________________
नल०
३
KKKKK
大和やかに
मोड़ वनं ययौ ॥ ५७ ॥ दुर्मुखो दुष्चको नोवाकः प्रतं । अबोक्षिद्र क्वापि दुर्निरीक्ष्यं हि देवतं ॥ ५८ ॥ अहो | लुलोकयामासुः श्रोणिकायाः सुताः परे क्वापि दृष्टो न भूतलो व्याघ्रश्य समनि स्थिताः ॥ ५६ ॥ अथ इंद्राणिका राशो बिल्लापापतहुवि। गाढं वद हाराद्यत्रोटयद्वेणिकां त्वां ॥ ६० ॥ हा हा नाथ ! मतोऽसि का मांस्था एवं दुराशयां हा प्राणनाथ ! वह उपाय मुझे करना चाहिये” ऐसा अपने चित्तमें विचार करने लगा। थोड़ी देर विचार करने के बाद उसने एक मायामयी घोड़ा तयार किया जो कि अशिक्षित और दुष्ट था एवं उस घोड़ाको तथा और भी मुक्ताफल आदि मनोहर चीजोंको राजा उपश्रेणिककी सेवामें भेंट स्वरूप भेज दिया ॥ ४६ - ५६ ॥ राजा सोमशर्मा की भेजी हुई भेंट जिससमय महाराज उपश्रेणिकने देखी वे अपने मनमें अत्यन्त प्रसन्न हुए। भेटकी चीजोंमें सबसे उत्तम घोड़ा उन्हें जुना पड़ा इसलिये उसके अच्छे रेकी परीक्षा करने के लिये वे शीघ्र ही उसपर सवार हो लिये और उत्तम क्रीड़ाके स्थान वनकी ओर चल दिये । वह दुष्ट घोड़ा सर्वथा अशिक्षित था चित्तमें दुष्ट अभिप्राय धारण किये था। बस जिस समय वह बनके अन्दर पहुंचा शीघ्र ही उसने किसी भयंकर गढ़में महाराज उप किको डाल दिया और तत्काल कहीं चला गया ठीक ही है भाग्यकी महिमा दुर्निरीच्य है- क्या से क्या होगा, यह सूझ नहीं पड़ता ॥ ५६५८ ॥ महाराज उप किके इसप्रकार लापता हो जानेपर उनके कि आदि पुत्रोंको बड़ा दुःख हुआ । अपने पूज्य पिताको वे इधर उधर खोजने लगे जब कहीं भी उनका पता न लगा तो समस्त पुत्र लौटकर अपने राजमहल चले ये ॥ ५६ ॥ अचानक ही महराजके लापता हो जानेपर महाराणी इंद्राणी विलाप करती करती जमीनपर गिर गई। दयाजनक रोने लगी। हार आदि भूषण तोड़कर फेंक दिये । चोटी के बाल बिखर गये एवं इसप्रकार कहने लगी- हा स्वामी ! मुझ अभागिनीको छोड़कर आप कहां चले गये । हा प्राणप्यारे देव ! मैंने ऐसा कौनसा घोर पाप किया था जिसका फल यह हुआ कि मुझे
A
読者をお