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________________ P ITTYIYh1 दुःखी स्वर्गी भघति निश्चितं । पुण्ये पापे विभागोन रामादीनां कदाचन ॥ ८१ ॥ पंचधा नारकं दुःखं स्वयं तत्साहते स्फुटं । तत्रैव । सुखिनं कर्तुं क्षणं शक्नोति कोऽपिन ॥ ८॥ दर्शनशानचारित्रमावनाच बिचीयते । धिभावं जन्मपर्यंतं तपो भवति निष्फलं ॥ ८३ ।। अत्युग्रं जन्मपर्यंत तपोऽकारि च यत्न धा । भस्मसात्तवेद्वाजन् वाहिना हि यथा धनं ॥ ८॥ अनेन जंतुना राज्य भक्त जन्मधिवर्जितं । अनेकशस्तथाप्यस्य संतोषो नेघ जायते ॥ ४५ ॥ भोगाश्च दारुणाः सर्पवेहा इव मता जिनैः । नियंत्रस्त भयंत्येष ये रामाधनमो. भोगने वाला होता है। पुण्य और पापमें स्त्री पुत्र आदिका विभाग नहीं। अपने कियेका आप ही फल भोगना पड़ता है दूसरा स्त्रीपुत्र आदि उसमें हिस्सा नहीं घटा सकता ॥८१॥ यह जीव शरीर Kआदि संबंधी पांच प्रकारके दुःखको स्वयं अकेला ही सहता है नरकमें उसे क्षण भरके लिये भी सुखी करनेको कोई समर्थ नहीं ॥ २ ॥ जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं उनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी भावना नहीं बन सकती तथा उनका जन्मपर्यत भी तपा हुआ मिथ्याष्टि तप | निष्फल होता है ॥ ८३ ॥ जो तप क्रोधपूर्वक किया जाता है वह तप कैसा भी उत्कट क्यों न हो EN तथा जन्मपर्यंत भी क्यों न तपा गया हो परंतु वह जिसप्रकार दावाग्निसे क्षणभरमें वन भस्म हो जाता है उसीप्रकार उस क्रोधके द्वारा भस्म हो जाता है उसका कोई भी फल नहीं होता ॥८४ ॥ इस जीवने अनेक वार निष्कंटक राज्यका भोग किया है तब भी उस राज्यसे इसे संतोष नहीं हुआ है है ॥ ८५ ॥ जिसप्रकार सर्प अत्यंत भयंकर होते हैं उसीप्रकार भगवान जिनेंद्रने इन भोगोंको | कहा है इनके जालमें फंसकर प्राणिगण अपने स्वस्वरूपसे च्युत हो जाते है और संसारमें भमण A करते फिरते है तथा जो पुरुष स्त्री और धनमें मोह रखते हैं उन्हें ही अपने जीवनका सर्वख सम2 झते हैं वे तिर्यंच गतिके अन्दर उत्पन्न हो अनक क्लश भोगते हैं॥८६ ॥ स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियोंको सुख प्रदान करनेवाले बहुत प्रकारके भोगोंको चिरकाल भोगकर भी जो महानुभाव अंत |में धर्मका आचरण नहीं करते—उन भोगोंमें लिपटे रहते हैं वे संसारमें महामूर्ख माने जाते हैं खाण кектеркекккккккк
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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