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या प्रकाशोऽतितरां गुरुः॥१०८॥ अतिरेको हि वर्पस्य गतमा नर' त्यजेत् । प्रतिमेधाधिय' नागेट् धोश मडलदेवता । १०६ ॥ कृणते मानिनं मा च संभ्रमेण गुरु गुरु । सिनेयः कुनामा समिति गुर... ॥ पुरस्तात्तव नागें ! याचा गोऽपि मे सुखः। अधमे नाकामा नु वर शिष्टे विपर्ययः ॥ १११ ।। इति शालदाहपतिमाशु सुमाकरकातिनामकः । अम्वरगणिपयोः परमयिष्यति निंदा जन्य दुःख भोगते रहते हैं । वे संसार में कुछ महत्त्व पूर्ण कार्य भी नहीं कर सकते इसलिये वे मिट्टी आदिके क्ने पुरुषके समान गिने जाते हैं । जिस प्रकार लो रहित दीपकको प्रकाश छोड़ देता है उसी प्रकार जो पुरुष सन्मान रहित हैं लक्ष्मी उन्हें छोड़ देती है मानहीन पुरुषोंपर उसका
प्रेम नहीं होता ॥ १०६-१०८ ॥ जिस. प्रकार निर्वद्धि पुरुषोंको प्रतिभा-उत्तम बुद्धि छोड़ देती है in a और भाग्यहीन पुरुषोंको मङ्गल देवता-लक्ष्मी आदि छोड़कर चली जाती हैं उसी प्रकार मानहीन
पुरुषोंको अभिमान भो छोड़ देता है । क्रोधी भी सन्माननीय गुरुको जिस प्रकार शिष्य मानता है। In संमाननीय पतिको जिस प्रकार स्त्री मानती है उसी प्रकार सम्माननीय महत्त्वशाली पुरुषको लक्ष्मी करती है। चण एक इस प्रकार विचार कर आदित्याभ नामक कुमारने अपने स्वामी नागेंद्रसे कहा
प्रिय नागेंद्र ! यद्यपि तुम्हारे सामने मेरी योचनाका भङ्ग हुआ है तथापि वह मेरे लिये सुखदायी है क्योंकि जो अधन पुरुष हैं उनमें यदि याचना परी भी हो जाय तब भी ठीक नहीं किन्तु : Prजो पुरुष महान हैं उनमें वह निष्फल भी चली जाय तब भी ठीक है आप एक उत्तम पुरुष हो मेरी |
याचना आपने स्वीकार नहीं की तब भी वह मेरे लिये कल्याणकारी है।।१०८-११०॥इसप्रकार जिस 5 आदित्याभ नामके नागकुमारने जयन्तके जीव नागेन्द्रके वचनोंकी पुष्टिकी वहीं आदित्याभ नाग
कुमार अपने उत्तम उपदेशसे विद्याधर विद्युदंष्ट्र और धरणेद्रके कल्याणोके करनेवाला होगा ।१११
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