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वमल.
हा देव ! हा हा किं दुष्टतं कृतं ॥ ६१ ॥ मुनोना निइया करमूलातिनां सुभागात । धर्म वाक्योपवातान्मे पातक समुपस्थितं ।। ६२ ।। दुर्गधे नरकात्तत्र चकाण व्यथितो नपः । जपन् जाप स्थितो यावत्तावदन्यकांतरं ॥ ३ ॥ अथ वैवच्छवासाख्यपल्यामनिधया , al यमः । स जात्या क्षत्रियो राजा भिल्लानां विद्यते भृशं ॥ ६४ ॥ विद्युन्मालो प्रिया तस्य पुज्यस्ति तिलका तयोः । कीड़ाय वागतः । - सोऽपि ददर्श पतितं नृपं ॥६५॥ ध्यौ तदा यमः प्रायः क्यायं राजगृहाधिपः। घायस्थेयं विचित्येत्थमटिनो राजसन्निधौ ॥ ६ ॥ है आपसे जुदा होना पड़ा ॥ ६०-६१ ॥ हाय क्या मैंने मुनियोंकी निंदा की थी वा कंद मूल Kआदिका भक्षण किया था अथवा धर्मवाक्योंका उल्लंघन किया था जिससे तीन पापका बंध होकर
मुझे यह दुःख भोगना पड़ा ॥ ६२ ॥ राजा उपश्रेणिकके कुटुंबी जन तो इधर इसप्रकार दुःख व मना रहे थे उधर जिस गढ़ेमें घोड़ाने उन्हें ले जाकर डाला था वह गढ़ा नरकसे भी अधिक दुर्ग
धमय था इसलिये उन्हें बड़ी व्यथा होने लगी । उन्हें उस समय सिवाय परमात्माके शरणके AS अन्य किसीका भी शरण न सूझ पड़ा इसलिये वे उन्हीके नामका जप वहां बैठकर करने लगे ॥६॥ IPE जिस बनके गढमें महाराज उपश्रेणिक पडे थे उसी बनमें एक वैवच्छ (स्थ)वास नामकी भीलोंकी
पल्ली थी। उस पल्लीका स्वामी यम ( यमदंड) नामका भीलोंका राजा था जो कि क्षत्रिय जातिका था और सदा वहींपर रहता था। राजा यमदंडकी स्त्रीका नाम विद्युन्माली था । उससे उत्पन्न एक परम सुंदरी कन्या थी जिसका शुभ नाम तिलका (तिलकवती) था। क्रीडाका प्रेमी वह भिल्लराज
यमइंड उस गढेके पास आ निकला और गढेमें शोचनीय अवस्थामें पड़े राजा उपश्रेणिकको - - उसने देखा । प्रसिद्ध महाराजको इसप्रकार बुरी हालत देख वह विचारने लगा कि-देखो कर्मकी
विचित्रता, कहां तो यह राजगृहपुरका स्वामी उपश्रेणिक और कहां इसकी यह दुःखमय शोच/ नीय अवस्था ! बस वह शीघ्र ही राजाके बिलकुल पास पहुंच गया एवं मनोहर शरीरका धारक
वह मीठे प्यारे शब्दोंमें कुशल पूछने लगा। महाराज उपश्रेणिकने भी जो बात जिसतरह वोती IS थी सारी कह सुनाई । रंचमात्र भी न छिपाई क्योंकि कर्मोकी गति बड़ी विचित्र है--किस समय
VERYTIMETRY KAY KALYAN TRYSTAYEY