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________________ . समयपदयपहाणा कस्यानेच बदाम्यहं ॥१६॥ सिंहसेनमहाराजपसादेन तेऽस्ति कि। छत्रसिंहासने मुक्त्वा ध्रुवं राज्यमिदं तव ॥ १७॥ धमो यशो महास्व व यात्यपहावदोषतः। विवानपि महादोष करोशित्वं कथविante |॥ भवाम्यई न शन स्ते तथापि मम सदनं । अप इनुष कर्य मूढ! विमाचारपराङ्मुख ! | एकदा रात्रिपाश्चात्ययामे पूस्कृतिमाकरोत् । तदा राक्षी स्वके चिस ततति गुणोज्वला १० ॥ जानेऽह नायमुन्मत्तः सर्वशानुगतं वदन् । अतोऽहमस्य विन्यायं न्यायं पश्यामि निश्चितं ॥ १०१ ॥ इत्यमुक्ततो राशी तुम्हारा है-तुझे इस प्रकार पर धन नहीं अपहरण करना चाहिये ॥ १७ ॥ यह बात विलकुल Ka सत्य है कि जो मनुष्य किसीको कुछ वस्तु हरण कर लेता है उसके उस अपहरण करने रूप वल-17 वान दोषसे धर्म यश और उच्चपन सब गुण एक ओर किनारा कर जाते हैं अर्थात् अपहरण करने | बाला मनुष्य धर्मात्मा यशस्वी और महान् कुछ भी नहीं माना जाता । रे ब्राह्मण मन्त्री ! विद्वान - हो कर भी तू यह घोर पातक क्यों कर रहा है। भाई ! मैं तुम्हारा किसी प्रकारका शत्रु भी नहीं हूं तथापि न मालूम तुम मेरा क्यों इस क्रूरताके साथ धन अपहरण कर रहे हो । ब्राह्मणों का जो आचार विचार है नीच कर्मकर तुम क्यों उससे विमुख होते हो॥ ६-६॥ एकदिनकी बात है कि वह रात्रि के पिछले पहरमें प्रति दिनकी तरह वडे जोरसे रो रहा था । राजा | सिंहसेनको रानो जो कि अनेक गुणोंकी भण्डार थी उसके कानमें भद्रमित्रके रोनेकी भनक पड़ी. वह भद्रमित्रका इसप्रकार दुःख जनक रोना सन मन हो मन इस प्रकार विचार करने लगी___यह जो भद्रमित्र प्रतिदिन मन्त्रोको अपने धनका ठगोवाला कह कर रोता चिल्लाता रहता है इसे लोग पागल कहते हैं, किन्तु यह पागल नहीं कहा जा सकता। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि राज दरवार में जो कुछ भी न्याय किया गया है वह सर्वथा अन्याय है-मुख देखकर ही न्याय किया गया है ॥१००-१०१॥वस ऐसा अपने मनमें दृढ़ निश्चय कर रानीने राजा सिंहसेनसे यह कहा | nd
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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