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अर्हताप्तविमलेन भाषितं धार्य धीरमनसो मनोऽतरे ।। ११५॥ इत्या वृद्धिमलनाथपुराणे रलभूषणाम्नयालङ्कार वि० समवसतिसंवर्ममेकमन्दिा
समतीविनाशाचागृतरसो नाम पञ्चमः सर्गः ॥ ५॥ धारक वे मेरु और मंदिर नामके राजकुमार भगवान विमलनाथके मुखसे जायमान धर्मका स्वरूप अपने चित्तमें अच्छी तरह धारण कर अपने अपने राजमहल लोट आये ॥ ११३-११४॥ ब्रह्मकृष्णदास विरचित वृहद्विमलनाथ पुराणमें समवसरणकी रचा मेरु और मंदिर नामके राजकुमारोंका आगमन और
भगवान विमलनाथके गुखसे जायमान तत्वामत रसका उपदेश वर्णन करनेवाला पांचया सर्ग समाप्त हुआ।।५।
छठा सर्ग ।
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श्रीमन्त काश्यय नौमि लसंत श्वेतभूधरे । कोटिभेशप्रम भव्यास्त' य दृष्ट्वा चकोरवत् ॥ १॥ अर्थतौ भ्रातरौ भथ्यो प्रातरु
जो भगवान आदिनाथ वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारकी लक्ष्मीके स्वामी हैं। भरत क्षेत्रके आदि तीर्थङ्कर है । कैलाश पर्वतसे जिन्होंने मोक्षको पाया है। करोडों चन्द्रमाओंकी प्रभाके धारक A हैं एवं चकोर पक्षी जिस प्रकार चंद्रमाकी ओर टकटकी लगाये रहता है उसी प्रकार भव्य जीव जिनकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं ऐसे श्रीआदिनाथ भगवानको में भक्तिपूर्वक नमस्कार करता
हूं ॥ १ ॥ दूसरे दिन पुनः वे दोनों भाई मेरु और मन्दिर प्रातःकाल बहुत जल्दी सोकर उठ गये ए एवं बड़े ठाट वाट' और विभूतिके साथ भगवान जिनेंद्रकी वंदनाके लिये चल दिये । भगवान वि.