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________________ 4 वेमल ЕКСКККККККККККККККККККЕ सिंधुरं मीत्वा सांकुशं तं यदाकरोत् । तदा पलाय्य मंगायातीरमागतवान् गजः ||४३ निवारितो यदा हस्ती तापसं तमसोमरत् । एतद्युक्तमयुक्तं वा भो मुने ! वद संप्रति ॥ ४६४ ॥ इत्यादिवादसंघातभावं पितुश्व स: । सात्वा कुवेदत्तो हि न्यक्षिपदग्रतो घटे ।। ४६५॥ धिग् द्रव्य पापद नीवं मुनिश्वोरायते यतः । विचार्य पितृपुत्राम्यामिति दीक्षा समाश्रितो ||४६हे श्रेणिक नराधीश ! | कायगुप्ति: स्थिता गमे । अतो व्याघट्य वगेहादागतोऽई बनांतरे ॥ ४१७॥ खेलिन्या सह भूपोऽपि ससम्यक्त्वो गृहागतः । जेनधर्म मयो भूत्वा भुमक्तिस्म सुख सुको ॥४८॥ बभूवः सप्तपुत्राश्च चेलिन्याचेंद्रसूनषः । कुणिको धारिषणश्च शिवहल्लो विहालकः ||४EE जितशत्रुः षष्ठमो जातः सप्तपरक मयते तो सामने आ एवं शो को शनि ॥ ५०० ॥ आरहा सिंधुरं मत्तं प्रावृषि च भ्रमा साथ बर्ताव किया वह युक्त था वा अयुक्त ? ॥ १६१।४६४॥ इत्यादि रूपसे जिससमय सेठ जिनदत्त और मुनिराजका आपसमें वाद विवाद हो रहा था जिनदत्तका पुत्र कुवेरदत्त भी वहां बैट था। मुनिराजके विषयमें अपने पिताके दुष्ट भाव जान शीघ्र ही उसने रत्नोंका घड़ा लाकर रख दिया एवं यह विचार कर कि-“यह द्रव्य पापोंका प्रदान करने वाला है महानीच है क्योंकि इसके संबंधसे मुनिराजको भी चोर होना पड़ता है इसलिये इसे धिक्कार है, दोनों पिता पुत्रोंको संसारसे वैराग्य हो गया एवं दोनोंने दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली। इसी कारण हे राजन् श्रेणिक मेरे कायगुप्ति न थी इसलिये मैं तुन्हारे मन्दिरमें आहार न लेकर सीधा बनको चला आया॥४६५. ४६७ ॥ तीनों मुनिराजोंके मुखसे ये वचन सुन महाराज श्रेणिकका सम्यक्त्व दृढ़ हो गया वे अपनी रामी चेलनाके साथ घर लौट आये एवं साक्षात् जैनधर्म स्वरूप होकर अनेक प्रकारके सुख भोगने लगे ॥ ४६८ ॥ महाराज श्रेणिकके रानी चोलिनीसे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे जोकि साक्षात् | इन्द्रके पुत्र समान थे उनमें पहिला पुत्र कुणिक था दूसरा वारिषेण तीसरा शिव चौथा हल्लक पांचवी विहरूलक और छठा जितशत्रु था। सातवां पुत्र मेघकुमार था और उसका वर्णन इस NET प्रकारहै
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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