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अपलया युक्ता दानवबिरसान्विताः॥१४०॥४का छक्का रदैनं कर्णाभ्यां श्रूयते नहि । नाना तूर्यारव भूयो हास्येरानन्दतालमः॥१४॥ गजाश्यसरसंभूतरजीभिरमादितो र । यतेस्म Ani में से कोयते भृश ॥ १४२ ॥ एवं महा विभूत्या स गतवा
कभृत्परः । दप्टेंबवे दूरतो वेगा-मानस्तंभ हिरण्मय' ।। १४३ ।। उत्सतार गजानव्यो विछत्रो हपरोमधुः । पश्यन् पश्यन् महाशोभी 2 मध्ये गत्वा जिनाधिपं ।।१४४ ॥ त्रिपरीत्य विधा भक्त्या स्तुत्वा गधादिभिः परः । ननाम शारिणा युक्तो मईयामास केशवः॥
सुनाई पड़ता था ॥ १४१॥ लामो और घोड़ोंकी टापोंसे उठी हुई धूलिसे सूर्य एक दम ढक गया Aथा दीख नहीं पड़ता था इसलिये दिनके अंदर भी रात जान पड़ती थी ॥ १४२ ॥ इसप्रकार IN/
विशाल विभातिसे मंडित वह अर्धचक्री स्वयंभ भगवान विमलनाथकी वंदनाके लिये चल दिया था बनमें पहुंचते ही दूरसे ही उसे सुवर्ण मयी मानस्तंभ दीख पड़ा भव्य जीव वह स्वयंभू शीघ्र ही हाथीले उतर पड़ा। छत्र चमर आदि विभू तिसे वहींपर छोड़ दी। मारे आनंदके उसका शरीर पुलकित हो गया। समवशरणकी जहां तहांकी शोभा निरखता हुआ उसने भीतर प्रवेश किया।
भगवान जिनेन्द्रकी तीन प्रदक्षिणा की महामनोहर गयोंमें स्तुति की एवं अपने भाई धर्मनाथ | - वलभद्र के साथ भक्तिपूर्वक जल आदि अष्ट द्रव्योंसे भगवान जिनेन्द्रकी पूजा की ।। १४२-१४३॥ A सबसे पहिले चक्रवर्ती स्वयंभ ने भोरोंके समूहसे व्याप्त जो कमल उनकी प्रभासे जाज्वल्यमान
सुवर्णमयी झाड़ियोंमें रवखे हुये जलकी धारासे भगवान जिनेंद्रकी पूजा की। अन्य सिद्धांतकारों से को शंका
जव जलकी एक बदके अन्दर भी असंख्याते जीव हैं ऐसा भगवान महंतके मुखसे निकले का शास्त्रों में कथन है तब धर्मके लिये जलकी स्थूल धारासे भगवान जिनेंद्रकी पूजा पुण्य कार्य कैसे IA * समझा जा सकता है ? उत्तर, जिसप्रकार अग्निकी छोटीसी कणीसे भी बड़े २ काष्ठ भस्म हो
जाते हैं उसीप्रकार भगवान महंतकी पूजासे जायमान पुण्यसे बलवान भी पापोंकी लड़ियां देखते है
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