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देहिनां स्यात्कथ ब्रूहि रूपं कीर्तिश्व भो मुने ! ॥ १७ ॥ पुनस्तां स मुनिः प्राद मद्यमांसादिवर्जनात् । ब्रह्मचर्याच्च तत्प्राप्तिनान्यथा देहिनां सुते! ।। ९७८ ॥ उदार्यति गतोऽरण्ये मुनिःप्रीतिकरो महान् । सदा तमगदीत्साधु विचित्रमतिरित्यको ॥ १७ ॥ पताचस्कार पर्यत क स्थितं भवता पदे। संजायट्टि सदा देव ! मुमुश्णां स्थिनिर्वने ॥ १८ ॥ तदा प्रीतिकरः द्रावृतांत सर्यमादितः । तस्मै न्य. वेदयत्सोऽपि श्रुत्या चानंदमागतः ॥ १८१ ॥ विचित्रमतिरन्येधुर्मुक्तये प्राविशद्गृह । क्षुदाया; सापि तं दृष्ट्या चघंटे पूर्ववन्मुनि रूप और कीर्ति किस प्रकार प्राप्त होती है कृपाकर आप खुलासा रूपसे यह वतलाइये। उत्तरमें मुनिराजने कहा
जो मनुष्य मद्य मांस और मधुके त्यागी हैं और अपनी आत्मामें ब्रह्मचर्यका बल रखते हैं | | उन्हींके उच्च गोत्र वा उच्च कुल आदिको प्राति होता है अन्यको नहीं ॥ १७७–१७८ ॥ बप्स | | इस प्रकार बुद्धिवेणाको समझा कर मुनिराज प्रोतिकर वनमें लौट आये उन्हें कुछ विलम्बसे
लोटते देख मुनिराज विचित्र मतिने कहा--- - मुने! इतनी देर तक आप किस स्थान पर ठहरे रहे थे। देव ! जो पुरुष मुमुच है-मोक्ष
प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये सदा बनमें ही रहना उचित बतलाया गया है। मुनिराज विचित्र मतिको यह बात सुन मुनिराज प्रीतिंकरने आदिसे अंत तक वेश्या बुद्धिषेणाका समस्त वृत्तांत कह
आला जिसे सुनकर मुनिराज विचित्र मतिको अति आनन्द हुआ ॥ १७६-१८१॥ दूसरे दिन IA मुनिराज विचित्र मतिभी आहारके लिये गये एवं दुर्भाग्यवश वे वेश्या नद्राके घरमें प्रवेश कर गये |
वश्याने उन्हें भी मुनिराज प्रीतिङ्करके समान जानकर बंदना की। और धर्मोपदेश सुननेका र लालसा प्रगट की परन्तु उसे देख मुनिराजका चित्त चंचल होगया इसलिये वे धमकथाको पर्वा न कर दुर्बु द्धि हो इसप्रकार काम कथा कहने लगे