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________________ नानासंदर्भसंयुक्तमारले गगनबल्लम ॥ ३२ ॥ बजारष्ट्र समस्तन्त्र पाति तत्पत्तनं सुधीः। जम्भापतिः स्वधामेव तस्य भार्याचलप्रभा ॥17 मजा ३३ ॥ मृत्वासौ तापसो दृष्टो विद्युद्दष्ट्र सुतस्तयोः । षभूवायं स पापीयान त्वदग्रजममीमरत् ॥ ३४ ॥ वध्या कर्म चिरं दुःखमापदा प्स्यति च पर' । एवं कर्मवशाज्जतुः संसृतौ परिवर्तते ॥ ३५ ॥ पिता पुलः सुतो जाता माता भ्राता सब वसा ) को बन्युः को न वा २५९ गन्धुर्मुश्च वैरमत: फणीट ! ।। ३६ ॥ कस्य को नापकर्ताऽत्र नोपफर्ता च फस्य कः । तस्माद्वैरानुबन्धन मा कृथाः पापबन्धनं ॥ ३७ ॥ विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक गगन बल्लभ नामका नगर है जो कि विशाल है और अनेक रचनाओंसे शोभायमान है । गगन वल्लभ नगरका स्वामी राजा बज्रदंत था जो कि शोभा इन्द्रकी तुलना करता था एवं उसको खोका नाम विद्युत्प्रभा था वह दुष्ट मृगशृंग नामका तपस्वी अपनी आयुके अन्तमें मरा और रानो विद्यत्प्रमाके गर्भसे विद्यदंष्ट्र नामका पुत्र हुआ। पूर्व जन्मके वैरसे इसी दुग्टने तुम्हारे भाई संजयन्तको मारा है ॥ ३२-३३ ॥ इसने मुनिराज संजयन्तके जमारनेसे घोर कोका बंध किया है जिससे इसने यह कष्ट प्राप्त किया है और करेगा। भाई धरणेंद्र ! AE यह जीव इसी प्रकार कर्मों के जालमें फसकर इस संसारमें परिभ्रमण करता रहता है । ॥ ३४ ॥ ला देखो भाई। इस संसारमें पिता तो पुत्र हो जाता है पुत्र माता हो जाता है । माता भाई वन जाता है और भाई सास बन जाता है इसलिये तुम निश्चय समझो इस संसारमें न कोई वास्तव में । किसी बंधु है और न बैरी है अतः प्रिय नागेंद्र ! तुम्हे कभी इस विद्याधरके साथ बैर नहीं बांधना चाहिये ॥ ३५ ॥ देखो इस संसारमें कोन तो किसका अपकारी नहीं और कौन किसका उपकारी । नहीं अर्थात् हरएक दूसरेका अपकारी और उपकारी है इसलिये इसके साथ वैर बांधकर तुम वृथा तपाय वांध रहे हो ॥३६॥ प्रिय धरणेंद्र ! तुम इस विद्याधरके साथ बैर मतबांधो इसे छोड़ दो वस इस प्रकार आदित्याभके बचन सुनकर धरणेद्रका क्रोध शांत होगया॥ ३७॥ उत्तरमें उसने यह कहा Makers
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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