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हिनः ॥ ८६ ॥ चिरं भुक्त्वा वहून योगान् पंचेंद्रियसुखप्रदान् । त्यक्त्या प्रांते न ये धर्म कुर्वति ते महा जड़ाः ॥८७॥चक्रिणोऽपि गताः काले चलंति स्वर्गिणोऽपि च । मरणं विद्यतेऽवश्यमतो धर्मो विधीयते ॥ ८८॥ एष्यजन्मद्वये राजन् ! भावी त्वं देव पूजितः । तीर्थरु. द्विमलो नाम्ना मलमानलोचनः ।। ८८ ॥ श्रुत्वा केवलिनो बास जहर्ष मानसे निजे । तीर्थकृज्जात एवासो पद्मसेतो नराधिपः ॥ बांधवान् बंधनेस्तुल्यान् रामाः श्वम्रप्रतोलिकाः । स्वार्थं मुख्यं विचिंत्याशु नपो वैराग्यमाश्रितः॥१॥ सर्व सामंत सामध्यं दत्वा राज्यं स्वसूनवे । पमनाभाय सप्तांगं प्रश्नाज घराधिपः ॥ १२॥ पपाठैकादशांगानि तेषामर्थाविशेषतः । नानातपः प्रभेदेन विजहार महीतलं ॥ १३ ॥ षोड़शानां निजे विते भावनानां सुभावनं चकार सिंइवन्निीरसौ सारंग लोचनः || १४ ॥ सत्तालोचनमात्र ॥ ८७ ॥ संसारमें सबसे बढ़कर विभूतिका धारक चक्रवर्ती होता है और सवोंसे अधिक सुखी देव गिने जाते हैं परंतु आयुके अंतमें उन्हें भी मृत्युके अन्दर प्रवेश करना पड़ता है इसलिये धर्मास्माओंको अवश्य धर्मका आचरण करना चाहिये ॥८८ ॥ राजन् ! इससे आगेके दो भवोमें तुम्हारे बड़े २ ऋद्धिधारी देव भी पूजा भक्ति करेंगे एवं तुम निर्मल ज्ञानरूपी लोचनके धारक तेरखें
तीर्थकर विमलनाथ होनेवाले हो ॥ ८ ॥ केवली सर्वगुप्तके इसप्रकार आनंद प्रदान करनेवाले वचन || A सुन राजा पद्मसेनको बड़ा आनंद हुआ एवं तीर्थंकर प्रकृतिसे जायमान सुखका उसोसमय अनु
भव होने लगा। उनके हृदयमें उससमय बैराग्य भावनाका उदय हो गया वह अपने समस्त बांधवोंको साक्षात् बंधनके समान समझने लगे। स्त्रियोंको महादुःख देनेवालीं नरककी गलियां
समझने लगे एवं अपने आत्मकल्याणका विचार कर वह समस्त विभतिसे एकदम विरक्त हो गये Anto-६१॥ राजा पद्मसेनके पुत्रका नाम पद्मनाभ था। समस्त साममंतोंके समक्षमें शीघ्र ही
उनने अपने पुत्र पद्मनाभको सारा राज्य संभला दिया और दिगंबरी दीक्षा धारणकर ली ॥२॥
आचारांग आदि ग्यारह अंगोंका उनने अच्छी तरह अध्ययन किया। भलेप्रकार उसके अर्थका RI विचार किया एवं अनेक प्रकार तपोंका आचरण करने वाला वह निर्द्वन्द्व होकर पृथ्वीपर विहार
करने लगा ॥ ६३ ॥ वे कमलोंके समान फूले हुए नेत्रोंके धारक मुनिराज एनसेन दर्शन विशुद्धि
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