SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = КүЕКРЕКСЕРКЕКЕРКЕККЕ INस्त्वं गुणागारा कौशलान्वितधिप्रहा ।। ४२८ ॥. मुमुक्षयाघनासाथ देहि तेले सुमूल्यतः । तदा तु प्राह तुकारी मूल्यं गृहाम्यहे नहि ॥ ४२६ ॥ विद्यतेऽहालिकायां भी कांचकुभा ममेव हि । यावत्प्रयोजनं कुंभ गृहाण त्यं तद्तरात् ॥ ४३० ॥ गत्या गृहाति भन्नः स कांच |कुभो मनोहर: । तदागत्य भिया प्राह भगिनि ? भग्नो हि कुम्भकः ॥ ४३१ ॥ तदा सा प्राह है भ्रात हाण त्वं द्वितीयकं । यदा जिघृ. 1 क्षति नूनं तदा भन्नी द्वितीयकः ॥४३२॥ एवं कुभाश्च सप्तव भग्नास्तस्या न क्रुदभूत् । तदाश्चर्य समाथ्याशु तां पप्रच्छेति कारणं ॥४३३ हे मातरीदशी शांति, नाघपि न दृश्यते । सावीवददहं भ्रातरभोजं तत्फलं यतः ॥ ४३४ ॥ अशीशममतः कोथं प्राह सोऽपि कथं स्त्र मेरी अटारीमें बहुतसी तेलकी भरी शीशियां रक्खी हैं तुम्हें जितने तेलकी भावश्यकता हो उसके भीतरसे उठाकर ले जाओ ॥४२३--४२६ ॥ तुकारीका यह सजन स्वभाव जान जिनदत्त बड़ा l प्रसन्न हुआ। वह ऊपर अटारीमें बढ़ गया। ज्यों ही उसने एक शीशी तेलकीभरी उठाई दिनारी होने के कारण वह तत्काल टूट गई । शीशीको टुटी देख जिनदत्त भयसे कंपित होगया । डरता | वह तुकारीके पास आया और कहने लगा–बहिन ! वह शीशी तो फूट गई ? उत्तरमें तुकारी | ने कहा-भाई ! यदि वह फूट गई तो और दूसरी ले जाओ। जिनदत्तने दूसरी भी उठाई परंतु । वह भी फूट गई। जिनदत्तने फिर तुकारीसे उसके फूटनेका समाचार कहा । उत्तरमें तुकारीने फिर भी अपने सज्जन स्वभावसे यही कहा अच्छा भाई ! यदि वह दूसरी शीशी फूट गई तो तुम तीसरी ले जाओ। जिनदत्तने फिर भी तीसरी शीशी उठाई परंतु फिर भी वह फूट गई इसप्रकार बराबर सात शीशी तक फूटत चली गई एवं वह तुकारी बराबर दूसरी दूसरी प्रहण करनेकी । आज्ञा देती गई। उसे रंचमात्र भी क्रोध नहीं आया । तुकारीकी यह लोकोत्तर क्षमा देखकर सेठ जिनदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ इसलिये प्रेमसे गद्गद हो वह इसप्रकार कहने न लगा हे माता ! जैसी अद्वितीय क्षमा तुम्हारे अन्दर विद्यमान है वैसी किसी मुनिके अन्दर भी जल्दी नहीं दीख पड़ती। सात शीशियोंके फूटनेसे तुम्हारी बहुत हानि हुई है तथापि तुम्हें तनिक Жүкккккккккккккккккккккк
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy