________________
en
-
kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkika
प्रमादिवचिसामोप्ये तो प्रवनजतुर्वने ॥ १७॥ क्षीरस्रायद्धिरुत्पन्ना प्रीति करमहामुनेः । अद्भतपसा क्षामशरीरस्य दयानिधेः ॥ ११ ॥ एकदा जग्मतुः शुद्धौ साकेतस्य बनांतरे। विहन्तौ मुगो सौम्यौ तौ विद्वांसो हताइसौ ॥१७२॥ गणिका बुद्धिपणाख्या दृष्ट्या स्वगृह मान्निधौ। चर्यायं मुनि नम्य जगादेति कृतांजलिः ११७३॥ मनेऽहं कुत्सिता निंद्या दानयोग्यकुलातिगा । अस्मिन, मन्ये विधा प्राधान नवेव तपोनिधेः ।। १७४ कादवरी पल या कुले स्वप्ने न दृश्यते । नानाचारोऽपि योगोन्द्र स्तन ग्राह्या विधान्यथा । १७५॥ आय मद्वयभ्रध्दास्ते मुनयो मांसमक्षिणः । अनाचारप्रसङ्गत्वा यति व्याधसलिभा ॥ १७६ ॥ इत्ययासोन्मुनि क्ष वा प्रोच्या कुलादि । दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगये ॥ १६८-१७० ॥ अत्यन्त कृश शरीरके धारक दयाके समुद्र महामुनि प्रीतिकरके घोर तपके कारण क्षीरलाय नामको मछि प्रास होगई ॥ १७१ ॥
विद्वान समस्त पापोंके नाश करनेवाले एवं शुद्ध मुनिराज प्रीतिकर विहार करते २ एक दिन साकेत नगरके वनमें जा पहुचे। किसो दिन जब वे आहारके लिये नगरमें गये और बुद्धिपणा नामकी वेश्याने जब उन्हें चर्या पूर्वक अपने मकानके समीपसे निकलता देखा तो वह शोघ्र ही
उनके पास आई ओर इस प्रकार विनय पूर्वक निवेदन करने लगो| भगवन ! में हीन निन्दनीक और दानके योग्य कुलसे रहित हूं इसलिये तपके भंडार आप
मेरा दिया आहार तो ग्रहण कर ही नहीं सकते ? उत्तरमें मुनिराजने कहा जिस कुलमें शराब ली और मांसका स्पश स्वप्नमें भो न होगा और जहांपर किसी प्रकारका अनाचार न दोख पड़ेगा
योगीन्द्र लोग उसी कुलका आहार ग्रहण कर सकते हैं । १७२–१७५ ॥ जो मुनि मांसका - भक्षण करते हैं थे दोनों ही आश्रम से भ्रष्ट हैं अर्थात् न वे गृहस्थ हो कह जाते हैं और न मुनिहो ।
हो कहे जाते हैं क्योंकि वे अनाचारी हैं। अतएव वे भोलोंके समान निन्दनीक हैं ॥ १७६ ॥ मुनिराजके ऐसे बचन सुनकर बुद्धिषणाने पुनः यह पूछा-प्रभो ? जीवोंको उच्च गात्र उच्चकुल सुन्दर
Hina