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नापति नृपो ध्रुवं । चर्षाये मगृहे स्वामिनागतो निर्वृतः कथं ॥ ३७५ ॥ जगाद मुनि कांतास्माकं ये तु गुसित्रात्मकाः ॥ ३७६ ॥ निकंतु भोजनार्थं ते नापरे कराते भृशं ॥ ३७३ ॥ (यं नास्ति नास्माभिश्च स्थितं यतः । का गुप्तिर्नास्ति युष्माकं मानसीति कथं वद ॥ ३७८ ॥ धर्मघोषस्तदा प्राह युगु राजन्निगद्यते । कलिंग विषये पुरे राजा महान् ॥ ३७६ ॥ विहरन भोजनार्थं वे कौशाम्यामममं नृप । तत्र च गरुडामिको राजमंत्री प्रवर्तते ||३८|| नामक मुनिराजके पास गये । उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं राजाने इसप्रकार उनसे पुछा स्वामिन्! आहार के लिये आप राजमंदिर पधारे थे परंतु आहार बिना ही ग्रहण किये आप वापिस क्यों चले आये। उत्तरमें मुनिराजने कहा – सुनो राजा जिससमय हम राजमंदिरमें आहार के लिये गये थे उससमय रानी चेलिनीने तीन अली उठाकर यह प्रगट किया था कि तीन 'गुप्तियों के पालक मनिराज मेरे यहां आहारके लिये तिष्ठे । जिनके तीनों गुप्तियां न हों वे न तिष्टें । हमारे तीनों गुप्तियां थीं नहीं इसलिये हम वहां आहारके लिये नहीं ठहरें । न ठहरनेका अन्य कोई कारण न था । मुनिराज के ये वचन सुन राजा श्रेणिकने पूछा- महाराज ! तीनों गुप्तियों में आपके कौंनसी गुप्ति नहीं है ? मुनिराजने कहा- हमारे मनोगुप्ति नहीं है । राजाने फिर पूछा मह राज! आपके मनोगुप्ति क्यों नहीं है । उत्तरमें मुनिराजने अपने मनोति न होनेका कारण इस प्रकार खुलासारूपसे वर्णन किया
कलिंगदेशमें एक दंतपुर नामका नगर है। मैं वहांका एक बहुत बड़ा राजा था। भोजनके लिये विहार करता करता में एक दिन कौशांबी नगरीमें जा निकला। वहां के राजा के मंत्रोका नाम गरुड्रदत्त था और उसकी स्त्री गरुड़दत्ता थी। गरुड़दत्ताने मुझे आहारके लिये ठहरा लिया और विधिपूर्वक वह मुझे आहार देने लगी । जिससमय वह केवल मुझे ही आहार दे रही थी प्रबल कर्मके उदयसे एक ग्रास मेरे हाथसे नीचे जमीन पर गिर गया। ग्रासके गिरते ही मेरीढ़ ष्टि | भी उस ग्रासपर पड़ी । रमणी गरुड़दत्ताका पैर का अंगूठा मुझे दीख पड़ा कर्मकी प्रबलतासे उस
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