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समा भववश्य वेशोऽस्य निर्भमे मुना ॥१०॥ पूर्व दुग्धैः प्रसिंख्येव सम्पध्य विषभूरूह' । उपक्रमेत को मूढः छेत्त भो लेलिहानप!॥ | विमल | ॥१२॥युक्तरोन नागेन्द्र प्रत्युवाच रविप्रम । पापीपसोऽस्य दुई त्वया पात न विद्यते ।। १०३ ॥ मदनज तपोभारभूषितांगं
दयानिधि। अबिनम्परा, संजपतममीमरस् १०४ ॥ भदोऽयं मम ईतव्यो न नियोध्यं त्वयामर । मुमुक्षंद्वातहंतारं यः स स्यात्पाप माजमं ॥ १०५ ॥ आदित्याभस्सता प्राह वैययं याचितो मया याशाभंगे गतो मानो भानमङ्ग तृणं पुमान् ॥ १०६॥ मानहीना नरा लोके दिनीयाः पदे पदे । किश्चित्कर्तु'मायकवादलोकपुरुषोपमाः ॥ १० ॥ विमानमान पमा चिजहात्येष दूरतः । शांतार्मिषं प्रदीपं
मापित वंशका कैसे संहार कर सकोगे ? सूर्यके समान देदीप्यमान आदित्याभ नामक नाग कुमार शकी यह बात सुनकर मुनिराज जयंतके जोव नागेंद्रने कला
भाई ! तुम इस अतिशय पापी विद्युबष्ट्रका कर कर्म जानते नहीं हो इसलिये इसे दयाका पात्र 5 समझ रहे हो मेरे बड़े भाई संजयन्त परम तपस्वी थे और दयाके सागर निरपराध थे इस दुष्टने 1 बिना अपराध उन्हें मार डाला है इसलिये. अपना भाईका बदला चुकानेके लिये मुझे इसे मार डा.* लना ही ठीक होगा तुम्हें इस बातमें किसी प्रकारको वाधा नहीं डालना चाहिये क्योंकि यह नीति है कि जो अपने भाईके मारने वालेको क्षमा कर देता है---उससे वदला नहीं लेता वह संसारमें पापी माना जाता है ॥६७-१०५ ॥ जयंतके जीव नागेन्द्रकी यह बात सुन आदित्याभ नामका | नागकुमार अपने मनमें विचारने लगा
मैंने जो विद्युदंष्ट्र विद्याधरकी रक्षाके लिये याचना की वह ठीक नहीं हुआ क्योंकि मुनिराज जयंतके जीव नागेंद्रने वह मेरी याचना स्वीकार नहीं की। यह नियम है जहांपर याचनाका भंग है । वहां पर सन्मानका भी भङ्ग है और जिस मनुष्यका सन्मान नहीं वह मनुष्य तृणके वरावर है। , संसारमें यह बात स्पष्ट रूपसे दीख पड़ती है कि जिन पुरुषोंका सन्मान नहीं होता वे पद २ पर
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