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त्यधिलोचनं । तेनेष ज्ञायते सर्वमन्येषां तद्धिमो भवेत् ॥४०॥धुत्वा प्रशस्य धर्म व जनं सांतया सह |गत्वा पप्रच्छ वृत्तांतं नत्वा प्रोमणिमालिनं ॥ ४१०॥ मगृहात्त्य कर्यकार निःस्तो भोजनाते । मुमुक्षवनं प्राह राजानं राजराजितं ॥११॥ चेलिन्या विहितं मत्वा कायगुप्तिन मे यतः । अतः स्थित न राजेंद्र ! शृणु तद्व समादरात् ॥४२॥ मणिविषये रम्ये मणिवत्पत्तने त्वथा मणिमाल्यहक राजा गुणमाला प्रिया मम ।। ४१३ ॥ मणिशखरपुत्रोऽभूत् राजराज पापंणात् । एवं भोगान प्रभुजानो गतं कालं न वेदम्यहं ।। ४१४५
एकदा कांतया केशान् विरुलयत्या ममोवित । यमदुतः समायातः आगदात्महितं कुरु ॥ ४१५ ॥ तदा राज्ये नियोज्यान पुत्रं च मान | अवधिज्ञानके विषयभूत पदार्थोको जानते हैं किंतु जिनके तीन गुप्तियां नहीं होती उनके अवधि |
ज्ञान भी नहीं होता ॥ ०१-४०६॥ मुनिराज जिनपालके ये बचन सुन महाराज श्रेणिकने जैन
धर्मको बड़ो भारी प्रशंसा की। वे रानी चेलिनीके साथ वहांसे उठकर मुनिराज मणिमालीके पास से Sगये और उनसे इसप्रकार पूछने लगे--
पूज्य मुनिराज ! राजमन्दिरमें आप आहारके लिये पधारे थे परंतु आहार विना ही लिये आप म्यों चले आये ? उत्तरमें मुनिराज मणिमालिनीने कहा-- रानी चेलिनीने तीन अङ्गलियां उठा
कर यह प्रकट किया था कि तीन गुप्तियोंके धारक मुनिराज मेरे मन्दिरमें आहारके लिए विगजें हीरे कायगुप्ति थी नहीं इसलिए हे राजेन्द्र ! में राजमन्दिरमें आहारके लिए न ठहर सका। मेरे
हायगुप्ति क्यों नहीं थी इसका खुलासा इसप्रकार हैd इसी पृथिवीपर एक मणिवत नामका देश है। उसमें एक मणिवत ही नामका नगर है।
महांका में मणिमाली नामका राजा था। मरी स्त्रीका नाम गुणमाला था और मेरे पुत्रका नाम
मणिशेखर था जो कि कुवेरकी उपमा धारण करता था इसप्रकार में सुखपूर्वक भोगोंको भोगता *था और काल कहां चला जा रहा है ? यह म झे तनिक भी नहीं सूझ पड़ता था ॥४१०--४१४॥ मेस्त्री गुणमाला एक दिन मेरे केश संभाल रही थी। एक सफेद, केश देख कर उसने कहायमराजका दूत आ पहुंचा है अब शीघ्र आत्माका हित करना उचित होगा ॥ ४१५ ॥ अपनी रानी
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