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________________ - महापापा परमात्मानं विधा शिवजित ॥ ५३॥ तं विलोमा पाते है भारदिनमा मन्दिरमा विएतां तत्र श्रीधरा च यशाधरा । | ५४ ॥ श्याभोऽथ प्राक्तनस्तस्मात्प्रच्युस्वाधविपाकतः । चिर' भ्रांस्वा स संसार महानजगरोऽभ रत् ॥ ५५॥ पूर्वरानुबंधेन सत्रागत्य मृमि च ते । आर्थिक क्रोधतःपापी घेर त्याज्यमतोऽगिलत् ॥५६॥ आराध्याशधनाः प्रांतेरश्मिवेयोऽमरोऽनवत् । कापिष्टकप्रभाख्ये व विमाने सत्कृताहयः ।।५७ । मृत्वा ते माथिके तन धिमाने स्थानिधे। अभृताममरी रम्यावणिमादिविभूषितौ ॥१८॥ चतुर्दश त समुद्रायुरायुयें घां प्रकीर्तितं । पञ्चपाणिप्रमागानां रूपभोगवा भृशं ॥ ५६ ॥ प्रति पपमा प्रापत्पापादजगरोहि सः। भुनक्तिस्म कृतं लगे॥ ५२-५३ ॥ मुनिराज रश्मिवेगको कांचन गुफामें इस प्रकार ध्याना रूढ सन श्रीधरा और - यशोधरा नामको दो आर्यिकायें उनके पास आई और भक्तिपूर्वक बंदना कर उनके पास बैठ गई ॥५४॥ मंत्री सत्यघोषका जोव जो कि अपने प्रवल पापसे नरक गया था वहांके दुःखोंको भोगकर वह वहांसे निकल आया । प्रबल पापके उदयसे बह संसारमें जहां तहां बहुत घूमा और कांचन गुफामें एक विशाल अजगर होगया ॥ ५५ ॥ पूर्व बैरके संवन्धसे वह अजगर मुनिराज रश्मिवेगके पास आया और क्रोधसे भबल कर मय दोनों आर्यिकाओंके मुनिराज श्मवेगको निगल गया। ॥ ५६ ॥ मुनिराज रश्मिवेगने अन्त समयमें अच्छी तरह आराधनाओंको आराधा जिससे कापिष्ट । | स्वर्गके सूर्यप्रभ नामक विमानमें वह सूर्यप्रभ नामका देव होगया ।। ५७ ॥ श्रीधरा ओर यशोधरा ka नामकी दोनों आर्यिकायें भी कापिष्ठ स्वर्गके रुचक बिमानमें जाकर देव होगई, दोनों आर्यिकाओं के जीव वे दोनों देव अत्यन्त मनोहर थे। अणिमा आदि विभूतियोंसे विभूषित थे। चौदह सागर प्रमाण आयु थी एवं मनोहर रूप और अनेक भागोंके खजाने स्वरूप वे पांच हाथ प्रमाण शरीरसे शोभायमान थे ॥ ५८-५६ ॥ मुनिराज और दोनों आर्यिकाओंके निगलनेसे उस अजगरने तीव्र पापका बंध किया था इसलिये आयुके अन्तमें उस तीब पापके उदयसे वह अजगर । - SHRES
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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