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________________ आठवां सर्ग । 64 मादिव पर ज्योतिः सिद्ध' सार्थगोचरं । शिक्षोद्धार जमत्कार गोपाऱ्या संस्मराम्यहं॥१॥ अर्थचान वने व्याधो नाम्ना गासवानिति । द्वाट्या तं पतितं नागं तुतोष हृदये निजे ॥२॥ शुक्तिजामि रदौ तस्य भूरिजांसि चोन्नती। आदाय पतवान् सिंहपसने शवराप्रणीः ॥ ३॥ धनमित्रोऽस्ति तोच राजश्रेष्ठी शुभाशयः । ददौ तस्मै स सौ तानि बहुमूल्यानि चादरात् ॥ ४ ।। पूर्ण. चन्द्रमहीशाय सोऽपि श्रेष्ठी ददौ मुझ । शुक्तिजानि च दन्तौ द्वौ शुक्रतेजांसि सुन्दरौ ॥ ५ ॥ पूर्णच'द्रोऽपि तवय्या व्यधात्यादवतुष्टयं ___ जो भगवान ऋषभदेव उत्कृष्ट ज्योतीस्वरूप हैं । समस्त कम्मों से रहित सिद्धस्वरूप हैं । समस्त पदार्थोंके जानकार सर्वज्ञ हैं । जगतमें वास्तविक शिक्षा प्रदान करनेवाले हैं और गोपबड़े २ मुनियोंसे स्तुत है उन भगवान ऋषभदेवको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥ १॥ जिस बनमें हाथी अशनिघोष मरा था उसी वनमें शृगालवान नामका एक भील रहता था । हाथीको | ISI इसप्रकार मरा देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। अत्यन्त देदीप्यमान गजमोती और दांत उसने ले लिये और वह राजा पूर्णचन्द्रकी राजधानी सिंहपुरकी ओर चल दिया ॥ २-३॥ सिंहपुरमें उससमय एक धनमित्र नामका सेठ रहता था जो कि राज सेठ था ओर उत्तम हृदयका था । भीलने दोनों दांत और गजमोती जो ; बहुमूल्य थे उस सेटको जाकर दे दिये ॥ ४॥ राजसेठ धमित्रने द भी उसे बहुमूल्य बस्तु २ . क राजा पूर्णचन्द्रकी भेंट कर दिये उन्हें देखकर पूर्णचन्द्र वड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि वे गजमोला क विमानके समान देदीप्यमान थे और दोनों दांत परम सुन्दर थे IS.॥५॥ रति प्रेमी और शोभामें कुबेरकी उपमा धारण करनेवाले राजा पूर्णचन्द्रने उन दोनों दांतों हिपहपरण्यायपाडया VERYKhadkarkaise
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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