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वमला (मा
स्वा त्यभूत्वका रबद्वक्षोरुधिगकांक्षी लि.न्या उदरे हि सः॥ ३६५। सुपेणखरदेवोऽभूत् कुणिकाल्यो निदानतः । एतस्मान्वं निर्ज नाशजर विद्धि रिक्षयात् ॥३६५॥धुस्वा जातिस्मरोजी तदा श्रेणिकभूमिपः। जैनधर्म समाधाय श्रद्दधत् स्वगृह ययौ ॥३॥ जैनधर्मरतं मत्या नवबौद्धाः समागता:राजन् ! करोषि वैज्जैन धर्म कुर्याः परीक्ष्य भो॥३७॥ सममध्येऽपिसंतानं क्षिप्त्या राही। नृपो जगौ। भोजयेति मुनीन जैनान, भातवृत्तोन्नतस्वनी ॥ ३६८ ॥ एकदा श्रय भायाता मुनयो नपसन्मनि । तदांगुलीभिरित्येवं | राजका इसप्रकार मरण सुन बड़ा दुःखित हुआ एवं उसी दुःखमें राजकाज त्यागि वह मिथ्या तपस्वी हो गया । कुतपके प्रभावसे वह मिथ्यावृष्टि देव हुआ एवं वहांसे चयकर तुम राजा श्रेणिक हुए हो। तुम्हारे बक्षस्थलके रुधिरका आकांक्षी यह सुषेणका जीव देव अपने निंदित
निदानसे रानी चेलिनीके गर्भ में अवतीर्ण हो गया है उसका नाम कुणिक होगा वह तुम्हें कठहरेके IT अन्दर वन्द रवखेगा एवं उसके निमित्तसे उस कटहरेके अन्दर ही नियमसे तुम्हारा मरण होगा P ॥३६३–३६५ ॥ मुनिराजके मुखसे अपने पूर्वभवका वृत्तांत सुन राजा श्रेणिकको भी अपने पूर्व
भव का स्मरण ही गया एवं जैनधर्मका श्रद्धानी हो वह अपने राजमहल लौट आया ।। ३६६ ।। बौद्ध साधुओंने सुना कि राजाने बौद्धधर्मका आचरण छोड़ दिया है और वह जैनधर्मका सेवक बन गया है। वे सबके सब राजाके पास आये. बहुतसी तर्क वितर्क हुई। अन्तमें जब उनकी एक भी न चली तो उन्होंने यही कहा--राजन् ! तुम जैनधर्मको धारण तो करते हैं परंतु ठीक समझ सोचकर धारण करना जिससे पीछे पश्चाताप न करना पड़ ।। ३६७ ॥ वौद्धगुरुओंके वचनोंका राजा पर कुछ असर पड़ गया। जैनधर्मकी परीक्षाका कौतहल उसके शिरपर सवार हो गया। एक दिन उसने आहारके स्थानपर रानीसे छिपाकर कुछ हड्डी आदि अपवित्र पदार्थ गढ़वा दिये
और रानीसे यह कह दिया कि तुम जैन मुनियोंको आहार दान दिया करो। रानी च लिनी बड़ी चतुर थी उसने राजाका अभिप्राय पहिचान लिया और वह चौकन्नी हो गई ॥ ३६८ ॥ एक दिन तीन मुनिराज मंदिरमें आहारके लिये आये । रानीने लीन अंगुली उठाकर यह भाव प्रगट
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