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हेतषे ॥२५६ प्रश्रुत्वेति सुनतादौ विरागं प्राप भूपतिः। संसारदुःस्थिति मत्वा प्रवधाज स मागध! | २५७। तपस्यन् बहुधानंदी नन्दो नाम्ना मुनीश्वरः। विनिमासोपवासः सन् विविकांगनिवासकृत् ।। २५८॥ तपःप्रतापससे जाः स्वरूपाक्रांतभूधरः रेजे सहमधास्मेव स ऋषिकृतसंस्तुतिः ॥ २५६ ॥ ( अर्थद्वययाचो ) राजेब राजते राजा राजराजेतराजवत् । राजेष राजते राजाराज चित्तमें शांति रखकर ही शास्त्रानुसार वाह्य क्रियाओंका आचरण करना चाहिये ॥ २५६ ॥ इसप्रकार भगवान मुनिसुव्रतके मुखसे धर्मका उपदेश सुन राजा मित्रनन्दीको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य हो गया एवं संसारको अत्यन्त दुःखदायी जानकर वह उन्हीं भगवान मुनिसुव्रतके चरण
कमलोंमें दिगम्बर दीपासे धीक्षित हो गया २५ ॥ । वे मानन्द स्वरूप मित्रनन्दी नामके मुनीश्वर बहुत प्रकार तप करने लगे। दो दो मास और
तीन तीन मासोंके उपवासोंका नियम ग्रहण करने लगे एवं पर्वतकी गुफा आदि एकांत स्थान पर उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया ॥ २५८ ॥ जिसप्रकार सहस्रधात्मा सूर्य, तपःप्रतापसत्तेजाःसंताप प्रताप और उत्तम तेजका धारक होता है उसी प्रकार के मुनिराज मित्रनन्दीभी तपके प्रताप से प्राप्त जो उत्तम कांति थी उससे शोभायमान थे। जिसप्रकार सूर्य “स्वरूपाक्रांतभूधरः"अपने तेजसे पर्वतोंकी शिखर जगमगा देता है उसी प्रकार के मुनिराज भी अपनी कोर्तिसे समस्त पृथ्वी तलको ब्याप्त करनेवाले थे। जिसप्रकार सूर्य ' ऋषिकृतसंस्तुतिः' ऋषि नामके नक्षत्रोंसे स्तुति किया गया माना जाता है उसीप्रकार वे मुनिराज मित्रनन्दी भी अनेक ऋषियोंसे स्तुत थेवई २ ऋषिगण उनकी स्तुति करते थे ॥२५६॥ राजा वे मुनिराज मित्रनन्दी “राजेवराजते” राजा
लक्ष्मीवान, इव कामदेव और राजत चांदी सोने आदि पदार्थोंके अन्दर राजराजतराजवत् राजशराज कुवेर और उससे भिन्न अज-स्वयंभू के समान थे अर्थात् जो मनुष्य उनके भक्त थे और जो
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