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मल०
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दर्शनं गते । जीवोऽयं निश्वको मूर्तिवि पं वेति दर्शनं ॥ ६५ ॥ तस्यैव निरतो चारो विशुद्धिः सा मता जिनैः । मुनीनां देवशास्त्राणां विनयश्च विधीयते ॥ ६६ ॥ अष्टादशसहस्रेषु शीलभेदेषु प्रत्यहं । अतीवारं त्यजेयानी चेतोभाव प्रकल्पितं ॥ ६७ ॥ आत्मनि नित्यताज्ञानं श्रुतस्यचावगाहनं । शानोपयोग इत्युक्तः पूर्वेश्च पूर्वसूरिभिः ॥ ६८ ॥ रामाकांचन पुत्रेषु यौवने विषयेषु च । अधिपत्येत्व आदि सोलह भावनाओंको सिंहके समान निर्भीक हो अच्छी तरह मानने लगे। मुनिराज पद्मसेनने जिन सोलह भावनाओंको भाया था उनका संक्षेपमें स्वरूप इसप्रकार हैं
१ भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट मोक्ष मार्गमें जो निर्मल रूचिका होना है उसका नाम दर्शन है निश्चल मूर्ति यह जीव उस चैतन्य स्वरूप दर्शनको जानने वाला है उसी दर्शनको जो अतिचार रहित विशुद्धि है उसे भगवान जिनेन्द्रने दर्शन विशुद्धि भावना मानी है। देव शास्त्र गुरुओमें विनय भावका रखना विनय सामनता नामकी भावना है । २ । शील के अठारह हजार भेद माने हैं उन शोलोंका जो चित्तकी भावनासे कल्पना किये तीचारोंसे रहित होकर पालन करना है वह शील व्रतेष्वनतिचार नामको भावना है । ३ । आत्मा नित्य है इस प्रकारका सदा विशुद्ध ज्ञान रखना श्रुतका अवगाहन करना वह पूर्व आचार्यों ने अभी एक ज्ञानोपयोग नामकी भावना बतलाई है । ४ । स्त्री सुवर्ण पुत्र यौवन विषय और स्वामीपनाको सदा अनित्य समझना - उनसे उदास रहना भगवान जिनेन्द्रने संवेग नामकी भावना कही है । ५ । जो धर्मात्मा पुरुष भावसे शक्ति पूर्वक दान देनेवाले हैं उनके शक्तितस्त्याग नामकी भावना होती है तथा वह दिया हुआ दान निरर्थक नहीं जाता किंतु उससे उत्तम बुद्धिकी प्राप्ती होती है उस उत्तम बुद्धिसे पुण्य और पश्चात् भी स्वसुख मिलता है । ६ । अपनी शक्ति के अनुसार मनुष्योंको सदा उत्तम तप आचरण करना चाहिये जो महानुभाव ऐसा करते हैं उनके शक्तितस्तप नामकी भावना होती है किन्तु जो ऐसा नहीं करते ध्यानसे व्यंतर जातिके नीच देव वा म्लेच्छ होते हैं और अनेक प्रकारके क्लेश भोगते हैं
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