने लगा । असंख्याते द्वीप और समुद्रोंमें जाकर क्रीडा करने लगा। वह विपुल ऋद्धिका धारक श्रीधर देव अनेक क्रीडा पर्वतोपर शब्द जनित भोग भोगने लगा । एवं सुन्दर कांति धारक वह तपसे जायमान उत्तम फलको पाकर सानन्द क्रीडा करने लगो ॥ २२७ ॥ देव श्रीधरका शरीर चार हाथ प्रमाण था जो कि मलमूत्र IN आदि सात धातुओंसे रहित था। चन्दनके समान महकने वाला चन्द्रमाके समान कांति वाला और पुण्यका समूह स्वरूप था । देव श्रीधरकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी । अपने तीन पुण्य की कृपासे वह अठारह हजार र्वषबाद एक बार मनसे आहार ग्रहण करता था। अठारह पक्षोंके IES बाद ही वह उच्छ्वास लेता था जो कि अपनी सुगंधिसे समस्त दिशाओंको महकानेवाला था। * एवं वह देव सदा कल्पवृक्षोंके सुंगधित पुष्पोंसे बनी पुष्पमालाओंको धारण करता रहता था। उसके पद्म नामकी लेश्या थी। सदा भगवान जिनेंद्रका वह ध्यान करता रहता था। मेरु आदिको Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल ० KPKVPKKKK PRAVR भूषितः श्रीधरो महत् ॥ २३० ॥ पद्मलेश्यो जिनं ध्यायन् यात्रार्थं मेरुषु वजन | नानानाट्यरसान् पश्यन् गतं कालं विवेद न ॥ २३१|| यतो मत लेखपोऽमरवधूमुखांम्भोजलिट् । निकाय कलरूपवान् बहुविलासिनीभोगगाक् ॥ ब्रतादखिलभूमिपः परमधामसौख्यालयः । अगम्यमिव किं यस्त्रिभुवने विधीयेत तत् ॥ २३२ ॥ हत्यार्षे श्रीबृहद्विमलनाथपुराणे भव्वरत्नभूषणाम्नायालङ्कारध्यक्षचारिकृष्णदास विरचिते ब्रह्ममङ्गलदास साहाय्यसापेक्षे सिंहसेनचरश्रीधर देवो त्यतिवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥ यात्रा करता था । नाना प्रकारके नाट्य रसोंको देखता था इसलिये उस दिव्य सुखमें इस बातका पता ही नहीं लगता था कि मेरा काल कहां बीत रहा है ।। २२८-२३१ ॥ ग्रन्थकार व्रतकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि इस व्रत हो की कृपास जीव देवांगनाओंके मुखकमलका आस्वादनेवाला देव हो जाता है । सुन्दर शरीर कलायें और रूपका धारक होता है। भांति भांतिकी सुन्दर स्त्रियोंका भोक्ता होता है । समस्त पृथ्वीका स्वामी मोचसुखका स्थान होता है विशेष क्या तीनों लोक में ऐसी कोई चीज नहीं जो इस व्रतके अगम्य हो अर्थात् व्रताचरणकी कृपासे जीवों को सब बातें सुलभ रूपसे मिल जाती हैं। धर्मात्माओंको चाहिये कि वे व्रताचरण से एक क्षण भी अपने चित्तको विमुख न करें ॥ ३३२ ॥ इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषणकी आम्नायके अलंकारस्वरूप मंगलदासकी सहायतासे मकृष्णदास विरंचित वृहत् विमलनाथपुराण में सिंहसेन के जीव श्रीवर देवकी विभूतिका वर्णन करनेवाला सातवां सर्ग समाप्त ॥ ७ ॥ Han ReaPAKYA यतयतय Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां सर्ग । 64 मादिव पर ज्योतिः सिद्ध' सार्थगोचरं । शिक्षोद्धार जमत्कार गोपाऱ्या संस्मराम्यहं॥१॥ अर्थचान वने व्याधो नाम्ना गासवानिति । द्वाट्या तं पतितं नागं तुतोष हृदये निजे ॥२॥ शुक्तिजामि रदौ तस्य भूरिजांसि चोन्नती। आदाय पतवान् सिंहपसने शवराप्रणीः ॥ ३॥ धनमित्रोऽस्ति तोच राजश्रेष्ठी शुभाशयः । ददौ तस्मै स सौ तानि बहुमूल्यानि चादरात् ॥ ४ ।। पूर्ण. चन्द्रमहीशाय सोऽपि श्रेष्ठी ददौ मुझ । शुक्तिजानि च दन्तौ द्वौ शुक्रतेजांसि सुन्दरौ ॥ ५ ॥ पूर्णच'द्रोऽपि तवय्या व्यधात्यादवतुष्टयं ___ जो भगवान ऋषभदेव उत्कृष्ट ज्योतीस्वरूप हैं । समस्त कम्मों से रहित सिद्धस्वरूप हैं । समस्त पदार्थोंके जानकार सर्वज्ञ हैं । जगतमें वास्तविक शिक्षा प्रदान करनेवाले हैं और गोपबड़े २ मुनियोंसे स्तुत है उन भगवान ऋषभदेवको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥ १॥ जिस बनमें हाथी अशनिघोष मरा था उसी वनमें शृगालवान नामका एक भील रहता था । हाथीको | ISI इसप्रकार मरा देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। अत्यन्त देदीप्यमान गजमोती और दांत उसने ले लिये और वह राजा पूर्णचन्द्रकी राजधानी सिंहपुरकी ओर चल दिया ॥ २-३॥ सिंहपुरमें उससमय एक धनमित्र नामका सेठ रहता था जो कि राज सेठ था ओर उत्तम हृदयका था । भीलने दोनों दांत और गजमोती जो ; बहुमूल्य थे उस सेटको जाकर दे दिये ॥ ४॥ राजसेठ धमित्रने द भी उसे बहुमूल्य बस्तु २ . क राजा पूर्णचन्द्रकी भेंट कर दिये उन्हें देखकर पूर्णचन्द्र वड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि वे गजमोला क विमानके समान देदीप्यमान थे और दोनों दांत परम सुन्दर थे IS.॥५॥ रति प्रेमी और शोभामें कुबेरकी उपमा धारण करनेवाले राजा पूर्णचन्द्रने उन दोनों दांतों हिपहपरण्यायपाडया VERYKhadkarkaise Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEYESH पल्यंयास्य रतिप्रेमा राजराजाधिकामः॥६॥शुकिजानां विधायाशु हार चेतोहरं निजे । पाससंजोरखि प्रीत्या संसारस्येद्गशी गतिः। ॥ ७॥ अतो मातमधे तीष को विदध्या इसीच्छया । धनं घन्यं सुतस्यादि कस्याभूद्र तले १५ ॥ ८ ॥ बल्लभः कस्यचित्कोऽपि मस्जि स्वागढगे सारे जन्मनाशादिदुःखदः॥॥ उपत्वयं संसृतेर्भाध योषमाश्रितवान्मुनिः। रामदत्तापि सच्चरचा विधावैराग्य संगता॥१०॥ जगामानुजपुत्रस्य प्रतिवोधाय वेगतः । स्नेहतस्तत्र गत्वाश योध्यारास तं सुसं ॥ ११॥ नाना सदैर्यदा सोऽपि प्रतिबोधं हि नागतः । तदास्य मुनिना प्रोका कयां सा सम्चीकथत् ॥ १२ ॥ वृत्ति', श्रुत्वा भवोचता भव्यत्वाम्प के तो पलङ्गके चार पाये वनवालिये और गजमोतियोंका महामनोहर हार बनवालिया जोकि प्रीति पर्वक अपने गलेमें पहिना ठीक ही है सारकी यही दशा है ॥६-७॥ माता तुम्हीं कहो संसार की यह भयंकर दशा देख कौन बुद्धिमान इसमें सन्तोष धारण कर सकता है। एवं धन धान्य पुत्र स्त्री आदि किसके संसारमें हुए हैं ! तुम निश्चय समझो विना स्वार्थके कोई भी किसीसे संसारमें प्रम करना नहीं चाहता क्योंकि यह संसार असार है और जन्म मृत्यु आदि दुखोंका देनेवाला है।-६॥ मुनिराज सिंहसेन सवोंकी पूर्वभवावलि सुनाकर चुप होगये आर्यिका रामदत्ता भी | उसे सुनकर मन वचन कायसे एकदम विरक्त हो गई ॥ १० ॥ मोहसे मोहित हो आर्यिका राम- | दत्ता अपने छोटे पुत्र पूर्णचन्द्रके प्रतिबोधने के लिये शीघ्र ही सिंहपुरकी ओर चल दी और राजा पूर्णचन्द्रको अन्रेक प्रकारसे प्रतिबोधने लगी परन्तु राजा पर्णचन्द्र संसारमें एकदम लिप्त था इस लिये आर्थिक रामदत्ताके वचनोंका उसपर रंचमात्र भी असर नहीं पड़ा । जय आर्यिका रामदत्ता ने यह समझ लिया कि। यह किसी प्रकारसे प्रतिवुद्ध होना नहीं चाहता तब उसने जो मुनिराज सिंहचन्द्रने राजा पूर्णचन्द्रके पूर्व भवका बृतांत कहा था कह सुनाया ॥ ११-१२॥ राजा पूर्ण चन्द्र भी भव्य पुरुष WAR Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 花粉 पुङ्गवः । संसारानित्यतां सिंत्य विरागत्वमुपागतः ॥ १३ ॥ गृहीतधर्मतत्त्वोऽसौ चिरं राज्यपालयत्। सम्यक्त्वालंकृतांगः सन् कामिनीबल्लभो भृशं ॥ १४ ॥ रामचापि कालांते निदानमकरोदिति । पतेषां मे पुनर्भूयात्संयोगः स्नेहतो ध्रुवं ॥ १५ ॥ महाशुक विमाने ऽभूद्भास्करे मास्कराह्वयः । ऋतुन्द्रसमुद्रायुः पालेश्यो हिमद्युतिः ॥ १६ ॥ षोडशायुतवर्षैश्च मानसाहारमाहरन् । पक्षैः षोडशभिर्देयः श्वसन् चिक्रियभूषितः ॥ १७ चतुर्बाहुप्रमाणांगोऽसंध्योपाधिषु व्रजन्। यात्रार्थमप्सरोग्रासपरिषतोऽरुणप्रभः ॥ १८ ॥ पूर्णचन्द्रोऽपि तत्रैव लेवलोके वृषोदयात् । वैदूर्ये व्योमयाने च शैडूर्यास्योऽमरोऽभवत् ॥ १६ ॥ सिंचन्द्रमद्रोऽपि तपस्तप्त्वातिदुष्करं । प्रीति विमानेऽभूदूर्ध्वयोर्ध्वके ॥ २० ॥ एकविंशत्सरिस्पायुः षष्टमः श्वभ्रकावधिः । शुक्ललेश्यस्तुषाराभो बाहुसाधै कदेदभाक् ॥२१॥ थे जिस समय उन्होंने अपने पूर्व भवका वृतांत सुना वे एक दम संसारसे भयभीत होगये । उसी समय अपने मनमें संसारकी श्रनित्यता विचारने लगे एवं परिणामोंमे सदा वैराग्य वारण कर ही राज्य करते रहे ॥ १३ ॥ धर्मात्मा होकर उन्होंने बहुत काल तक राज्यका पालन किया एवं अनेक स्त्रियोंके प्यारे होकर भी उन्होंने अपनी आत्मा सम्यग्दर्शनसे ही अलंकृत खखी ॥ १४ ॥ मृत्युके समय आर्यिका रामदत्ताने मोहवश यह निदान बांध लिया कि इन पुत्रोंके साथ फिर भी मेरा सम्बन्ध हो । वह मरकर महाशुक्र स्वर्गके भास्कर नामक विमानमें भास्कर नामका देव होगया जो कि सोलह सागरकी आयुका धारक था। पदम लेश्यासे शोभायमान था । चन्द्रमा के समान मनोहर था । सोलह हजार वर्षोंके बाद वह एकवार मनसे आहार ग्रहण करता था। सोलह पक्षोंके वाद उसास लेता था । विक्रिया शक्तिका धारक था। चार हाथ प्रमाण शरीरका धारक था । अनेक बांगनाओंसे मण्डित हो असंख्याते द्वीप और समुद्रो में यात्रा करता था एवं सूर्य के समान देदीप्यमान था । । १५ – १८ ॥ राजा पूर्ण चन्द्र भी पुण्यके उदयसे उसी स्वर्ग के बैड्र्य नामक विमान में ये नामका देव हुआ था। मुनिराज सिंहचन्द्रने भी घोर तप तपा और आयुके अन्तमें मर कर वे उर्ध्व वेयक के प्रीतिंकर बिमानमें जाकर अहमिंद्र होगये जो कि इक्कीस सागरकी अायुके ४० のみでお疲 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल 3 KKKKK अहमिंद्रत्वमापन्नो मुक्तिस्म शियाच्चिव । किंखिदूमं जिनध्यानध्यायी प्रीतिकरोऽपरः ॥ २२ ॥ रूप्याद्रिदक्षिणा प्यां विद्यतेऽथ पुरं पर धरिपीतिलकाख्यं वे धारिण्यास्तिलकोऽनुस्वित् ॥ २३ ॥ तय नायकोऽत्यादिवेगाख्यः खेचराराधिपः । समास्ते बहुविधेनरूत्र स्य भार्या सुलक्षण भासुराः सुरश्च्युत्था श्रीधराच्या सुना तयोः ॥ २५ ॥ सम स्वयन्या पुरी तल बहुरत्नालकाभिधा । दर्शकाख्यः पतिस्तस्या वभूव स्मरविग्रहः ||२६|| तस्मै दत्ता सुता पित्रा श्रीधराख्या दृढतमी धारक थे। छठे नरक तकके पदार्थोंको जानने की शक्ति रखनेवाले अवधिज्ञान से शोभायमान थे । शुक् लेश्या धारक थे । तुषार - बरफ के समान उज्ज्वल थे। डोड़ हाथ- प्रमाण उनको शरीर था एवं वे मुनिराज सिंह चन्द्रके जीव प्रीतिंकर देव अहमिन्द्र हो मोक्षसे कुछ हो कम उर्ध्व वैकके सुखका आस्वादन करने लगे और हृदयमें सदा भगवान जिनेंद्रका ध्यान करते २ सुखसे वहां रहने लगे ॥ १६- २२ ॥ पृथ्वी के रूपाचल पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें धरणी तिलक नामका मनोहर पुर है जो कि अपनी अद्वितीय शोभासे पृथ्वीका तिलक ही जान पड़ता है ॥ २३ ॥ धरिणी तिलकपुरका स्वामी राजा आवेग था जो कि अनेक विद्याओंका पारगामी था। राजा अतिवेगकी स्त्रीका नाम सुलक्षणा था। महाशुक विमानसे आर्यिका रामदत्ताका जीव वह भास्कर देव चया और उसके गर्भ में आकर श्रीधरा नामकी पुत्री हुआ ॥ २४ ॥ २५ ॥ उसी रूपाचल पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक अलका नामकी दूसरी पुरी है जो कि नाना प्रकारके रत्नोंका स्थान है । उस पुरीका रक्षण करने वाला राजा दर्शक था जो कि कामदेव के समान परम सुन्दर था ॥ २६ ॥ जिस समय कन्या श्रीधरा दृढ स्तनी पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान स्थूल नितम्व और कृश कटिकी धारक पूर्ण युक्ती होगई राजा अतिवेगने उसका धपतयस SAYANA Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 続絶剤を続 | पूर्णचन्द्रानना स्थूलनितंबा नाम कोदरी ॥ २७॥ भुजानयोस्तयोः सौख्यं वैडूर्याधिपतिस्तः । चदुषा पुत्रो बभूवेति ख्याता नाम्ना यो धरा ॥ २८ ॥ नवयौवनसंपन्ना मध्यक्षामा विशालदृक् । विततोरोनिताभ्यां मंथरा पानना ॥ २६ ॥ भार रायपुरं देवपुराभं दर्तते महत्। सूर्यावर्ताभिटी राम्रा तमासोत्रमरसुन्दरः ॥ ३० ॥ पितृभ्यां यौवनशाम्यां तस्मै दत्तायशोधरा । सोऽपि रेमे तथा साकं रोहिण्येव पलानिधिः ॥ ३१ ॥ गर्भे श्रीधर देवोऽय भुत्वा नांकसुखं ततः । व्युत्वा तयोः सुतोजक्ष रश्मिवेगाधिपः सुधीः ॥ ३२ ॥ कदा faare meiपुरोके स्वामी राजा दर्शकके साथ कर दिया || २१|| राजा दर्शक और रानी श्रीरा दोनोंही सानन्द विष खाँका अनुभव करने लगे । राजा पूर्णचन्द्रका जीव वैंडर्य देव वहांसे या | रानी श्रीधराके गर्भ में आकर यशोधरा नामकी पुत्री हुआ । जो पुत्री खिलते हुए नवीन tarसे शोभायमान थी । पतली कटिकी धारक थी। उसके दोनों नेत्र विशाल थे । विशाल स्तन और नितम्बोंके कारण वह मंद मंद रूपसे गमन करनेवाली थी और चन्द्रमाके समान अतिशय शोभायमान थी ॥ २८- २६६ ॥ इसी पृथ्वी पर एक भास्कर नामका पुर है जो कि अपनी अद्वितीय शोभासे स्वर्गपुरकी समा नता धारण करता है । उस भास्कर पुरका रक्षण करनेवाला उस ममय राजा सूर्यावर्त्त था जो कि कामदेव के समान पदम सुन्दर था ॥ ३० ॥ जिससमय कन्या यशोधराके पिताको यह ज्ञात हो चुका कि कन्या यशोधरा पूर्ण युवती होगई है तो उन्होंने उसका विवाह राजा सूर्यावर्त के साथ कर दिया एवं राजा सूर्यावर्त भी जिस प्रकार चन्द्रमा रोहिणी के साथ रमण क्रीडा करता है उसी प्रकार युवती यशोधराके साथ मनमानी रमण क्रीडा करने लगा ॥ ३१ ॥ राजा सिंहसेनका जीव वह श्रीधर देव स्वर्गी अनुपम सुख भोगकर वहांसे श्रायुके अन्तमें चया और रानी यशोधराके अवती हो रश्मिवेग नामका पुत्र होगया ॥ ३२ ॥ एक दिन राजा सूर्यावर्तको मुनिचन्द्र KALYANK प्रथमेश Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मल ३१६ 習作が歌 俺が俺 चिरमुनिचन्द्राख्यो मुनिधर्मानुशासनात् । सूर्यावर्ती नृपस्त्यक्त्वा राज्यं संयममग्रहीत् ॥ ३३ ॥ तद्वियोगोत्यदुःखेन विक्लवा सा धरा । दीक्षां समग्रहीद्भावाद्भवभोगोगनिस्पर्श | ३४ ॥ श्रुत्वा जामातृवृभ्योश्च दीक्षाग्रहणमुत्तमं । श्रोधरा संयमं प्रापनुगुणश्रत्यार्थि कांतिके || ३५ || रश्मिधेगोऽधिगम्याशु राज्य कामाधिको वभो । भुंजन पुराकृतं पुण्यं पुण्यचेताः प्रसन्नधीः ॥ ३६ ॥ अन्यदा रश्मि गोऽगासिद्धकूट जिनालयं । वदितुं क्रादितु चैष मन्याः स्युः पुण्यबुद्धयः ॥ ३७ ॥ हरिचन्द्रायं तत्र दृष्ट्वा चारणसंयमं । पुरस्तात्सं त नामके मुनिराज के दर्शन होगये। उनसे मुनिधर्मका उपदेश सुनकर उन्हें संसार शरीर भोगों से वैराग्य होगया । राज्यका सर्वथा परित्याग कर दिया और दिगम्बरी दीक्षा धारण करली ॥ ३३ ॥ राजा सूर्यावर्त जब मुनि बन गये तो रानो यशोधराको बड़ा कष्ट हुआ। उसे भी संसारकी असातासे वैराग्य होगया एवं संसारके भोग और उनके कारणोंसे विमुख हो उसने आर्यिका धारण कर लिये || ३४ ॥ जमाई और पुत्रीकी दीक्षाका समाचार सुन यशोधराकी मा रानी श्रीधरा भी एक दिन संसारसे विरक्त होगई और गुणवती आर्यिका के पास जाकर उसने आर्थिका| के व्रत धारण कर लिये || ३५ ॥ पिता माताके दीक्षा ले जाने पर कुमार रश्मिवेग राजा बन गये । कामदेव के समान उनकी उस समयको अद्वितीय शोभा थी । पहिले उपार्जन किये गये पुण्यके फलको भोगने वाले थे | पुण्यात्मा और प्रसन्न चित्तके धारक थे ॥ ३६ ॥ एक दिनकी बात है कि राजा रश्मिवेग सिद्धकूटके जिन मन्दिरों की वंदना के लिये और उनके बनों में कीड़ा करनेके लिये गये ठीक ही है भव्य जीवोंकी बुद्धि पवित्र हुआ ही करती है । यहां पर एक हरिचन्द्र नामके चारण ऋऋद्धि धारी मुनि विद्यमान थे उन्हें देखकर राजा रश्मिवेग भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और हाथ जोड़कर उनके सामने बैठ गया || ३७ ॥ २८ ॥ प्रामिके बदले में मुनिराज हरिचन्द्र ने राजा रश्मिवेगको धर्म वृद्धि दी एवं वे यह कहने लगे--- ANURA 情野恋恋み Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल でお寄 PKPKPUR स्थितो मध्य प्रांजलिः परमोदयात् ॥ ३८ ॥ धर्मवृद्धि प्रदाभास्मे सुनिः प्रहसहित इन धर्म जिनोदितं ॥ ३६ ॥ श्वभ्रतिर्यग्गतिभ्यां यः समुद्धरति देहिनः । तं धर्म मुनयः प्राहूरजुः कृपादिव स्फुटं ॥ ४० ॥ सांगतं दृश्यते यश्च तत्सत्यं नैव दृश्यते । अनित्यो भवो विद्धि समाख्यांतो व्यलीकदः ॥ ४१ ॥ संयोगविप्रयोगोत्थं भवे दुःखं भृशांपते । तेन दुःखेन तल्लब्धिर्म स्यादश्वविषाणवत् ॥ ४२ ॥ संयोगे विप्रयोगे च नानाकर्म दृढी भवेत् । कर्मणायाति पातालं संसृतो भ्रमणं पुनः ॥ ४३ ॥ कस्य श्रीसुतायादिराज्यं प्राउयं वपुः सुख' । किं न धनेऽनुयास्त्येव स्नेहव्यर्थ मतोऽखिलं ॥ ४४ ॥ ते धीरः सुखिनस्तेपि विश्वधास्ते राजन ! मैं भगवान जिनेंद्र के द्वारा प्रतिपादित, अतिशय हितकारी धर्मका उपदेश देता हूं. | तुम ध्यान पूर्वक सुनो जिस प्रकार रस्सो कूवेमेंसे घड़ा आदि चीजको बाहर खींच लेती हैं उसी प्रकार जो धर्म जीवोंको नरक और तिर्यच गतिले छुटा दे उसे ही वास्तविक धर्म कहते हैं । ३६ । ॥ ४० ॥ जो चीज सवेरे देखनेमें आती है वह शामको देखनेमें नहीं आती इसीलिये विद्वानोंने संसारको अनित्य और दुःखोंका देनेवाला टहराया है ॥ ४१ ॥ संसारमें रहकर संयोग और वियोगोंसे जायमान प्रचुर दुःख भोगने पड़ते हैं एवं उन दुःखोंसे जिस प्रकार घोड़े के सींगो में धर्मकी प्राप्ति नहीं होती उस प्रकार धर्मको प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ ४२ ॥ राजन् ! संसार में अनेक संयोग और वियोगोंके कारण दृढ रूपसे कर्म बंधते रहते हैं । उन कर्मोंके कारण नरक जाना पड़ता है । समस्त संसारमें घूमना पड़ता है ॥ ४३ ॥ स्त्री पुत्र कुटुम्बी राज्य शरीर सुख ये सब बातें मृत्युके समय साथ नहीं चलतीं इसलिये इनके साथ स्नेह करना वृथा है ॥ ४४ ॥ संसार में वे ही पुरुष धीर वीर हैं वे ही सुखी विद्वान और सुन्दर हैं जो कि दश प्रकार भोगोंका सर्वथा परित्याग कर मोची इच्छासे दिगम्बरी दीक्षा धारते हैं | १५ | जो मूढ पुरुष सदा स्त्रियोंमें आसक्त रहते हैं महा लोभी और महा मानी होते हैं वे शुद्रोंके समान महा निंय कीचड़से व्याप्त संसार पनपत्र Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - जाच सुदराः । भोगान् दशविमान भुक्त्या प्रति शिवेच्छया ॥ ४५ ॥ सदै। स्त्रोसनासक्ता लोभिनो मानिनो नगः । अमेध्यकर्दम FO कीर्णपे ते शूकरा इव ॥४६॥ स्वार्थमुख्य सुखो त्यक्त्वा ये ध्यायति पर महः । अन्तमुहूर्ततस्तेऽपि कर्मालि त्य क्ष्णुवंत्यहो ॥१७॥ :इत्यादितरघसद्धीज ध्यानयध्या मनीरतानासौ चिंतयामास मानसे रशिमवेगः ॥४८॥ आधिपत्ये सति प्राज्य भूरिभोगेषु Lati सत्सु वा। समासोन्मरणं नन ताई कि तैः सुभंगुरः ॥ ४६॥ साधयामोशं धर्म' यतो न स्यात्पुनर्भवः । विचिंत्येत्यं स जप्राह सस. सम्यक्त्व सुसंयम ॥ ५० ॥ परिणाम विशुद्ध .स सपस्तप्त्याऽगरोधसि | धारणत्वं च संप्राप्तः सद्यो गगनगोचर ॥ ५ ॥ बिहरन्नेवादा सोऽपि रश्मिवेगो यमोश्करः । कांचनाम्यगुइ दृष्ट्या तस्यौ तत्र समाधये ॥ ५२ ॥ पर्यकासनमाकई ध्यानस्तिमिललोचनं । ध्यायत रूपी कूपमें पड़े रहते हैं। किन्तु जो महापुरुष स्वार्थ परिपूर्ण सुखका सर्वथा परित्याग कर चिदानन्द चैतन्य स्वरूप आत्माका ध्यान करते हैं देखते २ वे अन्तर्मुहुर्तमें समस्त कर्मोको खिपा देते है ॥ ॥ ४६-४७ ॥ राजा रश्मिवेगने मुनिराज हरिचंद्रसे जव यह धर्मका खरूप सुना तो वह मन ही मन ऐसा विचारने लगा-- विशाल राज्य और विपुल भोगोंके रहते भी जब संसारमें मरण है तब क्षण भरमें विनश जानेवाले राज्य भोग आदिको अपनाना व्यर्थ है। मैं अब उस परम पावन धर्मका आराधन करूंगा जिससे मझे फिर संसारमें न घमना पड़े वस उसने यह दृढ विचार कर शीघ्र ही सम्यग्द शेनके साथ संयम धारण कर लिया दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगया ॥ ४८-५०॥ परिणामों 1 को विशेष विशुद्धिसे उन्होंने उग्र तप तपा। तपके प्रभावसे चारण ऋद्धि प्राप्त होगई जिससे वे आकाशमें भ्रमण करने लगे ॥५१॥ एक दिनकी बात है कि विहार करते करते ने मुनिराज रश्मिवेग कांचन नामकी गुफाके पास जा पहुंचे और उसे समाधिके उचित जानकर उसमें विराज गये। वहांपर उन्होंने पयक आसन मार लिया। ध्यानसे दोनों नेत्र निश्चल कर लिये एवं वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारको आकुलतासे रहित वे चिदानन्द चैतन्य स्वरूप परमात्माका ध्यान करने -- 长长长点。 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महापापा परमात्मानं विधा शिवजित ॥ ५३॥ तं विलोमा पाते है भारदिनमा मन्दिरमा विएतां तत्र श्रीधरा च यशाधरा । | ५४ ॥ श्याभोऽथ प्राक्तनस्तस्मात्प्रच्युस्वाधविपाकतः । चिर' भ्रांस्वा स संसार महानजगरोऽभ रत् ॥ ५५॥ पूर्वरानुबंधेन सत्रागत्य मृमि च ते । आर्थिक क्रोधतःपापी घेर त्याज्यमतोऽगिलत् ॥५६॥ आराध्याशधनाः प्रांतेरश्मिवेयोऽमरोऽनवत् । कापिष्टकप्रभाख्ये व विमाने सत्कृताहयः ।।५७ । मृत्वा ते माथिके तन धिमाने स्थानिधे। अभृताममरी रम्यावणिमादिविभूषितौ ॥१८॥ चतुर्दश त समुद्रायुरायुयें घां प्रकीर्तितं । पञ्चपाणिप्रमागानां रूपभोगवा भृशं ॥ ५६ ॥ प्रति पपमा प्रापत्पापादजगरोहि सः। भुनक्तिस्म कृतं लगे॥ ५२-५३ ॥ मुनिराज रश्मिवेगको कांचन गुफामें इस प्रकार ध्याना रूढ सन श्रीधरा और - यशोधरा नामको दो आर्यिकायें उनके पास आई और भक्तिपूर्वक बंदना कर उनके पास बैठ गई ॥५४॥ मंत्री सत्यघोषका जोव जो कि अपने प्रवल पापसे नरक गया था वहांके दुःखोंको भोगकर वह वहांसे निकल आया । प्रबल पापके उदयसे बह संसारमें जहां तहां बहुत घूमा और कांचन गुफामें एक विशाल अजगर होगया ॥ ५५ ॥ पूर्व बैरके संवन्धसे वह अजगर मुनिराज रश्मिवेगके पास आया और क्रोधसे भबल कर मय दोनों आर्यिकाओंके मुनिराज श्मवेगको निगल गया। ॥ ५६ ॥ मुनिराज रश्मिवेगने अन्त समयमें अच्छी तरह आराधनाओंको आराधा जिससे कापिष्ट । | स्वर्गके सूर्यप्रभ नामक विमानमें वह सूर्यप्रभ नामका देव होगया ।। ५७ ॥ श्रीधरा ओर यशोधरा ka नामकी दोनों आर्यिकायें भी कापिष्ठ स्वर्गके रुचक बिमानमें जाकर देव होगई, दोनों आर्यिकाओं के जीव वे दोनों देव अत्यन्त मनोहर थे। अणिमा आदि विभूतियोंसे विभूषित थे। चौदह सागर प्रमाण आयु थी एवं मनोहर रूप और अनेक भागोंके खजाने स्वरूप वे पांच हाथ प्रमाण शरीरसे शोभायमान थे ॥ ५८-५६ ॥ मुनिराज और दोनों आर्यिकाओंके निगलनेसे उस अजगरने तीव्र पापका बंध किया था इसलिये आयुके अन्तमें उस तीब पापके उदयसे वह अजगर । - SHRES Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! पापं तल पानाभगोवरं ।। ६० ॥ मारकास्तं विलोक्याशु परस्परसमीपरत् । छेदगर्भेदनैः शूलारोपपोई प्रयादनः ॥ ३१ ॥ ध्वांक्षोलूक पिडालाश्च व्याघवृश्चिवरूपिभिः! मारकैशुचते सहा लंध्यते न गतिर्विधेः ॥१२॥ अथ 'जम्बमति पे विरूवाते त्वज भारते। । विद्यते चापूरम्या पौरहतीष पू: परा।। ३३॥ राजापरावितस्तय शव भिः कृतशासन; । अस्यास्ति सुन्दरी नाम्ना रामा रम्भानुकारि काणी ॥ ६४ ॥ अवधेयकाद्देव सिंहस्चरस्तयोः । च्युत्वा प्रति बभूव पुत्रश्वकायुधो महान ॥ ६५ ॥ महाराजसुताः पञ्बसहनन मिताः पराः। उपयभ्य सुख तस्थौ पुत्रश्वकाययुधोपली अर्कपभोपि कापिष्ठाच्च्युत्वा चक्रायुधस्य तुक' 'संजातश्वित्रमालायर्या whekharka KEE पर प्रभा नामके नरकमें जाकर नारकी होगया और अपना किया हुआ पापोंका फल जोकि वचनों से कहा नहीं जा सकता भोगने लगा ॥६०॥ अन्य नारकियोंने जिस समय उस अजगरके जीव नारकीको देखा तो उनका एक दम क्रोध उवल उठा एवं वे आपसमें छेदना भेदना शूलीपर चढ़ा देना और गाली गलौज करना आदि कारणोंसे उसे मारने ताड़ने लगे। उस पापी अजगरकेन जीव नारकीको काक उल्ल, विल्ली घीड़ा बाघ वीके स्वरूपके धारक नारकियोंने अनेक प्रकारसे मारना पीटना प्रारम्भ कर दिया। ठीक ही हैं कर्मकी गति रोकी नहीं जा सकती ॥६१-६२ ॥ - इसी जम्बूदीपके प्रसिद्ध भरत क्षेत्रमें एक चक्रपुरी नामकी नगरी है जो कि उत्कृष्ट है और शोभामें इन्द्रपुरीकी उपमा धारण करती है ॥ ६३ ॥ चक्रपुरीका स्वामी राजा अपराजित था। - जिसका कि शासन शत्रुओंपर पूर्ण रूपसे चलता था और उसकी सुन्दरी नामकी रानी थी जो कि शोभामें इन्द्रागीका अनुकरण करती थो ॥ ६४ ॥ मुनिराज सिंहचन्द्रका जीव वह अहमिंद 5ऊर्ध्व वेयकसे चया और रानी सुन्दरीके गर्भमें अवतीर्ण हो चक्रायुध नामका पुत्र होगया ॥ ॥ ६५ ॥ अपनी युवावस्थामें कुमार चक्रायुधने पांचसो रोज कन्याओं के साथ विवाह किया और d वह सानन्द बिषय भोगोंका अनुभव करने लगा ॥ ६६ ॥ मुनिराज रश्मिवेगका जीव अर्कप्रभ देव । Xxkuta KYAakre Park Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RamK SEYKEEK C नाम्ना बनायुधः सुधीः ।। ६७ ।। पृथियोतिलकं माम्नः पतन सिलको भुवः । राज नररत्नाढ्य सोत्सवं चयमंडितं ।। ६८ 1 अतिवेग महोपालस्तलाभूद्वाजलक्षणः। प्रियकारुणिका तस्य बभूवेवामरप्रिया ॥६६॥ कापिष्ठात् श्रीधराजीवश्च्युत्यासो रुखकामियः । सता भत्तयोरस्या रत्नमालानिधा शुभा || एकदा तां पिता दृष्ट्वा यौवनश्रीचिराजितां । बजायुधकुमाराय दो भानुप्रियामिव !! । वनायुप्रस्तयामेव रेमे रात्रिदिवं सुन्न । रम्भापो रम्मयाहीशः पद्मया तमसोड पः ॥ ७२ ॥ यशोधरापि कापिष्टाच्च्युत्या रत्नायुध भी अपनी आयुके अन्तमें कापिष्ठ स्वर्गसे चया और राजा चक्रायुधको चित्रमाला नामको रानीले बनायुध नामका गुम होगया ।। ६७ ।। 2 इसी पृथ्वी पर एक पृथिवी तिलक नामका नगर है जो कि अपनी शोभासे साक्षात् पृथिवीका तिलक स्वरूप जान पड़ता है। सदा वह उत्तमोत्तम पुरुष रलोंसे भरा रहता है और उसके चैत्यालय और मन्दिर सदा अनेक उत्सवोंसे जग मगाते रहते हैं ॥ ६८ ॥ पृथिवी तिलक पुरका स्वामी राजा अतिवल था जो कि समस्त राज लक्षणोंसे शोभायमान था। उसकी रानीका नाम प्रिय कारिणो था जो कि अपनी अनुपम शोभासे देवांगना सरीखी जान पड़ती थो॥६६॥ श्रीधरा IM नामक आर्यिकाका जोत्र रुचक देव कापिष्ठ स्वर्गसे चया और रानी प्रिय कारिणीके गर्भ में अद तोण हो कन्या होगया जिसका कि नाम रल माला था ॥ ७० ॥ एक दिन गजा अतिबंगने पूर्ण - यौनसे शोभायमान राजपुत्री रत्नमालाको देखा । उसे विवाहके योग्य समझकर कुमार बजायधन PO को प्रदान करदी एवं सूर्यको जिस प्रकार अपनी स्त्री प्यारी है उसी प्रकार यह रत्नमाला कुमार - बजायुध की परम प्यारी बन गई ।। ७१ ॥ जिस प्रकार रंभाका स्वामी रंभाके साथ रमण करता है नागेन्द्र लक्ष्मोके साथ और चन्द्रमा रोहिणीके साथ रमण करता है उसी प्रकार कुमार वजायुध भी सुन्दरी रस्लमालाके साथ रात दिन रमण करने लगा और भोग जन्य सुख भोगने लगा ॥ ७ ॥ Karki ४१ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल २२ YAYA मनोऽम्भोजः पूर्णचन्द्राननोऽरिजित् ।। ७३ । पत्रं संयोगापना ते पुण्यफलं महत् । भुजेतिरूम महाप्रीत्या स्योः । सुतो दुर्लभं किमयोदयात् ॥ ७४ ॥ गंधे भावोत्कटा माश्यरतिरामासमुद्भवं सुख ते भोजयामासुर्धक मार्पितं ॥ ७५ ॥ श्रुत्वापराजितो धन्येद्युः पिहितात् । चक्रायुधाय साम्राज्यं दत्वादीशिष्ट धीरधीः ॥ ७६ ॥ चक्रायुधोऽपि तद्राज्यं प्राप्याधिकतरं बभौ । चिंदन कुपलयं राजा राजवत्पालयन् प्रजाः ॥ ७७ ॥ अन्यदा विष्टरासीनो लोकयन् विप्रे सु । पलितं काखसंकाशं मस्वके दृष्टवान्नृपः ! का यशोधराका जीव देव भी कापिष्ठ स्वर्ग से चया और रानी रत्नमाला के गर्भ से रत्नायुध नामका पुत्र हुआ जो कि मन रूपी कमलको विकास करने वाले पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान था । इस प्रकार आपसमें संबंध रखनेवाले वे सिंहसेन आदिके जीव बड़े प्रेमसे पुण्य के महाफल स्वरूप सुखका भोग करने लगे ठीक ही है पुण्यके उदयसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है ॥ ७३–७४ ॥ वे सबके सब उत्तम धर्मरूपी कल्पवृक्षके द्वारा समर्पित उत्तम हाथी घोड़े मंत्री रतिके समान स्त्रियोंसे जाय मान सुखको सानन्द भोगने लगे ॥ ७५ ॥ एक दिनको वात है कि राजा अपराजितने पिहितालव नामके मुनिराज से धर्मका उपदेश सुना जिससे उन्हें संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य होगया । धोर वीर राजा अपराजितने अपने पुत्र वायुको समस्त राज्य प्रदान कर दिया और वह तत्काल दिगंबरी दोचासे दोचित होगया । ॥ ७६ ॥ अपने कुल परम्परासे प्राप्त राज्यको पाकर कुमार चक्रायुध अतिशय शोभायमान जान पड़ने लगा | उसने समस्त पृथ्वीको अपने वश कर लिया और वह पूर्ण रूपसे प्रजाका पालन करने लगा ॥ ७७ ॥ एक दिनकी बात है कि राजा चक्रायुध सानन्द राजसिंहासन पर विराजमान थे और सिंहोसनमें लगे हुए दर्पण में अपना मुख देख रहे थे अचानक ही उन्हें अपने मस्तक में एक कासके Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल ३२३ 0 ७८ | तदेति चिन्तयामास मानसे स विशुद्धधीः । भगतो यमदूतोऽयं मामाकारयितु ं ध्रुवं ॥ ७६ ॥ अहो आयु सर्व वैयर्थ्य मामकं वने । मल्लिकापुष्पवद्धर्म विना स्वर्गापवर्गदं ॥८०॥ त्रिया वैराग्यमापन्नश्वायुधनराधिपः । वज्रायुधे सुतेः राज्य समारोप्य बनेऽगमत् ॥ ८१ ॥ प्रात्रा जीत् पितुःपार्श्व राद्धांताऽग्लो धिपारण: । नद्यास्तीरे महारण्ये भगवानो तपोऽकरोत् ॥ ८२ ॥ वज्रायुधोऽपि तद्राज्यं दत्त्वा रत्नायुधाय च । पितुः पार्श्वेऽग्रहोोक्षां किं न कुर्वेति सात्त्विकाः || ८३॥ मुनिचक्रायुधो ध्यात्वा स्वात्मानं परमं पदं प्राप्य ज फूल के समान सफेद केश दीख पड़ा ॥ ७८ ॥ विशुद्ध बुद्धिका धारक वह राजा अपने मस्तकका सफेद केश देख इस प्रकार विचारने लगा - मुझे बुलानेके लिये यह महाराज यमराजका दूत आपहुंचा है। नियमसे अब मुझे मृत्युका सामना करना पडेगा । जिस प्रकार वनमें मालती लताके पुष्पका होना व्यर्थ है क्योंकि वहां उसका आदर करनेवाला कोई नहीं होता उसी प्रकार स्वर्ग और मोक्षको प्रदान करनेवाले धर्मके विना मेरा भी समस्त जीवन विफल ही चला गया ॥ ७६ - ८० ॥ वह राजा चक्रायुध मन बचन काय तीनो योगोंसे संसारसे विरक्त होगया । अपने पुत्र बज्रायुध को उसने राज्य प्रदान कर दिया और वह सीधा वनकी ओर चल दिया ॥ ८१ ॥ अपने पिता मुनिराज अपराजितसे उन्होंने दिगं दीक्षा धारण कर ली । अभ्यासकर सिद्धतिरूपी समुद्रके पारको पहुंच गये। किसी नदी के पास एक विशाल बन था उसके पहाड़की चोटी पर घोर तप तपने लगे ॥ ८२ ॥ अपने पिता के दीक्षित होजाने के बाद कुछ दिन कुमार वज्रायुधने राज्य किया । कदाचित उन्हें भी संसार से वैराग्य हो गया शीघ्र ही उन्होंने अपने पुत्र रत्नायुध को राज्य दे दिया और वे दिगम्बरी दीक्षा से दीक्षित होगये। ठीक ही है सज्जन प्रकृतिके मनुष्य जो भी उत्तम कार्य कर डालें थोड़ा हैं ||३|| जिस प्रकार धूपर्स व्याकुल पुरुष वृक्ष की छाया पाकर शांतिका अनुभव करने लगता है उसी प्रकार Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POS सुखी घर्मतप्तःश्छायातरु' यथा ॥ ८४ ॥ वज्रायुधो गिरी प्रथमे मन्ये सति । प्रभूरुद्द कण्डं तस्यन् पुरुप्रस्मरत् ॥ ८५ ॥ अथ रत्नायुधो राजा शक्तो भोगेषु प्रत्यक्षं । धर्म त्यक्त्वातित्वानि चिरमन्त्रभूत् ॥८६॥ पत्येकदा तस्य दानवपदवत् | कुम्भानुमृद्रा मनोहरवने गतः ॥ ८३ ॥ तहारण्ये मुनिर्वज्र दस्ताख्योऽपि समागतः । लोकानुयोगमूचे स नानाधर्मात्मकं यतः ॥ ८८ ॥ तदा शास्त्र ं गजः श्रुत्वा मेवादिविजयाहृयः । पूर्वजन्मस्मृतिं प्रापत्निनित्मानमञ्जसा ॥ ८ ॥ तिर्यक्त्वं च मया प्राप्त मुनिराज चक्रायुधने भी पूर्ण रूपस े अपनी आत्माका ध्यान किया जिससे उन्होंने परमपद मोक्ष पदको पा लिया और वे अविनाशी सुख भोगनेवाले वन गये ॥ ८४ ॥ मुनिराज वज्रायुध भी प्रीष्म ऋतु पर्वतों के अग्रभागपर तप तपने लगे । शीत ऋतु में नदियोके तटोंपर और वर्षा तुमें वृक्षोंके नीचे बैठकर उन्होंने तप तपना प्रारम्भ कर दिया तथा वे प्रति समय भगवान वाम देवके गुणोंका स्मरण करने लगे ॥ ८५ ॥ वज्रायुधका पुत्र कुमार रत्नाययुध जिस समय राजा बन गया तो धर्मका सर्वथा परित्याग कर वह प्रति समय भोगोंमे मग्न होने लगा और भोगोंका अति लोलुपी हो उनके सुखोंको भोगने लगा ॥ ८६ ॥ राजा रत्नायुधका एक मत हस्ती था जिसके कि गंडस्थलोंसे सदा मद करता था अतएव वह साक्षात् मेघ सरीखा जान पड़ता था । उसके दोनों कुम्भस्थल पहाड़की चोटी सरीखे थे जिससे वह साचात् पर्वत सरीखा जान पड़ता था । एक दिन वह मनोहर नामक वन में गया वहां पर उस समय एक वज्रदन्त नामके मुनिराज आये थे और वे अनेक धर्म स्वरूप लोकानुयोगका वर्णन कर रहे थे। हाथी मेघ विजयको भी धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिल गया धर्मोपदेश सुनते ही उसे पूर्व जन्मका स्मरण होगया और वह इस प्रकार अपनी जिन्दा करने लगा ॥। ८७५-८६ ॥ ava 静福鍋屋 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमल २५ पूर्वपापोदयादिति । मुटुमुटुर्विनिंद्य स्वं नान्यदफलं तथा ॥ १० ॥ संस्तुस्थिति ध्यावत् सामजो न भ्रयते । विपाः स्थी श्रुतरास्वश्च होद्वशः ॥ ६२ ॥ सत्संग: पाकली त्येवाचिराद्रव्यात्मनः भुवि । घुरत्या साया अच्छयामारि विला ॥ ६२ ॥ यथा पुत्रपदस्पर्शाद्दर्भ इन्द्रशिरः स्थितः । सव्यापसव्यन्तं स्थायि पक्षादीनां वचोऽर्हता ॥ ६३ ॥ तादृक्ष' संगजं दृष्ट्या दुःस्थितं नृपः ॥ व्याकुलभूमापन्नः पृष्टधान् मन्त्रिवैद्यकान् ॥ ६४ ॥ व्रत वैद्या गजस्यास्य को विकारोऽस्ति समितं । विकाराभावतः प्रोचुस्ते वैद्याः श्रुतवार्तिकाः ॥ १५ ॥ अनुभा श्रूयतां राजन्! कुञ्जरोऽयं कृपामयः । धर्म' श्रुत्वा कुतश्चिच्च मुनेर्जातिस्रोऽभवत् ॥ पूर्व पाप के उदयसे मैंने यह तियंच गति पाई है। मुझसे बढ़कर पापी कौन है बस इसप्रकार अपनी प्रतिक्षण निन्दा करने लगा। वनके साजे फलों का भी उसने खाना छोड़ दिया ॥ ६० ॥ धर्म तत्वका यथार्थ रूपसे श्रवण करने वाला वह हाथी मेघ विजय रातदिन संसारकी असारता मानने लगा । वनमें घूमना उसने सर्वथा छोड़ दिया जिससे वह चाहे भूखा हो चाहे प्यासा हो एक ही जगह वह निश्चल खड़ा रहने लगा ॥ ६१ ॥ जो पुरुष भव्यजीव हैं उन्हें सत्सङ्गति अवश्य फल के देनेवाली होती है क्योंकि यह वात स्पष्ट रूपसे दीख पड़ती है कि काली भी कोयल वसंत ऋतु संसर्गसे मीठे और मनोहर शब्द करने वाली हो जाती है एवं जिस दर्भ घासका भगवान जिनेंद्र के पैर से स्पर्श हो जाता है वह इन्द्रके मस्तकका भूषण बन जाता है तथा भगवान अतके संसर्गसे उनका बचन भी पक्ष दिन मास आदिके भले बुरेका सूचक होजाता है। इसलिये सत्संगतिका प्रभाव अचिन्त्य है ॥६१ - ६३ ॥ मेघ विजय हाथीकी इस प्रकार दुःखित अवस्था देख कर राजा रत्नायुत्र एक दम व्याकुल होगया ओर उसने शीघ्र ही मंत्री और वैद्योको बुलाकर इस प्रकार पूछा वैद्यो ! शीघ्र बताओ हाथी मेघ बिजयको यह क्या विकार उत्पन्न होगया है जिससे यह एक 1 माधवनार Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ॥ अतः सत्पात्रनिष्पन्नं शुद्धाहार धृतादिभिः । निश्चितं भक्षयेन्नागो नान्यत्फलफलादिक ॥१७ 11 कृत्याहार तथाभूतं न्यक्षिपत् कुंजराप्रतः । कुजरोऽपि जघासैंप आहार मिश्रित घृतः।१८॥ यदा रलायुधोराजा घिस्मयीभूयमागतः । जगाम सामजारूढो मनो हरवनेऽषनः || ६ || पनदन्त' मुनि तत्र नत्वावधिविलोचनं । गजवृसं समाख्याय तद्धे तु पृच्छतिस्म सः ।।१०।। मुनिः प्राह तदा भव्यपंकजालिदिघाफरः । सादरं शृणु राजेन्द्र प्रोच्यमानी मया कथां ।। १० ।। अन्न सम्बमति द्वीपे भारते भारते--रत । भारते भाति दम निर्बुद्धि दीख पड़ता हैं ?। वैद्योंको इस वातका पता लग चुका था कि बनमें मुनिराज वदंत Ka को देखनेसे इसकी यह दशा हुई है इस लिये उन्होंने कोई भी विकार न बतलाकर यह कहाO राजन् ! कृपाकर हमारी बात सुनिये। यह हाथी मेघ विजय अत्यन्त दयालु है । बनमें जाकर - इसने किसी मुनिसे धर्मोपदेश सुना है इसलिये इसे जाति स्मरण होगया है अब यह शुद्ध मनुष्य से बनाये गये और घृत आदिसे तयार किये गये भोजनको ही खा सकेगां अब यह पहिलेके समान फल फूल आदि नहीं भक्षण कर सकेगा ॥६४---६७ ॥ राजा रलायुधकी आज्ञासे शीघही बेसा आहार तयार होगया। तयार हो जाने पर हाथीके सामने रख दिया गया। हाथी भी उसे । शुद्ध जानकर चट खागया ॥ ६॥ हाथीको यह विलक्षण चेष्टा देख राजा रत्नायुधको बड़ा आश्चर्य हुआ और वह मुनिराज वजदंतसे सब हाल जाननेके लिये शीघ्र ही हाथी पर चढ़कर |बनकी ओर चल दिया ॥ ६ ॥ वनमें जाकर उसने अवधिज्ञानी मुनिराज बजूदंतको नमस्कार कियो। हाथीका सब हाल कहा एवं इस बातकी प्रार्थना की कि हाथीकी ऐसी दशाका कारण क्या है ? मुनिराज बज्रदंत भन्यरूपी कमलोंके लिये सूय स्वरूप थे इसलिये उन्होंने यह कहाराजन् ! मैं सब हाल कहे देता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो--- इसी जंवूद्वीपके सूर्यको कांतिके समान देदीप्यमान भरत क्षेत्रमें एक छत्रपुर नामका उत्तम work Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ERSHE छलादि पुरनालिसुग्दर ।। १०२॥ प्रीतिभद्रो मपस्तत्र शत भ्योऽतस्तमानसः। राजतेऽमरराजोवा विशालोरा गुणार्णवः॥ १०३ ।। तस्यासीत्सुन्दरी नारना हिया मधमापिणी । सदीय सती रम्या सुन्दरीय मनोभुवः॥ १०४ ॥ तयोमुनियोः सौख्यं नाम्ना प्रीतिकरः सुतः। संबभूव गरीयांश्च चातुरीर जितामयः ॥१०५॥ मन्त्री चित्रमशिस्तस्य कमला कमलोपमा । भामिनी भूरिवर्णागी जातास्येव सुरांगना ॥ १०६॥ तुम्विचित्रमादिग्निा नानाविज्ञानपारगः । कलासु कुशलः केतुरम्यांगो भेश्वराननः ॥ १०७ ॥ अन्यदा मनिपुण साकं राजामजोबने । कीमितु गरुवारत्न दृष्ट्या धर्मरुचि मुनि । १०८॥ मत्वा तत्पुरतो धीमान निविष्टः कालभासने KARपपपपप नगर है जो कि रत्नोंकी पंक्तियोंसे सदा शोभायमान रहता है ॥ १००-१०२॥ छत्रपुरका स्वामी राजा प्रीतिभद्र था जो कि शत्रोंसे सदा निभय रहता था। शोभामें इन्द्रके समान शोभायमान | Dilथा। विशाल वक्षस्थलका धारक था और अनेक गुणोंका समुद्र था ॥ १०३॥ राजा प्रीतिभद्र EC की स्त्रीका नाम सुन्दरी था जो कि अत्यन्त मीठा बोलने वाली थी। पतिव्रतापनमें सती सुन्दरोके 51 समान थी और सुन्दरतामें कामदेवकी सुन्दरी रतिकी उपमा धारण करती थी ॥ १०४॥ राजा प्रीतिभद्रके रानी सुन्दरीसे उत्पन्न प्रीतिङ्कर नामका पुत्र था जो कि गुणोंमें महान था और अपनी पांडित्य पूर्ण चतुरतासे देवोंकोभी रंजायमान करनेवाला था ॥ १०५ ॥ राजा प्रीतिभद्रके मंत्रीका नाम चित्रमति था। उसकी स्त्रीका नाम कमला था जो कि कमला लक्ष्मीके समान परम सुन्दर वर्ण के धारक शरीरसे शोभायमान थी अतएव वह देवांगना सरीखी परमसुन्दरी थी ।१०६ मन्त्री चित्रमतिका पुत्र विचित्रमति था जोकि ज्ञान विज्ञानोंका पारगामी था। अनेक कलाओंमें | कुशल था। कामदेवके समान परम सुन्दर था और चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान था॥ १०७॥ एक दिनकी बात है कि मंत्रिपुत्र विचित्रमतिके साथ राजपुत्र प्रीतिंकर बनमें कीड़ा करनेके STOTKETarkarya! Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRAYERS meaamanar M । पप्रच्छति पुनर्मत्या कुमार: प्रीतिकृयति ॥१०॥ भो स्यामिन् सर्वधर्माणा प्रतानां च विशक्तिभिः । किं कर्तव्यं ब्रतं हि समस्य। सादरं सदा ॥११॥ धर्मरुपी राणेति कुमार भव्यमानस | तिथिपंचस कर्तव्यः प्रोषत्रो धर्मवेदिभिः ॥ ११॥ गृहाचारोऽभल: कार्य: स्त्रीपुष्पी चन्श्य शर्जिलः । सुखाय क्षेलशुद्धघमन्यधाचारहीनताः ॥ १२॥ स्त्रीपुष्यौ चेष्टय धर्मेण नरा यांत दरिद्रतां । रोगत्वं विशु तत्वं च विधर्मत्वं तमः पर॥ १३ ॥ देवा च गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयतस्तपः । न च विभिदेयं धर्मसोपानसिद्धये ११४ ॥ तथाभूता न शक्तिश्चेसहि मौन विधीयते । सप्तभेजिनः प्रोक्त पुनरुज्यते ॥११ वमने मैथुने हनाने मोजने मलमोसने लिये गया। वहांपर उस समय एक धर्मरुचि नामके मुनिराज विद्यमान थे। कुमार प्रीतिकरने - उन्हें भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। सिंहाकार आसनसे उनके सामने बैठ गया एवं पुनः नम1% स्कार कर वह इस प्रकार पूछने लगा ___ भगवन् ! जो मनुष्य गृहस्थ हैं और ब्रतोंके धारण करनेकी परिपूर्ण शक्ति नहीं रखते उन्हें धर्म स्वरूप संपूर्ण ब्रतोंमेंसे कौनसा व्रत आचरण करना चाहिये । ॥ १०-११०॥ मुनिराज धर्मरुचिने कुमार प्रीतिङ्करको आसन्न भव्य समझ कर यह कहा—प्रिय कुमार ? जो मनुष्य धर्म के स्वरूपके जानकार हैं उन्हें चाहिये कि वे पांचों तिथियों में निर्मल रूपसे प्रोषधोपवास व्रतको धारण करें और स्त्रियोंके अंगका सर्वथा परित्याग करदें क्योंकि ऐसा करनेसे सुख प्राप्त होता है | और आत्माकी विशुद्धि होती है यदि प्रोषधोपवास के समय स्त्रियोंकी लालसा रक्खो जायगी तो - अनाचार माना जायगा ॥ १११-१२॥ यह निश्चय है जो पुरुष उत्कृष्ट रूपसे स्त्रियों के अभि| लाषी हैं वे दरिद्री रोगी मूर्ख और धर्मरहित पापी माने जाते हैं ॥ ११३ ॥ देव पूजा गुरुओंकी IM सेवा खाध्याय संयम तप और दान ये गृहस्थोंके छह आवश्यक कर्म वतताये हैं इनके करनेसे | मोक्षकी सीढी स्वरूप धर्मकी सिद्धि होती है ॥ ११४ ॥ यदि किसी पुरुष इतनी बातकी कानेकी TATERNEYSTERY Ent Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिके जिनाचाविति स्यान्मनसप्तकं ॥ ११६ ॥ नित्यमेतत्सनः पातं मीन सर्व जनैर्भुवं । इत्यनेन न जायेत ज्ञानावर्णादिकोदयः ॥ ११७ ॥ अन्न्नैमिसिक' प्रोक' विधिता तत्समाचरेत् । तेन मौन मुक्तिः स्यादितोऽपि साध्यते द्वयां ॥११८॥ पुनस्तं प्राह धर्मा णः कुमारो मारविप्रः स्वामिन् प्राकृतं केन फलं च ततश्च किं ॥ १९९ तदा प्राह यमी वत्स ! शृणु त्वं सादर व्रतं । मयोच्यते तथाभूतं धर्मशीला हि साधवः ॥ १२० ॥ इह जम्बूमति दी क्षेत्रे भारतनामनि । जनतः कौशलस्तत्र कौशांबी विद्यते पुरी ॥ भो शक्ति न हो तो भगवान जितेंद्रने बाह्य अभ्यन्तर रूप सात प्रकारका मौन बतलाया है उसे धारण करना चाहिये ॥ १६५ ॥ वह मौन इस प्रकार है - मि के समय मौन रखना मैथुन स्नान भोजन मल ( मूत्र विष्ठा) का मोचन सामायिक भगवान जितेंन्द्रकी पूजा वंदना आदि में मौन रखना | समस्त मनुष्यों को चाहिये कि वे प्रतिदिन इस सात प्रकार के मौनको धारण करें ऐसा करनेसे उनके ज्ञानावरण आदि कमका नहीं हो सकता ।। ११६-११७ ॥ तथा इस नित्य मौन के सिवाय नैमित्तिक - किसी खास समयका भी मौन बतलाया है उसका भी विधि पूर्वक आचरण करना चाहिये। उस नैमित्तिक मौनके धारण करने से भी परम्परासे मोच मिलती है और इह लोक परलोक दोनों लोकों का सुधार होता है । मुनिराजसे इस प्रकार गृहस्थ के योग्य धर्मका स्वरूप सुनकर धर्मात्मा कुमार प्रीतिकरने पुनः उनसे यह पूछा - भगवन् ! पूर्व जन्म में मैंने कौनसा घोर तप तपा था जिससे मुझे यह विभूति इस भवमें प्राप्त हुई है । उत्तरमें मुनिराज धर्मरुचिने कहा- वत्स! मैं यथार्थ रूपसे तुम्हारे पूर्व भवका वृतान्त सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो ठीक ही है मुनिगण धर्म शोल हुआ ही करते हैं ॥ ११८ - १२० ॥ इसी जंबूद्वीपके भरतच त्रमें एक कोशल नामका देश है और उसमें कौशांबी नामकी प्रसिद्ध ४२ 静剤で育 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल पर १२१ ॥ हरिबाइजनामाभूदिलाप: पालिसप्रजः । शशिनमा प्रिया तस्य तयोः पुत्रः सुकोशनः ॥ १२२॥ गुरोधिनयतः स्वल्पकालेनापी पटन्छ त । समग्रमाईतं धीमान् पूर्वपुण्यात्मकोशलः ॥ १२३ । समायौवनो जसे सत्कन्यापरिणायितः । विद्याम्पासेन रामाणां संगं अफ न राजतुक् ॥ १२३ ॥ तझतषितरी विने तर्कयामालस्तरा। दाखितोच कयं तस्य वंशवृद्धिर्मविष्यति ॥ १२५ ॥ अन्य तत्पु रोधाने सोमप्रभयमोश्वर । मागत वनपालात अत्यनं वंदितु ययौं ॥ १२५ । गत्या नत्या वृर्ष श्रुत्वा प्रागदोदिति तं नरः । हे नगरी है। कौशांवो पुरोका स्वामो उस समय राजा हरिबाइन था जो कि न्याय मार्गके अनुसार प्रजाका पालन करनेवाला था। उसकी स्त्रीका नाम शशिप्रभा था और उन दोनोंसे उत्पन्न पुत्र' ko सुकोशल था ॥ १२१-१२२॥ कुमार सुकोशल गुरुका अतिशय विनयी था इसलिये पूर्व पुण्यके उदयसे भगवान जिनेन्द्र प्रति पादित समस्त सिद्धान्तको वह थोड़े ही दिनोंमें पढ़ गया था। जिस समय वह पूर्ण युवा होगया उसके साथ अनेक कन्याओं का विवाह होगया परन्तु कुमार तसुकोशलके चित्तपर विद्याभ्यासका पूर्ण प्रभाव जमा हुआ था इस लिये परिणामोंमें सदा विरक्ति के कारण वह उनके संग रंचमात्र भी भोग विलास करना नहीं पसन्द करता था।कुमार सुकौशल की यह लोकोत्तर विरक्ति देख उसके माता पिताको वड़ो चिन्ता होगई । दुःखित हो थे इसप्रकार विचारने लगे___यदि कुमारकी यही वैराग्यमय चेष्टा रही तो यह निश्चय है इसके कोई भी संतान नहीं हो सकती और विना संतान के इसके वंशकी वृद्धि भी असम्भव है ॥ १२३–१२४ ॥ एक दिन कौशांवी पुरीके उद्यानमें मुनिराज सोमप्रभ आकर विराजे । वनपाल के मुखले उनका आना सुना इसलिये उनकी वंदनाके लिये वह चल दिया।१२५॥ मुनिराजके पास पहुंचकर राजा हरिवाहनने उन्हें LI भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने जो धर्मोपदेश दिया वह सुना एवं इसप्रकार मुनिराजसे कहा MANAYAYAYVAYANAYAYANAYA Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ३१ REPAPAYAKKKK स्वामिन् ! सामकः पुत्रो राजनीति च वेद न ॥ १२६ ॥ विद्याभ्यासेन रामाणां सांगत्यं प्रकरोति न तत्किं देव तिवेदनः ॥ १२३ ॥ नृपं भ्रांतिगतं मत्था प्रोवाच मुनिपुङ्गवः । देशेऽस्मिन् पत्तनं भाति नरकुटाभिघ ं महत् ॥ नास्ता पता रणजित्सुधीः । तलव पत्तने श्रीलः कुटुम्बी तु गिलाइयः ॥ १२६ ॥ तस्यास्ति तुङ्गला रामा दुहिताभूत्तयोस्तु गमद्वाख्या मूलभे शुभे ॥ १३० ॥ पूर्वपापोदयासस्याः पिता माता सहोदराः । क्षयं प्राप्तास्तदा इ।स् || १३१ || कालेन साष्टवर्षी या जब दुःख मरार्दिताः । एत्रवारं बहती वै च तं ब्रूहि संतो दि भ्रां १२८ ॥ पती राणको लागि भिक्षयात्रीवृद्ध सती भनुगामिनी । स्वोदरपूरणं ॥ १३२ ॥ एकस्मिन्वासरे काष्टानय भगवन् ! मेरा पुत्र सुकोशल राजनीतिका रखमात्र भी जानकार नहीं है । अनेक सुन्दरी स्त्रियां उसके मौजूद है तथापि वह उनके साथ भोग विलास करना नहीं चाहता यह क्या वात है ? मुझे इस बातको बड़ी भारी चिन्ता है आप मेरी इस भ्रांतिको शीघ्र दूर करें क्योंकि भ्रांतिका दूर करना सज्जनोंका स्वभाव होता है ॥ १२६ -- १२७ ॥ राजा हरिवाहनको इसप्रकार चिन्तित देख मुनिराज इस प्रकार कहने लगे- इसी कोशल देशमें एक नरकूट नामका विशाल नगर है । उसका स्वामी राजा राणकथा जो कि अत्यन्त प्रतापी था और रण में सदा विजय पानेवाला था । उसो नगरमें एक तुङ्गिल नामका गृहस्थ सेठ भी निवास करता था । १२८ – १२६ ॥ सेठ तुङ्गिलको स्त्रीका नाम तुङ्गिला था जो किसी साध्वी और अपने स्वामीको आज्ञाकारिणी थी । उन दोनोंसे उत्पन्न तुंगभद्रा नामकी पुत्री थी जो कि मूल नक्षत्रमें उत्पन्न हुई थी ॥ १३० ॥ पूर्व जन्मके तीन पापके उदयसे उसके बाप मा भाई सभी मर गये। धन भी सब किनारा कर गया जिससे वह भीख मांगकर अपना पेट भरने लगी ॥ १३२ ॥ जब वह आठ वर्षकी होगई तब वह दुखित होकर ईंधन ढोने लगी और बड़े कष्टसे अपना पेट भरने लगी ॥ १३२ ॥ おね Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ३३२ REAFRI एतस्य नार्थ' बने गता । तत्रायातोऽवधिज्ञानी पिहितास्त्रनाममाक् ॥ १३३ ॥ जनतापरिवोत' त' तेजःपुंज' विलोक्य सा । आगता बन्दितु दीना दीनानाथं यीश्वरं ॥ १३४ ॥ ननाम कुड्मलीकृत्य करयोः संयताप्रिर्म । समीपे संस्थिता पुण्याद्ध श्रुत्वाऽवदन्मुनिं ॥ १३५ ॥ हे स्वामिन्! किं कृतं पापं मया शक्येन दुर्भगा दुधा ईशनाथ! वभूवाहं च दुःखिन | १३६६ मुनीराण हे पुलि ! दुःख' माकुरु माकुरु । जोवः पापं करोत्येव तद्विको हि दुःसदः ॥ १३७ ॥ ततोऽवदत्तुङ्गभद्रा सा सत्यं देव मया वितं । पनो विलीयते येन तदुत्रतं एक दिनकी बात है कि वह लकड़ी लाने के लिये वनको गई। वहां पर एक पिहितास्रव नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज विराजमान थे। उनके चारो ओर अनेक जन विद्यमान थे इसलिये उनके मध्यमें वे तेजपुंज सरीखे जान पड़ते थे। दीन कन्या तुरंगभद्रा भी उनके पास आई। मुनिराज की भक्ति पूर्वक वंदना की । नमस्कार किया। हाथ जोड़कर उनके समीप बैठ गई । पुण्यके उदयसे धर्मोपदेश सुना । और विनय पूर्वक मुनिराज से यह पूछा स्वामिन्! एवं जन्ममें मैंने ऐसा कौनसा घोर पाप किया था जिससे मैं महा बदसूरत निंध कार्य करनेवाली और दुःखिनो हुई हूं। उत्तरमें मुनिराजने कहा पुत्रि ! तू किसी बातका अपने चित्त दुःख न कर । यह जीव सदा अनेक प्रकारके पाप करता ही रहता है और उनका दुःखदायो फल भोगता रहता है ।। १३३ - ९३७ ॥ प्रोतिंकरके ये वचन सुन तुरंगभद्राने कहा - कृपानाथ इसमें कोई संदेह नहीं मैंने अवश्य दुकका उपा जन किया है। अब यह बतलाइये कि किस उपाय से मेरे इन सब पापों का नाश होवे । उत्तर में ध्यानशील अवधिज्ञानी मुनिराजने कहा पुत्री ! तुम स्वर्ग और मोक्ष सुखके देने बाले मौन व्रतको धारण करो । मौन व्रतके धारण | करने से तुम्हारा यह सब संकट कट जायगा । मुनिराज के मुखसे यह बात सुनकर तुंगभद्राने BEEG Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D हि तत्त्ववित् ॥ १३८॥ सदयोऽलीलपद्धयानी तामेवावधिलोचनः । पुत्रि! मौन धेहि लेखावासशिवप्रद ।।१३६॥ तत्कथ' क्रियते ध्यानिन् ! कस्मिन् मास्यस्य को विधिः । कथ्यते वण सानन्दाद्विधि मौनवयस्य च ।। १४० ।। भोजने वमने स्न,ने मैथने मलमोचने नित्यमेतेषु कुर्यास्त्व मीनं पुत्रि स्वसिद्धये ॥१४|| नैमित्तिक धुनों षं कर्तव्य' शृणु तद्विधि। पोपे मास्यसिते पक्षे ध्रव कादशोदिन - ॥ १४२ ॥ आयामघोडशान्मौनसंयुतः प्रौषधः परः । ष तैव्यस्तहिने पुत्रि! वस्तसंशादिवर्जनं ॥ १४३ ।। हुङ्कारो न विधातव्यो मुखसंज्ञा तथैव च । कासः रहस्यारवो दुहु दन्तयन जबरनं ॥ १४॥ हसनं दृष्टिविक्षेपः शरीरस्य विधुननं । शयनं नैष कुन्त दिवानक्त' जिनालये । ६४५ ॥ सुकर' प्रतमेतत्ते काव्यं कर्महानये । प्रमाणीकृत्य सा नीस्वा व्रत याता निजास्पद ॥१५६ विधिना तदतं कृत्वा पशबEKYAarta पछा-प्रभो ! मौन ब्रत कैसे और किस मासमें किया जाता है और उसके करनेकी क्या विधि है ! कृपाकर आप बतलाइये उत्तरमें मुनिराजने कहा-नित्य और नैमित्तिकके भेदसे मौनत्रत दो एक प्रकारका है। तुम सुनो हम उसका स्वरूप वर्णन करते हैं पुत्री ! अपने आत्माकी विशुद्धिके लिये तुझे भोजन वमि स्नान मैथुन और मलमोचनमें | सदा मौन व्रत धारण करना चाहिये यह नित्य मौन व्रत है। तथा पूस मासको वदी एकादशीके व दिन खासकर तुझे मौन धारण करना चाहिये यह नैमित्तिक मौन व्रत है। नैमित्तिक मौनव्रतकी विधि इस प्रकार है पूस बदी एकादशीके दिन सोलह प्रहर पर्यन्त मौन सहित तुम्हें प्रोषध व्रत करना चाहिये । उस दिन मौन व्रतके समय तुम्हें हाथसे किसी प्रकारका इशारा न करना होगा । हुङ्कार । भी न करना होगा । मुखसे भी किसी प्रकारका इशारा न करना होगा । खासी खखारका शब्द हुँहू शब्द दांत मोचकर बोलना हंसना आंखोंसे इशारा करना शरीरका कपाना और जिनालयके अंदर बैठकर दिनरात सोना भी न होगा। पुत्री ! यह व्रत अत्यंत सरल है। तुझे अपने कमों के hamamam - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमल ३४ स्मृत्वा पञ्चनमस्कियां | मृत्वा काले बभूवायं तव पुत्रः सुकोशलः || १४७ || अस्मिन् भवे तपस्तप्त्वा मुक्ति' यास्यति भूपते !! नृपोऽपि तद्वचः श्रुत्वा पय धामविरक्तधीः || १४८ ॥ निअं राज्य तुजे सस्ते दरवासौ हरिवाइनः पिहितास्रवमादाय दीक्षां दैगम्बरीमितः ॥ १४६ || तद्वरत्वं समालोक्य शत राज्ञां च धीमतां । प्राप्राजोतिशत्रूणां धीराणां चेष्टित ं ह्यदः ॥ २५० ॥ राजा सुकोशलो राज्य' चर्क रीत्यध नोदनात् । सचिवस्य श्रुताभ्यासी नीरागी १५९ प्रकः देहजः सुधीः । श्रुतसागर खिपाने के लिये यह अवश्य करना चाहिये । तुंगभद्राने मुनिराज के बचन प्रमाणीक मान लिये और वह व्रत लेकर अपने घर चली आई। जब तक वह जीती रही विधि पूर्वक उस व्रत आच र उसने किया आयुके अंत समय में पंचपरमेष्ठिका स्मरण कर उसने अपने प्राणोंका परित्याग किया वही तुरंगभद्राका जीब यह कुमार सुकोशल हुआ है ॥ १३८-- १४७ ॥ राजन् ! यह कुमार कोशल सीपको तपकर नियमसे इसी भवसे मोच जायगा । इस बात में किसी प्रकारका संदेह मत समझो। मुनिराज के मुखसे इस प्रकार सुकोशल कुमारका पूर्व भव सुनकर राजा हरिवाहनको संसार शरीर भोगों से वैराग्य होगया । वह मुनिराजके पाससे सीधा राज महल लौट आया । अपने पुत्र सुकोशलको राज्य प्रदान किया एवं मुनिराज पिहितास्रत्र के चरणोंमें दिगम्बर दीक्षा से दीक्षित होगया ॥ १४८ - १४६ ॥ राजा हरिवाहनको इसप्रकार धीर वीरता देख सौ राजा उसके साथ और भी दीक्षित होगये। ठीक ही है शत्रुओं पर सदा विजय पाने वाले धीर वीर पुरुषोंकी ऐसी ही चेष्टा हुआ करती हैं ॥ १५० ॥ कुमार सुकोशल अपने पिता के मुनि हो जानेपर यद्यपि राजा बन गये परन्तु परिणामोंमें वैराग्य रहनेके कारण उनका वित्त राजकी ओर कम कता था तथापि वे मंत्री की प्रेरणा से वरावर राज्यका कार्य सम्हालते थे किन्तु उनका शास्त्रों का अभ्यास सदा चलता रहता था । और स्त्रियोंके अन्दर उनकी सदा अनिच्छा रहती थी ॥ १५१ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 딤 त्रलेले REVEA कार्यपापिना ॥ १५२ ॥ सजायं बालकः पुत्रः । राजनीतिं न वेत्त्यतः । कुश्चित्कारणान्नूनं भारणीयस्त्वया चिरात् ॥१५३॥ ॥ तुभ्यं प्रौढ़ाय पुत्राय राज्यं दास्यामि निश्चित । मद्द' मन्त्री भवेय ते स्वीयं राज्य' द्विसौम्यदं ॥ १५४ ॥ श्रस्वति तत्पितुर्वश्यं स्वामि द्रोहकर सुतः । शिरोविध न कुर्वन् भूपाभ्यासं समाययौ ॥ २५५ ॥ राजान' स समाहूय निःशलाके सुप्रतिमान् । पियुक्त सक तस्मै 'नृपाय समवबुधत् ॥ १५६ ॥ विचार्य वचनं तस्य राज्ञा मन्त्री निराकृतः । देशारस्वपुरतो वेगाद्राजहाराश्च दुर्मतिः ॥ १५७ ॥ विद्युत्पातान्मृन' दृष्ट्वा मरालद्वयषदा । सद्यो वैराग्यमापन्नो विरकोऽभून्नद्रवत् ॥ २५८ ॥ राज्यभार ददौ तस्मै श्रुतसागरमं राजा सुकोशलका मंत्री बड़ा दुष्ट था एक दिन उसने अपने पुत्र श्रुतसागरको एकांत में बुलाया और उस पापीने इस प्रकार उससे कहा- पुत्र ! राजा सुक्रोशल अभी वालक हैं। किसी प्रकार की राजनीतिका जानकार नहीं तुम्हें चाहिये कि तुम किसी भी उपाय से इसे मार डालो ।। १५२।१५३|| तुम युवा और राजके योग्य हो तुम निश्चय समझो यह सारा राज्य में तुम्हें दूंगा और में तुम्हारा मंत्री बनकर रहूगा बस फिर राज्य हमारा ही हो जायगा ॥ ९५४ ॥ मंत्रिपुत्र श्रुत सागर अपने fara इस प्रकार स्वामी द्रोह सूचक वचन सुनकर चित्त में बड़ा दुःखित हुआ । उसने अपने पिता भी मंत्री की कुछ भी पर्वा न की शिर पटकता हुआ वह शीघ्रही राजाके पास चला गया। सज्जन पुरुषोंपर सदा प्रेम रखनेवाले मंत्रीपुत्र श्रुत सागरने शीघ्रही राजाको बुलाया और जो उसके पिता मंत्र कहा था सब ज्यों का त्यों राजाको कह सुनाया ।। १५५ – १५६ ॥ श्रुतसागर के वचनोंपर राजा सुकोशलने पूर्ण ध्यान दिया । दुर्बुद्धिके धारक उस मंत्रीको तिरस्कार पूर्वक देश नगर और राज दरबारसे तत्काल बाहिर निकाल दिया ॥ १५७॥ एक दिन राजा सुकोशलने क्या देखा कि बिजली के गिरनेसे दो हंस मर गये है बस एक दम उन्हें संसारसे वैराग्य हो गया और मुनिके समान राजवैभवको उन्होंने मंत्री श्रुत सागरको समझा दिया ॥ १५८ ॥ राज्य भारके योग्य おおおお 49 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्राह संयम सारं पितुः पार्थे कृती स च ॥ १५ ॥ मतिसागानामा यो मंत्री निष्कासितः पुरात् । निदाने कृतथानेष स सांहाः स्यामिन्टू शठः ॥ १६॥ यद्याई चारितोऽनेन कोशलेन महीभुजा अई प्रमाणं तहां ग्रे इत्येनं कष्टतो ध्वं ॥ १६१ ।। निदानमिति कृत्वासौमत्रो निधनमासदत् । मौद्गल्यपर्वते सिंहो बभूवारुणधेसरः॥ १६२॥ अथैकदा मुनी तौ द्वौ मौदगल्यगिरिमा पतुः । वृत्या योगं स्थिती तल तावत्सिंहः समागतः ।। १६३ ।। पूर्वबैरानुबंधन कोधारणितलोचनः । न त परैः पापो भक्षयामास ती मुनी। ॥ १६४ ॥ शुद्धध्यानेन तौ वीरौ क्षाकचे णिमाश्रिती । केवलज्ञानमुत्पाद्य प्राप्तुः परम पदं ॥ १६५ ॥ भतो वत्स ! विधातव्यं मौन वैध उन्होंने मंत्री श्रुत सागरको समझा इसलिये समस्त राजपाट उसे सौंप दिया एवं पुण्यवान वे राजा सुकोशल अपने पिताके पास दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगये ॥ १५८ -१५६ ॥ मंत्री मतिसागर जिसे कि राजा सुकोशलने उसके दुष्ट भावोंके कारण राज्यसे तिरस्कार पूर्वक निकाल दिया था वह जहां तहां पृथ्वी पर घूमता फिरा एवं अन्त समयमें उस स्वामीद्रोही मूर्ख और दुष्ट ने यह निदान वांधा मैं जो इस राजा सुकोशलने अनादर पूर्वक निकाला हूं उससे में ऐसा हूं जो इसे कष्ट शपूर्वक मारू बस ऐसा महादुष्ट निदान बांधकर वह मंत्री मरा और मुद्गल पर्वत पर वह लाल २ आल वालोंका धारक सिंह होगया ॥ १६८-१६२ ॥ एक दिनकी बात है कि पिता पुत्र थे दोनों मुनि जहां तहां विहार करते २ मुदगल पर्वत पर आये और उसकी विस्तीर्ण शिलापर योग धारण कर स्थित होगये। जहाँपर ये योग धारण कर विराजे थे वह सिंह भी वहांपर आया। पूर्व जन्मके तीब्र वैरके कारण मारे क्रोधके उसके नेत्र लाल होगये एवं तीन नख और दांतोंसे दोनों मुनियों का शरीर विदारण कर वह दुष्ट भक्षण कर गया ॥ १६३–१६४॥ वे दोनों ही मुनिराज परम धीर वीर थे अपने परिणामोंकी विशुद्धिसे वे क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होगये एवं केवलज्ञानको प्राप्त HAYATYAKARKaiswageपापा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ढ सातये । रहाण्यं व्रतं स्तोत्सव बियोक्ते ॥ १६६ ॥ तव तं मलिपुत्र ण सार्क जग्राह प्रोतिरुत् । गंतुकामा यदाभूतां नत्वा को मुनिपुर २७॥ नाच हरि कृपा कुत सुप्त कप। सिंहन प्रहत वोक्ष्य ती च वैराग्यमापनुः ॥ १६८ ययेणं इसवान् सिहो सतगं कांतया सा । तपा कालीनो इंत नियति लादिति ॥१६६॥ तत्क्षणे वैविधा संग त्यक्त्वः मार्दवमानसी कर लोन शितार जा विराजे । १६५ ।। मानवको माहात्म्य लाने धालो यह कथा सुनाकर 2 MS मुनिराज धर्मरुचिने कुमार प्रांतिकरसे कहा --- A कुमार ? मोनत्र का यह विशिष्ट फल हैं इसलिये नित्य नैमित्तिकके भेदसे जो दो प्रकारका नोन बनलाया गया है वह अवश्य आचरण करना चाहिये । यद्यपि यह व्रत देखनेमें अति सुलभ जान पड़ता है तथापि वह महान पुण्य का कारण है इसलिये यह अवश्य आचरण करने योग्य है । ॥ १६६ ॥ मुनिराज धर्मरुचिले यह मोनवतका विशेष माहात्म्य सुन राजपुत्र प्रीतिंकरने मन्त्रीपुत्रके साथ शोर हो मानवतकी प्रतिज्ञा ले लो। भक्ति पूर्वक दानोंने मुनिराजको नमस्कार किया और वे अपने नगरको और चल दिये ॥ १६७ ।। जिस समय वे अपने नगरकी ओर लौट रहे थे उस समय मार्गमें क्या देखते हैं कि अपनो हिरणी के साथ लानन्द विषय भोग करते हिरणको सिंहने मार डाला है। बस हिरणको बसी दशा देवका उन्हें संलारसे वाग्य होगया और वे मनहो मन | यह विचारने लगे जिस प्रकार अस्नो स्त्रोमें तोत्र तृष्णा रखनेवाले इस हिरणको इस सिंहने मार डाला है उसी 5 प्रकार काल रूपो सिंह भो हमें नियमसे हनेगा—उसके भो पंजेसे बचना हमारा अत्यन्त कठिन है। बस शोघ ही उन दोनों कुमारोंने बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग कर दिया । परिणामों में अत्यन्त कोमलता धारण कर लो एवं वन में मुनिराज धर्मरुचिके पास जाकर शीघ्रही KheWEEKREYEKERSERY Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ en - kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkika प्रमादिवचिसामोप्ये तो प्रवनजतुर्वने ॥ १७॥ क्षीरस्रायद्धिरुत्पन्ना प्रीति करमहामुनेः । अद्भतपसा क्षामशरीरस्य दयानिधेः ॥ ११ ॥ एकदा जग्मतुः शुद्धौ साकेतस्य बनांतरे। विहन्तौ मुगो सौम्यौ तौ विद्वांसो हताइसौ ॥१७२॥ गणिका बुद्धिपणाख्या दृष्ट्या स्वगृह मान्निधौ। चर्यायं मुनि नम्य जगादेति कृतांजलिः ११७३॥ मनेऽहं कुत्सिता निंद्या दानयोग्यकुलातिगा । अस्मिन, मन्ये विधा प्राधान नवेव तपोनिधेः ।। १७४ कादवरी पल या कुले स्वप्ने न दृश्यते । नानाचारोऽपि योगोन्द्र स्तन ग्राह्या विधान्यथा । १७५॥ आय मद्वयभ्रध्दास्ते मुनयो मांसमक्षिणः । अनाचारप्रसङ्गत्वा यति व्याधसलिभा ॥ १७६ ॥ इत्ययासोन्मुनि क्ष वा प्रोच्या कुलादि । दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगये ॥ १६८-१७० ॥ अत्यन्त कृश शरीरके धारक दयाके समुद्र महामुनि प्रीतिकरके घोर तपके कारण क्षीरलाय नामको मछि प्रास होगई ॥ १७१ ॥ विद्वान समस्त पापोंके नाश करनेवाले एवं शुद्ध मुनिराज प्रीतिकर विहार करते २ एक दिन साकेत नगरके वनमें जा पहुचे। किसो दिन जब वे आहारके लिये नगरमें गये और बुद्धिपणा नामकी वेश्याने जब उन्हें चर्या पूर्वक अपने मकानके समीपसे निकलता देखा तो वह शोघ्र ही उनके पास आई ओर इस प्रकार विनय पूर्वक निवेदन करने लगो| भगवन ! में हीन निन्दनीक और दानके योग्य कुलसे रहित हूं इसलिये तपके भंडार आप मेरा दिया आहार तो ग्रहण कर ही नहीं सकते ? उत्तरमें मुनिराजने कहा जिस कुलमें शराब ली और मांसका स्पश स्वप्नमें भो न होगा और जहांपर किसी प्रकारका अनाचार न दोख पड़ेगा योगीन्द्र लोग उसी कुलका आहार ग्रहण कर सकते हैं । १७२–१७५ ॥ जो मुनि मांसका - भक्षण करते हैं थे दोनों ही आश्रम से भ्रष्ट हैं अर्थात् न वे गृहस्थ हो कह जाते हैं और न मुनिहो । हो कहे जाते हैं क्योंकि वे अनाचारी हैं। अतएव वे भोलोंके समान निन्दनीक हैं ॥ १७६ ॥ मुनिराजके ऐसे बचन सुनकर बुद्धिषणाने पुनः यह पूछा-प्रभो ? जीवोंको उच्च गात्र उच्चकुल सुन्दर Hina Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प देहिनां स्यात्कथ ब्रूहि रूपं कीर्तिश्व भो मुने ! ॥ १७ ॥ पुनस्तां स मुनिः प्राद मद्यमांसादिवर्जनात् । ब्रह्मचर्याच्च तत्प्राप्तिनान्यथा देहिनां सुते! ।। ९७८ ॥ उदार्यति गतोऽरण्ये मुनिःप्रीतिकरो महान् । सदा तमगदीत्साधु विचित्रमतिरित्यको ॥ १७ ॥ पताचस्कार पर्यत क स्थितं भवता पदे। संजायट्टि सदा देव ! मुमुश्णां स्थिनिर्वने ॥ १८ ॥ तदा प्रीतिकरः द्रावृतांत सर्यमादितः । तस्मै न्य. वेदयत्सोऽपि श्रुत्या चानंदमागतः ॥ १८१ ॥ विचित्रमतिरन्येधुर्मुक्तये प्राविशद्गृह । क्षुदाया; सापि तं दृष्ट्या चघंटे पूर्ववन्मुनि रूप और कीर्ति किस प्रकार प्राप्त होती है कृपाकर आप खुलासा रूपसे यह वतलाइये। उत्तरमें मुनिराजने कहा जो मनुष्य मद्य मांस और मधुके त्यागी हैं और अपनी आत्मामें ब्रह्मचर्यका बल रखते हैं | | उन्हींके उच्च गोत्र वा उच्च कुल आदिको प्राति होता है अन्यको नहीं ॥ १७७–१७८ ॥ बप्स | | इस प्रकार बुद्धिवेणाको समझा कर मुनिराज प्रोतिकर वनमें लौट आये उन्हें कुछ विलम्बसे लोटते देख मुनिराज विचित्र मतिने कहा--- - मुने! इतनी देर तक आप किस स्थान पर ठहरे रहे थे। देव ! जो पुरुष मुमुच है-मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये सदा बनमें ही रहना उचित बतलाया गया है। मुनिराज विचित्र मतिको यह बात सुन मुनिराज प्रीतिंकरने आदिसे अंत तक वेश्या बुद्धिषेणाका समस्त वृत्तांत कह आला जिसे सुनकर मुनिराज विचित्र मतिको अति आनन्द हुआ ॥ १७६-१८१॥ दूसरे दिन IA मुनिराज विचित्र मतिभी आहारके लिये गये एवं दुर्भाग्यवश वे वेश्या नद्राके घरमें प्रवेश कर गये | वश्याने उन्हें भी मुनिराज प्रीतिङ्करके समान जानकर बंदना की। और धर्मोपदेश सुननेका र लालसा प्रगट की परन्तु उसे देख मुनिराजका चित्त चंचल होगया इसलिये वे धमकथाको पर्वा न कर दुर्बु द्धि हो इसप्रकार काम कथा कहने लगे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 初代赤味が ॥ १८२ ॥ मन्त्रयुक्तः यथा धर्म रूराजीवा मुनिं प्रति । कामरागकथामेव व्याजहार स दुर्मत्रिः ॥ १८३ ॥ सुन्दरि ! स्थूल वक्षोने ! गौरांग | मृगलोचने ! कास्ये ! प्रगाह ! तवं धर्मं वृच्छसि किं पुनः ॥ १८४ ॥ यौवन' यास्यति तून वार्धक्यं च समेष्यति । कस्मे कृत्याय देवोऽयं तव स्वात्सुप्ता १८५॥ शुद्रा तं जगो विदिता । कावार्थ सम्मर्णि पीलु गर्धमा च फस्त्यजेत् ॥ १८६ ॥ मुनिस्तवचनं श्रुत्वा भृशं कामाकुलोऽभवत् । रत्नरम्भोतनेऽस्माकं त्यमेवासि गजेश्वरः ॥ १८७॥ पुनस्तं वृद्धि जादा वोदका जति दियं ॥ १८८ ॥ स्वत्व शर्मा शर्त मा रोवेल नायके ! सुन्दरी ! तुम उन्नत स्तनोंसे शोभायमान हो । गोरे अंगकी धारक हो । तुम्हारे दोनों नेत्र हिरणी के समान मनोहर हैं तुम चंद्रमुखी और प्रौढ़ उनकी हो धर्मके विषयमें तुम क्या पूछना वाहती हो ? देखो यह यौवन चला जाता हैं और बुढ़ापा आ धमकता है । तुम्हारा यह सुन्दर शरीर भोग विलासोंके लिये है सो तुम भोग विलास न कर क्यों इस महा मनोहर शरीरको निरर्थक खो रही हो और किस कार्य के लिये इसका लालन पालन कर रहीं हो । १८२ - १६५ ॥ मुनिराज विचित्रमतिकी यह बात सुनकर वेश्या बुद्धिषेणा मुस्कराने लगी एवं मुस्कराते हुए उसने यह उत्तर दिया--मुने ? काच के लिये उत्तम मणि और गधा के लिये हाथीको छोड़ता मैंने कोई नहीं देखा है । भोग विलास काच और गधा के समान हैं एवं धर्माचरण उत्तम मणि ओर हाथी के समान हैं। धर्माचरण छोड़कर भोग विलासोंसे शरीरको नष्ट करना व्यर्थ है। मुनि विचित्र मति की काम वासना प्रज्वलित हो चुकी थी । वेश्याको बातका उनके चित्तपर जरा भी असर नहीं पड़ा एवं कामसे अत्यन्त पीडित हो वे इस प्रकार कहने लगे सुन्दरी ! तुम देवांगना के समान मनोहर रूपसे शोभायमान हो इसलिये मेरे लिये तो तुम्हीं उत्तम मति और उत्तम हाथी हो तुम्हें देखकर धर्माचरणकी ओर चित्त नहीं जा सकता ॥ १८६॥ REVERE Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ३१ 調剤 :रणामोदर शर्मा नापि तथा सा परिज्ञाय तिरश्चक्रे ऽतिवेगतः । तदा लब्धापमानः सः घने गरबा तपोऽकरोत् ॥ १६० ॥ मासे मासद्वये यांते पारणामकरोन्मुनिः । हत्तपो दुषरं मत्वा राजा तद्वशमागतः ॥ १६१ ॥ बुद्धिषं या हा स्वत कति गुहुर्मुहुः । श्रस्याधीको दशो राजा तर्हि धोऽप्यस्त्यर्थं महान् ॥ १६२ ॥ वशीभूयमिता तस्य बुद्धिर्ष णापि लतिका । तत्सांगत्ये १८७ ॥ बुद्धिका कार्य यद्यपि देयाका था परन्तु वह धर्मको कुछ समझती थी इसलिये वह पुनः सुनि विचित्रमतिको समझाने लगी मुने! विषय जनित थोडेसे सुखकी लालसा से बिलकुल पासमें आये हुए मोन सुखको कोई छोड़ता नहीं सुना । मोक्षका प्रधान कारण तुमने दिगंबर लिंग धारण कर रखा है मोक्षका सुख बिलकुल तुम्हारे समीप हैं तुम्हें निन्दित विषय भोगोंकी लालसा कर उसे न छोड़ देना चाहिये। ॥ १८८ ॥ मृद मुनिपर उसके वचनोंका का प्रभाव पड़ सकता था । विचित्रमतिने अपने मुनिलिंग की कुछ भी पर्वा न की वह एक दम मूढ़ वनकर इसप्रकार कहने लगा सुन्दरी ! मुझे इस समय तो तुम्हारे संसर्ग से जगमान सुख ही रुच रहा है। जो सुख इंद्रियों के गोचर नहीं वह नित्य हो चाहे अनित्य वह वैसा हा रहे । मुनिके इन निर्लज्ज बचनोंसे वेश्या बुद्धि को यह मालुम पड़ चुका कि यह धर्माचरण से भ्रष्ट है इसलिये उसे बडा क्रोध आया और उसका पोर तिरस्कार किया जिससे मुनि विचित्रमतिको गाढ अपमान मान बड़ा कष्ट हुआ । सीधा वह वनको चला गया एवं मनमें किसी प्रकारका धर्माचरण न रख ढोंगसे वह एक एक दो २ मासके वाढ पारणा करने लगा जिससे रोजा पर भी उसका प्रभाव पड़ गया और वह विचिश्रमतिका अनन्य भक्त बन गया ।। १८६ - १६१ ॥ जिस समय विचित्रमतिका अनन्य भक्त राजा हो गया उस समय बुद्धिषेगा अपने मनमें बार २ विचारने लगी जब इस मुनिके बश राजा होगया मैंने श्रनप्रत ANA Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिः प्राप्य मोहांधोऽभूतपश्चुतः । १६३ ॥ पूर्ववरेण वेर' स्यात्पूर्वस्नेहेन भोगता। न दोषोऽस्त्यत कस्यापि तन्निंदी नरकं ब्रजेत् - ॥१४॥ तिर्ययोनिश्च मोहाहे निवेशो भन्नति स्फुट सत्वा स कुजरो जर तवायं मानवाधिप! ॥ १९॥ अस्य लिलोकप्राप्तिश्रवण जातिसंस्मृतिः बभूधातो मजोऽयं ते नागृहोद्भक्षणं शुचा ॥१६॥ इत्याकार्य नपश्चिो चिंतयामास धिग्धन' । राज्य रामा सख बेतिनिर्चिपणोऽभूत्तदा नरेट् ॥ १७॥ साधिपत्यं तु दत्त स्वभाला रत्नमालया | सार्क संबसमापहे रत्नायुधनराधिपः ॥ १९८॥ योग्याश्रमानुत्ते व्यर्थ तपो भवति निश्चितं । यलाधमे मनो याति विलयं तत्तो विदुः ।। १६६ ।। तपांसि विधं शैले कृत्वाने तिग्मरो है तव अवश्य ही यह कोई महान पुरुष है वस मारे भयके वुद्धिषणा भी मुनिके वश गई । मोहसे - अन्ध हो मुनिराजने भी उसकी संगति करनी प्रारम्भ करदी और तपसे अपना मुंह मोड़ लिया। ॥ १६२-१६३ ॥ जिस किसी मनुष्यका जिस किसीके साथ बैर वा स्नेह होता है वह पूर्व भक्के | वैरके संबंधसे होता है इसमें किसीका दोष नहीं इसलिये किसीको बुरा भला कहना व्यर्थ है। १६४ ॥ मोहकी प्रबलतासे जीवको तिर्यंच योनिके अन्दर तिथंच होना पड़ता है। राजन वजायुध ! वह विचित्रमति मुनिका जीव मरकर तुम्हारा यह हाथी हुआ है । तीनलोक का स्वरूप सुनकर इसे अपना जाति स्मरण होगया था इस लिये मारे शोकके इसने खाना पीना छोड दिया ॥ १९५-१६६ ॥ राजा रत्नायुधने मुनिराज वजूदन्तके मुखसे जब इसप्रकार हाथीके 5 पूर्व भयका वृतांत सुना तो उसने लक्ष्मी राज्य स्त्रा जनितमुख आदिको बहुत धिक्कारा । वह उनसे He विरक्त होगया। राज्य भार अपने पुत्रको प्रदान किया एवं अपनी माता रत्नमाला के साथ संयम Kधार लिया ॥ १९७-१९८ ॥ तपके आचरणका जो आश्रम बतलाया गया है यदि उस आश्रमकी |* कुछ भी पर्वा न की जाय तो वह तपा हुआ तए भी व्यर्थ चला जाता है। यदि तप करते भी चित्त पुणEETIREALERT Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kev ' । प्रांत समाधिना मृत्यां सोह्यदच्युते दिपि ॥ २०० ॥ तपसा रत्नमालापि स्त्रीत्वं छित्त्राऽच्युनामिधः । देवोऽभूदच्युते स्व सुखापनमः ॥ २०९ ॥ द्वाविशत्यधितानायुः सुखं ती प्रापतुः परं । तावद्विश्व सहस्रस्तो मनसाहारमापतुः ॥ २०२ ताक्षः समुच्छ्वा सुगंधीकृतदिचयं कुर्वती सेव्यमानी व रम्माराज्यामरा लिमिः ॥ २०३ ॥ भोजयामासतुस्तौ शं निमिया कुठे करभ्यंग पद्मरागमणिभौ ॥ २०४ ॥ अथ यः प्रासनः श्वाभ्रो निर्गतः श्वभ्रतः । नानायोनिषु दुःखानि यानि भुक्तानि तेन ॥ २०५ ॥ नाना छत्रपुरे व्याधो वर्तते कज्जलप्रभः । दारुणाख्यो महापाप पापपुंज झाद्भुतः ॥ २०६ ॥ तस्य गृहस्थाश्रम में हो फसा रहे तो वह तप नाशक बन जाता हैं ॥ १६६ ॥ मुनिराज रत्नायुध सूर्यकी ओर टकटकी लगाकर घोर तप तपने लगे और अंत में समाधिपूर्वक प्राणोंका त्याग कर अच्युत स्वर्ग में जोकर देव होगये |२००| आर्यिका रत्नमालाने भी घोर तपके भाव से स्त्रीलिंगको छेद दिया। अच्युत स्वर्गमें जाकर वह अच्यूत नामका देत होगई जो कि देव सुखरूपी समुद्रकी वृद्धि के लिये चंद्रमा स्वरूप था। वे दोनों देव बाईस सागर प्रमाण आयुके धारक थे। परम सुखी थे । वाईस हजार वर्षोंके बाद एकवार मनसे आहार ग्रहण करते थे। बाईस पक्षोंके बाद अपनी सुगंधिसे समस्त दिशाचोंको महकानेवाला सुगंधित उसास लेते थे और अनेक देवांगना और देव उनकी सेवा करते थे ॥२०१२०३ । शुकलेश्या के धारक थे। तीन हाथके शरीर से शोभायमान थे और पद्मराग मणिके समान प्रभाके धारक थे ॥ २०६ ॥ मंत्री सत्यघोषका जीव जो अजगरकी पर्यायसे चौथे नरकमें गया था । वह वहांसे अपनी आयु समाप्त होजानेके बाद निकला एवं अनेक योनियों में घूमने के कारण उसने बहुत दुःख भोगा | २०५ | पदमपुर नगर में एक दारुण नामका भीख रहता था जो कि काजलके समान काला था और साचात् पाप रूप था ॥ २०६ ॥ उसको स्त्रीका नाम मंगिका था जो कि काजलका पिंड स्वरूप थी एवं ke お幣前橋赤味 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KEEKSEKSE श्रीमगिका नाम्ना कज्जलालिश्च वैधसारिचिता तमसो माला जगत्स्थानमिव ध्रयं ॥ २०७ ॥ तयोः पुत्रोऽभवत्सोऽपि भीषणो भीक्ष्मीप्रदः । नाम्नासिदारुणोदुष्टो मृगादीमा विनाशकृत् ॥२०८॥बने प्रियंगुसण्याख्ये बजायुधमुनीश्वरः । आययाचेकदा हिं भीषणे बिहानको ॥ २० ॥ गहन विपिन स्थान दृष्ट्वा तत्र स्थितो मनिःकायोत्सर्ग' विधायाशु संस्मरन् परमं महः ॥ २१० तपसाक्षामगात्र समर्धदग्धपासुबतू । गतचायं मुनि' अष्ट्या समेत्तत्रासिदारुणः॥२२१॥ अनबीदिति घोपेन समारूढ़ विधाय सः । काम के दुर्वचोभिस्तं दूपद्धस्तो भ्रमन्नामि ॥ २२ ।। कोऽसि त्वं कुत भायातो मदने जनप्रर्जिते । किमयं यस्य पुखोऽसि फिनामा - ऐसी जान पड़ती थी मानों यह जगतमें ब्रह्माने अंधकारकी माला रच दी है भोलिनी नंगीके मंत्री | सत्यघोषका जीव वह मोरकी अतिदारुण नामका पुत्र हुआजो कि महाभयंकर था। डरपोकोंको भय | प्रदान करनेवाला था टुष्ट था और मृग आदि दीन पशुओंका नाशक था। छत्र पुरका एक प्रियंगुखंड नामका बन थी जो कि हिसक जीवोंसे गहा भयंकर था। जहां तहां बिहार करते २ मुनिराज बजायुध वहांपर आये। गहन निर्जन स्थानमें कायोत्सर्ग मुद्रा धारणकर वे विराज गये और सिद्धोंके - स्वरूपका चितवन करने लगे। मुनिराज वजायुधका शरीर घोर तपोंके तपनेके कारण एकदम कृश था इसलिये वे आधे जले मुर्दे सरीखे जान पड़ते थे एवं उनके शरीरकी प्रभा एकदम नष्ट होगई थी। मृगोंके पकड़ने की खोज में भीलघुत्र अतिदारुण भो घमता २ वहां आ पहुचा एवं मुनिको देखकर पूर्व वैरके संबन्धसे उस दुष्टने वाण धनुष पर चढ़ा लिया। हाथमें मारनेके लिये पत्थर ले लिये। एवं मारनेके लिये घुमाता हुआ वह इसप्रकार दुर्वचन कहने लगा-- तू कौन है ! और इस जनशून्य मेरे बनमें तू कहांसे और क्यों आया है ? किसका पुत्र | IM और तेरा क्या नाम है ? जल्दी बता यदि तू जल्दी न बतायेगा तो वाण पत्थर और मुक्कोंसे तुम Pअभी यमराजके मन्दिरमें पहुंचा दूंगा ॥ २०७-२१३ ॥ परम ध्यानी मुनिराज ऐसें कब भय TRACKEREKA TAREEKELIMES Y YYIKEKRISASTE Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद वेगतः ॥२१॥यास्त्वं यदि यो सीसहकीमाशमन्दिर । व्याय:धनुर्धातस्स्था पापाणेश्च मुष्टिमिः।। २१४ ॥ निश्यलो । मेरुबद्धीः सिंहवादारिराशिवत् । गम्मौर: सत्वमाश्रित्य न सबाल स योगतः ।। २१५॥ तदासौ दुर्मतियाधस्तताओपनराशिभिः पूर्ववैरोदयाबाद सस्य क्रोधोऽ भृशायत ।। २१६ ॥ आकण्ठ माध्यमामोऽपि तेन पापीयसा मुनिः । नापत तले भव्यो ध्यानमित्यवर्क पतात् ॥ २७॥ यदा मिल्लो मुनेः कण्ठे बापमारोप्य धेगसः । आचकर्ष बलाहोम्यों न चचाल सदापि सः ॥ २१८॥ दोर्दण्डीकृत्व चापं स्वं किरातो मुनिमस्तके । जघान घन घातैश्च तविघ्नो दुईंचो पिदो ॥२६| बादशेति मुनिद घ्यायनुप्रेक्षाः स्वमानसे । तदुध्यान । भोत होनेवाले थे वे मेरुपर्वतके समान निश्चल सिंहके समान धीरवीर समुद्र के समान गंभीर होगये। चित्तमें उत्तम कोटिकी शांति धारण कर वे रश्चमात्र भी ध्यानसे न चिगे। मुनिराजका इसप्रकार | A का मौन देख उस दुष्टका क्रोध एकदम उबल उठा एवं पूर्वबैरके सम्बन्धसे वह उन्हें पत्थरोंसे मारने लगा ॥ २१४-२१५ ॥ कण्ठपर्यन्त उस पापीने मुनिराजको पत्थरोंकी मार मारी परन्तु वे ध्यानरूपी मजबूत भीतिके सहारे खड़े थे इसलिये वे जमीनपर न गिरपाये ॥ २१६ ।। मुनिके गलेमें दुष्टने धनुष डाल दिया और दोनों भुजाओंसे उन्हें खींचने लगा तथापि वे मुनिराज रञ्चमात्र भी चल विचल न हुए ॥ २१७ ॥ अन्तमें दुष्टने क्या किया दोनों भुजाओंसे धनुषको पकड़। लिया एवं तीक्ष्ण बाणोंसे मुनिराजका मस्तक छेदने लगा। यह विघ्न वास्तवमें विद्वानोंके वचनके । अगोचर था। मुनिराज बज्रायुधने अपने ऊपर तीव्र उपसर्ग समझकर बारह भावनाओंका चिन्त-17 वन करना प्रारम्भ कर दिया। वे रञ्चमाञभी उस विघ्नसे विचलित न हुये ठीक ही है ध्यान और । IT तप वही प्रशस्त माना गया है जो विध्नके उपस्थित हो जानेपर मनुष्यको विचलित न होने दे | |॥२१८-२१६ ॥ वे मुनिराज चित्तके अन्दर इसप्रकार भावना भाने लगे___ संसारमें जितने भी धन धान्य मादि पदार्थ दीख पड़ते हैं सव भनित्य हैं तथा पिता पुत्र - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुपन सप्तपः ख्यातं पविघ्ने शक्तिमनुभवेत् ॥ २२०॥ अनित्यं दृश्यते सर्व धनधान्यादिकं भनेँ । पितृपुत्रकुटुम्पानां नित्यत्वं नैव दृश्यते ॥ २२११ चक्रवर्त्यादयो भूपाः पट् खण्डधराधिनः । मृतास्ते कालसर्पेण दष्टा देवनमस्कृताः ||२२२|| देवार्थखण्डभूभूषा दृश्यार्थी पन्नगेशिनः । भूधरा भूरुहस्तारा महादैत्याः सुराधिपाः । इष्टानिष्टानि वस्तूनि पुद्गलाः पापकारिणः । सर्वे फालेन नश्यति नास्ति कालप्रतिकि या || २२४ ॥ संसारकनिने ओववृत कालपीलुभित् । अस्येष कोपतः श्वेतः कस्तं शक्रोति रक्षितुं ॥ २२५ ॥ पिता पुत्र सविती च पुनश्च पितरावपि । अन्त रक्षितु काल गृह्यमाणमये मनः ॥ २२६ ॥ असारेऽत्र भवे श्वेतः ! कः कस्यापि न विद्यते । स्वार्थ भूतं कुटुम्ब आदि पदार्थोंमें भी कोई अविनाशी नहीं दीख पड़ता ॥ २२० ॥ छह खडके स्वामी अनेक देवोंसे सेवित चक्रवर्ती आदि राजा भी कालरूपी सर्पके द्वारा इसे जानेके कारण मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होगये हैं ||२२१॥ देव, आर्यखण्डकी पृथ्वीके स्वामी, दृष्टि गोचर उत्तमोत्तम पदार्थ, धरणेंद्र पर्वत, वृक्ष तारा ग्रह दैत्य देवेंन्द्र इष्ट और अनिष्ट रूप चीजें और पापके कारण पुदगल सभी कालके द्वारा नष्ट हो जाते हैं | कालका प्रतीकार किसीके पास नहीं - उसे कोई वश नहीं कर सकता ॥ २२२–२२३ ॥ इस प्रकार संसार में समस्त पदार्थ अनित्य हैं इस संसार रूपी वनमें जीव रूपी arat कालरूपी सिंह नियमसे खाता ही है । जिस समय इस जीव पर कालरूपी सिंह कुपित हो जाता है उस समय इसकी कोई भी उससे रक्षा नहीं कर सकता ॥ २२३ ॥ विशेष क्या ! रे मन ! इस संसार में जिस समय इस जीवको कालरूपी सिंह जिकड़कर पकड़ लेता है उस समय पिता और माता, पुत्र की रक्षा नहीं कर सकते एवं पुत्र, पिता माताको नही बचा सकता ॥ २२४-२२५ ॥ इस प्रकार इस जीवका संसार में कोई अपना नहीं है। इस संसारमें कोई किसीका नहीं है समस्त जगत मतलबी है स्वार्थ रहने पर एक दूसरेको चाहता है ॥ २२६ ॥ इस प्रकार संसार बड़ा ही स्वार्थी है। निश्चय नयसे यह जीव नित्य है । सिद्ध बुद्ध और निरंजन है। किसीके द्वारा वेदा DERERAK Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRENTLYYYssy जगत्सर्व मिस्य जानीहि वस्तुतः ।। २२७ ॥ जीवोऽयं नित्य एवास्ति सिद्धोद्धो निरंजनः । मच्छरोऽनाविचिद्र पो ध्येयो नि इसा मितः ॥ २२८ ।। भिग्नोऽयं पुद्गलः ख्यातो जीवाज्जीवोऽपि तन्मनः । अतोऽस्मिन् मित्रता फैव कर्मरूपे घिनश्वरे ॥ २२६ ॥ सप्तधातु भयो देहो विषमूत्रनिचितोऽशुचिः। अस्थिसन्तानसंघद्धो रोमोरगपद शठः ॥ २३ ॥ चर्मातः कदय व दुर्गधे चूरितो धन ध्यान' मुफ्त्वा फेनार्य पोप्यते कर्मभाजनं ॥ २३१ ।। मिथ्यात्याविरतिलासः कपाविषयादिभिः । फर्मानपति यशेन मिरयं याति Hd जानेवाला न होनेके कारण पछेद्य हैं। अनादि है। चैतन्य स्वरूप है। ध्यान करने योग्य है और समस्त प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित निन्द्र है ॥ २२७ ॥ इस प्रकार यह जीब अकेला ही है। पुत्र स्त्री श्रादि इसका कोई भी नहीं। जीवसे यह पुद्गल भिन्न है। पुदगलसे जीव भिन्न है मन भी जीव से भिन्न है इसलिये विनाशीक कर्मके साथ अविनाशीक जीवकी कोई भी मित्रता नहीं है ॥२२८॥ इस प्रकार यह जीव कर्मसे अन्य हैं। यह देह मेद मज्जा आदि सप्त धातु स्वरूप है। विष्टा और IS. मूत्रसे व्याप्त है । अपवित्र हैं। हड्डियोंसे व्याप्त है। रोग रूपी सोका विल है और अनेक प्रकार | से पोषा जानेपर भी नष्ट ही होता चला जाता है इसलिये कृतनी है ॥ २२६ ॥ यह शरीर चारों .ओरसे चामसे वेष्टित है। महानिन्ध दुर्गन्धिका खजाना है इसलिये कोंके कारण इस शरीरका IS विद्वान लोग ध्यानके किये ही पोषण करते हैं विषय भोगके लिये नहीं ॥ २३० ॥ इस प्रकार यह 5. शरीर अपवित्र है। मिथ्यात्व अविरति त्रास प्रमाद कषाय और विषय आदिके द्वारा इस जीवके । सदा कमौका आस्रव होता रहता है उससे यह जीव नरकमें जाकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता | रहता है ॥२३१ ॥ इस प्रकार इस जीबके मिथ्यात्व आदिके द्वारा सदा कर्मोंका प्रास्रव होता kd रहता है। आस्रवके दो भेद माने हैं एक द्रव्यास्रव दूसरा भावात्रव। जिसके द्वारा दोनों प्रकार के.कर्मों का निरोध हो वह संवर कहा जाता है इस संवर तत्वकी प्राप्ति गुप्ति समिति धर्म व्रत आदिल KKRNarayeck Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .ARKarkTRYKTETTERPRय नाममः ॥२२॥ लाभाषाम्बी पेन रोध्येतेसम्बरोहिसावतधर्मादिवान् जीव कसो नयति सत्पदं ।। १३३॥ द्वौ भेदी निजे रायाः स्तः सपिपाकोऽषिपाककः। मुनीनामविपाकः स्यादन्यश्य सर्षदेहिनां ।। २३४ ॥ अनादिनिधनो लोक पद्व्यादिचितो महान् केनाकारि न मूर्यो ननराकारमल दधत् ।। २३५ ॥ वित्यते ध्यानसिद्धयर्थ योगिना लोकसंस्थितिः । स्थैर्य यतो मनो याति तस्मिन्नेव 2 के द्वारा होती है इस लिये ब्रत और धर्म आदिका करनेवाला जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२३२॥ इस प्रकार दोनों प्रकारके पात्रकका रुक जाना संवर कहा जाता है और संवर तत्वका चिंतवन संबरानुप्रेक्षा कही जाती है। सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जराके भेदसे निर्जराके दो भेद माने हैं। स्थितिके पूरे होनेपर प्रति समय कमौका खिरता रहना सविषाक निर्जरा है और तप आदिके द्वारा जवरन कोका खिपा देना अविपाक निजरा है। वतियोंके अविपाक निर्जरा होती। है क्योंकि वे तप आदिके द्वारा जवरन कर्म खिपाते हैं और अन्य सवोंके सविपाक निर्जरा होती है ॥ २३३ ॥ इस प्रकार एक देश रूपसे कर्मोंका खिपना निर्जरा है । यह समस्त लोक अनादि । निधन है न इसकी आदि है और न इसका अन्त है। यह जीव अजीव आदि द्रव्य स्वरूप है। Kा विशाल है। किसीके द्वारा बनाया हुआ नहीं हैं तथा यह उन्नत पुरुषाकार हैं ॥ २३४ ॥ ध्यानकी | सिद्धिके लिये योगी लोग लोकके आकारका चिंतवन करते हैं क्योंकि मनके स्थिर करनेसे ध्यान हो सकता है तथा लोकका आकार चिन्तवन करनेसे मन स्थिर होता हैं और मनकी स्थिरतासे परम पद मोक्ष पदकी प्राप्ति होती हैं ॥ २३५ ॥ इस प्रकार लोकके स्वरूपका चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा हैं। समस्त पदार्थोके प्रकाश करनेवाले सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति संसारमें बड़ी कठिन है क्योंकि इस सम्यग्ज्ञानके द्वारा जीवोंको आत्मरूपी तेजका स्पष्ट रूपसे ज्ञान हो जाता हैं । तथा वह सम्यग्ज्ञान कर्मरूपी बृक्षके लिये फरसा है। मनरूपी पर्वतके भेदनेमें वजू है और अज्ञानरूपी JHIYANAYAYAYAYAYAYAYA Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAKYAYPERTERYkNARY पप ॥२२६ ॥ संसारे दुलमो पोधो दीपो वस्तुमान । मात्मज्योतिर्पतः स्पष्टीभूपमायाति कायिनां ॥ २३७ ॥ कर्मागे पाशुर्वन घेतोजागिरीयसि । तमोऽरिस्तमति धातध्यातव्यो घोष एव से || २३८ ॥जगन्नाथन याण्यासो धर्मो माषत्रतावितः । दुःप्रायः प्राणिनां मत्त्वा चिंतनीयः प्रयत्नतः ॥ २३६ ॥ चिंतयनिति सयानं बनायुधमुनीश्वरः । प्रत्यूह सत्कृतं जित्वा मुमोचासून एक जितेन्द्रियः ॥ २४० ॥ सर्वार्थ सिदिमाराशु धर्मध्यानपरोमुनिः । महमिद्रो महासौसर्थ भुजन् तस्थौ स निर्मलः ॥ २४ ॥ शुक्ल Lal लेश्योऽथ शुक्लांगइस्तमात्रा महोधिः। नपान यत्समुद्रायुर्मिकपाधिर्म मातिगः ॥२४२ ।। ईशा तत्र देवस्य विद्यते शक्तिमत्तमा । अन्धकारके नाशके लिये सूर्य है इसलिये सम्यग्ज्ञानका हृदयसे ध्यान करना आवश्यक है। इस प्रकार संसारमें सम्यग्ज्ञानको प्राप्ति बड़ी दुलभ है ॥ २३६–२३७ ॥ भगवान जिनेंद्रने जो भावनत आदि स्वरूप धर्म बतलाया हैं वह बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है इसलिये धर्मात्माओंको चाहिये कि वे प्रयत्न पूर्वक धर्मका चिंतन करते रहें ॥ २३८॥ इस प्रकार धर्मके स्वरूपका चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा है। इस प्रकार बारह भावनाओं के चितवन करनेवाले मुनिराज वजायुधने दुष्ट अति। दारुण भोल द्वारा किया गया समस्त उपसर्ग बड़ी शांतिसे सह लिया। जितेन्द्रिय मुनिराज धर्म ध्यानमें लीन होगये । प्राणोंका परित्याग कर सर्वार्थ सिद्धि विमानमें जाकर अहमिन्द्र होगये। एवं वहांका सानन्द सुख भोगने लगे ॥ २३६-२४०॥ मुनिराज वजायुधके जीवके शुक्ल 12 लेश्या थी। एक हाथका सुन्दर शरीर था। वह तेजका खजाना था। तेतीस सागरकी आयु थी। किसी से प्रकारकी उनके साथ विशेष उपाधि न थी एवं भ्रांत ज्ञानसे वे रहित थे ॥ २४१॥ शास्त्र में सर्वार्थ 51 सिद्धिके देवोंके अन्दर इतनी अद्भुत शक्ति बतलाई है कि यदि वह चाहे तो निमेषका जितना प्रमाण बतलाया है उसके अठारहवे भागमें ही अर्थात् देखते देखते वह लोकाकाशको उलटा कर | सकता है॥ २४२ ॥ मुनिराज वजायुधको कष्ट देनेवाला वह अति दारूप भील पापके तीव्र उदयसे पापपरपयरपर Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभफ़ 昼に看板肥前に लोकाकारां करें कृत्वा काष्ठा विपरीतयेत् ॥ २४३ ॥ व्याधोसौ पापतो मृरया न्यविशत् सप्तम मुवं तद्वं गदितु तत्र कः शको ति जिन बिना ॥ २४४ ॥ मुमो जझे लीना सफल बतागमनी । दुराच्या सर्वार्थाप्तिरिय च पशतामेति ननु न । जगत्स्थामा रामा परमपदमायाति जयतो यतो धैर्यध्यानाटिकमिति यस चित्र शमवतां ॥ २४५ ॥ जितेन्द्रियाणां न भवेद राज्य परं पद स्वर्भ न सौख्यं । जितेंद्रियाणां न भवेद राज्यं परं पदं स्वर्यनरेन्द्रसख्यं ॥ २४६ ॥ इति श्रीविमलनाथपुराणे भट्टारक श्रीरत्नभूषणानामालङ्कार विद्व० हर्यश्रीरिकान्वयोदारमानस राजहंस बह्मचारीश्वरकृष्णदासविरचिते ब्रह्ममङ्गलदास साहाय्यसापेक्ष रामसा बररत्नमालाच्युतदेव पूर्णचन्द्रवररत्नायुधाच्युतदेव सिंह सेन बरबज्रायुध सर्वार्थसिद्धिगमन वर्णनो मामामः सर्गः ॥ ८ ॥ मरकर सातवे नरक गया। सातवें नरकका इतना भयङ्कर दुःख है कि उसे भगवान जिनेंद्र के सिवाय कोई नहीं कह सकता ॥ २४३ ॥ मुनिराज वज्रायुध पर जब समस्त सुखोंकी स्थान और कठिनता से प्राप्त होनेवाली सर्वार्थ सिद्धिरूपी स्त्री भी आसक्त होगई तत्र संसारकी स्त्रियोंका मुग्ध होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जो शांति स्वरूप संयमी हैं उनको स्थिर ध्यानसे मोच सुख भी प्राप्त हो जाता है तब अन्य सुखों का प्राप्त होना आश्चर्य कारी नहीं ॥ २४४ ॥ जिन महा पुरुषोंने इन्द्रियोंका विजय कर लिया है उनके मोक्ष स्थान स्वर्ग और नरेन्द्रोंका सुख दुर्लभ नहीं किन्तु जिन्हें इन्द्रियोंने ही जीत लिया है उनके लिये मोक्ष सुख और नरेंद्र सुख सभी कुछ दुर्लभ हैं ॥ २४५ ॥ इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषणकी आम्नायके अलंकारस्वरूप हर्षवारिकाके पुत्र उत्तम ब्रह्मचारी कृष्णदासद्वारा विरचित 'वृहत् विमलनाथपुराण में रानी रामदत्ता जीव रत्नभाला और अच्युतदेव, पूर्णचन्द्रका जीव रत्नायुध और अच्युतदव एवं सिंहसेनका tant सद्ध गमन वर्णन करनेवाला आठवां सर्ग सगाप्त हुआ ॥ ८ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना सर्ग Tags नौम्यहं शिवकर्तारं गोरक्षं वृषभ जिनं । माद्यम्तवर्जितं सारं साराभं च शर्पणे ॥१॥ भयेव धातकोखण्डप्राग्भागे विस्तृतो Ka महान् । विदेशः पश्चिमो माति मकवास वापरः ॥२॥ तन्मध्ये गंधिलो नाम्ना समस्ति विष पोभृतः । धार्मिकैर्धनधान्येश्च विन्मु. | निपाकितः ॥ ३ ॥ अयोध्या विद्यते तत्र पुरी स्पर्धामसन्निभा । आईदासोऽभवदाजा तर लोलापुरंदरः ॥ ४ ॥ सुव्रताच्या प्रिया तस्य पिलसन्ती रतेच्छया । विद्युन्मालेव संवश कुकुमावणदेदकाः ॥ ५॥ रत्नमालावरच्युत्वा स्वावल्युतात्तयोः । जह जो भगवान कृषभदेव मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। पृथ्वीके रक्षक है। आदि अन्तसे रहित हे सार स्वरूप है और कल्याण स्वरूप हैं उन भगवान ऋषभ देवको में भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूं ॥१॥ इसी पृथ्वीपर धातुकी खंड द्वीपके पूर्व भागमें विदेह नामका क्षेत्र है जो कि अपनी hd अद्वितीय शोभासे उत्तम और स्वर्ग नगर सरीखा जान पड़ता है ॥ २॥ विदेह क्षेत्रमें एक गंधिलd नामका प्रसिद्ध नगर देश है जो कि धर्मात्मा पुरुष और धन धान्य आदिसे सदो व्याप्त बना रहता | है और विद्वान मुनियोंके चरण चिह्नोंसे सदा अंकित रहता है॥३॥ गन्धिल देशमें एक अयोध्यो नामकी नगरी है जो कि शोभामें स्वगं पुरीकी उपमा धारण करती है । अयोध्या नगरी का संरक्षक उस समय राजा अर्हदास था जो कि शोभा और क्रीड़ाओंमें इन्द्रके समान जान |* पड़ता था॥ ४॥राजा अर्हदासको रानीका नाम सुबता था जो कि रति संबंधी अनेक प्रकारके a विलासोंकी करनेवाली थी एवं उसका शरीर केसरके रङ्गका सदा शोभायमान रहता था इसलिये वह वीजलीके समान सुन्दर जान पड़ती थी॥५॥ रानी रामदत्ताका जीव जो कि रत्नमाला होकर PREMYTarkaryakse Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव ५२ BKPKPY . श्रीमान, महातेजाः सुतो बीतभवायः ॥ ६ ॥ रत्नायुधोऽपि तम्बाका युस्था तस्यैव भूपतेः । प्रियायां जिन सुतोऽजनि बिश्रीयणः || ७ || देवरादौ तो वीतभीकविभूषणौ । अज्ञाते पुण्यतो राज्यं भोजयामासतुश्विरं ॥ ८ ॥ मृत्वा विभीषण राजा केशयत्वाद्रतः शिविं । द्वितीयायां महेनोमिरासमोस्यैश्व दुस्त्यजेः || || बलदेवोडिय तह विर स्वातिमीहतः । व्यवस्था राज्य निवृस्पते संयमं प्राप पुण्यधीः ॥ १० ॥ दुष्करं स तपस्तप्त्वा छांतवासयं दिषं ययौ । आदित्याने विमानेऽभूदित्याः सुरोत्तमः ॥ ११ ॥ अच्युत स्वर्गमें जाकर देव हुआ था राजा भर्हदासके रानी सुव्रतासे उत्पन्न वीतभय नामका कुमार हुआ जो कि बुद्धिमान था उम्र तेजका धारक था। राजा पूर्णचन्द्रका जीव रत्नायुध जो कि मरकर अच्युत स्वर्ग में ही देव हुआ था आयुके अन्तमें वहांसे चयकर उसी राजा भर्हदास के जिनदत्ता नामकी रानीसे उत्पन्न विभीषण नामको पुत्र हुआ था ॥ ६-७ ॥ इन दोनों कुमारोंमें कुमार atar बलदेव था और विभीषण नारायण था । ये दोनों ही बलदेव और केशव पदवियों के धारक कुमार समस्त भयोंसे रहित थे। कवियोंके भूषण थे और पूर्व पुण्यके उदयसे सानन्द राज्य | का भोग करते थे ॥ ८ ॥ राजा विभीषण जो कि नारायण पदका धारक था मरकर अनेक प्रकार के. | श्रारम्भोंसे जायमान घोर पापों के द्वारा दूसरे नरकमें जाकर नारकी होगया ॥ ६ ॥ नारायण बिभीषणके मरने से बलदेव वीतभयको बड़ा दुःख हुआ। मोहके तीत्र उदयसे भाई के मर जाने के बाद उसने राज्यका परित्याग कर दिया और संयम धारण कर लिया ॥ ६-१० ॥ पुण्यात्मा वीतभय वलदेव ने घोर तप तपा जिससे वह लांब स्वर्ग के आदित्याभ नामक विमानमें श्रादित्याभ नामका उत्तम देव होगया ॥ ११ ॥ प्रिय जयन्त मुनिके जीव नागेंद्र वही में आदित्याभ नामका इस समय देव हूं। अपने पूर्व जन्मके भाई नारायण विभीषणको नरकमें अवधिज्ञानके द्वारा दुःखी देख एक दिन मैंने यह विचार किया -- FANA Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BEY नागनाथ स एवाइमादित्याभोऽस्मि सांप्रतं । ववर्ष दुःखिनं श्वभ्रं बधे ष्ट्वा व्यचिंतयं ॥ १२ ॥ अहं स्वर्गेऽमरो जातो लोलावान् सुखभाजनं । मत्सोदरी महादुः भुनकि सागरे ॥ १३ ॥ निष्कासयाम्यहं सूर्ण' 'वांधव प्राणतोऽधिकं । असुरान् बज्रघातेन प्रह स्वाति चिंत्य च ॥ १४ ॥ अगमं मोहतस्तत्राबोधयं बांधव निजं । ह्रासयित्वा सुरान्पापान् प्रकृत्या दुःखदायिनः ॥ १५ ॥ निष्का सितु मयोपाया अकारिषत हे भोट् । जो तस्य महादुः तैरुपायैर्यदा तदा ॥ १६ ॥ निर्गतेन ततः पृष्टः श्रीमंधर जिनाधिपः । स्वद्भ वालिकां नूनं प्रोक' मेऽखिलं श्रुतं ॥ १७ ॥ तत् श्रोतव्यं त्वया नागेट् त्रयीगि भ्रांतिहानये । जंबूद्वोपेऽत्र विख्याते वर्षे वैरायताभिधे मैं तो स्वर्ग कर अनेक क्रीड़ाओं का स्थान देव होगया हूं और अनेक प्रकार के सुख भोग रहा हूँ परन्तु मेरा भाई विभीषण नरकमें पड़ा २ महा दुःख भोग रहा है मुझे चाहिये कि मैं समस्त असुरोंको बज्रसे छिन्न भिन्न कर शीघ्र ही अपने प्राण प्यारे भाईको नरकसे निकाल ले आऊ' वश में ऐसा विचार कर मोहसे व्याकुल हो शीघ्र हो दूसरे नरक गया। अपने भाईको पूर्व | भवका वृत्तांत सुना संबोधा एवं जो असुर कुमार जातिके देव स्वभावसे ही नारकियोंको पीड़ा पहुचानेवाले थे उन्हें शक्तिभर धमकाया डराया ॥ १२-१६ ॥ प्रिय नागेन्द्र ! अपने भाईका नरकसे निकालने के लिये मैंने बहुत उपाय किये परन्तु उनसे उसे उल्टा घोर दुःख होने लगा। जब मैंने देखा कि इसके निकालने के लिये जो उपाय किये जाते हैं उनसे इसे दुःख ही होता है, तो मैंने उसके निकालने का विचार स्थगित कर दिया। सीधा में भगवान श्री मन्धरके पास गया । मैंने उनसे सब बात पूछी। उन्होंने तुम्हारे पूर्व भवों का वर्णन किया जिसे मैंने रुचिपूर्वक सुना । प्रिय नागेंद्र ! भगवान श्रीमन्धरके द्वारा सुना गया तुम्हारे पूर्व भवका वृत्तांत मैं तुम्हारे सामने वर्णन करता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो। इसी जम्बूद्वीप ऐरावत क्षेत्रमें एक अयोध्या नामकी पुरी है जो कि खाई और किलोसे ४५ पत्रपत्र डीप Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YYAYA%A PAKKA | १८ || अयोध्यास्ते परीरस्था परिखादुर्गवेष्टिता । श्रीवर्मा तत्र राजाऽभूत्सुलीमा तस्य भामिनी ॥ ११ ॥ श्वभ्राद्विभीषणः प्रति निर्गत्याभूत्तयोः सुतः । सुधर्माखया गुणाम्यधिर्मामितीयोगचचुरः ॥ २० ॥ एकदाऽनंतयोगात् शुत्वा धर्म त्रिरतधोः । तत्पार्श्वे संयमं नीटश पगारादेषेश्वुत्रस्त रम्माण सुखमन्वभूत् । गतं कालं न जानाति गीतनाट्यरसैरी ॥ २२ ॥ सर्वार्थसिद्विजोदेवो वज्रायुधधरस्ततः । च्युतवाभूरसंज्ञयंताख्यो बलीयान् योगरोधकः || २३ || स ब्रह्मशोऽपि तत्रत्यं सुखं भुक्त्वायुषः क्षये । च्युत्वा जयंतनामाभूत् संजयंतानुजः सुधीः ॥ २४ ॥ निदानेन मृतः सोऽपि त्वं फणीशोऽभवन्महान् । मोहाद्विलुप्त महा शोभायमान जान पड़ती है। अयोध्यापुरीका स्वामी उस समय श्री धर्मा था और उसकी रानीका नाम सुशीला था । १७ - २० ॥ नारायण विभीषणका जीव नारकी अपनी युके अन्तमें नरक से निकला एवं राजा श्रीधर्माके रानी सुसीमासे उत्पन्न सुधर्म नामका पुत्र हुआ जो कि अनेक गुणोंका समुद्र था और स्त्रियोंके भोगोंमें प्रेम रखनेवाला था ॥ २१ ॥ एक दिन मुनिराज अनंतसे उसने धर्मका स्वरूप सुना जिससे उसे संसारसे बैराग्य होगया । शीघ्र ही उसने मुनिराज अनंत के पासमें संयम धारणकर लिया। घोर तप तपा जिससे तपके प्रभावसे वह ब्रह्म स्वर्ग में उत्तम ऋद्धि का धारक देव होगया ॥ २२ ॥ बहांपर पुण्यके उदयमे उसे सब सामग्री प्राप्त हुई वह देवांगनाओं के साथ आलिंगन चुम्वन आदि क्रियाओं में एवं उत्तमोत्तम गायन और नाटकोंके देखने में इतना भग्न होने लगा कि उसे यह मो नही जान पड़ने लगा कि उसकी आयुके दिन वहां बीत रहे हैं । ॥ २३ ॥ राजा बज्रायुथका जीव अहमिन्द्र जो सर्वार्थ सिद्धि विमान में जाकर देव हुआ था वह अपनी आयु अन्तमें वहांसे चया एवं महाशक्तिका धारक और योगोंका निरोध करनेवाला संजयंत नामका महापुरुष हुआ जो कि तुम्हारा भाई था। मेरे भाई नारायण स्वयंभूका जीव जो ब्रह्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ था उसने वहांके बहुत काल पर्यंत दिव्य सुख भोगे । श्रयुके अन्त में वहांसे चया नेत्रः Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN यो मोड़ी केन विम्बिताः ॥ २५ ॥ प्राक्तनो नारकः प्रान्तपृथिवीतो विनिर्गतः । अधन्यायुरहिर्भूत्वा पातालं तुनीयं गतः ॥ २६ ॥ ततो निर्गत्य तिर्यक्षु वसेषु स्थाघरे व भ्रात्वाऽस्मिन् भारते भूतरमणाख्यवनांतरे ॥ २७ ॥ ऐरावती नदीतीरे गोश्वास्ति ता पसः । शङ्खका भामिनां तस्य कराया भर्तृपमा ॥ २८ ॥ तयोर्जशे सुतः सोऽपि मृगशृङ्गाभिधो ध्रुवं । पञ्चाग्नितपः कुर्वन्नेकदा चीक्ष्य खेचरं ॥ २६ ॥ दिव्यादितिलकस्यैव पुरस्य स्वामिनं परं । श्रीअंशुमालिनं नाम्ना निदानमकरोत्कुधोः ॥ ३० ॥ यथायं रूपवान् मानी प्रताप प्राज्य राज्यवाक् । भूषामहं तवेतन्मे तपस्यायो अदः फलं ॥ ५१ ॥ अथात्र बेचराद्र ेश्च प्रोदक् थे ण्यां पुरं महत् । और संजयन्तका छोटा भाई जयंत हुआ जो कि निदानसे मरकर तू धरणेंद्र हुआ है इस समय तुम्हारा सम्यग्दर्शन मोहसे मलिन होगया है ठीक ही हैं मोहको वश करनेवाले संसारमे विरले ही पुरुष है ॥ २४ – २६ ॥ मन्त्री सत्यघोषका जोव वह नारकी अपनी आयुके अन्तमें सातवें नरकसे निकल सर्प हुआ। वहांको जघन्य आयु धारण कर मरा फिर तीसरे नरकका नारकी हुआ वहांसे निकल कर त्रस स्थावर रूप तियंच हुआ । इसी भरत क्षेत्रकी पृथ्वी पर एक भूत रमण नामका वन है। उसके अन्दर एक ऐरावती नामको नदी है उसके तटपर एक गोश्रृंग नामका तपस्वी रहता था। शंखिका नामकी उसकी स्त्री थी जो कि अत्यन्त रूपवती और पतिकी प्राण प्यारी थी वह सत्यघोष मंत्रीका जोब तपस्विनी शंखिकाके गर्भसे मृगशंख नामका पुत्र हुआ और प्रति दिन पंञ्चानि तप तपने लगा। एक दिनकी बात है कि दिव्य तिलक पुरका स्वामी अंशुमाली नामका विद्याधर आकाश मार्गसे जा रहा था। उसकी दिव्य विभूतिपर मृगशंख तपस्वी मोहित होगया दुर्बुद्धि हो उसने यह निदान बाधा --- जिस प्रकार यह विद्याधर अत्यंत रूपवान दानी प्रतापी और विशाल राज्यका स्वामी है उसी प्रकार मैं भी हो बस मैं अपने किये हुए तपका यही फल चाहता हूं ॥ २७–३१ ॥ お宿がで Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानासंदर्भसंयुक्तमारले गगनबल्लम ॥ ३२ ॥ बजारष्ट्र समस्तन्त्र पाति तत्पत्तनं सुधीः। जम्भापतिः स्वधामेव तस्य भार्याचलप्रभा ॥17 मजा ३३ ॥ मृत्वासौ तापसो दृष्टो विद्युद्दष्ट्र सुतस्तयोः । षभूवायं स पापीयान त्वदग्रजममीमरत् ॥ ३४ ॥ वध्या कर्म चिरं दुःखमापदा प्स्यति च पर' । एवं कर्मवशाज्जतुः संसृतौ परिवर्तते ॥ ३५ ॥ पिता पुलः सुतो जाता माता भ्राता सब वसा ) को बन्युः को न वा २५९ गन्धुर्मुश्च वैरमत: फणीट ! ।। ३६ ॥ कस्य को नापकर्ताऽत्र नोपफर्ता च फस्य कः । तस्माद्वैरानुबन्धन मा कृथाः पापबन्धनं ॥ ३७ ॥ विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक गगन बल्लभ नामका नगर है जो कि विशाल है और अनेक रचनाओंसे शोभायमान है । गगन वल्लभ नगरका स्वामी राजा बज्रदंत था जो कि शोभा इन्द्रकी तुलना करता था एवं उसको खोका नाम विद्युत्प्रभा था वह दुष्ट मृगशृंग नामका तपस्वी अपनी आयुके अन्तमें मरा और रानो विद्यत्प्रमाके गर्भसे विद्यदंष्ट्र नामका पुत्र हुआ। पूर्व जन्मके वैरसे इसी दुग्टने तुम्हारे भाई संजयन्तको मारा है ॥ ३२-३३ ॥ इसने मुनिराज संजयन्तके जमारनेसे घोर कोका बंध किया है जिससे इसने यह कष्ट प्राप्त किया है और करेगा। भाई धरणेंद्र ! AE यह जीव इसी प्रकार कर्मों के जालमें फसकर इस संसारमें परिभ्रमण करता रहता है । ॥ ३४ ॥ ला देखो भाई। इस संसारमें पिता तो पुत्र हो जाता है पुत्र माता हो जाता है । माता भाई वन जाता है और भाई सास बन जाता है इसलिये तुम निश्चय समझो इस संसारमें न कोई वास्तव में । किसी बंधु है और न बैरी है अतः प्रिय नागेंद्र ! तुम्हे कभी इस विद्याधरके साथ बैर नहीं बांधना चाहिये ॥ ३५ ॥ देखो इस संसारमें कोन तो किसका अपकारी नहीं और कौन किसका उपकारी । नहीं अर्थात् हरएक दूसरेका अपकारी और उपकारी है इसलिये इसके साथ वैर बांधकर तुम वृथा तपाय वांध रहे हो ॥३६॥ प्रिय धरणेंद्र ! तुम इस विद्याधरके साथ बैर मतबांधो इसे छोड़ दो वस इस प्रकार आदित्याभके बचन सुनकर धरणेद्रका क्रोध शांत होगया॥ ३७॥ उत्तरमें उसने यह कहा Makers Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुञ्च बेरमहीनास्मिन् विद्युइंद्रश्च मुच्यतां । इति देवघयोवृष्ट्या ययौ शांति' फणीश्वरः ॥ ३८ ॥ ऋतोक्तौ सुखमायाति सज्जनों न स्खलो विधीः । अहोदये सो मुदं याति न कोकभित्॥ ३६॥ देवाह त्वत्प्रसादेन सद्धर्म श्रद्धये स्म मोः। किंतु विद्यापलादेव विद्यु हष्ट्रोऽघमावरत् ॥ ४ ॥ तस्मादस्यान्वयस्येव महाविद्यां छिनम्यहं । इत्याहैतद्वचः श्रुत्वः सुरो मदनुरोधतः ॥ ४२ ॥ त्वया द्विधातव्यमित्याख्यत्फणिनां पति । श्रादित्याभवचः श्रुत्वाब्रवीदिति पुनः फणीट ! ॥४२॥ ययेव ताई चश्मानांमेतस्यैव कुकर्मणा । प्रिय ओदित्याभ ! में भी यह मानता हूँ कि जिसप्रकार सूर्यके उदय होने पर हंसको आनंद होता है उस प्रकार उल्लू को आनन्द नहीं होता उसी प्रकार सत्य बोलनेसे सजनोंको ही परमानन्द प्राप्त E होता है दुर्बुद्धि दुष्टको नहीं ॥३८॥ भाई आदित्याभ ! मैं तुम्हारे वचनोंसे परम पावन जैन धर्मका श्रद्धान करता हूँ परन्तु इस दुष्ट निशुपाने लापनी विचारला घमण्ड कर यह दुष्पाप किया है इस लिये मैं कुल परम्परासे प्राप्त इसकी समस्त विद्याका उच्छेद करूंगा। थरणेंद्रकी यह बात सुनकर विद्याधर आदित्याभने कहा भाई धरणेंद्र ! मेरे अनुरोधसे तुम्हें इसकी विद्यायें नहीं छेदनी चाहिये । आदित्याभके इस प्रकार वचन सुनकर पुनः धरणेंद्रने कहा यदि तुम इसकी कुल परम्परा प्राप्त विद्याओंके छेदनेकी मना करते हो तो मैं स्वीकार करता परन्तु में यह शाप देता हूं कि इस विद्युद्दष्ट्र के कुकर्म के कारण इसके जितने वंशके पूरुष हों, उन्हें मुनिराज संजयन्तको विना आराधना किये किसी भी विद्याकी सिद्धि मत हो तथा जिस Jan चतुर्दशीको मेरे भाईने मोक्ष प्राप्त की है उस तिथिको बिना आराधे किसोको भी मोक्ष पदकी प्राप्ति मत हो, मालुम होता है इसीलिये चतुर्दशीको विशिष्ट पर्वका दिन माना है। भाई ! इस शापक देनेका मेरा तात्पर्य यह है कि यदि में ऐसा शाप न दूंगा तो ये क्रूर हृदयके धारक पापी विद्या RREART ENAYANAVRATRIKA MirmETNHIADMIND Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ya संजयंतमनाराध्य विद्या मायातु सिद्धितां ॥ ४३ ॥ मनुभ्रातृसिद्धिशं साक्षादनाराध्य विधिं जनाः । मायांतु सत्पदं कापि ततः पर्यचतु ईशी ||३४|| दयां चेने शाप तहाँ ते शपिनः खगाः । अपरान्मारयन्त्येव मुनीनान् कुटिताशयाः ॥४५॥ एषोऽत्रि पर्वतो विद्याधराग लज्जितोऽजनि । अतस्त' नामतः रोळं होमंतं कृतवांस्त ॥ ४५ ॥ धनुः धातोः प्रतिनिधिं व्यधात् । प्रतिष्ठित्वाऽथ तं नस्वा महोत्सव परः शतैः ॥ ४७ ॥ मुक्टवा तं खेवर पापं दं वमभ्यर्च्य नागराट् । कलुषीभावमुत्सृज्य पफाणाशु निर्ज पदं ॥ ४८ ॥ भाहित्या भोsपि स्वर्ग जगाम मगधेश्वर ! त्याजयंति महाद्वेष साविका हि हितेच्छवः ॥ ४६ ॥ भय जंबूद्र मान्वीते द्वीपे हीमद्विधीकृतं । भारतं भाति षट्खपिड गङ्गासिंधूर्मिभूषणं ॥ ५० ॥ लयांते या साडेका नित्यत्वं दृश्यते यदि । ह्रीमत्पुरस्तानीत्वा द्विसप्ततियुगानि च र अन्य मुनियों को भी मारेंगे ॥ ३६-४६ ॥ इस विद्याधर पर्वत पर सुनिराज संजयन्तको कष्ट पहुंचाया गया है इसलिये यह भी लज्जाका स्थान है अतः उस पर्वतका उस दिनसे हीमन्त ( लज्जावान ) नाम रख दिया गया |४७ | धरणेंद्र ने अपने भाई संजयंतकी पांचसौ धनुष ऊ ंची प्रतिमा तयार कराई। सैकड़ों महोत्सवोंके साथ प्रतिष्ठाकर वहीं उसे विराजमान कर दिया और भक्तिपूर्वक | उसे नमस्कार किया ॥ ४८ ॥ धरणेंद्रने पापी विद्याधर विद्युद्दष्ट्रको छोड़ दिया । आदित्याभ देवका परिपूर्ण आदर सत्कार किया। उसके हृदयमें जो विद्याघर विद्युद्दष्ट्र के मारने के कलुषित विचार थे सव निकाल दिये और सानन्द अपने स्थान चला गया ॥ ४६॥ इतनी कथा सुनाकर गौतम स्वामीने राजा श्रेणिकसे कहा -- प्रिय राजन् ! जव यादित्याभने देखा कि नागेंद्र वैरका सर्वथा परित्याग कर अपने स्थान चला गया है तब वह भी अपने स्थानको चला गया ठीक ही है जो मनुष्य दूसरों के हितकी इच्छा रखने वाले और सज्जन प्रकृतिके होते हैं वे अवश्य ही दूसरोंका आपस में गैर मिटा देते हैं ॥ ५० ॥ ड्रीमन्त पर्वतसे जिसके कि दो खंड होरहें हैं ऐसे इसी जंबुद्वीपके अन्दर भरत क्षेत्र हैं जो कि 商業 高寿整商肥商売 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - H ERE 4 - m - - - - -B -4 him A M ॥५१॥ शेलदया क्षिपत्योन सार्वज्ञानामधापरे गादाजी राति गाहातटे भिया ॥५२॥ तत्रार्यों भाति सत्य पडः स्वर्गबण्ड वापरः । अस्ति तलोत्सरा नाम्ना पुरी श्रीमथुरा नपः ॥ ५३॥ तंपात्यनन्तवीर्याख्यो राजा सिंहपराक्रमः चन्द्रास्या वर्तते तस्य नाम्ना स्त्री मेहमालिनी ।।५४॥ द्वितीया सुन्दरी सस्य रोहिणोव चकोरट्क । आस्ते मितवती नाम्ना नामेवामरसुन्दरो ५५ क्षादित्यामस्त तश्युत्वा पूर्वोक्तायामभूत्सुतः । नाम्ना मेरुः प्रभीवासी तिग्मांशः कुलभूधर ॥ ५६ ॥ धरणेद्रोऽपि पुत्रोभन्मन्दराख्यो महायशाः । द्वितीयायां सुतौ सौ च सूर्याचन्द्रमसाविध ॥ ५७ ॥ इत्थं विमलनाथस्य मुग्लाजान्मेरुमन्दरौ । स्वभवांस्ती समाकण्यं घेराग्य प्राप छह खंडोंसे शोभायमान है एवं गङ्गा सिन्धु नामको दोनों नदियोंकी तरंग रूपी भूषणोंसे शोभा. l यमान है ॥ ५१ ॥ प्रलय कालके अन्तमें जब भरत क्षेत्रके किसी एक खण्डका प्रलय होता है उस समय हीसन्त पर्वतका स्वामी देव हर एक गर्भज जीवके बहत्तर २ जोड़ा लेकर उस होमन्त पर्वतको गुफामें रखता है तथा और बहुतसे जीव मारे भयके उस समय गङ्गा नदीके तटपर जाकर रहने * लगते हैं ॥ ५२-५३ ॥ भरत नेत्र के अन्दर एक आर्य खण्ड है जो कि शोभामें स्वर्ग खण्डके 5. समान जान पड़ता है । आर्य खण्डकी उत्तर दिशामें मथुरा नामकी नगरी है। उस समय मथुरा Mपुरीका स्वामी राजा अनन्तवार्य था जो कि सिंहके समान पराक्रमी था। उसकी रानीका नाम मेरु मालिनी था जो कि चंद्रमाके समान मुखसे शोभायमान थी। उसको दूसरी स्त्रीका नाम | मितवती था जो कि रोहिणीके समान परम सुन्दरी थी।चकोरके समान उत्तम नेत्रोंसे शोभायमान थी इसलिये वह साक्षात् देवांगना सरीखी जान पड़ती थी॥ ५४-५६ ॥ आदित्याभ नामका देव अपनी आयुके अन्तमें स्वर्गसे चया और रानी मेरुमालिनीके गर्भसे मेरु नामका पुत्र हुआ जो कि कांतिसे अत्यन्त देदीप्यमान था और अपने बंशरूपी पर्वत पर उदित होनेवाला सूर्य स्वरूप था। ५७ धरणेद्रका जीव भी अपनी आयुके अन्तमें वहांसे चया और रानी मितवतीके गर्भ में अवतीर्ण Ay Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - । ५८ ॥ गन्ध भसप्तिभिः प्रौढ राज्य सामंतसेवितं । त्या जनहतुःक्षा तौ श्रीविमलसन्निधौ ॥ ५७॥ मत्वा स्वस्वामि धीरौ चकाते तो हपश्चिर' । चन्द्रादिरसमासांतं सरिसोरनगादिष॥६० ॥ पर्यकासनसंयुको धीरौ मतले कञ्चित् ।) 5 कायोत्सर्गस्थिती कापि तिष्ठतः स्म हरी इव ॥ ६ ॥ शीतकाले सरित्तोरे भ्रश्य महादेवके । पृधुरोमगतिच्छेदे दग्धामीजबनेऽबने । ६२॥ तिष्ठतः स्म महाकायौ मेरुसंस्थी शिवाप्तये। चतुःपयेऽनिलबातः केशा धनीकुरा इत्र ॥ ६ ॥ तयोः संजक्षिरे नूनम'जनागसमानयोः । शीतदग्धांगयो स्तिपसा क्षामयोभृशं ॥ ६४ ॥ ( शिभिर्विशेषक) शुष्ययत्र जल शोते नीरसीभूयमोतितः । दूषत्तुल्यं भवेत्तहो मन्दर नामका पुत्र हुआ जो कि बड़ा भारी यशखी था इस तरह वे दोनों कुमार सूर्य और ke चन्द्रमाके समान सानंद रहने लगे॥ ५८ ॥ वस इस प्रकार भगवान विमल नाथके मुखले अपने - पूर्व भवॉका वृत्तांत सुन राजा मेरु और मन्दरको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य होगया। जो उनका राज्य अणत गज हस्ती और उत्तमोत्तम घोड़ोंसे शोभायमान था और अनेक दुर्घट सामन्त । जिसकी सेवा करते थे उस राज्यको उन्होंने जीर्णतृणके समान तत्काल छोड़ दिया और भगवान विमलनाथके चरणों में तत्काल दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगये ॥ ५६ ॥ ५६-६०॥ भगवान विमलनाथको उन्होंने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं एक मास दोमास तीन माल चार मास पांच मास और छह मास तकका उपबास धारण कर वे नदीके तट और पर्वतों पर घोर तप तपने लगे॥६१॥ वर्षा ऋतुमें धीर वीर वे दोनों मुनिराज पयंक आसन माड़कर और कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर दो सिंहोंके समान वृक्षोंके नीचे रहने लगे। ६२ ॥ जिस शीत कालमें बनके वृक्ष | दग्ध होजाते हैं। रोंगटे ठर्रा निकलते हैं और कमलोंके बनके बन दग्ध हो जाते हैं उस समय विशाल शरीरके धारक और मेरु पर्वतके समान निश्चल दोनों मुनिराज मोक्ष प्राप्तिकी अभिलाषासे चौपटे EN में निवास करते थे और तीखी पबनके झकोरे सहते थे। वे दोनों मुनि अञ्जन पर्वतके समान Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RewarkPYRel हिमानवानां तु फा कथा ॥ ६५ ।। प्रोष्मतांवगटङ्गम्यंशुप्रालिस्पिती मुनों । पायंती सिद्ध सखोज यहोभूनाशुभूगले ॥६६॥ अग्नितसकटाहाभ घनमामा तस्थतः । यहिज्वालाधिक दुःखसमूहोत्पादके व तो ॥ १७ ॥ यावृषि नोरनि िखिताशयां यमोसरी। मेकभीकुद्धवः स्त्रसजीवायां कर्णरोधिभिः॥८॥ पनि दिनोप्लष्टभूमहायां च निर्ययो। कुरितपादाकी सर्पवयन्वितांगको॥ ६६ ॥ तिमित्रातमसां प्रातर योवीधराकतिस्थतुयानसंसको मेयबग्निश्चलौ च तो॥७॥ (सिमिर्विशेषक) सप्तर्धिसमवेतः सन् मेरुस्तुर्याधकोधनः । बभूव मैदरचा मन:पमारविः ॥ ६॥ पश्चातगगणेविमलबाहनः । परीतो भाति ताराभि काले पड़ गये थे। उनका समस्त शरीर कृश होगया था इसलिये उस समय उनके मस्तकके ka केश दाव घासके समान रूखे और विखर गये थे ॥६३-६५ ॥ जिस शीतकालमें तालावोंका जल नीरस होकर सूखकर पत्थरके समान वरफ बन जाता है उस समय मनुष्योंकी तो बात ही | क्या है ! ॥६६॥ ग्रीष्म ऋतुके समय जब कि पृथ्वोतल अग्निके समान दहकता रहता है उस समय वे दोनों मुनिराज सूर्य के सामने खड़े होकर पहाड़ोंपर तप तपते थे और हृदयमे 'सिद्ध' इस वीजा | घर स्वरूप मंत्रका ध्यान करते थे। वे दोनों मुनिराज अग्निसे तपाये गये कड़ाहोंके समान जाज्यल्यमान अग्निकी ज्वालासे भी महा भयङ्कर और अनेक प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त प्रोष्म ऋतुको वर्षा ऋतु सरीखी समझते थे॥६७ ॥ जिस वर्षाकालमें चारो ओर महा भयङ्कर मेघोंको गर्जना होती रहती है। कानोंको फोड़ देनेवाले मीडकोंके भयङ्कर शब्दोंसे समस्त जीव त्रस्त रहते हैं। बिजलियोंके गिरनेसे बृदके वृक्ष नष्ट हो जाते है उस वर्षाकालमें वे दोनों मुनिराज निर्भय हो । अपने आत्म स्वरूपका चिन्तबन करते थे। उस समय उनके चरण दाव पासके अंकुरोंसे व्याप्त रहते थे। समस्त शरीर सर्प और लताओंसे वेष्टित रहता था तथापि उन्हें किसो वातका भय न था। तथा वर्षा कालको अधियारो रातोंमें जब कि पृथ्वी पर्वत और वन कुछ भी नहीं दीख पड़ते थे KEEYatraTha AN Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MaghvarsJsRY विधुर्श विहन्गसौ ॥७२॥ असंख्यातसुरैरर्व्यः केवलज्ञानभास्करः । चतुर्विधमहासंघलमे तोविजदार सः ॥७अवंगे तिलिंगे मगर, जनपदे सिंधुदेशे विराटे । कर्णाटे कुकुणाख्ये कुल्लमुरुमहाभोटभोरेषु याये । काश्मारे लाटगोडे गिरवर (न) गहने मेट सटे जिने । पारस्थे मालवे वा व्यवहरदिति महामोघहतोर्जनानां ॥ शेषायुषि स्थिते तस्य मासैकस्य जिनाधिपः । सामेहावलमासाद्य विसर्ज समाश्रियं ॥५॥ आषाढस्योत्तराषाढ कृष्णाष्टम्पः निशामा । सद्यः कृत्वा समुद्धातं सूक्ष्म शुसमाश्रितः ॥६॥ साम्ययोगादयोगः सन् स्वास्थ्य रोगीय सोऽगमत् । तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् पूज्या कालाष्टमो धुः ॥ ७७ ॥ विश्वद्गश्या जिनो मोक्षमापविमलोऽमला उस समय वे मुनिराज मेरुके समान निश्चल और ध्यानमें लीन रहते थे ॥ ६८-७१॥ तपके / Kा घोर रूपसे आचरने पर मुनिराज मेरु और मन्दिरको सातों ऋद्धियां और चौथा मनः पर्यय ज्ञान 12 प्राप्त होगया और वे निभय हो पृथ्वी पर विहार करने लगे। ७२ ॥ जिस प्रकार अनेक ताराओंसे 5 ज्याप्त चन्द्रमा शोभायमान जान पड़ता है उसी प्रकार वे भगवान विमलनाथ साढ़े पांचसौ केवलज्ञानी ke मुनियोंके साथ विहार करते हुए अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे॥ ७३ ॥ भगवान विमलनाथ * को सेवा असख्याते देव करते थे और वे केवल ज्ञान रूपी सूर्यसे देदीप्यमान थे। भगवान विमल नाथने मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका इस प्रकार संघोंके साथ पृथ्वी पर बिहार करना प्रारम्भ कर दिया ॥७४ । उन भगवान विमलनाथने मोक्षाभिलाषी भव्य जीवोंके संबोधनेके लिये अङ्ग बहर * तेलंग मगध सिंधुदेश विराट कर्णाटक कुकण पुरु महा भोट भोट काश्मीर लाट गौड़ मेढ़ पाट | फारस मालवा आदि देश जो कि पहाड़ और वनोंसे सघन थे उनमें भ्रमण किया ॥ ७५ ॥ जब भगवान जिनेंद्रकी एक मासकी केवल आयु अशेष रह गई वे तो सम्मेदाचल पर्वतपर आ विराजे और समवसरणको विभूतिसे रहित होगये ॥ ७६ ॥ आषाढ़ मासको बदो अष्टमोके दिन जब कि उत्तराषाढ़ नक्षत्र विद्यमान था उन्होंने केवल समुद्धात माढा । सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक शुक्ल Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PALAYAYAYA पत्रपYAAYAN लेखालिस्त घात्य नातिक्षयात्सर्वदेवेंद्रा चितपटकः ॥ ७८ ॥ संसारसागरसमुचरणप्रक्षीणः । कर्मातलाय लिशमैकप्रनायमानः किरीटमणिप्रभाभिराश्लिष्टपाद इविजिद्विमोऽषताः ॥ ७६ ॥ कृत्याष्टकर्मविलयं गणसेव्यमानो व्युत्पाद्य केवलविमालिम विबोध्य | यांनि नितरां शियमाप दिव्यसम्मेदभूधरत विमलोष्णरश्मिः ॥ ८० ॥ विहार संबोधितजीवलोकपो जगाममोहाद्विपविः परं १६ स्वयंभुवा शुद्धसमाधितत्स्रो जिनोऽर्चितः केवलवोधलोचनः ॥ ८१ ॥ ध्यानको आश्रय किया । समता योगसे उन्होंने अयोग गुण स्थानमें पदार्पण किया एवं जिस प्रकार रोगके नाश हो जानेसे रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है उसी प्रकार वे भगवान विमलनाथ भो स्वस्थ हो गये भगवान विमलनाथ आषाढ़ वदी अष्टमीको मोक्ष पधारे थे इसलिये उसी दिन से उस अष्टमीका नाम कालाष्टमी पड़ गया और लोग उसे पूजने लगे ॥ ७७ – ६८ ॥ घाति अघाति दोनों कर्मों के नाश होजानेपर सर्वज्ञ जिनेंद्र वे भगवान विमलनाथ मोच शिलापर जाकर विराजमान होगये और बड़े बड़े देवेन्द्रों की पूजाके स्थान बन गये ॥ ७६ ॥ जो भगवान विमलनाथ जीवोंको संसार रूपी समुद्रसे पार करने वाले हैं । कर्मरूपी अग्निको बुझानेके लिये मेघ स्वरूप हैं। देवेन्द्रोंके मस्तकों में लगी हुई नील मणियोंसे व्याप्त चरणोंसे शोभायमान हैं और कामदेवके जीतनेवाले हैं वे भगवान विमलनाथ हमारी रक्षा करें ॥८०॥ जिसप्रकार सूर्य अंधकार का नाश करने वाला है उसी प्रकार भगवान विमलनाथ भी कर्मरूपी अन्धकारके नाश करनेवाले हैं। जिसप्रकार सूर्य ऋषिगणोंसे सेवित रहता है उस प्रकार भगवान विमलनाथ भी मुनि आदिके गणोंसे सेवित हैं । जिस प्रकार सूर्य, प्रभासे मंडित है उस प्रकार भगवान विमलनाथ भो केवल ज्ञानको प्रभासे after हैं एवं जिस प्रकार सूर्य कमलोंको खिलाकर अस्ताचल पर मस्त हो जाता है उस प्रकार おやおやかでお求 प Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपापाप या श्रीमनपुरा ८० श्री रतभूषणाम्नायालंकारविद्वज्जनचातुरी समुद्र कुमुदबांधवा पतारोमयमात्राचक्र सिंह पंवारिकान्वयो मानसराजहंसब्रह्मकृष्णदासविरचिते ब्रह्ममङ्गलदाससाहाय्यसापेक्षं श्रीमेस्मन्दिरदीक्षाप्रणश्री विमल मानिर्वाणगमनो नाम नवमः सर्गः ॥ ६ ॥ भगवान विमलनाथने भव्य रूपी कमलोंको खिलाकर सम्मेदाचलसे मोच प्राप्त की है इसलिये सूर्यके समान भगवान विमल नाथ हमारी रक्षा करें ॥ ८१ ॥ जिन भगवान विमलनाथने समस्त जीव लोकको संबोधा । जो मोहरूपी पर्वतके लिये वज्र स्वरूप हैं । शुद्ध समाधि - अपने आत्म स्वरूप में निश्चल हैं। केवल ज्ञानरूपी लोचनके धारक हैं और जो स्वयं भी ब्रह्मासे अर्चित हैं उन भगवानने परम पद प्राप्त कर लिया ऋतः वे हमारे कल्याणके कर्त्ता हों ॥ ८२ ॥ इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषणकी आम्नायके अलंकारस्वरूप विद्वज्जनोंकी चतुरता रूपी समुद्रके लिये चन्द्रमा दोनो भाषाके hadi एवं इर्ष वरिकाके कुलरूपी मानसरोवरके राजहंस ब्रह्मकृष्णदासद्वारा अपने छोटे भाई मंगलदासकी सहायताले रचे गये बृहद्विमलनाथपुराणमें राजा मेरु और मंदरकी दीक्षाका ग्रहण और भगवान विमलनाथका निर्वाण गमन वर्णन करनेवाला नववां सर्ग सनात हुआ ॥६॥ दशवा सर्ग | पुन्नपनपत *HAYAYAYA अथाजग्मुः सुनासोरा व्योमश्रानस्थिता मुदा । विमलेशस्य निर्वाणकल्याणकसमुत्सुकाः ॥ १ ॥ धनुर्णिकायदे वालिनिय यो भगवान विमलनाथ के निर्वाण प्राप्त करलेने पर उनके कल्याणके उत्सव मनानेके लिये लालायित समस्त इन्द्रादि देव अपने विमानोंपर चढ़कर शीघ्र ही सम्मेदाचतकी ओर चल दिये ॥ १ ॥ DAYANAN Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eHERध wai युग पदुभुषित बनपाण्यनुगा धीरजयध्यानप्रवादिनी ॥२॥ ऐराष गऊ शकः पुरस्कृस्य खचाल खे। पुरस्ताग्मतकोत्रात वमल विमोहयन् ॥ ३॥ चित्रमेतद्यादाकाशे पावन्यासो न दृश्यते । रम्माणां मसकीना स वेवानां चलतामपि ॥४॥ केचित्कुन्तकरा-देवाः केविच्छक्तिधनुर्धराः। केचित्कराशयः केचिस्पाणिपाशा व स्तरां ॥५॥ विशलधारिणः केचिदुशिमालफराः परे। संवेलुरसुरा को तराश्च दिगाश्रिताः ॥६॥ कपामराः स्थिताः केचितव्योमयानेष दोकताः । इसारूढ़ामराः केचित् हस्तमाल्या मनोरमाः ॥ ७॥ यासनारूढ़ा देवाः केचित् शुकप्रियाः । केकियानाश्चल तिस्म मरुन्मार्गे करायुधाः ॥ ८॥ असंख्याससुराः पञ्च पयः EAN शकृता वभुः । प्रत्येकं पञ्चवर्णाशुविचित्रवालसो ध्रुवं ।। ६॥ सम्मेदागं समालोक्य दूरतः लुरपादयः । उसेवाहनाद्भक्त्या भक्ति उस समय चारों ओर जय २ शब्द करते हुए चारों निकायोंके देव एक साथ इन्द्र के पीछे २ चल दिये ॥ २॥ ऐरावत हाथीपर चढ़कर सवोंके सामने इन्द्र चलने लगा। उस समय ऐरावत हाथीके सामने अपने नाचसे समस्त लोकको मोहित करता हुआ देवांगनाओंका समूह नाचता चला जाता था ॥३॥ ग्रन्धकार आश्चर्य प्रगट करते कहते हैं कि यद्यपि वे आकाशमें चलते थे परंतु कहां पैर रखते थे और कहां नहीं रखते थे! सूझ नहीं पड़ता था। भगवान के निर्वाण कल्याणके उत्सव मनानेके लिये आनेवाले देवोंमें बहुतसे देव अपने हाथों में माला लिये थे वहुतसे शक्ति धनुष तलवार पाश त्रिशूल बन्दूक के धारक थे इस रूपसे तो असुर जातिके देव चलने लगे तथा इसी प्रकार दिशाओं में रहने वाले व्यन्सर लोग भी चलने लगे ॥ ५--७ ॥ कल्पवासी देवोंमेंसेव हुतसे देव अपने द्वारा 1 रचे गये बिमानोंमें सवार होलिये । बहुतसे हाथोंमें माला धारण किये हंसोंपर चढ़ लिये । बहुतसे । हाथोंमें हथियार लेकर गरुड़ शुक और मयूरोंके आसनों पर चढ़कर आकाशमार्गमें चलने लगे। यद्यपि देव असख्याते थे तथापि इन्द्रने उन्हें पांच श्रेणियोंमें विभक्त कर रक्खा था और हर एक पांचों वणोंके अनेक प्रकारके वस्त्रोंसे शोभायमान थे॥१०॥ जिस समय देवोंने सम्मेदाचल पहाड़को देखा.भक्तिसे गदगद हो वे शीघ्र ही अपने २ वाहनोंसे उतर गये ठीक ही है जो पुरुष । F-HEIR REF RKY ERRENERATE NEERealer Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपनयन AYANA भाजो हि धार्मिकाः ॥ १० ॥ हरिर्विमलनाथस्थ प्रतिदिवं यथाकृति । कृत्वा स्फटिकसङ्कासमर्चयामास सादरं ।। ११ । परोक्षस्तुति मारेमें देवराजो जिनेशिनः । इति दोःकुमोल मानिर्मलाः जयनाधीश जय त्वं जगतांपते । तपोनिधे व्याम्भोधे मुक्तिलक्ष्मीप्रिय प्रभो ! १३ || मोहजेता त्वमेवासि त्वं सर्वज्ञः शिवप्रदः । कर्मध्वंसी चिदानन्दो भव्याम्भोजदिवामणिः ॥ १४ ॥ स्वामाराध्य जनाः सर्वे देवदेवेश्वरादयः । शिवं सदातनं यांसि समुनीर्य भवाम्युधि ॥ १५ ॥ स्तुत्वेति मघवा भावसुधापान (परो जिनं । कर्पूरागुरकल्याणन मेरुकुसुमोद्भवैः ॥ १६ ॥ सुगंध : केसरैर्नानावस्तुभिः सुरनायकः । संस्कारविनयं कृत्वा चार प्रांस्प धर्मात्मा होते हैं वे भक्तिमान होते ही हैं ॥ ११ ॥ इन्द्रने भगवान विमलनाथकी स्फटिकमयी प्रतिमाका शीघ्र निर्माण किया और बड़ी भक्ति से उसका पूजन किया। निर्मल चित्तके धारक इन्द्र अपने दोनों हाथ जोड़ लिये और उनके परोक्ष रहते भी वह इस प्रकार निर्मल भावोंसे स्तुति करने लगा -- हे भगवन् ! आप आठो कर्मोंके जीतने वालोंके स्वामी हैं । समस्त जगतके पति हैं । तपोनिधि और दयाके समुद्र हैं। मोक्ष रूपी लक्ष्मी के प्यारे हैं। मोहके जीतनेवाले केवल च्याप ही है । सर्वज्ञ और कल्याणों के प्रदान करनेवाले हैं। कर्मोंके नाश करनेवाले चिदानन्द चैतन्य स्वरूप और भव्यरूपी कमलोंको प्रसन्न करनेवाले सूर्य हैं इसलिये हे भगवन् ! आप संसारमें जयवंते रहें । १२ – १५ ॥ प्रभो ! देवोंके देव इन्द्र आदि भी तुम्हारा आराधन कर संसाररूपी समुद्रको तर कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । उत्तम भावरूपी अमृतके पान करनेवाले इन्द्रने इसप्रकार भगवान विमल नाथकी स्तुति की। कपूर अगुरु कल्प वृचोंके फूल और भी नाना प्रकारको सुगन्धित चीजोंसे विनयपूर्वक भगवान के शरीरका दाह संस्कार किया एवं भक्तिसे गदगद हो नृत्य किया ॥ १६-१८ ॥ सम्मेदाचल पर्वतके चारो ओर अपनी २ देवांगनाओंके साथ श्रेणिरूपसे समस्त १५५०५०% 医者や看わせ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACK न नाटकं ॥ १७ श्रेणी भतार सराव परिसस्तो भूधर । नत्यतिम्म नमामि संगता जयवादिनः ॥१८॥ रक्तदोपल्लबाभिश्च रम्मावल्लीभिरचिताः । हैमीभिः सरकल्पागाः, स्फुरन्तीभिरिवानलात् ॥ १६॥ ग्रायतिरिक्तकंठश्व गुर्ण श्रीविमलेशिनः । नियों यन्त्रमादाय नानारागरसान्वितैः ।। २० ॥ हावभाषैरसैस्साले लिललितविग्रहाः । जैगीयन्ते यशोवृन्द स्थूलपानपयोधराः ॥ २१ ॥ मृदंग परहाराचे स्निग्धरम्भास्वनेर्वभौ। नगनं भूतलं चापि भाराशिजयारवैः ॥ २३॥ जिनेन्द्रचरणाम्भोजपवित्र भूधरं सुराः । पुमहता यो नत्या जामि यथायथं ॥ २३ ॥ महता. समलिन गो सत्फल विद्धाति च । जितेंद्रचरणन्यासाद्भूधरो पन्यते जनः ।। २४ ।। - देव नृत्य करने लगे एवं मिलकर भगवान विमलनाथकी जय उच्चारने लगे ॥ १६ ॥ जिस प्रकार कल्पवृक्ष पचनसे झ कोरे खाती हुई लताओंले विशेष शोभायमान जान पड़ता है उसी प्रकार उस समय देव रूपो कल्पवृक्ष भी लाल २ हाथोंसे शोभायमान नृत्यकालमें चलती फिरती देवांगनाओं से अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे ॥ २०॥ सुन्दर शरीरोंकी धारक एवं उन्नत स्थल नितम्बोंसे शोभायमान किन्नरो जातिकी देवांगना अनेक प्रकारको राग रागिनियोंसे युक्त एवं हाव भाव रस चाल ढालोंसे मिश्रित अपने मनोहर कंठोंसे भगवान विमलनाथके गुणोंको वखानने लगीं ।२१-२२ ॥ | उस समय मृदङ्ग और नगाड़ोंके शब्दोंसे कोमल देवांगनाओंके शब्दोंसे एवं इन्द्रोंके द्वारा किये . गये जय जय शब्दोंसे गूजता हुआ समस्त आकाश अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था ॥२३॥ भगवान विमल नाथके चरणोंसे पवित्र सम्मेदाचलको देवेन्द्रोंने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं सबके सव अपने २ स्थानोंपर चले गये ॥ २४ ॥ ग्रन्थकार सज्जनोंको प्रशंसामें कहते हैं कि महान IRD पुरुषोंकी संगति उत्तम फल प्रदान करती है देखो भगवान जिनेंद्रके चरणोंके सम्पर्कसे ही सम्मे दाचल पर्व समस्त लोकका वंदनीय बन गयो ।॥ २५ ॥ जो महानुभाव मौनव्रत और ब्रह्मचर्यत्रत से भूषित सध्मेद शिखरकी यात्रा करते हैं उन्हें संसारमें अद्भुत विभूतिकी प्राप्ति होती है। E TRATAYERRY REATMEहान RAV SH Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्याशं ये फरिष्यति मौनप्रामग्रतानियताः । ते लगतेऽदतां गम व्यवहारासंशयं ॥ २५ ॥ तियें चोषि पदं देवं यांति तग धराश्रयात् । मनुष्या न लभतेऽत तपसा कि परं पदै ॥ २६ ॥ भाहितीत्वतो लेखा निषेवतेऽनिशं मुदा । तद्यानाकन्नराणां च पशन न गतिर्म चेत् ॥ २७ ॥ श्रीमत्सुविधितो मून्मेघदेवस्य साधनं । प्रेश्वरखागस्यान तहिनाइनवर्षणं । २८|| तथा भांडाष्टमी जो पर्वमता हि सोत्सवा । सुकालेतरफालस्य दर्शिनी मध्यरात्र ||२६ ॥ अवैकदा मुनिमें रुः प्रतिमायोगमाश्रितः पर ज्योतिः स्मरन् खाते धराधस्तटे भौ ॥ ३० ॥ निवन्धोनिस्पृहः शांतो कृशीभूयमितो मुनिः । याबध्यो पर धाम मध्यराले स मागध !॥ १॥ इसमें कोई सन्देह नहीं ॥ २६ ॥ श्री सम्मेद शिखरके आश्रयसे जब तियंच भी, देव पद प्राप्त कर ME लेते हैं तब उत्तम तपके आचरणसे मनुष्य तो परम पद प्राप्त कर ही लेते हैं, यह बात विल्कुल निश्चित है। यह सम्मेद शिखर तीर्थ सबसे उत्तम तीर्ध है अनादि निधन है इस लिये देवगण रात्रि दिन इसकी बन्दना करते हैं तथा यह नियम है कि श्रीसम्मेद शिखरकी यात्रा करनेवालोको तिथंच गतिका दुःख नहीं भोगना होता ॥ २८ ॥ भगवान पुष्पदन्तके तीर्थकालमें विद्याधर मेघेश्वर ने मेघदेवका साधन किया था उसी दिनसे वर्षाका प्रारभ माना है वह दिन अष्टमीका था इस लिये उस अष्टमीका नाम भांडाष्टमी पड़ गया जो कि पर्व मानी जाती है और उसमें अनेक प्रकारके उत्सव हुआ करते हैं तथा उस दिन ठीक आधीरातके समय सुभिक्ष होगा वो दुर्भिक्ष होगा | | इस बातकी जांच की जाती है इसलिये संगति वड़ी चीज है ॥ २७–३०॥ ___एक दिनकी बात है कि मुनिराज मेरु, पर्वतके अधो भागमें प्रतिमायोग धारणकर चिदानन्द चैतन्य स्वरूप आत्माका ध्यान कर रहे थे। उस समय वे समस्त प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित थे और निस्पृह थे। आधी रातके समय वे परमात्माके स्वरूपका चितवन कर हीरहे थे कि विद्युन्मालो नामका 12 विद्याधर अनेक पर्वतों पर क्रीडा करता हुभा और आकाशमें विचरता हुआ मुनिराजके ऊपरसे पपERawar Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल नियत व्योमयानं निजं स्फोतं किंकिणीरण मुहुर्मुहुः । इति कारुणो रोद्रः पद समायो विद्युन्माली तो मुनेः। उपर्यकांतया सार्धं क्रीडयन् भुधरेषु च ॥ ३२ ॥ राजितं । स्तंभितं धानुकले विलोक्यांशु कुषं गतः । ३३ ॥ नमोगश्चितयामास रंथि घातैश्यायंस्तत् ॥ ३४ ॥ महिमानी महाविद्यारक्षितो विद्भयप्रदः । केन पापीयसा वो हठात्सामर्थ्यशालिना ॥ ३५ ॥ अवध्यते हंसा व्याधेनाश्यथवा त्वया । मन्नमर्ग तथा केताकारि भग्नगति दिया । ३६ । पश्येय ने वर्ष पापमावश्य मईश्वरा राखघातेंद्र च द्विश्च तं हन्यां दंत दुधिय ॥ ३७ ॥ विश्वरत्वं चिरं स्वति शिंजित विधनुः खगः । जग्राहोड रसामध्य भीषण हरिवत्कुधा ॥ निकता । यह नियम है जहां पर ऋद्धिधारी सुनि विराजते हैं उनके ऊपरसे किसीका विमान नहीं निकलता | विद्याधर विद्युन्मालोका विमान विशाल था छोटो२ घण्टियों से शोभायमान था ज्योंही वह ठीक मुनिराज के ऊपर से श्राया धातुकी कीलोंसे जैसे अटका दिया जाता है वैसे हो अटक गया विमानकी यह दशा देख विद्याधर विद्युन्मालीको बड़ा क्रोध आया एवं वह विमानको पैरोंसे वार बार चलाता हुआ अपने मनमें इस प्रकार विचारने लगा यह मेरा विमान अनेक महा विद्याओंसे रक्षित है। बैरियोंको भय प्रदान करनेवाला है किस बलवान पापांने मेरे विमानको रोक दिया है । ३१ - ३६ ॥ आश्चर्य है जिस प्रकार हंसको व्याध पकड़ लेता है उसी प्रकार भाई ! तुझ किस शत्रुने मेरा विमान पकड़ कर बांध लिया है ॥ ३७ ॥ मैं भी तु पापो वैराकी खोज करता हूं। मैं तुझ दुष्ट बुद्धिको शस्त्रों के घातोंसे और पत्थरों से अभी प्रास रहित कर दूंगा। बस इस प्रकार दृढ विचार कर शीघ्र हो उसने धनुष हाथमें ले लिया एवं मारे क्रोध सर्प के समान भयङ्कर हो वलवान उस विद्याधरने शीघ्र ही धनुष पर बाण चढ़ा लिया । लक्ष्य बांधकर वह नोचेको फेंकता ही था कि उसकी स्त्रीने उसका हाथ पकड़ लिया एवं वह अपने पति विद्याधरका इस प्रकार समझाने लगी--- お味 पत्रपत्रप Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषAJANIYA ॥ ३८॥ संधायाशुगतिं यावयोमागे अलोवली। क्षितुमिच्छति तावत्स गृहोतो रामया करे ॥ ३६॥ श्रयता मारक नाथ! वचः परमपावन अधिमृश्य पिधेयं न कृत्य सभ्येन धीमता व स्वकीय घलमज्ञाय ये कुर्वन्नि यशठात वष निधनं यांति स्वाहानार्थ पतंगवन् ॥४१॥ येनादः स्तंभित व्योमयानं महतवैव सः । स्याङ्कली तहि दुःखोन जीयते फणिने वोट ॥ ४२ ॥ पड़ा नो जीयते शत्रु सहा कार्तिःप्रयश्यति । तस्यां धिरजावित नणी गतायां गततेजसा ॥४३॥ नाभिश्चत्वारि कृत्यानि नो विधयानि गत विमृश्यकारिणं गाधं वृणाते यजपाधिमा ४५ भामायास्तवः श्रुत्वा विद्वद्विवंचं हितं । अगौ मा नभाभागो काता कामग्रियोपमा प्राणनाथ ! मेरे हितकारी वचन सुनिये जो मनुष्य सभ्य और बुद्धिमान हैं उन्हें विना विचारे C] कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये ॥ ४७-४१॥ जो मनुष्य अपनी शक्तिको न जानकर विना विचारे ही बल कर बैठते हैं वे मूर्ख कहलाते हैं एवं अग्निमें गिरकर जिल प्रकार पतंग खाख हो । जाता है उसी प्रकार वे भी मृत्युके कयल बन जाते हैं ॥ ४२ ॥ स्वामिन् ! जरा विचारो तो जिसने तुम्हारा यह विमान रोक दिया है वह यदि तुमसे अधिक वलवान हो तो जिस प्रकार सर्पसे । गरुड़का जीता जोना कठिन है उस प्रकार तुमसे उसका जीतना कठिन हो जायगा ॥४३॥ यदि 195तुम शत्रुको न जीत सकोगे तो तुम्हारी कीर्ति नष्ट हो जायगी। कीर्तिके नष्ट हो जानेसे मनुष्य ।। तेज रोहत हो जाता है फिर उसका जीवन ही विफल माना जाता है ॥४४॥ बुद्धिमान मनुष्यों । * को चाहिये कि वे चार वातोंके करने में जल्दी न करें विचार पूर्वक ही हर एक कार्यको करें क्योंकि 5. जो पुरुष विचार शील हैं लदमी उन्हें आपसे आप भाकर वर लेती है ॥ ४५ ॥ विद्वानोंसे भी KC जल्दी नहीं कहे जानेवाले एवं हितकारी अपने स्त्रीके बचन सुन विद्याधर विद्युन्मालीने कहा ___रतिके समान परम सुन्दरी भ्रमरोंकी पंक्तिके समान काले कटाक्षोंसे शोभायमान भृग लोचनी प्रिये! तुमने कहा है कि विद्वानोंको चार कार्य जल्दी नहीं करने चाहिये तो वे चार कार्य कौन है NAYAYANAYA NAYA MEREKINERAL Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |४५| हें प्रिये चम्बकालीकटाक्षे मृगलोचने । कानि चत्वारि कृत्यानि कर्तव्यानि च धीमता ॥४६॥ पुनः प्रोद्द प्रियं धारं वीरवान्यामलो चना | अकालगमनं चैकं विषमां गोष्ठिकां ततः ॥४७ कृमित्रः सह सांगत्यं कामाभावात् युधाः । परस्त्रीभिः समं नैव कुर्व ति शर्म कक्षिणः ॥ ४८ ॥ अथाल विद्यते नाथ! प्रवृत्तिः कथ्यते मया । यूर्य ष्टणुत तो रायां श्रद्धान्वीतेन चेतसा ॥ ४६ ॥ महामोर्ट जन तेऽभूत् ष्ठां कौमारपालकः । शतपचारात्सु कोटोनां दीनाराणां प्रभुर्महान् ॥ ५० ॥ प्रियंगुसुन्दरी हस्य दायितःस्ति गरीयसी । तयोः स्यातां सुतौ धौ व रम्यौ क्तिविचित्रको ॥ ५१ ॥ चित्रोऽभूद्य तसंसको रायं नीत्वा गृहदिद । तद्भ्योऽनिशं पितृदुःखशेमfarer format oी वड़ी गम्भीर और बुद्धिमती थी अपने स्वामीको उसने इस प्रकार उत्तर दियाप्रथम वात तो यह है कि मनुष्यों को जहां कहीं भी जाना चाहिये समयमें नहीं जाना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जो गोष्ठी - संगति विषम हो उसमें सम्मिलित नहीं होना चाहिये सत्सङ्गति हीं करनी चाहिये। तीसरी बात यह है कि जो कुमित्र हैं उनके साथ किसी प्रकारका सहवास नही करना चाहिये और चौथी बात यह है कि जो मनुष्य अपने कल्याणके आकांची हैं उन्हें चाहिये कि वे परस्त्रियोंसे किसी प्रकारका अपना काम न सटता देख रंचमात्र भी उनसे कोध न करें ॥ ४६-४६ ॥ इसी सम्वन्धमें एक कथा प्रसिद्ध है । एकाग्र चित्त हो ध्यान देकर सुनो मैं क्रमसे कहती हूं - इसी पृथ्वीके महाभोद देशमें एक कुमार पाल नामका सेठ निवास करता था जो कि छप्पन दोनारोंका स्वामी था । उसकी स्त्रीका नाम प्रियंगुसुन्दरी था और उससे चित्र विचित्र नाम के दो पुत्र उत्पन्न थे || ५० ५२॥ दोनों पुत्रोंमें चित्र नामका पुत्र बड़ा ही ज्वारी था। वह ज्वारियोंको प्रतिदिन घर से निकालकर धन दिया करता था । पिताको बड़ा कष्ट देता था और सदा पागलके AYAYAYAY Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५३ ॥ विचित्राको बदन् ॥ ५२ ॥ मत्या पुत्र विकीर्तितं श्रेष्ठ दवा किन पृथक्नो गुहा लघुत्वा मातरं पितरं शुभः । चचाल सिंहलद्वीपं वाणिज्यायें धनप्रियः ॥ ५४ ॥ सा गोराशि त दो चार पुण्यवः । वसु छ दशकोटीनां व्यापारं कृतवान् सकः || ५५ ॥ अथाज्ञानेन चित्रेण भुकं सर्व वसू स्वरा निःस्त्रोभूयं समाप्येव व्याविति मोडतरे ॥ ५६ ॥ स्वर्णव्यादिधानां कर्तुः पार्श्व यह सदैव गुटिकायां स्वीकयतिः ॥ ५७ ॥ स्वेति मान यात्रस्थि तस्ताचट समाफणत् । कापाली प्रेतकोठारे फालन्दाख्यगमत् ॥ ५८ ॥ ख्यात' तं योगिनं श्रुत्वा नील्या मिष्टान्नागतः । तस्याओं | समान बड़ २ करता रहता था ॥ ५३ पुत्रको इस प्रकार जूझाका व्यसनो देख सेठ कुमारपालने उसे कुछ धन देकर जुदा कर दिया तथापि उस दुष्टने जुआ खेलना नहीं छोड़ा ॥ ५४ ॥ छोटा पुत्र विचित्र वड़ा ही सुशील और अच्छा था और धनमें विशेष प्रेम रखता था इसलिये अपने | पिता माताको नमस्कार कर वह एक दिन सिंहल द्वीपकी ओर व्यापार के लिये चल दिया ॥ ५५ ॥ विशाल समुद्रको तर कर वह अपने विशिष्ट पुण्यके उदयसे सिंहलद्वीप जा पहुंचा और बारह करोड़ दीनारों से उसने व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया ॥ ५६ ॥ PAYA बड़ा पुत्र चित्र देशमें ही था । उसने धन खा बिगाड़ डाला जब उसका सारा धन नष्ट हो | गया उस समय वह अपने मनमें विवचारने लगा जो पुरुष सोना रूपा यादि धातुओंका बनानेशला हो यदि मैं उसके पास थोड़े दिन रहूं तो मैं गुटिका विद्या (सोना आदि बनानेकी विद्या) शीघ्र सीख लू क्स ऐसा विचार कर वह बैठा ही था कि उसी समय कालन्द नामका एक कापाली श्मसान भूमिमें आ पहुंचा जो कि अङ्गमें भवूति रमाये था । चित्रने भी कापालोके यानेका समा चार सुना । शोध ही मिष्टान्न लेकर वह उसके पास गया । नमस्कार किया एवं वत्र पुष्प फल भेंट कर दिये ।। ५७-६० || चित्रकी यह चेष्टा देख कापालीने भी समझा कि यह बड़ा भक्त हैं इस 「絶縁んがん Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HECKERA ऽमूमुक्वचित धासपुष्पफलानि च ॥५६॥ योगी मरवा परभक्त सम्मान पहुंचा ददौ।स्वार्थाधारोऽस्तु सत्पमा स्वार्थः प्रेम प्रियो हितः।।६० ॥ सदासर सामारभ्य चित्रोभसमांगिनोऽकरोगा भक्ति भूरितरां नित्यं दिवानक्तं प्रतिक्षणं ॥६१॥ षण्मासा वधिमास्थित्वा गन्तुकामो बभूव सः । तदाषमाण चित्रस्तमिति प्रमाद्रमानसः ।। ६२॥ हे अनाम दीनेश ! मन्वाहनमहासुरः । तथा त्वं देहि मे स्वामिन् भुनज्म्या तीयितं सुख ॥ ६३॥ लगो तदुमक्तिभारेण प्रसन्नीभूय पेत्य वै। स्वर्णसंपादिसद्वियां दत्त्वीया चति तं भृशं ।। ६४१ मध्यरात्रं त्यया बाल ! विधषो विधिकत्तमः । विद्याया गुप्तमावेन सिद्धि; संपद्यते सदा ।। ६५ ।। गते तस्मिन् लिये उसे बड़े चाव अादरसे विटाया ठीक ही है जिससे स्वाथ सटता है वही मनुष्योंका प्यारा होता है क्योंकि स्वार्थ ही प्यारा और हितकारी माना है ॥ ६१ ॥ उस दिनसे लेकर चित्र प्रतिक्षण योगीकी टहल चाकरी करने लगा। वह कापाली छह मास तक वहां ठहरा । छह मासके बाद | व उसने चलनेका विचार कर लिया। कापालीको इसप्रकार जाते देख चित्रने प्रेमसे गदगद हो उससे इसप्रकार विनय पूर्वक प्रार्थना कीP प्रभो! आप कामदेवके समान सुन्दर हो। दीनोंके स्वामी हो एवं मन्त्रसे महासुरको बुलाया देने वाले हो । स्वामिन् मुझे कोई ऐसा मन्त्र दीजिये जिससे मैं अपना जीवन सुखसे बिता सकू। ॥६२-६४ ॥ कापाली तो चित्रकी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न था ही। उसने शीघ्र ही उसे सुवर्ण P बनानेवाली विद्या प्रदान करदी और सेठपुत्र चित्रसे यह कहा-- प्रिय बच्चा ! ठीक आधी रात के समय तुम इस मन्त्रको विधि पूर्वक साधना क्योंकि विद्याकी सिद्धि गुप्त रूपसे ही होती है यह नियम है वस इसप्रकार मंत्र देकर कापाली अपने अभीष्ट स्थानको चला गया। सेठ पुत्र चित्रने उसके पीछे अनेक रसोंमें तामे और हंसपाक रसका सोना बनाना प्रारम्भ कर दिया। इस रूपसे उसने पांचवार जाज्वल्यमान और उत्तम सोना बना लिया wa T i-T- ma Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल eks kamalay महापये किलो नानारसैध स् । हाटके ताम्रलोहस्य ईसपाकरसस्य वा ॥६६॥ पञ्चकत्यो बिधायासी दोन जम्बुन धनं। दध्याधिति निजे चित्तं तृष्णसिंधमिमध्यगः ॥ १७॥ यस शैलटे सन्ति बल्लीजालानि वेगतः । तत्र गत्वा धनं पूर्ण कृत्वा तिष्ठा. मि समि ।।६८॥ एकदा धनुगवाय निषा सशरपुनः । निशोथे निर्ययो चिनो महेंद्र भूधर प्रति ॥ ६।। अस्मिन्नवसरे भ्राता विचित्राख्यो महामनः । अर्धापरवा धनं प्राज्यं सेवकैदशभिः सह ॥ ७० ॥ अदूरपति मत्वा स्व पतन नगराभिध। द्वादश वत्सरे तस्मिन् मार्ग समुत्सुक्तः ॥ 5 शासन' को प्रजजल्पेऽग्रजोऽनुज । श्यामाया का समायासि निशि बृतानु त | सोनेके इस प्रकार तयार होने पर उसका तृष्णा समुद्र बराबर बढ़ने लगा इसलिये एक दिन उसने अपने मनमें यह विचार किया| जिस पर्वत पर बहुत सी लताये हों वहांपर जाकर मुझे बहुतसा सोना तयार कर लेना चाहिये। एवं पीछे भानन्दसे घरमें रहना चाहिये ॥६५-६६ ॥ एक दिन हाथमें उसने बाण चढ़ाया हुआ - धनुष लेलिया एवं ठीक गत्रिके समय वह महेंद्र नामक पर्वतकी ओर चल दिया ॥ ७० ॥ वह पहाड़ पर जाकर पहुंचा ही था कि उसी समय उसका छोटा भाई विचित्र जो कि अत्यंत वुद्धिमान था बारह वर्ष बाद लौटकर अपने देश आया एवं अपना नगर नामका पुर बहुत ही समीप समझफर केवल दश सेवकोंके साथ उस मार्गसे अपने पुरकी मोर जाने लगा। जिस समय यह महेंद्र पर्वतके पास आया और चित्रने उसे देखा शीघ्र ही उससे इस प्रकार पूछा___अत्यन्त अधियारी रातमें यह कौन जारहा है। शीघ्र उत्तर दो। चित्रके इस प्रकार पूछने पर | विचित्रने भयभीत हो इस प्रकार उत्तर दिया-तुम्हीं बतलाओ तुम कौन हो। शीघ्र बतलाओ। नहीं अभी चक्रसे तुम्हारे दो खण्ड किये देता हूं ॥७१-७४॥ विचित्रकी इस प्रकार निष्ठुर वाणी। सुन चित्र भी भयभीत होगया। एवं अपने भाई विचित्रको अपनी अजानकारीसे बैरी मान उसके। S Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ asaपापा Tat भवान् ।। ७२ | सन्निशम्य तदा थोचमिचिवस्त भयारवैः कोऽसि त्वं हि वेगेन चान्यथा इन्मि चक्रतः ॥७॥ धुत्वा तन्निष्ठ गं पाचं ततकात स्वागनस । चित्राख्यो भौतचित्तः सन् प्रतिकूलजिधांसया ॥४॥ विश्वस्तो दुर्जनो नन इंति दंत हठोन्नर । अतो यावश्यं शनशिपत्तावदहं म ।। ७५ | विचार्येत्यै मुमोचाशु शिलीमुखमहो कुधा । विचित्रण तथा ध्यात्वा वायचक्र दुनोद है ॥ ७६ ॥ इषणा दये मिन्नो पिचित्रो मृतलेऽपतत् । चक्रण युगपश्चित्रो द्वाचेतौ निधन' गतौ ॥ ७७॥ अतो मतों निशामागेऽन्यात्मा लोकधिवेकता ! जायते नास्यते जातु शास्त्र' पुरसा भवादशा ॥ ७८ । निशीथे गमनं चापि न विधीयेत धीधनः। येनानिष्टसमु. मारनेकी इच्छासे उसने यह विचार किया। यदि दुर्जन पर विश्वास कर लिया जाता है तो वह नियKalमसे पुरुषको मार डालता है मुझे भी इसकी बातपर विश्वास नहीं करना चाहिये इसलिये जब तक यह शस्त्र मेरे ऊपर न छोड़े उसके पहले ही मुझे इस पर शस्त्र छोड़ देना चाहिये यस ऐसा विचार | चित्रने शीघ्र ही विचित्र पर वाण छोड़ दिया। विचित्र भी उधर क्रोधायमान था जब चित्रसे ke उसने कोई जबाव नहीं पाया तो उसने चित्र के समान अपने मनमें दृढ़ विचार कर चित्रपर चक्र छोड़ दिया ॥ ७५-७७ ॥ देखो कर्मोंकी विचित्रता उसी समय चित्रके बाणसे विद्ध होकर तो विचित्र गिरकर मर गया और उसी समय विचित्रके चकसे कटकर चित्र जमीन पर गिरकर मर गया इस प्रकार द्वोनों ही मृत्युके कवल बन गये ॥ ७८ ॥ यह कथा सुनाकर विद्युन्मालीकी स्त्रीने अपने स्वामी विद्याधरसे कहाSI इसीलिये में कहती हूं कि रात्रिके गाद अन्धकारमें दूसरे मनुष्यका ज्ञान तो होता नहीं इस. लिये तुम्हारे सरीखे बुद्धिमान पुरुषको बिना विचारे रात्रिके समय शस्त्र न छोड़ना चाहिये ॥ ७ ॥ तथा जो पुरुष बुद्धिमान हैं उन्हें रात्रिमें गमन भी नहीं करना चाहिये क्योंकि रत्रिमें गमन करने से अनेक प्रकारके अनिष्टोंका सामना करना पड़ता है तथा जिसमें अनिष्ट जान पड़ते हैं बुद्धि. 长长长长长然后把整版影空余条后卷 R Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पतिस्तत्कृत्यं त्यज्यते प्रयं ॥ ७६ ॥ कुलीनैर्नरैः सार्धं परस्यादि कथं भवेत् । सा चैव विषमा गोष्टिबु धास्तामासरति न ॥ ८० ॥ एकदा मानसे हंसा जलकल लराजिते । स्यामा कीडयन् स्थेरं बभाषेति प्रियां प्रियां ॥ ८२॥ हे कांते शुक्तिजाहारे ! कोप्यस्ति चाधयोः प्रभुः । येन सार्धं विधायः मैत्रीं देव्यते स्कुट ||८|| व्याजहार मरालो, तं शृणु त्वमिति नद्वचः । सर्वेषां वयवांमध्ये मान्योऽसि एवं गुणालयः ॥ ८३ ॥ जले एवं तिष्ठसि पक्षिन, मकरन्दति भवेत्ते हि फारणं विना ॥ ८४ ॥ तिपक्ष स्तदादीत् पेशल प्रिये! सर्वे विद्यनाथस्तत्कर्थ नावयोः स च ॥ ८५ ॥ ऋते गुरो ऋते राश ऋन इविणतो भुवि । जीवितं तेनायां ऋते शानाहूया नृप ।। ८६ । विनाधीशं रुला लोफा वर्तते न्यायवर्त्मनि । स्तेयकर्मकराः सन्तो न सन्ति मान लोग उस कार्यको सर्वथा छोड ही देते हैं ॥ ८० ॥ नीच पुरुष के साथ पर स्त्री आदिकी कथा करना fan गोष्ठी कही जाती हैं विद्वान लोग ऐसी गोष्ठीका आश्रय नहीं करते ॥ ८१ ॥ कुमित्रकी सङ्गत विषय में एक किं वदन्ती कथा है और बह इस प्रकार है एक हंस अनेक तरङ्गसे शोभायमान मानसरोवर में क्रीडा करता धा एक दिन कोड़ा करते २ उसने अपनी प्यारी हंसिनीसे कहा -- मोतियोंसे शोभायमान प्रिये ! अपना ऐसा भो कोई स्वामी है जिसके साथ अपन मित्रता कर सकें ॥ ८१-८३ ॥ उत्तरमें हंसिनीने कहा- मेरी सुनो समस्त पक्षियों में तुम मान्य और गुणोंके स्थान हो । जलमें तुम रहते और कमलदंड खाते हो तुम्हीं कहो तुमसे बढ़कर राजा कौंन हो सकता है ! ॥ ८४-८५ ॥ उत्तरमें हंसने कहा तुमने कहा सो तो ठीक परन्तु जब संसार में सबका कोई न कोई स्वामी माना जाता है तब हमारा भी कोई स्वामी हो सकता है। संसार में गुरु राजा धन श्री और ज्ञान के बिना मनुष्यों का जोवन विफल है । विना स्वामीके समस्त जन न्याय मार्गपर नहीं चलते। चोरी करनेवाले होजाते एवं धर्मायतनोंमें जाने की लालसा नहीं रखते ॥ ८२ ॥ इस लिये मैं अपने सुखकी आशा Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वृषास्पदं ॥८७t अतोऽई निजसौख्याय खामिधर्मस्वतः प्रिये! | पृच्छामि नपति स्वीय विवेदय निवेदय ॥४८॥ अत्याग्रहयशेनाह माली सं शितच्छई। सय गिरी सवाधीशः समास्ते निशि संवरन् । ८8 श्वेतपतो गतस्तत्र सार्य पत्न्यागि वारितः। अमे स्थित्वेक्षते यावसाघटसोऽपि समाययौ ॥१०॥ मन्वयुकत्युलकर कोऽसि कस्मारसमाटितः कास्ति बासस्वहि किमर्थ चागमोऽत्र वा।। ११॥ काकारियच सो निशम्योवाच वेगतः । तथास्मि किंकरे राजन् ! त्वत्सेवाय समागतः॥ १२ ॥ मराठीय वचः श्रुत्वा तुलो पधवांचराड भृशं । साधनोत्या गिगै याति दर्या विषकानने ३ एकदा वक्षभिवंसं जगादेति विभीकरः । किं भुनक्षि स्पर्क येन सुन्दो दृश्यसे मृदुः॥ १४ ॥ तदा प्रादति तं पत्रो स्थान में मानसे विमो ! तासामरसानां चमकर भुनज्म्यहं ॥ १५॥ दर्शय प्रह RIYYYI से स्वामीको पहिचानना चाहता हूं हमारा स्वामी कौन है। तुम जल्दी बतलाओ ! ॥८६॥ अपने स्वामी हंसका जब यह अति आग्रह देखा तो उसने यह उत्तर दिया-सह्य पर्वत पर रात्रि में घूमता | हुआ तुम्हारा स्वामी रहता है ॥ ३० ॥ शाम के समय हंस अपने स्वामीको खोजने चला यद्यपि हंसिनीने बहुत मना किया परन्तु उसने एक न सुनी। वह पर्वत के ऊपर पहुंचा ही था कि उसी समय जिसको उसका स्वामो बनाया गया था वह भी वहां आगया ।। ६१ ॥ उल्लको हंसका स्वामो हंसिनोने वतलाया था। उल्लने जिस समय हंसको देखा-इस प्रकार पूछना प्रारम्भ कर दिया- तुम कौंन हो कहांसे आये हो कहा तुम्हारा स्थान है और यहां किस लिये आये हो जल्दो | बोलो ! उल्लके ऐसे वचन सुन हंसने कहा- राजन ! मैं आपका सेवक हूं आपकी सेवा के लिये यहांपर आया हूं। इसके इस प्रकार वचन सुन उल्लू बड़ा प्रसन्न हुआ और भयङ्कर बनमें पर्वत को गुफामें बड़े आदरसे लिया गया ॥ ६१-६४ ॥ एक दिन उल्लूने हंससे पूछा भाई तुम बड़े on सुन्दर और कोमल जान पड़ते हो कहो तो तुम खाते क्या हो! उत्तरमें हंसने कहा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KPKSASTAK PAPAPAY निजं धाम तथेति प्रतिपद्य सः । नोत्था काकःप्रियं मूढो मानसे त्वरया गतः ||१६|| मध्यरात स्थितो लूकः सर्व पश्यति पापभाक् । हिंसा निद्राकुला जातास्तदेवान्यकथाऽभवत् ॥ ६७ ॥ इन्सराजाभिधत्तस्मिन्मार्गे याति धनुर्धरः । रराट दक्षिणे लूकोऽक्षिपाणं तदा स्व तं ॥ ६८ ॥ तेनेषु पश्यता पूर्ण मलूकेन पलायितं । तदा तद्वाणघातेन हंसः पञ्चमाप सः ॥ ६६ ॥ कुमित्र ेण सतं मैत्रीधनं धान्यं चतुष्पदं । उर्जा मानं मद्रं प्रेम जीवितं नाशयत्यपि ॥ १०० ॥ अतो नाथ ! न कर्तव्या मित्रस्य च संगतिः । यतो नश्यति सन्तॄणां मतिर्विद्या व कौशल ं ॥ १०१ ॥ निशां भूतिरी मरवा खगपत्नी कथां जग । परस्त्रीकोधसंभूतां मनोनिर्देशं नृणां ॥ १०२ ॥ शृणु माथ महादेशे गांधारे नामकः । व्यवहारी विद्यते दानी परन्तु विषयी महान् ॥ १०३ ॥ तल वास्ते धनी श्रं ष्ठी श्रीपालाख्यो स्वामिन्! मेरा घर मानस सरोवर है वहां में मृणाल दण्ड खाया करता हूं ॥६५–६६॥ उल्लूने कहा भाई ! तुम्हारा घर मानस सरोवर कैसा है हमें भी दिखा दीजिये भोला हंस उसको बातों में आगया और उसे मानस सरोवर पर ले आया ॥ ६६ ॥ ॥ रात्रि के घोर भी अन्धकारमें उल्लूको तो सब दीखता ही है। जिस समय सारे हंस तो सो रहे थे और उल्लू जग रहा था उस समय यह घटना उपस्थित होगई जहांपर हंस रहते थे उसो मार्ग से एक हंसराज नामका धनुर्धारी मनुष्य निकला। धनुर्धारी मनुष्यकी ठीक दाईं ओर उल्लू बैठा था। धनुर्धारीको देखते ही वह चिल्लाने लगा । धनुर्धारीने अपना अपशकुन समझ उसपर बाण छोड़ दिया दुष्ट उल्लू भाग गया। बाणके घाव से हंस विचारा मर गया इस लिये यह निश्चित है दुष्ट मित्रके साथ की गई मित्रता धन धान्य, पशु आदि, लज्जा मान गौरव प्रेम और जीव सबकी नाशक होती है ॥ ६७-१०२ ॥ हे स्वामिन्! बुद्धिमान मनुष्य को कभी भी कुमित्रकी संगति नहीं करनी चाहिये क्योंकि बुद्धि विद्या और कुशलता सभी कुमित्र संगति से नष्ट हो जाते हैं ॥ १०३ ॥ उस समय अधिक रात्रि जानकर विद्याधर विद्युन्माली L SERERERER Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGRY t चिच्छना बहुप्रदः तत्परनी सुन्दरी नास्ता इति किं चामरप्रिया ॥ १०४ ॥ नामैकदा हृष्ट्वा तां चकोर शः । निर्तवस्तनभारण मंधरां विलोम ॥ १०५ ॥ प्रत्यहं तद्गृह याति केन सवां । विलोकितु महामोहमूर्च्छितः पापपण्डितः ॥ १०६ ॥ "एकदा तो हटात्कृत्वा समालिंग्य जगाविति । भो श्यामे मद्रचः सार प्रमाणीकुरु सादरं ॥ १०७ ॥ चाई निर्धाटितो दुष्टो जजल्ल दुःखदं वचः । पश्याई ते करिष्यामि वहनर्थपरंपरां ॥ १०८ ॥ धृष्टं भत्वा तदा साइ शृणु त्वं मद्वचः प्रयो!। विभेमि मत्प्रियान्नून की स्त्रीने परस्त्रीके क्रोध से क्या फल प्राप्त होता है यह कथा कहनी प्रारम्भ कर दी जो कि मनुष्योंके चित्तको वैराग्य उत्पन्न करने वाली थी । वह कथा इस प्रकार है गान्धार नामके महा देशमें एक रुद्र नामका व्यापारी रहता था जो कि दानी तो था परन्तु महा विषय था। उसी देशमें एक श्रीपाल नामका भी सेठ रहता था उसकी खीका नाम सुन्दरी था जो कि ऐसी जान पड़ती थी कि यह कामदेवकी स्त्री रति है या कोई देवांगना है ॥१०३-१०५॥ एक दिन व्यापारी रुद्रने चकोर नयनी एवं नितम्ब और स्तनक भारसे मन्द २ चलनेवाली सेठानी सुन्दरीको देख लिया । पापी वह मोहसे मूर्छित हो विकल होगया एवं किसी न किसी बहानेसे प्रति दिन उसको देखने के लिये उसके घर जाने लगा ॥ १०६ -- १०७ ॥ उसने बहुत चाहा कि सुन्दरी सीधे साधे मेरे काबू आजाय परन्तु वह न फसी इसलिये एक दिन रुद्रने उसे जबरन पकड़कर आलिङ्गन कर लिया एवं इस प्रकार अनुनय विनयके वचन कहने लगा ' सुन्दरी ! मेरी बात सुन और उसे स्वीकार करले । में तेरा बड़ा कृतज्ञ हूंगा । सुन्दरी बुद्धिमती थी उसने एक भी बात रुद्रकी न सुनी एवं पकड़कर जबरन घरसे निकाल दिया । रुद्र तो दुष्ट था ही । सुन्दरीके द्वारा अपना यह घोर अपमान देख उसे बड़ा रोष आया। सैकड़ों गाली की कीं एवं यह कह कर कि अच्छा तुझे देख लूंगा यदि तेरे सैकड़ों अनर्थ न कर डालू तो KEKYKLAEKKI पकाएपAYAYAYAN पुर Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ३८० मन्यथा त्वं पतिर्मम ॥ १०६ ॥ यामध्येति समानीतः समध्ये धनी तथा । अत्रांतरे समायातः श्रीपालो द्वारि सद्मनः ॥ ११० ॥ मंजूषायां महार्घायां विशयां रत्नराजिभिः । क्षितो भर्तुर्भिया रुद्रो दत्ता मुद्रायसी ततः ॥ ११९ ॥ जगाईति पुरो भर्तुः सुन्दरी ललितं पवः । स्वामिन्तात्मगृ मृत्य समागत्येनिजः ॥ ११३ ॥ मंजूषा विद्यते राया मार्क कुंकु मारुणा: प्रजा यावते तां यः प्रेषणीयः प्रयस्नतः ॥ ११३ ॥ नीत्वा तां वैगतो भीतः श्रीबगलो भूपतेः पुरः । मुक्होबाचेति तां रम्यां स्फुटार्थी गुणगर्भितां ॥ १.१४ ॥ देव मे सिंह पारसमायाता मनोदिसतो मंजुरा मणिभारेण भूषिता लोचनप्रिया ॥ ११५ ॥ प्राभृती I | मेरा नाम रुद्र नहीं, चलने लगा ॥ धव्या लगता देखा इसलिये शांत हो स्वामिन्! मेरी बात सुनो। १०८ - १०२ ॥ रुद्रके इस दुर्व्यवहारसे सुन्दरीने अपनी कीर्तिपर प्रिय वचनोंमें वह इस प्रकार रुद्रसे कहने लगीअपने पति से डरती हू । यदि मुझे उनका डर न होता तो मैं नियमसे तुम्हें पति बना लेती । तथा ऐसा कहकर उसने शीघ्रही रुद्रको अपने घर के भीतर बुला लिया। उसी समय उसका पति श्रीपाल भी महलके दरवाजे पर आगया । महलके भीतर रत्नोंकी जड़ी एक बहु मूख्य संदूक थी । अपने स्वामीके भयसे सुन्दरीने रुद्रको उसके भीतर छिपा दिया और बाहिर से ताला जड़ दिया ॥ १११-११२ ॥ एवं अपने स्वामी के सामने उसने यह शांतिमय वचन कहा -- स्वामिन्! अपने घर राजाके सेवक आये थे । अपने घर में जो केसरके समान रंगकी रत्न जड़ी संदूक है राजा उसे मागता है तुम शोध उसे राजाकी सेवामें भेज दो ॥ ११२-- ११४ ॥ राजाकी आज्ञासे श्रीपाल डर गया वह शीघ्र ही राज सभाकी ओर संदूक लेकर चल दिया एवं राजाके सामने रखकर मनोहर स्पष्ट और गंभीर बचनोंमें उसने इस प्रकार कहा स्वामिन् । मणियों से शोभायमान लोचनोंको प्यारो और अभीष्ट यह संदूक में सिंहलद्वीपसे अपत्र पप Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियतेऽस्माभिमुह्यता मीनपेतुभ । देवागार नपागार युक्त तदयं पुनः॥ ११६ ॥राज्ञा नीत्या शौ सिंधुस्वामिने सौहदावलु। स ऽपि नीत्वा निज धाम गंतुकामो कपाज्ञया । १९७॥ चचाल चतुरंगेण बलेनामा यदा तदा । पलं मत्वाध भेरुण्डो गृहीत्वैट्गनांगणे ॥ ११६॥ सिंधुराज सैब मोचिता सागरेऽपतत् । यदा निष्कास्यते मृत्यैस्तन्मध्यस्थो जगाविति ॥ ११६ ॥ कच्छा ताधषणा जोइपणा पण्डिया च सहपवरा । तयण्णादरदिया इच्छकडक्खे हि णो भिषणाः ॥ १ ॥ राजभृत्याश्च भीशीता गल्या नरपतेः पुराव्याचरतिस्म भो वेव! मंजूषेय मजल्यति ॥ १२०॥ किंयक्ति प्रत घेगेन गाथा का ख्याता तदा प तैः । श्रुत्वा धरापतिः प्राह भो भो भृत्या निशम्यतां ॥१२॥ केन घिविदुषा पुसा वर्ततेऽधिष्ठिता शुभा । अतो वेगेन सा । TEESERVERIKI HS लाया था उसे मैं आपकी भेंट कर रहा हूं क्योंकि देव मंदिर वाराज मन्दिरमें ही इसका होना युक्त है राजाने उसे सिंधुराज नामक व्यक्तिको देदिया वह भी राजाकी आज्ञासे उसे लेकर चतुरङ्ग सेनाके साथ अपने घरको ओर चल दिया एवं आगनमें आकर वह संदूक उसने रखवा दी, उस समय भेरुण्ड IME नामका पक्षी आकाशमें उड़ रहा था उसने वह संदूक मांसका लोदा जाना इसलिये वह चूचसे । PC उठाकर आकाशमें उड़ा लेगया। सिंधुराजके नोकरोंने बड़ी कठिनतासे उसे छुटाया तथापि वह समुद्रके अन्दर जाकर पड़ गई। सेवक जब उसे निकालने लगे तो उसके भीतरसे यह शब्द निकला रुद्रके सिवाय सभी मनुष्य संसारमें कृतार्थ हैं धन्य योगी पंडित बुद्धिमान तत्वोंके जानकार और स्त्रियोंके जालमें नहीं फसनेवाले हैं केवल रुद्रही इनसे विपरीत और दुष्ट हैं" संदूकके से भीतग्से इस प्रकार शब्द सुनकर राजाके जितनेभर भी सेवक थे मारे भयके व्याकुल होगये दौड़ते दौड़ते शीघ्र ही वे राजाके पास पहुंचे और इस प्रकार कहने लगे-स्वामिन ! जिस संदूकको Re अपन ले गये थे वह संदूक बोलती है ॥ ११५---१२२ ॥ सेवकोंसे यह समाचार सुन राजाको भी वड़ा आश्चर्य हुआ। इसलिये शीघ्र ही उसने पूछा-संदूक क्या बोलती है ? सेवकोंने जो गाथा KHERAPYTEY IMMERE Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kakkarKERY न रम्या नीयता धारिंगशिनः ॥ १२ ॥ मातानुते यदा याति मंजूषा रत्नरंजिता । पाठीनोऽजीगिलत्तूर्ण' वृथाऽसौ निधन गतः ॥ १२३ ।। तथा मतः परस्त्रीणां संगं कुर्वनिये जहा। एष निधन योति स्वश्रेष्ठीव निश्चितं ॥ १२४ ॥ शुभेत धिनायें व विद्भिः कुलछेटुमिः। कार्य सदानं भर्तस्वादानकोतिमिः ॥१२५॥ विद्युम्माली समाधीशः अस्वा जायावचोजगौ। हे प्रिये ते मरा मूढा योषिताक्या नुगामिनः । १२६ ॥ सामीण तबमाणेति योषाया यद्वितं क्यः । उररीक्रियते सद्भिर्नाहितं विदुषामपि ॥ १२७ ॥ अधिक्षिप्य प्रिया वापय मुमोचेषून कषु पतु सः । वन्यजन्मा जनावैः प्रपोजीविता: १२८ ॥ आशुगाल्या तपोऽम्भोधिर्म में परिवापरः । मुनीशो | उसके भीतरसे सुन पड़ी थो कह सुनाई। राजा सुनकर अवाक रह गया ! और तो उससे कुछ नहीं बना। यही उसने सेवकोंको आज्ञा दी। सुनो भाई ! किसी विद्वान पुरुषका उसपर अधिकार है इसलिये तुम शीघ्र ही समुद्रसे उसे ले आओ। राजाको आज्ञानुसार भृत्य उसे लेने के लिये गये वे समुद्रके पास पहुंचे ही थे कि एक - विशाल मच्छने उसे लील लिया इस रूपसे विना कारण रुद्र मृत्युका कवल बन गया ॥१३३-१२५॥ इस प्रकार पर स्त्रीके क्रोधसे संवन्ध रखनेवाली कथा सुनाकर विद्याधरीने अपने पति विद्याधरसे E प्राणनाथ ! जो मूर्ख संसारमें परस्त्रियोंसे संबन्ध रखता है वह रुद्र व्यापारीके समान नियमसे मृत्युका पात्र बनता है। स्वामिन् ! आप बुद्धिमान हो। वंश रूपी आकाशके लिये चन्द्रमा एवं चन्द्रमाके समान निर्मलकोर्सिके धारक हो आप सरीखे मनुष्योंको शुभ अशुभ विचार कर ही कार्य करना चाहिये। किसी कार्यको जल्दी नहीं कर डालना चाहिये ॥ १२६-१२७ ॥ विद्याधरोंके !! स्वामी विद्याधर विद्युन्मालीका होनहार अच्छा न था। हितकारीभी अपनी स्त्रीके वचनोंपर उसने रञ्च मात्रभी ध्यान नहीं दिया उत्तरमें यही कहा सप Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम Vocal . योगतो धीरो न चचालाद्रिसारथान ॥ १२६ ॥ तदा विद्याधरो दुष्टी विद्या सस्मार धारिणी । बट्रिशशावपत्रां स तिमिन्नायां । क्रुधान्वितः ॥ १३०॥ उाद्य खेवरोमे योगींद्र खांगणे बजत्। त्रासयन् दुर्घचोभिश्व कम्पयन विद्यया शः ॥ १३१॥ तदा वयं देवस्य ज्योतिश्चक्रस्थितस्य च चकम्प विष्टरं भानां चमत्कारककर परं ॥ १३२॥ तृतीयावगमान्मत्वा विश्न मेहमहामुनेः । तूर्ण' वैदूर्यनामासौ खड्गं नीत्या समागमत् ॥१३३॥ गर्जत धनपद्धोरं वदन्त दुस्सहं यवः । खङ्गपाणिं तमालोक्य वियच्चारी मिया मुनि जो पुरुष स्त्रियोंके कहने में चलते है वे मूढ़ कहलाते हैं मैं तुम्हारी वात कभी भी नहीं मान सकता। अपने स्वामीके ऐसे बचन सुन फिर भी विद्याधरीने कहा--स्वामिन ! जो पुरुष विद्वान हैं - उन्हें यदि हितकारी स्त्रियोंका भी वचन हो तो उसे स्वीकार करलेना चाहिये और यदि अहित. कारी विद्वानोंका भी वचन हो तो उसे कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिये । मेरा यदि वचन युक्त हो तो आपको उसे स्वीकार करने में कुछ भी आपत्ति न करनी चाहिये ॥ १२८–१२६ ॥ विद्याधर विद्यन्मालीने अपनी स्त्रीके वचनोंका रंचमात्र भी आदर न किया । शीघ्रही उसने चारों दिशाओंमें बाण छोड दिये जिससे उनके भयङ्कर शब्दोंसे वहुतसे बनके जीव त्रस्त होगये। यद्यपि विद्याधर विद्युन्माली लडी बद्ध बाण छोडता रहा और उनका भयङ्कर शब्द होता रहा परन्तु तपके समुद्र नमुनिराज मेरु, मेरुपर्वतके समान निश्चल बने रहे। पर्वतके समान कठिनता धारण कर अपने योगसे | | कुछ भी चल विचल नहीं हुए ॥ १३०-१३१ ॥ जव विद्याधरकी कुछ भी तीन पांच न चली तो उसने धारिणी नामको वियाका स्मरण किया जो कि बत्तीस मुख और बत्तीस भुजाओंस युक्त थी दुष्ट विद्याधर विद्युन्मोलीने उस धारिणी क्यिाके बलसे मुनिराज मेरुको उठा लिया एवं अनेक दुर्वचन कहकर उन्हें त्रास देता हुआ और अपनी विद्यासे कंपित करता हुआ आकाशमार्गसे ले चलने लगा। उसी समय वैड य नामक ज्योतिषी देवका आसन कंपायमान हुआ जो कि समस्त ekoreak पण Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MarwarKFR मल २३४ ॥ मुक्त्या पाति यदा हिलिपादेषु त धबन्ध सः । गाड्मया देव! तदा क्रोधारुणेक्षणः ॥ १३५ ॥ तदेव केवलोत्पत्तिः प्रादुरासीत् गणेशिनः। लोकालोकामलप्रायदर्शिनी सवंगा ध्रुवं ॥१३ मत्वा फेवलसंपूति मेरोराखण्डलादयः । आगत्य चकरा नंदादुत्लवं अपराधिणः ॥ १३७ ।। शकादेशकलोत्पीटत्रयायत सुरासुराः। किंन्ना सन्तरा ने मुर्भूधरस्थ हरिनु वा ।१३८ गद्य9 पद्यादिभिः स्तुत्वा नत्वा तत्पादपङ्कज । स्थितास्ते सर्वतो भांति इंसाः क्षीरांवुधाविध ॥ १३६ ॥ शक्रोऽचलत्वमालोक्य मेफनाम्नो व ज्योतिषियोंको आश्चर्य करनेवाला था। देव बैड़यने शीघ्र ही अवधिज्ञानकी ओर उपयोग लगाया। महामुनि मेरुपर विघ्नका होना जान लिया एवं तत्काल खङ्ग लेकर विद्युन्मालीके पास आ झपटा। B॥ १३२–१३५ ॥ मुनिराज पर अत्याचार करते देख देव बेडर्य विद्युन्मालीके ऊपर मेघके समान गर्जा, अनेक दुस्सह वचनोंको कहकर तर्जा एवं मारनेके लिये हाथमें खङ्ग तयार कर लिया। देव बैडूर्यका यह भयङ्कर रूप देख विद्याधर विद्युन्माली डरा। मुनिराजको छोडकर वह दो तीन ही कदम भाग कर गया था कि क्रोधस लाल २ नेत्रोंके धारक देव बेंडू र्यने मजबूत सांकलसे उसे IN मजबूतीसे बांध लिया ॥१३६–१३७॥ इधर बैड यं देवने तो विद्याधर विद्युन्मालीकी यह दशा की PA उधर मुनिराज मेरुको केवल ज्ञान होगया जो कि लोक अलोकके समस्त पदार्थों को निर्मल रूपसे | प्रकाश करनेवाला था और सर्वगत था ॥ १३८॥ मुनिराज मेरुके केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका हाल | इन्द्र आदि देवोंको भी ज्ञात होगया। जिससे जय जय शब्दोंके साथ उन्होंने सानंद मुनिराजके A केवल ज्ञान कल्याणका उत्सव मनाया। इन्द्रकी आज्ञानुसार तिखने सिंघासनसे शोभायमान गंध कुटीकी रचना कर दीगई। उसमें विराजमान मुनिराज मेरुको सुर अस्तुर किन्नर और राजा आदि PS महापुरुष नमस्कार करने लगे।महामनोहर गद्य पद्योंमें मुनिराजकी स्तुति की। चरण कमलोंकी वंदना की एवं जिस प्रकार क्षीर समुद्र के चारों ओर हंस आकर विराज जाते हैं उस प्रकार वे मुनिराजके | IYAVIER Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनीशितुः । मष्टोत्तरशतध्यामगुणपर्वसमन्वितां ॥ १४ ॥ मगिमाला समाधाय मेकनामावधि गले । मेस्वग्निश्चलत्वेन ममाल स्वर्गभूखगेः॥१४१॥ उग्रसेनो महीनाथो बन्दितु त सनारितः। इक्ष्वाक्वन्ययसंभूतः पहलवायपुराधिपः ॥ १४ ॥ चन्दित्वा सादर अस्त्वा धर्म मेरुमुखोद्गत । पप्रच्छेति नराधीशो ध्यानप्रत्युहकारणं ॥ १४२ ।। मो स्वामिन् ! किमनेनामा ते घर विद्यते पुरा । देवेनाथ कथं वयो बहि त्वं शानसागर ! ॥१४४ ॥ मेरुस्त प्राह राजानं या स्वं साधुभक्तिभाक । , मधैव धातकोद्वोपे वर्षमैरावताभिध : १४५ ॥ किष्किंधाख्यं पुर' तब विद्यते नागरेनेरैः। राजमानं नपस्तव शूरः सिंहरथोऽभवत् ।। चारों ओर बैठ गये॥ १३६-१४० ॥ मुनिराज मेरुके अचलपनेपर ध्यान देकर ध्यानकी सिद्धिकी | कारण एकसौ आठ मनकोंकी माला तयार को एवं समस्त देव और विद्याधरों के सामने मेरुके समान अपनेमें निचलता पार करने को अभिलाषाले इन्द्रने उसे अपने गलेमें पहन लिया--- व इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न पल्लव पुरका स्वामो एक उग्रसेन नामका राजा था । मुनिराज मेरुको केवल ज्ञानी सुनकर वह उनकी वंदनाके लिये आया। मुनिराजके मुबसे धर्मोपदेश सुना एवं यह उपसर्ग कैसे उपस्थित हुआ यह जाननेको इस प्रकार उसने इच्छा प्रगट की ॥१४१-१४४॥ प्रभो ! आप ज्ञानके समुद्र हैं कृपाकर कहिये विद्याधर विद्युन्माली के साथ आपका पूर्वभवमें कैसे वैर बंधा! और देवने इसे कैसे बांधा ! उत्तरमें मुनिराज मेरुने कहा-- भाई तुम ध्यानपूर्वक सुनी, मैं कहता हूंहा धातुको खंड द्वोपके ऐरावत क्षेत्रमें एक किष्किंधापुर नामका नगर है जो कि नगर निवासो लोगोंसे सदा शोभायमान रहता है। किष्किंधापुरका स्वामी राजा सिंहस्थ था जो कि शुर वीर - या। किष्किंधापुरमें हो उस समय एक माधनामका सेठ रहता था जो कि विपुल धनका स्वामी | था। सेठ माधवके सात पुत्र थे जो कि अत्यंत रूपवान और विद्वान थे। किसी समय वर्षा कालमें भाग्यके उदयसे सेठ माधवकोभरा खजाना हाथ लग गया। रात्रिके समय उसने अपने पुत्रों के साथ Kharkar Tatarkarsmarwari -- - - Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ArkeshtKIपपायर १५६ ॥ तन माधधनामाभूत श्रेष्ठी भूरिधनान्वितः । षभूवुः सप्त तत्पुवा रूपधन्तो विदावराः ॥१४॥ एकदा गल्छतस्तस्य प्राकृषि श्री. ष्टिनो महत् । निधान रत्नसंपूर्ण लब्ध देवोदयादयात् ॥१४८॥ नीत्वा निशि सुतैः साकमाससंज धरातले। सुखीभूयमितः लापुर'वरः ॥ १४९ । पकवारिजयो पृयपुत्रश्वेति व्यचिंतयत । च्यापन्ने श्रेष्ठिना तस्य भविता मागसप्तकं १५०॥ विचिंतेत्थं व निष्कास्प निधानं तेन पापिना । चिक्षेपन्यत्र भूभागे धिम् लोभं दुर्गतिप्रद ॥ १५१ ॥ दिनेण्यत्सु फीयत्सु श्रेष्ठी खजानेको जमीनमें खुदवाकर रखवा दिया एवं इन्द्रके समान सुख भोगता हुआ वह सुखसे रहने लगा॥१४५–१४६॥ ____ माधवके सबसे बड़े पुत्र का नाम अरिंजय था। एक दिन उसने अपने मनमें विचार किया कि पिताके मर जानेपर धनके सात भाग होंगे और उसमें से मुझे सातवां भाग मिलेगा। वस ऐसा विचारकर उस पापीने जमीनसे भरे खजानेको निकाला और अन्यत्र जाकर गाड़ दिया। हा ! इस लोभके लिये धिक्कार है क्योंकि यह दुर्गतिमें लेजानेवाला है ॥ १५०-१५१ ॥ थोड़े दिन वीत जानेपर सेठ माधवने अपना रत्नभरा खजाना देखा जब उसने वहां उसे न पाया तो उसे सीमांत दुःख हुआ एवं उस तीव्र दुःखसे उसे मूर्छा आगई। जमीनपर गिरकर मर गया एवं मोह कर्मके उदय d से मर कर वह उसी खजानेपर सर्प होगया । एक दिन सेठपुत्र अरिंजय धन लेनेके लिये खजानेमें गया जहांपर वह खजाना गड़ा था धीरे धीरे वहांकी उसने पृथ्वो खोदना प्रारंभ कर दो । सर्पने ज्योंही अरिंजयको देखा उसे डस खाया। जिससे वह विषसे मूर्छित हो जमीनपर गिरकर मर hd गया। सर्पकी यह चेष्टा देख अरिंजयको भी क्रोध आगया था उसने भी सर्पके दो टुकड़े कर दिये इस रूपसे बे दोनों उसी समय मृत्युको प्राप्त होगये। इसी भरत क्षेत्रकी उत्तर दिशामें एक मथुरा नामकी नगरी है । उसमें एक बणिक रहता था AJAYAVAYAYANAYAYAYA Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REE JA NO KYENTRY तल्लोकते यदा। भदृष्ट्वा मोहतो भूमौ मूर्खया पतितो नप !॥१५२॥ मृत्था जाई महाव्यालो निधाने मोहकर्मतः । एकदा रि मानेतु याति तवतु॥१५३ ॥ मद मंद चखानेलां यदा गत्वा तदा फणी। ददशारिजय कोपात विर्षाधः सो तेन साहसः कोधादनौ यगपन्निधन' गतौ । अथान भारत द्वीपे चोचरा मथरा परी ।९५५|| जाते तो चणिकपको तत्र भद्राभि मिधौ । दुर्गती विमतो दुष्टौ विरूरी विगतनपी ॥ १५६ ६ अन्यदा मगधे राष्टे वाणियार्थं च तो गतौ। तदा सपंचरोभन्स्ततति is अरिजय और सर्प दोनोंके जोव उसके दो पुत्र होगये जो कि महा दुष्ट थे मैंले कुचले थे दरिद्र और निर्लज थे एवं दोनोंका नाम भद्र और हर था ॥ १५२---१५६ ॥ एक दिन वे दोनों मगध राज्यमें व्यापारके लिये गये उस समय पापी और टग सर्पका जीव भद्र अपने मनमें यह विचारने लगाKE रात्रिके समय जघ हर सो जाय उस समय मुझे हरको मार देना चाहिये और सारा धन अपने घर ले जाना चाहिये । बस ऐसा पूर्ण विचार कर वह ठीक आधी रातके समय उठा। हरके धोकेमें एक दूसरे पथिकको मार डाला एवं वह मूर्ख अपने घर चला गया । प्रातः काल होते हर उठा । अपने पासके मनुप्यको मरा देख वह एक दम भयभीत होगया। एवं इस प्रकार मनमें विचारने लगा5 अवश्य मेरे भ्रमसे मेरे भाईने इस पथिकको मारा है, यदि में ठहरू गा तो लोग मुझे ही Ke इसका मारनेवाला समझेगे जिससे संसारमें मेरा ही अपवाद होगा। यह नियम है कि दुष्टोंके - साथ संवन्ध करने पर मनुष्यको चिरकालसे संचित भी कीर्ति नष्ट हो जाती है तथा बन्धन ताड़न विशेष क्या मृत्युका भी सामना करना पड़ता है। वस ऐसा विचार कर हर शीघ्रही वहांसे चल | दिया एवं बुद्धिमान वह इसप्रकार अपने मनमें सोचने लगा kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वमानले ३१७॥मारयित्वा रं ननं यामिनीत्वा धने गृहे । नक' सुतो विचार्यत्यं पापोयानन्यवंचकः ॥१५८३ मध्यरात समुत्थाय हरप्रांत्या जबान सः । अन्य पार्थ ततः सन जगाम सत्वरं शठः॥ १५ ॥ पाश्चात्यप्रहरे राजजागार हरस्तदा। स्वांते दृष्ट्वा सं विततके सः॥१६॥ महोभाव मझोत्या पांथोऽयं मारितो ध्रुवं । तिष्ठयं चेदर' ताई नेऽपवादो भविष्यति १६१ ॥ संसर्गेण बरस्पेय याति कीर्तिश्विरं कृता । बंधनं ताड़नं चैत्र पञ्चत्य सुलभ भवेत् ॥ १६२ ॥ विमृश्येत्य चवाठाशु हर IN शिवंतातुरः स च । गत्य व स्वपुरा पर्ने विचवारेति वेतसि ॥ १६३ ॥ विष्ठापयामि के सभ्यं धर्माधर्मज्ञमित्वहो । विचार्य मम पावें धर्म और अधर्मके जानकार किस महापुरुषसे में अपना यह हाल कहूं । वह सीधा मेरे पास आया क्योंकि में राजा था और सारा वृतांत उसने मुझसे कह सुनाया। मैंने पापी भद्रको बुलाया rd कठिन दंड दिया और नगरसे बाहिर निकाल दिया ॥ १५७-१६२ ॥ मेरे द्वारा दिये गये दंडसे भद्रमित्रको बड़ी लज्जा आई। बनमें जाकर किसी मुनिराजके समीप भद्रने दिगंवरी दीक्षा धारण IN करली। मुनि वन वह क्रोध पूर्वक संयमको ओराधने लगा। आयुके अन्तमें वह मरा और विद्याdधर विद्युन्माली होगया ॥ १६३ ॥ पहिले भक्मे जो उसने मुझे दंड दिया था उसोसे जायमान रके संवन्धसे इसने मेरे ऊपर यह उपसर्ग किया है इसलिये वैरका यह भयंकर फल देख किसीको किसीके साथ बर नहीं करना चाहिये ॥ १६४ ॥ | विजयाध पर्वतकी उत्तर दिशामें एक श्रीपुर नामका नगर है जोकि महा मनोहर स्त्रियोंसे - शोभायमान और शोभामें गंधर्व नगरको उपमा धारण करता है । उस पुरका स्वामी भूपाल नामका राजा था जो कि अपने तेजसे शत्रुओंको भयभीत करनेवाला था । उसको रानीका नाम ललांगी था IG जो कि उत्तम नेत्रोंसे शोभायमान थो इन दोनों राजा और रानीके एक 'रुर्वक्षी' नामको कन्या | थी जो कि महा मनोहर थी। तपे सोने के समान रंगको धारक, सुवर्णके घड़ोंके समान स्तनोंसे AAAAAAAAAAAYEE कर Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा वळपाव m es JapkVIRECRETREERNATAKAREENA | स समेत्योवाच स नृप ! ॥ १६४ ॥ तदाई त समाहृय भद्र पापपरं पुरात् । निष्कासयां चकाराशु दत्त्वा दंडं च दुस्सह ॥ १६५ ॥ लाजतोऽसौ धने गत्वा लय मुनिसन्निधौ । भाइदे कोत्रभावन मृत्वायं खेचरोऽजनि ॥ १६६ ॥ पुरा दण्डोत्यौरेण प्रत्यूहोऽनेन में कृतः । अतो न कत व्यं न चिम्मानवाधिप! ॥ १७॥ आदित्याभभने यो में मोचितो धरणात्वगः । विघन्ट्रो महाविद्या PAधर्माचारपरांमुखः ॥ १६८ ॥ खेचरायु तरपयामधास्ते श्रीपुर' पुर। भामाभूरिविलासेश्व श्रीगन्धर्वपुरोपमं ॥ १६६ ॥ पाति तत्प तमं भूपो भूपालाख्योऽरिभौतिदः । तस्यैव भामिनो भाति ललांगो फामलोचना ॥ १७० ॥ तयोर्जश सुता नाम्नो रुवंक्षी कामकुन्दला । शोभायमान और जघनके भारसे मंद मन्द गमन करने वाली थी। विद्याधर विद्युदंष्ट्र जो कि महा विष्शका स्वामी था ! धर्माचरणोंसे सर्वथा विमुख था और आदित्याभके भवमें जिसे मैंने धरणेंद्रसे बचाया था कन्या बक्षीपर मोहित हो गया और उसके पिता राजा भूपालसे उसने हट 1) पूर्वक मांगा परन्तु भूपालने उसे प्रदान नहीं की। भूपालका यह घमण्ड देख राजा विद्याष्ट्रने 12 उसके साथ संग्राम ठान दिया। दुर्भाग्यवश संग्राममें विद्युद्ष्ट्रको हार खानः पड़ी। अपनी हारसे विद्यु दंष्ट्र लजित होगया। राज्य छोड़ तपसी वन मिथ्यातप करने लगा। आयुके अन्तमें FUN मरा एवं ज्योतिलोकमै तुम जाकर ज्योतिषी देव हुये हो तुम्हारे ऊपर जो मैंने उपकार किया ! था उसके बदले प्रत्युपकार करनेके लिये तुमने इस उपसर्गकी शांति की है । इस प्रकार पूर्वभवका संवन्ध सुन राजा उग्रसेन और विद्याधर विद्युन्मालीको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य IR हो गया एवं नमस्कार पूर्वक मुनिराज मेरुसे ही उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण करलो। ज्योभतिषी देवने भी चित्तमें प्रसन्न हो मुनिराज मेरुकी स्तुतिकी एवं उन्हें नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया। ठीक है सज्जन लोग किये उपकारको भूलते नहीं ॥ १६६--१७६ ॥ पुन्नाग वृक्षको कितना भी पेरा जाय वह विकृत नहीं होता तथा रसीला ईखका बृक्ष अत्यन्त पिडित होनेपर भी प Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 Ayyan स्वांगी स्वर्णकुम्भाभवक्षोजा अघनमंदगा ॥९७१ ॥ बहुशो पावितस्तेन विद्युदष्ट्रण तो हठात् । तल्पिता न ददौ तस्मै तदासौ संगर व्यधात् ॥ १७२ ॥ जाते महसि संग्रामे भूपालाख्येन निर्जितः । लज्जितस्तापसो भूत्वा खकार कुतपश्विर ॥ १७४ । तप्त्या मृत्या युषः प्रांत ज्योतिश्चक्र सुरोऽभवत् । स्मृत्वोपतिमायातो मम विघ्नोपशांतये ॥ १७५ ॥ एवं सम्बन्धसङ्कज्यं श्रुत्वा राजा खगोऽपि :सः । दिदीक्षाते विनेयत्वास नत्या मेरु गणाधिपं ॥ १७६ ।। पोहितोऽप्यविकारी स्यात्पुन्नागो जगतीतले । निष्पी सीक्षुरसादितः ।। १७७ ॥ परं न चन्दनः सन्नामकापिचुमग्दकादयः । न श्वेतपत्रिणो घ का धर्तते भूरयः खलाः । सहसे काव्यपर्यंत मधुर ही रस छोड़ता हैं उसी प्रकार सजनको कितनी भी पीड़ा पहुंचाई जाय बह शांत ही रहता है। संसारमें कपिचु मन्दक आदि नामोंके धारक बहुतसे वृक्ष हैं पर सभी चन्दन नहीं। तथा सभी उल्ल पक्षी सफेद पंखोंके धारक नहीं कोई कोइ ही होते हैं उसी प्रकार संसारमें दुष्ट ही बहुत हैं सजन बहुत नहीं । परम पावन उन मुनिगज मेरुने एक हजार वर्ष पर्यंत अनेक देशों में विहार IS किया। अन्तमें उन्होंने मोन सुख प्राप्त कर लियाम सम्मेदाचल पर्वतके समीपमें एक पद्म कंवल नामका नगर था। उसमें यशोघर नामका सेट रहता था और उसकी स्त्रीका नाम यशस्विनी था। सेठानी यशस्विनीको एक दिन सर्पने डस | लिया उसे मरी समझ श्मसान भूमिमें उसकी दाह क्रियाके लिये लोग लेगये। वहां पर मुनिराज मन्दर विराजमान थे। उनके पवित्र शरीरसे स्पर्शी गई पबनसे सेठानी यशस्विनीका जहर दूर हो गया जिस समय सेठानी जीती जागती उठ बैठी उस समय सबके सब इस प्रकार विचारने लगे इस मुर्दाके शरीरमें भूत प्रविष्ट होगया जान पड़ता है बस सबके सब लोग भयसे आकुलित हो गये। उन्हे आकुलित देख करोडों मांसभक्षी राक्षस वहां आगये । राक्षसोंको इसप्रकार देखकर Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । विहत्य विषयान् बहन् । समाप शिवसंभूतं शर्म मेणाधिपः ॥ १७॥ सम्मेदभूधराम्यणेऽस्ति पुर' पनकम्वल । इम्यी यशोधरस्तन यशस्विन्यस्य मामिनी ।। १८० ॥ सर्वदष्टैकदा नीसा भूतारण्ये यशस्विनी। संस्कारार्थ च तदा जने मंदरांगानिलाच्छुभा ॥१८१॥ असुबत्ती तहा दृष्ट्वा लोका विभ्युमैन तरे। इति प्रेतयुत' भीकृत् पराशु किमु सांप्रत' ।। १८२ ।। भोत्याकुलान्तराल्लोक्य कम्यादाः कोटिशोऽभवन् । मादुस्तद्वयतस्तोमन्वस्मदर तके १८३॥ मनिप्रभावतो देवी बनस्य समचोकरत् । शाललयमथोवाचोषसीत्य ध्यक्षमेव सा॥२८॥ धन्योऽयं मन्दरो मान घिर्ष' यातं यदाश्रयात् । श्रत्वा समं स्त्रिया श्रेष्ठो प्रवधाज तन्तिके ॥१८५ || मन्दकोड पिमहाकर्म छित्त्वा ध्यानेन फेवल । समुत्पाद्य ययौ धीरो मरुत्पूज्यः शिव शिवः ॥ १८६ ॥ उग्रसेनमुनिस्तीन तपस्तप्त्या चिर बहु । Baat वे भयसे कंपायमान हो गये एवं वे सबके सब भयभीत हो मुनिराज मन्दरके चरणों के पास चले गये। मुनिराजके प्रभावसे बनदेवीने तीन प्राकारोंका कोट रच दिया एवं प्रातःकाल सबोंको लक्ष्यजकर उसने यह कहा मुनिराज मंदरके लिये धन्यवाद है। इन्हींके आश्रयसे सेठानी यशस्विनोका विष दूर हुआ है। ज्यों ही सेठ यशोधर और सेठानी यशस्विनीने यह बात सुनी उन्हें संसारसे वैराग्य होगया एक मुनिराज मंदरके समीपमें ही वे संयमसे दीनित हो गये ॥ १७७-१८५ ॥ मुनिराज मन्दरने भी महा ध्यानके बलसे घातिया कर्मोका नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया एवं देव पूज्य वे मुनिराज मोक्षके स्वामी बन गये ॥१८॥ महोदय मुनिराज उग्रसेनने भी धोर तप तपा एवं आयुके अंतमें मरकर वे सर्वार्थ सिद्धि विमानमें अहमिंद्र होगये ॥ १८७॥ विद्याधर विद्युन्मालीने भी शक्तिके अनुसार तप किया एवं आयुके अन्तमें मरकर वे पांचवें स्वर्गमें देव होगये । ललित उनका नाम हुआ और अनेक देवांगना उनकी सेवा करने लगी ॥१८॥ ग्रन्थकार तपकी महिमा वर्णन करते हुए कहते हैं कि पिपाया। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ Paracaa सर्वार्थसिद्धिमासाध तस्थौ पुण्यानमहोदयः ॥ १७खेचरोऽपि यथाशक्ति तपः कृत्वा सुरालये । पञ्चभूत्सुर सेव्योरंभाभिललिता भिधः ॥ १८८ ॥ तमः कुर्वे ति ये भव्यास्ते लभते तो श्रियं । स्वों हांगणे तेषां कामधेनुश्च किंकरो ॥ १८६ ॥ बभूवुः पञ्चपञ्चाशनणा; श्रीविमलेशिमः । शतोचरसहस्रोक्ता मुनयः पूर्वधारिणः ॥ ११० । मद्धिपश्चाष्टत्रिसंख्या आसन् शिष्या गुणोज्वला: । खद्वयाष्ट चतुर्मेयानिषिधावयय: स्फुट ॥१६१॥ अष्टषष्टिसहस्रोक्ताः सर्यसमिनः परः । लिसह फलक्षोक्ताः पाया आर्यिका मतः ॥१२॥ जो महानुभाव तप आचरण करते हैं उन्हें अदभुत लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। स्वर्ग उनके घरके आंगन प्राप्त हो जाता है और कामधेनु किंकरी बन जाती है ।। १८६ ॥ र भगवान विमलनाथके पांच सौ तो गणधर थे। ग्यारह सौ पूर्वधारी मुनि थे । अड़तीस हजार !! पांच सौ शिष्य थे। अडताखीस सौ देशावधि आदि अवधिज्ञानके स्वामी थे। पचपन सौ केवल ज्ञानी, छत्तीस सौ वादी मुनिराज, अड़सठ हजार संयमी मुनि, एक लाख तीन हजार आर्यिका दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविका, नौ हजार बिक्रिया शुद्धिके धारक, पांच हजार पांच सौ मनःपर्यय ज्ञानी और असंख्याते देव इस प्रकार सबोंसे युक्त भगवान विमलनाथ अत्यंत शोभायमान जान पडते थे॥ १६०--१६२ ॥ ___ जो भगवान विमलनाथ बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारकी लक्ष्मोके स्वामी हैं । कल्याणके | प्रदान करनेवाले हैं जीवोंके हितकारी हैं। कर्मरूपी कीचड़को सुखानेके लिये सूर्य स्वरूप हैं उन | भगवान विमलनाथको मैं बार बार नमस्कार करता हूं ॥ १२ ॥ पद्मसेन नामके जो राजा थे वे IN वारवे स्वर्गके देवोंके स्वामी सहस्रारेंद्र होगये । केवल बिभतिके नायक वे भगवान विमलनाथ हमारी * रक्षा करें। जो भगबान विमलनाथ भव्य रूपी कमलोंके लिये सूर्य समान हैं। मोह रूपी हस्तीके लिये सिंह स्वरूप हैं एवं देव इन्द्र स्वरूप चकोर पक्षियोंके लिये चन्द्रमा स्वरूप हैं अर्थात् हृदयका K ISANELAYERNETER Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विलक्षश्रा का मौका द्विगुणा श्राधिका मताः । खबरनवसंस्थाश्वः विक्रियाद्धविराजिताः ॥ १३ ॥ खवयेंद्रियपञ्चोक्ताः पूर्णतुर्याव योधनः । असंख्यातामरैरच्यों रराज विमलो जिनः ॥ १६॥ श्रीमत परमशर्मदायिने नेकजल्लहितक वयेष से नमः श्रीजिनाय विमलाय निर्दिव।।१९५॥ पद्मसेनजगतीपतिस्ततो द्वादशामरनिवासपोऽजनि | यस्तु केवलविभूतिनायकः पातु नः स विमलोऽमलः सदा ॥ १६ ॥ भव्यपादियामणि हरि मोहवारणतता कलानिधि । निर्जरेशशिस्त्रिभुक्ततौ श्रिये भोजना उत्ताप मिटानेवाले हैं प्रिय भव्य जीवो उन भगवान विमलनाथकी कल्याणको प्राप्तिकी अभिलाषा से तुम्हें सदा सेवा करनी चाहिये ॥ १६३–१६४॥ प्रशस्ति न जो काष्ठासंघ समस्त पृथ्वी पर प्रसिद्ध है तीनोंलोकके स्वामी जिसकी स्तुति करते हैं । जिसमें अगणित मुनि होचुके है एवं जिसमें अनेक विद्याओंका समारोह रहा है उसमें एक ग़म| सेन नामके भट्टारक हुए जो कि आचार्यों में राजा म्वरूप थे सिद्धान्त रूपी समुद्रके पारगामी थे। चन्द्रमाको समान कीर्तिसे शोभायमान थे। ध्यान रूपी जलके प्रवाहसे पाप रूपी संतापके दूर करनेवाले थे और अन्धकारके लिये सूर्य स्वरूप थे॥ १९५॥ उसी काष्ठासंघमें आचार्य रामसेनके Id बाद भट्टारक सोमकीर्नि हुए जो कि मुनि आदिके गण रूपी पर्वतके लिये सूर्य स्वरूप थे। मनुष्य रूपी चकोर पक्षियोंके लिये चंद्रमा स्वरूप एवं जिनकी कीतिका गान नागकुमारियां करतीं | थीं।आचार्य सोमकीर्त्तिके पद पर विजयसेन नामके भट्टारक हुए जो कि समस्त जनोंको वास्तविक hd ज्ञान प्रदान करनेवाले थे। कीर्ति कांति रूपी लक्ष्मीके लिये समुद्र स्वरूप थे और कुबुद्धियोंके विजेता थे ॥ १६७ ॥ भट्टारक विजयसेनके पदपर आचार्योंमें प्रधान श्री यशःकीर्ति नामके देव हुए सरकार Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRERPR भजत मेमल' मुदा ॥ १६७ ॥ विख्याते जगतीतले त्रिभुवनस्वामिस्तुतेऽभून्महान् काष्ठासंघसुनामनि प्रभुतौ विद्यागणे सूरिराट् ! सा गार्णवपारगो विधुयशाः श्रीराम सेनोजिना न्यानाणों बितति तजिनी भानुस्वमोराशिषु ॥ १६८ ॥ तत्क्रमेण गणभूधरभानुः सोम कीर्तिरिय शीतमयूखः । संबभूव जनताशि स्वभुक्षु नागनाथदयिताकृततेजाः ॥ १६६ ॥ तत्पदे विजयसेनमदन्तो वोधिता खिलजनः कमनीयः । फोर्तितिकमलाजलराशिः संबभूव विजयी कुमतीनां ॥ २०० ॥ तत्पट्ट सूरिरामः सकलगुणनिधिः श्रीयशः कीर्तिदेव स्तत्पादाम्भोज षट्पात्सकलशशिमुक्षो वादिनगेन्द्रसिंहः । संजज्ञे प्रांतसेनोदय इति वचसां विस्तरे संप्रवीणः, तत्पद्वार्जालिशक स्त्रि जो कि समस्त गुणों के भगदार थे। भट्टारक यशः कीर्त्तिके चरण कमलों में भ्रमर स्वरूप एवं अखण्ड चन्द्रमा के समान मुख से शोभायमान वादी नागेन्द्र सिंह नामके भट्टारक हुए । उनके शिष्य उदय सेन नामके भट्टारक हुए जो कि सिद्धांत के पूर्ण ज्ञाता और व्याख्याता थे उनके वाद आर्य उदयसेनके चरण कमलोंके सेवक एवं तीनों लोकमें जिनकी महिमा गाई जाती थी ऐसे भहार त्रिभुवन कीर्त्ति हुए ॥ १६८ ॥ भहारक त्रिभुवन कीर्त्तिके शिष्य भट्टारक रत्नभूषण हुए जो कि पृथ्वी तलपर चन्द्रमाके समान स्वच्छ प्रकाशके धारक थे। भट्टारक त्रिभुवन कीर्त्तिके पट्टरूपी उदयाचल पर्वतके लिये सूर्य स्वरूप थे । तर्क नाटक आदि शास्त्रोंके रहस्य के पारगामी थे और कवियों में राजा स्वरूप थे ॥ १६६ ॥ इसी पृथ्वीपर लोहार नामका एक पुर है उसमें एक हर्षनामके महानुभाव रहते थे जो कि पुरवासियों में प्रधान माने जाते थे । महानुभाव हर्षकी स्त्रीका नाम वीरिका था जो कि एक सज्जन arrant थी गुणोंकी स्थान थी एवं साध्वी थी माता वीरिकाका पुत्र मैं (ग्रन्थकार ) कृष्णदास था जो कि सुन्दरता में कामदेव के समान था । पूर्ण ब्रह्मचारी था सुन्दर किर्तिका धारक था एवं भगवान ऋषभदेव के चरण कमलोंमें भ्रमर स्वरूप था ॥ २०० ॥ मेरे छोटे भाईका नाम मंगल Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल ६५. भुवनमहिमा तम्मुतकीर्तिः || २०१ || राजते रजनिनाथयशाः की तत्स्वोदयनगाहिमदीप्तिः । तनाटककुर्क लागदो रत्नभूषण महाकविराजः ॥ २०२ ॥ श्रीमल्लोहाकरे भूरपरनपुरवरे हर्षनामा वरीयान् तत्पत्नी साधुशाला गुणगणसदनं वारिकाख्यैव साध्वी । पुत्रः श्रीकृष्णासो रति इव तयोर्ब्रह्मचारीश्वरश्च सत्फीतों राजते वै वृष्भजिनदार भोजपट्वात्समानः । २०३ | मङ्गलैर्मकरकेतुदीतिभिर्वर्णभिः सह मया कृतोऽयकं । ग्रन्थ एवं ! विदुषां सुखप्रदः शोधयन्तु विबुधाः खराः १२०४ | गुजरे जनपदे पुरे कृतः कल्पवल्य भिध एव सादरात् । वर्धमानयशसा मया पुरोः पत्कजाहितसुचेतसा ध्रुवं ॥ २०५ ॥ मेरुभूधरपतिः खतारका सन्ति सागरधरा नभोमणिः । तावदेव विदुषां मनोऽतरेऽलंकृतः सततभेव भातु मे ॥ २०६ ॥ खनिसंख्यितसान्वितोऽधिको वेदषट्मनित काव्यरा जिभिः । पण्डितेतिविकारवर्जितः सलिखाप्य पटनाथ दीयतां ॥ २०७ ॥ देवर्षिषट्चन्द्रभितेऽथ वर्षे पक्षेऽसि मासि नभस्पले मे । एकादशीशुमृगर्क्ष योगे श्रीव्याधिते निर्मित पत्र एव ॥ २०८ ॥ इति श्री विमलनाथपुराणे भ० श्रीराभूषणान याल का स्वष्टा कृष्णदासविरचितं ब्रह्ममंगलदास सहाय्य सापेक्षे निर्वाण नाटक मेरुध्यानोपसर्ग मेरुमंदर निर्धाणनिरूपणो नाम दशमः सर्गः समाप्तः ॥ १० ॥ दास था जो कि चंद्रमा के समान कांशिले शोभायमान थे ब्रह्मचारी थे उनकी सहायता से यह कल्याण प्रदान करनेवाला ग्रन्थ रचा गया है। सज्जन विद्वानोंसे यह प्रार्थना है कि जहां इसमें त्रुटियों रह गई हो उन्हें शुद्धकर पढ़ और पढ़ावें ॥२०१ || गुजरात देशमें एक कल्पवल्ली नामका नगर है उसी नगर में बैठकर बढती हुई कीर्ति से शोभायमान और गुरुके चरण कमलोंके भक्त मैंने इस ग्रन्थका बड़े आदरसे निर्माण किया है | २०२ | जब तक संसार में मेरुपर्वत नक्षत्र समुद्र तारे समुद्र पृथ्वी सूर्य आदि पदार्थ विद्यमान रहें तब तक यह ग्रन्थ भी विद्वानोंके हृदयका अलंकार वन सदा शोभायमान है || २०३ || तीन हजार व्यालीस श्लोकोंसे शोभायमास यह ग्रन्थराज विमलनाथ पुराण विद्वान पंडितों को अवश्य लिखाकर देना चाहिये ॥ २०४ ॥ श्रावण वदी एकादशी संवत् १६७४ सोलह सौ चौहत्तर जब कि मृगर्च्य योग नित्य रूपसे विद्यमान था उससमय यह ग्रन्थ पूरा हुआ था ॥ २०५ ॥ KVKK Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कार्यालय द्वारा प्रकाशित अन्थोंकी सूची। 1 श्री पदम पुराणजी पृष्ट संख्या 1000 2 श्री शांतिनाथ पुराणजी 3 श्री मल्लिनाथ पुराणजी (सचित्र), 200 4 श्री तत्वार्थ राजवातिक (प्रथम खण्ड) 416 5 श्री विमलनाथ पुराण 400 6 श्री षोडश संस्कार 7 श्री मौनव्रत कथा 8 श्री सरल नित्यपाठ संग्रह ( सचित्र) , उक्त प्रन्थों के मंगाने के पतेः१जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, पो० च० 6758 कलकत्ता / 2 श्री जैनग्रंथ कार्यालय, देवरी (सागर) C. P. 3 श्री जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीरागांव-गिरबाग बम्बई। 4 श्री जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, हीरागांव-गिरबाग बम्बई / - इसप्रकार भेट्टारकर निभूषणको माम्नायके अलङ्कारस्वरूप ब्रह्मचारी मंगलदाकी सहायतापूर्वक ब्रह्मचारी कृष्णदास विरचित बृहत् विमलनाथ पुराणमें भगवान विमल माथका निर्वाण कल्याण मुनिराज मेरुका ध्यान और उपसर्ग एवं मेरुमंदिरका निर्वाण कल्याण वर्णन करने वाला दशवा सर्ग समास // 10 // उच्च HAIYAYANAYAAAAAAYar - -- -- -+-- -- -+ -+--+-+-+-+-+ -+ हOKESARIT -+-HER+* rename p