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बल० ३१
ANAYAYA
भार्या गाख्या तयाऽहं स्थापियोऽदने । यदेव दीयते लेयन स्पेरं ममेव हि ||३८६ ॥ तदा मत्करतः सिक्यं प्रति वीर वेगसः ति यदा सिक्थे तदंगुष्ठों विलोकितः ॥ ३८२॥ तदा सम्मार मन्नार्या अंगुल कर्मपाकतः । अतो में मानसी गुप्तिर्न स्थिता नर | नायक ! | ३८३ ॥ श्रुत्वोत्तस्थौ तदा राजा गत्वा नत्वा मुहुर्मुहुः । जिनपालं पप्रच्छेति ध्यायतं वृषभं प्रभु ॥ ३८४॥ मुने ! मनुगृ मागतो घर । वाग्गोपिनी नमास्ते नो अतो न स्थितवान् ! ॥ ३८५ ॥ कथं तदा मुनिः प्राह श्रृणु त्वं काश्यपोपते ! |
ठेके देखनेसे मुझे अपनो स्त्रीके ठेका स्मरण उठ आया एवं सहसा मेरे मन में यह भावना हो कि यह ऐसा ही सुन्दर अङ्गठा मेरी रानीका था। बस राजन् ! उसदिन से आज तक मेरे मनोयुतिका उदय नहीं हुआ इसलिये तीनो गुप्तियों के न रहने के कारण मैं राज मंदिरमें आहारके लिये न ठहर सका ।। ३७५-३८३ ॥ मुनिराज धर्मघोषको कथा सुन राजा श्रेणिक उन्हें नमस्कार कर वहाँसे उठे। जिनपाल नामक मुनिराज के पास गये वे भगवान उस समय भगवान ऋषभदेवका ध्यानकर रहे थे राजाने पास जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और यह पूछा
पूज्य मुनिराज ! आप मेरे राजमन्दिर में आहार के लिये गये थे परंतु आहार बिना ही लिये आप चले आये इसका कारण क्या? उत्तर में सुनिराजने कहा- राजन् मेरे काय गुप्ति न थी इसलिये मैं राजमंदिर में आहार के लिये नहीं ठहरा । राजाने पुनः पछा- महाराज ! आपके काय गुप्तिका उदय क्यों नहीं हुआ ? उत्तर में मुनिराज अपना सारा हाल खुलासारूपसे इसप्रकार कहने लगे ।
भूमितिलक पुरका स्वामी राजा प्रजापाल है। उसकी पटरानीका नाम धारिणो और उससे उत्पन्न एक मृगांका नामकी कन्या है । जो कि गोल और उन्नत नितंबोंसे शोभायमान है । सूक्ष्मकटिभागकी धारक है और उसका बक्षःस्थल विशाल है । अत्यंत रूपवती जान चंडप्रयोतन नामके राजाने उसे वसुपालसे सरलता पूर्वक मांगी थी परंतु अभिमानी वसुपालने उसे नहीं दी ।
FRERERY
KAYKY