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________________ मल २२ YAYA मनोऽम्भोजः पूर्णचन्द्राननोऽरिजित् ।। ७३ । पत्रं संयोगापना ते पुण्यफलं महत् । भुजेतिरूम महाप्रीत्या स्योः । सुतो दुर्लभं किमयोदयात् ॥ ७४ ॥ गंधे भावोत्कटा माश्यरतिरामासमुद्भवं सुख ते भोजयामासुर्धक मार्पितं ॥ ७५ ॥ श्रुत्वापराजितो धन्येद्युः पिहितात् । चक्रायुधाय साम्राज्यं दत्वादीशिष्ट धीरधीः ॥ ७६ ॥ चक्रायुधोऽपि तद्राज्यं प्राप्याधिकतरं बभौ । चिंदन कुपलयं राजा राजवत्पालयन् प्रजाः ॥ ७७ ॥ अन्यदा विष्टरासीनो लोकयन् विप्रे सु । पलितं काखसंकाशं मस्वके दृष्टवान्नृपः ! का यशोधराका जीव देव भी कापिष्ठ स्वर्ग से चया और रानी रत्नमाला के गर्भ से रत्नायुध नामका पुत्र हुआ जो कि मन रूपी कमलको विकास करने वाले पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान था । इस प्रकार आपसमें संबंध रखनेवाले वे सिंहसेन आदिके जीव बड़े प्रेमसे पुण्य के महाफल स्वरूप सुखका भोग करने लगे ठीक ही है पुण्यके उदयसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है ॥ ७३–७४ ॥ वे सबके सब उत्तम धर्मरूपी कल्पवृक्षके द्वारा समर्पित उत्तम हाथी घोड़े मंत्री रतिके समान स्त्रियोंसे जाय मान सुखको सानन्द भोगने लगे ॥ ७५ ॥ एक दिनको वात है कि राजा अपराजितने पिहितालव नामके मुनिराज से धर्मका उपदेश सुना जिससे उन्हें संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य होगया । धोर वीर राजा अपराजितने अपने पुत्र वायुको समस्त राज्य प्रदान कर दिया और वह तत्काल दिगंबरी दोचासे दोचित होगया । ॥ ७६ ॥ अपने कुल परम्परासे प्राप्त राज्यको पाकर कुमार चक्रायुध अतिशय शोभायमान जान पड़ने लगा | उसने समस्त पृथ्वीको अपने वश कर लिया और वह पूर्ण रूपसे प्रजाका पालन करने लगा ॥ ७७ ॥ एक दिनकी बात है कि राजा चक्रायुध सानन्द राजसिंहासन पर विराजमान थे और सिंहोसनमें लगे हुए दर्पण में अपना मुख देख रहे थे अचानक ही उन्हें अपने मस्तक में एक कासके
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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