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सुखं स्थितः ॥ ४७७ ॥ भुजानो विविधान् भोगान् निर्विघ्नं देवनाथवत् । प्रतापेन जितारीणां नारीणां लोचनांयुकृत् ॥ ४७२ सुशिष्टान् पालयामास दुष्टनाशं चकार सः । अप्सरोरुपरामाणां वक्षोजाम्भोजपट्पदः ॥ ४३२ ॥ राज्ञामाय द्भवानां स सहस्राष्टक से वितः । मंडलीकेतराणां च तावन्मार्थितः पुनः ॥ ४७३ ॥ कियत्यथ गते काले स्वयंभूराये नैधनं । वेवोत्थपापेन पाताल' सप्तमं गतः || ४७४ || श्वभ्रतं तयोदुखः कविवाचामगोचरं । तीर्थकृद्भिर्धिना तद्धि वर्ण्यते नापरं जडः ॥ ४७५ ॥ स्वयभूशोकस रातो इलो गर्गत्यमावान् । आषण्मासाघवेंः काललब्ध्या वैराग्यमाप सः ॥४७॥ गत्वा नत्वा तथा स्तुत्वा जिनं विमलवादन | दीक्षां जग्राह भावेन भावो हि सर्वतोऽधिकः || ४७३ || दुष्करं तपसो सत्रं विधाय ध्यानतत्परः । केबलोत्पादनं कृत्वा जगाम शिवमन्दिरं । करता था और दुष्टों का निग्रह करता था एवं देवांगनाओंके समान महा मनोहरांगी स्त्रियों के साथ भोग विलास करनेवाला थां ॥ ४७० - ४७५ ॥ राजा वयम्भू के आठ हजार तो आर्य राजा सेवक थे और आठ ही हजार म्लेच्छ राजा उसको सेवा करते थे। इस प्रकार बहुत काल राज्य सुख | भोगते २ राजा स्वयम्भ का अन्तकाल हो गया एवं तीव्र वैरके कारण वे भी सातवे नरकमें जाकर उत्पन्न हो गये। नरककी वेदना इतनी भयङ्कर है कि विद्वान भो कवि उसका वर्णन नहीं कर सकते। नारायण स्वयम्भू के मर जाने पर वलभद्र धर्मको सीमान्त दुःख हुआ था। शोक संतप्त बलभद्र छह महीना तक स्वयम्भू का शरीर धारण करते फिरे अन्त काल लब्धिकी कृपासे उन्हें यथार्थ मार्गका ज्ञान हुआ इसलिये तत्काल उन्हें संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया। वे बलभद्र धर्म शीघ्र ही भगवान विमलनाथ के समवसरण में गये । नमस्कार कर भगवान विमलनाथ की स्तुति की एवं भावपूर्वक दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली। ठीक ही है सब कार्योंमें भावोंकी ही प्रधानता मानी जाती है ॥ ४७३ - ४७७ ॥ वलभद्र धर्मने तीव्र तप तपा। शुभ ध्यानका आचरण किया जिससे उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हो गई और वे मोक्ष मन्दिरमें जाकर विराज गये । ग्रन्थकार तपकी महिमा वर्णन करते हुए कहते हैं कि घर के आंगन में ही स्वर्ग, राज्य धन सुन्दर रूप यशस्वीपना