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॥४८॥ अतिक्रम्यारात्र स मंदिरं च समाययौ । द्वाराऽवीभपात्कांतां भो भो कमललोचने! ॥ ४४६ । उद्धाट्यत सवार यूयं मोद्घाटितं यदा।रै उद्धारय द्वारत्वं तदाई निर्गता गृहात १५०॥ सभूषां मांसमालोक्य चौरैनीत्वार्धरात्रके । भीमभिल्लाय दत्ता है स्वामिने परमादरात् ॥ ४५१ ।। तेन प्रोक्तं त्व वाले ! मे पत्नी भव निश्चित । मयेत्युक्त तदा भीम ! युक्त न कुत्टयोषितां ।। ४५२ । तदा कामाकुलो भूत्या समागत्य सुवलाति । वनदेव्या तदाताडि सेवका अपि ताडिता ।। ४५३ ॥ देवाः शीलं प्रशंसंति वालमत्र स्कु
रत्यतः । चक्रवर्तित्वं स्वगत्वं शिवत्वं दुर्लभेन च ॥ ४५४ ॥ तदा कोपाकुलो भिल्ली मूल्यं लात्वा हि मां ददौ । सार्थवाहस्य दुष्टस्य A पापकनिमज्जिनः ॥ ४५५ ॥ सोऽपि मे भोजयत्येव मिष्ठान्न शर्करायुतं । पक्षे पक्षे शिरायाश्च मोचनं कुरुते मम ॥ ४५६ ॥ तच्छोः ।
प्रियकमलनयनी ! कृषाकर आप द्वार खोलें। परंतु मैंने दरबाजा नहीं खोला। मेरे खामीको क्रोध आगया इसलिये वे यह कहने लगे-मरी तू दरवजा खोल । बस मैं मारे क्रोधके भबक गई ।।
और कुछ भी न बोलकर एकदम परसे बाहिर होगई ॥ ४४८-४५० ॥ यह समय टीक आधीरात II का था ओर मैं भूषण पहिने थी इसलिये चोरोंने मुझे देख लिया । मुझे पकड़कर वे अपने स्वामी
भीम नामक भीलके पास ले गये और बड़े आदरसे भेंट कर दी॥ ४५१ ॥ मेरे सौंदर्यपर मुग्ध होकर भीमने कहा—वाले ? तू मेरी पत्नी हो। उत्तरमें मैंने कहा-भीम ! मैं कुल स्त्री हूँ कुलस्त्रियोंके |
लिये यह कार्य करना युक्त नहीं । भीम कामसे अत्यंत व्याकुल था उसने मेरी नहीं सुनी । वह बल । नपूर्वक कामसेवन करनेके लिये मेरे पास आ गया और डाट डपट करने लगा। शीलके माहात्म्यसे
वन देवता प्रगट हुई। उसने भीमको और उसके सेवकोंको फटकार डाला क्योंकि देवगण शीलको प्रशंसा करते हैं । इस संसारमें शीलसे बढ़प्पन होता है तथा इस शीलसे चक्रवर्तीपना वर्गपना मोक्षपना भी दुर्लभ नहीं ॥ ४५२-४५४ ॥ जब भील भीमकी कुछ भी नहीं चली तब वह बड़ा कोधित हुआ एवं एक ऐसे व्यापारीके साथ जो कि निरंतर पापरूपी कीचड़में फसा रहता था और अत्यंत दुष्ट था मुझे मूल्य लेकर बेच दिया ॥ ५५ ॥ वह दुष्ट प्रतिदिन मुझे शक्कर आदि मिष्टान्न
Rahalसयपतपय
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