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मालाद्विलोक्य च मामरं । कुग्भूर्धानमापत्स्थं जिनदतानचांकथत् ॥ ४२३ ॥ हाहा चक्रस्तदा सर्वे संभूयागत्य नभ्य च । उयुधृत्य मां करे: पुर्यामानयन् श्रायकाः शुभाः || ४२४ ॥ जिनदचालये भक्तया स्वापयामास मां नृप ! | जिनदशो भिषजं भव्यं पश्च्छौषधमादरात ॥ १२५ ॥ वैद्योप्यलीलपत्सत्यं लक्षमूलागते चरितु । तैलाच्छांतिभंषित्री न तत् क्वास्ते कथयेति मां ॥ ४२६ ॥ इति पृष्टः प्रागदधः सोमशर्मा गृहेऽस्ति तत् । तदा नेतुं गतस्तस्य गेहे गहनकार्यवित् ॥ ४२७ ॥ तद्भार्यामवीदेवं नाम्ना तु कारिकां प्रति । है स्वस उस वनके मालीने मुझे देखा मुझे महा दुःखित जान शीघ्रही उस नगर निवासी जैनियों के पास पहुचा और सारा हाल कह सुनाया । मेरी यह भयंकर अवस्था सुन ये सबके सब हा हा करने लगे । सबके सब मिलकर श्मसान भूमिमें आये । मुझे नमस्कार किया। अपने हाथोंसे उठाकर वे भव्य श्रावक मुझे उज्जयिनी ले आये। जिनदत्त नामक सेठके घर में मुझे लाकर रख दिया । जिनदत्तने एक वैद्यसे मेरी नीरोगताकी आशासे औषध पूछी। उत्तर में वैद्यने भी बड़े प्रेमसे यह कहा कि--- प्रिय वैश्य सरदार ! लाक्षामूल तेलके बिना इस दाहकी शांति नहीं हो सकती इसलिये तुम्हें लाक्षामूल तेल जाना चाहिये । वैद्यराजकी यह बात सुन जिनदत्तने कहा - लातामूल तेल तो यहां पर है नही कहिये कहां वह मिलेगा जिससे मैं उसे ले आऊं ? उत्तरमें वैद्यराजने कहा-यहां एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता है उसके घर में लातामूल तेल मिल सकता है । भव्य जिनदत्त लाचामूल तेलके विना दाहको आागका मिटना अति कठिन जान वह शीघ्र ही सोमशर्माके घर गया। उसकी स्त्रीका नाम तुकारी था उससे जाकर इसप्रकार कहने लगा-
बहिन ! तुमने गुणोंकी भंडार और अनेक कला कौशलोंकी खजाना हो ? मुनिराजका सारा मस्तक किसो दुष्टने जला दिया है। दाहकी बड़ी भारी आग भैरा रही है । उसको नाश करने वाला तुम्हारे यहां लाक्षामूल तेल सुना है इसलिये कृपाकर जितना उसका मूल्य हो वह लेकर मुझे दे दो बड़ा उपकार होगा। उत्तरमें तु कारीने कहा--भाइ जिनदत्त ! मैं मूल्य नहीं ले सकती
स्तनयत
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