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यो मोड़ी केन विम्बिताः ॥ २५ ॥ प्राक्तनो नारकः प्रान्तपृथिवीतो विनिर्गतः । अधन्यायुरहिर्भूत्वा पातालं तुनीयं गतः ॥ २६ ॥ ततो निर्गत्य तिर्यक्षु वसेषु स्थाघरे व भ्रात्वाऽस्मिन् भारते भूतरमणाख्यवनांतरे ॥ २७ ॥ ऐरावती नदीतीरे गोश्वास्ति ता पसः । शङ्खका भामिनां तस्य कराया भर्तृपमा ॥ २८ ॥ तयोर्जशे सुतः सोऽपि मृगशृङ्गाभिधो ध्रुवं । पञ्चाग्नितपः कुर्वन्नेकदा चीक्ष्य खेचरं ॥ २६ ॥ दिव्यादितिलकस्यैव पुरस्य स्वामिनं परं । श्रीअंशुमालिनं नाम्ना निदानमकरोत्कुधोः ॥ ३० ॥ यथायं रूपवान् मानी प्रताप प्राज्य राज्यवाक् । भूषामहं तवेतन्मे तपस्यायो अदः फलं ॥ ५१ ॥ अथात्र बेचराद्र ेश्च प्रोदक् थे ण्यां पुरं महत् ।
और संजयन्तका छोटा भाई जयंत हुआ जो कि निदानसे मरकर तू धरणेंद्र हुआ है इस समय तुम्हारा सम्यग्दर्शन मोहसे मलिन होगया है ठीक ही हैं मोहको वश करनेवाले संसारमे विरले ही पुरुष है ॥ २४ – २६ ॥ मन्त्री सत्यघोषका जोव वह नारकी अपनी आयुके अन्तमें सातवें नरकसे निकल सर्प हुआ। वहांको जघन्य आयु धारण कर मरा फिर तीसरे नरकका नारकी हुआ वहांसे निकल कर त्रस स्थावर रूप तियंच हुआ । इसी भरत क्षेत्रकी पृथ्वी पर एक भूत रमण नामका वन है। उसके अन्दर एक ऐरावती नामको नदी है उसके तटपर एक गोश्रृंग नामका तपस्वी रहता था। शंखिका नामकी उसकी स्त्री थी जो कि अत्यन्त रूपवती और पतिकी प्राण प्यारी थी वह सत्यघोष मंत्रीका जोब तपस्विनी शंखिकाके गर्भसे मृगशंख नामका पुत्र हुआ और प्रति दिन पंञ्चानि तप तपने लगा। एक दिनकी बात है कि दिव्य तिलक पुरका स्वामी अंशुमाली नामका विद्याधर आकाश मार्गसे जा रहा था। उसकी दिव्य विभूतिपर मृगशंख तपस्वी मोहित
होगया दुर्बुद्धि हो उसने यह निदान बाधा ---
जिस प्रकार यह विद्याधर अत्यंत रूपवान दानी प्रतापी और विशाल राज्यका स्वामी है उसी
प्रकार मैं भी हो बस मैं अपने किये हुए तपका यही फल चाहता हूं ॥ २७–३१ ॥
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