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राजा मो नराधिप ! त्वयाद्यतःपुरे स्थेयं करोम्येतत्परी
॥ १०२ ॥ प्रातरुत्थाय सा राशो विदग्धा संस्थिता रहा । तत्क्षणे स समायातः सस्यघोषों द्विजाश्रमः ॥ १०३ ॥ तव स्थापित राहया सम्माभ्यासनदानतः । ततो द्यूत समारने सार्क : तेन द्विजातिना ॥ १०४॥ पाहित्यमात्यमानन्दाद्रामंदत्वा द्विजोत्तम । मया त्वं जीयले खेतत् किं दद्यावद सांप्रत ॥ १०५ ॥ मधनं गज भूयो च स्वालङ्कारसंचयं । दधां च दारितस्तुभ्यं सत्यं जानीहि सर्वया ॥ १०६ ॥ श्रत्वाथ तद्ववो राशी रराणेति रतिप्रभा । तत्सर्व भक्ता प्रोक्त' समस्ति मम सौलप ॥ १०७ ॥ मुद्रिकां नामसंयुक्त संबद्छुरिकां पुनः । यज्ञोपवीतमस्मभ्यं देवं देव ! विदांवर ! ॥ १०८ ॥
राजन् ! परदेशी भद्रमित्रका जो न्याय हुआ है वह मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। आज आप र बासके अन्दर रहें, मैं स्वयं इस न्यायकी जांच करूंगी। दूसरे दिन प्रातः काल उठकर बुद्धिमती वह रानी एकांतमें बैठ गई। उसी समय ब्राह्मण मन्त्री सत्यघोष भी वहीं आ पहुंचा । भोजन आदि के द्वारा उसका रानीने भले प्रकार सन्मान किया। वहीं पर विठा लिया और उसके खेलना प्रारम्भ कर दिया ।। १०२ --- १०४ ॥ रानी रामदत्ता बडी हो चतुर थी उसने आनन्दमय मीठे वचनोंसे इसप्रकार सत्यघोष मन्त्रीसे कहा
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हे विप्रोंके सरदार ! यदि इस जूझमें मैं तुम्हें जीत लुंगो तो कृपाकर कहिये तुम मुझे क्या दोगे ! शीघ्र कहो ! उत्तरमें मन्त्री सत्यघोषने कहा- यदि मैं आपके साथ हार गया तो आप निश्चय समझें मैं घोड़ा धन हाथी और नानाप्रकारके वस्त्र सभी कुछ आपको प्रदान कर दूंगा ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ मन्त्री सत्यघोषकी यह बात सुनकर रतिके समान सुन्दरी रानी रामदत्ताने कहा
भद्र ! हारने पर जिन चीजोंके देनेका आपने वायदा किया 'सारी चीज मेरे यहां विद्य मान हैं। मैं इन चीजों की लालसा नहीं रखती मुझे कुछ अपूर्व ही चीज तुम्हें देनी होगी और वह यह है कि हारने पर आप मुझे अपने नामको मुद्रिका कटारी और यज्ञोपवीत प्रदान कर दें ।
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