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विमल ३२३
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७८ | तदेति चिन्तयामास मानसे स विशुद्धधीः । भगतो यमदूतोऽयं मामाकारयितु ं ध्रुवं ॥ ७६ ॥ अहो आयु सर्व वैयर्थ्य मामकं वने । मल्लिकापुष्पवद्धर्म विना स्वर्गापवर्गदं ॥८०॥ त्रिया वैराग्यमापन्नश्वायुधनराधिपः । वज्रायुधे सुतेः राज्य समारोप्य बनेऽगमत् ॥ ८१ ॥ प्रात्रा जीत् पितुःपार्श्व राद्धांताऽग्लो धिपारण: । नद्यास्तीरे महारण्ये भगवानो तपोऽकरोत् ॥ ८२ ॥ वज्रायुधोऽपि तद्राज्यं दत्त्वा रत्नायुधाय च । पितुः पार्श्वेऽग्रहोोक्षां किं न कुर्वेति सात्त्विकाः || ८३॥ मुनिचक्रायुधो ध्यात्वा स्वात्मानं परमं पदं प्राप्य ज फूल के समान सफेद केश दीख पड़ा ॥ ७८ ॥ विशुद्ध बुद्धिका धारक वह राजा अपने मस्तकका सफेद केश देख इस प्रकार विचारने लगा -
मुझे बुलानेके लिये यह महाराज यमराजका दूत आपहुंचा है। नियमसे अब मुझे मृत्युका सामना करना पडेगा । जिस प्रकार वनमें मालती लताके पुष्पका होना व्यर्थ है क्योंकि वहां उसका आदर करनेवाला कोई नहीं होता उसी प्रकार स्वर्ग और मोक्षको प्रदान करनेवाले धर्मके विना मेरा भी समस्त जीवन विफल ही चला गया ॥ ७६ - ८० ॥ वह राजा चक्रायुध मन बचन काय तीनो योगोंसे संसारसे विरक्त होगया । अपने पुत्र बज्रायुध को उसने राज्य प्रदान कर दिया और वह सीधा वनकी ओर चल दिया ॥ ८१ ॥ अपने पिता मुनिराज अपराजितसे उन्होंने दिगं
दीक्षा धारण कर ली । अभ्यासकर सिद्धतिरूपी समुद्रके पारको पहुंच गये। किसी नदी के पास एक विशाल बन था उसके पहाड़की चोटी पर घोर तप तपने लगे ॥ ८२ ॥ अपने पिता के दीक्षित होजाने के बाद कुछ दिन कुमार वज्रायुधने राज्य किया । कदाचित उन्हें भी संसार से वैराग्य हो गया शीघ्र ही उन्होंने अपने पुत्र रत्नायुध को राज्य दे दिया और वे दिगम्बरी दीक्षा से दीक्षित होगये। ठीक ही है सज्जन प्रकृतिके मनुष्य जो भी उत्तम कार्य कर डालें थोड़ा हैं ||३|| जिस प्रकार धूपर्स व्याकुल पुरुष वृक्ष की छाया पाकर शांतिका अनुभव करने लगता है उसी प्रकार