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________________ मल Рkkerkekүү%EKYktkritkeы A सागर । अधिगम्य गुरु वेगाधु दिदीलाई नराधिप ! ५४१६॥ तपस्यन्नेकदा भूप! बोज्जयिन्याः श्मसानके। भ्यानसिद्धप स्थितस्ता वन्मंत्रसिद्धः समागतः ॥ ४१७ ॥ कौलिकोऽस्थिभराभूगनूषितो भूतसेषकः । बैतालीयमहाविद्या सिद्धयर्थ नग्नरूपकः ॥ ४१८ । (युग्म) | मह कुणपं मत्वा द्वितीय चौरमस्तक । आनीयायोजयत्पश्चान्मम मूनि पकौलिकः ॥४१॥ चुलही शीर्ष ममैव तां कृत्वैव रंधनाय च। पायसस्य ततो मंत्री संजज्याल धनंजय ॥४२॥ यथाग्निचलते तत्र शीर्य मे व्ययते तथा । तद्दाहं नारकोभूनदुःख संस्मृत्य ध्यानवान् ॥ ४२१॥ शिरासंकोचयोगेनोभीभूय च करौ मम । दंडवत्संस्थितौ मूर्ध्नि दुग्धपाते पलायितः ॥ ४२२ ॥ दिनरावोदये K के ऐसे वचन सुन मैंने ज्ञानके भंडार अपने पुत्रको शीघ्र राज्य प्रदान कर दिया । शीघ्र अपने गुरु के पास चला गया और मैंने दिगंबरो दीक्षा धारण करली ॥ ४१६ ॥ राजन् ! विहार करता करता में एक दिन उज्जयिनी नगरी जा पहुंचा और उसकी श्मसान भूमिमें ध्यानकी सिद्धिके लिये निश्चलरूपसे स्थिर हो गया। उसीसमय एक कौलिक ( कोरिया) मन्त्रवादी जो कि हडूडियोंके | La भूषणोंसे भूषित था। भूतोंका सेवक था और नग्नरूपका धारक था। महाचैतालीय विद्या सिद्ध करनेके लिये वहां आया। मेरे शरीरको उसने मुर्दे का शरीर समझा । कहींसे वह एक दूसरा मस्तक उठा लाया और उसने पीछेसे मेरे मस्तकके साथ जोड़ दिया। खीर पकाने के लिये उसने मेरे मस्तकको ही चूल बनाई और उसने अग्नि जलानी प्रारंभ कर दी॥ ४१७--४२० ॥ जैसी जैसी वह भयंकर अग्नि जलने लगी मेरे मस्तककी पीड़ा भी बढ़ती चली गई। वह सदाका दुःख मुझे नरकका दुःख जान पड़ने लगा इसलिये उसकी ओरसे हटकर मैंने अपने | चित्तको आरमखरूपके चिन्तवनमें लगाया ॥ ४२ ॥ अग्निके सम्बन्धसे नसोंके संकुचित हो जानेसे मेरे दोनों हाथ ऊपरको उठकर दंडाकार सीधे खडे हो गये । मेरे मस्तकपर जो रांधनेका पात्र रक्खा था नीचे गिर गया उसका दूध फैल गया, यह देख वह मंत्रवादी कौलिक भयसे भाग गया। ४२२ ॥ मेरा सारा मस्तक दग्ध हो चुका था। प्रातःकाल होते ही पहYLERYKURYAsi
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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