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सुरूपिणं टूप्ट्वा कामयाक्यमुनि जगौ । भो मो.रूपकलागार ! स्त्रोग्रामाशां:प्रपूरय ॥२३॥ कि यानेन व्रतेनैव लेक्षि त्वं स्मरमदिरं ।। श्रुत्वैवं कटुकं वाक्यं षमाण मुनिरात्मवान् ॥ २३८ ॥ र र रण्डऽवल पाले ! कवं बाल दुवः । माग यलिनं मुक्त्वा रमसे त्व फर्थ परैः ॥ २३६ ॥ भोगः संभोगिमो नित्यदुःस्वदो रूपोंजकः । आद्रीयते कथं सद्भिः किण या पातपूरितः ॥ २४० ॥ शीलभंगाद्वये पापं तस्माच्च नरकं व्रजेत् । रौद्रदुःख हि तत्र स्यात्कविवाचामगोचरं ॥ २४१ ॥ अस्मत्यापोत्यवृत्तांतं कथं जानात्ययं मुनिः । इत्थं बिवार्य सततं गृहीत्वा स्वगृह ययौ ॥ २४२ ॥ पुनस्तेन तथा दूत्या द्रव्येण स्वस्य याचया । नागतां भद्रिका मत्या चिंतयामाल 4
अरी रांड मूर्ख अवला । ऐसे कड़वे वचन क्यों तु अपने मुखसे निकालती है। तुझ लज्जा नहीं आती कि शक्तिमान भी अपने स्वामोको छोड़कर तु दूसरों के साथ रमण किया करती फिरती है। देख ये दुष्ट भोग काले भुजंगके समान महा भयंकर हैं । सदा अनेक प्रकारके दुःखोंको देने | वाले हैं। सुन्दरताको नष्ट करने वाले हैं इसलिये न मालम बातसे परित तीव्रघारके समान इन सोगोंको लोग क्यों आदरकी दृष्टिस देखते हैं । अर्थात् बोतस पूर्ण घावमें विशेष खुजलो पड़ती है इसलिये उसके छेड़नेमें कुछ कुछ सुख जान पड़ता है परंतु खुजाते खुजाते घावके लोहू लुहान हो जानेसे अपरिमित दुःख भोगना पड़ता है उसी प्रकार भोगोंके छेड़े जाने पर प्रारंभमैं तो कुछ सुख जान पड़ता है परंतु परिपाकमें अपरिमित कष्ट भोगना पड़ता है इसलिये विषयभोगोंमें |
लालसा रखना अपनेको दुःखमय गढेमें घटकना है । तथा और भी यह बात है कि संसारमें स्त्री Is पुरुषोंका शील ही भूषण है इस शीलके भंगसे. पापका बंध होता है। पापसे नरक जाना होता है | 2 k वहांपर महा भयंकर दुःख भोगना पड़ता है जिसे विद्वान् भी कवि अपनी वाणीसे वर्णन नहीं कर
सकता ॥ २३६---२४१ ॥ मुनिराजको यह विचित्र बात सुन भद्रा अवाक रहगई वह मन ही मन | विचारने लगी कि यह मुनिहमारे पापकीवात कैसे जानता है ? बस उसी समय उसने शीलवत धारण कर लिया और अपने घर चली आई ॥ २४२ ॥ वसंत रोजकी तरह भद्राके घर गया परंतु उसने
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