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________________ मिल २५० Y PEK REFERI १५ आर्न गैरा धास्थाप्राह्य विधापर' । धयं शक्लं महाध्यान मुक्तिशर्मप्रदं हित ॥ १८॥ पुतीमा चिंतन धार्न मुच्यते । बन्धनादिसमुद्र नतिन रुद्रमीरित' ॥ ॥ सूत्रार्थश्रवण यच प्रतस्यादानभावना । दानस्य तपसश्चैव धर्म्यव्यान' हि सम्मत ॥ १०॥ सङ्कल्पाद्यतिम सात्वमात्मनश्चितनं पर शुक्लथ्यानं तदाख्यातं निःसङ्क: साध्यते हि तत ॥१०॥ ४] गिरौ दरीश्मसानेषु वियरेष शिलागले । मठमन्दिरशून्येषु ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥ १०२॥ पिण्डस्धं च पदस्थ' च रूपस्थ रूपवर दो ध्यान प्रशस्त ध्यान में एवं ये दोनों मुक्तिरूपी कल्याणके प्रदान करनेवाले और परम हितकारी | हैं ॥ १७ ॥ पुत्र स्त्री और भोजन आदिका चितवन करना अर्थात् ये मुझे कब मिलेंगे और कैसे मिलेंगे इस प्रकारका विचार करना आर्तध्यान कहा जाता है। दूसरे जीवोंके वांधने मारने आदि का विचार करना रौद्रध्यान कहा जाता है। सूत्रके अर्थका श्रवण करना, व्रतोंके ग्रहण करनेकी * a भावना भाना एवं दान तथा तपके आचणकी भावना भाना धर्म्यध्यान कहा जाता है। तथा जिस . ध्यानमें समस्त संकल्प विकलोंसे रहित और निर्मल आत्माके स्वरूपका चितवन किया जाता है। वह शुक्ल ध्यान है । समस्त परिग्रहोंसे रहित मुनिगण इस ध्यानका आचरण करते हैं ॥६७-६६॥ Ka पर्वत गुफा मरघट खोलार मठ मन्दिर और शन्य स्थानोंमें शिलाओंपर वैठनेसे ध्यानकी सिद्धि होती है। पिंडस्थ पदस्थ रूपस्थ और रूपातीतके भेदसे भी ध्यानके चार भेद माने हैं । ध्यानी - पुरुषको चाहिये कि वह समस्त आरंभोंसे रहित होकर और मनको स्थिर कर ध्यानको आराधना करै ॥ १००-१०१॥ जिसको कांतिको छटा चारो ओर छटक रही है और जो सूर्यके तेजके 5 समान देदीप्यमान है ऐसे अपने आत्मरूपका जो नाभि कमलके मध्यभागमें चिंतवन करना है वह पिण्डस्थ नामका ध्यान है । तथा भालके मध्यभागमें वा करोंके मध्यभागमें हृदयमें वा गले . kal के मध्यभागमें जो अपने आत्मस्वरूपका चितवन करना है वह भी पिण्डस्थ नामका ध्यान कहा प्रया प्रयाण
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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