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________________ नल ० KPKVPKKKK PRAVR भूषितः श्रीधरो महत् ॥ २३० ॥ पद्मलेश्यो जिनं ध्यायन् यात्रार्थं मेरुषु वजन | नानानाट्यरसान् पश्यन् गतं कालं विवेद न ॥ २३१|| यतो मत लेखपोऽमरवधूमुखांम्भोजलिट् । निकाय कलरूपवान् बहुविलासिनीभोगगाक् ॥ ब्रतादखिलभूमिपः परमधामसौख्यालयः । अगम्यमिव किं यस्त्रिभुवने विधीयेत तत् ॥ २३२ ॥ हत्यार्षे श्रीबृहद्विमलनाथपुराणे भव्वरत्नभूषणाम्नायालङ्कारध्यक्षचारिकृष्णदास विरचिते ब्रह्ममङ्गलदास साहाय्यसापेक्षे सिंहसेनचरश्रीधर देवो त्यतिवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥ यात्रा करता था । नाना प्रकारके नाट्य रसोंको देखता था इसलिये उस दिव्य सुखमें इस बातका पता ही नहीं लगता था कि मेरा काल कहां बीत रहा है ।। २२८-२३१ ॥ ग्रन्थकार व्रतकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि इस व्रत हो की कृपास जीव देवांगनाओंके मुखकमलका आस्वादनेवाला देव हो जाता है । सुन्दर शरीर कलायें और रूपका धारक होता है। भांति भांतिकी सुन्दर स्त्रियोंका भोक्ता होता है । समस्त पृथ्वीका स्वामी मोचसुखका स्थान होता है विशेष क्या तीनों लोक में ऐसी कोई चीज नहीं जो इस व्रतके अगम्य हो अर्थात् व्रताचरणकी कृपासे जीवों को सब बातें सुलभ रूपसे मिल जाती हैं। धर्मात्माओंको चाहिये कि वे व्रताचरण से एक क्षण भी अपने चित्तको विमुख न करें ॥ ३३२ ॥ इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषणकी आम्नायके अलंकारस्वरूप मंगलदासकी सहायतासे मकृष्णदास विरंचित वृहत् विमलनाथपुराण में सिंहसेन के जीव श्रीवर देवकी विभूतिका वर्णन करनेवाला सातवां सर्ग समाप्त ॥ ७ ॥ Han ReaPAKYA यतयतय
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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