SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17 Ayyan स्वांगी स्वर्णकुम्भाभवक्षोजा अघनमंदगा ॥९७१ ॥ बहुशो पावितस्तेन विद्युदष्ट्रण तो हठात् । तल्पिता न ददौ तस्मै तदासौ संगर व्यधात् ॥ १७२ ॥ जाते महसि संग्रामे भूपालाख्येन निर्जितः । लज्जितस्तापसो भूत्वा खकार कुतपश्विर ॥ १७४ । तप्त्या मृत्या युषः प्रांत ज्योतिश्चक्र सुरोऽभवत् । स्मृत्वोपतिमायातो मम विघ्नोपशांतये ॥ १७५ ॥ एवं सम्बन्धसङ्कज्यं श्रुत्वा राजा खगोऽपि :सः । दिदीक्षाते विनेयत्वास नत्या मेरु गणाधिपं ॥ १७६ ।। पोहितोऽप्यविकारी स्यात्पुन्नागो जगतीतले । निष्पी सीक्षुरसादितः ।। १७७ ॥ परं न चन्दनः सन्नामकापिचुमग्दकादयः । न श्वेतपत्रिणो घ का धर्तते भूरयः खलाः । सहसे काव्यपर्यंत मधुर ही रस छोड़ता हैं उसी प्रकार सजनको कितनी भी पीड़ा पहुंचाई जाय बह शांत ही रहता है। संसारमें कपिचु मन्दक आदि नामोंके धारक बहुतसे वृक्ष हैं पर सभी चन्दन नहीं। तथा सभी उल्ल पक्षी सफेद पंखोंके धारक नहीं कोई कोइ ही होते हैं उसी प्रकार संसारमें दुष्ट ही बहुत हैं सजन बहुत नहीं । परम पावन उन मुनिगज मेरुने एक हजार वर्ष पर्यंत अनेक देशों में विहार IS किया। अन्तमें उन्होंने मोन सुख प्राप्त कर लियाम सम्मेदाचल पर्वतके समीपमें एक पद्म कंवल नामका नगर था। उसमें यशोघर नामका सेट रहता था और उसकी स्त्रीका नाम यशस्विनी था। सेठानी यशस्विनीको एक दिन सर्पने डस | लिया उसे मरी समझ श्मसान भूमिमें उसकी दाह क्रियाके लिये लोग लेगये। वहां पर मुनिराज मन्दर विराजमान थे। उनके पवित्र शरीरसे स्पर्शी गई पबनसे सेठानी यशस्विनीका जहर दूर हो गया जिस समय सेठानी जीती जागती उठ बैठी उस समय सबके सब इस प्रकार विचारने लगे इस मुर्दाके शरीरमें भूत प्रविष्ट होगया जान पड़ता है बस सबके सब लोग भयसे आकुलित हो गये। उन्हे आकुलित देख करोडों मांसभक्षी राक्षस वहां आगये । राक्षसोंको इसप्रकार देखकर
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy