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. विषयपत्र
भूमितिलकपुरे राजा प्रजापालोऽस्ति धोधनः । ३८६ ॥ तस्यैव धारिणी जाया मृगांकाख्या सुताभवत् । वृत्तोन्नत नितंबा च मध्य झोमोरसि पृथः ।। ३८७१ प्रद्योतनो राजा ध्रुत्वा तामतिरूपिणी । ययाच सादर पित्रा नो दत्ता दर्पधारिणा ।।३८८५ चतुरंगवला. भीतो दुर्दमा बचाल सः । कमेण तत्पुरं प्राप्य वेष्ट बालानवलः । ३८सायन घने तयोर्जातोरणोरणविदोःपुनः॥३०॥(षट्पदी) कैततितमूनो योगुच्यते नरास्तदा । महारणसमुद्रस्मिन् पतद्दतिमहाशिले ॥ ३१॥ बहुयारक्ष युद्धे हारितः हि प्रतापपाक। ३६२॥(षट्पदी विषयणस्तिष्ठो यायत्तावन्मा च बनागतं । जिन बनपालाय श्रुत्वा चंदितुमाययौ ।३६३.। इत्यं जगाद नत्वा मां पाहि त्वं शरणागतं । सेवक,दुःखितं मत्वा ध्रुवंचितां निवारय ।। ३६४ ॥ तदाकागध्वनिहिं वनदेवतया कृतः । प्रजापाल ? भय मागाः चंडयोतन क्राधसे भबक गया । राजा वसुपालको वश करने के लिये वह चतुरंग सेनासे व्याप्त हो मितिलक पुरको ओर चलदिया एवं अपनी बलवान संनासे चारो ओरसे पुर धेरलिया ॥ ३८४३८६ ।। दोनों ही राजा रणकुशल थे। दोनोंका आपसमें प्रतिदिन युद्ध होने लगा। उस महारण | रूपो समुद्र में जिनके मस्तक भालोंसे कटे हुये हैं ऐसे पुरुष युद्ध करने लगे। शत्रोंके कठोर प्रहारों से बड़ी बड़ी हाथीरूपी महाशिलायें पड़ने लगीं। बहुतसे वीरोंका नय होने लगा ऐसे भयंकर संग्राममें राजा प्रजापालको हार खानी पड़ी ॥३६०-३१२॥ हारकर प्रजापाल खिन्न हो घरमें। ठा हो था कि बनपालकेमु बसे उसने मुझ जिनपालका वनमें आना सुना और मेरो वंदना के लिये चल दिया एवं मेरे पास आकर और नमस्कार कर वह इसप्रकार विनयपूर्वक कहने लगा- भगवन् ! मैं आपके शरणमें आया हुआ हूँ आप मेरी रक्षा कीजिये । सेवकको दुःखो जान - उसमी शोघ चिंता मेटिये में तो उससमय कुछ भी नहीं बोला परंतु वनदेवताकी ओरसे यह
आकाश ध्वनि हुई कि--प्रजापाल ! तुम किसी प्रकारका भय मत करो विजय तुम्हारा ही होगा। राजाप्रजापालने वन देवताको इस ध्वनिको मुनिका वचन जानकर और यह पक्का श्रद्धान कर कि | मुनियोंका वचन सत्य होता है, वह अपने राजमहल लौट गया एवं नयारी कर
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